सहस्त्रार पूजा – 1997-05-04
आज हम सभी यहां एकत्रित हुए हैं, सहस्रार की पूजा करने के लिए। जैसा कि आप समझ चुके हैं, कि सहस्रार सूक्ष्म-तन्त्र का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। निःसंदेह, यह एक बड़ा दिन है, 1970 में जब इस चक्र को खोला गया था। परन्तु इसके द्वारा, आपने क्या प्राप्त किया है, इसे हमें देखना चाहिए।
सर्वप्रथम, जब कुंडलिनी उठती है तो वह आपके भवसागर में जाती है, जहाँ आपका धर्म है। और आपका धर्म स्थापित हो जाता है, नाभि चक्र पर, हम कह सकते हैं कि- नाभि चक्र के चारों ओर।
आपका धर्म स्थापित हो जाता है, जो कि जन्मजात रूप से शुद्ध, सार्वभौमिक, धर्म है। स्थापित हो जाता है। लेकिन उसके बाद कुंडलिनी और ऊपर उठती है। यद्यपि, धर्म की स्थापना हो गयी है, हम थोड़ा दूर रहते हैं, अन्य समाजों से, क्योंकि हम देखते हैं कि वे अधर्मी हैं – उनका कोई धर्म नहीं है। साथ ही, मुझे लगता है, कि हम डरते हैं कि हम उनके अधर्म में फँस सकते हैं।
तो उस स्तर पर, हम सहज योग की सीमाओं को लांघना नहीं चाहते। चाहते हैं, कि सहज योगियों तक सीमित रहें, सहज योग के कार्यक्रमों तक और अपने व्यक्तिगत सहज जीवन तक। निःसंदेह यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहले इस चक्र को पूर्णतया पोषित किया जाना चाहिए। और यह चक्र वास्तव में नाभि चक्र के चारों ओर घूमता है, जिसे हम स्वाधिष्ठान के रूप में जानते हैं।
यह स्वाधिष्ठान चक्र, एक प्रकार से, बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह ऊर्जा प्रदान करता है, मस्तिष्क को। इसलिए जब धर्म की स्थापना हो जाती है, तो सूक्ष्म ऊर्जा, कुंडलिनी के मध्य से अग्रसर होते हुए, और अधिक ऊर्जा सहस्रार के लिए भेजती है। और ऊर्जा, धर्म के लिए भी, जो कि सहस्रार में है …स्वाधिष्ठान में, वह (ऊर्जा) भी इसके साथ बहने लगती है। यह उसे लाँघती है… और सहस्रार में उदित होने लगती है।
तब तक हम… मैं कहूँगी, अब तक हम पूर्ण सहज योगी नहीं हैं। क्योंकि कोई सहज योग के विषय में कट्टर हो सकता है।
मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जो इतने कट्टर हैं कि, वे ऐसे लोगों से मिल भी नहीं सकते, जो सहज योगी नहीं हैं। वे बात तक नहीं कर सकते, उन लोगों से तो जो सहज योगी नहीं हैं। और हर समय वे डरे रहते हैं, ऐसे लोगों से मिलने से जो कि सहज योगी नहीं हैं। निःसंदेह, आपको आवश्यकता नहीं है ऐसे लोगों से मिलने की जो दुष्ट हैं, जो लोग सहज योग के विरोध में हैं, जो इसके विरोध में बात करते हैं। लेकिन जो लोग सत्य की खोज कर रहे हैं, हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनके पास जाएं।
तो जब, यह उस अवस्था में पहुँच जाती है जहाँ यह मस्तिष्क में स्थापित हो जाती है, उस समय हम धर्म में पार हो जाते हैं। धर्मातीत- हम धर्म में पार हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि धर्म हमारे अस्तित्व का अंग-प्रत्यंग बन जाता है। हम इसे खो नहीं सकते।
सहज धर्म, हमारे भीतर का अंग- प्रत्यंग बन जाता है, जो कि एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि तब आपको कोई कर्मकांड करने की आवश्यकता नहीं है। आपको अन्य लोगों से मिलने के विषय में चिंता नहीं होती। आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती कि आपकी चैतन्य लहरियों को हानि पहुँचेगी। तब आप पकड़ते नहीं है, किसी से भी। और आप पकड़ते नहीं है, अन्य नकारात्मक शक्तियों से भी। कोई आपको हानि नहीं पहुँचा सकता। उसको मैं कहती हूँ, आपकी श्रद्धा की परिपूर्णता।
उस समय सहस्रार इतना, पूर्ण रूप से प्रबुद्ध होता है कि आप ही धर्म बन जाते हैं। उदाहरण के लिए… हम ईसा मसीह का उदाहरण दे सकते हैं। ईसा मसीह ने देखा कि एक वेश्या को पत्थर मारे जा रहे थे। अब ईसा मसीह का वेश्या से कोई लेना-देना नहीं था, मेरा मतलब है, ठीक इसके बिलकुल विपरीत था। परन्तु जब उन्होंने देखा कि उसे पत्थर मारे जा रहे हैं, उन्होंने अपने हाथ में एक पत्थर लिया, और उन्होंने कहा कि जो लोग सोचते हैं, कि उन्होंने बिल्कुल भी पाप नहीं किया है, मुझ पर पत्थर फेंक सकते हैं। और सभी दंग रह गए। वे क्यों एक वेश्या का पक्ष ले रहे हैं? वे एक धार्मिक व्यक्ति हैं। उन्हें भी उस पर पत्थर फेंकना चाहिए। परन्तु वे सत्य पर खड़े थे। बिलकुल ऐसा ही आपके साथ होता है, जब यह सहस्रार में स्थापित हो जाता है कि आप सत्य पर खड़े हैं।
थोड़ा अंतर होता है इसमें, मैं कहूँगी, धर्म में और सत्य में। एक धार्मिक व्यक्ति बहुत अधिक धार्मिक बन सकता है, विवेकहीन रूप से धार्मिक। दाईं ओर या बाईं ओर जा सकता है। एक धार्मिक व्यक्ति सोच सकता है कि वह दूसरों से श्रेष्ठ है। कि वह क्यों किसी और को बचाने की कोशिश करे? “जाने दो उन्हें नर्क में! कौन परवाह करता है!” इस प्रकार का मनोभाव, आ सकता है, एक व्यक्ति में जो धार्मिक है।
और, मैंने कुछ सहज योगियों को देखा है, जो नए तरीक़े शुरू करते हैं, सहज योग में।
“आप ऐसा कीजिये, तो यह ठीक हो जाएगा। आप वैसा कीजिये, यह ठीक हो जाएगा।” क्योंकि वे धर्म के विषय में स्थिर नहीं होते। तो वे लोगों से कहने लगते हैं कि- “आप इस प्रकार कीजिये, उस प्रकार कीजिये।” परन्तु जब आप ऊँचे उठ जाते हैं, सत्य के स्तर पर, तब आप कोई कर्मकांड नहीं करते। आपको किसी कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती। आप विचलित नहीं होते, क्योंकि आप धर्म में हैं और यहाँ आप सत्य पर खड़े हैं। और सत्य, धर्म से बहुत अधिक महान है।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जो सत्य पर खड़ा है- वह चिंता नहीं करता, धर्म के किसी भी निरर्थक विचार के बारे में। यहाँ तक कि सहज धर्म के बारे में भी। वह चिंता नहीं करता है कि “आख़िरकार यह सहज है, यह सहज नहीं है।” वह इसके पार चला जाता है। इसका तात्पर्य है कि, वह एक वैश्विक सत्य देखता है, अपने भीतर। वह उस सत्य को देखता है जो सर्वव्यापी है। न केवल देखता है, परन्तु वह जानता है और वह अनुभव करता है और वह उस सत्य में है। इसलिए जब धर्म खिलकर सत्य में परिवर्तित होता है, तो यह एक बहुत सुंदर घटना होती है, और ऐसा आप सभी के साथ होना चाहिए।
कई सारी चीज़ें चिपकी रह सकती हैं, यदि आप केवल धर्म के स्तर पर हैं। मैंने लोगों को अहंकार में जाते हुए देखा है, पैसा बनाते हुए। कभी-कभी वे मुझसे पूछते भी नहीं हैं, और कार्य करते जाते हैं, जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए। वे ग़लत कार्य करते हैं, जो कि अच्छा नहीं है, सहज योग के लिए। कोई विनम्रता नहीं होती इनमें। और वे जानते नहीं कि यह धर्म, सत्य पर खड़ा है, या असत्य पर।
इसलिए हमें धर्म की नींव तक जाना होगा – जो कि सत्य है। जैसा कि पहले बताया गया था कि यह एक ‘जीवन का वृक्ष’ है, जिसकी जड़ें ऊपर मस्तिष्क में हैं, और शाखाएं शरीर में हैं। इसलिए आपको जड़ों तक जाना होगा हर बात में। और यही वह स्थान है, जहाँ आप पहुँचते हैं, जब आप सहस्रार में पूर्ण रूप से स्थापित हो जाते हैं।
सहस्रार में जड़ें होती हैं, इन सभी विचारों की जो कि हमारे हैं, या हम कह सकते हैं, कि इन सभी स्वरूपों की जो हमने धारण किये हैं। हम अब धार्मिक हो गए हैं। धर्म का जड़ क्या है? हमें धार्मिक क्यों होना चाहिए? धार्मिक होने की क्या आवश्यकता है? ऐसे बहुत से लोग हैं इस दुनिया में, जो अत्यधिक अधार्मिक हैं, बहुत अच्छी तरह से रहते हैं। इसके अनुसार, मेरा मतलब है, कि बाहरी अभिव्यक्ति से हमें लगता है कि “वे बहुत खुश लोग हैं। वे बिलकुल ठीक हैं। वे अपने आनंद में हैं। जबकि हम वंचित हैं, शायद, इन लोगों के सभी तथाकथित आमोद-प्रमोद से।”
तो केवल–धर्म की स्थिति में, चीज़ें हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जो कि… शायद सत्य पर स्थापित नहीं हैं। बहुत सी इस प्रकार की चीज़ें हैं, जो मैं आपको दिखा सकती हूं, कि कैसे सहज योगी लड़खड़ाते हैं। यहाँ तक कि धर्म की स्थिति प्राप्त करने के बाद भी वे लड़खड़ाते हैं।
मैंने देखा है लोगों को त्याग करते हुए, उनके नशीले पदार्थ, शराब की आदत, अन्य प्रकार के व्यसनों का त्यागना। यहां तक कि उनकी भाषा सुधार जाती है। और उनका, हम कह सकते हैं, व्यवहार बदल जाता है। वे और विनम्र लोग बन जाते हैं, निःसंदेह। परन्तु तब भी, वे जागरूक होते हैं कि वे धर्म पर खड़े हैं। इस जागरूकता को लुप्त होना होगा!
सहस्रार के स्तर पर, यह जागरूकता लुप्त हो जाती है, क्योंकि सत्य ही प्रेम है और प्रेम ही सत्य है। वही है बिंदु जहाँ कुंडलिनी, हृदय चक्र से मिलती है। जैसा कि आप जानते हैं, हृदय चक्र का पीठ यहाँ पर है। इसलिए जब कुण्डलिनी उस हृदय चक्र का भेदन करती है, तो जो बहना शुरू होता है मस्तिष्क में, सहस्रार में, वह सत्य है। केवल सत्य, जो कि प्रेम है।
एक अंतर है, मात्र सत्य में और सत्य जो प्रेम है। तो उस वेश्या के प्रति प्रेम के कारण ही, ईसा मसीह उसके लिए खड़े हुए थे। वे सत्य की जड़ों पर खड़े थे, निःसंदेह, परन्तु जो उनके हृदय से बह रहा था वह प्रेम था, शुद्ध प्रेम। इसलिए जब हमारे भीतर किसी के प्रति शुद्ध प्रेम होता है, तो हम पूरी बात को एक अलग प्रकार से देखते हैं। हम एक व्यक्ति को एक अलग प्रकार से देखते हैं। और यह बहुत मधुर हो जाता है। अन्यथा सत्य बहुत कड़वा हो सकता है, बहुत पीड़ादायक हो सकता है। परन्तु सत्य जो प्रेम से सुशोभित है, वह बिलकुल फूल के समान है, बिना सींगो के, कांटों के।
यह बहुत रोचक है – कैसे एक व्यक्ति जिस से अत्यधिक प्रेम प्रसारित हो रहा हो, और वह सत्य पर खड़ा है। ऐसा व्यक्तित्व आपको बनना है।
अब प्रेम की अभिव्यक्ति को समझने के लिए हम एक उदाहरण ले सकते हैं।
मान लीजिए मैं किसी से मिलती हूँ, और वह किसी अन्य व्यक्ति के बारे में सभी प्रकार की भयंकर बातें बता रहा है। तो मुझे इस व्यक्ति के लिए अत्यधिक प्रेम महसूस होता है, साथ ही उस व्यक्ति के लिए भी, जिसके बारे में वह यह सब बातें बता रहा है। तो अब, मैं झूठ का सहारा लेती हूँ, एक पूर्णतया झूठ, जो सत्य भी है, एक प्रकार से। मैं उस व्यक्ति से कहती हूँ, “देखिए, आप क्या बोल रहे हैं? जिस व्यक्ति के बारे में आप यह सब कह रहे हैं, वह आपकी बस प्रशंसा करता रहता है, हर समय। और यहाँ आप ऐसी बात कर रहे हैं।”
अब, यह सत्य नहीं है, वास्तव में। परन्तु आप उस असत्य की सहायता लेते हैं, जो सत्य का दूसरा पक्ष है; एक मित्रता को पनपाने के लिए, दो व्यक्तियों के बीच में। तो यही है, जो कि प्रेम का कार्य है,- कि लोगों को एक-दूसरे के समीप लाने की प्रयास करना। कि ऐसी बातें कहें, जिसके द्वारा वे एक हो जाए, संयुक्त।
तो सभी विभाजनकारी पद्धतियां का जो हमने अब तक प्रयोग किया हैं, बिल्कुल लुप्त हो जाती हैं, और हम समझने की प्रयास करते हैं, कि किस पद्धति द्वारा हम लोगों के दिलों को जोड़ सकते हैं। वैसे भी आप सामूहिक चेतना में हैं। परन्तु यह सामूहिक चेतना, यदि यह बाह्य है तो आप बड़े परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जैसे कि आपने किया है। शायद आप सुंदर आश्रम बना सकते हैं, आप यह सब कर सकते हैं। परन्तु जब यह से प्रेम भर जाता है, सामूहिक-चेतना, तब आनंद पूर्ण होता है सामूहिक-चेतना का।
अब लोग शांति की बात करते हैं। आप शांति नहीं प्राप्त कर सकते, इस नई चेतना के बिना। हम इसे सामूहिक चेतना कहते हैं। लेकिन उसमें भी मुख्य तत्व होना चाहिए, प्रेम का तत्व।
उदाहरण के लिए, अब सहज योगी, मान लीजिए, जर्मनी और ऑस्ट्रिया से इजराइल जा रहे हैं। यह बहुत ही संतुष्टिदायक है। मैं खुश थी कि उन्होंने इस पूजा के लिए इज़राइल के लोगों को चुना है। और फिर मैंने जाना कि इज़रायली आ रहे है मिस्र से, वह सब भुला कर जो मुसलमानों ने उनके साथ किया। यह वास्तव में उल्लेखनीय है, कि कैसे लोग आकर्षित होते है, प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए, अपने साथियों के प्रति, अन्य सहज योगियों के प्रति। और एक बार जब यह विकसित होने लगता है, तो आप आश्चर्यचकित हों जाते हैं कि कैसे हम इस विश्व को बदल सकते हैं।
अधिकांश समस्याएं, मानवीय समस्याएं, घृणा के कारण हैं। और बहुत ही सामान्य रूप से यह उपयोग किया जाता है– “मैं घृणा करता हूँ , मैं घृणा करता हूँ।” यह निरर्थक है। किसी से घृणा करना एक पाप है। आप किसी से घृणा क्यों करते हैं? आप पाप से घृणा कर सकते हैं। आप बुराई से घृणा कर सकते हैं। परन्तु लोगों से आपको घृणा नहीं करना चाहिए, केवल घृणा करने के उद्देश्य से।
यह घृणा जो हमारे भीतर है, यही उत्तरदायी है, जो अब तक की हमारी सभी समस्याओं के लिए। क्योंकि एक व्यक्ति बहुत शक्तिशाली हो जाता है, लोगों को विभाजित करके वह बहुत शक्तिशाली बन जाता है। और इन विभाजनकारी बातों ने वास्तव में बहुत से देशों को कुचल दिया है।
उदाहरण के लिए, हमारे देश का अंग्रेजों ने विभाजन किया था। अब उनमें विभाजन हो रहा हैं।
यह समाप्त नहीं होता। हमारा विभाजन करके क्या हुआ है? सभी देश जो भारत छोड़ कर चले गए, वे बहुत अधिक कष्ट में हैं।
वे लोग जिन्होंने देश का विभाजन करने का प्रयास किया, सोच रहे थे कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे, आदि आदि, उनमें से अधिकांश की हत्या उनके अपने लोगों द्वारा हो गई।
आप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, कैसे घृणा अपनी अभिव्यक्ति करती है। यह एक छोटे बिंदु से शुरू होती है और यह सभी ओर अभिव्यक्ति करती है। यह बहुत स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता है, किसी भी देश में जिसका विभाजन हो रहा हो। कोई आवश्यकता नहीं है किसी भी देश को विभाजित करने की। यह और अधिक घृणा एवं और अधिक कष्ट पैदा करता है। इस प्रकार ही सहज योग में, हमें विभाजन लाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए।
अब हमें एक सुंदर भूमि प्राप्त हुई है, जैसे कि, वह आपने अवश्य सुना होगा… गंगा के पास। अब लोग सोच रहे हैं कि क्या उनको अलग-अलग घर मिल सकते हैं, अलग से प्रांगण। क्यों? आप जानते हैं कि सामूहिक रूप से कैसे रहना है। आप सामूहिक जीवन का आनंद लेते हैं। तो आप अलग-अलग घर क्यों चाहते हैं? हम कौन से रहस्य एक दूसरे से बनाए रखना चाहते हैं। आख़िरकार, हम जो कुछ भी करते हैं वह चैतन्य लहरियों पर पता चलता है। आप कुछ भी नहीं छिपा सकते। तो अलग-अलग घर क्यों लें? आप थोड़ी गोपनीयता क्यों चाहते हैं? क्योंकि सहज योग में कोई गोपनीयता नहीं है। हम सभी के बारे में जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं? उनकी क्या समस्याएं हैं? उनके कौन से चक्र पकड़ रहे हैं? है कि नहीं?
तो किसी भी चीज़ के विषय में कोई रहस्य नहीं है सहज योग में। हर कोई हर किसी के बारे में जनता है। तो फिर गोपनीयता के होने का क्या उपयोग है? मैं नहीं समझ सकती। यह ऐसे है जैसे, आप देखिए, अभी भी मस्तिष्क उस प्रकार कार्य कर रहा है।
फिर वे विरासत के बारे में सोचते हैं। ठीक है, मैंने कहा था कि आप विरासत में ले सकते हैं, लेकिन यदि आपका बेटा सहज योगी नहीं है, तो क्या कर सकते हैं। हम एक अपराधी को वहां नहीं रख सकते, सभी को कष्ट देने के लिए। वे नियम और कानून नहीं है जो आपको संतुष्ट और संगठित रखने वाले हैं, अपितु वह शुद्ध, सामूहिक-चेतना है और वह प्रेम है। क्योंकि जैसे कि आप जानते हैं, हमारे यहाँ कोई विशिष्ट संगठन नहीं है, हमारे यहाँ कोई पादरी-पद नहीं है, हमारे यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है।
नेता भी बदल सकते हैं- जितनी बार गंगा नदी अपना मार्ग बदलती है उससे अधिक बार। तो ऐसा कुछ नहीं है। इन सबमें हम सरकती हुई रेत पर खड़े हैं, हर समय। और आपकी माँ एक और हैं, जो सब प्रकार की युक्तियों का प्रयोग करती हैं। वजह है, कि मैं चाहती हूँ कि आप चट्टानों पर खड़े हों। और यह चट्टान प्रेम को प्रसारित करता हो, उस दैवीय प्रेम को प्रसारित करता हो। और उस प्रेम का आनंद इतना सुंदर होता है।
उदाहरण के लिए, लोग चाहते हैं कि उनका अलग से बाथरूम हो, विशेष रूप से भारतीय। अचानक से वे अँग्रेज़ बन गए हैं, और अँग्रेज़ भारतीय बन गए हैं, आप जानते हैं। भारतीय अपना अलग बाथरूम चाहते हैं। मुझे नहीं पता क्यों? और एक बहुत ही आम बीमारी है भारतीयों में। और यह अन्य लोगों में भी फैल रही है। मुझे लगता है कभी-कभी कि वे अपना अलग-अलग बाथरूम चाहते हैं। सामूहिक जीवन में कोई आवश्यकता नहीं है। आप जानते तक नहीं हैं, मेरा मतलब है, कि यदि आप मुझसे पूछें तो, मुझे याद ही नहीं रहता कि मैं बाथरूम गई थी या नहीं। बस वहाँ जाइए, वापस आ जाइए – हो गया! मेरे पास समय नहीं है उस सब के लिए।
इस प्रकार, आप में भी एक धारणा होनी चाहिए, एक ऐसे समाज की जो एक महासागर के सामान रह रहा हो। अगर समुद्र उठता है – वे उठते हैं, अगर गिरता है – वे गिरते हैं। बस एक सामंजस्य प्रेम का। मैं इस प्रकार के समाज की अपेक्षा कर रही हूँ, हिमालय की तराई में। और मुझे विश्वास है कि आप, आप सभी, यह जानेंगे कि, हिमालय विश्व का सहस्रार है।
सौभाग्य से, मैं चाहती थी कि यह सहस्त्रार पूजा से पहले पूरा हो जाए, और यह हो गया, हिमालय के आशीर्वाद से, मुझे कहना चाहिए। परन्तु हिमालय भी एक सहस्रार जैसा है, जहां कुंडलिनी का उदय हुआ है। जहाँ चैतन्य निकलता है। और आकाश में आप चैतन्य देख सकते हैं। परन्तु इस हिमालय का शासन एक शिव नामक प्रकोपी भगवान द्वारा होता है। इसका वह भयंकर पक्ष है। इसलिए हमें बहुत, बहुत सावधान रहना चाहिए। यदि हम इसके साथ खिलवाड़ करते हैं, यदि हम आपसी घृणा को अपनाते हैं, विभाजनकारी पद्धतियां अपनाते हैं, ऐसा कुछ अपनाते हैं जो सहज नहीं है, तो यह प्रकोपी भगवान हमारे सिर पर बैठे रहते हैं। वे मक्का में भी हैं। वे उधर मक्केश्वर शिव हैं। यदि आप दुर्व्यवहार का प्रयास करते हैं, तो वे अपना प्रकोप लेकर आते हैं।
कहीं भी आप हों, आपको बहुत सावधान रहना होगा कि ये शिव हर जगह हैं।
जैसे कि इनमें से एक शिव का लिंग परली बैजनाथ में है, जो कि महाराष्ट्र में है। लातूर!
और वहाँ लोगों ने एक और प्रकार का सहज योग शुरू कर दिया। और वे शराब पी रहे थे, श्री गणेश के विसर्जन के दिन। तो प्रकोप आया, शिव लिंग का और वहाँ इतना बड़ा, विशाल भूकंप आया। इसमें कई लोग गुम हो गए, परन्तु कोई भी सहज योगी नहीं। और उनका केन्द्र भी बच गया, पूरी तरह से।
अब हमारे यहाँ भी एक बड़ी आग लगी थी, जैसा कि आप जानते हैं पिछली बार, और आपको कुछ नहीं हुआ। आप संरक्षण में हैं। आप हर समय संरक्षण में हैं। शिव का कोई प्रकोप भी नहीं था, जो कार्यान्वित हो जाए। अग्नि आपका कुछ नहीं कर पाई, क्योंकि आप संरक्षण में हैं। लेकिन यह सुरक्षा आपकी माँ का प्रेम है। यह और कुछ नहीं अपितु आपकी माँ का प्रेम है, जो बहुत शक्तिशाली है और जो आपकी रक्षा कर रही है और आपकी सहायता कर रही है। इस प्रकार से ही, आप उस प्रेम को विकसित कीजिए, दूसरों के लिए ,अन्य सहज योगियों के लिए, अन्य लोगों के लिए, अन्य चीज़ों के लिए, इस धरती माता के लिए, उन सब के लिए। आपका प्रेम न केवल आपकी रक्षा कर सकता है, बल्कि दूसरों की भी रक्षा करता है।
आपका चित्त, जब तक स्वयं पर है, आप सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनते जाएँगे। “मेरे पास यह होना चाहिए, मेरे पास वह होना चाहिए, मुझे यह पसंद है, मुझे वह पसंद है।” ये सभी विषय छूट जाएंगे। आप कभी नहीं कहेंगे “मुझे यह पसंद है,” कोई सवाल नहीं! मुझे क्या पसंद है? मेरे लिए यह तय करना मुश्किल है, कि मुझे कुछ पसंद है। “यह मुझे पसंद है। वह मुझे पसंद है। मुझे इस तरह होना पसंद है।” “आप कौन हैं?” स्वयं से यह प्रश्न पूछें।
आप कौन हैं? यदि आप शुद्ध आत्मा हैं, तो यह प्रेम के अलावा और कुछ नहीं है। और प्रेम में आप दूसरों के बारे में सोचते हैं, दूसरों की समस्याओं के बारे में। आप दूसरों को आराम प्रदान करने का प्रयास करते हैं। आप दूसरों की देखभाल करने का प्रयास करते हैं, और आप केवल स्वयं का ही देखभाल नहीं करते हैं और अपने बारे में ही चिन्तित नहीं होते हैं। यही है जहाँ आपको पहुँचना है। यद्यपि आप धार्मिक हो सकते हैं, आप हर प्रकार से सहज हो सकते हैं, परन्तु फिर भी, जब तक आप अपने सहस्रार पर उस स्तर तक नहीं पहुँचते, मैं नहीं कह सकती कि आप ठीक हैं।
आपको इसे क्रियान्वित करना होगा। उसके लिए निःसंदेह ध्यान बहुत आवश्यक है, परन्तु जो चीज़ इसे रोकती है, वह है आपका मस्तिष्क। यह आपका मस्तिष्क ही है, जो आपको बताता रहता है। हर समय आप अपने मस्तिष्क को देखिए कि यह कैसे आपको निर्देश देने का प्रयास करता है, यह कैसे आपको बताने का प्रयास करता है, “अब मेरे बारे में क्या होगा? मेरे घर के बारे में क्या होगा? मेरे बच्चों के बारे में क्या होगा? मेरे देश के बारे में क्या होगा?” इस प्रकार आप बोलते जाते हैं “मेरा, मेरा, मेरा, मेरा, मेरा।” अंततः आप का कुछ भी नहीं होता है। परन्तु जब आप कहते हैं, “आप, आप, आप”… कबीर ने इसके बारे में एक सुंदर बात कही है। वे कहते हैं कि – जब बकरी जीवित होती है, तो वह कहती रहती है “मैं, मैं, मैं।” जिसका अर्थ है “मैं, मैं, मैं।” परन्तु वह मर जाती है। तब वे उसकी आँतों को बाहर निकालते हैं और इसे एक धुनकी पर लगा देते हैं। वे कपास की सफ़ाई के लिए लगाते हैं। और उस समय, यह धुनकी क्या कहती है? “तूही, तूही, तूही”, “आप ही हैं, आप हैं, आप हैं, आप हैं।” और वह गूँज सब ओर फैल जाती है। इस प्रकार, आपको दूसरे के दृष्टिकोण से सोचना होगा। सबसे पहले, जब आप “तू ही” कहते हैं, अपने गुरु से या परमात्मा से कि “आप हैं। अब मैं नहीं हूँ। मैं घुल गया हूं। मैं समाप्त हो गया हूं। मैं एक हो गया हूँ, इस प्रेम के महासागर के साथ।” और फिर आप दूसरों से कहते हैं, “आप हैं, आप हैं।” यह सहज संस्कृति है।
देखिए, इसलिए अनेक असत्यताएँ पीछे-पीछे आएंगी। असत्यता, जो आप को और दूसरों को समर्पण कराती हो। जैसे लोग मिथ्या प्रयास करते हैं, कुछ कहकर, “ओह, मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ।” और पीठ पीछे वे कुछ बहुत बुरा आयोजित करते हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। सहज योगी नहीं, वे ऐसा नहीं करते, मुझे कहना पड़ेगा, कि वे उस स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ वे ऐसा नहीं करते हैं। परन्तु फिर भी, यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे इसके प्रति सचेत रहते हैं। हर समय वे सचेत रहते हैं, “हम ऐसा नहीं करते। हम पीते नहीं।” तो क्या? “हम भोजन के बारे में असंतुष्टि व्यक्त नहीं करते।” मेरा मतलब है कि सभी चीज़ें जो उन्होंने प्राप्त की हैं, वे इस पर बहुत गर्व करते हैं, आप देखिए, बहुत गर्व कि – “हम ऐसे हैं, हम वह हैं।”
आप देखिए, क्योंकि आप शुद्ध आत्मा हैं, क्योंकि आप वह हैं, इसलिए आप वैसे बन गए हैं। आप अभिमान कैसे कर सकते हैं, उस पर जो आप हैं?
जैसे किसी ने मुझसे पूछा, “क्या आप बहुत गर्व महसूस नहीं करती हैं, कि आप आदि शक्ति हैं?” मैंने कहा-“क्या?”
मुझे प्रश्न समझ नहीं आया। मैंने कहा, “अब देखिए, यदि मैं आदि शक्ति हूँ, तो गर्व करने की क्या बात है? क्योंकि मैं वही हूँ। उसमें अभिमान करने की क्या बात है? अगर मैं वह नहीं होती, तो मुझे इस पर अभिमान होता, परन्तु मैं थी। तो गर्व करने की क्या बात है? ”
जैसे कि सूरज, आप देखते हैं, यह चमकता है, अभिमान नहीं करता कि “मैं सूरज हूँ!” अथवा यदि आप पैदा हुए हैं अपनी आँखों और नाक के साथ, एक चेहरा मनुष्य जैसा, तो आप को गर्व नहीं होता कि, “मैं एक मनुष्य हूँ! मैं एक मनुष्य हूँ!” क्या आपको अभिमान होता है? इस प्रकार यदि आप वह हैं जो आप हैं, तो आपको अभिमान नहीं होता, आप इसके बारे में सचेत नहीं रहते हैं। बिलकुल सचेत नहीं। मेरा मतलब है, मैं स्वयं को कभी नहीं बताती कि मैं आदि शक्ति हूँ। बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ऐसा ही है, क्या करें? अब परमात्मा ने मुझे चुना है, मुझे कहना चाहिए, आदि शक्ति होने के लिए, ठीक है, मैं हो सकती हूँ।
परन्तु मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या है, जैसे कि कुछ लोगों को लगता है कि सहज योग उन्हें अर्पण किया गया है जैसे कि कोई नवाब का पद या ऐसा कुछ। ऐसा नहीं है। यह वही है जो आप बन गए हैं! जब आप बन जाते हैं, तो आपको समझना चाहिए, कि आप वह बने हैं। जैसे मान लीजिए एक पत्थर सोना बन जाता है। फिर वह सोना है। उसे अभिमान नहीं होगा कि “मैं सोना हूँ”। सोना सोना होता है। उसे इस पर अभिमान क्यों होगा? इस प्रकार, यह बोध, एक सहज योगी होने का, समाप्त हो जाता है। यदि फिर भी यह चिपका रहता है, तो उसे सावधान रहना होगा, कि आप एक बार सहज योगी हो गए हैं, तो आप सहज योगी हैं। “तो क्या? मैं एक सहजी हूँ, तो क्या?” कोई बड़ी बात नहीं है। यह इस प्रकार है जैसे कि कहें, “मेरे पास एक नाक है।” आप देखिए। अभिमान के साथ कहना, कि “मेरे पास नाक है।” ऐसा क्या है? नाक तो पहले से वहाँ पर है, इसमें अभिमान करने की क्या बात है?
लेकिन इस अभिमान को दूर होना होगा। यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है, कि “मैं वहाँ नहीं हूँ। मैं अब नहीं हूँ। मैं एक हूँ, संपूर्ण में से।”
महासागर बन जाइए, इस मेरे बूंद से। मुझे नहीं पता कि मेरे भीतर कोई सीमाएँ बची हैं कि नहीं। ”
इस प्रकार की चेतना आप में विकसित होती है, जब आप की चेतना आनंद से भर जाती है। केवल आनंद से और प्रेम से बुदबुदाते हुए। प्रेम से बुदबुदाते हुए। आप चलते जाते हैं, आप अपना प्रेम व्यक्त करते जाते हैं, चाहे आप बात करें या नहीं करें, चाहे आप कहें या नहीं, चाहे आप मुस्कुराएँ या नहीं, यह आनंद आपके हृदय में है।
अब यहाँ हृदय चक्र, हृदय चक्र का पीठ, सत्य के प्रकाश से भर जाता है। परन्तु वह सत्य ऐसी बेतुकी चीज़ नहीं है जिसे हम जानते हैं कि सत्य है। क्योंकि किसी ने मुझसे पूछा, “सत्य क्या है?” तो मैंने कहा कि “ऐसा बहुत समय पहले यह लिखा गया था, कि आपको सत्य बोलना चाहिए और कुछ ऐसा बोलना चाहिए जो लोगों को पसंद आये। सत्यम वदेत्, प्रियम वदेत्।” तब लोगों ने कहा “आप इन दो चीज़ों का मिलाप कैसे कर सकते हैं? सत्य शायद रूचिकर न हो, और ऐसा कुछ जो आप कहें जिसे लोग पसंद करते हैं, शायद असत्य हो। तो कैसे इन दोनों चीज़ों का मिलाप करें? तो श्री कृष्ण ने बहुत अच्छा उत्तर दिया। उन्होंने कहा, यह इस प्रकार है, “सत्यम वदेत्, हितम् वदेत्, प्रियम् वदेत्।” आप सत्य कहें, आपको सत्य कहना चाहिए, परन्तु वह सत्य अच्छा होना चाहिए या पसंद किया जाना चाहिए या उसकी सराहना की जानी चाहिए या आपकी आत्मा के लिए पोषक होना चाहिए, जिससे परोपकार हो, जिससे परोपकार उत्पन्न हो, और फिर उसे प्रिय होना चाहिए। शुरुआत में शायद लोग इसे पसंद न करें और कहें कि, “उन्होंने मुझसे भयानक बातें कहीं।” या जो कुछ भी है, परन्तु इसके अंत में, वह कहेंगे कि, “देखिए, यह बहुत अच्छा हुआ कि यह मुझसे कहा गया। कि मैंने कुछ उत्तम किया है।”
लेकिन किसी भी अवस्था में, कोई आवश्यकता नहीं है किसी से बहुत निष्ठुर या कठोर होकर कहने की। यह आपका काम नहीं है कि बाकी जा कर शेष सभी लोगों को सुधारते रहें। कहना शुरू करें। तो कई सहज योगियों को मैंने देखा है कहते हुए, “आपका यह चक्र पकड़ गया है, आपका वह चक्र पकड़ गया है!” यह सब अहंकार का खेल है।
आपको कोई अधिकार नहीं है किसी की निंदा करने का। आप स्वयं एक ऐसी निम्न स्थिति से आए हैं। तो आप दूसरों की निंदा क्यों कर रहे हैं? केवल एक बात है, यदि आप योग्य हैं, यदि आप सक्षम हैं, यदि आप सहज योग में पर्याप्त रूप से परिपक्व हैं, तो आप इसे प्रेम की एक बड़ी चुनौती के रूप में लेंगे। और आप इसे करेंगे। परन्तु आप उस व्यक्ति की निंदा नहीं करते रहेंगे, उस व्यक्ति की कमियाँ नहीं ढूँढते रहेंगे। यह एक बहुत अच्छा बहाना है, यदि आप इसे नहीं करना चाहते।
मान लीजिए कि कोई बीमार है, और डॉक्टर को पता नहीं है कि कैसे ठीक किया जाए, तो वह क्या करता है? वह कहते हैं, “देखिए, आप बीमार हैं क्योंकि ऐसा हुआ, क्योंकि आप ठंड में गए थे, क्योंकि यह …” “अरे बाबा! हाँ, लेकिन अब मैं बीमार हूँ। तो मेरे इलाज क्या होगा?” “नहीं, क्योंकि आपने ऐसा किया… क्योंकि आपने वैसा किया… आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था!” सभी पिछली ग़लतियों के बारे में, वह कहते रहेंगे।
इस प्रकार हम कहते रहते हैं, कि “आपने ऐसा किया, आप इस तरह थे, आप फ़लाने गुरु के पास गए, आपने इस प्रकार की ग़लती की, इसीलिए आप ऐसे हैं।”
नहीं, उसे कुछ मत बताइए। बस इस पर काम कीजिये और यह काम करता है। निःसंदेह आप पूछ सकते हैं, कि क्या वे किसी गुरु के पास गए थे, परन्तु निंदा न करें, आलोचना न करें। कोई आवश्यकता नहीं है किसी की निंदा करने की उनके द्वारा की गई ग़लतियों के लिए।
यह सब उस चेतना से आ रहा है कि आप बेहतर प्रकार से तैयार हैं, कि आपके पास पूरा ज्ञान है। आपके पास है, आप बहुत ज्ञानी लोग हैं, मुझे कहना होगा, बहुत ज्ञानी। आप ज्ञाता हैं, यह सब मैं स्वीकार करती हूँ, परन्तु जब तक आप इसके बारे में सचेत हैं, आप नहीं हैं।
जब आप इसके बारे में सजग नहीं हैं तब आप वह हैं, जिसे सहज योगी कहा जाता है। इसलिए मैं आप सभी से यह अपेक्षा करूंगी कि आपके सहस्रार में यह नया विकास हो। आपके सहस्रार में। सबके सहस्रार में। हमें पूरी दुनिया के बारे में सोचना होगा। हम केवल सहज योगियों के बारे में और साधकों के बारे में ही नहीं सोच सकते हैं। साधक भी हैं, ठीक है, परन्तु शेष का क्या? उन्हें बहुत सारी समस्याएं हैं और बहुत सारे कार्य करने के लिए हैं।
उदाहरण के लिए, अब भारत में हमारे यहाँ गरीबी की समस्या है। इसलिए मैं उनके लिए कुछ करने का प्रयास कर रही हूँ। आपके देशों में समस्याएं हैं। पता लगाना चाहिए कि क्या समस्याएं हैं वहाँ। आप किसी प्रकार का आंदोलन उनके लिए शुरू कर सकते हैं, जहाँ तक संभव हो उनकी सहायता करने का प्रयास करें। यह मिशनरी-जैसा नहीं है, कि आप किसी को परिवर्तित करते हैं किसी प्रकार के इनाम के लिए, या किसी नाम के लिए आपको करना पड़ता हो। आप बस इसे अपने आनंद के लिए करते हैं। क्योंकि ऐसा करना आपके लिए आनंदमय है।
और इसी प्रकार आप समाज में जाएंगे और आप डरेंगे नहीं कि आपको पकड़ होगी। मैं एक दंपति को जानती हूँ। जब मैंने उनसे पूछा “आप इस कार्य को शुरू क्यों नहीं करते?” तो उन्होंने कहा, “माँ, हमें डर है कि हमारा अहंकार वापस आ जाएगा।” मेरा मतलब है कि वे स्वयं से ही डरते हैं, कि उनका अहंकार वापस आ जाएगा।
तो इन सभी समस्याओं को छोड़ देना चाहिए और आपको उस स्थिति तक पहुँचना चाहिए जहाँ आपको अपने बारे में यह सभी भय, यह सभी निरर्थक विचार नहीं आएं। आप शक्तिशाली हैं। आपके पास शक्तियाँ हैं। केवल यही नहीं अपितु आप विशेष रूप से आशीर्वादित हैं उन शक्तियों से। परन्तु यदि आप इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो आप क्या हैं? यदि दीपक प्रकाशित नहीं है तो यह दीपक क्या है? केवल सजावट के लिए? तो इसका उपयोग होना चाहिए। और इसका उपयोग होना चाहिए, बिना इस भावना के कि, आप महान हैं, दूसरों से अच्छे हैं, कोई चुने हुए हैं, या वे यह भी कहते हैं कि “हम चुने गए हैं।”
तो, यह बहुत शीघ्रता से फैल सकता है, इतनी शोभा और समझ के साथ। सभी प्रकार के मूर्ख लोग होते हैं, कोई बात नहीं, आप जानते हैं कि वे मूर्ख लोग हैं। बस उन पर हँसें, उनका मज़ाक बनाएं और इस प्रकार आप समस्याओं को हल कर सकते हैं। परन्तु फिर भी, आपको इस प्रकार करना चाहिए कि आप उन्हें दुःख न पहुँचाएँ कि जो कुछ भी आप करते हैं, आपको उसके परिणामों से देखना चाहिए कि क्या कार्यान्वित होता है। परिणाम ऐसे होने चाहिए, कि आपको दिखाई देने चाहिए, कि कैसे कुछ लोगों के साथ यह कार्य हो जाता है। यही बुद्धिमत्ता है, मुझे लगता है, यह श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता है जिसके द्वारा आप जानते हैं – कैसे चीज़ों को कहना है, क्या बात कहना है, कैसे इसे कार्यान्वित करें? प्रेम, यह दैवीय प्रेम आपको स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण देता है। और आप सब कुछ जानते हैं, कैसे व्यवहार करें, लोगों से कैसे बात करें, उन्हें कैसे संभालें।
मैं नहीं जानती कि मनुष्यों में सबसे बुरी चीज़ क्या है। कृष्ण के अनुसार, यह था गर्म स्वभाव, जो सबसे बुरी बात थी। परन्तु मेरे अनुसार यह ईर्ष्या है।
किसी भी प्रकार की ईर्ष्या, मैं कहूँगी, बिल्कुल गंदगी की तरह है। सहज योग में भी लोग ईर्ष्या करते हैं और वे शायद ऐसा न कहें, क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं है, परन्तु वे समस्या पैदा कर सकते हैं। वे एक-दूसरे के बीच समस्या पैदा करने की चेष्टा कर सकते हैं। इसलिए आपको अपने मस्तिष्क पर एक दृष्टि रखनी चाहिए, यदि किसी भी प्रकार की ईर्ष्या होती हो। मैं बहुत चिंतित होती हूँ कभी कभी, कि मान लीजिए, मैं चाहती हूँ कि कुछ लोगों को कुछ उपहार दूँ। तो मुझे चिंता होती है कि मुझे कुछ ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे लोगों में ईर्ष्या हो। हमें नहीं होना चाहिए। शायद माँ भूल गई हैं या, कोई बात नहीं, उनके पास वह चीज़ कम है, सब ठीक है।
परन्तु लोगों में इस प्रकार की बहुत तेज़ ईर्ष्या की भावना होती है, सहज योग में भी। अब मान लीजिए कि मैं किसी से मिलती हूँ और किसी अन्य से नहीं मिलती – बस समाप्त! वह व्यक्ति उस व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या पैदा कर लेता है जिससे मैं मिलती हूँ। कभी-कभी लोग मुझे बहुत अधिक परेशान करते हैं। “माँ, मुझे आपसे मिलना है, मुझे आपसे मिलना है।” मैं नहीं जानती, क्यों? आप मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं? मैं चारों ओर हूँ, हर जगह, जैसा कि आप कहते हैं, फिर क्या ज़रूरत है कि आप मुझसे मिलें और मुझसे बात करें, क्या ज़रूरत है? मैं केवल आपके अकेले के लिए नहीं हूँ, मैं सभी के लिए हूँ, परन्तु कुछ लोग सोचते हैं कि उनका मुझ पर विशेष अधिकार है और उन्हें लगता है कि मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलना चाहिए। अन्यथा उन्हें बहुत बुरा लगता है।
तो इन सब चीज़ों से दूर चले जाना चाहिए, एक बड़े रूप में, जब, जैसा कि मैंने कहा था, आप सागर बन जाते हैं। तब आप विचलित नहीं होते, कि आप किस किनारे पर जाते हैं, आप कहाँ यात्रा करते हैं, आप विचलित नहीं होते हैं। आप सागर के साथ केवल ऊपर-नीचे जाते हैं। इस प्रकार से यह एक जीवंत महासागर है प्रेम का। और हमें इसे विकसित करना है। दूसरों पर हावी हुए बिना, बिना दिखावा किए। इस पूरी चीज़ को हमारे भीतर समाहित होना चाहिए। हिंदी में इसे बेहतर कहा जाता है “अपने में समाए हुए।”
आप सभी को स्वयं के भीतर रहना चाहिए और यह सबसे आनंददायक है, क्योंकि आप देखिए, कि हम क्या चाहते हैं, मान लीजिए मैं अपने लिए कुछ चाहती हूँ, आप देखें, तो मैं प्रयास करूंगी और इसे प्राप्त करूंगी। परन्तु यह कुछ ऐसा है, जो अगर आपके स्वयं के भीतर है- आप, पूरी तरह से अपने भीतर समाए हुए हैं। तो सबसे महत्वपूर्ण क्या है? क्या है जिसकी इतनी आवश्यकता है? कुछ भी नहीं।
आप स्वयं में पूरी तरह से समाए हुए हैं, स्वयं से संतुष्ट हैं, और उसके बाद आप बाँटना चाहते हैं। यह आदर्श ढंग है सहस्रार से संबंधित रहने का, मुझे लगता है, और मुझे विश्वास है कि एक दिन आएगा। इस पूरे विश्व का सहस्रार को अब खोलना होगा। यही हमें करना है, और हम कुछ ही विशिष्ट स्थानों में विलुप्त नहीं हो जाएँगे। वह केवल ध्यान के लिए है, कि आप वहाँ जा सकते हैं। परन्तु संसार से बचने के लिए नहीं, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं। उद्देश्य है ध्यान का, आपके उत्थान का। वह एक अच्छी जगह होगी जाने के लिए। यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि आप कितने मूल्यवान हैं, आप कितने असाधारण रूप से महत्वपूर्ण हैं। इस समय जन्मे। अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। किसलिए? इस संसार के उद्धार के लिए, मानव के परिवर्तन के लिए, इस पूरे संसार को परमात्मा के साम्राज्य में ले जाने के लिए। इसलिए आप यहाँ हैं।
परमात्मा आप को आशीर्वादित करें !