Akshaya Tritiya Puja Talk Pune
लेकिन इस मामले में अनादि काल से, इस दिन के शुभ अवसर पर, परमात्मा से लोगो ने बहुत चीज़े मांगी। जैसे कि, बहुत से लोग आज के दिन ये मांगते हैं कि प्रभु, महाराष्ट्र में बरसात हो जाए। बरसात हो जानी चाहिए, जिससे हमारी खेती आ जाए। ठीक है, वो मांगना ठीक है, कि खेती की उपज होनी चाहिए, बरसात होनी चाहिए, लोगो को खाने-पीने को मिलना चाहिए। उससे आगे क्या? ये कोई अक्षय बात तो मांगी नही। बरसात होगी, लोगों को खाने-पीने को मिलेगा, लेकिन ये बात कोई ऐसी तो नही कि जो अटल है, जो टलेगी नही, और फिर से यहाँ आपको दुष्काल के दिन ना देखने पड़ें। ऐसा तो कोई कह नही सकता। और फिर बरसात होने पे क्या होगा? वही काम करेंगे कि जिससे फिर से परमात्मा कि अवकृपा हो जाए और फिर से बरसात रुक जाए। मनुष्य का दिमाग ऐसा ही होता है। परमात्मा से जो मांगते हैं उसमे ये नही सोचते हैं कि हमें ये दशा क्यों आई, हमने कौन सी गलती की।
अब महाराष्ट्र में यहां बड़ी समृद्धि आ गई, और साखर (शक्कर) कारखाने बन गए, उसमे बहुत सारी चीनी तैयार होने लगी। फिर उसके बाद शराब बनाना शुरू कर दिया। ये नही विचार किया कि शराब बना कर के हम पैसे तो कमा लेंगे, लेकिन परमात्मा के विरोध में हम कार्य कर रहे हैं। और अब इस कलजुग में, जब से कृत-युग शुरू हो गया है, तो अब ये चीज़ें ज़्यादा दिन चलने नही वाली। उन्होंने शराब बनानी शुरू कर दी, उसमे वो राज-कारण ले आए, गरीब लोगों का नुकसान कर दिया। और जिनके पास काफ़ी गन्ने का उत्पादन हुआ, उनके दिमाग ख़राब हो गए, वो कहने लगे हम तो भगवान को मानते ही नही, भगवान नाम की कोई चीज़ नही, गन्ना ही सब कुछ है। उनके भगवान गन्ना, गन्ने की पूजा करो। लेकिन अब, जब गन्ने की मार पड़ी है, तब फिर अक्षय तृतीया के दिन कहते हैं कि माँ बरसात होनी चाहिए। पर फिर से आप गन्ने की मार खाने के इंतज़ाम में रहेंगे।
ये चित्त नही आएगा, कि कोई ऐसा विचार करें या कोई ऐसा प्रबंध बनायें कि जिससे कोई अक्षय चीज़ को प्राप्त करें। बहुत से और तरह के लोग मांगें करते हैं। सब में एक मज़ाक ही है, एक नाटकता है कि अपनी जो कमज़ोरियाँ हैं, अपने अंदर जो छिपी हुई वासनाएँ हैं, करने के लिए लोग मांगें करते हैं। अच्छा ठीक है, ग़र मांग की गई, आज तो देना ही होता है, भगवान के बंधन पड़ गया, उसने कहा ले लो भाई तुमको क्या चाहिए। तो किसी ने कहा कि साहब मुझे ऐसी-ऐसी पत्नी चाहिए – बड़ी अच्छी, सुलक्षणी, बड़ी घर-दार सँभालने वाली, बड़ी सुंदर-सी पत्नी चाहिए। दे दी। लेकिन आपकी नज़र तो वैसे ही घूम रही है अब भी दूसरी औरतो के पीछे में। अभी आपने तो कुछ अपना अक्षय-पद तो पाया नही। तब फिर बीबी की तबियत खराब हो गई या आपको कोई बीमारी हो गई तो आपने कहा ये कैसे मिल गया, ये कैसे हो गया? यही होना है। जिस चीज़ को आप मांगते हैं उसको शुद्ध स्वरुप में मांगिए, उसकी शुद्धता में मांगिए, तब वो चीज़ अक्षय–पद पे जा सकती है। जिस तरह से आपने कहा कि यहाँ बरसात हो जाए, ठीक है… भगवान को तो ये ही मान्यता देनी पड़ेगी, कि हाँ भाई, इन्होने बरसात मांगी वो मिल जाए। लेकिन उसका शुद्ध स्वरुप क्या है? आपने इसलिए बरसात मांगी कि महाराष्ट्र में फिर से कभी दुष्काल ना आए, लोग सब सुखी हो जाएं, किन्तु उसकी व्यवस्था तो की नही आपने, फिर से आपने वही महंगा बेचना शुरू कर दिया, दुनिया भर के धंधे कर दिए, अर्बस्थान को आपने यहाँ से शुगर भेज दी, गरीब लोगो के पास में खाने को शुगर नही। उसके बाद पता हुआ कि आपको करार कर दिया गया कि आपके पास अब कोई पैसा नही है, बैंक ने कहा कि इनको तो अब करार कर दिया जाए “बँक्रप्ट” (दिवालिया)। अपने कहा हमने तो अक्षय-पद में ये माँगा था। अक्षय-पद नही माँगा था आपने, उसकी शुद्धता भी नही मांगी थी, अब शुद्धता में मांगने का ये मतलब होता है कि ग़र आपने शुद्धता में बरसात मांगी, परमात्मा ने ग़र आप पर मेहेरबानी की, तो उस बरसात को सोचना चाहिए कि ये आशीर्वाद परमात्मा का है, पर क्या हम उस आशीर्वाद के लायक हैं? हम जो ये धरती से ये उगा रहे हैं, ये क्या हम सिर्फ़ अपने स्वार्थ और हर तरह की चोरी या हर तरह कि ओछी बाते करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? या इस आशीर्वाद को हम परमात्मा के गौरव में इस्तेमाल कर रहे हैं? परमात्मा के गौरव के लिए हम क्या कर रहे हैं? परमात्मा ने हमे आशीर्वाद दे दिया, हम उनके गौरव के लिए क्या कर रहे हैं? ये जब विचार मन में बैठता है तब चीज़ शुद्धता होती है। हमें पत्नी मिल गई बहुत सुंदर, लेकिन हम ऐसा कौन-सा काम कर रहे हैं, कौन-सा हमने अपने में परिवर्तन ला लिया, क्या हमने उसके साथ पूरी तरह से अपने पतीत्व को जताया है? क्या हमने एकनिष्ठता बताई है? क्या हमने सब बुरी संगति छोड़ कर सब अच्छी संगति ले ली? जब परमात्मा ने हमें आशीर्वाद दिया तो हमने उसे क्या दिया ये सोचना चाहिए।
पुष्पं-फलं-तोयं जो भी दे दीजिये वो परमात्मा मान्य कर लेते हैं। चलिए कोई बात नही, तुमने पुष्प दे दिए, फल दे दिए, सब मान्य है। लेकिन पुष्पं-फलं-तोयं से तो परमात्मा संतुष्ट हो गए। और अब अक्षय तृतीया के दिन जो भी मांगेंगे, वो हमें मिल ही जाएगा। मिल तो जाएगा, लेकिन थोड़ी देर के लिए, अक्षय समय के लिए नही। ये सब प्रलोभन हैं जीवन के। आप जो–जो प्रलोभन को मांगते हैं, वो पूर्ण होते जाएंगे, खास कर के सहज योगियों के लिए तो बहुत ही बड़े प्रलोभन पड़े हुए हैं, हर तरह के प्रलोभन हैं – पैसा मिलेगा, कुर्सी (?) मिलेगी, नाम मिलेगा, शोहरत बढ़ेगी, उमर छोटी लगेगी, सुंदर लगोगे, विवाह हो जाएंगे, सब तरह का आराम हो जाएगा, तंदुरुस्ती बढ़ जाएगी, सब चीज़ हो जाएगी। लेकिन अक्षय-पद नही मिलता। अक्षय–पद कोई प्रलोभन नही है, वो एक स्थिति है। अक्षय-पद मांगा था ध्रुव ने। ध्रुव ने परमात्मा से कहा कि मुझे तुम सिर्फ़ अक्षय–पद दो, मुझे और कुछ नही चाहिए। उन्होंने जो पद पाया, अभी तक आकाश में चमक रहे हैं। बहुत बार लंदन में मुझे उनके दर्शन होते हैं। प्रल्हाद ने उनसे अक्षय पद मांगा था, उनका कोई नाश नही कर पाया। उनको हर तरह से जलाया गया, भट्टी में डाला गया, ऊपर से फेंका गया, किसी तरह से वो उनका नाश नही हो सका। और उसके बाद जब विष्णुजी नरसिंह का अवतार ले कर संसार में आए और हिरण्यकश्यपु का नाश हो गया और उन्होंने प्रल्हाद से पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए, उन्होंने कहा प्रभु मुझे कुछ नही चाहिए।
अक्षय–पद पाने पर ही सब चीज़ें अक्षय हो जाती हैं, क्योंकि दृष्टी बदल जाती है, विचारधारा बदल जाती है, सारा चरित्र बदल जाता है और सब समझदारी में फ़र्क आ जाता है। विशेषकर अपने भारत में अक्षय–पद का मांगना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि मै देखती हूँ विदेश में, लोगों ने सब कुछ पा लिया, देख लिया, समझ लिया, और अब कुछ मांगने का नही है, ऐसी हालत आ गई है। ये दुनियाई चीज़ में कुछ रक्खा नही है, फालतू की चीज़ है, इसको क्या मांगना, हो गए सब, पाप भी कर लिए, पुण्य भी कर लिए सब दुनिया भर की तीरथ यात्रा कर ली, खतम काम, पर परमात्मा नही मिले, अक्षय पद नही मिला। तो आश्चर्य की बात है कि भारत के सहज योगियों से जो परदेस के सहज योगी हैं, उनमें ज़्यादा गहनता है। उनको सहज योग के सिवाय और कोई चीज़ नही चाहिए, अक्षय-पद के सिवाय उनको कुछ चीज़ नही चाहिए। ग़र मै उनसे कहूं कि आप सब समुद्र में डूबिये तो सब डूब जाएंगे, और मै ग़र कहूं कि पहाड़ पे चढ़ जाइये तो पहाड़ पे चढ़ जाएंगे। कुछ उनको दुनिया में कोई चीज़ से वास्ता नही।
और जब वो लोग यहाँ आते हैं हिंदुस्तान में, कभी उनकी शादी हो जाए, कुछ हो जाए, तो वो देखते हैं कि यहाँ के सहज योगी सिर्फ़ मतलब से ही सहज योग में आते हैं – किसी को कुछ, किसी को नौकरी चाहिए, किसी को ये चाहिए, किसी की बीमारी ठीक करो, वो ठीक करो, कोई भी आनंद में नही है, बहुत कम लोग। हैं। नही है, ऐसा नही है। उनको बड़ा आश्चर्य होता है, कि इस धरती में जहाँ पे इतने वायब्रेशन्स (चैतन्य) बहते हैं, यहाँ-जहाँ हर वातावरण में राम और कृष्ण की गूँज है, यहाँ पर ऐसे बड़े-बड़े अवतरण हो गए, यहाँ इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियां संसार में आईं, एक-से-एक इतिहास में और पुराण में, और कहाँ-कहाँ ऐसी-ऐसी बड़ी-बड़ी बातें हुईं, वहां इस तरह की अधूरे दिल की बातें सहज योगियों में क्यों हैं? उन्हे तो विश्वास ही नही होता। वो तो हिन्दुस्तानियों को, सोचते हैं कि ये परमात्मा के ही सब स्वरुप लोग हैं — और जब धीरे-धीरे परमात्मा को देखने जाते हैं, तो लगता है, यहाँ तो आत्मा भी नही है, कुछ-न-कुछ स्वार्थ ही है, परमार्थ की जगह स्वार्थ ही दिखाई देता है, और बड़ा उन्हें आश्चर्य होता है। अरे, वो कहते हैं, ये तो सब अमृत के सागर में रह कर के ये मांग क्या रहे हैं, मिट्टी? तो हो क्या रहा है? विश्वास नही होता उन्हें। अभी तक वो समझ भी नही पाए। अब भी कहते हैं, नही-नही हम लोग समझ नही पाते, हमारी दृष्टी इतनी साफ़ नही हुई, ये लोग बड़े ऊँचे लोग हैं, ऐसा नही, वैसा नही। और उनको कितना भी कहो, तो भी वो आप लोगों के पाँव छूने के लिए आमादा हैं – “इन सहज योगियों के पाँव छूने से हम बहुत बड़े ऊँचे अक्षय-पद को पहुँच जाएंगे”। इस तरह के माहौल में आज हम अक्षय तृतीया का बड़ा भारी मुहूरत मान रहे हैं, मना रहे हैं, समझ लें। सहज योगी के नाते आपको अक्षय–पद ही मांगना चाहिए। ऐसा अक्षय–पद कि जहाँ से आप न गिरें। जो आदमी हर समय पांच कदम चलता है, और दस कदम गिरता है, वो कब ऊपर पहुंचेगा… ऐसा पहले गणित वगैरा में देखा करते थे कि भई ये कैसे होगा, मैने कहा पहुंचेगा क्या, वो तो दूसरी तरफ़ चल रहा है, उससे अच्छा वो मुँह मोड़ कर चले तो शायद पहुँच जाए, ऐसा व्यक्ति तो कभी पहुँच ही नही सकता, कि भई वो इतना ऊँचा चढ़ा और फिर इतना गिर गया, इतना ऊँचा चढ़ा और फिर गिर गया, तो मैने कहा, काहे को चढ़ता है? जब उसकी गिरने की कपॅसिटी (क्षमता) ज़्यादा है, तो वो सब को छुट्टी करे और अपना घर पे बैठा रहे, ये उसको तकलीफ करने की कोई ज़रूरत नही।
और छोटी-छोटी-चीज़ों में भी हम देखते हैं कि उसका अहं – हिंदुस्तानी अहं – अपना ज़ोर दिखता है, छोटी-छोटी बातो में। और मै देखते ही रहती हूँ कि अब इनको क्या कहा जाए, और किस तरह से समझाया जाए कि इस अहं महाराज को ज़रा रख के, और आप थोड़े-से सहज योगी हो जाइये। अब वो इस तरह से दिखता है, ये तो जैसे ये कि हम मराठी हैं, या हम हिंदुस्तानी माने सिर्फ़ हिंदी बोलने वाले हिंदुस्थानी हैं बाकि सब बेकार हैं। और या तो हम पंजाबी हैं। अब शुरू हुआ इसी तरह से एक के बाद एक। फिर ये के हम पुणे के रहने वाले, फिर पुणे में हम इस गली में रहते हैं, फिर उस गली में हम किसी एक row (?) में रहते हैं। सहज योग की धाराएं अब ऐसे बह रही हैं, कि आप सब (बातों) से निकल कर के इसमें बह गए। एक बूँद को सागर होना है। और नही, तो क्यों आप सहज योग में आते हैं, और परेशान होते हैं? आज के दिन ये ही मांगना है कि हमें माँ अक्षय–पद दो। बाकी सब इंतज़ामात हम कर देंगे। आपको बरसात चाहिए, बरसात हो जाएगी, आज ठंडी हवा चाहिए, ठंडी हवा बह रही है, टेम्परेचर (तापमान) उतारना है, उतर सकता है, बढ़ाना है, बढ़ सकता है, सब कुछ हो सकता है। सिर्फ़ आपके अंदर ये नितांत अंदर से श्रद्धामय ये मांग होनी चाहिए कि हमें अक्षय–पद चाहिए। उसमे किसी तरह का ढोंग, बनावट – उससे कुछ नही बनने वाला। जो आदमी जान-बूझकर के बनावट करता है और ढोंगबाजी करता है, उसको क्या समझाया जाएगा और उसको क्या बताया जाएगा? पूर्ण हृदय से, माँ हमको आप सिर्फ़ अक्षय–पद दीजिये, और आज मांगने पर मिल भी सकता है, लेकिन आप को झेलना होगा। हमने ग़र कहा कि ठीक है, हमें आप दस मन बोझे का एक मुकुट दे दीजिये, तो क्या हम पहन सकते हैं? जो आप बर्दाश्त कर सकें, वही आपको देना चाहिए। आप चाहे कुछ भी मांग लें, लेकिन आपकी बर्दाश्त में तो हो। ग़र ये आपके बर्दाश्त में नही हो सकता है तो क्या फ़ायदा आपको दे कर के? जो आप को <unclear> वो तो ठीक नही, उसकी सूझबूझ चैतन्य को है। सब का रेकॉर्ड बना हुआ है कम्प्यूटर में। चैतन्य जानता है कि आप क्या पा सकते हैं, क्या ले सकते हैं, और आपको क्या देना चाहिए। और उसी सूझबूझ से वो आपको काफ़ी (?) खिलाता है और काफ़ी प्रलोभन में डालता है, और उस प्रलोभन में आप भी काफ़ी घूमते हुए नज़र आते हैं। अब तो उन लोगों पर हम हंसते हैं जो पागलों के जैसे धर्म के नाम पे मंदिरों में जा के कंठशोष करते हैं, और धर्म मार्तंडों से अपने को हर तरह से बंदिष्ट (?) कर लेते हैं। और जो बेवकूफ़ों जैसे परमात्मा के नाम पर अजीब-अजीब चेष्टाएँ करते हैं, जैसे पालखी निकाल दी, तो कहीं पर जा कर के उन्होंने मंदिरों में भूतों को नचा दिया, तो कहीं उपास कर रहे हैं, तो कहीं राम नाम जपते बैठे हैं, इन सब को देख के हंसी आती है।
लेकिन सहज योग में भी आ कर के जो सहज योग का फ़ायदा सिर्फ़ अपनी कंडिशनिंग, और अपनी खुद्दारी – जिसे कहना चाहिए कि ईगो (अहं), और <unclear>, उसके समाधान के लिए ही सहज योग का उपभोग करते हैं, ये बड़ी बारीक़ चीज़ है, उसे समझ लेना चाहिए। अब कोई कहेगा, तो माँ हमको “ऐसा” दिल ही दे दो। अब भई एक तो दिल दिया है, अभी और कितने दिल चाहिए आपको। ऐसा दिल दे दो, कि जिस दिल में हर समय अक्षय-पद की ही लगन लगी रहे। अब इसी दिल में लगाइये, अब दूसरा दिल देने के लिए तो ट्रांस्प्लांट (प्रत्यारोपण) करना पड़ेगा, या फिर अगले जनम की बात करिए, इस जनम में तो यही दिल ले कर चलना पड़ेगा। और इसी दिल में ही ये आपको विशेष तरह से समझ लेना चाहिए कि हम सहज योगी हैं। एक बहुत बड़ी किमया हो गई। किसी ने आज तक सुना था कि इमली के पेड़ जो हैं उसमें ऍपल (सेब) लगते हैं? आज कलजुग में सहज योगी जैसे फल आ रहे हैं। कलजुग में। तो ऐसा हुआ कांटे में ही गुलाब खिल गए। काँटों से गुलाब खिलते हुए तो किसी ने देखा नही। काँटों में गुलाब खिलते हैं, पर कोई कहे कि कॅक्टस में गुलाब खिल गए वैसी हालत हो गई। बड़ा चमत्कार हो गया कि आप लोग, इस मैले–कुचैले संसार में, इस पाप की दुनिया में कमल जैसे खिल गए। लेकिन इसकी सुगंध, इसकी बहार अभी तक आई नही जीवन में। अक्षय–पद का मतलब तो यही हुआ कि ये बहार आ जाए, ये आनंद आ जाए, बस इस आनंद में बैठे रहे, यही अक्षय–पद है, यही निरानंद है, यही पाने का है, ये उसी का प्रकाश है। जिसे कहते हैं कि अटल स्थिति जहाँ से आदमी <unclear>। क्योंकि वो आनंद ही चारों तरफ सागर जैसे फैला हुआ है और वो सागर ही आपको ऊपर उछाले हुए है बार-बार, उसी उछाल में आप आनंद से बैठे विभोर, मज़ा उठा रहे हैं। ये स्थिति जो है, इसको प्राप्त कर लेना, इस स्थिति में आ जाना कठिन बात नही है। सिर्फ़ दिल की सफ़ाई होनी चाहिए, और इस मस्तिष्क की भी। बहुत सारे विचार ऐसे दिमाग में आते हैं जो व्यर्थ हैं, बेकार हैं। आपको जो गुरु–पद मिला गए है, जो आपके अंदर अपनी ही प्रज्ञा जागृत हो गई, और जिसके सहारे हम खुद ही इस चीज़ को समझ जाते हैं, कि कौन सी चीज़ सही है, कौन सी चीज़ गलत है। इस प्रज्ञा से ही आप अपने को जान सकते हैं कि क्या मै शुद्ध तत्व पे खड़ा हूँ, क्या मै शुद्ध इच्छा पर खड़ा हूँ, और क्या मैंने शुद्ध इच्छा से ही सब चीज़ सोची है।
इसी सिलसिले में आगे चल कर के देखते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर लोगों को गुस्सा आ जाता है। जैसे अब हम यहाँ आए हैं, ऐसे भी लोग हैं जो हमसे कभी नही मिलते, वहीं रहते हैं, कभी नही मिलते, मुलाकात नही हो पाती, सालों हो गए, काम कर रहे हैं, कभी मुलाकात हो गई तो मुलाकात हो गई, नही तो नही, आनंद में विभोर बैठे हुए हैं, मज़ा उठा रहे हैं। ना कोई उस पर गिला है ना शिकायत है, उनसे पूछो भई क्या कर रहे हो? “माँ से प्यार कर रहे हैं”। यहाँ कहाँ? “ये पत्थर है ना, इसी में देख रहे हैं माँ को”। ऐसे भी लोग हैं। और दूसरे ऐसे हैं, तुनकमिजाज़, वो आ जाएं, और हम उसी वक़्त हाज़िर हो कर उनको सलाम ना मारें, बस नाराज़ हो गए कि – “माँ से मिलने नही दिया हमको, ये बड़े बद्तमीज़ लोग इनके घिरे हुए हैं, ये माँ से मिलने नही देते, माँ तो सबको मिलना चाहती है”। इतनी छोटी बात है समझने की। जब माँ हर जगह है, और हर जगह ही जब <unclear>, और हर जगह जब ठंडी हवा बहती है, तो उस माँ से मिलने में कौन सी हमारी विशेषता है? ये हमारा अहंकार है कि हम कोई विशेष हैं, माँ हमसे ज़रूर मिलना चाहिए। “अब, मै जान के वहां से टाइम निकाल के आया हूँ”। आए होंगे भैया, पर माँ से भी कुछ टाइम-वाइम लिया था, कि अपने आ गए? फिर, प्रोग्राम में पूछ लिया, “माँ हम आ जाएँ?” – अब माँ क्या कहेगी, “नही आओ”? – अरे भई आ जाओ। तो पहुँच गए लवाजमात ले कर। और ग़र कहा जाए कि भई नही है, अभी माँ नही मिल सकती, तो ये तुम्ही लोग <unclear>। मुझको कोई नही पढ़ा सकता। आज इस लिए मै कह रही हूँ कि इस पूना शहर में ही ये रोज़ के अनुभव हैं। और जो बिचारे हमारे साथ खड़े हुए हैं और जिनसे कहा गया है, उनको तो रोज़ ही लोग हजामत बनाते हैं, और उनका रोज़ ही द्वंद्व चला रहता है, देख कर मुझे भी बड़ा दुःख लगता है। ये समझदारी, ये सूझबूझ हमारे अंदर काफ़ी कम है। <unclear> छोटी-छोटी बातों की शिकायतें लोग मुझ से करते हैं। कभी–कभी बड़ा आश्चर्य होता है। किसी भी तपस्या का विचार मनुष्य के हृदय में नही रहता। अक्षय-पद पाना है – “यहाँ बैठे हैं, यहीं चांदी की थाली में दो, तो लेंगे”। अच्छा भई, चांदी की थाली में भी दिया, अब तो खाओ। “नही, इसमें नमक कम था, इसमें चीनी कम थी, इसमें चावल कम था, इसमें ये कम था”। अच्छा भाई अब ठीक कर दिया, अब खाओ। “नही, जब तक आप हमारे सामने हाथ जोड़ कर खड़े नही हो जाते, हम नही खाएंगे”। अच्छा भाई हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, खाओ। तब फिर ये कि – “अब हमने खा लिया, लेकिन हम इसका स्वाद नही लेंगे, स्वाद आप ही लीजिये”। तो काहे को हमने मेहनत करी। इतनी मेहनत से खाना बनाया, उसका मज़ा उठाओ, स्वाद लो, तो कहने “नही, स्वाद आप लीजिये, हम तो शिकायत ही करते रहेंगे क्योंकि शिकायत करने में जो मज़ा आता है, वो स्वाद लेने में नही आता”। ये हमारा अनुभव है। पहले स्वाद तो लेकर देखो फिर बोलना। इतनी समझावन भी हो जाए, इतना प्यार से बताना भी हो जाए, तो भी सहज योग का जो बहाव है, उसमे बहने के लिए जो एक चरित्र चाहिए, वो कम है। और उस चरित्र को पाने के लिए कुछ भी तो नही करना है, कुछ भी नही अपनाना है, कुछ भी नही देना है, उसमे सिर्फ़ घुल जाना है, और वो बहुत आसान चीज़ है।
एक सर्वसाधारण मनुष्य मै देखती हूँ जो शायद मेरे प्रोग्राम में कभी आया होगा, जिसने सहज योग को प्राप्त किया, उसकी बातें सुनिए तो आश्चर्य होता है, वो कभी मिला नही हमसे, लेकिन वो कहता है कि माँ को बहुत काम है, मै यहीं उनको मिल लेता हूँ, इस समाधान में वो रहता है। अहंकार के अनेक प्रकार दिखाई देते हैं। जैसे कोई हमसे कोई बात बोल रहा है, बीच में लोग उसे काट देंगे। मुझे आश्चर्य होता है। वो बिचारा मुझसे बता रहा है, तुम क्यों बीच में बोलते हो भाई? ये छोटी-छोटी चीज़ें दिखती हैं कि अभी हमने सहज योग का वो जो मौन-सौंदर्य है, उसका रस नही पीया, उसके रस में नही उतरे, उसका आनंद नही उठाया, उसके रस में उतरना चाहिए। आज का विशेष प्रयोजन यही था कि आज किसी तरह से मेहनत करके आपको एक डुबकी तो दे ही दें, फिर आगे देखा जाएगा। कोशिस तो सब को ही करेंगे, लेकिन ये तो आपकी अपनी स्थिति है। कभी-कभी परमात्मा सोचे भी कि पत्थर में गंगा-जल भर दे, तो बड़ा ही मुश्किल काम है। उसी प्रकार सहज योग की भी बात है, कोई-कोई लोग ऐसे ही सामने आ जाते हैं कि विचार उधर जाता है कि किस तरह से इनके हृदय में उस परम सुन्दर अक्षय-पद की धारणा, इच्छा जागृत करें। शुद्ध इच्छा जागृत हो गई है, कुण्डलिनी का जागरण हो गया है, लेकिन परम तत्व की आकांक्षा, विचार आपके अंदर खुद ही उसका मूल्य समझ कर के जागृत जो जाएँ, ऐसा ही मै आपको आशीर्वाद देती हूँ।
मै इंतज़ार ही में थी कि मुझे बुलाएँ। कोई आया ही नही। मैने कहा, कि क्या भूल गए कि क्या आज अक्षय-पद मांगना? या कुछ इसे बड़ा कठिन समझा कि अक्षय-पद तो हमें मिल नही सकता है, तो अच्छा है माँ को ही न बुलाया जाए? एक घंटे से हम तैयार हो कर बैठे रहे, कोई आया ही नही बुलाने के लिए, फिर सोचा खुद ही चलें, वही बात खाना खिलने की। मेरी देरी हो गई, ये भी अच्छा ही है, के एक तरह से, दिल की तैयारी तो आप लोगों की हो गई होगी इस अक्षय-पद को पाने के लिए। इस महान पद की, इस परम पद की इच्छा बहुत लोगों ने की।