Shri Hamsa Swamini puja and two talks

Grafenaschau (Germany)

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श्री हंसा स्वामिनी पूजा

ग्राफेनाशाऊ (जर्मनी), 10 जुलाई 1988।

आज हमने जर्मनी में हंसा पूजा करने का फैसला किया है। हमने अभी तक  इस चक्र हंसा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है, जो कि, मुझे लगता है, भारतीय या पूर्वी के बजाय, पश्चिमी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कारण है, हंसा चक्र पर, इड़ा और पिंगला का कुछ हिस्सा बाहर निकलता है और अभिव्यक्त होता है – अर्थात इड़ा और पिंगला की अभिव्यक्ति हंस चक्र के माध्यम से दी जाती है।

तो यह हंसा चक्र वह है, जो मानो आज्ञा तक नहीं गया है, बल्कि इड़ा और पिंगला के कुछ धागे अथवा हिस्सों को थामे हुए है। और वे आपकी नाक से, आपकी आंखों से, आपके मुंह से और आपके माथे से व्यक्त होने लगते हैं। तो आप जानते ही हैं कि विशुद्धि चक्र में सोलह पंखुड़ियां होती हैं जो आंख, नाक, गला, जीभ, दांतों की देखभाल करती हैं। लेकिन इनकी अभिव्यक्ति वाली भूमिका इन सभी में हंसा चक्र के माध्यम से आता है। तो हंसा चक्र को समझना पश्चिमी दिमाग के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। इसके बारे में संस्कृत में एक सुंदर दोहा है, “”हंस श्वेतः, बखः श्वेतः। कह भेद: हम्सा बखाओ? नीर-क्षीर विवेकेतु । हंसा हंसा, बकह बकाह।” अर्थ ‘सारस और हंस, दोनों सफेद हैं। और दोनों में क्या फर्क होता है? यदि आप पानी और दूध को एक साथ मिला दें तो हंस केवल दूध को शोषित कर लेगा। तो यह पानी और दूध के बीच अंतर समझ सकता है, जबकि बखा, यानी सारस नहीं कर सकता’। सहज योगियों के लिए इसे समझना बहुत महत्वपूर्ण बात है।

विवेक को अपने भीतर बहुत गहराई से समझना है। और हम विवेक कैसे विकसित करते हैं यह सहज योग में बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन इससे पहले कि हम उस पर जाएं, आइए देखें कि कैसे यह विवेक हमारी बाहरी अभिव्यक्ति में, बहुत हद तक एक भूमिका निभाता है। पश्चिम में हम लोग हैं, जो हमेशा खुद को बाहर अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप कैसे दिखते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप कैसे दिखते हैं, आप क्या देखते हैं, आप क्या दिखते हैं। आपकी सूरत अच्छी होनी बहुत जरूरी है। [वे इस बारे में बहुत खास ध्यान देते हैं, वे अपना रूप सुधारने में बहुत समय लगाते हैं। यह न्यूनतम है। फिर उनके पास एक तरीका है जिससे हम मीडिया को बुलाते हैं। मीडिया के माध्यम से देश बोलता या अभिव्यक्ति करता है। और मीडिया को प्रशिक्षण देना होगा। हर देश की अपनी एक विशेषता होती है जो दूसरे से बेहतर होती है। और जब तुम उन सबको देखते हो तो पाते हो कि उनमें विवेक का सर्वथा अभाव है। साथ ही हमारे भाषण में, हमारे साहित्य की अभिव्यक्ति में, कविता की अभिव्यक्ति में, दूसरों के साथ हमारे संबंधों की अभिव्यक्ति में, किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति में विवेक की आवश्यकता होती है जो एक गहनता से निहित  विवेक या ज्ञान है।

मुझे लगता है कि अगर पश्चिम में लोग इतने सतही नहीं होते, तो  वे बहुत बेहतर होते। मान लीजिए इंग्लैंड में लोग पंक नहीं बनते हैं तो दूसरे लोग उन पर हंसेंगे और वे सोचेंगे कि इस आदमी के पास पंक बनने के लिए पैसे नहीं हैं। तो एक तरह का फैशन जो उस तरह के समाज में स्थापित होता है, जिसमें कोई विवेक नहीं है और जो बहुत ही सतही है। फैशन ऐसे देशों में काम नहीं करेगा जहां वे परंपराओं में और जीवन के बारे में उचित समझ में गहराई से निहित हैं। बेशक, जो देश बहुत प्राचीन रहे हैं, पारंपरिक रूप से खुद को सुधारने की कोशिश करते रहे हैं, त्रुटि और परीक्षण और त्रुटि और परीक्षण विधियों के साथ, बेहतर विवेक विकसित किया है, बहुत बेहतर समझ विकसित की है। लेकिन जो देशों इतनी कठिन परीक्षाओं से नहीं गुजरें हैं, जिन देशों ने इसे कार्यान्वित नहीं किया है, वे उस अनुशासन से नहीं गुजरे हैं, उनमें विवेक की कमी है। और यही कारण है कि बहुत से लोग, हालांकि वे बहुत गहरे खोजी हैं, भटक गए हैं। अगर उनमें विवेक होता तो वे नहीं भटकते, गलत जगह नहीं जाते, लेकिन विवेक वहाँ गायब था।

तो बात विवेक की आती है कि अपनी इड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी का उपयोग कैसे करें और यह समझने के लिए विवेक कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। अब हम इडा नाडी देखते हैं। इड़ा नाड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विवेक पारम्परिक समझ से ही आ सकता है। इडा नाड़ी गणेश के बिंदु – मूलाधार से शुरू होती है।

अगर हमारे पास विवेक नहीं है तो, सबसे पहले हम मूलाधार में सबसे बड़े आधार, सबसे बड़ी सहायता, पवित्रता और शुभता के सबसे बड़े पोषण को चूक जाते हैंतब हम हमेशा कुछ ऐसा करते हैं, जो हमारे विकास के लिए हानिकारक हो और जो हमें ही नहीं बल्कि पूरे देश को नष्ट कर सकता है।  जब कोई विवेक नहीं होता, हम ऐसे लोगों को पसंद करते हैं जो विनाशकारी होते हैं। विवेक का अर्थ है कि आपको उन चीजों का चयन करना चाहिए जो आपके लिए अच्छी हों, जो आपके लिए हित कर हों, जो सामूहिकता के लिए अच्छी हों, जो आपके उत्थान के लिए अच्छी हों। इसके विपरीत जिन लोगों में विवेक नहीं होता वे फ्रायड जैसे गलत प्रकार के लोगों के जाल में फंस जाते हैं। मेरा मतलब एक भारतीय के लिहाज़ से, फ्रायड- कोई भी विश्वास नहीं कर सकता कि आप इस तरह के निरर्थक विचार में जा सकते हैं। लेकिन लोगों ने जितना वे ईसा-मसीह को स्वीकार कर सकते थे उससे कहीं अधिक फ्रायड को स्वीकार किया। क्योंकि विवेक पूरी तरह छूट गया था। यदि उनमें वह पारंपरिक विवेक होता, तो वे बच जाते। यह पारम्परिक विवेक वह चीज़ है जो इडा नाड़ी से होकर आती है। अब इसे ही लोग कंडीशनिंगसंस्कारबद्धता कहते हैं और वे कहते हैं कि कंडीशनिंग बहुत खराब है, और लोगों को कंडीशनिंग नहीं लेनी चाहिए और कंडीशनिंग से मुक्त होना चाहिए, जो कि बिल्कुल गलत विचार है। उसमें भी विवेक होना चाहिए। कौन सी कंडीशनिंग अच्छी है और कौन सी अच्छी नहीं है, उसे भी ख्याल में लेना पड़ता है।

अब, चूँकि कंडीशनिंग के बारे में भी कोई विवेक नहीं है; सभी परंपराओं को एकमुश्त त्याग कर, वह सब कुछ जो हमारे पूर्वजों के अनुभवों के माध्यम से हमारे पास आ रहा है, सब कुछ त्याग दिया जाता है। इतिहास को खारिज कर दिया जाता है और हम कहते हैं: अरे नहीं, हम इससे परे हैं। हम स्वतंत्र महसूस करते हैं। जैसे मैं हैरान हुई थी, कल, विमान में, किसी ने मुझसे कहा: “मैं बहुत स्वतंत्र महसूस करता हूँ जब मेरे ऊपर कोई वस्त्र नहीं होता है।” [श्री माताजी हंसती हैं] मेरा मतलब है कि अगर कपड़े आपको कैद कर सकते हैं तो असली जेलों का क्या होगा, वे आपके लिए क्या होंगे? लेकिन लोगों के दिमाग में इस तरह का एक अजीब विचार आता है और वे सोचते हैं कि हम इस सारी मूर्खता को सही ठहरा सकते हैं जिसका हम पालन करते हैं क्योंकि हमारे पास विवेक की कमी है। बुद्धिमत्ता तुम्हें विवेक नहीं दे सकती, जहां तक ​​संस्कारों का संबंध है, वह तुम्हें विवेक नहीं दे सकती। एक सहज योगी के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि कैसे आप अपने विवेक को विकसित  करते हैं।

कल ही मैंने पैरिस की या यूँ कहूँ फ़्रांस की औरतों से महिलाओं के विवेक के बारे में बहुत सुंदर चर्चा की थी। इडा नाडी का विवेक अंतर्ज्ञान है। यदि आप अपने भीतर उस विवेक को विकसित करते हैं, अपनी ध्यान शक्तियों के माध्यम से, आप अंतर्ज्ञान विकसित करते हैं। और अंतर्ज्ञान और कुछ नहीं बल्कि उन गणों की मदद है जो आपको चारों तरफ से घेरे हैं। यदि आप गणों की मदद लेना सीख जाते हैं तो आप बहुत सहज ज्ञान युक्त हो सकते हैं और आपकी बहुत अधिक बुद्धिमत्ता के बिना भी आप सही बात कह सकते हैं। पूरा सहज योग, मैं कहूंगी, उसमें से कम से कम पचास प्रतिशत, अंतर्ज्ञान पर आधारित है।

उसके लिए आपको श्री गणेश की उचित समझ विकसित करनी होगी। श्री गणेश को सही अर्थों में, आपको समझना होगा। वहीँ से शुरुआत होती है क्योंकि वह गणपति हैं, वही स्वामी हैं, सभी गणों के प्रमुख हैं। तो गण आपको अंतर्ज्ञान देते हैं। 12:46

जैसे मान लो, मुझे कहीं जाना है और फिर मैं कहती हूँ कि, ‘नहीं, मैं कल वहाँ नहीं जा सकूँगी।और किसी तरह मैं नहीं जाऊँगी। और लोग सोचते हैं: “माँ, आप कैसे जानती हैं?” मैं जानती हूं, क्योंकि वहां गण हैं और वे जो कहते हैं वह सत्य है, वे इसके बारे में सब जानते हैं। या मैं किसी के बारे में जो कुछ भी कहती हूं वह सच हो जाता है। तो वे मुझसे पूछने लगते हैं, “माँ ऐसा कैसे, आपको इसके बारे में पता चल गया है?”

मैं अंतर्ज्ञान पर रहती हूं। जैसे मुझे एक विमान पकड़ना है, मैं अपने अंतर्ज्ञान से जानती हूं कि क्या होने वाला है। इस भाग को श्रीगणेश की पूजा करके विकसित करना है। तो कल्पना कीजिए, श्री गणेश हंसा चक्र के एक हिस्से पर भी शासन करते हैं। तो जब हम कहते हैं “हं” और क्षं‘- ये दोनों वास्तव में आज्ञा के बीज मंत्र हैं। लेकिन जब आज्ञा हंसा को स्पर्श करती है तो यह यहाँ से शुरू होती है, [श्री माताजी अपनी नाक के आधार को छूती हैं]। इसलिए इसके मूल में, इसके मूल में हंसा है। और यहाँ, “हं” – “हं” का अर्थ है मैं हूँ

यदि आप विवेकशील हैं तो आप फैशन को नहीं अपनाएंगे, आप मूर्खतापूर्ण विचारों को नहीं अपनाएंगे। आपका अपना व्यक्तित्व है। आप एक सहज योगी हैं। आप उन लोगों की बात नहीं सुनते जो सहजयोगी नहीं हैं। वह “हं”भाग है – मैं हूँ‘ – अहंकार वाला भाग नहीं। लेकिन “हं” यह समझने के लिए है कि: “मैं एक योगी हूं और मैं बहुत सी ऐसी चीजें जानता हूं जो आम तौर पर लोग नहीं जानते हैं और इसलिए मेरा उनसे कोई लेना-देना नहीं है। मुझे उनसे कोई सबक नहीं लेना है। वे मुझे कुछ भी सिखाने योग्य नहीं हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे जानते हैं, मैं और भी बहुत कुछ जानता हूं।स्वयं के बारे में जागरूक होना “हं” है।

तो मैं कहूंगी कि यह दाईं ओर से आता है। दाहिनी ओर का विवेक हंऔर बायीं ओर का विवेक क्षंहै। क्षंका अर्थ है आप। मतलब यह आप ही हैं

आपके मामले में आप जानते हैं कि यह आपकौन है। लेकिन हर इंसान के लिए, ‘आपसे तात्पर्य है ईश्वर। यह आप ही हैं। यह बायीं ओर से आता है, ”क्षंहै।

तो “हंसा” शब्द दो प्रकार के विवेक से बना है कि कहाँ देखना है “मैं हूँ” और कहाँ  देखना है “आप हो”। इन दो पलड़ों पर, जैसा कि उन्होंने यहां चंद्रमा और सूर्य को खूबसूरती से दिखाया है, मध्य में क्रॉस है, [श्री माताजी के पीछे की पेंटिंग पर], जो आपको संतुलन देता है, जो आपको धर्म देता है। एक के बाद एक, परत दर परत ये सभी चीजें कैसे जुड़ी हुई हैं, आप देख सकते हैं कि कैसे धर्म विवेक के साथ जुड़ा हुआ है।

अब ऐसे लोग हैं जो अचानक किसी प्रकार के अनुष्ठान से मोहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए मैंने कुछ सहजयोगियों को देखा है, वे पूजा में आते हैं और वे पागलों की तरह अपने आप को बंधन दे रहे हैं। रास्ते में चलते हुए वे बंधन देंगे। वे जहां भी जाएंगे, वे पागलों की तरह बंधन देंगे। यह सिर्फ कंडीशनिंग है, जो सहज योग नहीं है, यह विवेक नहीं है। यह देखना आवश्यक है की : बंधन देना है कि नहीं?’

माँ के सानिध्य में बंधन है ही, स्वयं को बंधन देने की क्या जरूरत है? लोगों के लिए, जब मैं बात कर रही हूँ, बंधन दे रहे हैं, अपनी कुण्डलिनी उठा रहे हैं। वे सभी पागल लोग हैं, मुझे लगता है।

उसी तरह, लोग हैं – कल मैंने सुना कि आश्रमों में हर जगह एक तरह का संगीत रिकॉर्ड बजता है, ताकि वे सभी इस तरह कूद सकें जैसे ऊंट पर बैठे हों। यह ऊंटों के लिए एक संगीत है, आप देखिए। अब इस रिकॉर्ड की हर कोई तारीफ कर रहा है. क्यों? क्योंकि ये ऊंट की तरह कूद सकते हैं। एक बार जब आप ऊंट की तरह कूदना शुरू कर देते हैं तो इंसान इसे छोड़ नहीं पाता, वे आदतें बना लेते हैं। तो उन्हें वह विशेष संगीत पसंद है, वे ऊंट की तरह उछलते रहेंगे क्योंकि अब वे ऊंट बन गए हैं, उन्हें ऊंट की तरह व्यवहार करना होगा।

अब अगर कुछ है, कोई संगीत, जो घोड़े की तरह है, जैसे दुलकी चाल, शायद सरपट दौड़ जैसा, कुछ भी। अब उसे एक बार सुनते ही वे अचानक उसी लय पर चलने लगते हैं, अब वे ऐसा घोड़ा बन जाते हैं, जो सरपट दौड़ता है। अब यदि घोड़ा सरपट दौड़ता है तो वे भी घोड़े बन जाते हैं और वे केवल उस सरपट दौड़ते संगीत को पसंद करते हैं। इसी तरह चलता जाता है। गधा हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। हम जानवर नहीं हैं, हम इंसान हैं और “हं” हैं,  “हम हैं”। हम सहज योगी हैं, हम किसी विशेष प्रकार की लय या विशेष प्रकार के संगीत से प्रभावित नहीं होते हैं। जब तक यह धार्मिक है, जब तक यह संतुलित है, जब तक यह शुभ और पवित्र है, तब तक हम इसकी सराहना और समझ सकते हैं। तो आप हंसा पर देख सकते हैं कि कितनी चीजों का आंकलन किया जाता है। मुझे लगता है कि पूरा सहज योग हंसा के संतुलन पर खड़ा है।

ऐसे लोग हैं जो बहुत दक्ष हैं – यानी बहुत ईमानदार। लेकिन यह ईमानदारी हास्यास्पद स्तर तक जा सकती है। उसी तरह ऐसे भी लोग होते हैं जो बहुत मेहनती होते हैं। यह भी हास्यास्पद सीमा तक भी जा सकता है। तो ये गुण, जिन्हें अच्छा माना जाता है, धार्मिक नहीं भी हो सकती हैं| विवेक का गरिमापूर्ण निर्वाह धार्मिकता है। यदि आपके पास विवेक है तो आप उस विवेक से धार्मिकता को गौरवान्वित करते हैं। जैसे, अब हम कह सकते हैं, हम ईसा-मसीह का उदाहरण ले सकते हैं। ईसा-मसीह एक ऐसा ही विवेक थे। जब मैरी मैग्डलीन को पत्थर मारे जा रहे थे तो, उनका वेश्याओं से कोई लेना-देना नहीं था, मेरा मतलब है, उनका कोई लेना-देना नहीं है, कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन वह विवेक से देख सकते थे कि इन लोगों का उसे पत्थर मारने का कोई अधिकार नहीं था। वह अपने साहस से वहाँ खड़े हो गये, और उन्होने कहा कि: “जिन्होंने कोई पाप नहीं किया है, वे मुझे पत्थर मार सकते हैं।” यह उनके विवेक का ही बल है कि लोगों ने उस विवेक को अपने भीतर महसूस किया और उन्हें लगा कि विवेक से यह आदमी संत है और हम इसे पत्थर नहीं मार सकते।

यदि आप सहज योगी हैं, तो आप दूसरों को भी विवेकशील बना देंगे। दूसरों को विवेकवान होना पड़ेगा और समझना होगा। और यह “निर-क्षीर विवेक” पानी और दूध के बीच का अंतर है, अगर आप उस विवेक वाले भाग को विकसित कर लेते हैं तो आपको यह उपलब्धि हो सकती है।

सहज योग में, हर स्तर पर, आप लोगों को लड़खड़ाते हुए पाएंगे, वह भी दाहिनी ओर की अविवेक के साथ। और दाईं ओर अविवेक लोगों के अहंकार की अभिव्यक्ति से आता है। यह अहंकार है, जैसा कि मैंने कहा, “हं” है। यह अहंकार तब काम नहीं करता जब इसे वास्तव में काम करना होता है।

उदाहरण के लिए मैंने देखा कि कुछ लोग चर्च में शादी के लिए गए थे। बेशक, सहज योगियों के लिए ऐसा करना गलत ही है, हम किसी भी मानव कृत धर्म में विश्वास नहीं करते, आप यह जानते हैं। ठीक है, आप चर्च गए, ठीक है। लेकिन उन्होंने “लौरा एशले” के कपड़े खरीदने के लिए एक महिला को लंदन भेजा। और मुझे लगता है, शायद, शादी करने के लिए कुछ पुरुषों ने टेलकोट भी पहने होंगे। वह अहं भाव कब खो गया ? वह अहं भाव  कि आप एक सहज योगी हैं, पूरी तरह से खो गया। और मुझे लगता है कि वे सभी केश सज्जा के लिए गए थे, और उन्होंने सभी प्रकार की हरकतें की थी और वे सभी वहां ऐसे पुराने ईसाईयों के रूप में जाना चाहते थे जो मूर्ख बिशपों की कब्रों के बगल में स्थित चर्च में जाते थे।

ऐसा केवल यहीं नहीं है, भारत में भी बहुत बेकार है। जहां तक ​​धर्म का संबंध है, बायाँ पक्ष, वे बहुत ही संस्कार जड़ लोग हैं, और वहां वे यह समझने में विफल रहते हैं कि विवेक क्या है। उदाहरण के लिए, हमारे पास ज्ञानदेव थे। वे इतने महान अवतार थे कि उनके पैरों में जूते तक नहीं थे! और इन दिनों वे लोग एक पालकी का बड़ा जुलूस निकाल रहे हैं, श्री ज्ञानदेव के तथाकथित जूते रख कर – और हजारों-हजारों लोग स्तुति गा रहे हैं, जरा कल्पना करें। उन्हें कौन बता सकता है कि: “ज्ञानदेव के पास जूते थे ही नहीं, आप पालकी में कौन से जूते ले जा रहे हैं?” और वे जिस भी गाँव में जाते हैं, या जिस भी शहर में जाते हैं, उन्हें भरपेट भोजन मिलता है, हर कोई उनके चरणों में गिर जाता है: “संत एक पालकी और ऐसे जूते लेकर आए हैं जो कभी ज्ञानदेव के नहीं थे”। तो यह पागलपन चलता रहता है।

अब आप अपने आस-पास हर देश में, हर धर्म में, हर मूर्ख क्षेत्र में यह सब होते हुए देख रहे हैं। लेकिन तुम उनसे ना केवल हाथ मिला लेते हो, तुम उसके साथ एक हो जाते हो।

और फिर यह समझना इतना कठिन हो जाता है कि तुम्हें क्या हुआ है। अब इस अहं भाव का जब सदुपयोग किया जाए तो यह विवेक है।

अब भी लोगों की धर्म के अलावा एक और बहुत ही भयानक, भयानक कंडीशनिंग है – देशों की है, “मैं भारत का हूँ”, “मैं जर्मनी का हूँ”, “मैं इंग्लैंड का हूँ।” सब कुछ बदहाल है। मेरा मतलब है, ऐसा कुछ कहने का मतलब है कि आप अभी तक सहस्रार भूमि के स्तर तक विकसित नहीं हुए हैं। जो लोग कुछ राष्ट्रीयता बनने लगते हैं उन्हें पता नहीं है कि आपकी राष्ट्रीयता बदल गई है, वास्तव में किसी पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं है। उस क्षेत्र में जहां ईश्वर का शासन है, पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं है, यह आपके चेहरों पर बड़ा स्पष्ट लिखा हुआ है। लेकिन अंदर अभी भी एक गहरी कंडीशनिंग है कि: “मैं इस देश का हूँ, मेरा देश बहुत महान है, आपका देश अच्छा नहीं है।” लेकिन जब विवेक की बात आती है तो यह सोचना पड़ता है कि: ठीक है, मैं जर्मनी में पैदा हुआ और जर्मनी ने बहुत सारी गलतियाँ की हैं। मुझे इसे कार्यान्वित होने दो, ताकि मैं अपने सभी जर्मन लोगों को उस क्षेत्र में वापस ला सकूँ जहाँ शांति, आनंद और प्रसन्नता रहती है। इस जड़ता का विवेक में प्रयोग किया जाता है।

आप पाएंगे कि हर चीज के दो पहलू होते हैं। आप किस ओर बढ़ते हैं यह आपके विवेक पर निर्भर है। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग हैं जिनके पास एक विशेष, किसी धर्म की कंडीशनिंग है। मान लीजिए कि वे यहूदी धर्म से संबंधित हैं और सहज योग में आ गए हैं या वे ईसाई धर्म से संबंधित हैं और सहज योग में आ गए हैं। तो अब विवेक क्या है? जैसे ही कोई दूसरा यहूदी आएगा या कोई ईसाई आएगा, वे वहां भूतों की बिरादरी में शामिल हो जाएंगे। और वे सभी बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं, क्योंकि: “वह यहूदी है, मैं यहूदी हूँ, मेरे पिता यहूदी हैं, मेरी माँ यहूदी हैं, मेरी यह बात यहूदी है”। ऐसा ही ईसाइयों के साथ, ऐसा ही अन्य समुदायों के साथ, किसी भी अन्य राष्ट्रीयता के साथ ऐसा ही होता है। तो क्या विवेक है, जब देखते हैं। उस समय सबसे अच्छी बात, विवेक, यह देखना है कि इन तथाकथित मानव धर्मों के दोष क्या हैं जो उनके प्रवर्तकों की मृत्यु के बाद बने हैं, या उन्हें हम अवतार कह सकते हैं या धर्म की शुरुआत करने वाले पैगम्बर कह सकते हैं।  पहला विवेक यह है।

दूसरा विवेक यह है कि उन शास्त्रों को पढ़ो और पता करो कि ऐसा क्या विशेष है जो इन अवतारों ने कहा है। क्योंकि, मैं कहूंगी, अगर कोई मुसलमान है, तो उसे कुरान तक जाना चाहिए और देखना चाहिए कि जहां तक ​​सहज योग का संबंध है, कुरान में क्या लिखा है। यदि यह एक ईसाई है, तो उसे बाइबिल में जाने दें और जहां तक ​​​​सहज योग का संबंध है, वहां जो कुछ भी लिखा है, उसका पता लगाएं, क्योंकि सहज योग सत्य है, और जो सत्य लिखा गया है, उसका पता लगाना है।

यदि ऐसी बात विकसित हो जाती है, तो आप और आगे जा सकते हैं, यदि आप में पर्याप्त साहस है, और साहस हो सकता है कि, जाकर लोगों को बता दें कि: देखो, यह क्या बकवास कर रहे हो? यह लिखा नहीं है, यह करने योग्य नहीं है। जो कुछ भी लिखा गया हैपूरी बात का सार इस प्रकार है। यह तीसरा चरण है वह है जहाँ एक विशेष धर्म, राष्ट्रीयता के संबंध में आपने अपने विवेक का इस्तेमाल किया है ।

अब, जब मैं कहटी हूं, पश्चिम में, मुझे पश्चिम की चर्चा करनी है। लेकिन जब मैं भारत में हूं तो आपको मेरी बात सुननी चाहिए, आप भाषा नहीं समझते हैं, यह आपके लिए अच्छा है, क्योंकि आप भारतीयों के प्रति सभी सम्मान भाव गँवा देंगे। मैं उन्हें बाएँ और दाएँ डांटती हूँ! [हंसते हैं] और उन्हें बताती हूँ  कि उनके साथ क्या गलत है। लेकिन यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में हमारे साथ बहुत कुछ जो गलत है। इसलिए विवेक यह देखने में है कि हमारे साथ क्या गलत हुआ है, हम कहां गलत हैं। हिम्मत है या नहीं। उदाहरण के लिए, महिलाओं में बाहर साड़ी पहनने की हिम्मत नहीं होती। क्यों? कभी-कभी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब भारतीय आपके कपड़े पहन सकते हैं तो आप साड़ी भी पहन सकते हैं। या कोई आदमी बाहर भारतीय पोशाक नहीं पहनेगा। इस में थोड़ा “हं” चाहिए। वे इसका आनंद लेते हैं, लेकिन वे नहीं पहनेंगे। वे वही अजीब छेद वाली पैंट पहनेंगे। वे घटिया  चीज़ पहन सकते हैं, लेकिन वे कुछ ऐसा नहीं पहन सकते जो संवेदनशील  हो, पहनने में अच्छा हो। जबकि यह पहनना कुछ ऐसा है जो आपको यह सोच देने वाला है कि हम भिन्न लोग हैं।

अब यह लाल निशान (बिंदी)बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि तब आप किसी भी भूत से ग्रसित नहीं हो पाते हैं और उसे धारण करना होता है। बाइबल में लिखा है कि उनके माथे पर चिन्ह होगा। लेकिन चूँकि हरे रामा हरे कृष्ण जैसे और भी बहुत से बेवकूफ लोग हैं – मुझे नहीं लगता कि वे कोई निशान लगाते हैं – हम समाज से डरते हैं कि कैसे कोई चिन्ह लगाया जाए। लेकिन मान लीजिए कि वे कहते हैं कि आप बिखरे बालों के साथ घूमिये, तो हम ऐसा करेंगे, क्योंकि समाज में इसकी अनुमति है।

हम वो लोग हैं जो किसी भी समाज से डरने वाले नहीं हैं, हमें इससे बाहर आना है और हमें उन्हें यह सिखाना है की : “हम वही करते हैं जो अच्छा है चाहे आप इसे पसंद करें या न करें”, यह संत होने का एक संकेत है। यदि आपने कहीं भी किसी संत को देखा है, तो यह बताने के लिए अपनी सीमा 

 के बाहर तक गए कि क्या सही है और क्या करना योग्य है और क्या अपनाना उचित है। एक संत की यही निशानी है, अन्यथा यदि संत कभी समाज में घुल जाते हैं, कभी सहज योग में, कभी यहीं, तो ऐसे संत किस काम के?

मुझे कोई संत बताओ, जिसे तुम जानते हो, जिसने समाज से संघर्ष न किया हो, जिसने समाज की गलतियों को बड़े जोर से, बिना किसी भय के नहीं बताया हो। क्या आप किसी ऐसे संत को जानते हैं? सहज योगियों के लिए अपने भीतर उस साहस का होना बहुत जरूरी है। यदि आप अपना विवेक विकसित करते हैं, तो यह काम करता है।

अहंकार पक्ष में आप किस प्रकार का विवेक विकसित करते हैं और कैसे? दायें पक्ष में सभी देवता हैं, आपके चारों ओर बैठे सभी देवता। आपको इन देवताओं को समझना होगा, आपको यह जानना होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं। मान लीजिए, अब आप रास्ते में खो गए हैं। तब, आपको अन्य सभी लोगों की तरह ऐसा नहीं सोचना चाहिए: “ओह, मैं रास्ते में खो गया हूँ, मैं वहाँ कैसे जाऊँगा, मैं क्या करूँगा?” आखिर आप किसी बेतुके काम के लिए ही जा रहे हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन आपको सोचना चाहिए, “क्यों?   मुझे किसी उद्देश्य से ही हनुमान यहाँ लाये होंगे, चलो देखते हैं।

स्वीकार करें। स्थिति को स्वीकार करें। जब आप स्थिति को स्वीकार करते हैं तो आप देवताओं के हाथों में कार्यरत होते हैं और वे आपका मार्गदर्शन कर रहे होते हैं, आपके देवता इसे कार्यान्वित कर रहे हैं। स्वीकार करें। और यह स्वीकृति आपको अपने अहं भाव पर एक अद्भुत विवेक प्रदान करेगी। जो भी गलत हो रहा हो – सोचें “यह सबठीक है, हम इसे स्वीकार करते हैं”। और सबसे बढ़कर, चैतन्य वाला भाग, जिस पर आप को ध्यान देना है। अगर आप कुछ करते हैं, और अगर वाइब्रेशन कम हो रहें हैं तो बेशक: “मैं एक सहज योगी हूँ। मेरे लिए चैतन्य और मेरा उत्थान सबसे महत्वपूर्ण चीज है|

इसलिए दाहिने पक्ष की ओर विवेक विकसित करने के लिए आपको अपना लक्ष्य, अपनी मंजिल जाननी होगी। आपको पता होना चाहिए कि आप किस रास्ते पर खड़े हैं और आपको कहां लाया गया है, आज आप कहां हैं। आप अन्य लोगों की तरह नहीं हैं। यदि आप अपने भीतर शुद्ध बुद्धि के माध्यम से उस प्रकार का विवेक विकसित करते हैं, तो उसके लिए आपको शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता है। और एक हंस में शुद्ध बुद्धि यह है कि वह पानी पर तैरता है, वह पानी को हिला देता है, वह किसी चीज को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। यह पानी में है, झीलों को खूबसूरती से सुशोभित कर रहा है, साथ ही झील को उन्हें निगल जाने या उन पर हावी होने या उन्हें ढकने की अनुमति नहीं दे रहा है। यह वह हिस्सा है जहां वे “हं” हैं। वे चाहें तो नीचे गोता लगा सकते हैं, नहीं चाहते तो नहीं लगाएंगे। वे इस सागर, संसार केभवसागर के  सागर पर तैर रहे हैं और वे इसमें डूबने वाले नहीं हैं। वह इसका “हं” वाला हिस्सा है जो आपके पास होना चाहिए, विवेक।

एक तरफ आपको चीजों को स्वीकार करना चाहिए कि वे आपके पास आती हैं।

इनमें श्रेष्ठ थे श्री कृष्ण, मैं कहूँगी, जिनमें यथार्थ विवेक था। लेकिन, आखिर वे श्रीकृष्ण ही थे। लेकिन उनके विवेक के तरीके इतने दिलचस्प थे कि यह जानना सुखद है कि उन्होंने किस प्रकार इतने सारे राक्षसों को नष्ट कर दिया। हर बार उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग न करते हुए अपने विवेक का प्रयोग किया। जैसे, एक राक्षस था जो पांडवों पर हावी होने की कोशिश कर रहा था, जो अच्छे लोगों पर हावी होने की कोशिश कर रहा था। श्री कृष्ण ने कहा: “अब, इस भयानक आदमी के साथ क्या करना है?” और इस शख्स को ब्रह्मदेव और महादेव और सभी से वरदान प्राप्त थे। तो आखिरकार, श्रीकृष्ण केंद्र हैंइसलिए वे इस भयानक राक्षस के उचित विनाश की व्यवस्था करना चाहते थे। तो उन्होने क्या किया कि एक महान राईट साइडेड  संत ध्यान कर रहे थे, और उन्होंने वरदान प्राप्त किया था कि: “कोई भी मुझे परेशान न करे, कम से कम पहली बार जो मुझे परेशान करता है, मेरे पास उसे नष्ट करने की शक्ति होनी चाहिए, अगर मैं उस व्यक्ति को देखूं। और यह एक गुफा में ध्यान कर रहे थे। श्रीकृष्ण बड़े ही सुन्दर ढंग से रणभूमि से भागे। उसका नाम रणछोड़दास है। यह एक, यह छोटा सा, थोड़ा जानबूझकर किसी को यह बताने का इरादा है कि वह जो युद्ध के मैदान से बाहर भाग गया

इसलिए श्री कृष्ण युद्ध के मैदान से बाहर भागे क्योंकि इस भयानक व्यक्ति को मारने का कोई दूसरा तरीका नहीं था। और वह गए, और शाल ओढे थे। जब श्री कृष्ण इस भयानक राक्षस को मारने के लिए दूर भाग रहे थे, तो उन्होंने उस गुफा में पहूंच कर उस संत को अपनी शाल से ढक दिया। श्री कृष्ण जाकर छिप गए। जब यह राक्षस गुफा के पास आया, तो उसने इस संत को शाल से ढके देखा। उसने कहा: “ओह, तो अब तुम थक गए हो और यहाँ सो रहे हो, मैदान से भाग रहे हो! अभी खड़े हो जा!” इतना कहते ही उस साधु ने नज़र उठा कर उसकी ओर देखा, वह तो बिलकुल जल कर भस्म हो गया। [हंसना]

तो, अगर श्री कृष्ण साक्षात विराट, उनके चरणों में हैं [श्री माताजी ने अपना हंसा दिखाया]।; या यदि श्री कृष्ण विट्ठल,  [श्री माताजी अपनी विशुद्धि दिखाती हैं] उनके सिर पर हैं [श्री माताजी अपना आज्ञा दिखाती हैं], तो दोनों के बीच में हंस चक्र है।

श्रीकृष्ण के जीवन में विवेक का बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। हम उन के बारे में कह सकते हैं कि उनके पास अपने विवेक का उपयोग करने का एक शरारती तरीका था। उन्होंने ऐसे कई काम किए हैं। लेकिन वे एक नाटक रचते हैं, वे उसकी लीला रचते हैं। क्योंकि वह लीलाथे इसलिए वह अपने विवेक का उपयोग नाटक या खेल रचाने के लिए कर सकते थे।

तो एक तरफ हमें विवेक देने के लिए श्रीकृष्ण की सहायता है, और दूसरी तरफ हमारे पास ईसा-मसीह हैं। बीच में इस हंसा चक्र को रखा गया है। तो हमारे भीतर दो महान अवतार हैं जो विवेक के अवतार हैं। तो एक तरफ श्रीकृष्ण हैं जो इसके संस्कार पक्ष को देखते हैं। और दूसरी तरफ क्राइस्ट हैं जो इसके अहं पक्ष को देखने लगते हैं। वह जो क्रूस पर भी कहता है, “हे परमेश्वर, उन्हें क्षमा कर क्योंकि वे नहीं जानते। हे पिता, इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।यह वही है जो कौड़े को हाथ में लेकर लोगों को मारता है, पीटने लगता है, क्योंकि वे परमेश्वर के नाम पर धन कमा रहे हैं। विवेक देखें, वह यीशु है। उसी प्रकार श्री कृष्ण, जो अपने सुदर्शन चक्र से हजारों और हजारों राक्षसों को मार सकते हैं, अर्जुन के सारथी  बन जाते हैं। उनके व्यवहार का विरोधाभास उनके विवेक की सुंदर गाथा है।

अब एक सहज योगी के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि उन्हें अपने विवेक को इस तरह से कार्यान्वित करना होगा कि वे अपने अंतर्ज्ञान को विकसित कर सकें। मैं कहूंगी कि पहला विचार अंतर्ज्ञान हो सकता है, अंतर्ज्ञान हो सकता है: “हो सकता है कि यह अंतर्ज्ञान हो”। कोशिश करो, प्रयोग करो। लेकिन सहज योग में हर चीज की अति पर जाना गलत है, आपको हर चीज संयम से करनी है। जैसे, मैंने उनसे कहा कि वे सब कुछ वाइब्रेशन्स के माध्यम से देखें। तो वे अपने हाथ खोल देंगे, मुझे नहीं मालुम पर हर बात के लिए जैसे, “क्या मुझे यह साड़ी खरीदनी चाहिए या नहीं?” उससे भी आगे जा कर। “क्या मुझे यह फेस पाउडर खरीदना चाहिए या नहीं?”यह इतना हास्यास्पद है, यह इतना बुरा है, कि अंततः आप पाते हैं कि आप एक भूत बन गए हैं और आप हर किसी को बता रहे हैं कि आपके वाइब्रेशन खराब हैं, ऐसा इसलिए की स्वयं आपके वाइब्रेशन खराब हैं। आपका चित्त खराब है। व्यर्थ की बातों पर चित्त लगाने से आपके चैतन्य बिल्कुल गायब हो जाते हैं।

अतः विवेक के साथ आपके पास सामान्य ज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिए। मैंने लोगों को अचानक सहज योग के बारे में किसी से भी बात करते देखा है। नहीं, यह व्यावहारिक नहीं है। सहज योग एक अनमोल हीरा है, आप इसे हर व्यक्ति को नहीं दे सकते। मैंने हवाई अड्डे पर लोगों को हर एक की कुण्डलिनी उठाते हुए देखा है। नहीं, इसका मतलब यह नहीं है, उन्हें सहज योग में आना हैइसके लिए उन्हें मांगना हैइसके लिए उन्हें प्रार्थना करनी होगी, तभी वे अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। हमें संख्या नहीं, गुणवत्ता चाहिए। मेरे सभी व्याख्यान यदि आप देखें, तो उसमें मैं सहजयोगियों की गुणवत्ता और साधकों की गुणवत्ता पर जोर देती रही हूं। लेकिन जब हम श्री माताजी के लिए बहुमत प्राप्त करने के लिए एक वोट के बारे में सोचने लगते हैं – मुझे कहना पड़ता है कि मैं किसी चुनाव में खड़ी नहीं हूं। आप मुझे चुनें या न चुनें मैं चुनी गयी हूं [हंसते हुए]।आपको ऐसा करने की जरूरत नहीं है। मुझे इसके लिए ज्यादा लोगों की जरूरत नहीं है। और जब आप विवेक में असफल होते हैं तो आप पाते हैं कि कुछ समस्याएं विकसित हो रही हैं।

अब, यह आपको पता लगाना है कि आपने कौन-सी अविवेकपूर्ण बातें की हैं, आप कहाँ गलत हो गए हैं, किस तरह से आपने गलती की है। यह आपको पता लगाना है, फिर इसे सुधारना है। अन्यथा सहज योग में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, कोई परीक्षा नहीं होनी चाहिए, सभी आनंद और आनंद और आनंद होना चाहिए। लेकिन विवेक का उपयोग यह पता लगाने में होना चाहिए कि आपकी कमजोरियां क्या हैं, आपने कहां गलतियां कीं, क्या गलतियां कीं, कहां, किस हिस्से में और कैसे हम विफल रहे।

कभी-कभी लोग सोचते हैं: “ओह, हमने उस समय बहुत कुछ किया, अब हम ऐसा नहीं कर सकते”। फिर आप असफल हो गए। जैसे मैंने सुना कि लोग कह रहे हैं, “अब हम यहाँ आ गए हैं, इसलिए हम गुरु पूजा में नहीं जाएँगे”। यह गलत है, बहुत गलत है, हमें गुरु पूजा में आना है, कोई सवाल ही नहीं है। गुरु पूजा एक ऐसी पूजा है जिसे आप चूक नहीं सकते। भले ही आप सहस्रार पूजा को छोड़ दें तो ठीक है, लेकिन गुरु पूजा बहुत महत्वपूर्ण है।

किसी भी कीमत पर आपको गुरु पूजा के लिए आना ही होगा।

मुझे पता है कि मैंने एक जगह चुनी है, जो अंडोरा है, जो हिमालय नहीं है! [हंसना]। अब सहज योग में यह इतना आरामदायक है कि हम चाहते हैं कि हमें उड़ान ना बदलना पड़े, हम सीधे हंस पर बैठेंगे और अंडोरा के स्थान पर पहुंचेंगे। आप पहुंचेंगे! यह आप देखेंगे | लेकिन अगर आप ऐसा सोचने की आदत विकसित कर लें की: “ओह, यह मुश्किल होगा!” तो ऐसा ही होगा। “लेकिन जैसा कि माँ ने कहा है, यह सबसे आसान होने जा रहा है, सब कुछ कार्यान्वित होने वाला है।” एक बार जब आप ऐसा सोचेंगे तो यह काम करेगा। सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन पहले शुद्ध इच्छा होनी चाहिए। जब भी आपके मन में इस तरह के विचार आएं तो फिर से अपने विवेक का इस्तेमाल करें।

हम अपने स्वास्थ्य के लिए गुरु पूजा में जाते हैं। हर गुरु पूजा, अगर आपको याद हो, तो आप बहुत उन्नत हो गए हैं। हर गुरु पूजा ने आपकी मदद की है। बेशक, आप कहते हैं कि महाराष्ट्र टूर बहुत अच्छा है, मैं मानती हूं, है, महाराष्ट्र टूर आपकी बहुत सहायता करता है। लेकिन वह तीस दिनों के लिए है, इतना गहन। लेकिन गुरु पूजा केवल एक दिन की होती है। महाराष्ट्र में आपके कितने पूजा हैं? कम से कम आठ से नौ, कभी-कभी तो दस भी। इसलिए, स्वाभाविक रूप से इसे और अधिक प्रभावी होना चाहिए। लेकिन गुरु पूजा अपने आप में अत्यंत प्रभावशाली है। भारतीय मुझसे मांग करते  रहे हैं, “माँ, एक बार, कम से कम एक बार और, हमें गुरु पूजा दो। गुरु पूजा के लिए हम कुछ भी देंगे। कृपया आइये।” इस बार वे गुरु पूजा करना चाहते थे। कल्पना करना! आप भारत में गुरु पूजा में शामिल नहीं हो सकते थे। लेकिन अंडोरा के साथ मेरा एक खास मकसद है, मेरा एक खास मकसद है।

तो कृपया समझें, मैं एक उद्देश्यहीन व्यक्तित्व नहीं हूँ। धीरे-धीरे आप सीखेंगे कि कैसे मैं उद्देश्य को पूरा करती हूं – आपका, मेरा और सहज योग का, एक साथ। मैं इसे कैसे खूबसूरती से कार्यान्वित करती हूं, आप समझ जाएंगे और मुझे आशा है कि एक दिन आप भी विवेक के वे सभी सुंदर तौर-तरीके विकसित कर लेंगे जिनके द्वारा आप सिर्फ सही काम करते हैं और कभी गलत काम नहीं करते!

अब हंसा चक्र के इलाज के लिए, जो ज्यादातर शारीरिक पक्ष पर है, बाहर है, इसलिए ज्यादातर इसे भौतिक पक्ष पर अधिक करना होगा। तो जैसा कि हमने हंसा चक्र को ठीक करने के लिए घी का उपयोग किया है, और वह सब जो आप अच्छी तरह जानते हैं। साथ ही हंसा चक्र के लिए यह महत्वपूर्ण है कि लोगों को चूमना नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि चुंबन का त्याग कर देना  चाहिए, क्योंकि चुंबन में आप दूसरे व्यक्ति के कीटाणुओं को अनुमति देते हैं, सहज योग में यह ठीक है। लेकिन एक बार जब मैं कह देती हूं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप चुंबन के साथ पागल हो जाते हैं। नहीं, उचित नहीं। यदि, भारत में, आप जाते हैं और किसी को चूमते हैं तो वह दंग रह जाएगा, उसे समझ नहीं आयेगा कि क्या हो रहा है।

इन सब चेष्टाओं से आप जितना अपने प्यार का इजहार करने लगते हैं, अंदर से वह उतना ही घटता जाता है। जितना अधिक आप अभिव्यक्ति देते हैं- अब उदाहरण के लिए, “धन्यवाद” व्यक्त करने का एक तरीका है। मेरा मतलब है, आप कहते रहते हैं, “धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद।” यह सिर्फ एक मौखिक कार्य है। लेकिन कई देशों में बहुत से लोग “धन्यवाद” बिल्कुल नहीं कहते हैं, लेकिन अंदर से वे बहुत आभारी हैं। भीतर की कृतज्ञता, वह गहराई निर्मित करती है जो आवश्यक है। तो इसे सतही रूप से करना, कुछ भी, अत्यधिक, अपने विवेक के माध्यम से बचना होगा।

लेकिन अति से बचना, बहुत अधिक बाहरी अभिव्यक्ति से बचना, फिर से, एक दुसरे ही प्रकार का , अंग्रेजों जैसा अविवेक पैदा कर सकता है, वे बोलते नहीं हैं, वे बस बोलते ही नहीं हैं। तुम उनके साथ प्रतिदिन पच्चीस मील यात्रा करते हो, एक साथ बैठे हुए; वे नहीं बताएँगे कि आप कौन हो। वे आपके बारे में सब कुछ जान जाएंगे, लेकिन वे चुप रहेंगे। वे बोलने वाले नहीं हैं, यह कृत्रिम है।

तो दूसरी बात पर हमें आना होगा – हमें बनावटी नहीं होना है। यह ठीक है, अगर कोई ऐसा महसूस करता है, बस सहजता से मुझे प्यार करना चाहता है और मुझे गले लगाना चाहता है, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह कृत्रिम नहीं है, यह बस आता है। बच्चे सबसे सहज होते हैं, वे कृत्रिम नहीं होते, वे बिल्कुल भी कृत्रिम नहीं होते। उसी तरह हमें हर चीज के बारे में बहुत स्वाभाविक होना चाहिए। यह ठीक है, आपस में बात करते समय, यदि पुरुष पुरुषों को थोड़ा सा भी मारते हैं, तो कोई बात नहीं। उन्होंने अपमान नहीं किया है, यह प्यार है, प्यार की अभिव्यक्ति है, ठीक है। लेकिन सहज होना चाहिए, कृत्रिम नहीं होना चाहिए। हमें सहज योग में किसी भी तरह से बनावटीपन नहीं अपनाना चाहिए।

लेकिन कपड़े पहनना बनावटीपन नहीं है। सभ्य होना कृत्रिमता नहीं है। प्रतिष्ठित होना कृत्रिमता नहीं है। कृत्रिमता यह है कि, जो आपको अंदर से महसूस नहीं होता, वह बाहर कह देना है। यह कृत्रिमता है और एक सहज योगी के लिए, उसे लगता है कि उसके पास वह संकोच है, उसके पास वह शर्म है, उसके पास वह प्रोटोकॉल है और वह अपने शरीर का सम्मान करता है। शरीर के सम्मान में वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहता जिससे उसके शरीर का अपमान हो। और इस तरह अगर आप समझते हैं कि कहाँ तक जाना है और कहाँ रुकना है।

फिर सहज योग में अविवेक का एक और तरीका है, जो मैंने देखा है, वह यह है कि लोग मुझे उस तरह के कई उद्देश्यों के लिए उपयोग करना शुरू कर देते हैं। जैसे, मान लीजिए, अब कोई कविता लिख ​​रहा है। तो वह मेरे पास आएगा, वह कहेगा: “कृपया मेरी कविता को सुधारें।” मैं एक कविता, दो कविताएँ, तीन कविताएँ, दस कविताएँ ठीक कर दूँगी, तब वह कविताएँ रचने की क्षमता खो देगा।

आपको इस तरह से अपने उद्देश्य के लिए मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए, लेकिन वैसे भी आप मेरा उपयोग कर रहे हैं। लेकिन इस समझ के साथ कि “माँ हर समय मेरे साथ है और मेरी मदद कर रही है,” आगे आने और मेरे समय का व्यतिक्रम करने और मेरा समय लेने और मुझे परेशान करने की कोई आवश्यकता नहीं है ताकि मुझे लगे कि: “हे भगवान, जब क्या मैं इससे छुटकारा पा लूं? या दूसरों के पास एक बात है, “माँ, आपको मेरे घर आना चाहिए, आपको मेरे बच्चे को लेना चाहिए, आपको मेरे पति से मिलना चाहिए, वह शराबी हो सकता है।” तो जिसे आप “मेंरा” कहते हैं उस पर ध्यान खींचना भी अविवेक है।

इसके बजाय, आप मेरा चित्त अपनी ओर ले जाने के बजाय अपना चित्त मुझ पर लगाएं। यह बहुत ही नाजुक धार है, जैसे हम तलवार पर चल रहे हों। यह विवेक की एक बहुत ही नाजुक रेखा है। लेकिन एक बार जब आप अपने भीतर एक अवस्था के रूप में जान जाते हैं, तो आप विवेकवान हो जाते हैं; तुम चाहकर भी अविवेकी नहीं हो सकते। और यही उत्थान वाला हिस्सा है।

तो एक बार जब आप इस चक्र से निकल आते हैं और अपने आज्ञा से गुजरते हैं, तो आप सहस्रार में प्रवेश करते हैं जहां आपको विवेकपूर्ण होना होता है। फिर वहां से जो कुछ भी निकलता है-वह आशीर्वाद है, जो भी अभिव्यक्ति निकलती-धन्य है, सहस्रार से वह सब विवेकपूर्ण और सुंदर है।

कुछ लोगों की मुझ पर हावी होने की आदत भी होती है। जैसे, अगर मैं बात कर रही हूँ, तो वे बीच में बात करेंगे। अगर मैं कुछ कह रही हूं- वे आगे आएंगे। फिर मैं तरकीबें खेलती हूं, मैं तरकीबें खेलने में अच्छी हूं। लेकिन मैं बहुत निर्लिप्त हूं, तो यह ठीक है। मेरा विवेक चाल चलता है। क्योंकि अगर मैं प्रत्यक्ष करती हूं तो आपको यह पसंद नहीं आएगा, इसलिए बेहतर है कि निर्लिप्त रहें और चालें खेलें।

हम जो कुछ भी करते हैं उसमें विवेक स्वयं को अभिव्यक्त करता है। और अगर आप एक ठोस सहज योगी या सहज योगिनी हैं तो आपका विवेक स्पष्ट है और हर कोई देखता है और जानता है, कि यह वहाँ है। इसलिए आज आप सभी के लिए अपने विवेक का विकास करना और मुझ से अपने हंस चक्र में निवास करने के लिए प्रार्थना करना  महत्वपूर्ण है ताकि आप हर समय विवेक की शक्ति में स्थित रहें। विवेक के साथ हम मानव अवस्था के रूप में विकसित हुए हैं और आगे जाने के लिए हमें अपने सहज विवेक को विकसित करना होगा जो मुझे लगता है कि सभी धर्मों का सार, हमारे द्वारा किए गए सभी कारनामों का, हमको ज्ञात उन सभी जीवनों का सार, यह विवेक है जिसके चारों ओर सब कुछ चलता है।

परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करे।

श्री माताजी सहज योगियों को 45 सेकंड के लिए नमन करती हैं,

परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करे।

इस प्राणी (हंस) के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, मेरा मतलब है, यह अंतहीन है। मेरा मतलब है कि हम कहाँ तक जा सकते हैं? आपके सभी निर्णयों में सब कुछ विवेक है, दैवीय विवेक है। तो, [श्री माताजी एक माइक लेती हैं] विवेक के बारे में इतना कुछ कहा जा सकता है कि इसका कोई अंत नहीं है। और जैसा कि आप जानते हैं कि इस भ्रम के दौर में विवेक ही है जो हमें सही दिशा में ले जाता है। इसलिए विवेक इतना महत्वपूर्ण है। हमारे हर निर्णय में, आपकी समझ की बात में, छोटी-छोटी बातों में, गहरी बातों में, हर जगह विवेक जो एक दैवीय समझ है, हमें रखना ही होगा।

परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करे।

पूजा शुरू

 

टेप 3: जर्मनों से संक्षिप्त बातचीत

मुझे लगा कि मैं आनंद की गहराई में, आनंद के सागर में गिर गया हूं। यह इतना खूबसूरत था कि आप सब आकर मुझे ऐसा सरप्राइज दे सके थे। बेशक मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ, इसमें कोई शक नहीं।

मेरा प्यार मानसिक नहीं है, भावनात्मक नहीं है, यह स्वयं अस्तित्व है। मैं इसके साथ मौजूद हूं। यह मेरी जन्मजात प्रकृति है, जिसका मैं तब तक आनंद नहीं ले सकती जब तक कि यह परिलक्षित न हो। यह प्रतिबिंबित होना चाहिए और आज मैंने आप लोगों में प्रतिबिंब को महसूस किया है। मुझे बहुत खुशी हुई, बहुत प्रसन्नता हुई। सब कुछ कितना खूबसूरत लगता है।

ये सभी छोटी-छोटी समस्याएं जो आपको परेशान करती हैं और कभी-कभी मुझे परेशान करने की कोशिश करती हैं, वे भी लुप्त हो गईं। मुझे बस इतना लगा कि हर कोई इतना शुद्ध और इतना सुंदर है, सभी का अहंकार धुल गया है और उनमें प्रेम की सुंदरता का अमृत उड़ेल रहा है। आसान नहीं है वर्णन करना, वो था निरानंद, आज महसूस हुआ पूरा निरानंद।

अपने स्वयं के आनंद को प्रतिबिंबित महसूस करना इतना असीम है कि आप उन्हें शब्दों की सीमाओं में नहीं बांध सकते। आपने आज मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता दी है और एक बहुत बड़ी भावना है कि सहज योग अब विशेष रूप से जर्मनी में बहुत अच्छी तरह से स्थापित होगा।

मुझे हमेशा जर्मनी के बारे में लगता था कि उसे एक विशेष मदद की जरूरत है और जिस तरह से आप सभी यहां पहुंचे हैं, वह एक ऐसी जगह की तरह है, हाथ में कहें या पैर में, अगर कुछ दर्द होता है, तो सारा ध्यान उसी ओर जाता है, उस तरह। जर्मनी एक बहुत मजबूत राष्ट्र है और अगर आप उन्हें सहज योग में ले जा सकते हैं तो हमारे अन्दर वह धातु होगी। यह बहुत ज़रूरी है। हर देश में कुछ खास होता है। जर्मनी की धातु बहुत महत्वपूर्ण है और अगर वह हमारे पास आती है, तो हमारे पास वह साहस होगा।

तो, परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करे।

परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करे।

बाद में……

ठीक है, एक, मैं एक पाँच मिनट के लिए बोलूँगी।

एक तरह से हमारा यूरोपियन दौरा अब जर्मनी तक आ गया है, म्यूनिख तक और इसे जर्मनी के अन्य हिस्सों में फैलाना है, यह बहुत जरूरी है। विशेष रूप से बवेरिया में, जैसा कि मैंने सुना है, वहाँ बहुत अधिक रूढ़िवादी और कैथोलिक चर्च का प्रभाव भी है। इसलिए म्यूनिख में बवेरिया में जर्मन केंद्र शुरू करना जरूरी था। लेकिन जिस तरह से आप सभी यहां आए हैं और जिस तरह से हमने इसे तैयार किया है, मैं बहुत खुश हूं कि हमने वास्तव में इस जगह के वायब्रेशन को बदल दिया है। जब मैं यहां आयी तो मुझे लगा कि चैतन्य इतने अच्छे नहीं हैं, और मुझे बताया गया था कि कई अन्य लोगों ने इस जगह का उपयोग किया है। लेकिन मुझे लगता है कि आप सभी ने वाइब्रेशन को बदल दिया है और यहां चीजें काफी बेहतर हैं। इस तरह, जितना अधिक आप यात्रा करते हैं, जितना अधिक आप जाते हैं, जितना अधिक आप लोगों से बात करते हैं, उतना ही बेहतर होता है, उनके लिए यह देखना कि वायब्रेशन कैसे बदलते हैं और संतों की भलाई को अपनी गरिमा  में महसूस करते हैं। और संतों की पहचान वातावरण के परिवर्तन से होती है।

अब मैं सोच रही थी कि आप अंडोरा कब जा रहे हैं। आप में से बहुत से लोग बसों से जा रहे होंगे, और आप अपनी बसों पर बड़े-बड़े पोस्टर लगा सकते हैं या शायद बैनर लगा सकते हैं। आपके पास फोटो हो सकते हैं, आप बैज पहन सकते हैं, आप किसी गांव में रुक सकते हैं, किसी स्थान पर रुक सकते हैं, लोगों से बात कर सकते हैं, गाना गा सकते हैं, वह सब कुछ माहौल बदल देगा, जहां भी आप यात्रा करेंगे। अब चुप रहने का समय चला गया है। अब हमें बात करनी है, हमें गाना है, हमें यह दिखाना है कि हम काफी सक्षम लोग हैं और हम खुद को खूबसूरती से, गरिमापूर्ण तरीके से अभिव्यक्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम इस तरह एक सुंदर तंबू के नीचे गोपनीयता में एक साथ होते हैं, यह अच्छा है। हम नाच सकते हैं, हम खुद का आनंद ले सकते हैं। लेकिन जब हम बाहर होते हैं, जनता का सामना करते हैं, तो हमें गाना होता है, लेकिन गरिमा के साथ। यह इसका विवेक भाग है। और यहां हम सबको आपस में आनंद लेना है, कूदना, हंसना, सब कुछ है।

लेकिन बाहर की दुनिया सोचती है कि संत को बहुत गंभीर व्यक्तित्व होना चाहिए। यहाँ तक कि उन्होंने मुझसे कहा, “माँ, क्या कोई तस्वीर है जहाँ आप मुस्कुरा नहीं रही हैं?” मैंने कहा, “मुझे नहीं पता, शायद उनमें से कुछ, कभी-कभी काफी गुस्से में भी।” तो, मैंने पूछा, “क्यों?” “क्योंकि अमेरिका में कोई भी संत का मुस्कुराना पसंद नहीं करता है”। मैंने कहा, “सचमुच? क्या ऐसा है, कि बाकी सब लोग मुस्कुराएं और आनंद लें और संत उदास होकर बैठें, क्या वे एक संत से यही उम्मीद करते हैं?” संत ऐसा होना ही चाहिए जो हंसता-मुस्कुराता रहे। लेकिन वे इस समझ के उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं कि आनंद संत का अधिकार है, सामान्य व्यक्ति का नहीं।

इसलिए हमें उदास और अप्रसन्न दिखने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु हमें अपने हाव-भाव से बहुत अधिक उत्साहित दिखने की आवश्यकता नहीं है। तो इस तरह चीजें काम करेंगी। लेकिन मुझे आपको नाचते और आनंद लेते हुए देखना अच्छा लगता है, आपका शरीर स्पंदनों से लहराता है और सब कुछ इतना अच्छा लग रहा है, यह बहुत अच्छा लग रहा है और वह सब कुछ जो आप अपने शरीर के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं, जो खुशी आप महसूस कर रहे हैं। इन सब के बावजूद कभी-कभी हम पाते हैं कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने कुत्सित दुख से बाहर नहीं निकल पाते हैं, और वे ऐसे इतने आनंदित लोगों के समूह में बहुत हास्यास्पद और बेतुके लगते हैं।

इसलिए मुझे आप सभी को सावधान करना है क्योंकि मेरे पास एक महिला का मामला था जो भारत से थी और वह शादीशुदा थी; उसका पति बहुत अच्छा आदमी था, बहुत खुशमिजाज आदमी था, बहुत खुशमिजाज और अच्छा इंसान था। लेकिन इस महिला ने खुद को उस समूह के साथ, उस समाज के साथ, हर चीज के साथ आत्मसात करने से इनकार कर दिया और वह हर समय बस बाहर रही, और यह दिखाने की कोशिश कर रही थी कि वह बहुत दुखी है, वह घुल-मिल नहीं सकती, वह सामूहिक नहीं हो सकती। नतीजतन उसे वापस जाना पड़ा। उसने मेरे लिए एक समस्या खड़ी कर दी है लेकिन फिर भी वह अपने तथाकथित दुख, अपने परिवार से तथाकथित अलगाव, या तथाकथित आपदाओं के बारे में अपने बेवकूफी भरे विचारों से बाहर नहीं आ सकी है, जो एक सहज योगी के लिए अब नहीं हैं।

तो मेरा आपसे निवेदन है कि – अपनी आनंदमय अवस्था में आ जाइए। खुश रहो कि तुम उस हालत में हो। भगवान का शुक्र है कि अप्रसन्नता की बकवास चली गई। इस तरह आप इतने चमत्कार देख सकते हैं, आप अपने जीवन में बहुत सारी अच्छी चीजें होते हुए देख सकते हैं। लेकिन अगर आप एक रोते हुए बच्चे हैं और अगर आप हमेशा शिकायत करते रहते हैं और आप इतने दुखी दिखते हैं जैसे कि पूरी दुनिया आप पर गिर रही है, तो पूरी दुनिया गिर जाएगी, आपने यही मांगा है, ठीक है, यही लीजिए।

आप देखते हैं, सभी गण प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आप क्या चाहते हैं। अब, तुम दुख चाहते हो? ठीक है, ले लो। थाली में वे तुम्हें दुख देंगे। लेकिन अगर आप खुश रहना चाहते हैं तो वे आपको प्रसन्न करने के लिए हैं। इसलिए आपके लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि सहज योग ने हमें जो दिया है, उसका स्वागत करते हुए हमें बहुत, बहुत प्रसन्न, आनंदित लोग होना चाहिए और गंभीर, दुखी, शिकायती, निरर्थक नहीं होना चाहिए। आप इन सब चीजों से ऊपर हैं। यदि हम इससे ऊपर नहीं उठ सकते हैं, तो क्या होगा कि आप नीचे, नीचे, और नीचे, और नीचे जाएंगे।

मुझे सभी सहज योगियों को संगीत, नृत्य, गायन का आनंद लेते देखना अच्छा लगता है क्योंकि आप दूसरी दुनिया में हैं। जो कुछ बेतुका था, वह सब छूट गया, जो अब गिर चुका है। यदि यह नहीं गिरा है, तो इसका मतलब है कि आपको अधिक परिपक्वता की आवश्यकता है, आपको ऊपर आना होगा। यदि आप अभी भी गंभीर हैं, सोच रहे हैं “क्या? यह, वह,” तो आपको कुछ और ध्यान, जूता-पिटाई, सभी प्रकार की चीजों की आवश्यकता है। आपको अपना इलाज करना होगा। लेकिन आपको आनंद में रहना है, हर समय आनंद में रहना है।

आनंद में आपको दुख या खुशी नहीं होती; यह सिर्फ आनंद है, परम आनंद। मैं खुद को एक मिनट से ज्यादा गंभीर भी नहीं रख सकती, मैं गंभीर होने की कोशिश करती हूं लेकिन यह मुश्किल है क्योंकि हर समय इतना आनंद बुदबुदा रहा है कि मुझे यह दिखाना मुश्किल हो जाता है कि मैं बहुत प्रसन्न नहीं हूं या मैं गुस्से में हूं।

इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूंगी कि आनंद के सागर में पूरी तरह से खो जाएं। अपने सभी संस्कारों को, अपने सभी निरर्थक विचारों को छोड़ दें, लेकिन केवल आनंदित रहें और अपने आप से और बाकी सभी सहज योगियों और मेरे साथ प्रसन्न रहें।

तो सबसे बड़ा विवेक यही है, आज हमें यह सीखना है कि आनंदित और प्रसन्न रहना है। क्या हम खुश हैं, क्या हम खुश हैं या हम शिकायत कर रहे हैं? अगर आप शिकायत कर रहे हैं, अगर आप इस तरह बैठे हैं, तो आप सहज योगी नहीं हैं। अगर आपको मुस्कुराना और हंसना नहीं आता है, तो आप सहज योगी नहीं हैं, बिल्कुल, आप चाहे कुछ भी कहें, आप सहज योगी नहीं हैं। आपके चेहरे पर हर समय हमेशा मुस्कान होनी चाहिए और आप लोगों को खुश रहना चाहिए। कृत्रिम रूप से नहीं, बल्कि भीतर से। यदि आपको यह महसूस नहीं होता है तो बेहतर है कि ध्यान में जाएं, इसे कार्यान्वित करें, सुनिश्चित करें कि आप दोषी महसूस नहीं करते हैं, देखें कि आप दुखी महसूस नहीं करते हैं।

अब आप में से जो लोग दुखी महसूस करते हैं कृपया अपने हाथ उठाएं (श्री माताजी सहित सभी हंस रहे हैं)। इसके लिए शुक्रिया। आह, ठीक है।

हंसने जैसा अन्य कुछ नहीं। हंसी सबसे बड़ा सुधार है, आप खुद पर हंसेंगे, आप दूसरों पर हंसेंगे। दूसरों को बेतुका मत दिखाइए, लेकिन दूसरे जैसे हैं वैसे ही आनंद लीजिए और एक दूसरे का आनंद लीजिए। वे सभी बहुत सुंदर लोग हैं, बहुत सुंदर, यह ऐसा है जैसे एक सुंदर फूल दूसरे सुंदर फूल की सुगंध का आनंद ले रहा हो। यही होना चाहिए। किसी को यह महसूस नहीं करना चाहिए कि, “ओह, इस फूल को देखो यह कितना सुंदर है।” खुद को देखो, तुम भी कितनी खूबसूरत हो। लेकिन जब तक आप किसी दूसरे फूल की सुगंध और सुंदरता का आनंद नहीं लेते हैं, तब तक आप नहीं जान सकते कि आप क्या हैं, क्योंकि आप सभी अंदर से एक जैसे हैं, आप सभी ऐसे लोग हैं जिनके चित्त में उनकी आत्मा आई है, अद्भुत लोग, प्रमाणित योगी। देखिए, आप सभी के सिर पर प्रकाश है, यदि आप देखना चाहते हैं, तो हमारे पास यह दिखाने के लिए एक फोटो है कि आप प्रमाणित योगी हैं और आपके सिर के ऊपर, आप सभी के पास प्रकाश है। तो आप पहले से ही हर कैमरे से प्रमाणित हैं कि आप योगी हैं। अब आप जो भी कोशिश करें वह ऐसा है, आप पहले से ही प्रमाणित हैं। इसलिए सर्टिफाइड लोगों के लिए दूसरे सर्टिफिकेट लेना उचित नहीं है।

परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें।

(श्री माताजी सहज योगियों के साथ लगभग 6 मिनट गाती हैं)

कितना बढ़िया राग है! हंसध्वनि है

मुझे कहना होगा कि मैं इससे कहीं बेहतर गाती थी, लेकिन आप देखिए, अगर आप व्याख्यान देते रहते हैं तो आप गा नहीं सकते। आपको एक चीज को अपनाना होगा और वही हुआ है। लेकिन यह राग हंसध्वनि है। आज हंस की बात है और यह हंसाध्वनि है। ध्वनि का अर्थ है हंस की ध्वनि।

आह। मैं सिर्फ उन भारतीय लोगों का मज़ाक उड़ा रही हूँ जो गाँवों में भजन गाने की कोशिश करते हैं, आप देखिए और वे एक वाक्य गाएंगे जिसका कोई अर्थ नहीं है, आप देखिए, जैसे “विठ्ठल तो बरवा”, का अर्थ है, “श्री कृष्ण जो” है अच्छे है”। फिर, “श्री कृष्ण अच्छे हैं”, आखिरकार वे  अच्छे ही हैं, और फिर बारबार यही गाने से क्या फायदा। आप देखिये, बस इतना ही है, वे उसे शुक्रिया नहीं कह सकते। सब मिलकर घंटों यही गाते हैं! “विट्ठल तो बरवा, विट्ठल तो बरवा”। हर चीज में वे यही गाएंगे। तो मैं सोच रही थी कि क्या बात है इन लोगों को, इन्हें ये “बरवा” शब्द कहाँ से मिला? शायद किसी शायर का नाम बरवा रहा होगा इसलिए उसने ये बरवा, बरवा दिया है। लेकिन मुझे लगता है कि अब, जब वे देखेंगे कि आप जिस तरह से गाते हैं, चीजें सुधरेंगी उसमें सुधार होगा।

(श्री माताजी सहज योगियों के साथ भवानी दयानी गाती हैं)

इस छोटे से गाने में उन्होंने कितनी बातें कही हैं, कितनी बातें की हैं. “अमर पद दायनी”। वह “वह आपको वह अवस्था देती है, जो अविनाशी है, अवस्था , जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता” – “अमर पद”, “उच्चतम”। यही देवी का वर्णन है और यही आपको प्राप्त हुआ है।

परमात्मा आप को आशिर्वादित करें|

इसलिए हमें जर्मनी के लोगों को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने इस कार्यक्रम को इतनी अच्छी तरह से, इतने सुंदर ढंग से आयोजित किया। (तालियाँ) साथ ही हमें स्विट्ज़रलैंड के सभी संगीतकारों (तालियों) का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए, जो रुके रहे और अंत तक के कार्यक्रम में ऐसा रंग लाए। ये सभी बहुत यादगार पल हैं, बहुत खूबसूरत हैं। मुझे आशा है कि आप सभी उस शांति और आनंद को साथ लेकर चलेंगे जिसे आपने अपने भीतर आत्मसात किया है। हमें उन सभी लोगों का शुक्रिया अदा करना है जिन्होंने आपके लिए और मेरे लिए इतने खूबसूरत उपहार तैयार करने के लिए इतनी मेहनत की है। साथ ही हमें उस प्रकृति और वातावरण का बेहतर धन्यवाद करना चाहिए जो हम पर बहुत मेहरबान थी।