Sahasrara Puja: Consciousness and Evolution

Alpe Motta (Italy)

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१९८६ -०५-०४ , सहस्त्रार पूजा, इटली, चैतन्य और उत्क्रांति 

आज हम सब के लिए एक महान दिवस है, क्योंकि यह सोलवां सहस्त्रार दिवस है। जैसे कि सोलह ताल या सोलह हरकत में आप कविता के एक उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं। क्यों कि इस प्रकार से यह पूर्ण हो जाता है।  जैसे श्री कृष्ण को भी एक पूर्ण अवतरण कहा जाता है, क्योंकि उनकी सोलह पंखुड़ियां होती हैं। इस परिपूर्णता को “पूर्ण” कहते हैं।  तो अब हम एक और आयाम पर पहुंच गए। पहला वह था जहाँ आपने आत्म साक्षात्कार प्राप्त किया।  

उत्क्रांति की प्रक्रिया में यदि आप देखें, पशु अनेक चीज़ों के प्रति सचेत नहीं हैं, जिन में मानव सचेत है। जैसे कि तत्त्वों का प्रयोग पशु अपने लिए नहीं कर सकते हैं। और वह अपने प्रति बिलकुल भी सचेत नहीं हैं। यदि आप उन्हें आईना दिखाएँ तो वह ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं करते जैसे वह स्वयं उसमें हों, मेरे विचार से, “चिम्पांज़ियों“ को छोड़कर। इसका अर्थ है कि हम कुछ हद तक उनके जैसे हैं ! तो जब हम मनुष्य बन गए, हमने अनेक विषयों के संदर्भ में चेतना प्राप्त की, जिनके प्रति पशु सचेत नहीं थे। तो उनके मस्तिष्क में यह समझ नहीं थी कि वह तत्त्वों का उपयोग अपने लिए कर सकते हैं।    

मनुष्य होते हुए भी आपको अपने भीतर स्थित चक्रों के विषय में ज्ञान नहीं था। तो आपकी चेतना कार्यरत हो कर, चक्रों के अचेतन कार्य और मस्तिष्क के सचेतन कार्य के आधे रास्ते तक पहुँची। और आप ने  कभी भी अपनी “स्वायत्त तन्त्रिका प्रणाली“ या अपने आंतरिक अंगों का अनुभव नहीं किया, कि वह कैसे कार्य करते हैं। आप को यह आभास भी नहीं था कि आप पर दूसरों का क्या प्रभाव पड़ता है।  

जिसके परिणामस्वरूप, मनुष्य को जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई अथवा प्रदान की गई, उन्होंने सभी प्रकार की चीज़ें एकत्रित कीं, अपने मस्तिष्क में, सहस्त्रार में, बिना उसके प्रति सचेत हुए। उन्होंने अपने सहस्त्रार, अपने मस्तिष्क का प्रयोग सभी प्रकार के निष्फल उद्देश्यों के लिए किया।  

वह जागरूक नहीं थे, श्री कृष्ण की दी हुई उस चेतावनी के प्रति, कि यदि आप मानवीय चेतना का उपयोग अपने उत्थान के अतिरिक्त कहीं और करें तो आपका पतन होगा। उन्हें बताया गया था। ऐसा नहीं है कि उन्हें बताया नहीं गया। उन्हें यह पता था। चाहे पूर्व हो या पश्चिम ,सभी को यह ज्ञात था कि आपका पुनर्जन्म होना है।    

और ऐसा हुआ कि पश्चिम में लोगों ने सोचा कि अब वह अपनी बुद्धि का उपयोग करके तत्वों के विशेषज्ञ बन जाएंगे और वह तत्व का उपयोग अपने उद्देश्य के लिए कर लेंगे। अगर उन्होंने आत्म साक्षात्कार के उपरांत ऐसा किया होता तो परिस्थिति एकदम भिन्न होती। क्योंकि आत्म साक्षात्कार के उपरांत आप सब चैतन्य और अपने चक्रों के प्रति जागरूक हो गए हैं। इस नवीन जागरूकता से आप उन सब से बचे रहते जो ग़लत होता।   

पर यह एक लोभी व्यक्ति जैसा है, जो थोड़ा धन प्राप्त करता और उसे ख़र्च कर देता है। अब इस समस्या ने आपके मस्तिष्क को जटिल कर दिया है। आप में कुछ धारणाएं हैं, जो कि वास्तविकता से बहुत परे हैं। 

जिस प्रकार हम मशीनों का उपयोग कर रहे हैं, हम स्वयं ही मशीन बन गए। तो हम में कोई भावनाएं नहीं हैं और हम दूसरों के साथ स्वाभाविक रूप से सम्बन्ध नहीं जोड़ पाते।

मानवीय चेतना द्वारा आपने स्वयं को दूसरों से और प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने की उपलब्धि प्राप्त की। पर यह अहंकार उन्मुख दृष्टिकोण आपको स्वाभाविक,वास्तविक जीवन से दूर ले गया। और हम बनावटी बन गए। यह सब कुछ आता है बनावटी होने की धारणा से। जैसे कहा जाता है कि घमंडी होना, नकचढ़ा होना “फैशनेबल” है। यह आपके उत्थान और उत्क्रांति की प्रक्रिया के लिए एकदम विपरीत है, क्योंकि आप ने दूसरों से सम्बन्ध जोड़ने की शक्ति खो दी, जिसे आपने मानव बन कर पाया था। वह सभी संस्थाएं जिन्हें आपने सामूहिक सूझबूझ से बनाया, वह भी बनावटी हैं।

फिर एक प्रचलन आरंभ हुआ, प्राकृतिक होने का। यह एक और नक़ल है कृत्रिमता की। प्राकृतिक का अर्थ एक आदि कालीन व्यक्तित्व नहीं,अपितु विकसित होना है। सृष्टि का सम्पूर्ण उद्देश्य उत्क्रांति है। 

तो एक और धारणा जिसे आप ने अति सरलता से अपना लिया क्योंकि आप के पास बुद्धि है और आप हर उस चीज़ को मान लेते हैं जो आपके सामने आती है। और आप ऐसे बनावटी हो गए कि आपको इतना समय लगा स्वयं की चेतना की अनुभूति के लिए।

 अब जीवन के हर क्षेत्र में एक वैचारिक,कृत्रिम समझ है।   

उदाहरण के लिए आप देखें कि “काम” जो कि इतना स्वाभाविक, साधारण चीज़ है, उस में कुछ भी महान नहीं। पर इसे भी आपने इतना कृत्रिम बना दिया कि अब यह “काम” आपके मस्तिष्क में आ गया है। इसके द्वारा आप ने न केवल गणेश को मूलाधार में, अपितु महागणेश को भी अपने मस्तिष्क में निष्क्रिय कर दिया है। 

एक अन्य पक्ष, जैसे कि कला। अब यह इतनी मूर्खतापूर्ण धारणा है जिसके अनुसार कला को पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार होना चाहिए। जो भी कला सम्बन्धी नियम बने हैं कि कला को ऐसा, ऐसा, ऐसा ही होना है। जैसे कि आप किसी को “बारोक” कला शैली बता कर उसकी निंदा करें, फिर “रोकोको” शैली, इत्यादि। सब की निंदा। और अंततः आप एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कला सब से नीरस चीज़ है। जैसे कि गन्ना, जब आप उसका सम्पूर्ण रस निकाल लेते हैं ,जो भी बचता है वह एक दिन कलाकृति बन जाएगा।    

तो मस्तिष्क जो हृदय का पोषण नहीं करता, वह केवल एक कृत्रिम मस्तिष्क है, बिल्कुल एक “रोबोट” के समान। तो लोग “रोबोट” जैसे ही बन गए हैं। अब इसे वह नियंत्रित कर सकता है, जो भी प्रखर बुद्धि वाला हो। क्योंकि आपके पास स्वयं का हृदय नहीं है और मस्तिष्क का नियंत्रण वह करता है जिसके पास धारणा सम्बन्धी अधिक बुद्धि है। यह सभी धारणाएं विनाशकारी हैं। तो “हिटलर” की यह धारणा थी कि वह एक आर्य पुरुष है और वह उच्च जाति का है। और इसे स्थापित करने के लिए उसे अनुचित नहीं लगा पूरे विश्व को नष्ट करना।   

यही धर्म के क्षेत्र में भी है। वहां भी, प्रत्येक धर्म को धारणाओं के प्यालों में रखा या डाला गया।

अब सर्वाधिक निरर्थक धारणा जिसे मनुष्य ने प्राप्त किया वह है कि पैसा ही सब कुछ है। पहले उन्होंने राजनैतिक प्रभुत्व के लिए प्रयास किया, यह सोच कर कि राजनीतिक सत्ता ही सब कुछ है। और अब उन्हें ऐसा लगता है कि धन ही सब कुछ है और अन्य सभी उत्तम चीज़ें काल्पनिक हैं। 

तो जब मैंने अपना जीवन आरम्भ किया, मैंने जटिल सहस्त्रार देखे। और जितना भी मैं अपनी चेतना से प्रयास करती जटिलता को सुलझाने का, उतना ही वह अधिक कठिन होता गया। क्योंकि यदि आप मेरी उम्र देखें, तो पचास वर्षों में आप देखेंगे कि लोग और कितने जटिल बन गए हैं। और सहस्त्रार खोलने के बाद जब मैं पाश्चात्य देशों में आई, इन सोलह वर्षों में, मैंने पाया कि अब वह असुधार्य हैं। 

अब मंच तैयार है आपके उत्थान के लिए। यह पृष्ठ भूमि है जिसका वर्णन मैंने आप से किया है।   

और आप देख सकते हैं कि कैसे जब आप का कार्यक्रम होता है, वहां पाँच सौ लोग कार्यक्रम में होंगे और दो सप्ताह में सभी ग़ायब हो जाएँगे! क्योंकि जब उत्थान होता है, कुण्डलिनी अहंकार को बाहर निकाल देती है और व्यक्ति को सत्य के निकट लाती है। पर फिर वह अहंकार जो बहुत तीव्रता से बढ़ता है, वह कुण्डलिनी की गति से भी आगे बढ़ते हुए मस्तिष्क को ढक देता है। तब अहंकार सुझाव देता है, “आप धार्मिक जीवन कैसे जिएंगे? आपको कमी अनुभव होगी सभी प्रकार की शराब, सभी पागलपन, जीवन के सभी आनंद की।” उन्हें लगता है कि वह पागल होने की पूरी स्वतंत्रता को खो देंगे। 

जब आप इस दृष्टिकोण से देखते हैं कि कैसे लोग प्रतिक्रिया करते हैं तो यह आश्चर्यजनक होता है। आप को कुछ अधिक ही मूर्खतापूर्ण करना होगा इसे बाज़ार में बेचने के लिए। कुछ दिन पहले मैंने सुना कि कोई धनी बन गया है खाली “टिन” को “लैंप” के रूप में बैच कर। सभी प्रकार की मूर्खतापूर्ण चीज़ें जो किसी भी प्रकार से प्राकृतिक सुंदरता या प्राकृतिक आनंद के निकट नहीं, उन्हें अपनाया जाता है, सुसंस्कृत मान कर।    

इसका दूसरा पक्ष है कि आसुरी विद्या, काली विद्या हावी हो गई है। जैसे श्री कृष्ण ने पुनः चेतावनी दी थी  पन्द्रहवें अध्याय में, कि यदि आसुरी विद्या हावी हो जाए तो शुद्ध विद्या आसुरी विद्या की गति से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती।  

जैसे कि अमेरिका में सहज योगियों के बीच एक बड़ा विवाद हुआ कि मेरी तस्वीर बैठक में होनी चाहिए या नहीं। पर यदि आप उन्हें कहें अपने नाखूनों पर काला रंग लगाने के लिए, अपना चेहरा काला करने के लिए और काले कपड़े, सब चुड़ैल जैसे, तो वह ऐसा करेंगे !

इस स्थिति में भी जब हम सहज योगी हैं, हम लज्जित हैं अपने धार्मिक जीवन को ले कर। जब वह “हिप्पी” या “पंक” बन गए, या ऐसे कुछ मूर्ख बन गए, उन्होंने अपना सारा जीवन, सारा समय, सारा पैसा, इसमें दे दिया। उन्होंने अपनी वेश भूषा,जीवन शैली,पारिवारिक जीवन बदल लिया, सब कुछ उन्होंने बदल दिया – पूर्ण रूप से!

मेरे कहने का अर्थ है कि यद्यपि सहज योगी आश्वस्त हैं सहज योग की दिव्यता के सम्बन्ध में, फिर भी उन्हें संकोच है। 

अब आप जानते हैं कि आपकी मां आपसे कोई पैसा नहीं लेती, इसके विपरीत वह आप पर व्यय करती है, और आप सब को इससे लाभ हुआ है। पर जब देने की बात आती है तो सभी को संकोच होता है।  

उस अतीत से आप आ रहे हैं परमात्मा की कृपा के प्रकाश में। पर आप उसमें तीव्रता से नहीं कूदना चाहते हैं। आप अपना समय लेना चाहते हैं, क्रमशः, इतने धीरे-धीरे कि हो सकता है आप अपना अवसर ही खो दें। 

तो सहज योगियों की जागरूकता में जहाँ आपको अपने चक्रों के विषय में सब पता है, आपको चैतन्य के बारे में पता है, आपको पता है कि आप दूसरों से कैसे संबंधित हैं, फिर भी यह समस्त ज्ञान आपके निजी लाभ के लिए है। तो अतीत की छाया अभी तक आप के साथ है, जब कि अब आपके पास यह नवीन जागरूकता है। 

पशुओं को स्वतः ही तैरना आता है, उन्हें सीखने की आवश्यकता नहीं। पर मनुष्य को तैरना सीखना पड़ता है। तो वह भूल गए उन तकनीकों को जिन्हें पशु जानते थे और उन्होंने वह कार्यशैली अपना ली जो मनुष्यों की है।    

पर सहज योग में आपको अपना आत्म साक्षात्कार एक ही जीवन में प्राप्त हुआ। और इसी जीवन में आपका विकास होना है। और इसी जीवन काल में आपको सर्वोच्च प्राप्त करना है। तो अब समय इतना कम है! और पीछे इतना अंधकार है! आप ऐसे लोगों से घिरे हैं जो, सुबह से शाम तक, नकारात्मक विचार उँडेल रहे हैं। अब आप लोगों को ही तीव्रता से आगे जाना है, अन्य सभी को छोड़ते हुए। 

किन्तु एक प्रकार का आलस्य, यद्यपि आप समझते हैं कि आप की जागरूकता उनसे से बहुत भिन्न है,  एक तरह का आलस्य है, जो इसे नहीं स्वीकारता है जिस रूप में उसे सहज योग स्वीकारना चाहिए। 

प्रत्येक को चिंतन करना चाहिए, प्रतिदिन, “आज मैंने सहज योग के लिए क्या किया?” 

पर आप अभी भी अत्यंत व्यस्त हैं, अपने कार्य में, पैसे बनाने में, ऐसे लोगों से सम्बन्ध रखने में जिनका सहज योग से कुछ भी लेना-देना नहीं।   

हमें सम्पूर्ण प्रयास करना है, उस बिंदु तक पहुँचने के लिए, जहाँ जो कुछ भी हम जानते हैं, जिस पर विश्वास है, हम उस पर कार्य करें और उस से एकाकार हों। आप ऐसा सिद्धांतों से कर सकते हैं, पर वास्तविकता में नहीं। 

यही समस्या है, मेरा तात्पर्य है …  मैं इस विषय को समझाऊँगी। 

जैसे कि यदि एक कट्टर व्यक्ति मानता है कि वह कुछ ऐसी-वैसी चीज़ें अपने धर्म में कर सकता है, तो वह करेगा। जब धारणा सत्य न हो, उस से किसी को कोई लाभ न हुआ हो, कोई विशेष उपलब्धि नहीं दिखती हो, फिर भी लोग ऐसा करते हैं। 

मैं ऐसा अपने देश में देखती हूँ। जब लोग स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, मेरे पिताजी ने अपनी सारी संपत्ति दे दी,अपना व्यवसाय छोड़ दिया, ग्यारह बच्चों वाला परिवार होते हुए भी। और हम महलों में रहने वाले अब झोंपड़ी में रहने लगे, बहुत दिनों तक, बहुत वर्षों तक। स्थूल स्वतंत्रता के लिए तो हम कुछ भी करेंगे, पर सूक्ष्म स्वतंत्रता के लिए सहज योगियों को यथा संभव प्रयास करना है। 

तो, सब से पहले यह समझना है, जागरूक होना है, अपने चित्त में हर समय, कि आप लोग योगी हैं। आप वह लोग हैं जो कहीं अधिक उच्च हैं, बाकी सब लोगों से। सम्पूर्ण मानवता का निवारण आपके ऊपर निर्भर करता है।  

सृष्टि के उद्देश्य में आप सहायक होंगे। तो सर्वप्रथम आपको जागरूक होना है अपनी चेतना में, कि आप इतने महत्वपूर्ण हैं। और इसलिए आपको साक्षात्कार दिया गया। 

आप अपने कुसंस्कारों और अहंकार के साथ कैसे जी सकते हैं?   

संस्कार इस प्रकार हैं, मान लें कि आप ईसाई धर्म के हैं तो आप उस धर्म का कुछ अंश सहज योग में ले ही आएंगे। यदि आप हिन्दू धर्म से हैं, तो आप वहां से भी कुछ लाना चाहेंगे। हमारे यहाँ इन सभी का सार सहज योग में है, सभी शुद्ध सार, पर हम सकल निरर्थकता को नहीं लेंगे। यह सब चीज़ें धूल समान हैं, हमारे सहस्त्रार पर, जिन्हें झाड़ कर फेंकना ही होगा।    

यद्यपि अब आप जागरूक हैं, आप जागरूक हैं और सचेत हैं अपने चक्रों के सम्बन्ध में, फिर भी आप उन्हें स्वच्छ नहीं रखते। साधारण लोगों के पास यदि वस्त्र हों, घर हों, वह उन्हें साफ़ रखने का प्रयास करते हैं। पर आप लज्जित नहीं होते जब चक्र ख़राब होते हैं क्योंकि कुछ समय पश्चात् आप उनकी समझ खो देते हैं। इसका अर्थ है कि आप सूक्ष्म हो गए हैं परन्तु अपनी चेतना में आप अभी भी सूक्ष्म नहीं हैं। 

बहुत सी बातें हैं जिनका ज्ञान आपको अधिक है, उन लोगों की तुलना में जो साक्षात्कारी नहीं हैं। वह ज्ञान जो  पूर्णतः सत्य है। उदाहरण के लिए, हम चैतन्य का उपयोग ही नहीं करते। जब भी इसकी आवश्यकता हो, हम इसका प्रयोग नहीं करते। या कभी यांत्रिक रूप से, ठीक एक मशीन जैसे, हम बंधन देना आरंभ कर देते हैं।  

तो आप अभी भी सचेत नहीं अपने चक्रों के प्रति। आप थोड़ा बहुत सचेत होते हैं जब आप अपने चित्त का वहां उपयोग करते हैं। अन्यथा, आप अपने “सेंट्रल नर्वस सिस्टम“ (केंद्रीय तंत्रिका प्रणाली) में अभी तक इतने सचेत नहीं हुए। इसी कारण आपको पता नहीं चलता है कि आपको क्यों कोई कार्य किसी विशेष समय पर करना है। जब तक आप इस निर्विकल्प स्थिति तक नहीं उठते, आप आगे नहीं बढ़ सकते। 

उदाहरण के लिए, मुझे उन सब चीज़ों का पूर्ण ज्ञान होता है जिन्हें मैं करती हूँ।

मैं किसी भी शक्ति को, जब भी चाहूं,संभाल सकती हूँ। जिस भी नकारात्मकता को मैं चाहूँ, मैं सोख़ सकती हूँ। मैं ऐसी कोई नकारात्मकता नहीं लेती जिसे मैं ना चाहूँ। 

आप चाहे हज़ारों मील दूर हों मुझसे, मुझे आप सब के विषय में पता है। चाहे मुझे आपके सांसारिक नाम न पता हों, पर मैं आप को अपने अंग-प्रत्यंग के रूप में जानती हूँ। मैं भी एक मनुष्य जैसे व्यवहार कर सकती हूँ, बिलकुल आप लोगों जैसे, आप जैसे वृद्ध होकर, ऐनक का भी प्रयोग कर, वह सभी कार्य करते हुए जो मुझे एक सम्पूर्ण मनुष्य बनाता है। मैंने इस भूमिका को अपनाया है सचेत होकर, न कि अवचेतन में। 

मेरे लिए कुछ भी अचेतन में नहीं। यदि आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति जागरूक रहना है, तो आपको उस के प्रति सचेत होना पड़ेगा।  

सर्वप्रथम जो आपने प्राप्त किया है, वह शांति है,शांति! पर अब भी मैं देखती हूँ कि जिस शांति को आनंद दायक होना चाहिए, वह क्लेश बन जाती है। सत्य एक ही है! आप तर्क नहीं कर सकते सत्य के विषय में। वह समरूप है, इसमें आपसी मतभेद नहीं होता। हम अपनी उँगलियों को लेकर अनभिज्ञ होते हैं पर जब हमें कुछ पकड़ना होता है तो वह एक साथ मिलकर कार्य करती हैं।    

तो मस्तिष्क का वह भाग जो इस पर कार्य कर रहा है, उसके अचेत भाग को सचेत बनाना है, चित्त में रखना है। यही उत्क्रांति है। तो अब किसी भी धारणा से लगाव उत्क्रांति के विरुद्ध है। वास्तविकता का सामना करना आपको सीखना होगा, वास्तविकता को अपना कर, वास्तविक कार्य करना होगा।  

अब आप कह सकते हैं कि माँ यह तो एक चमत्कार है! जब ऐसा कुछ होता है,“यह एक चमत्कार है।“ ऐसा मनुष्य के लिए होगा, हो सकता है सहज योगियों के लिए भी, पर मेरे लिए नहीं क्योंकि मैं जानती हूँ कि वह क्या है। 

तो इस आधी-अधूरी चेतना से ऊपर उठने के लिए हमें देखना होगा कि हम कैसे इस पर कार्य कर रहे हैं। एक दूसरे से जुड़ने की प्रक्रिया को पूर्णतः बदलना होगा। यह अति आवश्यक है, कम से कम पाश्चात्य लोगों के लिए। क्योंकि कम से कम भारत में लोगों को पता है कि मानवीय प्रयास आपको कहीं भी नहीं ले जाताा है, स्वयं के उत्थान हेतु आपको कार्य करन पड़ेगा।

मेरा अभिप्राय असली भारतीयों से है। उनमें से कुछ तो सहज योग का लाभ लेते हैं और फिर अदृश्य हो जाते हैं। कुछ लोग ऐसा करते हैं। पर अधिकतर लोग यह जानते हैं कि आपको सचेत रहना होगा, अपनी प्राप्ति को लेकर। 

तो हम यह कह सकते हैं कि हमें आत्म ज्ञान की प्राप्ति हुई है पर हमें आत्मबोध नहीं मिला। अब उदाहरण के लिए, आप किसी का नाम लेते हैं, मान लीजिये किसी महान संत का। आप अनुभव करते हैं चैतन्य का बहना। आप यह भी जानते हैं कि ऐसा क्यों है -क्योंकि वह एक संत हैं। पर आप सहजयोगियों से ऐसा क्यों नहीं होता? यदि आप का नाम लिया जाये, तो चैतन्य का बहाव क्यों ना हो? और इसमें आपको  अधिक सहायता मिलती है क्योंकि आपके समक्ष आदिशक्ति स्वयं उपस्थित हैं। उन लोगों के पास कोई नहीं था यह सब बातें बताने के लिए। पर इस से हानि यह है कि आप इसे उचित महत्व नहीं देते।  

कभी-कभी फ़्रांसीसी  में छोटा होता है तो कभी इतना लम्बा।(श्री माता जी फ़्रान्सीसी भाषा के अनुवाद पर टिप्पणी कर रही हैं।) 

अब, अभिव्यक्ति के लिए  जब हम कुछ कहते हैं, जब हम कुछ व्यक्त करते हैं, क्या हम स्वाभाविक होते  हैं? क्या हम इसे अपने हृदय से करते हैं ? यह जागरूकता कि “मैं इसे अपने हृदय से कर रहा हूँ।“ मैं चाहती हूँ आप इसे प्राप्त करें।   

जैसे सहज योग में कई लोग ऐसे हैं जो बहुत परिश्रम करते हैं, अन्य इसे कोई महत्व नहीं देते। वह सहायता नहीं करना चाहते। वह सब कुछ बना-बनाया चाहते हैं। यह दर्शाता है कि उनमें स्वयं के आनंद की शक्ति की जागरूकता नहीं है। अगर वह इसे हृदय से करते हैं तो, उन्हें यह ज्ञात ही नहीं होगा कि उन्होंने कितना प्रयास किया है। उन्हें केवल यही अनुभव होगा कि उन्हें क्या आशीर्वाद मिला या उन्होंने क्या प्राप्त किया।  

इस प्राप्ति का बोध और संतुष्टि आपकी समस्त समस्याओं को दूर करेगी, विशेषकर आप लोगों की बाईं विशुद्धि। 

अब दूसरा चरण वह होगा जब आप सचेत होंगे उन सभी कार्यों को लेकर जिन्हें आप करते हैं, जिनमें कोई  त्रुटि नहीं होगी। आप जो भी करेंगे यदि उनमें कुछ ग़लत प्रतीत हो, वह अंततः सही होगा।

कोई भी अभी इस स्थिति में नहीं है। तो मैं आपको बताना चाहूंगी क्योंकि कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि जब भी मैं कोई प्रशंसा करती हूँ, वह सोचते हैं कि मैं उनकी ही कर रही हूँ। 

अब उदाहरण के लिये जैसे आज मुझे अपनी घड़ी का समय ठीक करना था। तो मैंने इस पेंच को बाहर खींचा,एक साधारण सी बात। अब मैं कहूँगी कि यह मैंने किया बिना ध्यान दिए पर पर्याप्त रूप से सचेत होकर। क्योंकि घड़ी रुक गई थी और मुझे समय पता था कि कितने बजे मुझे पूजा के लिए पहुँचना है। तो सोच समझ कर मैंने स्वयं को अपने ही विपक्ष में किया। यदि घड़ी न रूकती तो मैं समय से पूर्व आ जाती। पर उस समय मुझे नहीं आना था, इसलिए मुझे उस पेंच को खींचना ही था, उसे बंद रखने के लिए। 

जो कुछ भी छल आप करें, आपको पता है कि आप उसे स्वयं के विरुद्ध भी कर सकते हैं। और तब आप एक नाटक कर सकते हैं, “ओह! यह मुझसे भूल हो गयी।“   और ऐसी अन्य बातें, बिना किसी कारण। पर यह स्थिति अभी दूर है, मुझे कहना होगा।                

अभी जिस स्तर पर हम हैं, हम अभी भी अनेक ग़लतियां कर रहे हैं क्योंकि हम आत्म सचेत नहीं हैं। मोटे तौर पर हम इस शब्द “आत्म सचेत “ को ऐसे समझ सकते हैं – जब किसी व्यक्ति को “इंटरव्यू “ के लिए जाना होता है तो वह अपने “सूट“ का चयन ठीक से करता है, जाने से पहले अपने बाल ठीक से बनाता है,अपना गला साफ़ करता है – आत्म सचेत! 

पर जब उत्थान का प्रश्न होता है तो क्या हम सचेत हैं? या हम यह मान ही लेते हैं कि, “अब माँ हमें अच्छे से नहला कर पालने में डालेंगी और हमें वहां ले जाएंगी।” 

यह बचपना है! आपको अपने उत्थान में परिपक्व होना है। आप कह सकते हैं “हमें क्या करना चाहिए?”   .

प्रतिदिन स्वयं का सामना करें! वास्तव में देखें कि आप कितना समय व्यर्थ के चिंतन में और कितना अपने उत्थान में देते हैं।  

क्या आपने सब कुछ,अपनी चिंताओं को परमात्मा पर छोड़ दिया है? क्या आप अपने अतीत से पूर्णतः बाहर निकल गए हैं? क्या आप  हर प्रकार से बाहर निकल आएं हैं, सब मूर्खतापूर्ण चीज़ों को छोड़ कर? 

“और मैं दूसरों से कैसे संबंध रखता हूँ? मैं दूसरों से कैसे बातचीत करता हूँ जो सहजयोगी हैं?”   

मुझे कभी- कभी आश्चर्य होता है कि यदि एक सहज योगी को कोई ग़ैर सहज योगी परेशान करे तो सहज योगियों का एक गुट ग़ैर सहज योगी का समर्थन करता है। 

या कोई सहज योगी जिसे आगे बढ़ना है, अधिक ध्यान नकारात्मक व्यक्तियों पर देता है, न कि सकारात्मक पर। वह नकारात्मक लोगों के साथ अधिक अच्छे संबंध रखता है, पर सकारात्मक लोगों के साथ इतना नहीं। उसकी नकारात्मक लोगों के साथ अच्छी मित्रता होगी और उनके साथ घुल मिल जाएगा पर सकारात्मक के साथ ऐसा नहीं। 

आपको सकारात्मक अच्छे से पकड़ना होगा। 

पर यह सर्वदा उल्टा ही होता है क्योंकि यहाँ एक अति सूक्ष्म अहंकार है। यह सारी सूक्ष्म समझ मैंने आपको अनेक बार बताई है। 

परन्तु, आपकी इस जटिल बुद्धि द्वारा, जो एक मशीन जैसी है, एक ख़राब कम्प्यूटर जैसी, मेरी बातों से आप ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं जो कि बिलकुल विपरीत हो।      

जैसे कि मैं कहूँ, “आप अतीत को भूल जाएँ।“ एक साधारण सी बात। 

क्या इसका अर्थ यह है कि आप वह सब भूल जाएँ जो अतीत में अच्छा था? यह तो ऐसा हुआ कि आप न समझें कि आप ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?

भूतकाल को भूलने का अर्थ है कि आप अपने अतीत को स्वयं पर हावी नहीं होने दें। मस्तिष्क जो सरल है, स्पष्ट है, जिसमें प्रेम है, वह समझ सकता है जो मैं कह रही हूँ – स्पष्ट रूप से।     

इस जटिल मस्तिष्क को ठीक करना होगा। और सबसे उत्तम उपाय है सोचना बंद करें। केवल विचार करना समाप्त करें। यही आप को करना है। जब आप विचार करना बंद करते हैं, आपको लगता है कि कुछ नहीं किया जा सकता है। पर केवल विचार करने से आप कुछ भी नहीं करते हैं।   

उदाहरण के लिए, मुझे आप को अभी एक भाषण देना है, पर मैं उसके विषय में सोचना आरम्भ करती हूँ, तो आप क्या सुनेंगे? क्या आप मेरे विचार सुन सकते हैं? जैसे,आप को इन दीपों को प्रज्वलित करना है, ठीक है? तब आप इस विषय में सोचने लगते हैं, ”मुझे इसे प्रज्वलित करना है।“ 

क्या यह प्रज्वलित हो जाएंगे? यह समझने की बात है कि केवल सोचने से आप ऐसा नहीं कर सकते।  

सोचना एक आलसी व्यक्ति का पहनावा है,और यह काम चोरी के लिए किया जाता है। एक बार मैंने मेरे घर में काम करने वाली एक महिला से पूछा, “हम बाहर जा रहे हैं। आप हमारे लिए कुछ पकाएंगी?” 

जब हम लोग वापस आए तो उसने कुछ भी नहीं पकाया था। मैं हर दिन खाना बनाती थी, पर उसने कुछ भी नहीं बनाया। मैंने पूछा “क्यों, आप ने हमारे लिए कुछ बनाया क्यों नहीं?” 

उसने कहा, “मैंने सोचा संभवतः आप बाहर खाएंगे !”

वह पाश्चात्य महिला थीं, तो मेरे पति ने कहा, “ठीक है, हम लोग बाहर जा कर खाते हैं। आप घर पर रहें!”

मैंने कहा ,”यह अच्छा नहीं लगता।“ 

उन्होंने कहा, “नहीं, उसे समझने दो कि जो उसने सोचा वह उसके लिए था!”

तो यह काम से बचना है जो आप ने पहले ही सीख लिया, यह चतुराई।“

तो इस विषय पर तर्क न करें। सहज योग के विषय पर तर्क न करें। 

आप अपने नेताओं से तर्क न करें। चाहे आप उनकी पत्नी क्यों न हों, पर बहस न करें। हम लोग बहुत परेशान हैं कई नेताओं की पत्नियों से क्योंकि वह अपने पतियों को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं। जहाँ तक सहज योग का प्रश्न है, उनका इस से कुछ भी लेना-देना नहीं। 

मान लें कि आप किसी कार्यालय में काम करते हैं और जो पति हैं वह किसी ऊँचे पद के अधिकारी हैं और आप एक साधारण कर्मचारी। तब क्या आप उस पति को सुधारेंगी? इस विषय में महिलाओं को संस्था में सहयोग करना है, पति का समर्थन करना है, प्रेम पूर्वक हृदय से, न कि अपने मस्तिष्क से।  

मेरे विचार से यह बहुत अच्छा है कि मेरा एक महिला के रूप में जन्म हुआ। क्योंकि मैं आनंद ले सकती हूँ,अपने हृदय का, अपनी भावनाओं का। अपने प्रेम की भावना, प्रेम का कार्यान्वित होना और उसकी लीला। 

यह इतना महान है कि किसी अवतरण को इसका इतना आनंद नहीं मिला जितना कि मुझे। तो महिलाएं  स्वयं को तुच्छ न समझें यदि उन्हें हृदय का ध्यान रखना है। पर उनका स्थान एक प्रकार से ऊँचा है, एक उच्च स्तर पर। आप बिना विचार किए रह सकते हैं परन्तु आप हृदय के बिना नहीं रह सकते।     .

तो महिलाओं को अपने पतियों से बहस नहीं करनी चाहिए, अगर वह नेता हैं। वैसे भी उन्हें तर्क नहीं करना चाहिए। क्योंकि मैंने देखा है कि यदि महिलाएं अत्यधिक विवादप्रिय हों तो पुरुष बहरे हो जाते हैं। वह बिल्कुल नहीं सुनते की महिलाएं क्या कह रही हैं। अगर महिलाएं अत्यधिक आक्रामक हों तो पुरुष एकदम चुप हो जाते हैं।  

तो एक दूसरे से संबंध में आपको स्वाभाविक व्यवहार करना चाहिए कि आप पुरुष हैं और आप महिला हैं। आपको और अधिक महिला, और अधिक पुरुष बनना चाहिए और तब आप इसका आनंद अनुभव करेंगे। कल्पना कीजिए कि इस संसार में अगर केवल पुरुष होते या केवल महिलाएं होती तो क्या होता? 

तो हमें पता होना चाहिए कि हमें अपनी जागरूकता में सचेत होना है कि हमने कितना पाया है – हमारे एक दूसरे से संबंधों की चेतना को, जो विराट की सामूहिक चेतना है, मस्तिष्क की, अर्थात् सहस्त्रार की।     

तो मूलतः सहस्त्रार विष्णु तत्व है, पर इसकी देवी माताजी निर्मला देवी हैं। तो आप देख सकते हैं कि कितना सुंदर एकीकरण हुआ है। श्री विष्णु की सभी शक्तियों को देवी के अनुसार कार्य करना होगा, देवी के कमल चरणों में समर्पण करना होगा। 

तो श्री विष्णु की चेतना पूर्णतः देवी के हाथों में है। मैं इस महान देवी के बारे में नहीं कहूँगी, यह बहुत अधिक है, क्योंकि यह आपको विस्मय से भर सकता है।    

तो जो भी कार्यान्वित हो रहा है उसे होने दें। जैसा कहा जाता है,” अपने सहस्त्रार को इस देवी को समर्पित  करें।“ और यह इतना सरल है, आपके लिए इतना सरल, क्योंकि आपके पास देवी हैं, आपके पास अपना सहस्रार है। और आप ही वह हैं, वह लोग जो सहज योगी हैं  जिन्होंने इस आधुनिक समय में उस देवी को देखा है।    .

कहा जाता है कि आपको तीन चीज़ों की कामना करनी चाहिए परमात्मा से जो हैं -सालोक्य, सामीप्य, सानिध्य। “सालोक्य” का अर्थ परमात्मा के दर्शन, “सामीप्य”  का अर्थ परमात्मा के निकट, सानिध्य है परमात्मा का साथ! 

पर आपने तादात्म्य पाया है, अर्थात् परमात्मा से एकाकारिता जो किसी भी पूर्व के योगी, संत, ऋषि की कल्पना में नहीं था। और यह तादात्म्य आपको तब प्राप्त होता है जब आप मेरे शरीर के बाहर हैं जब कि उन्हें यह तादात्म्य तब प्राप्त हुआ जब वह मेरे शरीर के अंदर है। वह अब नहीं हैं।  

तो अब आपको समय सीमा समझनी होगी। आपको अपनी महानता समझनी होगी और आपको समझना होगा कि कैसे आप लोगों को चुना गया इस रचना के सर्वोच्च कार्य के लिए। अब आलस्य के लिए समय नहीं है। अब आपको उठना और जागना होगा।  

मुझे आशा है कि आज वह दिन है जब आपको शीघ्रता से निर्विकल्प में प्रवेश करना होगा! पर केवल अपने प्रयास से ही आप वहां टिक सकेंगे। अन्यथा आप फिर से फिसल जाएंगे। तो इस प्रवचन को बार-बार सुनें, और इस विषय पर मत सोचें। मत सोचिए कि यह किसी और के लिए है, यह आप ही के लिए है ! आप सभी के लिए, प्रत्येक के लिए। और आप को स्वयं जानना होगा कि आप प्रतिदिन कितने आगे बढ़ रहे हैं।       

आज सहस्त्रार का विशेष दिवस है। वास्तव में यदि आप देखें सूर्य पंचांग के अनुसार यह सहस्त्रार कल होना था। वह सोमवार है जो कि सहस्त्रार है। और आप कल्पना कीजिए कि हम इसे एक दिन पूर्व मना  रहे हैं। तो हमें समझना है कि परमात्मा के पंचांग को मानव के पंचांग से कोई लेना देना नहीं। कई पंचांगों  के अनुसार मुझे दो हज़ार वर्ष बाद आना था, और कुछ सोचते हैं कि मुझे कम से कम दो हज़ार वर्ष पूर्व आना चाहिए था, इस रूप में। तो पंचांग ठीक है, समय ठीक है, सब कुछ ठीक है!.

आप लोग “रोबोट्” नहीं, आप “मशीन” नहीं, आपका विकास हुआ है उत्क्रांति की प्रक्रिया से। और केवल इस उत्क्रांति की प्रक्रिया से ही आप को उच्च व्यक्तित्व पाना है। तो हम जो कुछ भी करें, या जो कुछ भी उचित हो, आपको ही इनका परिणाम दिखाना है।

 हम अपने सहस्त्रार को एक महान प्रभुत्व स्तर तक ला सकते हैं पर वह पुनः गिरेगा। तो आप को यह  जानना है कि आपको जिस भी शिखर तक पहुँचाया जाए, आप  ही हैं जिसे इसको, सम्पूर्ण संकल्प शक्ति और कार्यों द्वारा बनाए रखना होगा ।   

परमात्मा आप को आशीर्वादित करें ! 

यह व्याख्यान आप की माँ की चिंता को दर्शाता है। इसका बुरा न मानें। 

यह सब मैं आपको दो वर्ष पहले या एक वर्ष पहले भी नहीं कह सकती थी क्योंकि आप अब उस स्थिति में हैं जब मैं आप को यह सब बता सकती हूँ। 

आप इसे समझ सकते हैं पर इसे आपकी चेतना बनना होगा। आप इसे समझने की अवस्था में पहुँच गए हैं पर इसको अपनी चेतना बनना होगा। आज की घटना से ऐसा होगा यदि आप अपने चित्त को वहां रखें। 

तो पुनः, परमात्मा आप को आशीर्वादित करें !