[Hindi translation from English]
1977-01-26 1 Seminar Day 1, Questions Answers, Bordi, India
आपने जो पूछे हैं, मैं अधिकतर बिंदुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करूँगी। परन्तु मैं यह अवश्य ही कहूँगी कि आप के अधिकतर प्रश्न सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुई क्योंकि यह दिखाता है कि आपकी जिज्ञासा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो रही है, क्योंकि आप पहले से ही चक्रों के स्थूल स्वरूप जानते हैं और अब आप सूक्ष्मतर स्वरूप को जानना चाहते हैं।
अब पहला प्रश्न जो सबसे पहले लेना चाहिए, वह है, “मानव के अंदर चक्र कैसे आते हैं? किस समय? जीवन के किस चरण में?” क्योंकि यही पहला प्रश्न होना चाहिए।
यह प्रश्न कुछ इस प्रकार है कि यदि हम पूछें, “बीज के अस्तित्व में, बीजक किस समय आता है?” यह कुछ इस प्रकार है।
जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, जैसा मैंने आपको पहले बताया है, उसकी पूर्ण मृत्यु नहीं होती, उसका कुछ ही अंश मरता है, जो अधिकांश भूमि तत्व होता है। और शेष तत्व वहीं रह जाते हैं। बाकी शरीर विलुप्त हो जाता है। और हम उसे देख नहीं सकते क्योंकि यह पूर्ण मानव रूप नहीं है। यह अंदर से कम होता जाता है, और कुण्डलिनी शरीर छोड़ देती है और बाहर रहती है, शरीर के बाहर।
और आत्मा जिसे हम प्राण कहते हैं, यह भी शरीर को छोड़ देती है, और शरीर के बाहर रहती है- जो बचा हुआ शरीर है। इस नवीन शरीर की संरचना हमारे शरीर से भिन्न है। आप कह सकते हैं कि एक दीप जो बुझ हुआ है, उसमें पूरा शरीर है परन्तु प्रकाश नहीं। पर अब प्रकाश उस दीप से बाहर निकल गया है। इसी प्रकार एक मृत मनुष्य में आत्मा और कुण्डलिनी, शरीर त्याग देती है, पर वह उस शरीर के आस पास होते हैं। और यह एक महान प्रक्रिया है, जो उसके पश्चात् घटित होती है। यह विचित्र है। यह भी अविश्वासनीय लगता है कि कैसे शरीर विभिन्न तत्वों में विलीन हो जाता है।
किन्तु सबसे पहले हम देखते हैं, जब यह शरीर जो कि ऐसे ही रह जाते हैं, वह प्रेत लोक में जाते हैं। वहाँ वह बीज बन जाते हैं या वह छोटे, और छोटे होते जाते हैं, और तब तक छोटे होते हैं, जब तक एक शरीर में – एक अंडा नहीं बन जाता और जिसे आप शुक्राणु कहते हैं, एक शरीर में वह बन जातें हैं। मैं नहीं जानती कि आपने “क्रोमोसोम्स”- गुणसूत्रों का विभाजन देखा है। या यह कैसे होता है? यह एक पूर्ण विभाजन है। यदि गुणसूत्र (क्रोमोसोम) ऐसा है, तो यह एक पूर्ण लम्बवत विभाजन है और एक पूर्ण विभाजन होता है।
यही कारण है कि विवाह और वर-वधु का चयन, इन सब का बड़ा महत्व है। साधारण शरीर परमात्मा के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता। यह ऐसे घटित होता है कि आकस्मिक ही संपर्क स्थापित हो सके। उदाहरण के लिए, कोई एक अंडाणु किसी शुक्राणु के साथ जुड़ सकता है। यह उत्क्रांति के बहुत ही प्रारम्भिक स्तर पर होता है। मनुष्य में भी कुछ लोग जो अभी बहुत विकसित नहीं हैं, आप कह सकते हैं, उनमें ऐसा होता है।
पर अधिकतर अंडाणु शुक्राणुओं को अस्वीकार कर देते हैं। यह केवल उसी शुक्राणु को स्वीकार करता है जिसे स्वीकार किया जाना चाहिए। अब यह अति सूक्ष्म कार्य है। यह इतना अद्भुत है कि यह अविश्वसनीय है। हमें इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि इसमें परमात्मा कैसे कार्य कर रहे हैं। यह पूर्णत: इतना असाधारण है कि वह अंडाणु भी उन शुक्राणु को अस्वीकार करता है, करता रहता है, जो उसका दूसरा अंश न हो। और इस प्रकार बहुत से शुक्राणु और बहुत से अंडाणु व्यर्थ हो जाते हैं।
तो आप कल्पना कर सकते हैं कि वहाँ एक अद्भुत तन्त्र है, जो इसे कार्यान्वित कर रहा है। विशेष रूप से आत्मसाक्षात्कारी लोग, उनका भी पुनर्जन्म होता है, सभी दैवीय शक्तियाँ यह देखने के लिए एक हो जाती हैं कि, इस अंडाणु को एक ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ा जाए जिसके पास उचित शुक्राणु हैं, ताकि जहाँ तक उनके मिलन का सम्बंध है, उनके मिलने पर कोई समस्या न हो। और परमात्मा इन महान आत्माओं की सम्पूर्ण देखभाल करते हैं।
परमात्मा का कार्य बहुत ही अदभुत है और इसे समझना मानवीय धारणा से परे है कि कैसे परम चैतन्य संसार की सभी छोटी से छोटी चीजों की देख-रेख कर सकता है। आप इस चीज को जोड़ने जैसा इतना छोटा सा कार्य भी तब तक नहीं कर सकते हैं जब तक आप कुछ मानवीय चित्त नहीं डालते हैं। तो आप परमात्मा के चित्त की कल्पना कर सकते हैं, जो धरती माता में बहुत सारे बीज डालते हैं और आप को विशाल, बड़े वृक्ष देते हैं! मेरे कहने का अर्थ है आप उन्हें हल्के में लेते रहे हैं, परन्तु यदि आप देखें तो इसके पीछे यह अदभुत, गतिशील शक्ति भी दिखाई देगी, जो इसे सोचती है, जो इसे इतनी निपुणता से करती है। लेकिन हम सोचते हैं कि यह सब स्वचालित है और इसलिए हम इसे सह सकते हैं, और इसी तरह हम सहज योग को भी सहन कर सकते हैं, यह सोचकर कि यह सब स्वचालित है।
दूसरा प्रश्न है, “शरीर में जो चक्र हैं, वह कब स्थापित होते हैं”?
“वह शरीर में विद्यमान हैं और बने रहते हैं। निश्चित रूप से जब शरीर जन्म लेता है, इनमें हर बार सुधार होता है और एक नई खोज आरंभ होती है। और कुण्डलिनी भी, आप के हर जन्म में, देखती रहती है कि आप क्या कर रहे हैं, आपके चक्र कैसे विकसित हो रहे हैं, कैसे सब कार्यान्वित हो रहा है। और संतुलन की विधि के माध्यम से या आप के परा अनुकम्पी तन्त्र, या आप कह सकते हैं, सर्वव्यापी अचेतन से, उत्क्रांति द्वारा चक्रों को उचित आकार और उचित स्थिति में लाया जाता है।
मनुष्य गलतियां करता है। वह खोज करता है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर खोजता है। उदाहरण के लिए, वह अपनी खोज पैसे में आरम्भ कर सकता है, फिर वह सत्ता को खोजता है, फिर प्रेम की खोज आरम्भ करता है, मेरा अर्थ है कामुक प्रेम। या वह कुछ भावनात्मक अभिव्यक्ति की अपनी खोज आरम्भ कर सकता है, फिर कला में, और अन्य चीजों में। अंततः वह पाता है कि खोज सही नहीं हुई क्योकि वह अस्तित्व के आनन्द की कोई अवस्था प्राप्त नहीं कर पाया। और इस खोज से इन चक्रों का विकास और समझ बढ़ती है।
अब हमें यह जानना होगा कि यह चक्र पूर्णतया जीवंत तत्व होते हैं। क्योंकि जब किसी व्यक्ति को मृत माना जाए, उस समय सभी देवता कार्यरत स्थिति में नहीं होते हैं। परन्तु जीवित व्यक्ति के चक्र होते हैं, जिनके देवता होते हैं, जो चक्रों के विभिन्न कार्यों को करते हैं। और यह एक बहुत ही सूक्ष्म कार्य है। और इन्हें प्रतिबिम्बित दर्पण कहा जा सकता है, हमारी चेतना के विभिन्न स्तरों पर, जहाँ देवता जो कि मूल पिंड, विराट, में स्थित हैं, प्रतिबिम्बित होते हैं, और एक बार जागृत होने पर परमात्मा की योजनाओं को पूरा करना प्रारम्भ करते हैं।
कुछ मनुष्यों में जब वह खोज करते हैं तब इन चक्रों को पता चलता है कि व्यक्ति या प्राणी चीजों की अति पर जा रहा है और यह इस कारण होता है क्योंकि मानव को चुनाव की स्वतंत्रता मिली हुई है। और अपनी स्वतंत्रता में वह चरम पर चला जाता है। और चरम सीमा पर जाकर चक्र क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। चरम पर जाने को हम “पाप” कहते हैं। मध्य में होना, साधारण जीवन जीना, सरल, संतुलित जीवन और अपनी जीविका के मूल्यों पर टिके रहना, उत्तम जीवन है। पर यदि आप चरम पर जाने लगते हैं तब पाप आरम्भ होता है। और पाप, “बाईबल” में लिखा है कि “पाप का प्रतिफल मृत्यु है।” इसलिए मृत्यु होती है। अभी वास्तव में मृत्यु नहीं होती है परन्तु क्या होता है कि चक्र का कुछ अंश क्षतिग्रस्त हो जाता है। यह एक शारीरिक लालसा हो सकती है, यह मानसिक हो सकती है, यह भवनात्मक हो सकती है, यह आध्यात्मिक हो सकती है, यह कुछ भी हो सकती है।
यदि आप एक असन्तुलित समाधान के लिए कार्य कर रहे हैं तो यह चक्र विभिन्न बिंदुओं पर ग्रस्त हो जाते हैं। इस तरह आप के चक्र खराब हो जाते हैं।
यह चक्र हमारी जागरूकता के अनुसार, विभिन्न अवस्थाओं में हैं। उदाहरण के लिए एक डॉक्टर, या जैसे कि हम सभी जानते हैं, हमारे शरीर में “प्लेक्सस” या स्नायुजाल हैं। हम जानते हैं कि हमारे अन्दर विभिन्न “प्लेक्सस” हैं। जैसे आप कह सकते हैं “पेल्विक प्लेक्सस”, हमारे अंदर “सोलर प्लेक्सस” है, हमारे अंदर “एओर्टिक प्लेक्सस” है, हमारे अंदर “कार्डियक प्लेक्सस” है, हमारे अंदर “सर्वाइकल प्लेक्सस” है। हमारे अंदर “ऑप्टिक कियाजमा”, कार्य करने के लिए “लिम्बिक” क्षेत्र (मस्तिष्क में) है, या हम कह सकते हैं, “ऑप्टिक कायस्म“ पर “पिटयूटेरी और पीनियल संस्थाएं”, और फिर हमारे अंदर लिम्बिक क्षेत्र हैं, जहाँ हमारे कुछ बिंदु हैं जो सक्रिय हैं।
यह हर एक चिकित्सक जानता है क्योंकि उन्होंने कुछ बन्दरों के “लिम्बिक” क्षेत्र का परीक्षण किया है और उन्होंने पाया है कि बन्दरों के “लिम्बिक” क्षेत्र को बिजली के द्वारा उत्तेजित करने पर वह आनंदित होते है।
तो इन सभी चक्रों का, मनुष्य के शरीर में, केवल स्थूल अभिव्यक्ति से अनुभव होता है, जिन्हें हम परानुकंपी और अनुकम्पी नाड़ी के “प्लेक्सस” कहते है। वह सभी जुड़े हुए हैं जैसे कि मैने आप को बताया, अनुकम्पी नाड़ी दोनों ओर से आती हैं और मध्य नाड़ी बनाती है, और यही परानुकम्पी है। तो इन दोनों अनुकम्पी के संतुलन पर यह निर्भर करता है कि परानुकंपी भली भाँती कार्य करे। जब सन्तुलन टूटता है, तो कोई भी असन्तुलन उन दोनों को बिगाड़ सकता है और जब यह पूरी तरह से टूट जाता है, तो वह अपने में ही रह जाते हैं, और इस प्रकार मनुष्य पूर्णतः परमात्मा की अनुकम्पा से तथाकथित, स्वतंत्र हो जाता है।
एक बार जब वह हर प्रकार से उनकी कृपा से मुक्त हो जाता है
तो वह उस स्थिति में गिरने लगता है जिसे आप राक्षसी कहते हैं। वह नरक में जाता है, वह अन्य प्रकार की चेतना में जाता है जहाँ अंतरात्मा की कोई भावना, कोई चेतना नहीं है। वह पुनः विचार नहीं करता। बिना दोषी भाव के वह सौ लोगों को मार भी सकता है। वह अपना सारा भावनात्मक पक्ष खो देता है और अपनी समस्त विवेक भी खोता है। जो कुछ भी उसमें शेष रह जाता, वह हैं उसकी महत्वाकांक्षाएं और उसकी इच्छाएं या उसका …..। और वह बिना पछताए और परमात्मा या स्वधर्म के किसी बन्धन के बिना, आगे बढ़ता रहता है।
इसलिए यह चक्र हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि सबसे पहले हमें वह सन्तुलन देते हैं जिससे हमारा प्रतिदिन का अस्तित्व हो। वह हमें देते हैं …………।
और हम सूक्ष्म चीजों और निराकार चीजों के बारे में सोच सकते हैं। यह सब चक्रों की सहायता से होता है। यदि आप मुझसे पूछें कि क्या जानवरों के चक्र होते हैं? उनके होते हैं, लेकिन उनमें वह सभी एक दूसरे से अलग नहीं हैं। कभी कभी उनमें चक्र भ्रमित होते हैं, और सभी चक्र एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं और वह सभी खुले हुए नहीं होते हैं क्योंकि उनमें उत्क्रांति की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है।
लेकिन मैंने देखा है कुछ पशुओं में जागृत कुण्डलिनी होती है और वह साक्षात्कारी पशु होते हैं। मैंने ऐसा देखा है। तो यह सम्भव है, जानवरों के लिए भी, मनुष्य की तुलना में अधिक धार्मिक होना। और कभी कभी यह आश्चर्यचकित करता है कि वह मनुष्य से बेहतर भले बुरे का भेद किस प्रकार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त जानवरों को परमात्मा के बंधन में रखा गया है और उनका जो भी पालन पोषण है परमात्मा द्वारा किया जाता है, उन्हें इस विषय में सोचना नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए एक कुत्ता एक कुत्ता है, बिल्ली एक बिल्ली है और एक बाघ, बाघ ही है। केवल मनुष्य ही है जो कुत्ता हो सकता है, बिच्छू हो सकता है, सांप हो सकता है और संत हो सकता है। तो यह केवल मनुष्य में ही सम्भव है कि आप सभी जानवरों को एक साथ उसके अन्दर स्थित पा सकते हैं और किसी भी समय यह जानवर बाहर आ सकते हैं और आप स्वयं आश्चर्यचकित हो सकते हैं जिस प्रकार वह अचानक बाहर आकर आप पर कूदते हैं और आप पर भौंकना शुरू करते हैं!
तो मनुष्य ऐसे ही हैं। जो भी हमारे अतीत में हुआ वह हमारे अंदर है। हम जो भी पशु हुए हों, वह हमारे भीतर हैं। तो वह सब भी हैं। पर जो भी हम बनेगे, वह भी है। और जो कुछ भी हम प्राप्त करने जा रहे हैं, वह भी है।
मानव के लिए भविष्य, भूत, वर्तमान का अस्तित्व है, परन्तु परमात्मा के लिए नहीं। तो उनके लिए योजना बनाना और आयोजन करना और व्यवस्था करना बहुत सरल है, क्योंकि यदि आप के पास ऐसी सीमांकन करने वाली चीजें नहीं हैं तो आप चीजों को बहुत अच्छे प्रकार से व्यवस्थित करते हैं। और उनकी विधियां उनकी अपनी, आप कह सकते हैं, उनकी जागरूकता, प्रतिष्ठा, सर्वशक्तिमता के कारण है या यह केवल उनकी प्रकृति है कि वह ऐसे हैं, वह चीजों को बहुत अच्छे प्रकार से प्रबंधित कर सकते हैं। और आप किसी एक घटना के बाद दूसरी घटना के होने को समझा नहीं सकते हैं कि उन्होंने यह कैसे व्यवस्थित किया और यह कैसे घटित हुआ। वह यह केवल इसलिए करते हैं क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम हैं। उन्हें यह सब सोच समझ कर करने कि आवश्यकता नहीं है, जैसे मनुष्य करते हैं, क्योंकि उन्हें किसी भी प्रकार से सोचना नहीं है, क्योंकि वह, वही हैं। वह ही शक्ति हैं और वही सब कुछ करते हैं। वही चेतना हैं इसलिए वह बिना किसी प्रयास के सब कुछ करते हैं। और एक बहुत ही अलग स्थिति है, जिसे आप शायद सहज योगी होने के नाते समझ सकते हैं, कि बस आप अपने हाथ घुमाते हैं और आप कुण्डलिनी को दूसरी ओर ले जाते हैं! और आप कह सकते हैं, “यह क्यों बढ़ रही है?”
अंततः आप को इसके बारे में सोचना चाहिए। आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, जिस कारण आप ऐसा कर सकते हैं, पर जो पार नहीं, वह व्यक्ति नहीं कर सकता। यदि वह सौ बार भी अपने हाथ वैसे करे तो भी कुछ नहीं होगा। केवल आप ही कुण्डलिनी उठा सकते हैं! कारण – आपकी जागरूकता भिन्न है और उसकी जागरूकता भिन्न, आप की शक्तियां अलग हैं और उसकी शक्तियां अलग।
तो उसी प्रकार, परमात्मा, जो सर्वशक्तिमान है, वह मात्र अपनी उंगली घूमा कर पूरे ब्रह्मांड को हिला सकते हैं। आखिर वह परमात्मा हैं और इसीलिए मनुष्य को यह कहा जाता है कि अच्छा होगा आप परमात्मा पर विश्वास रखें। और यही आपकी समस्या को हल करने का सबसे अच्छा मार्ग है।
यदि आप उनके बारे में सोचते रहेंगे तो आप सभी पागल हो जाएंगे! तो हमें उस बिंदु तक जाना होगा जहाँ हम उन्हें समझ सकें, अन्यथा हम सभी इनको समझने में पागल हो जाएंगे और हम पागलपन में सोचने लगेंगे, “यह सब क्या है? यह हमसे परे है, यह बहुत अधिक है।”
पर क्योंकि सहज योग में अब आप की जागरूकता वास्तव में इतनी सूक्ष्म हो गई है, हम अनेक चीजों को समझ सकते हैं और परमात्मा के कार्यों की सूक्ष्मता समझ सकते हैं। और यह भी समझ सकते हैं कि सूक्षम रूप से आप के लिए क्या सम्भव है। हम सूक्ष्म चीजों पर बात कर सकते हैं लेकिन ऐसे कोई व्यक्ति से बात करना जो सहजयोगी नहीं है, कुछ पागलपन होगा! वह उसका एक शब्द भी नहीं समझ पाएंगे, जो मैं कह रही हूँ। यह उन लोगों के लिए है जो सहजयोगी हैं।
तो हम इस एक बिंदु पर आ गए जहाँ मैंने कहा कि “मोटे तौर पर यह मानव में नसों के “प्लेक्सस” के रूप में समझा जाता है।” तो अब यह स्थूल मार्ग के नाम से जाना जाता है। अब आप ने जो सूक्ष्म रूप देखा है, जिसे वह सूक्ष्म कहते हैं – सूक्ष्म रूप। सूक्ष्म रूप मनुष्य में उपस्थित है, जिसे आप देख सकते हैं–आपने इसे देखा है– जब ऊर्जा के सूक्ष्म रूप में चैतन्य का बहना आरम्भ होता है। आप स्पंदन देख चुके हैं। पर यह सूक्ष्म रूप दो प्रकार का है- एक है सूक्ष्म और दूसरा है अति सूक्ष्म, क्योंकि सूक्ष्म में आप देख सकते हैं। और एक व्यक्ति जो आत्मसाक्षात्कारी है, यदि आप एक आत्मसाक्षात्कारी हैं, तो आप चक्रों को भी देख सकते हैं, अर्थात आप अपनी उंगलियों पर चक्रों को अनुभव कर सकते हैं।
जो व्यक्ति आत्मसाक्षात्कारी नहीं है वह भी कुण्डलिनी के चैतन्य और विभिन्न चक्रों को अपनी आंखों से देख सकता है। वह ऐसा कर सकता है। यदि वह इसे ठीक से देखे तो वह विभिन्न चक्रों को स्पष्ट रूप से देख सकता है। और आप एक सहजयोगी के रूप में उन्हें अपनी उंगलियों पर अनुभव कर सकते हैं। और आप सामुहिक चेतना में भी उन्हें अपने भीतर अनुभव कर सकते हैं। यहाँ सूक्ष्मता के दूसरे चरण में, आप कह सकते हैं कि तीन चरण हैं, जिनको आप कह सकते हैं- सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम। यह तीन स्तर आप देख सकते हैं।
पहला चरण जो आप अपनी उंगलियों पर देखते हैं वह सूक्ष्मतर है। परन्तु आँखों से जो आप देखते हैं, वह सूक्ष्म है। यदि आप अपनी उंगलियां या चक्रों पर अनुभव करते हैं तो इसे आप सूक्ष्मतम कह सकते हैं। तो आप उन्हें तीन रूपों में देख सकते हैं। यदि कुछ लोग इसे उंगलियों पर अनुभव नहीं करते हैं तो वह इसे चक्रों पर भी अनुभव कर सकते हैं। तो आप इसे तीन प्रकार से अनुभव कर सकते हैं।
परन्तु एक चौथा मार्ग है, जिसे आप कह सकते हैं कारण स्थिति, कारण अवस्था में हैं। यह एक उच्च अवस्था है जिसे एक साक्षात्कारी आत्मा अनुभव कर सकती है। जो एक आत्मसाक्षात्कारी रूप में जन्मा है वह इसे अनुभव कर सकता है। और उस अवस्था में वह एक कम्प्यूटर के समान जानते हैं। वह चिंता नहीं करते हैं कि कौन क्या है, और वह हाथ या कुछ भी नहीं रखते हैं, वह बस इसे अनुभव करते हैं, यह ऐसे ही है। जैसे कि आपने मेरी नातिन की स्तिथि में देखा है, वह बस जान जाती है कि कौन क्या है। आप उससे पूछ कर देखें! वह तुरंत कहेगी, “यह ऐसा है, यह वैसा है,” इस तरह से है। यह उनके लिए स्पष्ट है, बिल्कुल!– “यह ऐसा है।”
अब आप कह सकते हैं कि यह लोग कैसे जान जाते हैं? पर यह प्रक्रिया सुदृढ़ बन जाती है– यह बस आप के साथ हो जाती है। जैसे आप मुझे यहाँ सुई चुभाएं और तुरन्त मेरा हाथ पीछे चला जायेगा। सपूर्ण स्वाभाविक स्वतः क्रिया इतनी शीघ्र होती है कि हम कह सकते हैं कि यह कोई प्रक्रिया नहीं, पर मात्र एक स्वतः क्रिया है। उसी प्रकार यह एक स्वतः क्रिया के रूप में कार्य करता है, जिस से आप को इसके उद्देश्य के बारे में चिंता न करनी पड़े।
यह वही अवस्था है जहाँ हम कहते हैं कि कारण अवस्था प्राप्त हो गयी है। और महाकारण अवस्था- अब यह तीसरा चरण है, है ना? और यहाँ तक कि कारण अवस्था में भी तीन चरण होते हैं, जिनको व्यक्ति अनुभव करता है। और यह, मैं कहूँगी कि मुझे समझाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह आप लोगों से परे है। पर यदि आप जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी हैं, आप समझ जाएंगे कि व्यक्तित्व के तीनों गुणों में असन्तुलन एक जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति तुरंत अनुभव करता है –एक दम से अनुभव होगा! वह अंदर तक देख सकता है। यह विवेक है जो उसने अपने पिछले जन्म और पूर्वजन्मों से प्राप्त किया है और तुरन्त वह आऐ हुए उस असन्तुलन को देख सकते है। और जो कुछ वह कहते हैं वह इतना बुद्धिमत्ता पूर्ण है और वह समझते हैं क्योंकि वह इन तीन गुणों के असंतुलन को देख सकते हैं।
और जो भी गुण उनमे प्रमुख हैं, उन गुणों के अनुसार, यह तीनों अवस्थाऐं उनमें स्तिथ होती हैं, जैसा कहा गया है।
उदाहरण के लिए, कुछ लोग अधिक तमोगुणीं होते हैं- अर्थात जो बहुत भावुक प्रकृति के लोग होते हैं। उनमें से कुछ बहुत ही भावुक होते हैं। इसलिए वह मनुष्य को भावना के माध्यम से देखते हैं, जैसा कि वह स्वयं अनुभव करते हैं। वह इसे भाव कहते हैं। “मेरी उस व्यक्ति के प्रति ऐसी भावना थी। मैने ऐसा अनुभव किया।” वह इस शब्द का प्रयोग करते हैं।
पर यदि वह व्यक्ति रजोगुणी है, वह रजोगुण पर कार्य करता रहा है, जैसे सूर्य की आराधना और गायत्री मन्त्र, सभी नक्षत्रों, और पंचतत्वों से प्राथना करना, इस प्रकार से। यदि वह यज्ञ और ऐसी चीजें कर रहा है, तो वह रजोगुणी है। ऐसे लोग उन्हें प्रकाश, विद्युत रूपों में देखते हैं। तो वह उन्हे रंगों और ऐसी चीजों के रूप में देखते हैं। तो कोई इसे भावनात्मक वस्तु के रूप में देखता है, दूसरा इसे रंग या चीजों के रूप में देखता है। वह उन्हें आकार, रंग, रोशनी के रूप में देखते हैं। वह विद्युत तरंग के रूप में और कुछ उन्हें विभिन्न फूलों के रूप में देखते हैं।
अब वह भावनायें और रजोगुणी भाव भी आप अपनी आँख से देख सकते हैं, जैसे कि यह सृष्टि।
परन्तु वह भी भावनायें ही हैं। तो जो लोग भवनाओं को अधिक देख सकते हैं, एक व्यक्ति जिसने बहुत प्रेम किया हो और जीवन के इस पक्ष से व्यवहार करता आया है, जो एक भक्त है, समर्पित व्यक्ति है, जो परमात्मा से प्रार्थना करता रहा है, और उसे पुकारता रहा है और उसकी सहायता मांगता रहा है, और उसके सामने अपने हृदय से रोता रहा है- ऐसा मनुष्य किसी दुसरे व्यक्ति को और अधिक अनुभव करेगा। और एक व्यक्ति जो आकारों और चीजों के प्रति अधिक समर्पित है, वह उनके आकार को भिन्न रूप से देखेगा। इसलिए तब वह उन्हें रंगों में देखते हैं, क्योंकि वह भी रंग हैं। वह रंग भी हैं और ध्वनि भी हैं।
तो ध्वनि भी तत्वों में से एक है, इसलिए उन्हें एक ध्वनि भी दिख सकती है, और वह उन्हें तब भी देखते हैं जब उनकी कुण्डलिनी गतिशील है, वह ध्वनि की गति को देख सकते हैं। जिन लोगों ने ऐसा देखा है, उनमें से हम कह सकते हैं, अधिकतर वह लोग हैं जो पातंजला पद्वति से ध्यान करते रहे हैं, जो अकेले थे, परशुराम की तरह। उन्होंने इन रूपों को देखा और उन्होंने कुण्डलिनी की गति को चक्रों के माध्यम से देखा- जब यह निकलती है, यह एक ध्वनि और एक शब्द बनाती है। और इसलिए उन्होंने हर ध्वनि का अध्ययन किया कि कैसे, किस ध्वनि का निर्माण हुआ था, क्या ध्वनि बनी, वहाँ क्या रंग था। इसलिये यह एक तरफा ज्ञान है दाहिने पक्ष वाले लोगों का, जो दाहिनी तरफ चले गए और उन्होंने कहा कि, “यह चीज रची गई, वह चीज रची गई और तब इस ध्वनि की रचना हुई।”
फिर उन्होंने भाषा का निर्माण किया– यह मूल संस्कृत भाषा थी जिसे बनाया गया। इसलिए इसे देववाणी कहा जाता है। और इसीलिये यह देवता संस्कृत को भली भांति समझते हैं। जब आप संस्कृत में मन्त्र कहते हैं तो वह उन्हें बहुत शीघ्रता से समझते हैं क्योंकि यह मूल रूप से वहीं से आए हैं। उन्होंने इसका अध्ययन किया और फिर यह समाप्त हो गया।
परन्तु भारत में अन्य भाषाओं को, अधिकांश भाषाएं को संस्कृत से लिया गया, जिसे अन्य रूप में परिवर्तित किया गया, अलग रुप में लाया गया और फिर एक दूसरी संस्कृत आई — ताकृता संस्कृत आई, फिर यह पाँच भाषाएँ आईं- मगधी, पैशाची, मराठी। यह सारी भाषाएँ आईं। तो यह उत्पन्न हुईं।
दूसरे देशों में जो अन्य भाषाएँ सामने आई, वह भी कुण्डलिनी की अभिव्यक्ति थीं। परन्तु अधिकतर उन्होंने इसे सीखा। कहा जाए तो शब्द बाहर से आए- हवा के बहने की आवाज ‘सससस’ होती है, इसलिए वह इसे ‘स’ कहते हैं, इस प्रकार से! और प्रकृति से, जो भी उन्होंने बाहर से सीखा क्योंकि उनका दृष्टिकोण अधिक वस्तुनिष्ट रहा। इसलिये वस्तुनिष्ट दृष्टिकोण सर्वदा व्यक्तिनिष्ट से कम होता है क्योंकि व्यक्तिनिष्ट भीतर से होता है और वस्तुनिष्ठ बाहर से होता है। तो जब आप वस्तुनिष्ट से होते हुए जाते हैं, अंदर से आने वाली मुख्य ध्वनि भटक जाती है, शुद्धता में थोड़ी कमी हो जाती है। और आप जानते हैं कि वस्तुनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ट दृष्टिकोण क्या है।
तो कुछ भाषाओं के साथ ऐसा हुआ है। कुछ भाषाएँ संस्कृत के बहुत अधिक निकट हैं, और उन्में भी अपने गुणों के अनुसार घुमाव आया।
अब सत्वगुणी, मध्यमार्ग या सत्वगुणी जैसे कि वह इसे कहते हैं, वह भी ऐसे लोग हैं जिनमें सत्वगुण अधिक है। वह चक्रों को सही रूप में देखते हैं। परन्तु सतगुणियों को पहचानने में उन लोगों से भ्रमित नहीं होना है, जो इस बात पर विश्वास करते हैं कि यदि आप अमुक वस्तु खाते हैं तो यह सात्विक है, यदि आप वह खाते हैं तो तामसिक है, या आप ऐसा कहते हैं तो सात्विक है, या आप किसी का वध नहीं करते है, तो यह सात्विक है। इसमें सही धारणा सामने आती है। उदाहरण के लिए, आप को यह समझाना होगा कि कृष्ण ने इतने राक्षसों को क्यों मारा। यह बिल्कुल सत्व था, यह धार्मिक है, बिल्कुल धार्मिक। दुर्गा जी ने इतने राक्षसों को क्यों मारा? उन्हें इतने राक्षसों का खून पीना पड़ा।
तो जो धार्मिक है, विवेक है, उचित मार्ग है, ऐसे लोगों के माध्यम से आता है जो न तो इस ओर अधिक हैं न ही उस ओर, और वह ठीक प्रकार से जानते हैं कि जीवन को देखने का सही ढंग क्या है।
ऐसे जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी लोग, यह बहुत ही दुर्लभ हैं, ऐसे बहुत कम हैं। मैं कहूँगी कि संभवतः बुद्ध और महावीर केवल दो ही मनुष्य ऐसे रहे हैं जो अनेक जन्मों से गुजरे। वह एक चरम से दूसरे चरम तक गए और अंततः उन्होंने पाया कि चरम सीमा पर जाना ठीक नहीं। अभी भी उन्होंने एक अवतार होने की पूर्ण उच्च पद को प्राप्त नहीं किया है।
इसलिए एक प्रतिरूप बनाया जाना था, जो हर समय मनुष्य को एक निश्चित बिंदु दे, उस स्तर तक उठने का। और यह भिन्न भिन्न प्रतिरूप हैं जिनको हमारे भीतर अपना चक्रों पर रखा गया है। और इन चक्रों से सम्बंधित बिंदुओं के लिए यह प्रतिरूप उत्तम हैं। तो वह व्यक्ति जो इन चक्रों को देख रहा है, उस की प्रकृति के अनुसार वह उन्हें देखता है और महत्व भी देता है।
अब यदि शंकराचार्य जैसे व्यक्ति के लिए कहा जाए, तो शंकराचार्य ने कई बार साक्षात्कारी आत्मा के रुप मे जन्म लिया। वह केवल एक बार ही जन्म से साक्षात्कारी नहीं हुए, पर उन्होंने अनेकों बार साक्षात्कारी रूप में जन्म लिया। और आप कह सकते हैं वह इसके मध्य में हैं। उन्हें आप उन लोगों में से एक कह सकते हैं। तो जब वह अपने मूलाधार चक्र की बात करते हैं, वह अनेक बार इस पथ पर गए हैं और अब वह उसके सूक्ष्म, सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम रूप में जा रहे हैं। इसलिए जब वह कहते हैं कि, मूलाधार चक्र खुलने पर आप पानी पर चल सकते हैं तो यह ठीक है। क्योंकि वह उत्थान की उस सूक्ष्म अवस्था पर हैं।
तो व्यक्ति को अपना उत्थान एक बार, दूसरी बार, तीसरी बार, चौथी बार करना पड़ता है, तब आप देखते हैं कि आप एक स्तर तक पहुँचते हैं जहाँ आपका उत्थान आरम्भ हो जाता है। लेकिन तब भी पानी पर चलना उतना महत्वपूर्ण नहीं है। पानी पर चलने में इतना महत्वपूर्ण क्या है? यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह सरल है, आप एक नाव ले सकते हैं और चल सकते हैं! यह इतना भी महत्वपूर्ण नहीं है! तो पानी पर चलना, अर्थात दाहिनी ओर होना। यह दाहिनी ओर की क्रिया शक्ति है – पानी पर चलना या हवा में उड़ना, यह सब दाहिनी ओर की चीजें हैं जो एक नाव की सहायता से भी हो सकती हैं, या जिसे आप हवाई यान कहते हैं। और यहाँ तक की आप एक भूत का उपयोग भी कर सकते हैं! उसके लिए आप एक मृत आत्मा का उपयोग कर सकते हैं। और हम उसका उपयोग किसी भी मन चाहे स्थान पर ले जाने के लिए कर सकते हैं। यह हो सकता है! यह “ई. इस. पी.” ऐसा ही धंधा है। तो यह अन्य प्रकार से भी किया जा सकता है। तो यह कुछ महत्वपूर्ण नहीं है।
कभी कभी यह बहुत भर्मित करता है, जब हम देखते कि कुछ लोग हवा में उड़ सकते है! वह कहते हैं कि वह सूक्ष्म रूप में वहाँ गये हैं। आप शरीर को चलते हुए नही देखते लेकिन आप देख सकते हैं कि वह ऐसा अनुभव कर रहे हैं।
इसमें यह अंतर है कि जो लोग आत्मसाक्षात्कारी हैं वह स्वयं को निर्देशित कर सकते हैं और शरीर को गतिशील होते देख सकते हैं। लेकिन जो आत्मसाक्षात्कारी नहीं वह पाते हैं कि उनका सूक्ष्म अस्तित्व को बाहर निकाला जा रहा है और उनकी चेतना उनके साथ कहीं और जा रही है। और वह घर के ऊपर पर बैठे हैं, वहाँ से स्वयं को देख रहे हैं। और वह वहाँ बैठे हैं और वह स्वयं को उसी तरह नीचे बैठा हुआ देखते हैं। ऐसी घटनाएं घटती होती हैं। यह कुछ भी नहीं अपितु एक मृत तत्व का एक आत्मा पर सवार होना है। तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह भी दाहिनी ओर की गतिविधि है।
जैसा कि मैने आपको बताया है, बायीं तरफ से चीजों के प्रति भावनात्मक अनुभूति होती है। आप दूसरों के लिए अत्यंत प्रेम अनुभव करते हैं। और कभी कभी लोगों में, मैं कहूँगी कि साईंनाथ उनमें से एक हैं, जिन में यह बाएं ओर का आशीर्वाद था, और वह साक्षात् प्रेम थे। और उनमें लोगों के लिए इतना प्रेम भरा था कि एक बार एक महिला जो बहुत गरीब थी और वह अपनी दीवाली नहीं मना पा रही थी और वह यह सहन नहीं कर सके, इसलिये उन्होंने उसे कुछ पानी दिया और पानी तेल के जैसे हो गया और उसने उससे दीपक जलाए। और यह एक सत्य है, आप ऐसा कर सकते हैं। यह सम्भव है।
और इस शक्ति से आप भोजन को और अधिक कर सकते हैं, आप खाद्य सामग्री को बढ़ा सकते हैं, जैसे कि ईसा मसीह ने किया। यह भी एक पक्ष है।
तो यह सब किसी एक व्यक्तित्व में आ जाती हैं। कुछ लोगों में कोई एक गुण अधिक होता है, दूसरे में कोई और अधिक होता है, और कुछ लोगों में यह सभी गुण होते हैं। कुछ में, जो अवतार हैं, उन में सभी गुण होते हैं। वह जो चाहते हैं, सब कुछ कर सकते हैं। और वह उन सब का उपयोग करते हैं जिनका वह करना चाहते हैं और यदि वह किसी भी शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं तो वह नहीं करेंगे।
तो यह कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। मान लीजिए कि आप कोई चीज देखते हैं, ठीक है! आप देख सकते हैं यह एक अच्छी बात है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उनसे चिपके रहें, परन्तु आप वह करने का प्रयास करें जो आप नहीं देखते हैं। उदाहरण के लिए, अब आप किसी के सिर से प्रकाश निकलते हुए देखते हैं, अब यह चीजों का देखने का एक पक्ष है।
दूसरा यह है कि आप दूसरे व्यक्ति को अनुभव कर सकते हैं। क्या आप दूसरे को अनुभव नहीं करते? वह कैसा है, वह आप से कैसे मिलता है, आप किस प्रकार उस व्यक्ति के समीप आ रहे हैं। क्या आप उसके लिये वह करूणा अनुभव कर सकते है कि वह वहाँ नहीं है जहाँ पर आप पहुँचे हैं? यह सन्तुलन का एक और साधन है। लेकिन इसे तभी करें जब आप सशक्त हों। यह कुछ लोगों के लिए बहुत संकटपूर्ण होता है, जो दूसरों के लिए सहायक होना चाहते हैं जबकि वह स्वयं भी पूरी तरह से जमे नहीं।
तो मैं आपको फिर से चेतावनी दूंगी कि जब आपको प्रकाश औऱ यह सब दिखने लगे, तब याद रखें कि आप एक पक्ष की ओर जा रहे हैं– आप अधिक देख रहे हैं। तो अपनी वाणी में करुणा लाएं, अपनी बोली में, अपने व्यवहार में। अधिक प्रेम करने का प्रयास करें। अर्थात, दाहिना पक्ष अधिक विकसित हो रहा है, बाँया उससे कम, जो कि हृदय है। तो आपको अपनी कुण्डलिनी दाहिने और बाएं ओर से उठाना होगा। परन्तु यह सब यांत्रिक है, कार्य करता है। इस विषय में केवल विचार करें, “अरे, मुझे अपने ह्रदय को और अधिक विकसित करना है।” उसमें सन्तुलन होना चाहिए। दूसरों के प्रति भावना भी होनी चाहिए।
अब दूसरों के लिए जो भावना मैं अनुभव करती हूँ उसे समझाया नहीं जा सकता। यदि कोई कहीं भी रो रहा है, तो मेरी आँखों में आँसू अपने आप ही आ जाते हैं। यहाँ तक कि यदि आप नहीं भी रो रहे हैं और यदि आप उन चीजों के बारे में दुःखी हैं, मेरे अंदर भी यह दुःख की भावना आ जाती है। इसी प्रकार, आपको वास्तव में वह दुःख, वह हताशा और वह रुदन अनुभव होना चाहिए। निःसंदेह, यह कुछ लोगों में बहुत अधिक होता है, पर उनमें दूसरा पक्ष नहीं होता। तो आप में दोनों पक्ष और सन्तुलन के दोनों संचालक होने चाहिए।
फिर जिन्हें अधिक चीज़े दिखाई देती हैं, उन्हें जो दिख रहा है उस से परेशान नहीं होना चाहिए। “यह इस तरह आ रहा है, ठीक है”! क्योंकि उन्होंने वैसा तप किया है इसलिए उन्हें चीज़ें दिखती हैं। और यह सहज योग में बहुत सहायक है क्योंकि आप स्वयं देख सकते हैं कि कौन साक्षात्कारी है, और कौन नहीं, इत्यादि।
लेकिन अभी भी आप में रूखापन है। इसलिए, यदि आप में ऐसा है, तो स्वयं को विकसित करने का प्रयास करें। तो जो भी आप के पास नहीं है आप उसे विकसित करने का प्रयास करें। जो आप के पास है उससे सन्तुष्ट न हों। यह सबसे अच्छा मार्ग है जिससे आपका उत्थान होगा। जो लोग देख सकते हैं, उन्हें दूसरों को अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। जो दूसरों को अनुभव कर सकते हैं, उन्हें देखने का प्रयास करना चाहिए। और यह इस प्रकार कार्यान्वित होगा। तो यह ऐसे होता है।
और महाकारण स्थिति, जहाँ महाकारण है, वह उस अवस्था का एक अति सूक्ष्मतम रूप है, जहाँ चक्रों में जो देवता हैं, वह जुड़े हुए हैं – विराट के देवताओं के प्रतिबिम्ब के रूप में। अब विराट में यह देवता आप में प्रतिबिम्बित हैं, आप में जागृत हैं और वह गतिशील हो कर, सभी कुछ ऐसे कार्यान्वित करते हैं, जैसे कि होना चाहिए। कारणा की स्थिति तक यह बहुत अच्छा है। लेकिन महाकारण स्थिति वह अवस्था है जहाँ यह वास्तव में है– जिसे आप वस्तु कहते हैं– वस्तु और प्रतिबिम्ब।
जब आप उस अवस्था तक पहुँच पाते हैं, जो वास्तव में एक गहन मानसिक स्थिति है, जहाँ आप उस अवस्था में होते हैं और जब आप इस स्थिति में हैं, तो आप एक अवतरण के स्तर के बहुत निकट आ गए हैं।
तो जहाँ तक आप लोगों का सम्बंध है, आप को कारण स्थिति तक समझने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि उसके आगे कैसे कूदना है और कैसे जाना है, अभी यह प्रश्न नहीं है। आप को कोई ऐसी चीज के बारे में बताने का क्या लाभ जो कि बहुत दूर है? इसलिए, हम इस विषय में बाद में बात करेंगे। लेकिन इस प्रकार चक्रों की यह चार अवस्थाएं हैं।
अब, उसका प्रश्न?
अहा, चक्रों के बारे में। हाँ…..
वह कह रहे हैं कि आप इसे घड़ी की विपरीत दिशा में देखते हैं।
आप ऐसा देखते हैं क्योंकि अधिकतर लोग जिन्होंने इसे देखा, उन्होंने इसे दूसरे लोगों में देखा और जब आप अन्य लोगों को पीछे से देखते हैं, तो आप इसे घड़ी की विपरीत दिशा में घूमते हुए देखते हैं। यदि आप सामने से देखें तो यह घड़ी की दिशा में हैं- ऐसा है।
प्रश्न – नहीं, मैं जो कह रहा हूँ. वह है–आप को लगता है कि चक्र चल रहे हैं, आप अपने शरीर के बाहर हैं, फिर भी चक्र घड़ी की विपरीत दिशा में घूम रहे हैं।
हाँ, यह निर्भर करता है, आप जानते हैं, जैसा मैंने आप को अभी बताया। तो उदाहरण के लिए चक्र, एक साधारण व्यक्ति के लिए- चक्र साधारण “प्लेक्सस” के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। एक साक्षात्कारी आत्मा के लिए यह उससे कहीं अधिक है। तो जितना अधिक आप अपनी चेतना के जितने बड़े दायरे में जाते हैं उसी प्रकार से चक्रों की अभिव्यक्ति होने लगती है। अब उदाहरण के लिए मेरे चक्र सभी ओर कार्य कर रहे हैं। सभी ओर। क्या आप को अंतर दिखता है? तो यह व्यक्ति की जागरूकता पर निर्भर करता है। अब कहें कि जितना प्रकाश है, उतना ही प्रकाश फैलेगा, जितनी शक्ति है। तो यह इस प्रकार है।
(हिंदी—)
अब चक्रों पर कोई प्रश्न शेष है?
प्रश्न – पंखुड़ियों की संख्या के विषय में।
श्री माता जी– हाँ, पंखुड़ियों की संख्या भी स्थूल चीज़ है। जब तक आप एक निश्चित अवस्था में न पहुंचे जहाँ आप की पंखुड़ियों का निर्माण हो रहा है, क्योंकि इसके बारे में थोड़ा गणित है, थोड़ा गणित है। और यह सारा गणित मनुष्य में कार्यान्वित हो चुका है– यह कैसे है? पर यह है— हम कह सकते हैं कि, अब उदाहरण के लिए, अब एक व्यक्ति में एक प्रकाश है जैसे कि 25 “वाट”। तो 25 “वाट” को परिवर्तित करना है, 60 “वाट”, या कुछ ऐसे ही। इसलिए आप को वह आयाम देखना होगा जिसमें वह व्यक्ति है, वह अंश जिसका विकास होगा। यह आप के विषय में एक विशाल गणित है– वह आयाम, जिस में वह विकसित हो सकता है और जिस क्षेत्र में वह प्रवेश करेगा। इसके लिए, अब आप मूलाधार चक्र का उदाहरण ले सकते हैं। मूलाधार चक्र वास्तव में इस प्रकार चौथा है, क्योंकि यह मानव के व्यक्तित्व के चार पक्षों को समाविष्ट करता है। इसकी गणना अस्पष्ट होती है, यह व्यक्तित्व का चौथा पक्ष है। और पाँचवा पक्ष, पांचवें आयाम में गतिविधि, मूलाधार चक्र में नहीं होती है। यह मूलाधार चक्र से ऊपर होती है।
तो चौथा आयाम ऐसा दिखता है। यह मनुष्य के विभिन्न आयाम हैं। उन स्तरों तक इन तत्वों द्वारा आप कितने आयामो को छूते हैं– इसकी गणना ऐसे होती है। मैंने अपनी पुस्तक में इनमें से अधिकतर को बहुत ही अधिक विस्तार में बताया है कि वह कौन से आयाम हैं जो एक व्यक्ति इन अवस्थाओं में पहुँचता है और आप कितना आगे जाते हैं।
लेकिन बाद में वही मूलाधार दो ही हो जाते हैं। पर यह दोनों इतने सूक्ष्म है और तीव्र होते हैं, जो इस प्रकार सभी ओर भेदन करते हैं।
तो यह इस पर निर्भर करता है — आप कह सकते हैं, एक मशीन में विभिन्न प्रकार के सुराख़ और विभिन्न पेंच और विभिन्न चूड़ियाँ होती हैं तो अब इसकी गणना क्या होगी? क्या कोई ऐसा इंजीनियर है जो कह सके कि ऐसा क्यों है? इसलिए यह एक बहुत ही विस्तृत कार्य है और सब कार्य हो चुका है क्योंकि जिस आयाम में मनुष्य जा रहा होगा, उस सब का निर्धारण किया जा चुका है और उस चक्र में यही आयाम आप प्राप्त करते हैं। तो इसका एक अर्थ है। तो यह केवल चार चक्र ही नहीं हैं। यह केवल चार नहीं हैं। इसके अंदर कई पंखुड़ियां हैं और यह बहुत ही रोचक है। वास्तव में मैने मूलाधार पर एक बड़ा अध्याय लिखा है, सम्पूर्ण। अंदर कितनी परतें हैं और यह चीजें कैसे कार्य करती हैं और कितनी परतें। वह क्या दर्शातें हैं और वह कितनी दूर तक खुलते हैं, क्योंकि यह सब एक आयाम है जो कार्य करता है।
उदाहरण के लिए, यदि आप एक बरगद के पेड़ को लें, उसका बीज इतना छोटा होता है। बरगद के पेड़ का बीज सबसे छोटा होता है। अब ऐसा क्यों है? और यह इतना सूक्ष्म क्यों है? क्योंकि यह इतना सक्रीय है। आप के लिए, यह सब कार्यान्वित हो चुका है एक “कैप्सूल” के समान। और यह एक “कैप्सूल” है जिसे इस आयाम पर कार्य करना है। इसे उस आयाम पर कार्य करना है। तो इस पर काफी गणना हुई है– जिसका मैंने वर्णन किया है। मैंने वास्तव में केवल मूलाधार का पूर्ण रूप से वर्णन किया क्योंकि एक मूलाधार चक्र से ही इतना बड़ा खंड बनता है, इसलिए मैंने दूसरों को छोड़ दिया। मैंने उनके बारे में मात्र उल्लेख किया है।
पर केवल मूलाधार ही अपने आप में, जब मैने वर्णन करना आरम्भ किया, यह इतनी बड़ी, विशाल चीज बन गई। तो मैंने छोड़ दिया और कहा, “अब अच्छा होगा कि दूसरों को ना ही करें।” परन्तु यह अत्यंत ही जटिल चीज है, आप देखें।
और अपनी योजना के लिए, परमात्मा का अपना मंच या अपनी कार्यशैली है और हम उस पर प्रश्न नहीं उठा सकते, जिसे वह अपने इच्छा अनुसार करते हैं। उनकी अपनी विधि है। फिर भी उनकी इच्छा में समझ है– सभी में है।
देखिए, यदि आप अध्ययन करने का प्रयास करते हैं, तो आप कभी-कभी पाएंगे कि जैसे आप मुझसे कुछ विशेष चीजें पूछते हैं, मैं इसका उत्तर भिन्न प्रकार से देने का प्रयास करती हूँ। क्योंकि उनके काम करने के अपने ढंग हैं और वह समझते हैं और उसको वह इस प्रकार करते हैं।
फिर भी मैंने कम से कम मूलाधार चक्र का परिचय देने का प्रयास किया है, जिस से मनुष्य यह अवश्य समझे कि वह कितनी जटिलता से बनाये गए हैं, परमात्मा ने आपके मूलाधार चक्र की स्थापना में कितनी सावधानी बरती है और किस प्रकार उन्होंने वहाँ शक्ति प्रदान की है। यह कैसा जीवंत “मशीन” है, यह कैसे कार्य करती है ताकि लोग अपने चक्रों का महत्व और अपने अस्तित्व के महत्व को समझें। आप कितने महत्वपूर्ण हैं! आप साधारण लोग नहीं हैं।
यहाँ तक कि एक साधारण “टेपरिकार्डर” भी हो तब भी हम उसके लिए कितने सावधान रहते हैं। तो हमें अपने तन्त्र के लिए कितना सावधान रहना चाहिए, जो युगों से कितनी समझदारी से बनाये गए हैं, किस प्रकार के तंत्र के द्वारा! हर चक्र को यदि आप लें, यदि आप तीन युग भी लें, आप एक चक्र को भी नहीं समझ पायेंगे – हमारे भीतर यह कितनी चमत्कारी प्रक्रिया है। मैंने वास्तव में इसका केवल विवरण दिया है, कारण यह है कि इस से अधिक हो तो वास्तव में वह स्तर आप को पागल कर देगी! लेकिन मैंने उसमे समझाने का प्रयास किया है। आपने मेरा लिखा मूलाधार पढ़ा है? वह काफी विस्तृत है।
ग्रेगोर— “दिल्ली में प्रश्न था, “जीवन का उद्देश्य क्या है?” मेरा मतलब है बौद्ध धर्म के अनुसार, इन सभी अवतरणों का उद्देश्य है निर्वाण। अर्थात शून्य को पाना, जहाँ कुछ भी नहीं होता है। फिर ईसाई परम्परा में यह उत्तमता भी है जिसको ईश्वर के साथ पूर्ण मिलन के रूप में माना जाता है, जो कि स्थिरता है। अब आपने कहा यह ऐसा नहीं है, आप बार बार अवतार लेंगी। तो मैं चक्रों के सम्बंध में प्रश्न पूछना चाहूंगा, कि जीवन का उद्देश्य क्या है? इस से पहले मैं समझता था कि परमात्मा के साथ जुड़ना सर्वोत्तम है, अर्थ जो भी हो। और जब मेरा योग हुआ, जिससे अब स्थिरता है। परन्तु—“
पर उस अवस्था को मैने कभी निरस्त नहीं किया, वह अवस्था आज नहीं है। आप देखें, जब मैंने यह कहा– कि अभी तो आप को बार बार अवतार लेना है –अभी आप उस अवस्था में नहीं हैं। परन्तु सम्पूर्णतः आप देखें, इन में से कोई भी बात गलत नहीं, जब वह कहते हैं, “निर्णय का दिन आएगा।”
परन्तु उससे पहले परमात्मा आप को एक अवसर प्रदान करेंगे। वह आपको पूर्ण रूप से सुधारने का अवसर देंगे, उस अवस्था तक पहुँचने का। यह इस प्रकार है, हम कह सकते हैं कि पहले बीज बो कर पेड़ों को अस्तित्व में लाया जाता है। फिर पेड़ बड़े होते हैं। फिर फूल आते हैं, फिर फूल पुनः बीज बनते हैं। तब पुनः पेड़ और फिर से यही चीज, जब तक वह एक निश्चित अवस्था पर नहीं पहुँचते, जब तक वह पूरी तरह से पक जाते, तब वह इन सब को हटा देते हैं और यह पूरी चीज स्वयं ब्रह्म बन जाती है। और जो भी अवशेष है, फेंक दिया जाता है।
तो अंततः यह योग है। पर आप का योग होने का अर्थ परमात्मा से एकाकार होना है। यह एक बहुत बड़ी अवस्था है। सर्वप्रथम यह शुद्धिकरण की स्थिति है। शुद्धिकरण के लिए आप का पुनर्जन्म होना है। आप उस अवस्था में नहीं पहुंचे हैं जहाँ आप महानिर्वाण हो गए। क्या आप पहुंचे हैं?
यदि आप हो गए, तो हो सकता है कि आप नरक में पहुंचें, इसलिए यह उचित होगा कि उसका प्रयास न करें! देखिए, आप को समझना है कि अभी इस अवस्था से और आगे जाना है, स्वयं को तब तक शुद्ध करना है जब तक आप एक निश्चित अवस्था में नहीं पहुंच जाते हैं, जब आप एक निश्चित अवस्था में पहुंचते हैं, उस समय, जहाँ परमात्मा ने आपको पर्याप्त अवसर दिया है, स्वयं को सुधारने का पर्याप्त अवसर दिया है।
यदि आप राक्षस हैं तो आप को और अवसर नहीं दिया जायेगा। पर यह काफी निकट है, मुझे कहना होगा। अब आप इसे संयोग पर छोड़ने की अनुमति नहीं दे सकते, ऐसा नहीं। यह एकदम स्पष्ट है। एक हलाली, एक संहार बहुत निकट होने वाला है, बहुत ही पास है। मेरे कहने का अर्थ है, किसी भी समय हो सकता है। तो आप सावधान रहें! मेरा अर्थ है, यह बस आ ही गया। तो बहुत सारे लोगों को प्रभावहीन करना होगा क्योंकि वह अत्यंत उपद्रवी हैं। तो यह बहुत समीप हो सकता है। तो इसके लिए बस सावधान रहें।
यदि सभी कुछ एक दुसरे में समा जाए…… पर होता यह है कि प्रत्येक धर्म में उसका एक ही भाग बताया जाता है, जिस से कि उसके द्वारा अन्य भाग को काट दिया जाए।
यदि मैं कहूँ, “आपको इस कमरे में जाना है।“
अब यदि मैं ऐसा कहूँ, “आपको दो कदम उस तरफ आना होगा।“
और फिर मैं कहूँ, “आपको इस तरफ तीन कदम आना है।”
यह सब आपस में जुड़ा हैं। क्योकि यहाँ केवल तीन कदम कहा गया है, इसलिए आप कहते हैं, “तो उस धर्म में यह कहा जाता है कि तीन कदम इस ओर। पर उन दो कदमों का क्या?”
मुझे उनके बारे में भी बताना पडेगा। तो मुझे उन सभी दो कदमों के बारे में बताना है जो कि आप को पहले लेना है, अच्छा होगा कि मैं आपको इन तीन क़दमों के विषय में न बताऊँ, क्योंकि तब आप केवल वहीँ ध्यान देंगे, “ओह! बहुत अच्छा!”
यह इतनी सरलता से आपकी थाल में नहीं आ जायेगा। आप को सतर्कता से इसे कार्यान्वित करना होगा। तो अब समझे?
प्रश्न – मृत्यु के बाद चक्र कहाँ जाते हैं?
चक्र आप के अंदर स्थित हैं, चक्र एक लीला हैं। वह केवल आप के भीतर विद्यमान होते हैं।
प्रश्न – पृथ्वी तत्व के भीतर?
नहीं, नहीं, नहीं। वह केवल शरीर में हैं, वह शरीर में हैं। शरीर स्वयं एक बीज की तरह है, आप एक बीज जैसे हो जाते हैं। वह प्रबल हैं। आप उन्हें देख नहीं सकते। चक्र एक अवस्था है।
प्रश्न – मुझे लगता है कि चक्र और कुण्डलिनी एक साथ होंगे?
नहीं, नहीं। यह कुछ ऐसा है कि प्रकाश बाहर आ जाए और ट्यूब अभी भी वहाँ रहे। यह कुण्डलिनी इस प्रकार है। लेकिन यह मनुष्य के सिर के ऊपर ठहरती है। एक मात्र अंतर है, माना कि प्रकाश बाहर निकलता है और पास ही रहता है। आप देखते हैं कि प्रकाश में क्षमता है। वहाँ प्रकाश के निकलने का मार्ग होता है।
प्रश्न – और एक और बात जो आपने अनुकम्पी और पराअनुकम्पी के बारे में कही है कि, जब वह अलग हो जाते हैं तो वह व्यक्ति अति चरम सीमा पर जाता है और उस स्थिति में क्या होता है?
चरम सीमा?
प्रश्न – हमारे आत्मसाक्षात्कार से पहले क्या वह अलग हो जाते हैं?
नहीं, नहीं। वह स्थूल रूप में पहले से ही अलग हैं, वह अलग हो चुके हैं, अंदर भी वह अलग होते हैं। लेकिन वहाँ एक रिक्त स्थान है। क्योंकि….. यही एक मात्र समस्या है। कुण्डलिनी आलोकित होती है – जब कुण्डलिनी मेरे सामने हो, तब वह प्रकाशित होती है और वह तुरन्त उठने लगती है। या जब आप लोग हों, क्योंकि आप भी सहज योगी हैं। यह किसी और के साथ घटित नहीं होता है, यह जानकर आप अचंभित होंगे।
तो अब दूसरा प्रश्न क्या है?
प्रश्न – शरीर में चक्र कैसे गति करते हैं, घड़ी की सुई की दिशा में अथवा विपरीत दिशा में; क्या यह आड़ा है?
हाँ, हाँ, यह सत्य है, वह क्षेतिज रूप से आगे बढ़ रहे हैं। वह क्षेतिज रूप से बढ़ रहे हैं लेकिन जब आप उन्हें इस तरह से घुमाते हैं, आप देखें, जैसे आपने पहिया देखा है…
प्रश्न – आप इस तरह क्यों नहीं जाते?
नहीं, वह ऐसे कार्य नहीं करते। यह इस प्रकार से बेहतर कार्य करते हैं। क्योंकि यही हैं जो उत्तसर्जित कर रहें हैं। यदि आप ऐसे करते हैं तो वह नीचे चला जाता है। जैसे यह घूम रहे हैं, आप ऐसे घुमा सकते हैं।आपने देखा है कि एक घड़ी में कुछ इस तरह समानान्तर होते हैं और कुछ इस तरह होते हैं।
अब दूसरा प्रश्न क्या है?
प्रश्न – माता जी, नकली गुरुओं ने चक्रों को बिगाड़ दिया है। वह इसे कैसे करते हैं? और इसके बारे में क्या करना चाहिए?
आप देखें, यह गुरु लोग क्या करते हैं, वह अपने द्वारा नियंत्रित भूतों को अनुकम्पी नसों के तंत्र में प्रवेश कराने के लिए विभिन्न चक्रों का उपयोग करते हैं। वह साधारणतया बहुत अधिक भूतों को नियंत्रित नहीं करते ….. लेकिन क्या होता है, उदाहरण के लिए अब मैं कहूँगी, युद्ध में कुछ लोगों की इस प्रकार मृत्यु हुई , वहाँ मारे गए। इन देशों में, उन आत्माओं को, उनके पास कभी भी एक सामान्य जीवन नहीं था और उनके साथ पशु के समान व्यवहार किया जाता था और उन्हें बहुत प्रताड़ित किया जाता था।
इसलिए उनके मन में यह भावना थी, “हमें भी इन लोगों पर अत्याचार करना चाहिए।” इसलिए जब वह मर जाते हैं तो वास्तव में नहीं मरते और वह प्रेतलोक में प्रवेश नहीं करते। वह वातावरण में रहते हैं और इसलिए युद्ध बहुत बुरी चीज है, क्योंकि युद्ध ऐसे बहुत अधिक लोगों को पैदा करते हैं, दुघर्टना ग्रस्त और मनुष्य जो जीवन में बहुत भ्रष्ट हैं, बहुत असन्तुष्ट जो सभी प्रकार के भ्रष्ट कार्य और गुप्त चीजें और सभी प्रकार की भयानक कार्य करते हैं। ऐसे सभी लोग, वह सब, जब वह मर जाते हैं वह वास्तव में प्रेत लोक में नहीं जाते क्योंकि वह अपनी मुक्ति के बारे में नहीं सोचते हैं। लेकिन वह केवल अपनी वासना, लालच या सम्पत्ति के बारे में सोच रहे हैं। जो लोग चीजें छीन रहे हैं, चोर और सभी प्रकार के लोग, हम कह सकते हैं, बुरे लोग, जब वह मर जाते हैं तो वह अपने को कहीं अधिक सूक्ष्म पाते हैं, और वह सूक्ष्म शरीर के माध्यम से कार्य करना चाहते हैं । इसलिए वह अपने सूक्ष्म शरीर का उपयोग लोगों पर करते हैं और ऐसे लोग सरलता से उपलब्ध होते हैं।
तो यह गुरु क्या करते हैं? वह स्वयं शैतानी प्रतिभा वाले हैं, और उनके पास लोगों को अपने वश में करने का एक उपाय होता है और वह उसका उपयोग करते हैं। और वह आपके अंदर प्रवेश करते हैं, विभिन्न चक्रों के माध्यम से। उदाहरण के लिए, रावण में वाक शक्ति थी और अपने भाषण के माध्यम से “सीलोन” में , श्री लंका के लोगों में, राक्षसों को प्रविष्ट करता था।
अन्यथा, कल्पना करें, लंका में लोंगो को राम से कभी नहीं लड़ना चाहिए था, क्योंकि उस समय लोगों की समझ इतनी अधिक थी जिस से वह जानते थे कि राम एक अवतार थे। वह आज के जैसे स्थूल नहीं थे, कि किसी को यह बताना पड़ता, “ओह, यहाँ मैं अवतार हूँ।”
उस समय यह कलयुग नहीं था इसलिए वह जानते थे कि वह एक अवतार थे। और उनमें से बहुत से, मेरा अर्थ है उन में से कुछ नहीं थे, लेकिन उनमें से बहुत सारे लोग जानते थे और इसके उपरान्त कोई भी इसका विरोध नहीं कर सके, क्योंकि उनके मस्तिष्क में इन नकारात्मक शक्तियों को रावण द्वारा डाला गया और उन लोगों ने राम से युद्ध किया।
तो ऐसा था, यहाँ तक की कृष्ण के समय भी ऐसा था। लोग यह जानते थे कि वह कौन थे, कम से कम उन्हें इसका आभास था, यहाँ तक कि कौरव भी इसके विषय में जानते थे।
लेकिन यह कलयुग एक घृणात्मक चीज़ है, किसी को कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता। पर उन युगों में ऐसा नहीं था। लोग जानते थे कि कौन अवतार है और वह इसे समझते थे।
और उस समय भी, इन लोगों को दूर रखने के लिए कुछ उपाय अपनाने पड़े और उन्होंने प्रलोभन का ऐसा उपयोग किया। और जब उन्होंने प्रलोभन के इस उपाय का प्रयोग किया, तो उस प्रक्रिया में उन्होंने सूक्ष्म विधि और सूक्ष्मतम विधि सीखी जिसे वह कलयुग में बहुत अच्छे से उपयोग कर रहे हैं। वह वास्तव में राक्षस हैं और वह जानते हैं कि इन तरीकों से लोगों को कैसे लुभाया जाए।
इसे करने के अनेक उपाय हैं। और जब आप उनके सामने अपना सर झुकाते हैं वह सबसे अच्छा समय होता है, जब वह इसे आप के अहंकार में डाल सकते हैं और वह आपको सदा के लिए समाप्त कर सकते हैं। तो वह ऐसा इस प्रकार करते हैं। और आप स्वयं जैसे नहीं रहते।
सबसे पहले वह आप के ह्रदय पर कार्य करते हैं। आप एक डरपोक व्यक्ति बन जाते हैं, आपके हाथ कांपने लगते हैं, आप के पैरों में कम्पन होने लगता है, वह आप के हृदय चक्र पर कार्य करते हैं। आप में रक्षा की शक्ति खो जाती है, जो हृदय चक्र का मूल तत्व है। …… और तब जब आप स्वयं के नसों पर नियंत्रण खोने लगते हैं, आप पाते हैं कि कोई और आप के लिए कर रहा है। और यदि आप किसी का नाम लेते हैं, आप कूदने लगते हैं और आप को कुछ भी पता नहीं चलता है– यह एक अनुभव है। ऐसी अनेक चीजें हैं जो वह करते हैं -एक हजार और एक।
लेकिन कलयुग में समूर्ण मनुष्य जाति उत्थान की जगह, देवत्य की अपनी धारणा और हर चीज में पतन की ओर जा चुकी है। मेरा अर्थ है कि वह एक निराशाजनक स्तिथि में अन्यथा है! लेकिन परमात्मा की कृपा से सहज योग उसे बचा सकता है। मेरा अर्थ है, जैसा कि वह बहुत अधिक मूर्ख है, वह सोच नहीं सकता, वह बहुत ही असंवेदनशील है। वह अपनी सभी प्रकार के दुराचार का प्रयोग करता रहता है, यह सोचकर कि वह अब तक जन्मे सबसे दुर्लभ सन्त है। यह कलयुग का एक और बड़ा गुण है! यही समस्या है। उनमें अब कोई अंतरात्मा नहीं बची जो उन्हें बताए कि यह ठीक नहीं या वह ठीक नहीं, उन्होंने इसे मार दिया है। सब जगह ऐसा है।
आप के बच्चे स्कूल में हैं?
योगी : हाँ ।
अच्छा! अब दूसरा प्रश्न?
प्रश्न – संगीत कैसे पांच चक्रों पर कार्य करता है?
आप देखें, यह सभी पांच तत्व हमारे शरीर में बहुत महत्वपूर्ण हैं और यह चक्रों के शरीर भी हैं, जैसा कि मैने आपको बताया है। तो क्या होता है कि जब आप संगीत गाते हैं, तो चैतन्य, संगीत की ध्वनि के माध्यम से जा सकता है और कुछ चक्रों को जागृत कर सकता है। उदाहरण के लिए, हृदय चक्र के लिए यह बहुत अच्छा है या विशुद्धि चक्र के लिए भी यह बहुत अच्छा है। सभी चक्रों के लिए नहीं। लेकिन कुछ चक्रों पर यह कार्य करता है।
पर यदि आप एक मंत्र बोलते हैं- यह ध्वनि है। सुंदर संगीत और एक साक्षात्कारी आत्मा के साथ, तब यह बहुत प्रभावशाली होता है। उदाहरण के लिए गणेश- एक सुंदर श्लोक के साथ, उन्हें जागृत कर सकते हैं। यदि आप एक साक्षात्कारी आत्मा हैं और यदि आप का गणेश तत्व ठीक है, आप दूसरे के गणेश तत्व को बहुत सरलता से जागृत कर सकते हैं, मेरा अर्थ है वह व्यक्ति ऐसा कर सकता है।
इसलिए संगीत, ध्वनि, इन सभी चीजों का प्रभाव होता है और हम अब इस पद्यति का विस्तार से उपयोग कर रहे हैं। पर अब मान लीजिए, हम एक सामुहिक ध्यान में जाते हैं और वहाँ बहुत लोग हैं और किसी चक्र में पकड़ है, मान लें विशुद्धि में। तो मैं उनकी विशुद्धि को केवल अपनी उंगली को वहाँ रखकर ठीक कर सकती हूँ। इस प्रकार- क्योंकि, इसमें ध्वनि है, जो इस चक्र में है, यह सूक्ष्म ध्वनि है जो चैतन्य को ले जा रही है।
वास्तव में चैतन्य का अंश सूक्ष्म ध्वनि भी है। सूक्ष्म प्रकाश, सूक्ष्म ध्वनि और वहाँ सभी पांच तत्व सूक्ष्म हैं। इसलिए जब मैं अपनी उंगली रखती हूँ तो सूक्ष्म ध्वनि अन्य सभी को ले जा सकती है और व्यक्ति को सुधारा जा सकता है। हम इसे कर सकते हैं, विशेष रूप से विशुद्धि…….विशुद्धि को ठीक करना वहां अत्यंत सरल है। आप अधिकतर चीजों को ठीक कर सकते हैं, लेकिन कुछ चीजें बहुत सरलता से ठीक हो जाती हैं। विशुद्धि, जिस से ध्वनि उत्पन्न होती है, वह ध्वनि तत्व से बनी है।
जैसा कि हमने देखा है, लोगों के निचले चक्र, हृदय चक्र तक को, ठीक करने के लिए जल तत्व बहुत अच्छा है, क्योंकि पानी और नमक, नाभी चक्र के लिए सहायक हो सकते हैं। क्योंकि नमक पृथ्वी तत्व है और यह समुद्र का सार है और समुद्र का सार भवसागर में है। तो हम निचले चक्रों को साफ करने के लिए नमक पानी का प्रयोग कर सकते हैं। हम आँखों के लिए दीपक का प्रकाश से कार्य कर सकते हैं, क्योंकि यह प्रकाश के द्वारा बनाया गया है। प्रकाश, प्रकाश तत्व।
इस प्रकार विभिन्न चीजें की जा सकती हैं। यदि आप इन विभिन्न तत्वों का प्रयोग करते हैं, आप सभी गन्दगी या सभी बाधाएँ, जो आप के किसी विशेष चक्र पर जमा हैं, उनको उसी तत्व में वापस करके, और इन्हें स्वच्छ कर करते हैं, जिससे कि तत्व इनको ले लेते हैं।
धरती माँ के लिए भी, उनके पास इतने सारे तत्व है कि वह आप की बहुत सारी समस्याओं को दूर कर सकती हैं- जो आप को परेशान कर रही हैं, जो आप में पृथ्वी तत्व के किसी असन्तुलन के कारण हैं। तो यह सब आप में इन तत्वों के असंतुलन के कारण हैं, जो आप की आवश्यकता से अधिक एकत्रित हो गईं हैं। इसीलिए मैने कहा, “इसकी अति”।
भू तत्व, श्री गणेश के द्वारा व्यक्त होता है और श्री गणेश, पृथ्वी तत्व से शुद्ध किए हुए विशिष्ठ तत्व के रूप हैं। और यह एक ही हैं।
मेरा अर्थ है कि बाँसुरी में दो स्वर होते हैं-पहला और आखरी एक ही होते है। इसी प्रकार, मनुष्य में सात स्वर – प्रथम श्री गणेश हैं और अंतिम भी श्री गणेश हैं। तो यह सात स्वर एक ही हैं। औऱ यह सात स्वर पृथ्वी तत्व बनाते हैं और सम्पूर्ण पृथ्वी तत्व ही नहीं, बल्कि प्रारम्भ ही पृथ्वी के शुद्ध तत्व से हुआ। जब यह अपनी पृथ्वी तत्व की समस्याओं को पूरी तरह से समाप्त कर देता है तो यह परब्रह्म है, यह पूर्ण ब्रह्म बन जाता है। क्योंकि पृथ्वी तत्व बाहरी सतह पर है, परंतु उसके अंदर धरा है, धरा है। धारणा-धारण करने की शक्ति है, धारण करने की शक्ति है। और यह शक्ति पृथ्वी तत्व का शुद्धतम रूप है। तो, आप बाद में वह बन जाते हैं। धीरे धीरे पूरा पृथ्वी छूट जाता है और आप वह बाद में बन जाते हैं।
इसलिए यह धारण शक्ति है जैसा कि वह इसे कहते हैं – पोषण की शक्ति। जो गणेश हैं। तो उसी प्रकार आप के हर चक्र में सूक्ष्म और सूक्ष्मतम बिंदु है। और यह सूक्ष्मतम बिंदु वह स्वर है जो परमात्मा उस बिंदु पर बजा रहे हैं, क्योंकि हर स्वर में एक अलग आवृत्ति, एक अलग सुर, एक अलग ध्वनि है, जो इस ब्रह्मांड के मधुर संगीत में सहायक होती है।
तो, इस तरह, हमारे सात चक्र और साथ स्वर होते हैं। और वह अलग अलग स्वर हैं लेकिन यह स्वर तब कर्मसंचय और संयोजन की रचना करते हैं और इसी प्रकार एक चक्र स्वर तक पहुँचता है और फिर यह एक ध्वनि बनता है, और एक ध्वनि से एक शब्द बन जाता है, और फिर शब्द से यह एक भाषा बनती है। और यह इस प्रकार आगे बढ़ता है और वही सूक्ष्म रूप कुछ और बनने लगता है।
उदाहरण के लिए, यदि मुझे अपने बच्चों से प्यार है तो मैं इसे कैसे व्यक्त करूँ? मैं उनके लिए घर बनाती हूँ, मैं उनके रहने के लिए एक जगह बनाती हूँ, उनके लिए खाना बनाती हूँ, उनके लिए बिस्तर तैयार करती हूँ। यह मेरे सूक्ष्म प्रेम की स्थूल अभिव्यक्ति है। उसी प्रकार जो भी हमारे अंदर सूक्ष्म है, वह बाहर के तत्वों की सहायता से अभिव्यक्त होता, सूक्ष्म को अपने स्थूल व्यवहार या स्थूल भौतिक वस्तुओं के माध्यम से भी व्यक्त करते हैं।
सो यह वही सूक्ष्म है जो बाहर व्यक्त हो रहा है। लेकिन बाद में हम इतने स्थूल हो जाते हैं कि हम इसके आंतरिक भाग को भूल ही जाते हैं।
एक माँ कुछ ऐसा बना सकती है, यह सब चीजें और बाद में वह अपने बच्चों के लिए इतनी अधिकारपूर्ण हो जाती है कि वह सोचेगी, “मैने अपने बच्चों के लिए इतना किया है” कि वह इतना भी नहीं सोचेगी कि उसने इसे क्यों किया! वह इसके प्रेम के पक्ष को भूल जाती है और वह स्थूल के सिवाय कुछ भी नहीं बन पाती है। वह सिर्फ बच्चों को डांटने लगती है। यहाँ तक कि इधर उधर छोटी सी चीज तोड़ने के लिए भी। इसे वह प्रेम वश करती है, और फिर वह भूल जाती है। इस तरह यह चरम व्यवहार है। चरम व्यवहार का अर्थ है, सूक्ष्म से आप स्थूल और स्थूल, और स्थूलतम हो जाते हैं। एक बार जब आप अति स्थूल हो जाते हैं आप निर्जीव हो जाते हैं।
अब क्या प्रश्न है?
प्रश्न – बाधा के लिए प्रश्न है।
जो बाधाओं को देख सकते हैं वह भावनात्मक पक्ष में हैं। वह बाधा को देख सकते हैं। वहाँ भी आप दो प्रकार के लोगों को देख सकते हैं। जो स्वयं पहले से ही बाधित हैं, वह बाधा देख सकते हैं, स्पष्ट रूप से वह मृत व्यक्तियों को देख सकते हैं। जो पहले से ही बाधित हैं वह देख सकते हैं कि दूसरे व्यक्ति में बाधा है क्योंकि वह स्वयं सामुहिक अवचेतन में हैं। इसलिए वह देख सकते हैं। और एक ऐसा व्यक्ति देख सकता है, जो शराबी है–वह देख सकता है। एक व्यक्ति जो नशे में है, दूसरे व्यक्ति में बाधा देख सकता है क्योंकि वह अचेतन प्रकार का व्यक्ति है, उसे यह अच्छा लगता है।
परन्तु कुछ लोग भावनात्मक तरीके से एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर सकते हैं कि वह बाधा को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। यदि वह आत्मसाक्षात्कारी हैं, भावुक हैं, जिन्हें लोग भक्त कहते हैं, वहाँ बाधा देख सकते हैं। यहाँ तक कि अति चेतना वाले लोग अपने सामने प्रकाश आते हुए देख सकते हैं, वह किसी को अपने सामने खड़ा देख सकते हैं, प्रकाश के रूप में। और तब वह कहते हैं, “एक प्रकाश आ रहा है।”
वह सुगंध अनुभव कर सकते हैं और ऐसी ही कोई चीज हो सकती है। उन्हें तन्मात्रा कहा जाता है, जो ब्रह्मांड का कारणात्मक सिद्धांत है, कारक –तन्मात्रा। अर्थात, भूमि तत्व के लिए कारणात्मक सिद्धांत सुगंध है। इसलिए मान लें किसी व्यक्ति ने भूमि तत्व के क्षेत्र में बहुत अधिक खोज की है। तो ऐसे व्यक्ति को बहुत सुगंध आ सकती है, उसे आ सकती है। हर जगह यह विविधता उनकी विभिन्न प्रकार से खोजने, एवम खोज के कारण बनती है ।
देखें बाधा, यदि कहें किसी में बाधा है या नहीं। यदि उसे हृदय या आज्ञा की पकड़ है तो यह निश्चित ही बाधा है।
और बस उस व्यक्ति को केवल तस्वीर के सामने हाथ रखने के लिए कहें तो वह कांपने लगता है। साधारणतः वह काँपता है।
देखिए, मुझे नहीं पता कि इसे आप कैसे जानेंगे, लेकिन यह बहुत सरलता से जाना जा सकता है। वह मेरी तस्वीर की ओर अपनी दृष्टि नहीं कर सकते हैं। यदि आप उनसे आँखे बंद करने के लिए कहेंगे तो उनकी आँखें फड़कने लगेंगी, हाथ काँपना शुरू कर देंगे, आँखें हमेशा फड़केंगी। थोड़ी भी बाधा आँखों में दिखेगी– थोड़ी सी भी।
आप देखें, बाधा अनेक प्रकार की हो सकती हैं। कुछ लोगों में बस कुछ समय के लिए है, कुछ लोगों में स्थाई निवास है, कुछ के पास बोरियां भर कर हैं!
मराठी –
तो आप बस यह नहीं कह सकते हैं कि क्या बाधा होगी।
फोटो के माध्यम से आप ठीक कर सकते है। आप बस इन चीजों की चिंता न करें।
ऐसा है कि लोग सोचते हैं बाधा केवल एक ही प्रकार की होती है– भावनात्मक बाधा। यह दोनों प्रकार की हो सकती हैं। एक व्यक्ति जो बहुत अहंकारी है वह भी किसी दूसरे से शासित हो सकता है। असामान्यता, कोई भी असामान्य व्यवहार, जो सामान्य व्यक्ति नहीं है, वह कहीं से भी आ सकता है।
सूर्य के प्रकाश और सूर्य में, चाँदनी और चाँद में, कोई अंतर नहीं है।
मराठी –
इनमें कोई भी अंतर नहीं। यह केवल मनुष्य है जो सोचता है कि यह दो अलग अलग चीजें हैं।
यह अद्वेत है, जो कि एक ही है। उदाहरण के लिए, अब यह चूड़ी मेरे हाथ को सुशोभित कर रही है। तो एक चूड़ी और सौंदर्यकरण में क्या अंतर है? एक व्यक्ति की विशेषता है, गुण है। यह ऐसा है– व्यक्त और अव्यक्त, आप कह सकते हैं कि उसका सार नहीं।
ऐसा नहीं, सार होगा तो आप इसका बाकी हिस्सा निकाल लेंगे और कहेंगे कि यह सब व्यर्थ है। यह ऐसा नहीं है। हर चीज में यह सब कुछ ही है, यह एक ही है। सूर्य का प्रकाश और सूर्य। इनका सार क्या है? सूरज की रोशनी के बिना सूर्य का कोई अर्थ ही नहीं है। सूर्य के प्रकाश का सूर्य के बिना कोई अर्थ नहीं है। यह सार नहीं है, यही सब कुछ है। पर आप कह सकते हैं पानी और बर्फ।
नहीं। दोनों का अस्तित्व है, दोनों में ही सार है, कोई भी अंतर नहीं है।
मानव इसे समझ नहीं सकता। यही मानव के मन की समस्या है, क्योंकि यह एक अद्वेत है। मानव इसे नहीं देख सकते हैं। वह हमेशा दो तरह से सोचते हैं। देखें, उसे आप अनुभूति के माध्यम से समझना सम्भव नहीं है। लेकिन आप उपमा द्वारा समझ सकते हैं। बहुत से मनुष्य समझ नहीं पाते हैं। बस नही, क्योंकि आप के पास एक सीमित बुद्धि है, सीमित जागरूकता और सीमित प्रेम है।