माता-पिता का बच्चों के साथ सहज मन्दिर, दिल्ली, १५ दिसम्बर १९८३
स आज मैं आपको एक छोटी-सी हजयोग क्या है और उसमें मनुष्य क्या-क्या पाता है, आप जान सकते हैं। लेकिन बात बताने वाली हूँ कि माता-पिता का सम्बन्ध बच्चों के साथ कैसा होना चाहिए। सबसे पहले बच्चों के साथ हमारे दो सम्बन्ध बन ही जाते हैं, जिसमें एक तो भावना होती है, और एक में कर्तव्य होता है। भावना और कर्तव्य दो अलग-अलग चीज़ बनी रहती हैं। जैसे कि कोई माँ है, बच्चा अगर कोई गलत काम करता है, गलत बातें सीखता है, तो भी अपनी भावना के कारण कहती है, “ठीक है, चलने दो। आजकल बच्चे ऐसे ही हैं, बच्चों से क्या कहना । जैसा भी है ठीक है।” दूसरी माँ होती है कि वो सोचती है कि वो बच्चों को कर्तव्य परायण बनाए। कर्तव्य परायण बनाने के लिए वो फिर बच्चों से कहती है कि “सवेरे जल्दी उठना चाहिए आपको। पढ़ने बैठना चाहिए। फिर आप जल्दी से स्कूल जाइए। ये समय से करना चाहिए। वहाँ बैठना चाहिए। यहाँ उठना चाहिए, ऐसे कपड़े पहनना चाहिए।” इन सब चीज़ों के पीछे में लगी रहती है। अब इसे कहना चाहिए कि ये सम्यक नहीं है, integrated (सम्यक) बात नहीं है। इसमें integration (समग्रता) नहीं है और आज का सहजयोग जो है वह integration (समग्रता) है । दोनों चीज़ों का integration (विलय, एकीकरण, समग्रीकरण) होना चाहिए न कि combination (एकत्रीकरण) होना चाहिए। समग्रता और एकत्रीकरण में ये फर्क हो जाता है कि हमारी जो भावना है वो कर्तव्य होनी चाहिए और कर्तव्य हमारी भावना होनी चाहिए । जैसे कि हमें अपने बच्चे के प्रति प्रेम है। तो हम कहेंगे कि प्रेम है, इसलिए हमारा कर्तव्य है-हमारा बच्चा ठीक रास्ते पर चले और बच्चा ठीक रास्ते पर इसलिए चले क्योंकि हमें उससे प्रेम है। अगर हम अपने बच्चे को ये नहीं बताते कि वो ठीक रास्ते पर चले, तो इसका मतलब है हम भावना-प्रधान हैं। ये तो बहुत आसान है कि हम इस चीज़ को सोचें कि ‘हम बच्चों से क्या कहें? जाने दीजिए। बच्चे से कहने में बच्चे दुःखी हो जाते हैं, तकलीफ होती है उनको। उनको क्यों दुःखी करें? और एक होता है ये सोचा जाए कि ‘नहीं, कितना भी दु:ख हो तो भी बच्चों को जो है एकदम धो करके, माँज करके, बिलकुल साफ कर दें। जब समग्रीकरण (integration) हो जाता है तब मनुष्य इस तरह से अपना ही बत्ताव कर लेता है कि जिसका सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। जैसे पिताजी तो हैं आलसी नम्बर एक, समझ लीजिए और या तो शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं। या माँ बहुत गुस्सैली है, बच्चों को मारती, पीटती, झिड़कती रहती है। तो उसका असर बच्चों पर अपने आप पड़ जाता है। ऊपर से आप उन्हें कितने भी सदुपदेश दें, कितनी भी बाते बताएं, वो ये देखते हैं कि ये लोग कैसे हैं। बताने से कुछ नहीं होने वाला। जो फर्क होता है वो देखने से होता है कि हमारे माँ-बाप का बर्ताव कैसा है । उनका दूुसरों के साथ बर्ताव कैसा है और उनका हमारे साथ बर्ताव कैसा है और उनका आपस में बर्ताव कैसा है। बच्चे हमेशा ये चीज़ देखते रहते है। एक छोटा सा किस्सा है कि एक औरत बहुत दष्ट स्वभाव की थी और ससुर बुढ़े हो गए थे। तो उनको वो दूध वगैरेह देती थी, तो एक बड़ा गन्दा सा बर्तन था मिट्टी का उसमें दिया करती थी और वो बेचारे उसी में दूध पीते थे। और वो बच्चा जो था उनका, वो ले जा करके दूध अपने दादा को देता था। एक दिन वो बर्तन टूट गया। तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। तो उन्होंने कहा, “इसमें रोने की कौन सी बात है? वो तो टूट गया, सो टूट गया। इसमें रोने की कौन सी बात है?” तो बच्चे ने कहा कि, “मैं ये सोच रहा था माँ, कि जब तुम बुढी हो जाओगी, तो मैं तुम को किस चीज़ में दूध दूँगा?” तब उसका दिमाग जगा कि देखो बच्चे ने बात समझ ली, और फिर कहा कि, “अच्छा, अगर दूसरा आ सकता है तो बहुत अच्छी बात है। अब मैं नहीं रोऊँगा, क्योंकि उसमें मैं
तुमको दूध दूँगा।” १ तो बच्चें हमेशा ये देखते रहते हैं कि आपका बर्ताव कैसा है। और इसकी जो छाप बच्चे पर पड़ती है बड़ी गहरी होती है, बनिस्बत इसके कि आप सुबह-शाम बच्चे को लेक्चर देते रहें । इसलिए जो लोग सहजयोगी यहाँ पर हैं, या जिनके बच्चे यहाँ पर पढ़ते हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि क्या आप में वो सम्यक ज्ञान आया है या नहीं। सम्यक ज्ञान आने पर मनुष्य कितना भी समझाए तो बुरा नहीं लगेगा, कितना भी प्रेम करे तो भी खराब नहीं हेगा। आप लोगों पर मेरा अनन्त प्रेम है, और बहुत बार आपको मैं समझाती भी हूँ, लेकिन न आप लोग बुरा मानते हैं, न ही आप बिगड़ गए हैं। इस की वजह ये है कि सम्यक ज्ञान से काम करना है। अगर बच्चें जानते हैं कि आप पूरी तरह से उनको प्यार करते हैं, तो एक बार की भी झिड़की बहुत होती है। लेकिन अगर आप हर समय झिड़कते रहें तो बच्चें कहेंगे कि इनकी तो आदत ही झिड़कने की है। इसलिए बच्चों को बहुत ही संभाल कर और प्यार से रखना चाहिए। वास्तव में मैं तो यही कहूँगी कि प्यार ही से रखिए और जब कभी भी बच्चे में कोई दोष देखें, कुछ देखें, दो-चार बार देखने के बाद शांति से उनको बिठा करके कहें कि ये ठीक नहीं है। आपको आश्चर्य होगा कि आपका उनके साथ अगर सद्व्यवहार रहा, तो इस घबड़ाहट में, कि कहीं इनका प्यार न खत्म हो जाए, एकदम ठीक हो जाएंगे। लेकिन आपने अगर कोई प्यार ही कभी बच्चे को जताया नहीं, हर समय ‘ये ठीक से रखो, वो ठीक से रखो, इसे ये करो, वो करो’ करते रहे, तो बच्चे ये सोचेंगे कि यह तो इनकी आदत है, एक बात और कह दी तो क्या कर लेंगे। अत: अपना व्यवहार सम्यक होना चाहिए। अपने देश में भी हमनें देखें हैं कि लोग अपने बच्चों के लिए झूठ बोलेंगे, चोरी करेंगे, चकारी करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे । यहाँ तक कि उनका बस चले तो देश भी बेच ड़ालें, और कुछ लोग होते हैं, परदेस में खास करके, वो अपने बच्चों की इतनी भी परवाह नहीं करते हैं कि अगर बच्चे मर रहे हों तो उनके मुँह में पानी ड्राल दें। ये दोनों चीज़े सम्यक नहीं है। उनको यही रहता है कि हमारा कालीन गन्दा नहीं होना चाहिए, हमारा दरवाजा साफ रहना चाहिए और हमारी गाड़ी ठीक रहनी चाहिए और बच्चों को काम करना को बहुत खराब करती हैं। पिता भी चाहिए । उनके पीछे में पड़े रहते हैं, और यहाँ हम बच्चों को खराब करते हैं। खासकर माँ बच्चों कभी-कभी बच्चों को खराब करते हैं। तो पहले अपनी ओर देखना चाहिए कि हम बच्चों को क्यों खराब करते हैं ? इस कदर उनको प्यार नहीं देना चाहिए कि जिससे बच्चे खराब हो जाएं, आप की बात न सुनें, मनमानी करें, या बच्चें ये न सोचें कि, ‘हाँ ये तो… हम, इनको सब समझा लेंगे । ये तो अपने हाथ की बात है।’ इस कदर हम अपने अति-प्यार से उनको गलत रास्ते पर ड्राल देते हैं। उसी प्रकार कभी कभी उनके साथ बहुत सख्ती करने से भी उनको हम इस तरह के बना देते हैं कि वो हमसे मुँह मोड़ लेते हैं। फिर हमारा वो मुँह नहीं देखना चाहते। दोनो चीज़ के बीचोंबीच सहजयोग है, सुषुम्ना नाड़ी पर । अत: सुषुम्ना नाड़ी पर चलना चाहिए | न तो अति-प्यार के बहाव में रहना चाहिए और न ही अति कर्तव्य के बहाव में, किन्तु आत्मा के बहाव में चलना चाहिए। और जब आप आत्मा के आदेश से चलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि आपकी आत्मोन्नति तो होगी ही, साथ में आपके देखा -देखी आपके बच्चों की भी होगी । | ये सहजयोग का स्कूल इसलिए नहीं बनाया गया है कि देश में स्कूल कम हैं। स्कूल तो बहुत लोग बनाएंगे, बना भी सकते हैं, पैसा भी बना सकते हैं, बच्चे पढ़ भी जाएंगे , ग्रेज्यूएट भी हो जाएंगे , और सब हो जाएंगे | सहजयोग का स्कूल बनाने का मेरा विचार सिर्फ एक ही बात से था कि हमारे देश में आज ऐसे नागरिकों की ज़रूरत है जो एक विशेष रूप के आदर्शवादी हों। और ये विशेष रूप के आदर्शवादी बच्चें कहाँ तैय्यार होंगे? उनके लिए कोई ऐसी शाला होनी चाहिए जहाँ इसकी पूरी व्यवस्था हों….।