The Creation

New Delhi (भारत)

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“The Creation”, New Delhi (India), 20 February 1977

[Hindi translation from English]

आज हमने ‘सृजन’ विषय पर बात करने का निर्णय किया है, परन्तु हमारे आयोजक मेरे लिए श्यामपट और चाॉँक की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं। में नहीं जानती, बिना रेखाचित्र बनाए मैं इसकी व्याख्या करने का प्रयत्न करूंगी।

यह अत्यन्त कठिन विषय हे, परन्तु आपके लिए मैं इसे सुगम (बोधगम्य) बनाने का प्रयत्न करूंगी और ये अनुरोध भी करूंगी कि ‘सृजन’ जैसे दुर्गण विषय को समझने के लिए आप अपना पूरा चित्‌ इस पर बनाए रखें। आज एक अन्य आशीर्वाद भी है।

आज का महानतम आशिष ये है कि आपमें से बहुत से लोग चैतन्य लहरियों को अनुभव कर सकते हैं। केवल इतना ही नहीं, आप ये भी जानते और महसूस करते हैं कि चेतन्‍्य लहरियाँ सोच सकती हैं और प्रेम कर सकती हैं – ये बहुत बड़ा वरदान है। नि:सन्देह आपमें से कुछ लोगों को ये प्राप्त नहीं हो पाई हैं, परन्तु जिन्हें प्राप्त हो गई हैं, वो जानते हैं कि ये (चेतन्‍्य लहरियाँ) आयोजन करती हैं, क्योंकि ये कुण्डलिनी उठाती हैं, ये उस स्थान पर जाती हैं जहाँ इनकी आवश्यकता होती है, करुणा के कारण ये शरीर के उस भाग में पहुँचती हैं जहाँ पर कमी होती है। वे समझती हैं, अपने सर्वव्यापी स्वभाव का आयोजन करती हैं और प्रेम करती हैं। जब-जब भी आप इनसे प्रश्न करते हैं, ये आपके प्रश्नों का उत्तर देती हैं – आपको उनसे उत्तर प्राप्त होते हैं। ये जीवन्त चैतन्य लहरियाँ हैं। ये परमेश्वरी देन हैं। परमेश्वर को ब्रह्म कहा जाता है – ब्रह्म तत्व – परमेश्वरी सिद्धान्त।

हम कह सकते हैं कि सृजन की प्रक्रिया शाश्वत प्रक्रिया है अर्थात्‌ बीज पेड़ बनता है और पेड़ बीज बनता है और फिर बीज पेड़ बन जाता है। ये प्रक्रिया चलती रहती है – ये शाश्वत है। अत: इसका न तो कोई आरम्भ (आदि) है और न ही कोई अन्त। यह चलता ही रहता है। इसी कारण इसके अस्तित्व की भिन्न अवस्थाएं हो सकती हैं – आप कह सकते हैं अस्तित्व की अवस्थाएं’। अत: प्रथम, ‘प्रथम-अस्तित्व’ ब्रह्म हैं, जहाँ किसी चीज़ का अस्त्वि नहीं है। हम कहते हैं, ‘कुछ नहीं’ । जब हम कहते हैं, ‘कुछ नहीं’ तो ये एक सम्बन्धसूचक शब्द है। जब हमारा अस्तित्व ही नहीं है तो हमारे लिए सभी कुछ ‘कुछ नहीं’ है। अवश्य कुछ है, परन्तु वह हम नहीं हैं। इसलिए प्रासंगिकतावश हम कहते हैं ‘यह कुछ नहीं है’। यह केवल ‘ब्रह्म’ शब्द है, यदि आप चाहें तो एक शक्ति (ऊर्जा) के विषय में सोच सकते हैं, विद्यमान शक्ति के एकरूप के विषय में सोच सकते हैं। परन्तु यह शक्ति (ऊर्जा) एक बिन्दु पर संचित होती है और एक केन्द्रक की रचना करती है। ऊर्जा जो सोचती है, वितरित होती है, एक बिन्दु पर संचित होती है, एक बिन्दु पर संकेन्द्रण करती है, ऐसा आप कह सकते हैं। ये बिन्दु ही वह बिन्दु हे जिसे हम सदाशिव कहते हैं। ये इसलिए घटित होता है क्योंकि वह शक्ति इच्छा करती है, सोचती है, व्यवस्था करती है और प्रेम करती है। जब ये सृजन करना चाहती है, इस शक्ति में जब सृजन की इच्छा जागृत होती है, उस समय एक केन्द्रक का सृजन होता है। इस केन्द्रक को हम सदाशिव कहते हैं। केन्द्रक कभी लुप्त नहीं होता। आप किसी नीहारिका के विषय में सोच सकते हैं। कहने का अभिप्राय ये है कि आप किसी सम्बन्धित चीज़ के विषय में सोच सकते हैं, किसी ऐसी चीज़ के विषय में नहीं सोच सकते जिसका पूर्ण आकार हो। अत: विचारों से आप पूरे विषय को धारणात्मक नहीं बना सकते। परन्तु यदि आप किसी ऐसी अवस्था के विषय में सोच सकें जहाँ ये मात्र ऊर्जा हो, कोई सृजन न हो, परन्तु विद्युतीय ऊर्जा नहीं, चुम्बकीय। यह उन सब तत्वों का सम्मिश्रण है, सामंजस्य है, जो लयबद्ध होकर एकरूप (समग्र) हो जाते हैं। ‘एकबिन्दु पर आकर यह जामन (लावा) की तरह एकरूप हो जाती है, एक बिन्दु पर आकर और इसे हम केन्द्रक कह सकते हैं। इस बिन्दु को हम ‘सदाशिव’ कहते हैं। ये सदाशिव ईश्वर हैं सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं।

अब हम इसे परमात्मा कहते हैं क्योंकि अब भी इसकी एक सीमा है – क्योंकि अभी हम इसे एक नाम दे सकते हैं, परन्तु यदि यह मात्र ऊर्जा (शक्ति) है, तो हम इसे केवल ‘ब्रह्म’ कहेंगे। आप ऐसे कह सकते हैं: जब पानी बर्फ़ बनता हे तो बर्फ़ पिण्ड का आकार धारण करती है, पानी और बर्फ़ में अन्तर किया जा सकता है। परन्तु अब भी यह सम्बन्धित है, सम्बन्धित सूझबूझ (समझ)। इस अवस्था में सर्वशक्तिमान परमात्मा परमेश्वर एक साक्षात्‌ रूप धारण करते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि ये ब्रह्म नहीं हैं, यह व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व का अपना एक परिमल होता है, अपना परिमल होता है, आप कह सकते हैं कि यह प्रकाश है। यह प्रकाश परमेश्वरी प्रेम है। यह (परमेश्वरी प्रकाश) भिन्न आकार धारण करता हे परन्तु सदाशिव ज्यों की त्यों बने रहते हैं। अब सृजन की इच्छा परिमल (प्रकाश) को स्थानांतरित कर दी जाती है। ये परिमल परमात्मा की शक्ति है। ईश्वर से पूर्व भी कुछ चीज़ें थीं और उनसे परे भी कुछ चीज़ें हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा से परे भी कुछ चीज़ें हें, जिन्हें वे नियंत्रित नहीं कर सकते। सर्वप्रथम तो सर्वशक्तिमान परमात्मा अपने शाश्वत स्वभाव पर नियंत्रण कर सकते। शाश्वतता उनका स्वभाव है, इसे वे रोक नहीं सकते। वे अपने रूप परिवर्तित करते चले जाएंगे, ये उनका स्वभाव हे…… स्वभाव मात्र है। अपने शाश्वतता स्वभाव को वे परिवर्तित नहीं कर सकते। सदा-सर्वदा वे बने रहेंगे। शाश्वत उनका स्वभाव है और अपने स्वभाव को वे नियंत्रित नहीं कर सकते।

उदाहरण के रूप में, परमात्मा आपसे आपकी सत्य प्राप्ति की स्वाधीनता नहीं छीन सकते। वे ऐसा नहीं कर सकते। एक बार जो उन्होंने दे दिया है, उसे वे वापिस नहीं लेंगे। अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता में आपको इसे चुनना होगा। इसे स्वीकार करने के लिए परमात्मा आपको विवश नहीं करेंगे। बहुत से लोग यही आशा करते हैं, परन्तु वे भयंकर गलती करते हैं। इस अवस्था में समस्या पूर्ण विनाश या पूर्ण पुनरुत्थान की है। ये निर्णय मानव पर छोड़ दिया गया है कि वे सत्य को स्वीकार करना चाहते हैं या असत्य के पीछे दौड़ते रहना चाहते हैं।

अत: अपना मार्ग चुनने की आपको पूरी स्वतंत्रता दी गई है। मैं परमात्मा के विस्तृत विवरण की गहराईयों में नहीं जाऊंगी क्योंकि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म हे और इसके लिए बहुत अधिक चित्‌ की आवश्यकता है। इस विषय पर मैंने पहले बहुत से लोगों को बताया है और परमात्मा के स्वभाव के विषय में भी मैंने बताया है, लोग जानते हैं। परन्तु परमात्मा साक्षी हैं। वे साक्षी रूप में साक्षी हैं। वो किस चीज़ के साक्षी हैं ? वे सृष्टि के साक्षी हैं और जो शक्ति सृष्टि का सृजन करती है वह ‘शक्ति’ है, उनकी शक्ति हैं, उनकी संगिनी हैं। अब, हम मानव ये बात नहीं समझते कि पति-पत्नी इतने एकरूप हो सकते हैं। समझने के लिए आप सूर्य और उसकी किरणों, चाँद और चाँदनी का उदाहरण ले सकते हैं – ये दोनों पूर्णत: एक हैं। या शब्द और अर्थ। इसी प्रकार शिव और शक्ति दोनों एकरूप हैं।

उदाहरण के रूप में आप पिता भी हो सकते हैं और माँ भी। आप पिता हो सकते हैं, भाई हो सकते हैं, पुत्र हो सकते हैं – एकही मानव के तीन रूप। इसी प्रकार आप अपनी आत्मा हो सकते हैं और अपनी शक्ति भी। आप जानते हैं कि आप, आपकी आत्मा और आपकी शक्ति भिन्न हैं, परन्तु आप एक हैं। आपमें लिखने की शक्ति है, परन्तु आप अपनी शक्ति नहीं हैं। न ही आपकी शक्ति ‘आप’ है। इसी प्रकार शिव और शक्ति भी व्यक्तरूप से दो व्यक्तित्व हैं, परन्तु वे एक अद्वितीय व्यक्तित्व के अंग-प्रत्यंग हैं। उन्हें ब्रह्म नाम से जाना जाता है। परन्तु इन नारकीय तान्त्रिकों ने – वे बार-बार यहाँ आ जाते हैं-शिव और शक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों को बिगाड़ कर प्रस्तुत किया है, इसलिए नहीं कि वे मानव थे इसी कारण उन्होंने ये सारे अटपटे विचार स्थापित किए और इन सभी मूर्खतापूर्ण चीज़ों की बात की, परन्तु इसलिए क्योंकि वे लोग यौन-बिन्दुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थे। वे इससे ऊपर बिल्कुल भी नहीं हैं। वे अत्यन्त भ्रष्ट, रोगी और पतित लोग थे। वे इतने भयंकर रोगग्रस्त हैं कि किसी में भी उन्हें इसके अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अश्वमेध यज्ञ को भी कामुकता से सम्बन्धित वर्णित किया गया है। जिस चीज़ को भी वे देखते हैं उसी में उन्हें वासना नज़र आती है। ये उस व्यक्ति की तरह से हैं जो कामुकता के चश्मे के प्रकाश से देख रहा हो। उसके लिए सभी कुछ वासनात्मक बन जाता हे। वे इतने भ्रष्ट और इतने पतित लोग हैं कि परमात्मा को भी वे यौन बिन्दु की स्थिति में ले आते हैं। जब तक वे इस स्तर पर नहीं ले आते, जीवित नहीं रह सकते। जैसे वे हैं, किस प्रकार वे स्वयं को न्‍्यायोचित ठहराएंगे ? शिव और शक्ति का वासना से कुछ लेना-देना नहीं है। सूर्य और उसका प्रकाश क्या है? क्या इनमें कोई कामुकता छिपी है ? इन पतित तांत्रिकों के पास कामुकता के अतिरिक्त कुछ और है क्या? क्‍या वासना के अतिरिक्त कोई और सम्बन्ध ही नहीं है ? अत: शिव सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं। हमें उन्हें सदाशिव कहना चाहिए।

मैं थोड़ा सा चित्र बनाने का प्रयत्न करूंगी, देखते हैं किस प्रकार कार्यान्वित होता है। अब इस प्रकार से केन्द्रक का बनना। अब, आप कह सकते हैं, यह केन्द्रक के अवशेष हैं, जो अपनी शक्ति को वलय का आकार दे देते हैं। किस प्रकार आकार देते हैं? आप कह सकते हैं, वह पीछे की ओर हटता है। जब वह पीछे की ओर हटता है, तो कया घटित होता है (सृजन के लिए सदाशिव शक्ति को स्वयं से दूर धकेलते हैं-वलय टूटता है…) इस प्रकार यह पूरी चीज़ यहाँ बनी रहती है और ये सारे पिण्ड इसके इर्द-गिर्द एक आवरण (कोश) की रचना करते हैं तथा इसके ऊपर से लहरें बहती हैं और इस आवरण (कोश) के अन्दर स्थापित हो जाती हैं। अब स्थिति ये है कि एकाग्रता के कारण आवरण के अन्दर एक अन्य केन्द्रक बन जाता है – यही शक्ति है, और यही सदाशिव है। यही महाशक्ति है, आदिशक्ति और यही सदाशिव हें।

अब यहाँ एक बार जब शक्ति अपना व्यक्तित्व धारण कर लेती है या हम कह सकते हैं कि उनका (शक्ति का) अहं स्थापित हो जाता है, तो वे शिव से भिन्न व्यक्तित्व हो जाती है। क्योंकि पूरी प्रक्रिया एक लीला का सृजन करने  के लिए है ताकि साक्षी (सदाशिव) इसे देख सकें। केवल उन्होंने ही इस लीला को देखना है। शक्ति ने ही सृजन करना है। अत: वे अपने अहं को एक बिन्दु पर संचित करती है और शक्ति बन जाती है, वहाँ पर अपना पद ग्रहण करती हैं तथा शक्ति रूप में जो पहला कार्य वो करती हैं वह है अपने स्वामी के चहुँ ओर परवलय में जाना, उनकी प्रदक्षिणा करना। ये बात समझ ली जानी आवश्यक है। वे शक्ति हैं, ‘परमात्मा की शक्ति’। पूरी सृष्टि का सृजन इसलिए है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा इसे साक्षी रूप से देखें। शक्ति की लीला को देखने वाले वो एकमात्र दर्शक हैं। यदि उन्हें खेल पसन्द न आया, उदाहरण के रूप में यदि ये उनकी इच्छानुरूप नहीं है या सृजित लोग उनकी इच्छानुरूप नहीं हैं, तो वे तुरन्त अपनी आँखें बन्द करके खेल को नकार कर अपना क्रोध दर्शा कर या खेल को रोक कर, एकदम से इस लीला को रोक देते हैं। वे इसे तुरन्त रोक सकते हैं। इसी कारण उन्हें प्रलयंकर कहा जाता है।

सभी कुछ उन्हें रिझाने के लिए है, और यदि इससे उन्हें प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती तो वे इसे रोक सकते हैं। अत: सर्वप्रथम उन्हें प्रसन्न किया जाना आवश्यक है जो साक्षी हैं। इसी कारण वे (शक्ति) उन्हें माला पहनाती हैं। परवलय की स्थिति में प्रदक्षिणा करती हैं और यह प्रदक्षिणा आदिशक्ति का प्रतीक है। यह उनके लिए एक प्रकार का प्रमाणपत्र है, और जैसे संस्कृत में कहते हैं, एक प्रकार का वरदान है – वरदान कि “अपने कार्य में आगे बढ़ती चलो।’ यह उन्हें दी गई स्वीकृति है। जब वे यह प्रदक्षिणा पूर्ण करती हैं तो स्वीकृति मिल चुकी होती है और इसी कारण से वे प्रदक्षिणा में हैं। यहाँ पर पुरुषों का महिलाओं पर और महिलाओं का पुरुषों पर स्वामित्व जमाने का प्रश्न नहीं आता, यह तो मूलत: हमारे मस्तिष्क की उपज हे।

इसके विषय में जब हम सोचते हैं तो हम पुरुषों और महिलाओं के विषय में सोचते हैं, परन्तु यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है। यह पूर्ण समग्रता है। क्या हम किसी एक जोड़े के विषय में भी सोच सकते हैं जो पूर्णत: एकरूप हो ? नहीं सोच सकते, क्योंकि हम सब अधूरे हैं। परन्तु यदि आप अपनी कल्पना को उस बिन्दु तक विकसित कर पाएं, कि वे दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं और उनमें से जो क्रियाशील है वे “आदिशक्ति’ हैं, और वे सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए गतिशील हैं, उस परमात्मा को जो आदिशक्ति की लीला के एकमात्र साक्षी हैं और जिन्हें सर्वप्रथम प्रसन्न किया जाना आवश्यक है। अत: वे स्वयं को उनके समक्ष समर्पित करती हैं और प्रदक्षिणा के माध्यम से उनकी स्वीकृति लेती हैं।

अब प्रदक्षिणा अत्यन्त महत्वपूर्ण चीज़ है। आप जानते हैं कि हर चीज़ वलयाकार में यात्रा करती है, कभी सीधी नहीं चलती। उदाहरण के रूप में, आप यदि किसी से प्रेम करते हैं तो हमारा प्रेम उस व्यक्ति तक पहुँचता है और प्रेमरूप में पुन: हमारे पास लौट आता है। परन्तु यदि आप किसी से घृणा करते हैं तो हमारी घृणा उस व्यक्ति के चहूँ ओर घूमकर भयानक घृणा के रूप में हमारे पास लौटती है। अत: प्रदक्षिणा की गई परन्तु, आप कह सकती हैं, “परवलय क्‍यों ?’ प्रश्न ये हो सकता है कि, ‘परवलयिक क्‍यों होना चाहिए, वृत्त क्‍यों नहीं?’ कारण ये है कि परवलय किसी दूसरे बिन्दु के चहूँ ओर घूमने का सबसे छोटा मार्ग है, ये सबसे छोटा है और इसलिये ये परवलय है। हमारे सामान्य जीवन में भी ऐसी घटनाएं देखी जा सकती हैं कि आप किसी से जो व्यवहार करेंगे, सशक्त होकर वही व्यवहार लौटकर आपके पास आएगा, आप चाहे अच्छा करें या बुरा। इसलिए हमारी कर्म तथा पुण्य करने की धारणाएं बनी हुई हैं। क्योंकि जो कुछ भी हम अपने माध्यम से प्रवाहित करते हैं वही लौटकर हमारे पास आता है। इसी प्रकार यदि हम पूरे विश्व को आशिष दें तो पूरे विश्व की आशिष लौट कर हमारे पास आएगी।

जैसा मैंने आपको बताया है, ये प्रक्रिया इतनी सरल नहीं है, कि इसे रेखाओं में व्यक्त किया जा सके, क्योंकि यह एक बहुत बड़े आयाम की जीवन्त प्रक्रिया है। परन्तु आपके समझने के लिए इसे सरल बनाने का प्रयत्न कर रही हूँ। अब, ये परवलय है, जब वे (शक्ति) परवलयिक गति धारण करती है और शिव इसको स्वीकार करते हैं – तो यह जीवन्त प्रक्रिया है। एक बार फिर ये समझ लेना आवश्यक होगा कि यह जीवतन्त प्रक्रिया है। यह भी इतनी ही मानवीय है जितने हम हैं। दोनों (शक्ति और शिव) उतने ही मानवीय हैं जितने हम हैं। हमें कहना चाहिए कि वे हम मानवों की अपेक्षा हजारों गुना अधिक मानवीय हैं। तो यहाँ पर पत्नी, जो संगिनी हे, कहती है : ‘इसी प्रकार (इस स्थिति में) में बहुत प्रसन्न हूँ। इससे आगे में कुछ नहीं करूंगी।’ क्योंकि सृजन का कार्य उसके लिए सुगम नहीं है। वे अपने पति से अलग नहीं होना चाहतीं। सृजन शिशु को जन्म देना है, और वे कहती हैं, अभी मैं बच्चे उत्पन्न नहीं करना चाहती क्योंकि (अलग होकर) मैं तुम्हें खो दूंगी।’ अत: शक्ति शिव के और समीप आती हैं और शिव उन्हें पीछे धकेल कर गायब हो जाते हैं, वलय के टूट जाने के कारण वहाँ से निकल जाते हैं।

अब शक्ति इस रूप में हैं (टूटी हुई वलय)। इस प्रकार ‘३७” का आरम्भ होता है। परवलय सर्वप्रथम ३४ का रूप धारण करता है। तब वे स्वयं को नीचे की ओर धकेल कर कुछ समय के लिए ध्यान में चली जाती हैं। आप कह सकते हैं, ये देखने के लिए कि उन्हें किस प्रकार कार्य करना है। देखिए, उनकी इच्छा को जगाया जाना आवश्यक था। इच्छा जागृत हुए बिना वे सृष्टि का गर्भ धारण नहीं करतीं। तो इस प्रक्रिया में एक कल्प का समय लगा – उनके ये सोचने में कि सृजन किस प्रकार किया जाना चाहिए, काफ़ी समय लगा। शक्ति ने बहुत से ब्रह्माण्डों का सृजन किया, केवल एक ही ब्रह्माण्ड का नहीं। उन्होंने ब्रह्माण्डों के बाद ब्रह्माण्डों का सृजन किया और मैं आपको दर्शाऊंगी कि इतने सारे ब्रह्माण्डों का सृजन उन्होंने किस प्रकार किया। उनमें से कुछ अभी भी बचे हुए हैं, कुछ नष्ट हो गए हैं। परन्तु आज हमारे सामने ये ब्रह्माण्ड है, ये पृथ्वी, इस पृथ्वी पर भारत और भारत में दिल्‍ली और यहाँ बैठकर आप ये सब सुन रहे हैं। ये इस प्रकार है। तो इस क्षण, जो कुछ है वह न भूत है न भविष्य। मैं आपको वर्तमान क्षण के विषय में बता रही हूँ, जिसमें हम यहाँ विद्यमान हैं।

परन्तु हमसे पूर्व भी आदिशक्ति ने बहुत से ब्रह्माण्डों का सृजन किया और उन्होंने और भी बहुत से कार्य करने का प्रयत्न किया। अन्तत: उन्होंने यह प्रयास किया। पहले उन्होंने पृथ्वी का सृजन किया और फिर हमारा। उन्होंने किस प्रकार ये कार्य किया, इसे हम बाद में देखेंगे (जानेंगे)। इस समय हम मात्र इतना देखेंगे कि वे अपनी तीनों शक्तियों को किस प्रकार धारण करती हैं। सृजन का निर्णय लेने पर उन्हें तीन शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं। उनके पास परमात्मा प्रदत्त तीन शक्तियाँ हैं। एक शक्ति से, सर्वप्रथम, जीवन है, जीवित रहने की इच्छा है – वे (शक्ति) परमात्मा के साथ जीवित रहना चाहती है। दूसरी शक्ति सृजन के लिए है और तीसरी शक्ति संपोषण के लिए है।

पहली शक्ति जीवन-शक्ति है, दूसरी सृजन-शक्ति और तीसरी विकास की शक्ति है या संपोषण शक्ति जिसके माध्यम से शनै: शनै: आप किसी चीज़ का पोषण करते हैं और आप भी कुछ बन जाते हैं। ये तीन शक्तियाँ वे धारण करती हैं। संक्षिप्त में, हम कह सकते हैं, वे तीन शक्तियाँ बनाती हैं – महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी। इन तीनों शक्तियों को वे अपने अन्दर धारण करती हैं। अब, पुन: वे अपनी परवलय शैली का उपयोग करती हैं। मान लो, मैं इस घर में इस मार्ग से आई हूँ, ये मार्ग मैं जानती हूँ। फिर में दूसरे मार्ग का उपयोग करती हूँ, उसे भी जान जाती हूँ। मैं पूरे मार्ग को, सभी कुछ जानती हूँ। अब, मैं ये मार्ग जानती हूँ और उस ज्ञान से इसके विषय में सभी कुछ जानती हूँ। अब मैं कोई और कार्य कर सकती हूँ। तो वे पुन: अपनी परवलयिक गतिविधियों का उपयोग करती हैं। वास्तव में उनके तीन आड़ोलन महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी के – हर समय आदिशक्ति से एकरूप होने के लिए होते हैं। वे उन्हें अलग करके तीन वाहिकाओं में डाल सकती हैं। उन्हें सम्मिश्रित और लयबद्ध करके परवलय के रूप में वे इनका उपयोग कर सकती हैं। क्या आप ये बात समझ पाए? इसी कारण जब हम बन्धन डालते हैं तो कहते हैं “एक परवलय डाल दो।’ ये परवलय है क्योंकि चैतन्य लहरियाँ इसमें (परवलय में) हैं। इसमें तीनों शक्तियाँ प्रवाहित हो रही है।

अतः आप जानते हैं, हमारे पास तीन शक्तियाँ हें – महाकाली शक्ति (इसे लिखने की मुझे आवश्यकता नहीं है)। महाकाली शक्ति के माध्यम से वे इच्छा करती है। जैसा मैंने आपको बताया है, ये परमात्मा का भावनात्मक पक्ष है, आप ऐसा कह सकते हैं। वे परमात्मा के भावनात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे इच्छा करती हैं। ये परमात्मा की इच्छा है, सर्वशक्तिमान परमात्मा की जो मात्र दर्शक हैं, वे साक्षी हैं, और ये शक्ति (महाकाली) उस साक्षी को आपके हृदय में स्थापित करती हैं, इसे वे आपके हृदय में प्रतिबिम्बित करती है और इसका प्रकाश हर समय ज्योतित रहता है ताकि आप अपने कर्मों को देख सके (कि आप क्या कर रहे हैं)। – आपके सृजन के बाद आपकी लीला को देखने के लिए।

उनकी महासरस्वती शक्ति अब परवलय में गतिशील होती हैं। वे किसी भी कोण में गतिशील हो सकती हैं, किसी भी बिन्दु से वे ३६० में जा सकती हैं। कई बार वे एक ही बिन्दु पर गोल-गोल घूमती हैं। जब वे एक ही बिन्दु पर घूमती हैं तो उनकी महासरस्वती शक्ति का संपिंडन (दृढ़ीकरण) हो सकता है। आप कह सकते हैं कि यह घनीभूत हो जाती है। अंग्रेजी भाषा के साथ यही समस्या है, यह भी घनीभूत हो जाती हैं। इतनी घनीभूत कि ये चटक जाती हैं। ये सभी दरारें (चटकनें) महाकाली शक्ति, महासरस्वती शक्ति की गतिविधि के आड़ोलन में आ जाती है क्योंकि ये गोल-गोल दिशा में घूम रही हैं। उस गति के आड़ोलन में आ कर ये भी गतिशील हो उठती हैं। उदाहरण के रूप में ये, ये और ये (तीनों) भाग गतिशील हो उठते हैं और जब ये गतिशील होते हैं तो गोलाकार हो जाते हैं। अपनी कोणिकताएं खोकर ये गोल हो जाते हैं। मैं आपको संक्षिप्त रूप में बताती हूँ कि ये गोल हो जाते हैं। तीनों गोलों को पुनः परस्पर घर्षण के लिए छोड़ दिया जाता है और इस प्रकार हम कह सकते हैं (अन्य सभी ब्रह्माण्डों को भूल जाएं जहाँ अन्य शैलियों का भी सृजन किया गया था) परन्तु इस ब्रह्माण्ड के विषय में हम कह सकते हैं कि इस प्रकार इसका सृजन हुआ।

हमेशा आपको याद रखना है कि ये शक्ति सोचती है, समझती है, आयोजन करती है और प्रेम करती है तथा इसका अपना एक व्यक्तित्व है। तो वे (शक्ति) पृथ्वी का सृजन करती हैं। पृथ्वी का सृजन सुगमता से नहीं हुआ। सूर्य का एक भाग इस प्रकार आप कह सकते हैं हाथ से, अलग किया गया। ये समझना भी आवश्यक होगा कि सूर्य इतना शीतल क्‍यों हुआ ? सूर्य क्योंकि बहुत गरम है, उसका एक भाग अलग करके उसे बहुत दूर ले जाया गया, इसे सूर्य से इतनी दूरी पर ले जाया गया जहाँ ये पूरी तरह जम जाए (बर्फ़ की तरह)। चाँद की तरह से ही इसे बहुत दूर ले आया गया जहाँ ये पूरी तरह जम गया और पुनः इसे सूर्य के समीप लाया गया, लोलक की तरह। एक बार फिर यह शीतल दिशा में गया और फिर इसे गर्म दिशा में लाया गया। इसे उस बिन्दु तक लाया गया, उस मध्य बिन्दु तक, जहाँ पृथ्वी की रचना हुई, रचना हुई-मैं पुन: कह रही हूँ-यह प्राकृतिक संयोग नहीं है, सोच समझकर, मानव के रहने योग्य तापमान इस पर बनाया गया। यह कार्य आदिशक्ति ने किया। माँ ने। सोच-समझकर उन्होंने ये कार्य किया। ऐसी माँ की कल्पना करना भी सुगम नहीं है। परन्तु उन्होंने ये कार्य किया और पृथ्वी को उस स्तर पर ले कर आईं जहाँ जीवन आरम्भ हो सके। तो सूर्य और चाँद के सम्मिश्रण आपको चाँद से हाइड्रोजन और सूर्य से ऑक्सीजन प्रदान करता है, जल, सर्दी और गर्मी प्रदान करता है। ये जमने और तपने की क्रिया आपको जल प्रदान करती है। जल में कुण्डलाकार पृथ्वी बनाई गई ताकि ऊपर की ओर जा सके और सर्दी-गर्मी आरम्भ हो सके। इस तापन और शीतलीकरण द्वारा अमिनो एसिड्स के रूप में जीवन अस्तित्व धारण करता है।

ये सारा कार्य सोच-समझकर किया गया। मेरा कहने का अभिप्राय ये है कि ये कार्य संयोगवश नहीं हुआ। इस विषय में भी व्यक्ति को एक बार सोचना चाहिए कि “किस प्रकार ये संयोग नहीं है ?’ यदि आप महान जीव- वैज्ञानिक उप्रेहर (अस्पष्ट) को पढ़ें – मेरे विचार से वो महानतम जीव-वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने इतनी गहनतापूर्वक गणना की कि भौतिक पदार्थ में से सामान्य अमीबा का सृजन करने में कितना समय लगना चाहिए और वे इस परिणाम पहुँचे कि अब तक जो समय व्यतीत हुआ है उससे भी कहीं अधिक समय एक अमीबा के सृजन पर लगना चाहिए संयोग के सिद्धान्त के अनुसार अरबों -अरब वर्षों की आवश्यकता है। संयोग का नियम है, परन्तु मैं नहीं जानती कि इसे विस्तारपूर्वक आपको बताऊं या नहीं। परन्तु संयोग का नियम ये है कि किसी परखनली में यदि आपके पास पचास लाल कंकड़ हैं और पचास सफ़ेद कंकड़ और परखनली को हिलाकर आप यदि इन्हें पूर्ण अव्यवस्थित स्थिति में लाना चाहें तो बहुत समय लगता है और इसे पुन: अपनी पूर्व अवस्था में लाने के लिए, व्यवस्थित स्थिति में, तो और भी अधिक समय की आवश्यकता पड़ेगी। तो एक व्यवस्थित जीवन्त जीवद्रव्य, का सृजन करने के लिए भी एक कोशाणु को अब तक बीते समय से कहीं अधिक समय लगाना पड़ा होगा। कहीं अधिक, कई गुणा अधिक, अरबों -अरब गुना। पृथ्वी को चाँद से अलग होने में पाँच अरब वर्ष लगे और शीतल होने में इसे केवल दो अरब वर्ष लगे। अत: वो (वैज्ञानिक) कहते हैं कि ये समझ से परे है – केवल एक चीज़ जो इसकी व्याख्या कर सकती है, हम कह सकते हैं, कि इसके पीछे कोई बाज़ीगर अवश्य है और ये बाज़ीगर जिसके विषय में हमारे ऋषियों -मुनियों को ज्ञान था, ‘आदिशक्ति’, “आदि माँ’ के अतिरिक्त कोई नहीं हे। ‘सदाशिव’ “आदिपिता’ हैं और ‘आदिशक्ति’ “आदि माँ’ हैं। क्या हम उनके यौन-सम्बन्धों के विषय में बात करेंगें ? क्या तान्त्रिकों के साथ-साथ हम भी यही करेंगे ? क्या अपने माता-पिता को श्रद्धांजलि देने का यही तरीका है? हमें समझना होगा कि यह अत्यन्त अत्यन्त रहस्यमय विषय है, यहाँ हम अपने आदि-माता-पिता के परम- पावन प्रेम की बातें कर रहे हैं, यह अत्यन्त-अत्यन्त पावन विषय है। हम पावन लोग नहीं हैं, अभी भी हमारे अन्दर बहुत सा लोभ और वासना भरी हुई है, परन्तु परमात्मा इन सब चीज़ों से परे हैं। अत: उनके विषय में बातचीत करते हुए हमें ये समझना होगा कि हमें ये कार्य महान श्रद्धापूर्वक, उनके प्रति नतमस्तक होकर करना होगा। ये हमारा सौभाग्य है, हम भाग्यशाली हैं कि हम इन दोनों आदि-माता-पिता के विषय में कुछ जान पाए, जिन्होंने सृष्टिरूपी अपने बच्चे का सृजन किया।

तो एक बार फिर उनमें से एक चटक गया और सूर्यमण्डल (सौर परिवार) बन गया और सूर्यमण्डल में, जैसे आप जानते हैं, पृथ्वी, चन्द्रमा और ये सभी चीज़ें होती हैं। मैंने आपको बताया है कि पृथ्वी का सृजन किस प्रकार हुआ। पृथ्वी के सृजन के पश्चात्‌ सर्वप्रथम अमीनो एसिड्स बनाए गए, वनस्पति का आरम्भ हुआ और फिर मानव की उत्पत्ति हुई। अब पदार्थ – भी अत्यन्त व्यवस्थित होते हैं। पदार्थ अव्यवस्थित नहीं होता, ये व्यवस्थित तो है, परन्तु यह आयोजित नहीं है – इसमें अन्तर है। क्रमबद्ध चीज़ें निर्जीव हैं, निर्जीव हो सकती हैं। आप पाँच पत्थरों को क्रमबद्ध तरीके से रख सकते हैं, परन्तु ये आयोजित नहीं हैं क्योंकि ये जीवन्त नहीं हैं। दोनों में अन्तर है। तो सर्वप्रथम क्रमबद्ध चीज़ों को स्थापित किया गया। शायद आप जानते होंगे …. आठ भिन्न प्रकार के तत्वों का सृजन किया गया था और श्रीगणेश के माध्यम से इन्हें इनके उचित स्थानों पर स्थापित किया गया। आप जानते हैं कि कार्बन समय-समय पर दिखाई देने वाले तत्वों के मध्य में है अर्थात्‌ कोई तत्व जिसकी एक संयोजकता है, दो संयोजकताए हैं, तीन संयोजकताएं हैं और चार संयोजकताएं हैं, तीन से अधिक हैं, तब आपको एक उ (कार्बन) मिलता है, जिसकी चार संयोजकताएं हैं। तब पुन: आपको घटती हुई एक, दो, तीन और चार संयोजकताएं मिलती हैं – यह पूरी आठ हें। इसी प्रकार पूरे पदार्थ का आयोजन किया गया। पदार्थ के आयोजन के लिए किसी देवता के सृजन की आवश्यकता थी और सर्वप्रथम जिस देवता का सृजन किया गया वो थे श्रीगणेश। आइए देखते हैं कि आदिशक्ति ने किस प्रकार उनका सृजन किया।

आपने देखा है कि आदिशक्ति के एक भाग-महासरस्वती – ने पदार्थ का सृजन किया। पदार्थ का सृजन महासरस्वती ने किया। महाकाली ने इन्हें अस्तित्व प्रदान करना है। अस्तित्व किस प्रकार प्राप्त होता है ? जीवन के माध्यम से या, आप कह सकते हैं, आपके गुणों के माध्य से-जो भी कुछ आप हैं उसके माध्यम से प्राप्त होता है। तो महाकाली उन पदार्थों को अस्तित्व प्रदान करती हैं – मानव को या जीवन्त चीज़ों को नहीं, परन्तु पदार्थ को वे श्रीगणेश नामक देवता के माध्यम से अस्तित्व प्रदान करती हैं। विराट के हृदय में, जेसे आप देखते हैं, यहाँ विराट प्रवेश कर जाते हैं – इसके विषय में में आपको बाद में बताऊंगी परन्तु विराट के हृदय में, “आदि पुरुष’, पूर्ण “आदि पुरुष’ – के हृदय में महाकाली स्थापित हैं। वो क्या करती हैं? वो साढ़े तीन बार हृदय से (परवलय में) जाती हैं : एक ऊपर, एक नीचे – इस प्रकार – साढ़े तीन बार और नीचे आकर साढ़े तीन परवलय समाप्त करती हैं। साढ़े तीय। और अब वे इसके अन्त तक पहुँचती हैं। आप यदि इस प्रकार साढ़े तीन परवलय बनाएं और इन्हें सीधा बीच में से काटें तो कटने पर आपको सात केन्द्र प्राप्त होते हैं। (यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति भी है जो ठीक प्रकार रेखाचित्र बना सके ? आप इसे इस प्रकार बना सकते हैं।) वे नीचे, यहाँ पर आती हैं और नीचे यहाँ पर (आदि मूलाधार) आकर वे बेंधन करती हैं। आप देख सकते हैं कि सात बिन्दुओं को ये शक्ति यहाँ पर काटती है। इस बिन्दु (मूलाधार चक्र) पर शक्ति प्रथम देवता का सृजन करती है, (थोड़ा सा नीचे) श्रीगणेश का। ये कार्य एक दिन में नहीं होता, एक वर्ष में नहीं होता, एक युग में भी नहीं होता, इसे करने में बहुत से कल्प लगते हैं। पहला कदम श्रीगणेश के सृजन का है, मूलाधार उनका (शक्ति) निवास है और (उसके नीचे) वे श्रीगणेश को स्थापित करती हैं। श्रीगणेश इसमें (पूरे तन्त्र) अपना चैतन्य प्रवाहित करते हैं। शक्ति द्वारा सृजित किए गए पूरे तन्त्र से वे गुजरते हैं। इस चित्र में महासरस्वती के कार्य को दर्शाया गया है। अपने सारे कार्यक्रमों को लेकर वे आती हैं, इस प्रकार वे आती हैं और इन्हें सम्पन्न करती हैं और यहाँ पर वे पुन: मिल जाती हैं। अत: श्रीगणेश उनके माध्यम से अपना चैतन्य प्रवाहित करते हैं। सर्वप्रथम श्रीमहाकाली, श्रीगणेश का सृजन करती है और तब महासरस्वती आती हैं। इन सारे पदार्थों का सृजन करके वे भी श्रीगणेश से जुड़ जाती हैं। इस प्रकार श्रीगणेश की चेतन्य लहरियाँ महासरस्वती के पूरे सृजन में प्रवाहित होने लगती हैं। इस सारे सृजन से पहले, श्रीआदिशक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूरा विचार और स्पष्ट झलक दिखाई दे जाती है। वे अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करती हैं, सर्वप्रथम महालक्ष्मी शक्ति आकर श्रीगणेश का सृजन करती हैं। अब आप समझ सकते हैं कि हम लोगों का पावन होना कितना महत्वपूर्ण है। उन्होंने पृथ्वी पर सर्वप्रथम पावनता का सृजन किया। सबसे पहले बच्चे के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित किए, क्योंकि पूरी सृष्टि का सृजन शिशु रूप में होना था।

इसी कारण सर्वप्रथम श्रीगणेश का सृजन हुआ। तत्पश्चात्‌ – यहाँ से आदिशक्ति की दूसरी शक्ति महासरस्वती चल पड़ती हैं और आकर श्रीगणेश से जुड़ जाती हैं। इस प्रकार श्रीगणेश से जुड़ने के बाद वे इसके माध्यम से अपना चैतन्य प्रवाहित करती हैं। महासरस्वती द्वारा सृजित पदार्थों, जैसे हमारी पृथ्वी माँ, में से श्रीगणेश के चैतन्य प्रवाहित होने से, इसके अन्दर धुरी चलती है। किसी ने ये धुरी देखी नहीं है परन्तु कहा जाता है, कि एक धुरी है जिस पर पृथ्वी घूमती है। एक प्रकार की धुरी है। अब, महाकाली की ये शक्ति, हम कह सकते हैं, श्रीगणेश की शक्ति – पृथ्वी माँ की धुरी के बीच से गुजरती है। पृथ्वी माँ में चुम्बकीय शक्तियाँ हैं। इस प्रकार, इसके माध्यम से यह इसकी गति, इसके आड़ोलन को नियंत्रित करती हैं और हमारी देखभाल भी करती है। हम ये क्यों नहीं सोचते कि पृथ्वी में डाला हुआ एक छोटा सा बीज भी स्वत: अंकुरित हो जाता है। अब आपने देखा है, आपमें से बहुत से लोग भिन्न कष्टों और रोगों से पीड़ित थे और पृथ्वी माँ ने स्वयं आपकी समस्याएं ले ली हैं। उन्होंने ये समस्याएं आत्मसात कर ली हैं। ये वास्तविकता है। सहजयोग में आप देख सकते हैं, कि आत्मसाक्षात्कार के बाद यदि आपको कोई समस्या हो, आपका सिर यदि भारी हो तो ये ठीक होने लगता है, परन्तु यदि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं तो, अन्यथा ये आपकी बात नहीं सुनती, क्योंकि आपका गतिशील होना आवश्यक है, आपके पास आदिशक्ति का प्रमाणपत्र होना चाहिए कि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं अन्यथा क्‍यों ये आपको स्वीकार करें ? आप पृथ्वी को अपने मस्तक से स्पर्श करें, अपने दोनों हाथ पृथ्वी माँ पर रखें और आपको लगेगा कि आपके कपाल से सारा भारीपन खींच लिया गया है। बहुत से लोगों के साथ ऐसा हुआ है, टाँगों से भी पृथ्वी माँ समस्याएं खींच (सोख) सकती हैं।

पृथ्वी माँ, वास्तव में श्रीआदिशक्ति की माँ हैं, आप ऐसा कह सकते हैं। कहा जाता है, कि वे माँ हैं, क्योंकि उनका सृजन इस प्रकार हुआ है कि वे पूरे विश्व का भार स्वयं पर ले लेती हैं। पूरे विश्व का भार वे नियंत्रित करती हैं। आपका सारा वजन संभाल सकती हैं, वे ‘धरा’ हैं (अर्थात्‌ धारण करने वाली) अब वज़न का अर्थ वह वज़न नहीं जिसे हम तोल सकें, ये बात नहीं है। वज़न का अर्थ आपके पाप और पुण्य भी हैं, इसमें सभी कुछ निहित है। आपमें यदि पापों का वज़न बहुत अधिक हे तो पृथ्वी माँ को कष्ट होता है। पृथ्वी पर जब बहुत अधिक पाप होने लगते हैं तो पृथ्वी माँ को सहायता माँगनी पड़ती है और तब किसी अन्य देवता – जैसे साक्षात्‌ श्रीविष्णु को पृथ्वी पर अवतरित होकर पृथ्वी माँ की पापों के इस भारी वज़न से रक्षा करनी पड़ती हे।

ये सत्य है, मैं आपको कोई पौराणिक कथा नहीं सुना रही, यह वास्तविकता है। चेतन्य लहरियाँ प्राप्त करने के बाद आप उसका सत्यापन कर सकते हैं। चेतन्य लहरियाँ प्राप्त करने से पूर्व आप पृथ्वी माँ से इस बात का पता नहीं लगा सकते। आप यदि आत्मसाक्षात्कारी हैं, और यदि आप जानना चाहते हैं तो साक्षात्कार के बाद पृथ्वी माँ पर खड़े होकर उनसे पूछें, ‘हे पृथ्वी माँ, क्या आप मेरे दोषों को दूर कर देंगी ? क्या आप मेरे कर्म ले लेंगी ? मुझे आत्मसाक्षात्कार मिल गया है।’ तुरन्त पृथ्वी माँ सोखने लगती हैं। आपको हैरानी होगी, आपको अत्यन्त हल्केपन का एहसास होगा। आपको पृथ्वी माँ का उपयोग करना होगा। इस प्रकार पृथ्वी माँ का सृजन हुआ। परन्तु आदिशक्ति ने अपनी महासरस्वती शक्ति के माध्यम से पंचतत्वों का सृजन भी किया है। सभी चीज़ों के सृजन से पूर्व उन्होंने तन्‍्मात्रा का सृजन किया। इसके सूक्ष्म विवरणों में यदि मैं जाऊंगी तो आपके लिए इसे समझ पाना कठिन होगा। परन्तु सर्वप्रथम उन्होंने कारणात्मक सारतत्वों का सृजन किया। परन्तु यदि मैं इस प्रकार कहूँ तो कुछ गलत न होगा – यदि मैं कह कि अपनी एक दृष्टि मात्र से (कटाक्ष मात्र) से उन्होंने “प्रकाश’ का सृजन किया। अपने श्वास लेने भर से उन्होंने ‘बायु’ का सृजन किया क्योंकि उनकी इच्छा अन्तिम इच्छा है और उन्होंने इच्छा की कि ‘वायु’ होनी चाहिए, और “वायु” का सृजन किया। इसी प्रकार उनकी अपनी सुगन्ध है, उन्होंने कारणात्मक ‘गन्ध’ का सृजन किया, इसका सृजन उन्होंने पृथ्वी माँ में किया। उन्हीं से, केवल उन्हीं से, उनकी इच्छा से, उनकी चाहत से, उनके लिए इसका सृजन हुआ और पूरे ब्रह्माण्ड में इसका सृजन किया गया और इसी ब्रह्माण्ड को बाद में पृथ्वी, चाँद, सूर्य तथा अन्य सभी कुछ बना दिया गया। वास्तव में ये उनकी इच्छा मात्र थी जिसके कारण ये सारी चीज़ें बनीं।

हमारे लिए ऐसे किसी व्यक्तित्व के बारे में सोचना असम्भव है जिसकी इच्छा मात्र ये सारा सृजन कर सकती हो। परन्तु जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के विषय में सोचते हैं जो विश्व की सभी शक्तियों से ऊपर हे, जो सर्वोच्च हैं, वे (शक्ति) अपनी इच्छानुरूप कुछ भी कर सकती हैं! क्या हम ऐसा नहीं सोच सकते ? हम ऐसे किसी मानव के विषय में नहीं सोच सकते। हम परमात्मा के विषय में सोचते हैं जिन्हें हम ‘सर्वशक्तिमान’ कहते हैं, परन्तु उनकी शक्तियों की बात करते हुए हमें हँसी आ जाती हैं! ऐसा कैसे हो सकता है ? परन्तु वो जो चाहे कर सकती हैं – उनकी इच्छा मात्र से पूरी सृष्टि का, विश्व भर में दिखाई देने वाली सभी चीज़ों का सृजन हुआ, केवल उनकी इच्छा मात्र से। उन्होंने आकाश का सृजन किया, इन सभी पंचतत्वों का सृजन किया जिनके विषय में आप जानते हैं। तत्पश्चात्‌ उन्होंने अपना दूसरा रूप आरम्भ किया जिसे हम महालक्ष्मी रूप कहते हैं। इससे पूर्व, में सोचती हूँ मुझे पदार्थ (चरींशी) में श्रीगणेश के अस्तित्व के विषय में आपको बताना चाहिए। पदार्थ में वे चेतन्‍्य लहरियों के रूप में कार्य करते हैं, महासरस्वती की चैतन्य लहरियों के रूप में।

ये विद्युत चुम्बकीय चेतन्य लहरियाँ हैं, महासरस्वती की चेतन्य लहरियाँ विद्युत चुम्बकीय हैं। हम कह सकते हैं कि ये विद्युत चुम्बकीय हैं और इनमें ध्वनि भी हे और इनमें पंचतत्वों की अभिव्यक्ति भी होती है। आप इन्हें रिकार्ड कर सकते हैं – क्योंकि यदि आप सल्फरडॉयक्साइड लें, उदाहरण के रूप में – एक सल्फरडॉयक्साइड …… और दो ऑक्सीजन और एक सल्फर और इसे ठीक प्रकार से उच्च शक्ति के सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें – आप प्रयास कर सकते हैं, मैं नहीं जानती लोगों ने ऐसा करने का प्रयास किया है या नहीं, परन्तु पता लगाने के लिए आप ऐसा कर सकते हैं – और इसे अत्यन्त उच्चशक्ति के सूक्ष्मदर्शीयन्त्र के नीचे रखें तो आप देख पाएंगे कि ऑक्सीजन और सल्फर में से सल्फर निश्चल है, परन्तु इन दोनों से चेतन्य प्रवाहित हो रहा है। ये चैतन्य प्रवाहित कर रहे हैं। इन दोनों पिण्डों के बीच चैतन्य लहरियाँ चल रही हैं। इन चैतन्य लहतरियों में सामंजस्य भी हो सकता है और असामंजस्य भी, ये समतल भी हो सकती हैं और असमतल भी, और इस तरह से समीप आते हुए ये विस्तृत भी हो सकती हैं। अत: हम पाते हैं कि चेतन्‍्य लहरियाँ तीन प्रकार की हैं। और चौथा पक्ष साक्षात्‌ श्रीगणेश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, श्रीगणेश, जो नियंत्रण कर रहे हैं। यदि आप देखना चाहें तो ये सब आप अपनी आँखों से देख सकते हैं, चाहे आप आत्मसाक्षात्कारी हों या न हों। सूक्ष्मतम परमाणु में जिसे चेश्रशर्लीश्रश कहते हैं, उसमें भी ये चेतन्‍्य लहरियाँ कहाँ से आती हैं ? परमाणु में चैतन्य लहरियाँ कहाँ से आती हैं ? क्या आप इसकी व्याख्या कर सकते हैं ? यह इतना सूक्ष्म है – परासूक्ष्म।

श्रीगणेश की शक्तियाँ अत्यन्त अत्यन्त सूक्ष्म हैं, ये पदार्थ में प्रवेश करती हैं और इस प्रकार की चैतन्य लहरियों का सृजन करती हैं। इन्हें आप देख सकते हैं, रिकार्ड कर सकते हैं – छोटे से परमाणु के अन्दर भी विद्युत चुम्बकीय चैतन्य लहरियाँ हैं। अत:, जैसा मैंने आपको बताया, इनमें, आवर्त नियम में, तत्वों के आवर्त (नियतकालिक) नियम से आप ये पता लगा सकते हैं कि सभी तत्व आठ प्रकार से विभाजित किए जा सकते हैं। आइए देखते हैं कि बिना किसी व्यक्ति की उपस्थित के सभी तत्व किस प्रकार आठ भागों में विभाजित हो सकते हैं। (इन तत्वों के आवश्यक रेखाचित्र की व्यवस्था के बिना क्या आप कुछ कर सकते हैं) इसके विषय में सोचें। देखिए, जब हम परमात्मा को चुनौती देते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि विश्व की हर चीज़ भली-भाँति आयोजित हे, आठों तत्व अच्छी तरह से विस्तृत हैं, भली-भांति स्थापित हैं। इनके आचरण की एक विशेष शैली है। हर तत्व की संख्या और प्रोटोन भिन्न हैं और ये संख्याएं इस प्रकार भली-भांति गिनी हुई हैं कि अन्त में – अन्तिम चक्कर – सभी प्रोटोन के अन्तिम चक्‍्करों की संख्या आठ होनी चाहिए। यदि ये संखया आठ नहीं है, यदि ये आठ से कम है, तो संयोजकता की समस्या उत्पन्न हो जाती है। ये इतनी अच्छी तरह से आयोजित है कि, चाहे आप इसका अध्ययन करें, कोई यदि थोड़ा सा रसायनशास्त्र जानता हो तो यह अत्यन्त  द्भुत चीज़ है। हम इसे स्वीकृत मान लेते हैं। पदार्थों का भली-भांति आयोजित होना हम अपना अधिकार मान लेते हैं। परन्तु सारी संयोजकताएं इन आठ प्रोटोन की अन्तिम आयोजन की सुव्यवस्था पर निर्भर करती हैं।

ये सारा कार्य महासरस्वती की शक्ति द्वारा किया जाता है। परन्तु चेतन्य प्रसारक शक्ति, …… । अब देखें, एक चैतन्य प्रसारक शक्ति भी है। ये सारा कार्य, जैसा मैंने बताया महासरस्वती शक्ति द्वारा किया जाता है। वे सृजन करती है। अब यह चेतन्य प्रसारक शक्ति …… इसका अस्तित्व है, पदार्थ का भी अस्तित्व है। अस्तित्व होना आवश्यक है। इसके अस्तित्व के बिना किसी चीज़ का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। अत: केन्द्रक पर विराजमान श्रीगणेश के माध्यम से कार्यशील महालक्ष्मी शक्ति प्रदान करती है। वे (श्रीगणेश) हर अणु और परमाणु के केन्द्रक पर विराजमान हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ये सब कितना होगा ? इसका परिणाम (अन्त) आप नहीं समझ सकते।

अब देखें – स्वर्ण जेसा एक तत्व लें, इसमें कितने परमाणु हैं? क्या आप इसकी गणना कर सकते हैं ? आप कह सकते हैं, हाँ इसमें अणु हैं परन्तु आप इनकी गणना नहीं कर सकते। तो श्रीगणेश की कितनी तस्वीरें होगी ? इसे इसी प्रकार पाया जा सकता है। मैं आपको एक अन्य चीज़ भी बताऊंगी। अनन्त प्रतिबिम्ब किस प्रकार पकड़े जा सकते हैं और शिव और आदिशक्ति जैसी दो शक्तियाँ क्यों हैं ? कारण ये है कि इसे अनन्त प्रतिबिम्बों का सृजन करना है। अनन्त प्रतिबिम्बों का सृजन किस प्रकार किया जाएगा ? क्या आप जानते हैं ? भौतिक विज्ञान जानने वाला कोई व्यक्ति है ? दो दर्पणों के बीच में यदि आप कोई चीज़ रख दें तो अनन्त प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं। अत: आदिशक्ति प्रथम दर्पण हैं और द्वितीय दर्पण यह सृष्टि है। और इस प्रकार पृथ्वी पर आपको अनन्त प्रतिबिम्ब प्राप्त होते हैं। इसी कारण आपको अनन्त प्रतिबिम्ब प्राप्त होते हैं। इसलिए एक अन्य प्रतिबिम्बक का सृजन करना पड़ा, इसलिए तीन अस्तित्व बनाने पड़े – एक सर्वशक्तिमान परमात्मा, दूसरे आदिशक्ति और तीसरे पूरा ब्रह्माण्ड। इसे इसी प्रकार होना था, अन्यथा अनन्त प्रतिबिम्बों का सृजन नहीं किया जा सकता। अब जिस भी व्यक्ति ने यह कार्य किया होगा, वह अवश्य चतुर रहा होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। जब मानव सोचता है कि अपनी बुद्धि से वह परमात्मा को जान सकता है, तो उसे समझना होगा कि इस बुद्धि से आप वहाँ तक कैसे पहुँच सकते हैं ? वे तो सर्वोच्च हें। हमारा सृजन करने के लिए उन्होंने कितना परिश्रम किया। पदार्थ के सृजन के बाद परमात्मा, या मुझे कहना चाहिए, उनकी शक्ति महालक्ष्मी पृथ्वी पर अवतरित हुईं। महालक्ष्मी संभरण (सम्पोषण) में सहायक हैं। संभरण अर्थात्‌ इन सभी तत्वों का सूक्ष्म अवलोकन। जब वे पदार्थ का सृजन करते हैं, पदार्थ का सृजन भिन्न प्रकार से होता है, भिन्न उद्देश्यों के लिए इनका सृजन होता है। तो चरम उद्देश्य क्या है ? सृजन का चरम उद्देश्य मानव का सृजन है – इस सृष्टि की कल्पना करें। आप लोग इतने महान हैं कि आपके लिए ये सभी कष्ट सहन किए गए। मानव इतना महान है कि ये सारे कष्ट सहन किए गए। सारे पदार्थ, हर चीज़ का उपयोग आपके सृजन के लिए किया गया। यही चरम लक्ष्य है। एक प्रकार का मंच सजाया गया, और आप आए, आप कह सकते हैं कि सहजयोगी मंच पर आए| केवल मानव उपकरण का सृजन किया गया। परमात्मा मानव उपकरण का सृजन क्यों करना चाहते थे? क्योंकि वे चाहते थे कि ऐसा उपकरण हो जो उन्हें महसूस कर सके, समझ सके, जो श्रीकृष्ण की तरह मुरली की धुन से प्रेम प्रवाहित कर सके।

हमारे (शरीररूपी) उपकरणों के माध्यम से वे अपनी भक्ति संचारित करना चाहते थे। परन्तु ये कार्य वे निर्जीव उपकरणों के माध्यम से नहीं करना चाहते थे, जीवन्त उपकरणों के माध्यम से करना चाहते थे। मान लो, यदि ये समझ सके, प्रेम कर सके, इसमें मानव मस्तिष्क हो और मेरी आवाज़ इसके अन्दर से ऐसे गुज़र सके जैसे ये (बाँस की तरह) खाली है, तब हम कह सकते हैं कि यह आत्मसाक्षात्कारी है। परन्तु यह जीवन्त नहीं है। आप जीवन्त हैं। इतनी कठिनाई से आपको विशेष रूप से मेरे लिए बनाया गया है और अत्यन्त सावधानी से, कोमलतापूर्वक, एक के बाद एक को कार्यान्वित किया गया है। अब हमें शीघ्रता से उत्क्रान्ति पक्ष की बात करनी होगी, क्योंकि आप जानते हैं, यह बहुत लम्बा विषय हे। अत: अब हमें महत्वपूर्णतम पक्ष, ‘उत्क्रान्ति’ पर आना होगा, इसे समझना होगा, क्योंकि (अभी तक) हम उत्क्रान्ति को विज्ञान के माध्यम से ही जानते हैं। जब ये तीनों शक्तियाँ अस्तित्व में आ जाती हैं – ये पृथ्वी, ब्रह्माण्ड या किसी अन्य चीज़ के सृजन से पूर्व – सर्वप्रथम उन्हें इनकी एक उपयुक्त तस्वीर बनानी तथा इसकी पर्याप्त सूझ-बूझ प्राप्त करनी आवश्यक थी। जैसे किसी कार्य को करने से पूर्व हमें उसकी योजना बनानी होती है। हमारे पास एक योजना-आयोग है, सर्वप्रथम हम योजना-आयोग में बैठते हैं। इसी प्रकार, सर्वप्रथम उन्हें एक मंच बनाना पड़ा जहाँ पर योजना बनाई जा सके। इस मंच को हम वैकुण्ठ अवस्था कह सकते हैं। यह प्राचीनतम नहीं है, इसका सृजन बाद में किया गया। सर्वप्रथम योजनावस्था है जो वैकुण्ठ अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में सभी अवतरणों का सृजन किया गया। अवतरणों का सृजन पृथ्वी के सृजन के बाद नहीं किया गया, यह गलत धारणा है। सभी अवतरणों का सृजन वैकुण्ठ अवस्था में किया गया। उस समय जब आपके चक्षुओं का ही अस्तित्व नहीं था। पृथ्वी का भी कोई अस्तित्व नहीं था तथा किसी ऐसी चीज़ का भी अस्तित्व नहीं था जिसे आप अपनी आँखों से देख सकें। परन्तु जीवन की एक अवस्था, पहली अवस्था, वैकुण्ठ नामक अवस्था, का अस्तित्व था। इस वैकुण्ठ अब्स्था में पूरे ब्रह्माण्ड की, पूरी विश्व व्यवस्था की योजना बनाई गई और इसके विषय में पूरे निर्णय लिए गए। अत: सर्वप्रथम आने वाले अवतरण श्रीशिव थे क्योंकि उनके बिना किसी चीज़ का अस्तित्व ही न बन पाता। परन्तु उन्हें (श्रीशिव) कहाँ स्थापित किया जाए, उन्हें कहीं पर तो प्रतिबिम्बित होना था।

यदि श्रीशिव को किसी पर प्रतिबिम्बित होना था तो उस प्रतिबिम्बक का सृजन भी आवश्यक था। अत: उन्हें एक आदिपुरुष, एक विशाल अस्तित्व जिसे आप विराट कह सकते हैं, के सृजन के विषय में सोचना पड़ा। उन्होंने विराट का सृजन किया। ये विराट होंगे, अदि पुरुष का पूर्ण रूप। में इन्हीं के विषय में आपको बता रही हूँ, इस प्रतिबिम्बक के विषय में। सर्वप्रथम। सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रतिबिम्बित होना है – तो सबसे पहले हमें आदि-पुरुष – विराट का सृजन करना होगा। विराट में उन्होंने भिन्न अवतरणों का सृजन किया। अवतरणों का सृजन मनुष्यों में से नहीं किया गया। में नहीं जानती लोग ऐसा क्यों सोचते हैं – मनुष्यों से अवतरणों का सृजन नहीं किया जा सकता। उनका सृजन पहले किया गया। मानव के अमीबा अवस्था से मानव अवस्था तक विकास की बात ठीक हे, परन्तु अवतरणों का कोई विकास नहीं होता। उनका सृजन आरम्भ से ऐसे ही किया जाता है। जैसे आपने देखा है विराट में – मैंने आपको विराट की एक तस्वीर दिखाई है – तीनों शक्तियाँ – महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती – आज्ञा चक्र पर मिलीं। और वहाँ उन तीनों ने दो-दो बच्चों को जन्म दिया। ये कथा नहीं है, ये सत्य है – भाई-बहनों के रूप में। भाई-बहनों का अर्थ ये हे कि ये सम्बन्ध अस्थायी प्रकार का तो है परन्तु यह सूक्ष्म स्वभाव का है। फिर उनके विवाह हुए, अन्तर्सम्पर्क घटित हुआ। महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली ने कुल मिलाकर छ:बच्चों का सृजन किया, जिनके परस्पर विवाह हुए। अन्तर्विवाह हुए। इन अन्तर्विवाहों से उन्हें एक व्यक्तित्व प्राप्त हुआ जो गतिज था और जिसमें संभाव्य शक्ति  थी। ऐसा सम्मिश्रण था। इन अवतरणों को भिन्न चक्रों पर स्थापित किया गया। ऊपर, आज्ञा चक्र से नीचे की ओर लाकर उन्हें भिन्न चक्रों पर स्थापित किया गया। ये अवतरण, आप जानते हैं, विराट के भिन्न चक्रों पर स्थापित किए गए हैं। बहुत से लोग इस बात को नहीं समझेंगे और ये बातें सुननी उन्हें अच्छी भी नहीं लगेंगी, क्योंकि मानव इतने अहंकारी हैं कि उन्हें ये बात समझ नहीं आती कि एक परमात्मा हैं जो सर्वशक्तिमान हैं। से कार्य करते हैं, सभी कार्य करने के उनके अपने ही तरीके हैं। में सत्य कह रही हूँ या असत्य, इसका सत्यापन आप चैतन्य लहरियों पर कर सकते हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि अवतरणें का सृजन किस प्रकार किया गया।

इन सभी अवतरणों को यहाँ, विराट अवस्था में , इस प्रकार स्थापित किया गया कि दूसरी ओर प्रतिबिम्ब का सृजन हो सके। शिव को शक्ति से अलग कर दिया गया, क्योंकि वे आरम्भ में ही अलग हुए थे, उन्हें विराट के शिखर पर सदाशिव की पीठ के रूप में स्थापित कर दिया गया। इसी प्रकार, हमारे सिर के शिखर पर भी सदाशिव की पीठ है। हम प्रतिबिम्बक के प्रतिबिम्ब हैं। अत: हमारी शैली भी वेसी ही है, हमारे सिर पर भी सदाशिव की पीठ है। उन्हें केवल यहीं स्थापित किया गया है। माँ के गर्भ में कुण्डलिनी जब भ्रूण में प्रवेश करती है, उस समय सदाशिव की पीठ, या हम कह सकते हैं, सदाशिव अपनी पीठ से उतरकर हृदय में आ जाते हैं और हृदय की पहली धड़कन सुनाई देती (आरम्भ होती) है। यह भी बिल्कुल वैसी ही है जेसे विराट में घटित हुआ। परन्तु वैकुण्ठ-अवस्था तक इसका सृजन नहीं हुआ था। यहाँ पर दूसरे प्रतिबिम्बक का सृजन नहीं हुआ था। यहाँ पर दूसरे प्रतिबिम्बक का सृजन नहीं हुआ था, केवल पहला प्रतिबिम्बक था। अत: सर्वप्रथम, केवल विराट का सृजन किया गया, और योजनावस्था में, विराट के शरीर में, अदिशक्ति ने सबसे पहले इन अधिकारियों, आप कह सकते हैं चक्रों के शासकों का सृजन किया। परमात्मा साक्षी हैं और आदिशक्ति लीला कर रही हैं, और वे ही इन चक्रों का सृजन करती हैं। चक्रों पर शासन करने के लिए वे इन देवी-देवताओं को स्थापित करती हैं। अब, विराट अवस्था के अन्दर अस्तित्व हे, सृष्टि है, सृष्टा शक्ति है तथा विकासात्मक शक्ति है। यह सब वैकुण्ठ अवस्था में है, हम कह सकते हैं, क्योंकि ये प्रथम प्रतिबिम्बन की अवस्था है। ये हमारे अन्दर नहीं है, हम इसे अनुभव नहीं कर सकते-इस वैकुण्ठ अवस्था को, क्योंकि यह प्राथमिक अवस्थाओं में से है। तत्पश्चात्‌ एक अन्य अवस्था का सृजन किया गया, तब तीसरी अवस्था का सृजन हुआ, फिर चौथी का – भवसागर अवस्था का – वह अवस्था जिसमें हम सबका जन्म हुआ। सर्वप्रथम, चौथी अवस्था में, – क्या आप किसी चतुर्स्तरीय व्यक्तित्व के विषय में सोच सकते हैं जो दर्पण के सामने खड़ा हो? अब, सर्वप्रथम दिखाई देने वाला, सर्वोच्च है। इसी कारण भवसागर सर्वप्रथम दिखाई पड़ता है। परन्तु यदि आप अपनी अवस्था की गहराई में जा पाएं तो अन्य तीन को भी महसूस कर सकते हें। परन्तु सर्वप्रथम जिसे आप देख और महसूस कर सकते हैं वह भवसागर है। तो, आपका जन्म भवसागर में होता है। इस अवस्था में आप भवसागर अवस्था में होते हैं। इस भवसागर अवस्था में आपका सृजन किया गया और इसी में आपको विकसित होना है। इस समय आपको विकसित करने के लिए महालक्ष्मी शक्ति गतिशील होती हैं। आप पहले से ही जानते हैं कि विकास किस प्रकार हुआ, परन्तु मैं आपको ये बताऊंगी कि हमारे पुराणों के अनुसार मानव का विकास किस प्रकार घटित हुआ और यह सत्य है।

मानव का विकास, अमीबा से आरम्भ हुआ, ऐसा आप कह सकते हैं, क्योंकि जीवन का आरम्भ जल में हुआ। जैसा मैंने आपको बताया, सर्वप्रथम जल का सृजन हुआ। जल में अमीनो-एसिड्स बने, अमीबा बने, मछलियाँ बनी और जब मछलियाँ बनी तो छोटी मछलियों को लगा कि जीवित रहना कठिन है क्योंकि बड़ी मछलियाँ उन्हें खा जाने का प्रयत्न करती हैं। यह सब पारस्परिक  था। इस विनाश से वे पूरी तरह तंग आ चुकी थीं। इस समय स्वयं श्रीविष्णु, जो स्वयं विकासात्मक शक्ति हैं, मत्स्य अवतार में इस पृथ्वी पर अवतरित हुए। उन्होंने कुछ मछलियों की तट तक आने में सहायता की। उनमें सागर को पार करने का साहस था और मत्स्य रूप में वे उनकी अगुआ थीं। तत्पश्चात्‌ अन्य कुछ मछलियाँ भी सागर को पार करने लगीं। विकास की ये पहली अवस्था थी, जिसे हम जानते हैं। विकास की अवस्था में, जेसे आप जानते हैं, बाद में इन मछलियों ने रेंगने वाले जीवों का रूप धारण कर लिया, परन्तु, वे रेंगने वाले जीव किस प्रकार बने ? उनका नेतृत्व करने वाला कोई तो होगा। एक बार फिर ये कार्य श्रीविष्णु ने किया, जो कूर्म (कछुआ) रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए और वेकुण्ठावस्था में इस बार उन्होंने बहुत से कार्य किए। कूर्म अवतार में पृथ्वी पर अवतरित होने से पूर्व वैकुण्ठावस्था में जब पृथ्वी का सृजन हुआ तो पूरे विराट की योजना बनाई गई और योजना तथा सृजन के फलस्वरूप कुछ कचरा बन गया – एक प्रकार का रद्दी पदार्थ।

ये रद्दी पदार्थ संदूषित हो गया, या हम कह सकते हैं कि अनदेखी होने के कारण एक ओर से, सड़ गया। इसके माध्यम से कुछ शैतानी शक्तियाँ विकसित होने लगीं तथा आसुरी शक्तियाँ विकसित होने लगीं तथा आसुरी शक्तियों और अच्छी शक्तियों में भयानक युद्ध हुआ। वास्तव में ये घटना तीसरी अवस्था में घटित हुई, वैकुण्ठावस्था में नहीं, तीसरी अवस्था में। क्योंकि जब योजना आरम्भ हुई, कार्यान्वयन आरम्भ हुआ, तभी इन आसुरी शक्तियों का भी आरम्भ हुआ। लोग कह सकते हैं, कि ‘परमात्मा ने आसुरी शक्तियों का सृजन क्यों किया ?’ उन्होंने ये कार्य नहीं किया, संयोगवश ऐसा हो गया। क्योंकि दूसरी अवस्था में जब कुछ देवताओं का सृजन किया गया-ये भी अभी तक विकसित नहीं थे, इनका सृजन मात्र हुआ था, वे इस सारे कार्य और सभी तत्वों के प्रभारी थे, क्योंकि कार्यक्षेत्र में जाकर कार्यान्वयन करने के लिए अधिकारी भी बनाने पड़ते हैं। कार्य करते हुए, सृजित देवी-देवताओं में से कुछ भटक गए और आसुरी शक्तियाँ बन गए। एक प्रकार का अपशिष्ट उत्पाद पनप गया। इस अपशिष्ट उत्पाद से आसुरी शक्तियों का आरम्भ हुआ और इन आसुरी शक्तियों ने इस प्रकार कार्य किया कि कूर्मावतार के समय में राक्षसों और देवों में युद्ध हुआ। सभी अच्छे लोग, जो तत्वों के प्रभारी थे, परमात्मा के कार्यालय में कार्य करने वाले सभी लोग, इन आसुरी शक्तियों से युद्ध करने लगे। उस समय स्वयं परमात्मा ने इसका समाधान किया, आप जानते हैं अमृत मनवंतर में क्या हुआ – ये बात लोगों को समझ नहीं आती कि भवसागर में अमृत मनवंतर (मंथन) किस प्रकार हो सकता है – ऐसा नहीं हुआ। जिस अवस्था में ये घटित हुआ वह भवसागर अवस्था नहीं थी। ये घटना भवसागर में नहीं घटित हुई।

अब हम भवसागर अवस्था में हैं। भवसागर अवस्था में वही कूर्म अवतार जो जन्म लेकर पृथ्वी पर आए और हमें रेंगने वाले जीव बनने की सूझ-बूझ प्रदान की, हम भी इसी प्रकार विकसित हुए। तो सारी विकास प्रक्रिया काफ़ी समय ले गई। मैं इसके विस्तार में नहीं जाऊंगी, परन्तु अन्तत: एक मानव का सृजन हुआ। ये सारा कार्य महालक्ष्मी शक्ति ने किया जिन्होंने श्रीविष्णु के माध्यम से कार्य किया और जिसके विषय में मैंने आपको बताया हे कि विकास किस प्रकार घटित हुआ और आपको किस प्रकार बनाया गया। अब क्या होने वाला है? आप इस बिन्दु तक पहुँचते हैं (आज्ञा), इस बिन्दु पर जहाँ ईसामसीह आए – ईसामसीह भी अवतरण थे – और उनकी माँ साक्षात्‌ श्रीराधा जी थीं, साक्षात्‌ महालक्ष्मी, कोई अन्य नहीं। वे मानव को इस अवस्था तक लाए। इसके बाद, अब मानव ने कया बनना है? उसे उस अवस्था में प्रवेश करना है जहाँ वह निर्विचार हो जाए अर्थात्‌ जहाँ भवसागर की चेतना शेष न रहे, इससे ऊपर उठ जाएं। इस अवस्था से आप सर्वव्यापी अचेतन की अवस्था में डुबकी लगा लेते हैं। यहाँ पर भी उसी शक्ति का साम्राज्य है, जो तीनों शक्तियों का समग्र रूप है। यह तीनों शक्तियों का संश्लेषण हैं – यह आदिशक्ति की शक्ति है। आदिशक्ति की शक्ति सर्वव्यापी है – सर्वत्र विद्यमान है, परन्तु हम इसे महसूस नहीं कर पाते। क्यों ? क्योंकि हमारी स्थिति अत्यन्त स्थूल है। हम कह सकते हैं, एक नली, जिसके अन्दर तीनों ओर नलियाँ हैं। इनमें से केवल एक बाह्य नली का उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि अन्दर की सभी नलियाँ बन्द हैं। जब सबसे अन्दर की नली खुलती है तब आप पूरी तरह आत्मसाक्षात्कारी हो जाते हैं। दूसरी नली के खुलने पर आप सर्वशक्तिमान परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति को महसूस कर सकते हैं, इसे हम सर्वव्यापी शक्ति कहते हैं। अचेतन। परन्तु अब ये आपके लिए अचेतन नहीं है क्योंकि अब आपमें इसकी चेतना है। इस प्रकार आप परमात्मा से वार्तालाप (सम्पर्क) आरम्भ कर सकते हैं। होता ये है कि यहाँ प्रतिबिम्ब हे, प्रतिबिम्बक है और प्रतिबिम्बन – कार्य है, यहाँ से आप इस क्षेत्र में उन्नत होते हैं। आप इस अवस्था तक उन्नत होते हैं। आप ये बन नहीं जाते परन्तु इस क्षेत्र तक उन्नत हो जाते हैं। यहाँ से आप इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और यह क्षेत्र आदिशक्ति की सर्वव्यापी शक्ति से परिपूर्ण है। इस अवस्था तक पहुँचे बिना, आपको एक अवतरण की अवस्था तक उठना होता है, और ये बहुत बड़ा फासला है। परन्तु मैं कह सकती हूँ कि महावीर और बुद्ध दोनों इस ऊँचाई तक उन्नत हुए। परन्तु उनके शिष्यों को देखिए। उदाहरण के रूप में बुद्ध के शिष्य। उन्होंने शिव को भुला दिया, सभी देवी-देवताओं को भुला दिया, मानो वे इनके विषय में कुछ अधिक जानते ही न हों। और जिस प्रकार इन्होंने कुछ प्रतिमाओं में दर्शाया है, कि एक देवी शिव और पार्वती से ऊपर खड़ी हुई है और संहार करने का प्रयत्न कर रही है। वह श्रीगणेश को चोट पहुँचा रही है। ये सभी कुछ अत्यन्त मूर्खतापूर्ण है। कहने का अभिप्राय ये है कि उन्होंने सारे कार्य करने वाली, एक संघटित धारणा, एक संघटित मस्तिष्क वाली संघटित शक्ति की छवि को पूर्णत: नष्ट कर दिया। समग्रता के अभाव में ये राक्षस बन गए और इन्होंने आसुरी शक्तियाँ बना लीं। जैसा मैंने आपको बताया, ये बहुत कठिन विषय है और सबसे बुरी बात ये है कि मैंने अंग्रेजी भाषा में इसकी व्याख्या करने का प्रयास किया है। अपनी योग्यतानुसार मैंने भरसक प्रयत्न किया है, फिर भी यदि आपके कोई प्रश्न हों, तो कभी आप पूछ सकते हैं। इनके विषय में मुझे लिख सकते हैं, हम इनका समाधान करेंगे।

(कल…..) अब केवल ये बात है – मैं आपको इसके विषय में बताना चाहती थी कि अब आपको “निर्विचार चेतना’ प्राप्त हो गई है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। आपमें से अधिकतर को निर्विचार चेतना प्राप्त हो गई है। आपको चैतन्य लहरियाँ प्राप्त हो गई हैं, परन्तु आपको निर्विकल्प में छलांग लगानी होगी। निर्विकल्प में। और ये छलांग आपको गहन ध्यान-धारणा और गहन अनुभूतियों द्वारा लगानी होगी। अन्यथा, आप जानते हैं, जरा सी निर्विचारिता की अवस्था प्राप्त करने का कोई लाभ नहीं है। आपको, निर्विकल्प में छलांग लगानी होगी। यह वह अवस्था हे, जैसे मैंने आपको बताया, प्रतिबिम्बक से थोड़ी सी आगे की अवस्था। परन्तु अब भी आपमें से बहुत से लोग, ऊपर-नीचे होते रहते हैं। जेन धर्म में इसे सतोरी अवस्था कहते हैं – जहाँ व्यक्ति ऊपर-नीचे होता रहता है, बाधाओं की पकड़ में आ जाता है, ये वो करने में लगा रहता है। इस अवस्था पर नियंत्रण करना होगा। तब आप निर्विकल्प अवस्था प्राप्त कर पाएंगे। निर्विकल्प अवस्था पर पहुँच कर आप बाधाओं से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होते। तब आप चिन्ता नहीं करते। अभी तक मुझे एक भी मनुष्य ऐसा नहीं मिला। मैं अत्यन्त महान सन्‍्तों और साक्षात्कारी लोगों से मिली हूँ और कह सकती हूँ कि वो निश्चित रूप से आत्मसाक्षात्कारी हैं। उनका प्रकृति पर भी नियंत्रण है, उनमें से कुछ का, परन्तु फिर भी उनके चक्रों पर पकड़ है, ये आश्चर्य की बात है। परन्तु मनुष्य तो ऐसे ही हैं, वो बाधाओं की पकड़ में आ जाते हें, पूर्ण आत्मसाक्षात्कार की तीसरी स्थिति में पहुँच कर भी वे पुन: सतोरी अवस्था में आ जाते हैं और इसी प्रकार आते -जाते रहते हैं। परन्तु मैंने देखा है कि अब तक मुझे एक भी ऐसा मनुष्य नहीं मिला जिसमें कोई बाधा न हो और जिसे में पूर्ण आत्मसाक्षात्कारी कह सकूं। मेरे अतिरिक्त, मुझे लगता है, सभी लोग पकड़ रहे हैं। ये अत्यन्त आश्चर्य की बात है। परन्तु जब आप पकड़ते नहीं हैं – बाधाओं से प्रभावित नहीं होते, तो क्या होता है? वास्तव में यह अवस्था प्राप्त करना काफ़ी कठिन है। परन्तु यदि आप पकड़ते नहीं है, यदि आप सोचते हैं कि आपको पकड़ नहीं आती – तो आपको कैसे करना चाहिए? इसे इस प्रकार देखना है : मान लो आपकी आज्ञा पकड़ रही है तो आपको पता होना चाहिए कि आपकी आज्ञा पकड़ रही है, आपको ये नहीं सोचना चाहिए. कि आपकी आज्ञा पकड़ रही है, इसके स्थान पर आपको सोचना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति की बाधा से लड़ने के लिए आप यहाँ पर शक्ति एकत्र कर रहे हैं। यदि आप ऐसा कर सकें तो। मान लो आपकी विशुद्धि पकड़ रही है, तो ये सोचने और परेशान होने की अपेक्षा कि आपका विशुद्धि चक्र पकड़ रहा है यदि आप सोचने लगें कि आप दूसरे व्यक्ति की विशुद्धि को सन्तुलित करने के लिए यह शक्ति संचित कर रहे हैं, तब मैं सोचती हूँ, ये बेहतर कार्यान्वित होगा। इसलिए मैं हमेशा कहती हूँ कि दूसरों की ओर हाथ चला कर (फैलाकर) स्वयं देखें। इस विधि से बहुत से लोगों को लाभ हुआ है क्योंकि उनकी आज्ञा पर पकड़ आती है और वे आज्ञा की पकड़ वाले किसी दूसरे को चैतन्य देते हैं तो पाते हैं कि वे ठीक हो गए हैं। ऐसी अनुभूतियाँ बहुत कम लोगों को हो रही हैं, परन्तु ऐसा हो रहा है।

अत: आप इसे आज़मा सकते हैं। ये नहीं सोचें कि आप पकड़ रहे हैं, आपको सोचना चाहिए कि सामने खड़े किसी दूसरे व्यक्ति की आज्ञा की पकड़ को दूर करने के लिए यह शक्ति संचित हुई है। आरम्भ में नि:सन्देह यह प्रक्रिया बहुत धीमी होगी, परन्तु शनै: शनै: आप इस कार्य को कर सकेंगे और केवल वही लोग करेंगे जो इसका अभ्यास करेंगे। यह सामूहिक विचार है, सामूहिक सोच है : मान लो मुझ पर मलेरिया का आक्रमण हुआ है, तो मेरा अपना रक्त, मेरी अपने रक्त कोशाणु इस आक्रमण का मुकाबला करेने का प्रयत्न कर रहे हैं। वे इससे युद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। यदि में हार मान लूं, तो मैं मलेरिया रोगी बन जाऊंगी, परन्तु यदि मैं हार नहीं मानती तो विजयी होती हूँ इसी प्रकार चैतन्य देते हुए यदि आप ऐसा सोचते हैं कि यदि आपको पकड़ आती है, तो वास्तव में आपके अन्दर एक शक्ति संचित हो रही है, जिसे आपने देना है, तब आप कुल मिलाकर सभी ऋषि-मुनियों से भी अधिक तेज़ी से बढ़ सकेंगे। ये बात में आपको बता सकती हूँ। परन्तु मानव के लिए ऐसा सोचना थोड़ा सा कठिन है, क्योंकि पकड़ आते ही उन्हें चिंता हो जाती है और वे अपनी पकड़ को दूर करने में लग जाते हैं। यदि आप अपनी पकड़ को दूर न करके दूसरे लोगों को चैतन्य देने पर कमर कस लें तो इसका बेहतर परिणाम आएगा। मैं ऐसा करती रही हूँ, एक-दो लोगों पर मैंने ये प्रयोग किया है और ये विधि सफल रही है। सभी लोगों में ये क्षमता नहीं होती। अत: शनै: शनै: उन्नत हों क्योंकि अभी तक आप नवजात शिशु हैं, अभी आपने उन्नत होना है, अधिक उन्नत होना है। आप सीख रहे होंगे, आपको काफ़ी ज्ञान होगा, परन्तु जहाँ तक आपकी आध्यात्मिकता का सम्बन्ध हे इसका अर्थ ये नहीं है कि आप सतोरी अवस्था से ऊपर उठ चुके हैं। आपमें से कुछ लोग उठ चुके हैं और कुछ अभी भी सतोरी अवस्था में हैं। अत: इसके विषय में सावधान रहें। में आपसे पुन: मिलना चाहँगी शायद दो वर्ष पश्चात्‌, में नहीं जानती कब। कल हम यहाँ पर ध्यान करेंगे और मैं बहुत अधिक नहीं बोलूंगी। कल हम ध्यान करेंगे। यहाँ एक ध्यान केन्द्र है, वहाँ जाकर आपको परस्पर मिलना चाहिए, मिलकर ध्यान करने को सामूहिक ध्यान कहा जाता है। ये सामूहिक गतिविधि हे, में भी वहाँ हंगी। आपको आश्चर्य होगा कि मेरी चैतन्य लहरियों को इतना अधिक कहीं और नहीं महससू किया जाता जितना सामूहिकता में किया जा सकता है। इसके विषय में मुझे पता होता है कि फलां-फलां सामूहिकता कहाँ कार्य कर रही हे।

तो दिल्ली में पहले से ही तीन सामूहिकताएं हैं, और ये निवासस्थानों से काफ़ी समीप हैं। आखिरकार, हमें ये समझना चाहिए कि, अन्य साधकों की तरह से हमें हिमालय पर नहीं जाना। हमें ये सब कार्य नहीं करने। हमें तो केवल अपने घर के समीपतम ध्यान केन्द्र पर जाना है। इसे हमारे द्वार पर ले आया गया है। सभी कुछ हमारे द्वार पर ले आया गया है – ज्ञान, चेतन्य लहरियाँ, आत्मसाक्षात्कार और सभी कुछ इतना आसान बना दिया गया है। यह सहज बना दिया गया है ….. परन्तु इसका अर्थ ये भी नहीं है कि हम इसे अपना अधिकार मान लें (स्वीकृत रूप से ले लें)। मेरी अत्यन्त अत्यन्त कठोर तपस्या से यह सहज बन पाया है। ये बात मुझे कह देनी चाहिए।

बहुत से युगों में में हज़ारों वर्षों तक रही और बहुत से लोगों पर, बहुत सी चीज़ों पर कार्य किया और अन्ततः मैं अधिकतर मनुष्यों के संयोजनों और क्रमपरिवर्तनों को खोज पाई और इस प्रकार इतने विशाल सामूहिक स्तर पर यह कार्य कार्यान्वित हो पाया। बिना मेरी कठोर तपस्या के यह सम्भव न हो पाता। इस प्रकार यदि यह कार्यान्वित हुआ है, तो अधिकतर लोगों में चल निकलना चाहिए। सिवाय एक प्रकार के लोगों के, जिनके विषय में मैं कहंगी कि यह हो पाना अत्यन्त कठिन है, ऐसे लोगों में जो राक्षस लोगों से जुड़े हुए हैं। यदि वे जन्मजात राक्षस हैं और कहीं आपका सिर उनके चरणों से छू गया तो बहुत कठिनाई होगी। अत: में आपको चेतावनी देती हूँ कि किसी भी व्यक्ति के चरण-स्पर्श करने से पहले आपको बहुत सावधान रहना होगा। परमात्मा आपको धन्य करें। आप सबको बहुत देर हो चुकी है ……. परन्तु इतने कठिन विषय को इतने थोड़े समय में बताना बहुत कठिन कार्य है। परन्तु यदि, में आशा करती हूँ, में सहजयोग पर कोई पुस्तक लिख पाई, मैं आशा करती हूँ क्योंकि आज तक मैंने कोई पुस्तक नहीं लिखी है। पुस्तक लिखने का प्रयत्न कर रही हूँ, परन्तु इससे पूर्व कुछ अन्य लोग भी लिख रहे हें। मुझे आशा है, कि मैं कुछ लिख पाऊंगी। जो भी हो इसके विषय में ज़्यादा चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। यह आपके आत्मसाक्षात्कार एवं उत्क्रान्ति से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।

पूरा ज्ञान आपमें जागृत हो जाएगा। चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है – अब हर शब्द जो आप पढ़ते हैं वह अर्थ पूर्ण होगा, आप समझ पाएंगे। पहली चीज़ ये हे कि अपना आत्मसाक्षात्कार पा लें और दूसरी आवश्यक चीज़ उत्क्रान्ति है। आपको बहुत अधिक ऊँचा उठना है और इसे बहुत समय देना है। इसे स्वीकृत रूप से न लें। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण चीज़ है जो आपको करनी चाहिए और भी बहुत सी चीज़ें आवश्यक हैं, परन्तु यह महत्वपूर्णतम कार्य है, जो किया जाना

चाहिए। परमात्मा की कृपा से यदि ये कार्यान्वित हो जाए तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि अपने किसी भी अवतरण में मैं इतने लोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे पाई थी। अत: मैं स्वयं से पूर्णत: सन्तुष्ट हूँ। परन्तु जहाँ तक आप लोगों का सम्बन्ध है, आपको सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। आपको अधिक और अधिक माँगना चाहिए और यह प्रदान किया जाएगा क्‍योंकि आप ही वो लोग हैं जो मंच पर है। आपको इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया है। आप ने ये कार्य करना है। परमात्मा को ये कार्य करना होगा। परमात्मा यदि ये कार्य नहीं करते तो वे अपनी इच्छा को पूर्ण नहीं कर सकते और अपनी सृष्टि को तो वे नष्ट नहीं होने देंगे।  

परमात्मा आपको धन्य करें।