1st Day of Navaratri Celebrations, Shri Kundalini, Shri Ganesha

मुंबई (भारत)

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Kundalini Ani Shri Ganesha 22nd September 1979 Date : Place Mumbai Seminar & Meeting Type

[Hindi translation from Marathi talk]

आज के इस के प्रथम दिन शुभ घड़ी में, ऐसे इस सुन्दर वातावरण में इतना सुन्दर विषय, सभी योगायोग मिले हुए दिखते हैं। आज तक मुझे किसी ने पूजा की बात नहीं कही थी, परन्तु वह कितनी महत्त्वपूर्ण है! विशेषतः इस भारत भूमि में,महाराष्ट्र की पूण्य भूमि में, जहाँ अष्टविनायकों की रचना सृष्टि देवी ने (प्रकृति ने) की है । वहाँ श्री गणेश का क्या महत्त्व है और अष्टविनायक का महत्त्व क्यों है ? ये बातें बहुत से लोगों को मालूम नहीं है । इसका मुझे बहुत आश्चर्य है। हो सकता है जिन्हें सब कुछ पता था या जिन्हें सब कुछ मालुम था ऐसे बड़े-बड़े साधु सन्त आपकी इसी सन्त भूमि में हुए हैं, उन्हें किसी ने बोलने का मौका नहीं दिया या उनकी किसी ने सुनी नहीं। परन्तु | इसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है और एक के जगह सात भाषण भी रखते तो भी श्री गणेश के बारे में बोलने के लिए मुझे वो कम होता । आज का सुमुहूर्त घटपूजन का है। घटस्थापना अनादि है । मतलब जब इस सृष्टि की रचना हुई, (सृष्टि की रचना एक ही समय नहीं हुई वह अनेक बार हुई है।) तब पहले घटस्थापना करनी पड़ी । अब ‘घट’ का क्या मतलब है, यह अत्यन्त गहनता से समझ लेना जरूरी है । प्रथम, ब्रह्मत्त्व में जो स्थिति है, वहाँ परमेश्वर का वास्तव्य होता है । उसे हम अंग्रेजी में entrophy कहेंगे। इस स्थिति में कहीं कुछ हलचल नहीं | होती है। परन्तु स्थिति में जब इच्छा का उद्गम होता है या इच्छा की लहर ‘परमेश्वर’ को आती है, तब उसी में परमेश्वर की इच्छा समा जाती है। वह इच्छा ऐसी है कि अब इस संसार में कुछ सृजन करना चाहिए । यह इच्छा उन्हें क्यों होती है? वह उनकी इच्छा! परमेश्वर को इच्छा क्यों होती है, ये समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। ऐसी बहुत सी बातें मनुष्य की सर्वसाधारण बुद्धिमत्ता से परे हैं। परन्तु जैसे हम कोई बात मान लेते हैं, वैसे ही ये भी मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की इच्छा उनका शौक है। उनकी इच्छा, उन्हें जो कुछ करना है वे करते रहते हैं। यह इच्छा उन्हीं में विलीन होती है (एकरूप होती है) और वह फिर से जागृत होती है । जैसे कोई मनुष्य सो जाता है और फिर जग जाता है। सो जाने के बाद भी उसकी इच्छाएँ उसी के साथ सोती हैं, परन्तु वे वहीं होती हैं और जगने के बाद कार्यान्वित होती हैं। वैसे ही परमेश्वर का है। जब उन्हें इच्छा हुई कि अब एक सृष्टि की रचना करे, तब इस | सारी सृष्टि की रचना की इच्छा को, जिसे हम तरंग कहेंगे या जो लहरें हैं, वह एकत्रित करके एक घट में भर दिया। यही वह ‘घट’ है। और इस घट का मतलब परमेश्वर है। मतलब परमेश्वर व उनकी इच्छाशक्ति अगर अलग की जाय, हम अगर ऐसा समझ सकें तो समझ में आएगा। आपका भी उसी तरह है, परन्तु थोड़ा सा फर्क है। आप और आप की इच्छा शक्ति इस में फर्क है । वह पहले जन्म लेती है। जब तक आपको किसी बात की इच्छा नहीं होती तब तक कोई काम नहीं होता । मतलब अब जो ये विश्व बना है वह किसी की इच्छा के कारण है। हर एक बात इच्छा होने पर ही कार्यान्वित होती है । सुन्दर और परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित होने के लिए उसे उनसे अलग करना पड़ता है। उसे हम ‘आदिशक्ति’ कहेंगे ।

ये प्रथम स्थिति जब आयी तब घटस्थापना हुई। यह अनादिकाल से अनेक बार हुआ है। और आज भी जब हम घटस्थापना करते हैं, तो उस अनादि अनंत क्रिया को याद करते हैं। तो उस नवरात्रि के प्रथम दिन हम घटस्थापना करते हैं। मतलब कितनी बड़ी ये चीज़ है! याद रखिए । उस समय परमेश्वर ने जो इच्छा की, वह कार्यान्वित करने से पहले एकत्रित की और एक घट में भर दी| उसी ‘इच्छा’ का हम आज पूजन कर रहे हैं । उसी का आज हमने पूजन किया। वह इच्छा परमेश्वर को हुई, उन्होंने आज हमें मनुष्यत्त्व तक लाया, इतनी बड़ी स्थिति तक पहुँचाया, तब आपका ये परम कर्तव्य है कि उनकी इस इच्छा को पहले वंदन करें । उस इच्छा को हमारे सहजयोग की भाषा में श्री ‘महाकाली की इच्छा’ कहते हैं या ‘महाकाली की शक्ति’ कहते हैं। ये महाकाली की शक्ति है और ये जो नवरात्रि के नव दिन (विशेषकर महाराष्ट्र में) समारंभ होते हैं वे इस महाकाली के जो कुछ अनेक अवतरण हुए हैं उनके बारे में है। अब महाकाली शक्ति से पहले, यानी इच्छा शक्ति के पहले, कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए इच्छा शक्ति आदि है, और अन्त भी उसी में होता है। प्रथम इच्छा से ही सब कुछ बनता है और उसी में विलीन होता है । तो ये सदाशिव की शक्ति या आदिशक्ति है । ये आप में महाकाली की शक्ति बनकर बहती है। अगर यहाँ पर ये परमेश्वर है ऐसा समझ लें, ये विराट का अंश स्वरूप माना तो उसमें जो बायीं तरफ की शक्ति है वह आप की इड़ा नाड़ी से प्रवाहित होती है। उस शक्ति को महाकाली की शक्ति कहते में सबसे ज्यादा प्रादुर्भाव हुआ है। पशुओं में उतना नहीं है। अपने में वह (मनुष्य प्राणी में ) अपनी दायीं तरफ से सिर में से निकलती है। उसके बाद बायीं तरफ जाकर त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे जो श्री हैं। इसका मनुष्य गणेश का स्थान है वहाँ खत्म होती है । मतलब महाकाली की शक्ति ने सर्वप्रथम केवल श्री गणेश को जन्म दिया | तब श्री गणेश स्थापित हुए। श्री गणेश सर्वप्रथम स्थापित किए हुए देवता हैं। और इसी तरह, जिस प्रकार श्री महाकाली का है, उसी प्रकार श्री गणेश का है। ये बीज है और बीज से सारा विश्व निकल कर उसी में वापस समा जाता है, वैसे ही सब गणेश तत्त्व से निकलकर गणेश तत्त्व में समा जाता है। श्री गणेश, ये जो कुछ है, उसी का बीज है, जो आपको आँख से दिख रहा है, कृति में है, इच्छा में है, उसका बीज है । इसलिय श्री गणेश को प्रमुख देवता माना जाता है। इतना ही नहीं , श्री गणेश का पूजन किए बगैर आप कोई भी कार्य नहीं कर सकते । फिर वे कोई भी हो, शिव हो, वैष्णव हो या ब्रह्मदेव को मानने वाले हों, सभी प्रथम श्री गणेश का पूजन करते हैं। उसका कारण है कि श्री गणेश तत्त्व परमेश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि में स्थापित किया। श्री गणेश तत्त्व, मतलब जिसे हम में अबोधिता कहते हैं या अंग्रेजी में innocence कहते हैं, अब ये तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म है। ये हमारी समझ नहीं आता । जो बच्चों में रहता है, जिसके चारों तरफ आविर्भाव है और जिसकी सुगन्ध पफैली हुई है। इसलिए छोटे बच्चे | इतने प्यारे लगते हैं। ऐसा यह अबोधिता का तत्त्व है। वह इस श्री गणेश में समाया है । अब ये मनुष्य को समझना जरा मुश्किल है कि कैसे एक ही देवता में ये सब कुछ समाया है? परन्तु अगर हमने सूरज को देखा तो जैसी उनमें प्रकाश देने की शक्ति है उसी प्रकार श्री गणेश में ये अबोधिता है । तो ये जो अबोधिता की शक्ति परमेश्वर ने हम में भरी है उसकी हमें पूजा करनी है । मतलब हम भी इसी प्रकार अबोध हो जाएं । अबोधिता का अर्थ बहुतों को लगता है ‘अज्ञानी’ । परन्तु अबोधिता, मतलब भोलापन, जो किसी बच्चे में है या मासूमियत कहिए, वह हमारे में ১১ आनी चाहिए। ये कितना बड़ा तत्त्व है ये आप नहीं समझते हैं। एक छोटा बच्चा अगर खेलने लगे। वैसे आजकल |

के बच्चों में भोलापन नहीं रहा है। उसका कारण आप बड़े लोग ही हैं। हम दूसरों को क्या बताएं ? हम कौन से अपने धर्म का पालन कर रहे हैं? कितने धार्मिक हम हैं, जो अपने बच्चों को धार्मिक बनाऐं। ये सब उसी पर निर्भर है । इसलिए बच्चे ऐसे हैं। अब ये जो मनुष्य में ‘अबोधिता’ का लक्षण है वह किसी बच्चे को देखकर पहचाना जा में अबोधिता होती है वह कितना भी बड़ा हो, वह उसमें रहती है । जैसे कोई छोटा बच्चा सकता है। जिस | मनुष्य खेलेगा, खेल में वह शिवाजी राजा बनेगा, किला बनवाएगा, सब कुछ करेगा, उसके बाद सब कुछ छोड़कर वह चला जाएगा। मतलब सब कुछ करके उससे अलिप्त (अलग) रहना। जो कुछ किया, उसके प्रति अलगाव । उसके पीछे दौड़ना नहीं । साधारणतया एक बच्चे का बर्ताव होता है। आपने किसी भी बच्चे को कुछ ये भी दिया तो वह उसको कुछ फुसलाकर वह वापस ले लिया तो उसे उसका कोई दुःख संभालकर रखेगा । फिर थोड़ी देर बाद आपने उसे नहीं रहेगा। परन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जो छोटा बच्चा कभी नहीं छोड़ता। उसमें एक बात महत्त्वपूर्ण है। वह है उसकी ‘माँ’। उसकी माँ वह नहीं छोड़ता। बाकी सब कुछ आपने उससे निकाल लिया तो कोई बात नहीं । उसे कुछ नहीं मालुम, पैसा नहीं मालुम है, पढ़ाई नहीं मालुम, कुछ नहीं मालुम। उसे केवल एक ही बात मालुम है। वह है उसकी माँ। यह मेरी माँ है, ये मेरी जन्मदात्री है, यही मेरी सबकुछ है। वह माँ से ज्यादा किसी भी चीज़ को महत्त्व नहीं देता । रविन्द्रनाथ ने एक बहुत ही सुन्दर बात लिखी है। एक छोटा सा बालक बाजार में कहीं खो गया और वह जोर जोर से रोने लगा। उसे लोगों ने पकड़ा और पूछा कि उसे क्या चाहिए। वो तो बस रोये जा रहा था। लोगों ने उससे कहा कि वे उसे घोड़ा देंगे, हाथी देंगे, पर वह बोला कुछ नहीं बस मुझे मेरी माँ चाहिए। और वह रोये जा रहा था। खाने के लिए दिया तो भी उसने नहीं खाया। सारा दिन रोता रहा। जब उसकी माँ मिली तब वह चुप हो गया। मतलब हम सभी में बचपन से ये बीजतव है । इसलिए हम अपनी माँ को नहीं छोड़ते। हमें पता रहता है उसने हमें जन्म दिया है। परन्तु उसके सिवाय, एक दूसरी माँ परमेश्वर ने आपमें आपको दी है और वही माँ अपने आप में आपकी ‘कुण्डलिनी’ है । कुण्डलिनी माता, जो आप में त्रिकोणाकार अस्थि में परमेश्वर ने बिठायी है, वह आपकी माँ हैं। उसे आप हमेशा खोजते हैं । आपकी सभी खोजों में , फिर वो राज – काज में हो, सामाजिक हो या | शिक्षा-क्षेत्र में हो, किसी भी चीज़ का आपको शौक हो, उन सभी शौकों के पीछे आप उस कुण्डलिनी माँ को खोजते हैं। यह कुण्डलिनी माँ, आपको परम पद तक पहुँचाती है, जहाँ सभी तरह का समाधान मिलता है। इस माँ की खोज, माने इस माँ के प्रति खिंचाव जो आप में अदृश्य है, वह आप में श्री गणेश तत्त्व के कारण जागृत है। जिस मनुष्य का श्री गणेश तत्त्व एकदम नष्ट हुआ होता है, उस में अबोधिता नहीं होती है । अबोधिता में बहुत में दिखते हैं । मतलब माँ-बहन, भाई उनके प्रति पवित्रता रखना। जीवन में बर्ताव करते समय, से गुण मनुष्य संसार में रहते समय परमेश्वर ने एक अपनी ‘पत्नी’ और बाकी सब लोग जो हैं उनसे आपका पवित्र रिश्ता है, ऐसा परमेश्वर ने बताया है, और ऐसा अगर आपके व्यवहार में दिखने लगा तो मानना पड़ेगा कि इस मुनष्य में सच्ची अबोधिता है। वह उनकी सच्ची पहचान है। अबोधिता की ये पहचान है कि मनुष्य को सभी में पवित्रता दिखाई देती है क्योंकि अपने आप पवित्र होने के कारण वह अपवित्र नजरों से किसी को नहीं देखता । अब अपने यहाँ

पवित्रता समझाने की बात नहीं है। अपने यहाँ पवित्रता क्या है ये मनुष्य को मालूम है। इंग्लैंड में, अमेरिका में समझाना पड़ता है क्योंकि उनके दिमाग ठिकाने नहीं होते । पर आप सब तो समझदार हो। विशेषत: इस भारत भूमि से परमेश्वर कृपा से, अष्टविनायक कृपा से या आपकी पूर्व पुण्याई से, आपके गुरु-सन्तों की, की हुई सेवा के कारण पृथ्वी पर महाराष्ट्र एक ऐसी भूमि है कि जहाँ से ये पवित्रता अभी तक नहीं हिली है। और इसी पवित्रता का आज आप पूजन कर रहे हैं। मतलब पूजन करते समय आपमें वह पवित्रता है कि नहीं है इधर ध्यान देना जरूरी है । अब हमारे सहजयोग में जिनमें गणेश तत्त्व नहीं है वह व्यक्ति किसी काम का नहीं, क्योंकि ये जो गणेश बिठाये हैं वे गौरी के पुत्र है और श्री गौरी आप की कुण्डलिनी शक्ति है । यही ये गौरी शक्ति है । आज श्री गौरी पूजन है और आज श्री गणेश पूजन है। मतलब कितना बड़ा दिन है। ये आप समझ लीजिए। आप में जो आपका श्री गणेश तत्त्व श्री गौरी से कहता है कि ये मुनष्य ठीक है कि नहीं, मतलब उसमें कितनी सुन्दर व्यवस्था की है ये आप देखिए । इड़ा और पिंगला ये दो नाड़ियाँ आप में है । इस में एक महाकाली और एक महासरस्वती है । महाकाली से महासरस्वती निकली है। महासरस्वती क्रियाशक्ति है। पहली इच्छाशक्ति है और दूसरी क्रियाशक्ति है। इन दोनों शक्तियों से आपने जो कुछ इस जन्म में किया है, पूर्वजन्मों में किया है, जो कुछ सुकृत है और दुष्कृत है उन सबका ब्यौरा ये श्री गणेश वहाँ बैठकर देखते हैं । वे देखते हैं इस मनुष्य ने कितना पुण्य किया है । अब पुण्य क्या है, ये तो आजकल के मॉडर्न लोगों को मालुम नहीं और उस बारे में जानने की जरुरत महसूस नहीं करते। लोगों को लगता है इसमें क्या रखा है? पुण्य क्या है, कितना है? अगर पाप-पुण्य की भावना ही नहीं है तो पाप और उसका क्षालन ये बातें समझाने का कोई मतलब ही नहीं है। मनुष्य में पाप और पुण्य भाव हैं, जानवरों में नहीं है । जानवरों में | बहुत से भाव नहीं हैं। अब देखिए, किसी जानवर को आप गोबर में से ले जाओ या गन्दगी में से ले जाओ, उसे बदबू नहीं आती। उसे सौंदर्य क्या है, ये भी नहीं मालूम । मनुष्य बनते ही आपको पाप – पुण्य का विचार आता है । आप जानते हैं ये पाप है, ये गलत है, इसे नहीं करना है। ये पुण्य है, इसे करना चाहिए। पाप-पुण्य का न्याय आप नहीं करते, आप में बैठे श्री गणेश इसका हिसाब करते हैं। प्रत्येक मनुष्य में श्री गणेश का स्थान है, वह प्रोस्टेट ग्लैण्ड | के पास , उसे हम मूलाधार चक्र कहते हैं। त्रिकोणाकार अस्थि को मूलाधार कहा है। वहाँ कुण्डलिनी माँ बैठी है । उस त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे श्री गणेश उनकी लज्जा की रक्षा करते हैं । अब आपको मालुम होगा श्री गणेश की स्थापना श्री गौरी ने कैसे की थी। उनकी शादी हुई थी पर अभी पति से भेंट नहीं हुई थी। उस समय वह नहाने गयीं और अपना (बदन का) मैल जो था उससे श्री गणेश बनाया। अब देखिए, हाथ में अगर चैतन्य लहरें (vibrations) है तो सारे शरीर में भी चैतन्य लहरें होंगी, तो वह चैतन्य गौरी माता ने मैल में ले लिया तो वह मैल भी चैतन्यमय हो गया और उसी मैल का उन्होंने श्री गणेश बनाया। उसे अपने स्नानघर के बाहर रखा। अब देखिए, सामने नहीं रखा, क्योंकि स्नानघर से सारी गन्दगी बहकर बाहर आती है। अपने यहाँ बहुत से लोगों को | मालूम है। ये जो स्नानघर का बहुता पानी है उस में लोग अरबी के पत्ते व कभी कभी कमल के फुल उगाते हैं और वहीं पर ही वे अच्छा उगते हैं। ठीक इसी तरह श्री गणेश का है, आश्चर्य की बात है कि सबसे गन्दी जगहों में ये कमल उगतें हैं और वह अपने सुगन्ध से उस सारी गन्दगी को सुगन्धित कर देते हैं। ये जो उनकी शक्ति है वह आपके जीवन में भी आपकी बहुत मदद करती है। अपने में जो कुछ गन्दगी दिखाई देती है वह इस श्री गणेश तत्त्व के कारण दूर होती है। अब इस श्री गणेश तत्त्व से कुण्डलिनी का, माने श्री गौरी का, पहले पूजन करना पड़ता है।

मतलब अपने में अबोधिता होनी चाहिए। आपको आश्चर्य होगा , जब अपनी कृण्डलिनी का जागरण होता है तब श्री गणेश तत्त्व की सुगंध सारे शरीर में फैलती है । बहुतों की, विशेषत: सहजयोगियों का जिस समय कुण्डलिनी जागरण होता है उस समय खुशबू आती है। क्योंकि श्री गणेश त्त्व पृथ्वी त्त्व से बना है । इस श्री महागणेश ने पृथ्वी बनायी है। तो अपने में जो श्री गणेश हैं, वे भी पृथ्वी तत्त्व से बने हैं। अब आपको मालुम है कि सारी सुगंध पृथ्वी से आती हैं। सारे फूलों की सुगंध पृथ्वी से आती है। इसलिए कुण्डलिनी का जागरण होते समय बहुतों को विभिन्न प्रकार की सुगंध आती हैं । इतना ही नहीं बहुत से सहजयोगी तो मुझे कहते हैं, श्री माताजी, आपकी याद आते ही अत्यंत खुशबू आती है । बहुतों को भ्रम होता है कि श्री माताजी कुछ इत्र वगैरा लगाती हैं। पर ऐसा नहीं है। अगर आप में श्री गणेश तत्त्व जागृत हो तो अन्दर से खुशबू आती है। तरह-तरह की सुगन्ध मनुष्य के अन्दर से आती है। परन्तु कुछ दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो अपने आपको साधु-सन्त कहलवाते हैं और उन्हें सुगन्ध से नफरत है। अपने यहाँ किसी देवता का वर्णन आपने पढ़ा होगा, विशेषत: श्री गणेश तो सुगन्धप्रिय हैं, वे कुसुमप्रिय भी हैं, और कमलप्रिय हैं । वैसे ही श्री विष्णु के वर्णनों में लिखा है । श्री देवी के वर्णनों मे लिखा है। इसका मतलब है कि जिन लोगों को सुगन्ध प्रिय नहीं व भयंकर दोष हैं । वे परमेश्वर के विरोध में हैं, उनमें परमेश्वर शक्ति जिनको सुगन्ध अच्छा नहीं लगता उनमें कुछ नहीं है। जिस मनुष्य को सुगन्ध बिलकुल अच्छा नहीं लगता उसमें कुछ भयंकर दोष हैं और परमेश्वर के विरोधी तत्त्व बैठे हुए हैं, यह निश्चित है । क्योंकि सुगन्ध पृथ्वी त्त्व का एक महान तत्त्व है । योगभाषा में उसके अनेक नाम | हैं। परन्तु कहना ये है कि जो कुछ पंचमहातत्त्व हैं और उनके पहले उनके जो प्राणतत्त्व है, उस प्राणतत्त्व में आद्य या सर्वप्रथम सुगन्ध है । उसी तत्त्व से हमारी पृथ्वी भी बनी है । उसी प्राणत्त्व से बना हुआ श्री गणेश है। तो श्री गणेश का पूजन करते समय प्रथम हमें अपने आप को सुगन्धित करना चाहिए। मतलब यह कि अपना जीवन अति सूक्ष्मता में सुगन्धित होना चाहिए। बाह्यत: मनुष्य जितना दुष्ट होगा, बुरा होगा उतना ही वह दुर्गंधी होता है। हमारे सहजयोग के हिसाब से ऐसा मनुष्य दुर्गंधी है । उपर से उसने खुशबू लगायी होगी तो भी वह मनुष्य सुगन्धित नहीं है । सुगन्ध ऐसा होना चाहिए कि मनुष्य आकर्षक लगे तो वह मनुष्य सच में सुगन्धित है । दूसरा, मनुष्य जिसमें से लालच और गन्दगी बाहर बह रही है उस मनुष्य के पास जाकर खड़े होने से गन्दा लगेगा। परन्तु ऐसे मनुष्य को देखकर कुछ लोगों को अच्छा भी लगता होगा। यह उनके दोष पर निर्भर है । वे लोग श्री गणेश तत्त्व के नहीं हैं। श्री गणेश तत्त्व वाला मनुष्य अत्यंत साकत्त्विक होता है। उस मनुष्य में एक तरह का विशेष आकर्षण होता है। उस आकर्षण में इतनी पवित्रता होती है कि वह आकर्षण ही मनुष्य को सुखी रखता है| अब आकर्षण की कल्पनाएँ भी विक्षिप्त हो गयी हैं। इसका कारण है कि मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व रहा नहीं है। अगर मनुष्य में श्री गणेश तत्त्व होगा तो आकर्षण भी श्री गणेश तत्त्व पर निर्भर है, सहज ही है । जहाँ आकर्षण (श्री गणेश तत्त्व) है वहाँ वह तत्त्व अपने में होगा। तभी अपने को आकर्षण महसूस होगा। एक बहुत ही सुप्रसिद्ध मोनालिसा का चित्र है । | आपने सुना होगा ‘लिओनार्द -द-विंची’ ने उसे बनाया है। बहुत ही सुन्दर चित्र है और उसे पॅरिस म्यूज़ीअम में रखा हुआ है। अगर उस चित्र को या उस औरत को देखें तो आजकल के मॉडर्न औरतों की दृष्टि से और ब्युटी के बारें में जो मॉडर्न आयडियाज़ है, उसकी दृष्टि से उसे कभी भी ब्यूटी क्वीन नहीं कह सकते और उसके चेहरे पर एक

स्मितहास्य है जिसे ‘मोबाईल स्माईल ऑफ मोनालिसा’ कहते हैं और उस स्माईल पर हजारों साल मेहनत करके भी लोग इस तरह का चित्र निकाल नहीं सके। उसमें प्रमुख क्या है; वो उसका पावित्र्य। उस चित्र में इतनी पवित्रता है कि उसी से वो आकर्षक हआ है। पर आजकल के मॉडर्न युग में, विचित्र और विकृत भावनाओं के पीछे भी, मुझे आश्चर्य हो रहा है कि हजारो लोग वो चित्र देखने के लिए वहाँ आते हैं। अगर जिस दिन वो चित्र वहाँ नहीं होगा तो कोई भी अन्दर नहीं जाता। इतना बड़ा म्यूज़ीअम है फिर भी कोई अन्दर जाने के लिए तैयार नहीं। परन्तु आजकल के आधुनिक युग में अगर आपने पवित्रता की बातें की तो आप में जो बड़े-बड़े बुद्धिजीवी लोग हैं, उन्हें यह बिलकुल मान्य नहीं होगा। उन्हें लगता है ये सब पुरानी कल्पनाऐँ हैं । और इसी पुरानी कल्पनाओं से कहते हैं ‘यह मत करो, वह मत करो, ऐसा मत करो, वैसा मत करो, ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। इस तरह से आप लोगों की conditioning करते हैं ।’ ऐसी बातों से फिर मनुष्य बुरे मार्ग की तरफ बढ़ता है। कहने का मतलब है कि में पवित्रता माँ-बाप की संगति से आती है। प्रथमत: अगर माँ पवित्र नहीं होगी तो बेटे का मनुष्य पवित्र रहना बहुत मुश्किल है। परन्तु कोई ऐसा एक जीव होता है जो अत्यंत बुरी औरत के यहाँ जन्म लेता है और वह इसलिए पैदा होता है कि उस औरत का उद्धार हो जाए। और वह खुद बहुत बड़ा जीव होता है। विशेष पुण्यवान आत्मा होती है। मतलब जैसे गन्दगी में कमल का फूलना वैसे ही वह मनुष्य जन्म लेता है। लन्दन में विशेष कर के मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि वहाँ ऐसे कई बालक है जिनकी माँओं को हम द्वार पर भी खड़े नहीं कर सकते। निसर्गत : अगर माँ पवित्र होगी तो लड़का या लड़की पवित्र होती है, या सहजता में उन्हें पवित्रता प्राप्त होती है। पवित्रता में सर्वप्रथम बात है, उसे अपने पति के लिए निष्ठा होनी जरुरी है । अगर श्री पार्वती में श्री शंकर के लिए निष्ठा नहीं तो उस में क्या कोई अर्थ है ? श्री पार्वती का श्री शंकर के बिना कोई अर्थ नहीं । वह श्री शंकर से ज्यादा शक्तिशाली हैं। परन्तु वह शक्ति श्री शंकर की है। श्री सदाशिव की वह शक्ति प्रथम शंकर की शरण गयी है, | तभी वह शक्तिशाली मानी गयी, परन्तु वह उनकी शक्ति है । परमेश्वर की व अन्य देवताओं की बातें अलग होती हैं और मनुष्य की अलग। मनुष्य की समझ में ये नहीं आएगा। उन्हें समझ में नहीं आएगा, पति और पत्नी में इतनी एकता कि उनमें दो हिस्से नहीं है । जैसे चंद्र और चंद्रिका या सूर्य और सूर्य की किरणें, वैसी उनमें एकता मनुष्य के समझ में नहीं आएगी। मनुष्य को लगता है पति और पत्नी में लड़ाईयाँ होनी ही चाहिए। अगर लड़ाईयाँ नहीं हुई तो ये कोई अजीब बात है। एक तरह का एक अत्यंत पवित्र बंधन पति व पत्नी में या कहना चाहिए श्री सदाशिव व श्री पार्वती में है और अपना पुत्र श्री गणेश श्री पार्वती ने केवल अपनी पवित्रता और संकल्प से पैदा किया है । कितनी महानता है उनकी पवित्रता में ! उन्होंने यह संकल्प से सिद्ध किया हुआ है । सहजयोग में हमने हमारा जो भी कुछ पुण्य है वह लगाया है। उससे जितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना संभव है उतनों को देना यही एक हमारे जीवन का अर्थ है। फिर भी कोई हमें ‘श्री माताजी देवी हैं’ कहता है तो वह पसन्द नहीं। ऐसा कुछ नहीं कहना। क्यों कहना है? लोगों को यह पसन्द नहीं है। क्या जरुरत है यह कहने की? उन्हें गुस्सा आएगा । अपने से कोई ऊँचा है, ऐसा कहते ही मनुष्य को गुस्सा आता है। परन्तु धूर्त लोगों ने अपने आप को देवता या भगवान कहलवाया तो लोग उनके सामने माथा टेकते हैं। उन्हें वे एकदम भगवान मानने लगते हैं, क्योंकि वे बेवकूफ बनाने की प्रेतविद्या, भूतविद्या व श्मशान विद्या, सम्मोहन विद्या काम मे लाते हैं। उससे मनुष्य का दिमाग काम नहीं करता। उन्हें | |

बिलकुल नंगा बनाकर नचाया या पैसे लूट कर दिवालिया बनाया तो भी चलेगा, पर वे उन्हें भगवान कहेंगे। परन्तु जो सच्चा है उसे पाना होता है। और अगर वो आप पा लेंगे तो आप समझेंगे उसमें कितना अर्थ है और क्यों ऐसा कहना पड़ता है? वह मैं आज आपको बताने जा रही हूँ। मतलब श्री गणेश को अगर आपने भगवान नहीं माना तो नहीं चलेगा। परन्तु वह प्रत्यक्ष में नहीं दिखाई देता । इसलिए लोगों की समझ में नहीं आता। एक डॉक्टर भी घर में श्री गणेश की फोटो रखेगा, उसे कुंकुम लगाएगा, टीका लगाएगा। परन्तु उसे अगर आपने बताया कि श्री गणेश तत्त्व आपके शरीर में स्थित है और उससे आपको कितने शारीरिक फायदे होंगे तो वह ये कभी भी मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु उन्हें मैंने कहा, आप श्री गणेश की ये फोटो उतारकर रख दीजिए, तो ये भी वे मारनेंगे नहीं । लेकिन मैंने ये कहा श्री गणेश तत्त्व के बिना आप हिल भी नहीं सकते तो वे ये बात मानने को तैयार नहीं हैं। अब देवत्त्व आप नहीं मानते परन्तु सहजयोग में श्री गणेश को मानना ही पड़ेगा । उसका कारण है कि आपको कोई बीमारी या परेशानी इस गणेश तत्त्व के कारण हुई होगी तो आपको श्री गणेश को ही भजना पड़ेगा । मतलब कि आपमें स्थित श्री गणेश नाराज होते हैं तो आपका श्री गणेश तत्त्व खराब होता है और आपको प्रोस्टेट ग्लैंड की तकलीफ व यूट्स का कैन्सर वगैरा होता है। श्री गणेश तत्त्व को अगर आपने ठीक से नहीं रखा, मतलब अपने पुत्र से अगर ठीक से व्यवहार नहीं किया, माने आपमें मातृत्त्व की भावना नहीं हो तो इन सब बातों के कारण यूट्रस का कैन्सर होता है। एक बात बताती हैँ। हमारे एक शिष्य हैं अग्निहोत्री। उनका नाम राजवाडे हैं पर उन्होंने अग्नि के बड़े बड़े यज्ञ किये इसलिए वे अग्निहोत्री है । बहुत अच्छे सहजयोगी है। २- ३ साल पहले एक दिन मेरे पास आए और बोले, मुझे कुछ तकलीफ नहीं, सिर्फ प्रोस्टेट की तकलीफ है।’ मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। ये इतने बड़े गणेश भक्त और सहजयोगी, इनको प्रोस्टेट की तकलीफ कैसे होगी? क्योंकि प्रोस्टेट की तकलीफ गणेश तत्त्व खराब होने से होती है। उनके उपर श्री गणेश कैसे रुठ सकते हैं ? क्योंकि ये बहुत अच्छे सहजयोगी और मुझपर उनकी श्रद्धा है और बहुत ही भोले है। तो ये गणेश तत्त्व इनके हाथ में कैसे उल्टे चलने लगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने के तौर पर चने रहते है। उसे देने के बाद उनके साथ जो थे, वो कहने लगे, ‘आज दादा कुछ खाते नहीं है।’ मैंने पूछा, ‘क्यों ? आज क्यों नहीं खाते आप ?’ तो कहने लगे, ‘सब कहते है कि संकष्टी को चने नहीं खाते ।’ मैंने कहा यहीं पर गलती हुई है। संकष्टी मतलब श्री गणेश का जन्मदिन। आप सब पढ़े लिखे लोग, किसीने कुछ कहा फिर भी अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। संकष्टी और गणेश चतुर्थी ये कहा, ‘लीजिए थोड़ा प्रसाद।’ प्रसाद उनके जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर आप उपवास रखेंगे, मतलब किसी की मृत्यु पर सूतक रखने जैसा हुआ। जब घर में कोई मर जाता है तो ही हम खाना नहीं खाते। अगर आपके घर लडका या नाती हो गये तो आप मिठाई बाटेंगे, मेजवानी देंगे। तो श्री गणेश के जन्म पर आप क्या उपवास रखेंगे? फिर तो प्रोस्टेट की तकलीफ होगी ही। फिर यूट्रस का कैन्सर। श्री गणेश तत्त्व के साथ आप अगर अच्छा बर्ताव नहीं करोगे तो यूट्रस की तकलीफ होगी। श्री गणेश तत्त्व के कुछ बहुत पवित्र नियम हैं, उनका अगर आपने ठीक से पालन नहीं किया तो आपको ऐसी तकलीफें होती हैं। परन्तु इन तकलीफों का संबंध डॉक्टर श्री गणेश तत्त्व के साथ नहीं जान सकते । पर उनका संबंध श्री गणेश के ही साथ है । वे यहाँ तक ही जानते हैं कि प्रोस्टेट ग्लैण्ड खराब है या ज्यादा से ज्यादा पेल्विक प्लेक्सस खराब हो गया है। परन्तु इसके पीछे जो परमात्मा का हाथ है, मतलब अंतज्ज्ञान का या यों कहिए परोक्ष ज्ञान से जो जाना जाता है, जो ऊपरी ज्ञान से परे है, जो आपको दिखाई नहीं देता, उसके लिए आपके पास अभी

आँखे नहीं है, संवेदना नहीं है, अभी तक आपकी परिपूर्ति नहीं हुई है, तो आप कैसे समझोगे कि ये तकलीफें श्री गणेश तत्त्व खराब होने से हो गयी हैं। श्री गणेश हम से नाराज हैं, तो उन्हें प्रसन्न किये बिना हम सहजयोग नहीं पा सकते । ऐसा कहते ही वे डॉक्टर एकदम बिगड़ गये। ‘हम श्री गणेश को मानने को तैयार नहीं, हम केवल विज्ञान को ही मानते हैं।’ फिर देख लीजिए आपका कैन्सर श्री गणेश तत्त्व को माने बगैर ठीक नहीं होने वाला । श्री गणेश तत्त्व खराब होने से कैन्सर होता है । श्री गणेश तत्त्व हर जगह प्रत्येक अणु-रेणु (कण-कण) में सब तरफ संतुलन | देखते हैं। हम कैन्सर ठीक करते हैं, किया है और करेंगे। पर ये हमारा व्यवसाय नहीं है । तो ये श्री गणेश तत्त्व कितना महत्त्वपूर्ण है, उसे जितनी महत्ता दें उतनी कम है । ये अत्यन्त सुन्दर चार पंखुडियों से बना श्री गणेश तत्त्व हम में हैं । इस चार पंखुडियों के बने हुए गणेश तत्त्व में बीचोबीच बैठे गणेश हमारे शरीर में हैं। मतलब अपने शरीर में उनके एक-एक अंग है । उनके अनेक अंग हैं। उसमें से पहला अंग मानसिक अंग। मानसिक अंग का जो बीज है वह श्री गणेश तत्त्व का है। इच्छाशक्ति, माने जो बायें तरफ की शक्ति है, जो अपने में सारी भावनाएँ पैदा करती है, उन भावनाओं के जड़ में श्री गणेश बैठे हैं । अगर कोई मनुष्य पागल है तो फिर उसका श्री गणेश तत्व खराब होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं है कि वह मनुष्य अपवित्र है । परन्तु इसकी पवित्रता को किसी के ठेस पहुँचाने पर उसे ऐसा होता है। किसी मनुष्य को अगर दूसरे | लोगों ने बहुत सताया तो भी उसका श्री गणेश तत्त्व खराब हो सकता है। क्योंकि उसे लगता है कि परमेश्वर है और अगर श्री गणेश है तो इस मनुष्य को वे मार क्यों नहीं देते ? इस तरह के सवाल उसके मन में आने पर धीरे-धीरे उसकी बायीं बाजू खराब होने लगती है। अब देखिए, गणेश तत्त्व का कितना संतुलन है । अगर आपने बहुत परिश्रम किया और तकलीफें उठायी, बुद्धि से बहुत मेहनत करी और आगे का, माने भविष्य का बहुत विचार किया (आजकल के लोगों में एक बीमारी लगी हुई है सोचने की), माने बहुत ज्यादा विचार किया और उसमें कहीं संतुलन नहीं रहा तो आपकी बायीं बाजू एकदम खराब हो जाती है । वह जम जाती है और दायीं तरफ अधिक बढ़ जाती है। उससे बायीं तरफ की जो बीमारियाँ हैं वह सब गणेश तत्त्व खराब होने के कारण होती है। उसमें डायबिटीस ये बीमारी श्री गणेश त्त्व खराब होने के कारण होती है। श्री गणेश की जो संतुलन व्यवस्था है, वे यह बीमारी ठीक करने के लिए लगाते हैं। ऐसा मनुष्य तुरन्त काम-काम करता है। उसी प्रकार हृदयविकार (दिल की बीमारी) भी है । अगर आपने बुद्धि से बहुत ज्यादा काम किया तो हृदयविकार होता है। क्योंकि श्री गणेश जी का | स्वस्तिक अपने शरीर में बना है वह दो बाती की तरह दिखने वाली शक्तियाँ होती है और ये एक के अन्दर एक पायी जाती है। एक बायीं तरफ की शक्ति महाकाली की इस तरह आती है व दूसरी दायीं तरफ की शक्ति महासरस्वती की। बीचोबीच जहाँ उनका मिलन बिंदु है वो मिलन बिन्दु केवल महालक्ष्मी शक्ति के बीच की खड़ी रेखा में है । बायें तरफ की सिंपथेटिक नर्वस सिस्टम जो है वह महाकाली की शक्ति से चलती है । माने, इच्छाशक्ति से चालित है। अब किसी मनुष्य की इच्छा के विरोध में बहुत कार्य हुआ और उसकी एक भी इच्छा पूरी नहीं हुई तो वह पागल हो जाता है । उसे हार्टोंटैक (दिल का दौरा) नहीं आता है। हार्ट अॅटैक उन लोगों को आता है जिनको बहुत ज्यादा चाहिए, बहुत प्लॅनिंग चाहिए। वो करना होता है, देशकार्य के लिए निकलते हैं, राष्ट्रकार्य के लिए निकलते हैं। कुछ लोग तो ऐसे ही होते है, ये केवल उनका भ्रम होता है। किसी ने कुछ किया ही नहीं है, किया होता तो वो दिखता। सिर्फ आपस में झगड़े लगाये है। वरना उन्हें हृदय विकार का झटका होता है। मतलब ऊपर कही गयी सारी हुए

बीमारियां अति सोचने से होती हैं। और उसका संतुलन श्री गणेश लाते हैं । ये श्री गणेश का काम है। आपने देखा होगा कि लोग कितनी भी जल्दी में हों, तब भी श्री गणेश का मन्दिर देखते ही नमस्कार कर लेंगे । सिद्धिविनायक के मन्दिर में भी कितनी बड़ी लाइन लगती है। परन्तु उससे कोई लाभ है ? वह करके तब ही फायदा होगा, जब आप में आत्मसाक्षात्कार आया होगा। अगर आप में आत्मसाक्षात्कार आया नहीं तो आपका परमात्मा से कनेक्शन (सम्बन्ध) नहीं होगा। कौन झूठा गुरू है, कौन सच्चा गुरू है, ये भी आपके समझ में नहीं आएगा । मतलब, आपमें ये जो बीज़ श्री गणेश का है, वह कुण्डलिनी उठने पर उसको सर्वप्रथम समझा देते हैं और ये कुण्डलिनी दिखा देती है उस मनुष्य को कौन सी तकलीफ है। अगर किसी को लीवर (जिगर) की तकलीफ होगी तो वह (कुण्डलिनी) वहाँ जाकर धपधप करेगी। आपकी आँखों से दिखाई देगी। अगर आपका नाभी चक्र पकड़ा हुआ होगा या नाभी चक्र पर पकड़ आयी होगी, तो नाभी चक्र के पास कुण्डलिनी जब उठेगी तब आप अपनी आँखों से उसका स्पंदन देख सकते हैं । किसी व्यक्ति को अगर भूतबाधा होगी तो वह पूरी पीठ पर जैसे धकधक करेगी। आपको आश्चर्य होगा । हमने उस पर फिल्म ली है । आपको उसमें धकधक स्पष्ट दिखेगा। कुण्डलिनी हमसे जागृत होती है इसमें कोई शक नहीं है । कुण्डलिनी उठती है परन्तु अगर श्री गणेश तत्त्व खराब होगा तो श्री गणेश उसे फिर नीचे खींच लेते है। वह ऊपर आयी हुई भी वापस नीचे आ जाएगी। मतलब सर्वप्रथम आपको श्री गणेशत्त्व सुधारना पड़ेगा। उनकी खासियत यह है कि अगर कुण्डलिनी को उपर लाकर बाँध दी जाए फिर भी वह नीचे आ जाती है। और उन्होंने गणेश तत्त्व को क्या हानि पहुँचायी वो मुझे पता नहीं। उन्होंने वहाँ क्या कर रखा है ये हमें पता नहीं। पाँच बार ऊपर कुण्डलिनी को उठाया तो भी वह नीचे गिर जाती है। इसलिय इसकी वजह ढूँढने के लिए मैं गुरु जनों के पास भी जा कर आयी हूँ। तभी मैंने देखा कि बहुत से लोग अनुचित तरीके से कार्य करते है। पहले तो वो किसी न किसी कार्य से गणेश तत्त्व को खराब करते है और वो कहते है कि कुण्डलिनी को उठाने के लिए हमें नीचे हाथ ड़रालना पड़ता है। मतलब देखो श्री गणेश तत्त्व अपनी माँ की लज्जा रक्षणार्थ छोटे बालक जैसे वहाँ बैठे हैं और गणेश त्त्व से अपने सेक्स को चालना मिलती है। इसलिय जो लोग ऐसा कहते है कि सेक्स से हम कुण्डलिनी जागृत करेंगे, मतलब वो ऐसा कहते हैं कि श्री गणेश का बुरा संबंध उनकी कुण्डलिनी से, माने उनकी माँ से लगा रहे है। वो वही बैठे है अगर वो उस मार्ग से जाता है तो वो उसे तड़ाक मारते है। हमारे यहाँ बहुत लोग आते है, जो ये कहने के लिए आए कि हमारी कुण्डलिनी जागृत हुई है। मैने कहा, ‘ऐसा क्या? क्या हो रहा है? कुण्डलिनी जागृत होने पर हाथ में ठण्डी हवा आनी चाहिए । किसी किसी लोगों में बहुत गर्मी होती है। वह श्री गणेश तत्त्व के खराब होने से होती है । दिल्ली के पास रहने वाले एक आदमी ने मुझे तार दिया था कि, ‘माताजी, मेरी कुण्डलिनी जागृत हो गयी है। मैं क्या करुँ?’ तब मैं मुम्बई में थी। मैने कहा उसे तार करके बुला लीजिए। पर जब मैं वहाँ से निकली तब वे वहाँ आ गये। तब मेरी भाभी कह रह थी की वे इधर-उधर दौड़ रहे थे । जैसे उन्हें हजारों चिंटीयों या बिच्छूओं ने ड्सा हो। दिल्ली में एक गृहस्थ है डॉ. बत्रा करके, वो ऐसे ही किसी प्रोग्राम में आये हुए थे। वो कहने लगे,’श्री माताजी, एक महिने से मुझे तकलीफ हो रही है।’ उसे हजार बिच्छू काट रहे हैं। तब मैंने कहा दो मिनट बैठिए। उनसे बिलकुल बैठा नहीं जा रहा था । तब मैंने उनके पास जाकर उन्हें शांत

किया पाँच मिनट में । इसका कारण, ये पृथ्वी माता। वे जमीन पर खड़े थे। आप आज जमीन पर बैठे हो मुझे बहुत खुशी हुई। आज बिलकुल सभी बातें मिल गयी हैं। उस पृथ्वी माता ने उनकी सारी गरमी खींच ली। अब आप कैसे पृथ्वी माता से कहेंगे कि हे पृथ्वी माता, आप हमारी सारी गर्मी निकाल लीजिए । वह नहीं निकालेगी, पर सहजयोगी की वह निकाल लेगी। उसका कारण है कि एक बार श्री गणेश तत्त्व आपमें जागृत होने पर वही तत्त्व इस पृथ्वी में होने के कारण, उसी त्त्व पर यह पृथ्वी चलने के कारण, वह सब खींच लेती है । और इसलिए अपने में यह तत्त्व जागृत रखना चाहिए और वह पवित्र रखना चाहिए। इतना ही नहीं सहजयोग में वह सहजयोगी जो पवित्रता की मुर्ति है उसे चलाने वाला बादशाह श्री गणेश है । उस देश में वह राज्य करता है। ऐसे श्री गणेश को तीन बार नमस्कार करके उसका पावित्र्य अपने में लाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। अब जो बातें करनी नहीं चाहिए और जो लोग कहते हैं, जिनका बोल-बाला हआ है और इसी तरह बहुत से तान्त्रिकों ने भी हमारे देश में आक्रमण किया है। उनका आक्रमण राजकीय नहीं है, फिर भी वह इतना बहुत अनैतिक और इतना घातक है कि उस की तकलीफें हम आज उठा रहे हैं। इस तान्त्रिकों ने सारी गन्दगी फैला रखी है। इसका कारण ये है कि उस समय के राजा लोग बहुत ही विलासी, बेपरवाह थे। इस तरह के लोगों के पैसों पर तान्त्रिक ने मजा उड़ाया। ज्यादा पैसा होने से यही होता है; सबसे पहले श्री गणेश तत्त्व खराब । पैसा ज्यादा होने से, वह पहले श्री गणेश तत्त्व के पीछे पड़ता है। जवान लड़कियों के पीछे पड़ना, छोटी, अबोध लड़कियों को सताना, ये सब श्री गणेश तत्त्व खोने की निशानियाँ हैं। ये तान्त्रिक लोग भी यही करते हैं। कोई अबोध नारी दिखायी देने पर उसे मारना। अपनी ही अबोधिता खत्म करना। इससे मालूम होता है कि ये विलासी लोग परमात्मा से दूर रहे हैं। इसी प्रकार अनेक कर्मठ लोग, जिन्होंने परमेश्वर के पास जाने का बहत प्रयत्न किया , फिर भी परमेश्वर उन्हें नहीं प्राप्त हुए। अपने में विलासिता की तरह कर्मठता भी बहुत है । महाराष्ट्र में तो कर्मठता कुछ ज्यादा ही है। मतलब सुबह ६३ बार हाथ धोना जरूरी हैं। किसने बताया पता नहीं! अगर उस औरत ने ६२ बार धोये, ६३ बार नहीं धोये तो उसे नींद नहीं आएगी। कुछ तो बातियाँ बनाना ही चाहिए (महाराष्ट्र में दीपक की बत्तियाँ बनाने का काम बूढ़ी औरतें बहुत करती है।) कुछ अमुक लाख जप होना ही चाहिए। परन्तु जो करना जरुरी है, वह उनसे नहीं होता । मतलब बत्तियाँ बनाते समय अपनी बहुओं की या लड़कियों की बुराईयाँ करना; इस तरह की अजीब बातें हमारे यहाँ हैं। तो कहना है कि सहजयोग इस तरह के लोगों में नहीं फलने वाला। ‘येऱ्या गबाळ्याचे काम नोहे’ (ऐसे ऐरेगैरों का ये काम नहीं )। श्री रामदास जी ने हमारे काम की पूर्वपीठिका बनायी है। अगर आपने ‘दासबोध’ पढ़ा तो आपको कुछ बताने की जरूरत नहीं । (‘दासबोध’ गुरू रामदास जी का लिखा हुआ मराठी ग्रन्थ है।) उन्होंने ये सारा बताया हुआ है और वह सच है। जिस मनुष्य में उतना धैर्य है और जो सचमुच उतनी ऊँचाई का होगा, उसी मनुष्य को सहजयोग प्राप्त होगा । सबको नहीं होगा। मतलब चैतन्य लहरियाँ आएंगी , पार भी होंगे पर उसमें फलने वाले थोड़े है । हमने हजारो लोगों को जागृति दी। क्योंकि लोगों की नजर ही उल्टी तरफ जाती है तो हमें ही जागृत करना पड़ेगा और वैसा ही समय आया है। अगर अब सहजयोग नहीं हुआ तो ये परमेश्वर के घर का न्याय है ये आपको समझ लेना चाहिए। अब ऐसा कुछ नहीं चलेगा। अभी आपको पार होना पड़ेगा। आगे जो कुछ होने वाला है वहाँ पर फिर आपको अवसर मिलने वाला नहीं। उस समय ‘एकादश रुद्र’ आने वाले हैं। एक ही रुद्र इस पूरे विश्व को खत्म करने के लिए काफी है और एकादश माने ग्यारह, जब ग्यारह रुद्र आएंगे तब आप उनकी

कल्पना नहीं कर सकते। वे पूरी तरह खत्म कर देंगे। उससे पहले जिन लोगों को चुनना है वह हो जाएगा। वह न्याय अभी सहजयोग से होगा और लोगों को उसे पाना चाहिए । पर ज्यादातर लोगों का ये होता है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठ जाना और चले जाना। अगर हम कुछ पैसे लेते और पाखंड रचते तो लोगों को पसन्द आता। मतलब मनुष्य के अहंकार को बढ़ावा दिया जाए तो मनुष्य आने के लिए तैयार है। परंतु सहजयोग में कहना तो ये है कि सब परमात्मा का कार्य है। तो ये सब सहज घटित होता है। उसे पैसे की जरूरत नहीं है। एक फूल से जैसे फल बनता है, वैसे ही आपका भी होने वाला है। जिस तरह आपको नाक, आँखें, मुँह और ये स्थिति मिली है, उसी तरह ‘अतिमानव स्थिति’ परमेश्वर ही आपको देने वाले हैं, ये उनका दान है । वह आपको जो दे रहे हैं उस में आप कुछ नहीं बोल सकते । ये भूमिका मानने को मनुष्य बिल्कुल तैयार नहीं है। उसे इतना अहंकार हुआ है कि | उसे लगता है मैं जब तक सर के बल दस दिन खड़ा नहीं होऊँगा तब तक मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है। पहले ये समझना चाहिए कि जिस परमात्मा ने ये अनन्त चीजें बनायी हैं उसमें से हम एक भी नहीं तैयार कर सकते । कोई भी जीवन्त कार्य आप नहीं कर सकते, वहाँ हम अतिमानव कैसे बने। परन्तु इतना ही होता है कि पार होने पर मनुष्य मनुष्य योनि में ही मालूम होता है कि मैं पार हो गया हूँ। ये पहली बात है। दूसरी, उसमें वह शक्ति आती है कि जिससे वह दूसरों को पार करा सकता है। उसमें से वह शक्ति बहने लगती है। वह एक-एक करके अनेक हो सकता को है। मतलब उसे देवत्त्व प्राप्त होता है । वह स्वयं देवत्त्व में उतरता है। अब ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अच्छे- अच्छे गुरु बनाये हैं। गुरू बड़े-बड़े हैं, पर उनके शिष्यों में मैंने देवत्व आया हुआ नहीं देखा । उनमें परिवर्तन नहीं | हुआ। वे जहाँ पर हैं वहीं पर हैं। क्योंकि, शिष्य भी हुए तो भय के कारण, या श्रद्धा से वे पूरी तरह घटित नहीं हुए हैं। वह घटना घटित नहीं हुई है। वह परिवर्तन अन्दर से नहीं आया है। मतलब इनकी अगर जड़ें ही ठीक करनी हैं। या फूल का फल बनाना है तो पूर्णत: बदलना पड़ता है । ऐसी स्थिति अभी किसी की नहीं आयी है । तो कहना ये है | कि उसके लिए अपना श्री गणेश तत्त्व जागृत होना चाहिए। उसे आपको सर्वप्रथम संभालना चाहिए। आजकल के जमाने में हम तरह-तरह के सिनेमा नाटक देखते हैं, विज्ञापन देखते हैं और पढ़ते हैं। विज्ञापन तो पूरी तरह कुछ अश्लीलता से भरे रहते हैं और पूरी तरह की उनमें अपवित्रता है । और ये जो शहरों में हुआ है वही अब गाँवो में भी गया है। उससे कुछ लोग इतने दुःखी हैं कि अब रात-दिन उनकी योजना बन रही है कि हम किस प्रकार आत्महत्या करें। यह उनकी स्थिति है। तो आपने उनके मार्ग पर चलते समय ठीक से सोचना चाहिए । उसी प्रकार रूढ़ीवादी लोगों को सोचना होगा, हर एक पुरानी बात हम क्यों कर रहे हैं? हम मनुष्य स्थिति तक आये हैं, तो हमको इसका अर्थ जानना होगा। जिन्दगीभर वही-वही बातें करने में कोई अर्थ नहीं है । जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को त्त्वत: | छोड़ रहे हैं वैसे-वैसे वे केवल परमेश्वर के नाम से चिपके हुए हैं। सुबह उठकर भगवान को दिया दिखाया, घंटी बजायी कि हो गया काम पूरा । इस तरह का बर्ताव करने वाले लोग हैं ; उन्हें समझ लेना होगा कि इस तरह की फिजूल की बातों से परमात्मा कदापि प्राप्त नहीं होंगे। परमात्मा आप में है। उन्हें जागृत करना पड़ेगा और हमेशा जागृत रखना पड़ेगा, और दूसरों में वह जागृत करना चाहिए । कुण्डलिनी माँ है और श्री गणेश उनकी कृति हैं और श्री गणेश उनकी जड़ है। के हाथ में क्या है ये आपने देखा आप में जो कुण्डलिनी है वह श्री गणेश के हाथ पर घूमती है। श्री गणेश

होगा। उनके पेट पर एक सर्प बंधा रहता है। यों कहा जाए तो श्री गणेश के चार ही हाथ हैं, परन्तु सच कहा जाए तो उनके अनन्त हाथ हैं। जिस हाथ में सर्प दिखाते हैं वही ये कुण्डलिनी है । उसी प्रकार हमारे सहजयोगियों का है । आश्चर्य की बात ये है कि सहजयोगी ये जो पार होते हैं उनके हाथ पर कुण्डलिनी चढ़ती है । उनके हाथ ऊपर करते ही दूसरों की कुण्डलिनी ऊपर उठती है। मतलब अब छोटा सा सहजयोगी लड़का भी कुण्डलिनी ऊपर उठाता है। दो-दो साल के बच्चे, पाँच-छः महीने के बच्चे आपको कहेंगे, आपकी कुण्डलिनी कहाँ पर अटकी है, उसकी क्या स्थिति है। मेरी नाती सात-आठ महीने की थी, तब ये श्री मोदी मेरे यहाँ आए थे, और उनका आज्ञा चक्र पकड़ा में हुआ था तो बातें करते करते उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह घुटनों पर चलते चलते अपने हाथ कुमकुम की ड़िबिया लेकर आयी और उनके माथे पर कुमकुम लगाया और उनका आज्ञाचक्र उसने छुड़ाया । हर वक्त उसका यही काम हुआ करता था। यही मैंने मेरे और सहजयोगियों के बच्चों में देखा है। कितने लोग जन्म से ही पार हैं । जन्म से पार होना कितनी बड़ी बात है। मतलब, साक्षात जन्म से ही पार अब संसार में पैदा हो रहे हैं। उसके लिए सन्यास की जरूरत नहीं है। जिसे सन्यास लेने की जरूरत लगती है समझो वे अभी तक पार नहीं हुए | हैं । पार होने के बाद आप अन्दर से छूटते जाते हैं। ऐसा होने से संन्यास बाहर से लेने की जरूरत नहीं है । यदि | हैं तो अन्दर से सन्यास लिया है तो उसका प्रदर्शन व विज्ञापन करने की क्या आवश्यकता है? अगर आप पुरुष आप के चेहरे को देखकर ही लोग कहेंगे ये पुरुष है या स्त्री है । उसका आप विज्ञापन लगाकर तो नहीं घूमते कि हम पुरुष हैं, हम स्त्री हैं। उसी तरह ये हो गया। आप मन से सन्यासी हैं तो बहुत कुछ होने पर भी अन्दर से इस शरीर में सांसारिक, पारमार्थिक सुख, समाधान वरगैरेह सहजयोग में सहज मिलता है । उसके लिए संन्यास से (प्रपंच से) जाने की भी आवश्यकता नहीं है। श्री शंकर जी की जो स्थिति है या कहिए श्री शंकर जी ने जो स्थिति प्राप्त करी है | १ उसके लिए उन्हें भी श्री गणेश निर्माण करने पड़े । उसी प्रकार आपको भी श्री गणेश निर्माण करने होंगे । अभी ये कहा जा रहा है कि हिन्दुस्तान में जन संख्या बहुत अधिक है। मैं कहती हूँ कि और कहाँ बढ़ेगी जन संख्या। इग्लैंड में माईनस हो रही है, जर्मनी में माईनस हो रही है, अमरिका में माईनस हो रही है, वहाँ कोई समझदार जन्म ही नहीं ले सकता। वे सब अपने इधर ही आऐंगे। क्योंकि वहाँ हर आठ दिन में बच्चों को माता-पिता मारते है। ये वहाँ का सांख्यिकी है। तो कौन समझदार वहाँ जन्म लेगा। मजे की बात देखिए, वहाँ की भाषा में ‘दूडदूड धावणे’ (छोटे बच्चे का मंदगति से क्रीड़ामय आमोदकारी भागना- दौड़ना) इस क्रिया का प्रतिशब्द ही नहीं है । छोटे बच्चों को वे कभी भागते दौड़ते हुए देखते भी हैं कि नहीं पता नहीं। यहाँ ‘दूडदूड धावणे’ वात्सल्य रस है। अपने यहाँ श्री कृष्ण का, श्रीराम का बचपन का वर्णन पढ़ते समय आनन्द होता है । परन्तु आपको उनकी भाषा में येशु ख्रिस्त का बचपन का वर्णन कहीं नहीं मिलेगा। पाश्चिमात्य देशों में नयी-नयी मूर्खतापूर्ण कल्पनाऐँ बनाकर उन्होंने अपने जीवन से अबोधिता खत्म कर दी है । वे कहते हैं, बच्चों ने दुबला-पतला रहना है। पुष्ट नहीं होना है क्योंकि उनके आदर्श सिनेमा के अभिनेता, अभिनेत्रियाँ है । वहाँ पर सभी तरह की सुबत्ता और सुविधा होते हुए भी वहाँ के लोग बच्चों को प्यार नहीं देते । छोटा बच्चा जन्मने पर उसकी माँ उसकी हिन्दुस्तानी माँ की तरह परवरिश नहीं करती, उसे एक कमरे में ड्ाल देती है। इसलिए बचपन में वहाँ के बच्चों को माँ की ममता व प्यार नहीं मिलता। बचपन से ही वे अपने बच्चों को

अलग कमरे में ड्राल देती है और कुत्ते और बिल्ली को मात्र अपने बेडरुम में रखती है। जब मेरी बेटी और उनके बच्चे आने वाले थे तब हमारे साहब (पति)की सेक्रेटरी जिनको कोई बच्चा नहीं था, वे कहने लगी कि, ‘आप अपसेट होंगी?’ मैंने कहा, ‘क्यों? बच्चें आ रहे हैं इसलिए मैं बहुत खुश हूँ। वे बोली, ‘नहीं, आपका घर गन्दा हो जाएगा।’ मैंने कहा होने दो गन्दा । हमारे यहाँ ऐसे विचार तक नहीं आते । मतलब, अगर आप गणेश तत्त्व की ओर ध्यान नहीं दोगे तो वह अहंकारी हो जाता है। जो बड़े राजकीय नेता होते है, उनका चारित्र्य अगर आप देखे तो एकदम जीरो (शून्य)। उसका कारण यही है (अहंकार)। क्योंकि मनुष्य को इगो हो जाने पर वह दायीं तरफ से बढ़ने लगता है । दायीं बाजू के बढ़ने से इगो आता है और इगो आने से श्री गणेश ये क्या है? और श्री गणेश तत्त्व क्या है? पवित्रता माने क्या? ‘मैं ही सबकुछ हूँ’, ऐसा जो समझता है उसका श्री गणेश तत्त्व नष्ट हो जाता है। परन्तु उसका एक सुन्दर उदाहरण है-सन्यास लेना और विवाह नही करना। घर से ये भी दूसरे ही लोग हैं। श्री गणेश तत्त्व अगर आप में बाहर रहना और दूसरे किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रखना। जागृत है तो संसार में रहकर ही आपको परमेश्वर प्राप्ति होगी और देवत्व चाहिए तो भी संसार में रहना होगा । अगर आपने बहुत तीव्र और कठिन वैराग्य का पालन किया तो ब्रह्मर्षिपद मिल सकता है। परन्तु मुझे ऐसा महसूस होने लगा है कि ब्रह्मर्षि भी बहुत पहुँचे हुए हैं। मैं जानती हूँ उन लोगों को, परन्तु वे अब कुछ करने को तैयार नहीं है, उनमें इतनी आन्तरिकता, आत्मीयता नहीं और वे मेहनत करने को भी तैयार नहीं है । मुझे कभी – कभी बहुत दुःख होता है। उनकी भावना है कि ये जो भक्त लोग हैं, उन भक्तों की अभी तक कुछ भी तैयारी नहीं है । पर, अगर मेहनत की तो हम तैयारी कर सकते हैं, और उसे (भक्त को ) आगे बढ़ा सकते हैं । बहुत बार मुझे लगता है ये सभी मेरी मदद के लिए अब दौड़कर आएं तो कितना अच्छा होगा । मुझे बहुत मानने वाले एक कलकत्ता के पास है, उनका नाम श्री ब्रह्मचारी है और वे बहुत पहुँचे हुए हैं । उन्होंने मेरे बारे में किसी अमेरिकन मनुष्य को कहा कि श्री माताजी अब साक्षात आयी हैं तो हम अब उनका काम देख रहे हैं। हमें भी यही काम करना है और कुछ राक्षसों का नाश हम मनन-शक्ति से करते हैं। वे मेरे पास आने पर, मैंने उन्हें कहा, आप अमेरिका क्यों नहीं जाते ? वे अमेरिका गए परन्तु वहाँ से पाँच दिनों मे भाग आये और मुझे कहने लगा, मुझे ऐसे लोगों से नहीं मिलना है, वे एकदम गन्दे लोग हैं । मतलब ये ब्रह्मचारी जैसे लोग, मनुष्यों में न रहने की वजह से, एकदम ‘माणुसघाणा’ (मनुष्य जिसे में से बदबू आए ऐसा) हुए हैं। ऐसा ही करना चाहिए। ऐसे कोई साधु-सन्त आने पर आप ज्यादा से ज्यादा उनके चरणों पर | जाओगे। उनपर श्रद्धा रखोगे, उसके कारण आपकी स्थिति में सुधार आएगा । पर फिर आपके साक्षात्कार का क्या? क्योंकि उसके लिए हाथ चलाने पड़ते हैं | बच्चे को ठीक करना है, उसे संभालना है तो माँ को गन्दगी में हाथ | ड़रालना पड़ता है। अगर वह ‘गन्द-गन्द’ कहने लगी तो बच्चे को कौन साफ करेगा? और इसलिए, ये एक माँ का ১ काम है और वही हम सहजयोग में करते हैं। आप सब उसमें नहा लीजिए, उसका आनन्द उठाइये, यही एक माँ की इच्छा है। माँ की एक ही इच्छा होती है, अपनी शक्ति अपने बच्चे में आनी चाहिए। जब तक सामान्यजन उसमें से कुछ प्राप्त नहीं करते और जब तक उनको अपनी माँ की शक्तियाँ नहीं प्राप्त होती, तो ऐसी माँ का क्या फायदा? ऐसी माँ होने से तो न हो तो अच्छा। तो जिन को माँ या गुरू माना जाए, अपने से बड़ा माना जाए, उन्होंने अगर ‘स्व’ का मतलब नहीं जाना, तो आपको उनके जीवन से क्या आदर्श मिलने वाला है? सहजयोग में ‘स्व’ का मतलब है, आपकी आत्मा ।

मूलाधार चक्र पर श्री गणेश का स्थान कैसे है, उसमें कुण्डलिनी की आवाज कैसे होती है और कुण्डलिनी कैसे घूमती है, हर-एक पंखुडी में कितने तरह-तरह के रंग हैं और वे किस तरह पंखुडी में रहते हैं और सारा शोभित करते हैं, वगैरा बहुत कुछ है । उसका सब ज्ञान आपको मिलना चाहिए और वह मिलेगा और उसमें से हम कुछ भी छिपा कर नहीं रखेंगे। हर-एक बात हम आपको बताने के लिए तैयार हैं परन्तु आपको भी तो पार होकर पुरुषार्थ करना होगा । आपने पुरुषार्थ नहीं किया तो आपको कोई फायदा नहीं होने वाला। | कैसे करें ? में क्या करना चाहिए यह सवाल लोगों का रहता है। श्री माताजी, गणेश का पूजन अब पूजा क्योंकि हम ‘परोक्ष विद्या’ जानते हैं, जो आपको दिखाई नहीं देता, जिसे नानक जी ने ‘ अलख’ कहा है । उस आँख से हम देखते हैं। जो हमें कहना है, सर्वप्रथम देखिए आप में पावित्र्य है कि नहीं। स्नान वरगैरा करना ये तो है ही, परन्तु उसका इतना महत्त्व नहीं है, वह अगर न भी हो तो कोई बात नहीं। एक मुसलमान भी श्री गणेश पूजा बहुत अच्छी करता है। आपको आश्चर्य होगा , अल्जीरिया के करीब पाँच सौ मुसलमान सहजयोगी हैं। जवान लड़के- लड़कियाँ पार हुए हैं। परन्तु उनका प्रमुख जो है, उसका नाम है श्री जमेल और वह श्री गणेश पूजा इतनी सुन्दर करता है कि देखने लायक है। श्री गणेश को रखकर स्वयं उनकी सुन्दर पूजा करता है । मतलब सहजयोग में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी आते हैं, और फिर उनके देवी – देवता कैसे सहजयोगी में हैं, वह उसमें दिखाया है। अब ये श्री गणेश तत्त्व आज्ञा चक्र पर आकर श्री येशू क्रिस्त के स्वरूप में संसार में आए हैं। देवी महात्म्य, अर्थात देवी भागवत, जो मार्कण्डेय जी ने लिखा है, ये आप पढ़िये। उसमें जो श्री महाविष्णु का वर्णन है, वह आप पढ़िये। उन्होंने कहा है, श्री राधा जी ने अपना पुत्र तैयार किया था, जिस तरह श्री पार्वती जी ने किया था। परन्तु श्री गणेश तत्त्व उनमें मुख्य तत्त्व है और उस श्री गणेश तत्त्व पर आधारित जो पुत्र बनाया था वह इस संसार में श्री येशु क्रिस्त बनकर आया। अब ‘क्रिस्त’ क्योंकि, राधाजी ने बनाया था इसलिए कृष्ण के नाम पर वह श्री क्रिस्त हुआ और यशोदा है वहाँ इसलिए येशु। और इसी तरह उन्होंने ये जो गणेश तत्त्व है, उसको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया, वह श्री क्रिस्त स्वरूप में है। अब ये अपने आपको ईसाई कहने वालों को मालूम नहीं है कि ये येशू क्रिस्त पहले श्री गणेश थे और ये श्री गणेश तत्त्व का अविर्भाव है । वह अब एकादश रुद्र में किस तरह आने वाला है वह में आपको बाद में बताऊँगी। कहने का मतलब है कि मूलाधार चक्र पर जो श्री गणेश परशु हाथ में लेकर सबको धाड़-धाड़ मारते थे, वही आज्ञा चक्र पर आकर क्षमा का एक तत्त्व बन गये। क्षमा करना ये मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार है। यह एक साधन होने से उसे हाथ में तलवार भी नहीं चाहिए। केवल उन्होंने लोगों को क्षमा किया तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी । इसलिए आजकल के जमाने में सहजयोग में जिसका आज्ञा चक्र पकड़ता है उसे हम इतना ही | कहते हैं, ‘सबको माफ करो’। और उससे कितना फायदा होता है, वह अनेक लोगोंको पता है? और सहजयोगी लोगों ने उसे मान्यता दी है। देखा है, सब कुछ सहजयोग में प्रत्यक्ष में है । अगर आपने क्षमा नहीं की तो आपका आज्ञाचक्र नहीं खुलने वाला, आपका सिरदर्द नहीं जाने वाला और आपका टयूमर भी नीचे नहीं आने वाला। इसलिए क्षमा करना जरूरी है, क्योंकि जब तक नाक नहीं पकड़ो तब तक मनुष्य कोई बात मानने के लिए राजी नहीं है । इसलिए ये सभी बीमारियाँ आयी हैं, ऐसा मुझे लगने लगा है, क्योंकि कितना भी मनुष्य को समझाओ फिर भी वह एक पर एक अपनी बुद्धि चलाता है। इसका मतलब है

आपको अभी अपना अर्थ नहीं मालूम हुआ है। आपका संयन्त्र जुड़ा नहीं है, पहले उसे जोड़ लीजिए, पहले आत्म-साक्षात्कार पा लीजिए, यही हमारा कहना है। उसमें अपनी मत चलाइए । जो विचारों से, पुस्तकें पढ़कर नहीं होता, वह अन्दर से होना चाहिए। ये घटना घटित होनी चाहिए । कभी – कभी इतने महामूर्ख लोग होते हैं, । वे कहते हैं, अजी हमारा तो कुण्डलिनी जागरण हुआ ही नहीं है। देखिए, विशेषत: शहरों में, गाँवो में नहीं हम कैसे? मतलब, बहुत अच्छे हैं आप। क्या कहने? अगर आपका कुण्डलिनी जागरण नहीं हुआ है तो आप में कोई बहुत बड़ा दोष है। शारीरिक हो, मानसिक हो, बौद्धिक हो उसे निकलवा लीजिए । वह कुछ अच्छा नहीं है। साफ होना पड़ेगा। साफ होने के बाद ही आनन्द आने वाला है । यह जानना होगा। फिर सब कुछ ठीक होगा। | अब जो अहंकार का भाव है वह श्री गणेश जी के चरणों में अर्पण कीजिए । श्री गणेश की प्रार्थना करिए, ‘हमारा अहंकार निकाल लीजिए ।’ ऐसा अगर आपने उन्हें आज कहा तो मेरे लिए बहुत आनन्द की बात होगी क्योंकि श्री गणेश जैसा सबका पुत्र हो, ऐसा हम कहते हैं। उनके केवल नाम से हमारा पूरा शरीर चैतन्य लहरियों से नहाने लगता है। ऐसे सुन्दर श्री गणेश को नमस्कार करके आज का भाषण पूरा करती हूँ। |