Public Program

Nagpur (भारत)

1973-12-22 Public Program Nagpur Hindi, NITL HD, 44'
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Sarvajanik Karyakram Date 22nd December 1973 : Place Nagpur Public Program Type : Speech Language Hindi

मेरा मतलब नागपुर के लोगों के ही सामने. बहुत पहले से ही ऐसे कुछ, सहज में ही कहना चाहिये, ऐसे कुछ समय आये, कि मुझे भाषण देने पड़े। बहुत बड़े बड़े जमावों के सामने, कहना चाहिये हजारो लोग यहाँ थे। १९३० की बात है, जब कि गांधी जी ने उपोषण किया था। मेरे पिताजी भी बड़े अच्छे वक्ता थे। आप सब उनके बारे में जानते होंगे। लेकिन उनको जरूरी काम से घर जाना पड़ा। सब लोगों ने कहा, सालवे साहब आप भाषण नहीं दीजियेगा तो सब लोग भाग जाएंगे। काम कैसे बनेगा? कहने लगे, ‘मैं तो जा रहा हूँ। मेरी लड़की जो मेरी धरोहर है उसे रख के जा रहा हूँ। और मैं लौट के आऊँगा उसके बाद भाषण दूँगा।’ लेकिन बहुत देर होगी वो लौटे नहीं। तो सब लोगों ने कहा कि, ‘भाई, वो तो आये नहीं । अब इनकी लड़की, धरोहर है उनको धरते हैं। अब कैसे होगा? भाषण कौन देगा? और चिटणीस पार्क के लोग हैं । कहीं बिगड़ गये तो पत्थर मारना शुरू कर देंगे।’ तो वहाँ एक साहब बैठे थे। उन्होंने कहा कि, ‘उन्हीं से कहिये भाषण देने के लिये, कि क्या आप भाषण देंगी?’ वो हमसे पूछे कि, ‘क्या आप भाषण देंगी?’ मैंने कहा कि, ‘हम देंगे।’ तब मेरी उमर सिर्फ सात साल की थी। उस वक्त के कुछ लोग हो तो उन्हें याद होगा कि मैंने पंधरह बीस मिनट तक काफ़ी अच्छा सा भाषण दिया था। बुढ्ढा-बुढ्टी की शादी बतायी थी। अब सोचती हूँ कि बहुत सालों बाद, अपने ही लोगों के बीच में, अपनी ही भाई -बहनों के बीच में, नयी बात ले कर के आना पड़ा है। और बहुत कुछ पुरानी बातें भी याद आ रही है, कि बचपन से ही मैं जिस चीज़ को अच्छे से जानती थी, उस बात को कहने का मौका ही मुझे नहीं मिला। उसकी वजह ये थी कि जो इन्सान एक दसवी मंजिल पे पैदा हुआ हो, जो कि दसवी मंजिल की बात जानता हैं, वो पहले मंजिल वाले के साथ क्या बात होगी। वो अगर कोई बात भी कहे, कोई यकीन नहीं करेगा। बहुत बचपन में मैं अपने माता-पिता से, विशेष कर अपने पिता से बहत कुछ इस पर बातें किया करती थी और धर्म पे चर्चा करती थी। लेकिन मैं देखती थी, कि वे भी यही सोचते थे कि ये सब बातें किसी बहुत के समझ में आयेंगी नहीं। जैसे कि, …… साहब, जो अँडवोकेट हैं यहाँ के। ये मुझे बचपन में पढ़ाते भी थे| ये भी अच्छे से जानते हैं और मेरे भाई, बहन, और यहाँ के बहुत से लोग जिनको की मेरे पिताजी जानते थे, मुझे बहुत सभी लोगों का मैं ये देखती थी कि इन्हें मेरी बात समझ में आयेगी नहीं। इसलिये ये बात करना अभी उचित नहीं है । में आयेगी। कम से कम पहले मंजिल से पाँचवी मंजिल तक लोग पहुँच जाये, तो कुछ मेरी बात उनकी समझ एकदम से ही ऐसी बात कह दो, तो लोग सोचेंगी कि कोई पागल आदमी बोल रहा है। इससे क्या फायदा? इसी तलाश में मैं थी, कि मनुष्य जो है, इस की समस्या क्या है? और वो किस तरह से हल होगी? बहुत बचपन से, आपको आश्चर्य होगा , मुझे बचपन से आदत है। और माउंट रोड में भी जब हम लोग रहते थे, तब भी यहाँ पर जो अभी मैंने सुना बड़ा ….. बना दिया है। यहाँ एक माउंट मेरी का टेम्पल है। उसके पास जा कर घण्टों में बैठ कर किसी भी को बात को ले कर सोचती थी, कि मनुष्य में जो एक उलझन, जो एक समस्या है, एक ही समस्या है बहुत साधारण, वो समस्या ऐसी है कि परमात्मा ने ये सारी सृष्टि, ये सारी एक लीला रचायी हैं किन एक ন

नाटक हो रहा है और मनुष्य ये समझे बैठा है कि ये नाटक मैं बड़ी सिरीयसली कर रहा हूँ। जैसे समझ लीजिये एक आदमी से कहा कि तुम शिवाजी बन जाओ और तुम शिवाजी का खेल खेलो। अब वो सोचने लग जाये कि मैं शिवाजी हो गया। तो इस पागलपन को कैसे हटाया जायें। ये समस्या ही है। क्योंकि सब लोग सोचते हैं, कि जो हम हैं, सो ही हैं। इसके अलावा हम और कुछ हैं, ये बात कोई सोच भी नहीं सकता। जब वो सोच भी नहीं सकता है, तो फिर उसको जानना कौन चाहे! सब लोग यही सोचते हैं कि जो खेल है यही सही बात है। और अगर बच्चों से आप पूछे, तो बच्चे तो सारी सृष्टि को ही खेल समझते हैं। एक बच्चा था। हमारे घर में आता था। एक दिन मुझ से पूछता है, ‘आँटीजी, आप ये डॉक्टर डॉक्टर क्यों खेल रही है?’ वो सोचते हैं कि ये भी एक खेल है, कि भाषण होता है, लोग आते हैं, बैठते हैं। वास्तविक ये सत्य है। बच्चे सत्य जानते हैं। लेकिन हम लोग असत्य को सत्य माने बैठे हैं। जैसे कि हम ये सोचते हैं कि हम नागपूर में पैदा हुये हैं। हम नागपूर वाले हो गये। फिर, हम हिन्दूस्तान में पैदा हुये, हम हिन्दुस्तान वाले हो गये। फिर, हम ईसाई धर्म में पैदा हुये, हम ईसाई धर्म वाले हो गये। लेकिन अगर छोटे बच्चे से आप पूछे कि, ‘बेटे तुम कौन हो? तुम जपानी हो कि अमेरिकन हो ?’ तो वो हैरान हो जायेगा । उसे कहो कि, ‘तुम मुसलमान हो कि हिन्दू हो?’ तो वो और भी हैरान हो जायेगा । उससे पूछो कि तुम कौन हो? तो ज्यादा से ज्यादा वो इतना ही कहेगा कि, ‘माँ मैं तुम्हारा बेटा हूँ और कौन हूँ? तुम भूल गयी क्या मुझे? वास्तविकता में हम जो असलियत में मनुष्य हैं ये सत्य को भूला कर के और जो असत्य है, उसे हम मान लेते हैं। जब अंग्रेजों ने भी यहाँ राज्य किया, तो वो भी बड़े भारी असत्य पे थे कि, ‘हम अंग्रेज है, ये हिन्दुस्तानी।’ वो भूल गये थे कि हम भी इन्सान हैं, ये भी इन्सान है। और ये बड़ा भारी सत्य है। ये सत्य ऐसा है कि जैसे एक उँगली, वैसे ये भी एक उँगली, ये दुसरी, ये तीसरी, ये चौथी, ये पाँचवी, सब उँगलियाँ एक ही हाथ की। लेकिन हाथ भी | एक ही शरीर का। हम सब एक ही चीज़ों में बँधे हये हैं। ये महान सत्य है और सही बात है। लेकिन अगर ये उँगली सोचें कि मैं अलग हूँ और ये उँगली उसको दबाना चाहे, ये उँगली इसको काटना चाहे, मेरे दाँत जो हैं, मेरे पाँव को काटने लग जाये। वैसी ही चीज़ मैं देखती थी संसार में । मुझे समझ में नहीं आता था कि इन लोगों को कैसे बतायें कि भाई, तुम सब एक हो। इसलिये जरूरी था कि सबको, ये तो महसूस हो कि इसका दर्द उसको भी लगे और उसका दर्द इसको भी लगें। तो ये क्या करना चाहिये? क्योंकि मुझे तो ये होता था, मैं जानती थी। अभी जो ब्रायन साहब ने कहा, ये बात सही है कि जब ये बम्बई आयें तो मुझ से इन्होंने कहा था कि नंबर बताया नहीं। इन्होंने मुझ से कहा कि इतना तुम्हें भाषण का ये है और इतनी तुम डायनॅमिक हो और सब कुछ हैं। तो को तो चाहिये पॉलिटिकल फिल्ड में आयें। तुम्हारे जैसे पॉलिटिकल फिल्ड में आयें।’ मैंने कहा, तुम ‘भाई, मुझे माफ़ करो। मेरे बस का ये रोग नहीं।’ तब बहुत कुछ ये कहने लगे कि, ‘मेरे दिमाग में ऐसी बातें आ रही हैं। मेरे दिमाग में ये बात आ रही हैं कि तुम्हारे से ये हो सकता है, पॉलिटिकली तुम ये कार्य कर सकती हो। तुम्हारी जैसी स्त्री मिल नहीं सकती। मैंने कहा कि, ‘मेरे तो दिमाग में एक प्रकाश का गोला घूम रहा है।’ ये मैंने इनको जवाब दिया था। क्योंकि वजह ये है, कि वो तो घूम रहा था बहुत दिनों से ही। लेकिन उससे मैं कैसे लोगों को समझाऊँ, कि ये क्या है? जो चीज़ मैं देख रही हूँ, वो चीज़ क्या है? ये बड़ा भारी मेरे सामने प्रश्न था। इसलिये मैंने थोड़ी मेडिकल की भी स्टडी की। ये समझ ले की इससे इन्सान क्या करता है? इस चीज़ का क्या नाम है? इस पर |

में कल आप को बताने वाली हूँ। लेकिन ये खोजते खोजते मैं बहत साधुओं के पास गयी। किसी ने कहा तुम मेरी शिष्या हो जाओ, किसी ने कहा चुप हो जाओ। मैंने कहा अच्छा, ठीक है। हरिद्वार में भी मैं एक साधु जी थे, उनके पास बहुत दिन रही। फिर और भी बहुत से साधुओं के पास गयी। धीरे धीरे मुझे ये पता हुआ कि सब चारसौ बीसी है। इनको कुछ भी नहीं मालूम है भगवान के बारे में। ये कुछ भी अपने बारे में नहीं जानते हैं। कुण्डलिनी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। सब पैसे से मतलब है उनको या तो औरतों के चक्कर में। सब बेकार के लोग हैं। इनमें कोई पवित्रता नहीं है। सब झूठ तो सच्चा साधु बहुत ही विरला लगता है। बहुत ही विरला और जो है भी, कोई एखाद-दो सच्चा साधु है हैं। मुझे | भी, तो वो जंगलों में है। इसलिये मुझे बड़ी निराशा हुई कि धर्म के नाम पे जितना लोग झूठ करते हैं मेरे ख्याल से और किसी भी चीज़ में, किसी भी धंधे में नहीं करते। लेकिन धर्म को जो धंधा बना के रखा है, पैसा कमाने का धंधा बना के रखा है, इस से बढ़ के घृणित बात तो हो ही नहीं सकती। इसलिये आपने ये भी सुना होगा कि ईसामसीह ने जो कि इतने शांति के पुजारी थे। उन्होंने भी एक बार हंटर ले कर के जो लोग मंदिर में दुकाने लगा कर बैठे थे उनको मारना शुरू किया। अपने यहाँ तो जो लोग मंदिरों में दुकानें लगा कर बैठते हैं उनको मारता-पीटता है नहीं। लेकिन जो मंदिर की दुकान बना बैठते हैं, जो भगवान को रास्ते में बेच रहे हैं, और करोड़ों रुपये जिन्होंने इकठ्ठा किये हैं । करोड़ों रुपयों का जिन्होंने फॉरिन एक्स्चेंज बनाया है, सब को बेवकूफ़ बना बना कर के और भूत विद्या, स्मशान विद्या, प्रेत विद्या, आदि से उनको पागल बना कर के और उनको लूट रहे हैं। इससे बढ़ के अधर्म और पाप संसार में कोई नहीं। ये पाप की गठरी उनके सर से तो उतर ही नहीं सकती है। क्योंकि वो सिर्फ आपका पैसा ही नहीं नोचते, पैसा नोचना है, नोच लें, आपकी जेब काटना है, काट लें कोई हर्ज नहीं। उससे कोई हर्ज नहीं बनता । क्योंकि ये सब तो विनाशी चीजें हैं। ये तो इसी संसार में रहने वाली हैं। लेकिन आपके अन्दर का वो शक्ति का स्रोत, जो कुण्डलिनी है, उसी को जब खराब करते हैं, उसी को मार्ग को खराब करते हैं, प्रेत विद्या और भूतविद्या से आपको भ्रष्ट करते हैं, तब उनको जान लेना चाहिये, कि ये पैसे की गठरी न कोई ले गया है और न कोई ले जायेगा, लेकिन पाप की गठरी ले जाने पर उनका क्या हाल होगा? लेकिन उनमें से तो बहुत से राक्षस के अवतार हैं। बड़े बड़े राक्षस है, ये लोग, जो संसार में आयें हैं भगवान का नाम कहते हैं । है राक्षस! इन लोगों को मैंने बहुत नज़दिक से देखा और मैंने जाना कि इतने मायावी लोग है । इनका चक्कर ही जबरदस्त है। जैसे कि सीता जी को उठा के रावण ले गया था। बेचारी सीता जी, जो साक्षात् आदिशक्ति थी। उसे पता नहीं चला कि ये रावण मुझे ले जा रहा है। उसी तरह के ये महाद्ष्ट आ कर के संसार में ये कार्य कर रहे है। और ये प्रेत विद्या और स्मशान विद्या के कारण ही अपने संसार में इतनी खराबियाँ और दुष्ट बुराईयाँ आ गयी। क्योंकि ये गंदी गंदी आत्मायें आ कर के अच्छे भले आदमी को बेकार कर देती हैं। उसकी सुबुद्धि को नष्ट कर देती हैं। इनके हाथों में खेलना गलत बात है। हम जब किसी भी कार्य को एकदम से उद्विग्न हो कर के करते हैं तब सोच लेते हैं कि हम सही कर रहे हैं। लेकिन जब वो कार्य खत्म हो जाता है तो इतना दुःख लगता है, इतनी पीड़ा होती है कि ‘कितने महामूर्ख थे। पता नहीं ये कैसे काम हमने कर लिया !’ वास्तविकता इस में ऐसा है, ये सारी प्रेतविद्या है एकमात्र हिप्नॉटिजम। उसके बीच में हम दौड़ रहे हैं और पागल जैसे छोटी छोटी चीज़ों

के लिये इतनी हत्या और हानियाँ हम लोग कर रहे हैं। हमें अंदाज ही नहीं । और ये लोग इन्होंने तीन-तीन चार-चार करोड़ों रुपये इकट्ठा किया है, उनके घरों में जा कर देखिये , तो आपको आश्चर्य होगा कि बड़े बड़े आलिशान घरों में रहते हैं, बड़े राजा बन के रहते हैं। दुसरे तरह के भी लोग संसार में निकल आयें, जो संन्यास लों, ये लो, वो लो आदि बातें सिखाते थे । वास्तविक ये लोग आपको मुर्ख बनाना चाहते हैं। संन्यास क्या परमात्मा ने बनाया है? जो परमात्मा ने बनाय नहीं वो कभी भी आध्यात्मिक नहीं। न तो परमात्मा ने संन्यास बनाया है, न तो परमात्मा ने कोई भी ऐसी, विचित्र सी बात नहीं बनायी जो ले कर के आदमी चलें। संन्यास तो अपने अन्दर की चीज़़ है । बाहर की नहीं होती। एखाध आदमी होता जो अन्दर से ही संन्यस्त है । वो फिर राजघराने में बैठा रहें चाहे कहीं भी बैठा रहे । वो संन्यस्त होता है, उसकी तबियत संन्यस्त है। मैं अपने पिताजी के लिये कह सकती हूँ। बिल्कुल वो संन्यस्त स्वभाव के थे। अत्यन्त संन्यस्त स्वभाव के। उनका स्वभाव इतना संन्यस्त था कि मानो अभी, आपको अॅडवोकेट साहब ने बताया है, लेकिन हमने उनको बहुत नज़दीक से देखा है कि उनके दातृत्व की ये हद थी कि अगर उनके पास कोई भी चीज़ हो और अगर कोई दौड़ जायें, उनके पास उनकी अंगूठी भी हो और कोई उनके पास पहुँच जायें कि ‘सालवे साहब, मुझे बड़ी परेशानी हैं,’ ये हो रहा है, वो हो रहा है, फौरन उतार के दे देते थे। एक दिन उनको किसी ने कहा कि, ‘सालवे साहब, क्या आप जिसको देखो उसको दे देते हैं। कोई पात्र या अपात्र कुछ भी सोचा नहीं। ये तो सोचना चाहिये की आपके भी बाल- बच्चे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘मेरे कौन बाल-बच्चे हैं? जिसके है वो सम्भाल लेंगे।’ और वास्तविक यही बात है। जिसके है उसी ने सम्भाला है। उन्होंने तो, आप जानते हैं कि एक पैसा भी हम लोगों के लिये छोड़ा नहीं था और न ही किसी के लिये इन्होंने विल बनायी। ऐसा आदमी भी संसार में रहता है, नाम करता है, बड़़ा आदमी बन के चला जाता है। और एक ऐसा भी आदमी होता है कि जो धर्म के नाम पर ये दुनिया भर का कर्कट उडाते रहता है। पैसा इकठ्ठा करता है। अगर पैसा मिलने से इन्सान सुखी होता, तो जिन देशों में बहुत सा पैसा है, खाने, पीने को बहुत है। यहाँ मैंने सुना आंदोलन हो रहा है। अब हम तो यहाँ आये आप लोगों के कल्याण के लिये और रास्ते में इन लोगों ने उतार दिया। कहने लगे, ‘वहाँ मत जाओ। वहाँ सब लोग पत्थर मार रहे हैं। मैंने कहा, ‘ये भी कोई तरीका हुआ? हम तो इनको कोई अनाज़ थोड़ी दे रहे हैं? लेकिन बुद्धि का भ्रम देखिये, कि वो हम को ही पत्थर मारने को निकले। उसकी वजह ये है कि हम खाना-पीना इस चीज़ को महत्त्व देते हैं। वास्तविक खाना-पीना इतना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। कोई इतना महत्त्वपूर्ण नहीं। कोई यहाँ पर भूखा नहीं मर रहा है। अगर कोई भूखा मरता तो आप सिनेमा हॉल में देखिये हजारो लोग खड़े हये हैं टिकट के लिये, ब्लैक में खरीद रहे हैं। रिक्शेवाले, ताँगे वाले सब खड़े रहते हैं। कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसके लिये आप किसी को पत्थर मारते फिरे। लेकिन ये सब भूतविद्या है। आप जानते नहीं बिल्कुल साक्षात् भूतविद्या है। ये प्रेतविद्या का ही लक्षण है। और कुछ नहीं है। नहीं तो मनुष्य इतना मूर्ख थोड़ा ही है, जो इस तरह की बेवकुफ़ियाँ करें। तो इस तरह से, जहाँ पर, जिन देशों में अफ्ल्यूअन्स हैं, जहाँ लोग बहुत रईस है। जैसे अमेरिका में है। अमेरिका में इतना पैसा है, इतना पैसा है, कि एक साधारण घर की नौकरानी जो आती है, वो भी कॅडलॅक गाड़ी में बैठ के। तो मुझे लगता था कि इनके यहाँ इतना पैसा है तो लोग इतने दुःखी क्यों? देखते हैं कि आज तो कॅडलॅक गाड़ी में आयीं और कल उसने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या क्यों करें? आखिर क्या बात है? इनके पास सारा पैसा होते ह्ये भी, सब से ज्यादा संसार में आत्महत्या अमेरिका में होती है। आश्चर्य की बात है! इसका अर्थ एक

तो जाहीर जो हमें समझ भी लेना चाहिये, कि पैसा ही संसार में सब कुछ नहीं है। पैसे से भी बढ़ के कोई चीज़ है जो हम खोज रहे हैं। मनुष्य क्या खोज रहा है? वो खोज रहा है शांति और आनन्द! वो पैसा नहीं खोज रहा है । वो पैसा भी इसलिये खोज रहा है, कि उसको शांति और आनन्द मिलें। शांति और आनन्द मनुष्य को धर्म के सहारे मिलती है। और धर्म बाहर का धर्म नहीं है, बाहर का है, जिससे धारणा होती है। मनुष्य जब जान लेता है, कि मैं कौन सी शक्ति हँ, मैं किस शक्ति के सहारे चल रहा हूँ, उसी दिन वो शांत हो जायेगा। जैसे मैं लोगों को बताती थी, कि अगर हम लोग एरोप्लेन से जायें। कुछ देहाती लोग चलें एरोप्लेन में पहली मर्तबा! तो उन्होंने कहा कि आप एरोप्लेन से जाते वक्त कुछ कम सामान ले जाईये। तो वो एरोप्लेन में बैठते ही सामान अपने सर पे रखा । लोगों ने नहा कि, ‘भाई, ये क्या कर रहे हो?’ कहने लगे कि, ‘हम तो एरोप्लेन का बोझा हल्का कर रहे हैं।’ वास्तविक हम लोग भी परमात्मा का बोझा हल्का कर रहे हैं। उस डिवाइन पावर का, उस अनंत शक्ति का हम बोझा हल्का कर रहे हैं, जिसने हमें बनाया, खिलाया, बड़ा किया और जो हमारा संगोपन करने के लिये तैय्यार है। इसी तरह से हम बहुत सिरिअसली उसका बोझा उठाये हये हैं। लेकिन जिस दिन जानेंगे, कि जिसने बनाया है, जिसने हमें पाला है, बड़ा किया है वही हमारा सर्वेसर्वा है। उसी दिन बोझा जो है, सर से एकदम हल्का हो जायेगा और मनुष्य जानेगा कि ये एक नाटक है। जैसे कि यहाँ आप देख रहे हैं कि बहुत सी बिजलियाँ जल रही हैं, बल्ब जल रहे हैं। इसलिये आप देखते हैं कि पंखे भी चल रहे हैं। ये सब किसी शक्ति के द्वारा है। लेकिन अगर कोई बल्ब अलग से ये सोचें कि में ही जल रहा हूँ और मुझी को जलना है और अगर मैं नहीं जलता तो सब जगह अंध:कार हो जायेगा। तो हम उसको कहेंगे | कि ये महामूर्ख है। लेकिन अगर हमारी ओर हम दृष्टि करें, तो यही बात हमारी है। जिस दिन हम जान लेंगे कि एक शक्ति हमारे अन्दर से दौड़ रही है और उसी शक्ति के सहारे आज हम प्रज्वलित है। अब मॉडर्न लोग कहते हैं कि, ‘हम कैसे विश्वास करें माताजी कि आप कहते हैं कि ऐसी शक्ति हैं और ये है, वो है।’ मैं कहती हूँ कि इन्सान गया ही किस हद तक? पहुँच ही किस ओर तक? सीधी बात है, कि आपको अगर कोई पूछे तो आप उनसे पूछे कि आपके हृदय में धड़कन होती है? कोई डॉक्टर से पूछा। कहने लगे, ‘हाँ!’ तो वो कहेगा कि, ‘तो क्या हुआ? वो तो होती है। अपने आप होती है।’ कभी कोई इसे कोई करता है? कौन है ?’ तो वो कहेगा कि, ‘कोई नहीं करता है। सिस्टम है उसको हम कहते हैं कि ऑटोनोमस नवस सिस्टीम| मानें स्वयंचालित संस्था । वो स्वयंचालित एक संस्था इसे चला रही है।’ तो उससे आप पूछे कि, ‘भाई, ये स्वयं कौन?’ कोई तो उसे चला रहा है? स्वयं कहो, चाहे उसे भगवान कहो, चाहे उसको शक्ति कहो, चाहे उसको कोई नाम दो। कोई तो शक्ति है जो इसे चला रही है। तो ये शक्ति कौन है? हमारा पचन हो रहा है अपने आप! ये कैसे हो रहा है? हमारा श्वसन चल रहा है अपने आप ही। ये कैसे हो रहा है? अब उसका एक नाम बना दिया आपने। ये स्वयंचालित है। लेकिन ये तो नाम आपने दे दिया। नाम देने से तो कोई साइंटिफिक बात नहीं की। साइंटिफिक का मतलब है कि उसका आपको पूरा ब्यौरा देना पड़ेगा। बताना पड़ेगा कि चीज़ क्या है? उसके बारे में आप कुछ जानते नहीं। कहते हैं कि वो तो अपने आप हो गयी। लेकिन अगर ये समझ लीजिये, कोई अगर ये कहें कि उस अपने आप को आप हासिल कर सकते हैं और पा सकते हैं। तो फौरन साइंटिस्ट लोग उठ के खड़े होंगे। कहेंगे कि, ‘ये तो एक गृहिणी है। फिर वो भी नागपूर की रहने वाली है। हम को मालूम है। ये क्या कर सकती है?’ साइन्स से ये चीज़ जानी नहीं जा सकती। ये चीज़ अपने ही.

अन्दर हैं और जितना कुछ संसार का जाना गया है, जितना भी ज्ञान है, जो कुछ भी आप मुझे देख रहे हैं, ये सब ‘मैं अन्दर ही जाना गया है। बाहर कुछ नहीं जाना। आइनस्टीन जैसे बड़े भारी साइंटिस्ट ने भी ये कहा हुआ है कि, बहुत खोज रहा था। खोजते खोजते मैं बहुत थक गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये थिअरी ऑफ द रिलेटिविटी क्या है?’ उसके बाद कहने लगे कि, ‘थक कर के मैंने कहा कि चूल्हे में गया सब कुछ। लॅबोरेटरी वगैरा छोड़ कर के मैं अपने बाग में गया और ये साबून के फेस से, इसके सोप बबल्स से में खेलता पड़ा। खेलते खेलते एकदम,’ उन्होंने अंग्रेजी में लिखा हुआ है, ‘सम वेअर, फ्रॉम सम अननोन लैण्ड, द थिअरी ऑफ रिलेटिविटी, डॉन्ड अपॉन मी। कहीं से किसी अज्ञात जगह से ये प्रकाश मेरे अन्दर आया। वो अज्ञात जगह क्या है? किसी को अगर ज्ञात हो जाये । वही हम अगर जान ले, जो अदृश्य है वो अगर दृश्य हो जाये , तो किसी भी साइंटिफिक माइंड के आदमी को अपनी आँख खुली रखनी चाहिये। साइन्स आखिर है किस चीज़ के लिये| साइन्स मनुष्य के उद्धार के लिये है। उसको बढ़ाने के लिये है। उसके कल्याण के लिये और मंगल के लिये है। न की | उसके नाश के लिये। अगर इसी के लिये साइन्स है, तो इस से बढ़ के और कौन सी चीज़ हो सकती है, जो आपको अपने ही से परिचित कराये। यानी आप ही सोचिये, आप सब मेरी बात सुन रहे है। पर मैं एक छोटी सी बात कहूँ कि आप अपनी ओर चित्त दीजिये। आप कोई भी अपनी ओर चित्त नहीं दे सकते। बड़े बड़े पंडित हैं, दूसरों को करेंगे । लेकिन मैं कहूँ कि, ‘भैय्या अपनी ओर नज़र करो कि आप कहाँ बैठे हैं?’ तो भाषण देंगे। परोपदेश बहुत आप कहेंगे कि, ‘ये कैसे हो सकता है? हम अपनी ओर कैसे देखें ?’ अपनी ओर कोई नहीं देख सकता। दूसरों की ओर आप देख सकते हैं। अपनी ओर नज़र नहीं जाती। और अपनी ओर नज़र ले जाना ही सहजयोग है। अपनी ओर देखना ही सहजयोग है। ऐसे ही हम अपने को जान लेते हैं। उस सूत्र को जान लेते हैं, जिस सूत्र से सारी सृष्टि रची है। जैसे की एक माला के अन्दर में छोटे छोटे मणि होते हैं। ऐसे ही आप लोग छोटे छोटे मणि है। और आपका चित्त, आपका ध्यान उन मणियों में अलग अलग है। इसलिये आप सोचते हैं कि आप अलग अलग हैं। जिस वक्त आपका चित्त और ध्यान उस सूत्र पर चला जायेगा, जो सब के अन्दर से दौड़ रहा है, आप दूसरों के सूत्र को भी जान सकते हैं। यही सहजयोग में होता है। सहज, सहज का अर्थ है, सह माने विथ, ज माने बॉर्न, आपके साथ ही जो पैदा हुआ जो योग है, माने उस शक्ति से मिलने का जो साधन है। वो आप ही के साथ पैदा हुआ। आप ही के अन्दर वो सहज में पड़ा हुआ है। उसके लिये आपको कुछ करना नहीं होगा। इसके लिये कुछ करने की क्या बात है ? कोई भी जीवंत कार्य करने के लिये आप क्या कर सकते हैं? समझ लीजिये एक बीज है। उसको आप चाहते हैं कि उसमें से एक पेड़ निकलें। तो आप क्या सर के बल खड़े होते हैं कि संन्यास लेते हैं कि उसको संन्यास दिलवाते हैं कि कोई ऐसे मनुष्य के कार्य करते हैं कि वो बीज निकलेगा ? कुछ भी नहीं कर सकते। मनुष्य कर ही क्या सकता है? सारा मरा हुआ काम करता है। अगर एक पेड़ मर गया तो उससे उन्होंने एक टेबल बना दिया। सोचो, वो कितना बड़ा काम किया। एक भी जिवंत कार्य अगर मनुष्य कर सके, तो हम मानेंगे कि वो भी कोई ये मिट्टी थी, उन्होंने हॉल बना दिया। बहुत बड़ी बात करी। ये तो कारक है। हम ये करते हैं, हम वो करते हैं। अब सब मरा हुआ कार्य है। इसमें जीवंतता क्या हुई? मनुष्य का बनाया हुआ काम अपने आप बंद होता है। परमात्मा का जो निसर्ग का कार्य है, नेचर का जो कार्य है, वो अपने आप ही घटित होता है। बीज अपने ही आप चलित होता है। उसको कुछ करने से कभी भी कुछ नहीं होने वाला। इसलिये हम कुछ कर ही नहीं सकते है। ये अपने ही आप

अन्दर होता है। लेकिन मनुष्य के लिये सब से बड़ा कठिन काम है, कि वो कुछ भी न करें। इसलिये मनुष्य के लिये सब से बड़ी शिक्षा हो जाती है कि उसको जेल में बंद कर दे। आखिर जेल में मुझे बंद कर दीजियेगा तो मेरे लिये वरदान हो जायेगा । और आप लोगों को बंद करेंगे तो आप लोगों के लिये जेल हो जायेगी। क्योंकि वहाँ तो करने का क्या है? वहाँ तो बैठे बैठे ही मज़ा आयेगा। हम लोग अपने से ही भागे चले जा रहे हैं। हम तो अपने साथ एक मिनट भी नहीं बैठ पाते। दस मिनट भी अपने साथ बैठना हो तो, ‘भाई चलो सिनेमा जायें । भाई , बोअर हो गया , उससे जा के मिलें।’ पाँच मिनट भी इन्सान से कहोगे कि भाई शांति से अपने साथ बैठो। तो इन्सान नहीं बैठता। लेकिन हम जो कुछ भी अन्दर हैं उसी | परम सुन्दर हैं और इतने अच्छे हैं। हमारा अन्तरतम ही इतना खुबसूरत है, इतना गौरवशाली और प्रभावशाली है, कि उसके दर्शन मात्र में ही मनुष्य एकदम से सब कुछ भूल जाता है। लेकिन उसको जब जाना नहीं गया। अपने ही अन्दर कस्तुरी छिपी हुई है और कस्तुरी मृग संसार में खोज रहा है और ढूँढ रहा है। धन के मामले में भी यही बात है। जैसे कि नानक साहब ने कहा है कि, ‘काहे रे बन खोजन जाईं , सदा निवासी, सदा अलेपा तोहे संग समायें । उसके मध्य जो बात बसत है मुकुर माही जब छायीं, तैसे ही हरी बसे निरंतर, घट ही खोजो भाई ।’ बार बार कहेगा कि घट ही खोजो, घट ही खोजो। अब वो सब लोग बैठ कर के रट रहे हैं गाना, घट ही खोजो। ये तो ये प्रिस्क्रिप्शन दे गये कि ये दवा लो। हम तो प्रिस्क्रिप्शन ही रटे रहे। धर्म भी एक प्रिस्क्रिप्शन है । जिसको हम रटे ले रहे हैं। करना | कोई जानता है और करना क्या होता है? धर्म के मामले में जो कुछ करना होता है वो वैसा ही है, इसका ( माइक) तो कनेक्शन लगा नहीं और मैं भाषण दिये जा रही हूँ। आपको सुनाई देगा ? टेलिफोन का कनेक्शन लगा नहीं और मैं डायलिंग कर रही हूँ। टेलिफोन खराब हो जायेगा। किसी को सुनाई नहीं देगा। आपका पहले कनेक्शन लगना चाहिये। आपका उस अनन्त शक्ति से कनेक्शन लगाने का जो परमात्मा का, उस नेचर का, जो उपाय है वही सहजयोग है। उन्होंने ने ही बना के रखा है। उसी को मनुष्य को पाना है। जिस दिन मनुष्य ये समझ ले कि यही एक पाना है, इसलिये परमात्मा ने हमें मनुष्य किया। उसने आपको मनुष्य इसलिये बनाया है, कि आप अपना इन्स्ट्रमेंट, अपना साधन पूरी तरह से बनायें। आपके अन्दर में एक कोई विशेष ऐसी प्रणाली बनायी है, जिसके कारण आपके अन्दर इगो और सुपर इगो नाम की दो चीज़ें सर में, आप के मस्तिष्क में बनती हैं। जिसके कारण आप उस शक्ति से छूट कर अलग अलग हो जाते हैं। आप अलग बँटरी में आ जाते हैं। आप अगर अलग बँटरी में आ जाते हैं तो आप | आपका जो साधन है वो खुद ही इधर जाते हैं, उधर जाते हैं, मुझे ये करने का, मुझे वो करने का है। खोजते हैं। पहले आप पैसे में खोजते हैं, फिर सत्ता में खोजते हैं। इस जनम में आदमी के पास बहुत पैसा होगा तो अगले जनम में आ कर के वो कहेगा कि, ‘पैसा-वैसा नहीं चाहिये। मुझे कहीं का मिनिस्टर बनाओ।’ फिर वो सत्ता में आयेगा। सत्ता में नहीं मिला तो कहता है कि धर्म में खोजो। लेकिन सारी ही खोज वो बाहर से करता है। जिस वक्त वो सारी खोजों से हार जाता है। बुद्ध भी जब सब तरह से हार गये और हार कर के लेट गये कि ‘नहीं, इसमें नहीं मिलने वाला है। इसमें वो चीज़ नहीं मिली मुझे जो मैं खोज रहा था।’ जिस वक्त वो हार गये, उसी वक्त उन पे कृपा हयी और वो इसे पाये। उन्हें भी सहजयोग से ही मिला था और संसार के जितने भी बड़े बड़े गुरु हैं, सब ने सहजयोग से पाया। सब ने ही सहज ही योग से पाया और किसी भी योग से आप परमात्मा को पायेंगे नही। ০

अपने देश के सब से बड़े पुत्र को मैं मानती हूँ, आदि शंकराचार्य को मैं मानती हूँ। अपने देश में बहुत बड़ा आदमी है। हालांकि हिन्दु धर्म की बड़ी दुर्दशा है और हिन्दु धर्म को हम लोगों ने समझा ही नहीं कि क्या चीज़ है। आदि शंकराचार्य ने साफ़ साफ़ कहा है, ‘न योगेन न सांख्येन’ किसी भी चीज़ों से परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। और उन्होंने ये भी कहा है कि संसार में तीन तरह के आदमी होते हैं। एक तो होते हैं कि भक्ति में ही खोजते हैं परमात्मा को। भक्ति कर रहे हैं। उनकी बुद्धि नहीं होती। उनको समझ में नहीं आता है कि परमात्मा से कनेक्शन लगा नहीं और बात कैसे करें। पागल जैसे रातदिन चिखते रहते हैं, चिल्लाते रहते हैं। लेकिन वो वही खत्म हो जाता तो मुझे कोई हर्ज नहीं था। कभी कभी इस पागल में मनुष्य परलोक से संबंधित हो जाता है और उनके अन्दर भूतविद्या वगैरे आ जाती है। होता है| दूसरा आदमी होता है जो कि बुद्धि का बड़ा तीक्ष्ण होता है। बुद्धि बहुत ज़्यादा है। लेकिन उसका मन अस्थिर योग होता है। इधर – उधर दौड़ता है, इधर की तरफ़ दौड़, उधर की तरफ़ दौड़। तो ऐसा आदमी सोचता है कि चलो, वगैरा करें। योगसाधना से अपने मन को हम कंट्रोल करें। ये भी बड़ी गलत बात है। मन को कंट्रोल करने से आप वहाँ पहुँच नहीं सकते । तो आदमी मन को कंट्रोल करता है, कंट्रोल करने से सोचता है कि सब खत्म हो जायेगा । तो ऐसा अनुशासित मन, ऐसा मन परमात्मा की ओर नहीं ले जा सकता। जिस में ब्रेक लगा है वो गाड़ी वहाँ नहीं वो पहुँचती। इसका मतलब ये भी नहीं समझना चाहिये कि जो आदमी इंडलजन्स करता है, या बड़ा ही भोगी है, तो कभी भी परमात्मा के पास नहीं पहुँच सकता। लेकिन जो आदमी छोड़ कर के सोचता भी है, कि हम लोगों को पाना है और वो धर्म के नाम पे भी अपने को ज़्यादा अनुशासित करता है। वो भी नहीं चलता। असल में हमें सिर्फ होना है। सिर्फ हमें होना है। जैसे कि ये हरे रामा वाले मेरे पास आये। कहने लगे, ‘माताजी, आपके घर में तो सारी लक्झरी है।’ ‘है, ही, मेरे पति अच्छी पोझिशन में हैं तो घर में भी सब कुछ है ही है। परमात्मा की ऐसी ही कुछ व्यवस्था है और हम वहाँ रह रहे हैं।’ ‘तो आप कैसे कह रह है कि भगवान की ऐसी ऐसी स्थिति होती है।’ तो मैंने कहा, ‘क्या भाई, तुम्हारा मतलब है कि इन चीज़ों से मुझ में कुछ फर्क आता है?’ मैंने कहा, जब किसी ने कोई चीज़ को पकड़ा ही नहीं उसको छोड़ेगा क्या? ‘मैंने तो ये छोड़ दिया, मैंने तो वो छोड़ दिया, मैंने तो संन्यास ले लिया।’ मैंने कहा, ये तुम अॅडवर्टाइजमेंट लगा रहे हो। छोड़ना और पकड़ना तो तब होता है, जब मनुष्य जानता है कि किसी को आप पकड़ सकते हो और छोड़ सकते हो। पर अगर मनुष्य यही जानता है, कि न तो कोई पकड़ा जाता है न छूटता है। तो फिर संन्यास भी क्या और गृहस्थी क्या आपको? खड़े हैं। अब ये पेड़ देखिये, खड़े हुआ है। ये कोई संन्यासी है कि गृहस्थी है। आदमी, सिर्फ है। जिस दिन आप सो जायेंगे, आप सिर्फ आप हो जायेंगे| सिर्फ द्रष्टा हो जायेंगे । साक्षी हो जायेंगे। विटनेस हो जायेंगे। तब बाहर की चीज़ों का अर्थ इतना ही होगा कि नाटक हो रहा है देखा करो । लोग पत्थर फेंक रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। लोग हार चढ़ा रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। लोग पैर पे आ रहे हैं तो भी देख रहे हैं। और लोग जूते मार रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। दोनों ही चीज़ देखने की है। सारी ये नाटक है। जैसे ईसामसीह के लिये देखिये, कि वो सूली पे चढ़ गये। सब लोग रोते हैं, ‘सूली पे चढ़ गये, सूली पे चढ़ गये।’ उनके लिये वो नाटक था। उनको क्या? उनके लिये सूली होती क्या चीज़ है ? जिस आदमी ने तूफ़ान को रोका था, क्या वो इन लोगों को

रोक नहीं सकता था? आप ही सोचिये, इतना शक्तिशाली आदमी जो तूफ़ान को रोक दें, वो क्या इन गधों को रोक नहीं सकता था? वो भी चाहता तो क्रूस को गिरा देता और सब चीज़ तहसनहस कर देता। लेकिन वो कह रह था कि चलो, इन बेवकूफ़ों को थोड़ा बेवकूफ़ बनायें। इसलिये वो बेवकूफ़ बना के चले गये और हम लोग सोचते हैं कि वो क्रूसीफाय हो गये। वो क्या क्रूसीफाय होंगे ! अविनाशी जीव कभी क्रूसीफाय नहीं होता । वो बार बार आते हैं संसार में और संसार का कल्याण करते हैं। उनको न मार सकता है, न उनके कोई प्राण ले सकता है न उनको कोई दुःख दे सकता है न ही उनको कोई सुख दे सकता है। उनको आनन्द की स्थिति में रहता है। सहजयोग इसी स्थिति में को पहुँचाता है। वास्तविक इसका आज तक पता किसी को भी इतने जोर से लगा नहीं था जितना मुझे मनुष्य लगा। आश्चर्य की बात है, पर लगा है। पूर्वजन्मों में भी बहुत बार मैंने इसका प्रयत्न किया। अब जब में पैदा हुई, आप के नागपूर में हुईं। इसका भी विशेष है। नागपूर के पास ही छिंदवाडा में मेरा जन्म हुआ। और जो माता-पिता भी मैंने ढूँढे, वो भी कोई विशेष ह्ये और जो भाई-बहन है, आप लोग भी मेरे नागपूर रहने वाले, इसमें भी कोई विशेष बात ह्यी। और जो लोग आप आज यहाँ पहुँचे इसमें भी कोई विशेष बात होगी। | हो सकता है कि पूर्वजन्मों की परम पुण्याई से आप यहाँ पहुँचे हो और आप पायें। अब बहुत से लोगों का ये भी कहना है कि, ‘माताजी, ये तो बड़ी कठिन बात है। लोग कहते हैं कि कुण्डलिनी जागृति बड़े देर से होती है और ऐसे बहुत आसानी से नहीं होता। करोड़ों में एक होता है।’ मैं कहती हूँ कि, ‘हाँ, भाई होता होगा करोड़ों में एक लेकिन ऐसा आज कल है नहीं।’ अब हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं। हमारी दादी अम्मा से जा कर कहेंगे कि, ‘हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं।’ तो वो कहेगी कि, ‘हो ही नहीं सकता! ऐसे कैसे?’ इनको फोटो भी दिखाईये तो भी वो कहेंगी कि, ‘नहीं, ये तो झूठ-मूठ के फोटो बनाये हैं तुम लोगों ने और ऐसे दिखा रहे हो। कभी हो ही नहीं सकता, चंद्रमा पर कैसे जाये?’ लेकिन चंद्रमा पर जाना तो हम विश्वास कर लेते हैं। लेकिन जो संसार चंद्रमा पर भी तो खोज करेगा ही। नहीं तो एक पैर जो बहत पहुँचा हैं, बाहर इतनी जिसने खोज कर ली, क्या वो कभी अन्दर बाहर बढ़़ गया है, अगर वो अपने अन्दर के स्रोत को नहीं ढूंढेगा, अपने अन्दर के शक्ति को नहीं ढूँढेगा, तो हो सकता है कल तहसनहस हो जाये और यही होने वाला है। अगर आपने अपनी अन्दर की शक्ति को जाना नहीं और अपनी अन्दर की एकता को, कलेक्टिव कॉन्शसनेस जिसे कहते हैं, उसे जाना नहीं, जाना में कह रही हूँ, समझना नहीं, ये बुद्धि से समझने वाला विषय नहीं है। ये आपके अन्दर आ जायें। अभी हमारे साथ बम्बई से कुछ लोग आये हैं, जो कि पार हो गये। वो अपनी उँगली के इशारे पर बता देंगे कि आपकी कहाँ शिकायत है, आपको क्या तकलीफ़ है । वो महसूस करते हैं आपके अन्दर वाइब्रेशन्स को। हर एक आदमी के अन्दर से अलग अलग तरह के वाइब्रेशन्स आते हैं। उससे आप बता सकते हैं कि इस आदमी में कौनसा कौनसा दोष है। कुछ शारीरिक हो सकता है, मानसिक हो सकता है, बौद्धिक हो सकता है, हर तरह का दोष हो सकता है। पूर्व जन्म का हो सकता है, परंपरागत हो सकता है। इस तरह के सारे ही दोषों को आप अपने उँगली के इशारे पे समझ सकते हैं। और वो, जैसे ही कुण्डलिनी, जो हमारे अन्दर बैठी हुई है, जिसके बारे में कल आपको बताऊँगी, वो जैसे ही ऊपर उठना शुरू हो जाती है, तो वो नज़ारा दिखा देती है, कि मनुष्य है क्या? और सिर्फ उँगलियों के इशारे पे ये लोग समझ लेते हैं, कि ये बात है। अगर ये बात करते हैं, और अगर हो

रही है, तो इसमें घबराने की कौन सी बात है। उसमें इतनी शंका करनी की कौन सी बात है! कल अगर मैं कहूँ, कि हीरा लायी हूँ। यहाँ पे रखा हुआ है, जिसको चाहिये फ्री ले लें। आप सोचते हैं क्या, कोई आदमी शंका करेगा ? आप में से कोई भी ऐसा है कि शंका करेगा ? सब दौड़ेंगे कि, बाबा, हीरा मिलता है, काँच हो तो, ले तो लो। मुफ्त में ही है। अगर मैं कहूँ कि ये चीज़ मुफ्त में ही आनन्द मिलने वाली है, तो अमेरिका में लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वो कहने लगे कि, ‘साहब, वो फलाने महेश योगी आये थे वो २७७ डॉलर लेते हैं, फलाने आयें तो ३७७ डॉलर लेते हैं, आप भी कुछ ७७ ले लीजिये अपने काम के लिये |’ मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने कहा, ‘देखो, मेरी बात जहाँ तक है मेरी तो समझ में नहीं आता। पर तुम ही इसके दाम लगाओ। तुम इसका प्राइस लगाओ। जो भी तुम इसका प्राइस दे सकते हो दे दो।’ संसार की कोई भी चीज़ ऐसे अविनाशी को खरीद सके, कोई ऐसे नहीं। अविनाशी चीज़़ के पाँव के धूल के बराबर भी अगर कोई संसार की चीज़़ हो , तो मनुष्य उसको कहे कि उसे छोड़ना है। इसे आप खरीद नहीं सकते। अगर आप भगवान को बाजार में खरीद सकते हैं तो वो भगवान कहाँ से हो गये? यहाँ तो सारे साधू लोग भगवान को जो बाजार में बेच रहे हैं, उस वक्त हमें दिमाग लगाना चाहिये कि ये चीज़़ क्या कर रहे हैं? अभी एक साहब मुझ से आ के बताने लगे, ‘मुझे एक बाबाजी ने अंगुठी दी।’ तो मैंने कहा, ‘ये तुमने क्यों ली भाई? तुम्हारे पास तो लाखों अंगुठियाँ हैं।’ वो अगर बड़े भारी दाता हैं, तो वो हमारे देश का इकोनोमी प्रॉब्लेम सॉल्व कर दें। सबको खाना-पीना दे दें। अंगुठियाँ दे दें, घड़ियाँ दे दें। लेकिन वो तो रईसों को ही देते हैं । | गरीबों को तो देते नहीं। बात क्या है? और ये भी सोचना चाहिये दो मिनट कि आखिर परमात्मा को इसमें क्या इंटरेस्ट हैं कि आपको अंगुठी दें। और कोई उनको धंधा नहीं है कि आपको अंगुठी देंगे, चूड़ियाँ देंगे। वो तो आपको कुछ देना हो तो परम ही की चीज़ देते ना! जो आपको परम देता है, वही गुरु है। बाकी जितने हैं सब चोर हैं, ये आप समझ लीजिये। सहजयोग के बारे में इतनी विक्षिप्त बातें मैंने देखी संसार में, कि मनुष्य की मूर्खता पर मुझे कभी कभी हँसी आती है। या तो मुझे इसमें पैसा लेना चाहिये या तो इसमें द्राविडी प्राणायाम करना चाहिये, या तो लोगों को मुझे नचाना चाहिये, या उनको किसी आफ़त में डालना चाहिये। नहीं तो कैसे हो सकता है! अभी अगर होता है तो ले लो। मैं तो कभी-कभी बिल्कुल साधारण तरीके से लोगों को कहती हूँ कि ‘मैं तुम्हारी माँ हूँ। और मैंने खाना बना लिया है।’ जैसा बनाया है, तुमसे क्या मतलब ! तुम्हें अगर भूख है तो चख के देखो और खाओ। मैं अभी सिंगापूर में गयी थी। तो वहाँ मलेशिया का एक बड़ा मशहूर इंटरनैशनल डॉक्टर यांग करके आदमी है। बहुत बड़ा आदमी है वो। उनको पता हुआ कि मैं आयी हूँ, तो भागे भागे चले आये । एअरपोर्ट से सीधे सीधे घर पे आये। मैं तो खाना खा रही थी। और बाहर आ के कहता हैं कि, ‘माँ, मुझे भूख लगी है। चलो, खाने को दो।’ मैंने कहा , ‘अच्छा, तुम आये हो!’ मैंने हाथ धोया। तो हमारी होस्टेस भी नाराज़ हो गयी कि, ‘खाना तो खा लो।’ मैंने कहा, ‘नहीं, अब नहीं, मेरा बेटा भूखा है। अब मुझे जाने दो।’ हालांकि वो मुझे कम से कम कुछ नहीं १५-२० साल बड़े हैं। वो बैठ गये थे तो एक मिनट में पार हो गये। उन्होंने पा लिया। और पाते ही उन्होंने बहुत काम किया है। वो कहते हैं कि यही एक तरीका है, कि परमेश्वर को आप पाओ। लेकिन वो …..(अस्पष्ट) थे, इसलिये बैठ गये। नहीं तो सब को कहना पड़ता है, कि ये बात है, वो बात है। कन्व्हीन्स करना पड़ता है। जिसको इच्छा होगी वो फट् से पार होगा। असलियत को पा लेना चाहिये। लेकिन चीज़ असली होना चाहिये।

इसलिये मैं कहती हैँ कि मेरे पैर पे आने की अभी कोई जरूरत नहीं। किसी के भी पैर पे इन्सान को अपने खुद्दारी में भी नहीं जाना चाहिये। इसलिये मोहम्मद साहब ने मना किया था , कि किसी के पैर पे मत जाओ| किसी पे जाने की जरूरत नहीं। हाँ लेकिन जब आप पार हो जाये , जब आप थोड़ा बहत पा लें, तब आपको पता होगा कि इन्हीं पैरों में ये वाइब्रेशन्स बहुत जोरो में होता है। और पैर पे आये बगैर वो चीज़ कम्प्लीट होती भी नहीं । ये सही बात है। तब थी। तो कोई जरूरत नहीं मेरे पैर पे आने की, दर्शन लेने की। अपने यहाँ दर्शन की ऐसी बीमारी है । ‘माताजी के दर्शन करने हैं।’ अभी दर्शन में क्या रखा है। कुछ ले के जाओ असली चीज़। हम असली देने बैठे हैं असली लेने वाले नहीं। कम से कम इस शहर में बहुत साल मैंने गुज़ारे हैं और ४२ के मूवमेंट में भी बहुत जोरों से यहाँ पे काम किया था। तब मेरी उम्र बहुत छोटी थी। लेकिन तब भी कभी भी मुझे डर नहीं लगा। पुलिसवालों ने मुझे बड़ा परेशान किया था। जानते हैं। मेरे भाई वगैरा बतायेंगे। मुझे इलेक्ट्रिक शॉक भी दिये थे और आइस पे भी रखा था। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मेरे घरवाले बहुत डरते थे। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मैंने कहा ठीक है, चलने दो सब । खेल ही है। लेकिन इतने दिनों से मेरी इच्छा थी बड़ी की एक बार जो अपनी जन्मभूमी हैं वहाँ पर ये चीज़ जरूर पहुँचानी है। लेकिन ये ऐसा कहावत है, मराठी में कि, ‘जिथे पिकतं तिथं विकत नाही,’ जहाँ होता है वहाँ लोग उस की कदर ही नहीं करते। इसलिये मैंने सोचा था, कि थोड़े दिन और बीतने दीजिये। शायद हो की नागपूर वालों को जब समझेगा कि बड़ा भारी कार्य, इसी जगह से ये बड़ा भारी कार्य होने वाला है। नागपूर का स्थान बहुत ऊँचा हैं। हमारी दृष्टि से सारे विश्व की जो नाभि है वो नागपूर है। तो आप समझ लीजिये कि नागपूर वालों को कितना ज्यादा सम्भल के रहना है और कितने कायदे से रहना चाहिये और कितनी सूज्ञता से विचार करना चाहिये। ऐसे तो नागपूर वालों से तो सारी दुनिया घबराती है। एक बार मैं लता मंगेशकर के पास गयी थी। मैंने उनसे कहा कि, ‘तुम चलो, वहाँ पे प्रोग्रॅम होने वाला है। उसने कहा, ‘मैं तो मैं, मैं किसी को जाने भी नहीं दूंगी। एक बार गयी थी तो सब ने मुझे जूते मारे।’ फिर दूसरे साहब भी ‘ऐसा हुआ।’ ये प्रसिद्धी है। मैंने कहा, ‘मैं मायके जा रही हूँ।’ मुझे आधे रस्ते में बड़नेरा में इन लोगों ने उतार लिया और इधर चोरी से ले आयें। जहाँ से रुक्मिणी हरण हुआ था वहीं से मेरा जैसा के पास गयी थी। तो उसने हरण कर के यहाँ ले आयें कि, ‘भैय्या, उधर मत जाना। तुम्हे सब लोग पत्थर मारेंगे। जो सारे विश्व की नाभि है, जहाँ से सारे सृष्टि के पालन की शक्ति है, हमारे नाभि पर विष्णु जी का स्थान है, जो पालन कर्ता है। जहाँ विष्णु जी बैठे हये हैं वहाँ इतनी महामूर्खता अगर बसे तो क्या ? लेकिन ये तभी तक है जब तक आप अपने स्थान को जानते हैं। जैसे एखाध भिखारी का बच्चा है, वो घूम रहा है। वो भीख माँग रहा है। लेकिन जिस दिन उसको पता हो जाये कि वो राजा का बेटा है, तब थोडी ना वो भीख माँगे! यही बात है। नागपूर वालों को विशेष एक भाग है। पहले तो ये कि इस देश में कि जो एक योगभूमि है। बाकि भोगभूमियाँ हैं। हम मूर्ख जैसे भोगभूमियों के पीछे दौड़ रहे है। ये योगभूमि है । इस योगभूमि के कण कण में इतने वाइब्रेशन्स हैं कि आपके नागपूर में पाँव रखने के पहले ही हमारे साथ जो लोग थे, कहने लगे कि, ‘माताजी, क्या वाइब्रेशन्स है नागपूर में!’ सब लोग कह रहे थे कि क्या वाइब्रेशन्स हैं और आप अछूते हैं। उस हवा से आप बेखबर ही है, जो हवा यहाँ पर फैली है। और इस जगह में जो कि सारे देश की नाभि है, एक तो भारतवर्ष ही शरीर है, देह है, सारे सृष्टि का। नरदेह

जो है वो भारतवर्ष है और उसके अन्दर के जो नाभि चक्र है जो कि सब से पहले पालन कर्ता के रूप में, स्थापित की गयी थी, वो जब नागपूर है तब नागपूर का स्थान कितना ऊँचा है ये आप समझ लीजिये। और आपका स्थान कितना ऊँचा है! आज हो सकता है तो आप लोग पा लीजिये। और सबसे पहली चीज़ है पाने की। पैर वैर पे मत आईये। कुछ न कुछ आज आप पा लीजिये और थोड़ा चैन लगेगा । मैं बैठने के लिये तैयार हूँ, आप भी बैठने के लिये तैय्यार हैं। आराम से बैठिये, इसको पा लीजिये। इसको पाने के बाद आपको कैन्सर की बीमारी नहीं होगी । कैन्सर की बीमारी सिर्फ सहजयोग से ठीक होगी। मैं आज कह रही हूैँ। और दस साल बाद अमेरिका से ये बात आयेगी तब आप सोचेंगे कि, ‘अरे, वो तो कह रही थीं।’ सहजयोग की बीमारी लगा लीजिये तो सारी बीमारियाँ छूट जाती है। सहजयोग से सारे ही रोग दूर हो जायेंगे| जैसे हृदय चक्र के रोग है। आपके विशुद्धि चक्र, जिसे एऑर्टिक सर्वायकल प्लेक्सस जिसे कहते हैं , मैंने खास ही …… (अस्पष्ट) कर ली , वो ब्रेन के जितने हैं, पागलपन के जितने हैं, भूतविद्या के जितने हैं, स्मशान विद्या के जितने हैं, पेट के जितने रोग हैं, ये सब ठीक हो जायेंगे । सिवाय इसके, दो-चार बीमारियों के जो बाहर से आ कर के लपटे हैं। उनका इलाज नहीं है। या कोई चीज़ अगर मर जाये। अब डॉक्टर लोग कैन्सर में कहते हैं, ब्रेन निकालिये। अब एक बड़े भारी पेंशट ले कर आये थे । मुझे बताने लगे, ‘चल के देखिये ।’ बेहोश. थे । उनको बहुत आराम हो गया। लेकिन अब उनको मैं ब्रेन कैसे लाऊँ ? वो तो निकाल ही डाले। मैंने कहा ‘ये रिपेरींग शॉक है। यहाँ पे अगर वो चीज़ ही निकाल डाली है आपने तो हम क्या करेंगे?’ तो इस तरह की जो चीजें हैं वो छोड़ कर के सारे रोगों का निदान हो जाता। आपके अन्दर शान्ति और निर्विचारिता स्थापित होती है। अन्तर्मन जिसे कहते हैं, अन्दर से रहता है, बाहर से आपका क्या? और दृष्टि आपकी साक्षी स्वरूप हो जाती है। और आपकी बुद्धि एकदम डाइनैमिक हो जाती है। एक बड़ी अद्भुत हो जाती है। इतना आकलन आप में बढ़ जाता है कि आप स्वयं ही ज्ञान हो जाते है। ज्ञान में, जैसे समझ लीजिये, हमारे यहाँ आर्टिस्ट हैं। बहुत साधारण आर्टिस्ट हैं बेचारे! आज उसके बड़े बड़े पेंटिंग्ज लग रहे हैं। एक म्यूजिशियन है। बड़े साधारण है। वो पार हो गये। आजकल कैनडा में, यहाँ वहाँ गा रहे हैं। माने कि जिसको की लोग कहते हैं कि इसमें भौतिक क्या फायदा होता है ? भौतिक ही फायदा है और क्या फायदा है। भौतिकता भी कहाँ से आयी है और ये सारी शक्तियाँ भी कहाँ से आयी हैं! जो हम सोचते हैं, विचार करते हैं ये भी कहाँ से हैं? वो सब का जो स्रोत है, उसकी जो गंगा है, उसी में आपको नहलाना है। लेकिन आप की गगरी भरी हुई हो, उसको मैं क्या करूं? थोड़ी अपनी गगरी खाली कर लीजिये। रही बात श्रद्धा की, उस पे अभी लाल साहब ने कहा था, कि थोड़ा सा मिसअंडरस्टैंडिंग होने का डर है। इसे मैं बताना चाहती हूँ, कि मेरे लिये कौन सी भी श्रद्धा होने की कोई जरूरत नहीं। अपने प्रति श्रद्धा हो। मेरे लिये श्रद्धा की बात नहीं है। सिर्फ अपने प्रति श्रद्धा हो, अपने से घबराना है। अपने को गालियाँ न दें बैठ कर के कि मैंने ये क्यों किया? मैंने वो क्यों किया? थोड़ी देर के लिये पाप -पुण्य आप वही बाहर रख के आईये। अपने प्रति आप श्रद्धा रखें। काम अपने आप हो जाता है। ये तो जैसे सूर्य की किरण है, उसी तरह से प्रेम बह रहा है। उसके लिये कोई श्रद्धा की जरूरत नहीं। काम अपने आप हो जायेगा। लेकिन अपने पर जरूर श्रद्धा रखें, कि हाँ हमें भी मिल सकता

है। आखिर कोई न कोई विशेष ही बात है। हजारों लोगों को जब बम्बई जैसी अपुण्य नगरी में हुआ है, तो इस पुण्यनगरी में तो होना ही चाहिये। कल भी यहाँ पर ध्यान आदि का प्रोग्रॅम हैं। मुझे तो पता नहीं। मेरा टाइम मेरा रहता नहीं है। इन लोगों से आप पूछ लीजियेगा। आज भी गड़बड़ इसलिये है कि इन लोगों ने मुझे बताया कि, साढ़े पाँच बजे भाषण है और था पाँच ही बजे। तो कल भी आप लोग जान लीजिये। अभी आप ध्यान में जायें। मैं जैसा कहती हैँ वैसा करें। इसमें क्या होता है, पहले से बता दें। जिससे आपकी समझ में आ जायें। आप दोनों हाथ मेरी ओर कर के ऐसे बैठिये। जरा सी जगह बीच में छोड़ दीजिये। क्योंकि ऐसा ही की आप लोग अभी तैरना नहीं जानते। समझ लीजिये आप डब रहे हैं। तो आपको जो बचाने वाले जो तैरात लोग हैं वो आपको बचायेंगे। आप कुछ मत करियेगा। आप हाथ- पैर हिलायेगा तो उनका काम बिगड़ जायेगा। आप साधारण तरह से ऐसे रहिये। और कसा हुआ तो उसको कुछ जरा ढ़ीला करें। कोई भी चीज़ कस रही हो। बिल्कुल आराम से, खाना खाने कैसे बैठते हैं। गले में कोई तावीज़ आदि हो तो वो मेहरबानी से निकालिये | तावीज़ हो या ऐसी वैसी चीज़ें जो लोग पहन लेते हैं वो कुछ भी नहीं होना चाहिये। वो सब निकालें और आराम से आप ऐसे बैठिये। और थोड़ी देर ऐसे बैठने के बाद जब मैं आँख बंद करने को कहूँगी तो अपना चित्त यहाँ तालू पर, साधारण तरह से ले आयें। आँख उपर नहीं घूमायें, कुछ नहीं। जैसे आप यहाँ बैठे बैठे घर के बारे में कैसे सोचते हैं, ऐसे ही आप सोचें कि यहाँ क्या हो रहा है, देखें । विचारों की ओर आप दृष्टि करें। अपने मन से, प्रेम से कहें कि, ‘हम क्या सोच रहे हैं? अच्छा, हे मन बताओ कि तुम क्या सोच रहे हो?’ ऐसा आप प्रेम से अपने मन को पूछे। आप देखियेगा, आप ऐसी जगह पहुँच जाईयेगा जहाँ से आप को लगेगा कि निर्विचार है। निर्विचार होने के बाद थोडी देर में आपको अपने हाथ में लगेगा कि धीरे-धीरे, झिनझिन झिनझिन कर के कुछ तो भी अन्दर में तरंग आ रहे हैं। जैसे कि कूलर से आते हैं, ठण्डे ठण्डे। किसी किसी को गरम आयेंगे । कोई हर्ज नहीं जिनको गरम आयेंगे वो झटक दें। लेकिन किसी किसी के हाथ थरथरायेंगे। किसी का दिल धड़केगा| लेकिन कोई आदमी अगर झूमने लग जायें या अन्दर से उसको कुछ हो रहा है, वो मेहेरबानी से बाहर जायें । ये होने से पहले आप बाहर चले जायें। बाहर लोग उन्हें देख लेंगे। वो अन्दर बैठ के दूसरों को गड़बड़ ना करें। किसी के में अगर साधारण जलन हो रहा हो, तो ….(अस्पष्ट) निकालें, बहुत ज्यादा जलन हो रहा है, तो वो आँख हाथ खोल के मेरी ओर देखें । किसी को चक्कर सी लग रही हैं तो वो भी मेरी ओर देखें । किसी को बहुत बड़ी बीमारी हो, जैसे डाइबेटिस आदि, बहुत सीरियस टाइप की हो, हार्ट ट्रबल, बहुत सीरियस टाइप, वो लोग भी बाहर चले जायें। उनको वो लोग देख लेंगे। लेकिन अगर कोई साधारण तरह से बीमार हो, तो उनको कोई घबराने की बात नहीं। पेट की बीमारी हो, ये बीमारी हो, वो बीमारी हो, उसकी कोई विशेष बात नहीं। यहाँ तो कोई मुझे ऐसा सीरियस पेशंट नहीं लगता। और जरा समझ से काम लें। सारी बात बन जायेंगी। न चीखें, न चिल्लायें, न हूँ करें ना हाँ करें। वो देवी वगैरा बहुत आती है हमारे ध्यान में हमने देखा। देवी वगैरा कभी आती नहीं। देवी को कोई धंधा है या नहीं। ये सब भूत आते हैं। इसलिये कोई भी देवी वगैरा आने की बात नहीं करें। जिसको आती है देवी वो बाहर चले जायें। कृपया बाहर जा कर के बाहर लोग हैं उन्हें बता दीजिये कि हमें ये तकलीफ़ हैं। वो आपको देख लेंगे ।