सेमिनार प्रथम दिवस ,बीज मंत्र,श्रीललिता,श्रीचक्र
(ईस्ट हैम्पस्टेड पार्क कॉन्फ्रेंस सेंटर,वर्किंगघम, ब्रैकनैल, इंग्लैंड)
14 अक्टूबर 1979
जब कुंडलिनी जागृत होती है,वह ध्वनि उत्पन्न करती है।और जो ध्वनि विभिन्न चक्रों में सुनाई देती है निम्न रूप में उच्चारित की जा सकती है-ये उच्चारण देवनागरी की ध्वन्यात्मक भाषा में प्रयुक्त किये गए हैं,जिसका अर्थ होता है ‘देवों के द्वारा बोली गई भाषा‘।
मूलाधार पर जहाँ चार पंखुड़ियाँ हैं,ध्वनियाँ हैं ÷ व् श् ष् स्
जिसमें से अंतिम ‘ष’ और ‘स्’ ध्वनियाँ काफी समध्वनि हैं,परन्तु अंतर है -जब साँप फुफकारता है तो यह ‘ष’ -तीसरी ध्वनि बनती है, तो व् श् ष् स् ।
स्वाधिष्ठान पर, जहाँ छः पंखुड़ियाँ हैं, यह ध्वनि निर्मित करती है। छः ध्वनियाँ- ब् भ् म् य् र् ल्
मणिपुर -इसकी दस पंखुड़ियाँ हैं, यह ध्वनि निर्मित करती है- ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न् प् फ्
अनाहत पर बारह पंखुड़ियाँ हैं, यह ध्वनियाँ निर्मित करती है- क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ट् ठ्
विशुद्धि पर, जहाँ सोलह पंखुड़ियाँ हैं, यह सभी स्वरों की ध्वनि निर्मित करती है- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः
आज्ञा पर यह निर्मित करती है- ह् क्ष्
सहस्रार पर व्यक्ति निर्विचार हो जाता है और कोई ध्वनि नहीं निर्मित होती, लेकिन शुद्ध अनहद अर्थात् शुद्ध स्वरुप में धड़कन जैसे कि हृदय में होती है {लब डब लब डब लब डब}
जब ये सभी ध्वनियाँ एक साथ ध्वनित होती हैं और देह की कुंडली से गुजरती हैं,अगर देह एक शंख समान हो , तो संश्लेषण से जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह है- ॐ । जैसे सूर्य के सात रंग अंततः सफेद किरणों में परिवर्तित हो जाते हैं या आप कह सकते हैं सुनहरी किरणों के रंग में।
तीन ग्रन्थियाँ होती हैं अर्थात् गिठानें: ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि व् रुद्रग्रन्थि।
अग्नि के साथ (अर्थात् फायर) जब ब्रह्मग्रंथि मिलती है कुंडलिनी के मध्य स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्र से- अर्थात् मूलाधार, मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र- तब अग्नि ब्रह्मग्रंथि स्थापित होती है।
विष्णुग्रंथि जब मिश्रित होती है सूर्य के साथ, जो कि नाभि व् हृदय चक्र के मध्य है, सूर्य विष्णुग्रंथि स्थापित होती है।
जब विशुद्धि और आज्ञा की आभा मिलती हैं तो चंद्र रुद्रग्रन्थि स्थापित होती है।
कुल मिलाकर चौदह नाड़ियाँ हैं। उनके नाम हैं- अलम्बुसी, कुहू, यशोधरी, गंगा, हस्तिजिव्हा, यशस्वती,अश्विनी,गांधारी,पूषा,शंखिनी,सरस्वती,इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना
सूर्य व् चंद्र इन दो चक्रों के अलावा नौ अन्य चक्र होते हैं- मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र,विशुद्धि चक्र, लम्बिका चक्र (इसे हम्सा चक्र भी कहते हैं), आज्ञा चक्र,आज्ञा व् सहस्रार के मध्य दो लघु चक्र होते हैं- जो नाद,बिंदु के नाम से जाने जाते हैं। तो हमारे पास हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत , विशुद्धि, लम्बिका(जिसे सोऽहं कहा जाता है)जिसे हम्सा कहा जाता है,आज्ञा, नाद, बिंदु ,सहस्रार।
इनके अलावा बाजू में नौ चक्र होते हैं, जैसे श्री ललिता।
और उनमें विभिन्न योगिनियाँ (yoginis)होती हैं अर्थात् शक्तियाँ(The Shaktis), जो निर्देशित करती हैं उन नौ शक्ति पीठों को या आप उन्हें कह सकते हैं आवरण नाम चक्र।
सर्वप्रथम हैं श्री ललिता, देवी श्री ललिता, जो कि सौंदर्य की देवी हैं। ये अनंदप्रदायिनी हैं- सर्वानंदमय, हर वस्तु से आनंद देने वाली। प्रत्येक सृजित विश्व में,प्रत्येक कण में, प्रत्येक रूप में, यह एक शक्ति हैं जो हमें आनंद देती हैं। यह शक्ति आनंद है, यह शक्ति श्री ललिता की है। यह महात्रिपुरसुन्दरी कहलाती हैं- परापराअतिरहस्ययोगिनी अर्थात् परा परा अति रहस्य- वह जो हर गुप्त बात जानती हैं। परा परा अर्थात् वह जो परे के भी परे हैं,उस क्षेत्र की गुप्त बातें जो जानती हैं वे हैं श्री ललिता, जो योगिनी हैं। इस स्थिति में वे हैं बिन्दुसर्वानंदमय, वह बिंदु हैं जो आनंददायक है।
द्वितीय शक्ति या आवरण अर्थात् परत- त्रिकोण रूप है। यह सर्वसिद्धिप्रद है। ये ही वह हैं जो सभी सिद्धियाँ देती हैं। इनके तीन पक्ष हैं- ये कहलाती हैं त्रिपुराम्बा। कामेश्वरी, (वधूवेश्वरी?), भगमालिनी ये तीन योगिनियाँ हैं।
तृतीय कहलाता है अष्टारसर्वरोगहर, यह अन्य आवरण है। देवी का नाम है त्रिपुरसिद्धाअतिरहस्य अर्थात् ये देवियाँ सभी सिद्धियों के गुप्त गहन रहस्य जानती हैं। चक्र कहलाता है ‘सर्वरोगहर’ और आवरण कहलाता है ‘अष्टार’ ।
आठ शक्तियाँ ‘वाग्देवता’ कहलाती हैं अर्थात् वाणी की शक्ति। प्रथम है ‘वशिनी’ अर्थात् जो आकर्षित करती हैं, ‘कामेश्वरी’ जो उत्तेजित करती हैं, ‘मोदिनी’ जो आपको प्रसन्न करती हैं, ‘विमला’ जो आपको स्वच्छ करती हैं, ‘अरुणा’ जो आपके मुख को रंग प्रदान करती हैं, ‘जयिनी’ जो अपको विजय की भावना देती हैं, ‘सर्वेशी’ जो आपको सबसे जोड़ती हैं, ‘कौलिनी’ वह हैं जो आपको वरदान देती हैं।
चौथी परत को कहा जाता है अन्तर्दशार। इस चक्र के आवरण को सर्वरक्षाकर– वह जो रक्षा करता है, कहा जाता है। इसकी देवी त्रिपुरमालिनी कहलाती हैं। शक्तियाँ हैं- सर्वज्ञा- वह जो सब कुछ जानती हैं, सर्वशक्ति- सर्वाधिक शक्तिशाली हैं, सर्वेश्वर्यप्रदा- सभी ऐश्वर्य को देने वाली, सर्वज्ञानमयी- समस्त ज्ञान की दाता, सर्वव्याधिविनाशिनी- सभी रोगों का नाश करने वाली, सर्वाधारस्वरूपा- सभी का आधार(पूर्ण आधार), सर्वपापहरा देवी- समस्त पापों की विध्वंसक, सर्वानंदमयी- वह जो प्रत्येक को आनंदमय बनाती हैं, सर्वरक्षास्वरूपिणी- वह जो सबकी रक्षा करती हैं, सर्वेप्सितफलप्रदा- सभी फल प्रदान करने वालीं- अर्थात् फल,पुरस्कार।
पाँचवाँ आवरण बहिर्दशारसर्वार्थसाधक कहलाता है, बहिर्दशार आवरण का नाम है और सर्वार्थसाधक चक्र का नाम है। त्रिपुराक्षी- त्रिपुराश्री देवी का नाम है। इन देवी की शक्तियाँ हैं – सर्वसिद्धिप्रदा- ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं, सर्वसम्पत्प्रदा- ये वह हैं जो सभी सम्पत्तियाँ प्रदान करती हैं, सर्वप्रियंकरी- ये वह हैं जो सभी की प्रिय हैं, सर्वमंगलकारिणी- ये वह हैं जो सब कुछ शुभ देती हैं, सर्वकामप्रदा- वह जो सभी कुछ इच्छित प्रदान करती हैं, सर्वदुःखविमोचनी- वह जो हमारे सभी दुखों का विध्वंस करने वाली हैं, सर्वमृत्युशमनी- वह जो- जो मृत्यु का शमन करती हैं, सर्वविघ्ननिवारिणी- ये वह हैं जो समस्त विघ्नों का निवारण करती हैं, सर्वाङ्गसुन्दरी- वह जो सब कुछ हैं- जो जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रसन्नमय बनाती हैं, सर्वसौभाग्यदायिनि- वे जो अच्छे भाग्य को देने वाली हैं।
छठा आवरण चतुर्दशारसर्वसौभाग्य नाम से जाना जाता है। त्रिपुरवासिनी देवी का नाम है, आवरण का नाम चतुर्दशार है और चक्र का नाम सर्वसौभाग्यदायिनि है। देवी का नाम त्रिपुरवासिनी है। शक्तियाँ हैं- सर्वसंक्षोभिणी- वह जो सब कुछ जला देती हैं, सर्वविद्राविनी- वह जो विद्रोह कर सकती हैं, सर्वाकर्षिणी- वह जो सब कुछ आकर्षित करती हैं, सर्वाह्लाददायिनी- वह जो सबको आनंद देती हैं, सर्वसम्मोहिनी- वह जो सबको मोहित कर सकती हैं, सर्वस्तम्भिनी- वह जो सबको स्तंभित चौकन्ना कर देती हैं, सर्वजम्भिणी, सर्ववंशकरी- वह जो हैं- जो सबकी नियंत्रक हैं, सर्वरञ्जिनी- वह जो सबका मनोरंजन करती है, सर्वोन्मदिनी- ये वह हैं जो सभी विशेष आनंद प्रदान करती हैं, सर्वार्थसाधिनी- वह जो सभी के अर्थ प्रदान करती हैं, सर्वसम्पत्तिपूरिणी- वह जो सब कल्याण प्रदान करती हैं, सर्वमन्त्रमयी- वह जो सब मन्त्रों में निवास करती हैं, सर्वद्वंद्वक्षयंकरी- वह जो जीवन के सभी द्वंद्वों का नाश करती हैं।
सप्तम आवरण या परत अष्टदल कहलाता है और इस आवरण के चक्र को सर्वसंक्षोभणकारण कहते हैं। वहाँ पर वह त्रिपुरसुन्दरी कहलाती हैं।
ये वह हैं जो स्त्री को सौंदर्य प्रदान करती हैं, आकर्षक पत्नी बनने के लिए। अनङ्गकुसुमा- वह अनेक पुष्पों की गंध से सुगन्धित है, अनङ्गमेखला- वह चट्टान सम दृढ़ विवेक है परिवार का, अनङ्गमदना देवी- वह जो आकर्षक हैं, अनङ्गमदनातुरा देवी- वह जो मिलन की इच्छा देती हैं, अनङ्गरेखा देवी- वह जो विभिन्न सीमाओं का नाश करती हैं, अनङ्गवेगिनी देवी- वह जो आपको गति देती हैं, अनङ्गांकुशा देवी- वह जो अंकुश की शक्ति देती हैं; मानव के नियंत्रण की, अनङ्गमालिनी देवी- वह जो अत्यंत शालीन हैं।
अष्टम् आवरण षोडशदल कहलाता है, चक्र का नाम सर्वाशापरिपूरक है। देवी का नाम त्रिपुरेश्वरी है।
ये वह हैं जिनके पास सोलह शक्तियाँ हैं। प्रथम है काम- अर्थात् देह का आकर्षण, बुद्धि- मस्तिष्क से आकर्षण, अहंकार- अहंकार के द्वारा आकर्षण, चौथा शब्द- शब्दों के द्वारा आकर्षण, पाँचवाँ है स्पर्श- स्पर्श द्वारा आकर्षण, छठा सौंदर्य के द्वारा आकर्षण, सातवां सौन्दर्यशास्त्र द्वारा आकर्षण – रस, आठवां गंध- खुशबू के द्वारा आकर्षण, नवाँ चित्त के द्वारा आकर्षण -चित्त, दसवाँ धैर्य- साहस के द्वारा आकर्षण, ग्यारहवां स्मृत्य- स्मृति द्वारा आकर्षण, बारहवाँ नाम- नाम के द्वारा आकर्षण, तेरहवाँ है बीज- बीज के द्वारा आकर्षण, चौदहवाँ है आत्मा- आत्मा के द्वारा आकर्षण, पंद्रहवाँ अमृत द्वारा आकर्षण, सोलहवाँ देह की ऊष्मा द्वारा आकर्षण। ये वह सब आकर्षण हैं जो सूक्ष्म हैं व् देवी में होते हैं, जो इस प्रकार कार्यान्वित होते हैं जिससे साधक उनके प्रति आकर्षित होते हैं।
नौवाँ कहलाता है भूपुर आवरण जबकि चक्र का नाम है त्रैलोक्यमोहन, देवी का नाम त्रिपुरा है। इस चक्र में दस शक्तियाँ हैं। प्रथम है सर्वसंक्षोभिणी, सर्वविद्राविनी, सर्वाकर्षिणी; ये तीन पहले ही समझा दी गयी, सर्ववंशकरी- यह भी बता दी गई है, सर्वोन्मादिनी- वह जो उत्तेजित करती है(व्यक्ति को?), सर्वमहांकुशा- वह जक नियंत्रक है; यहाँ अंकुश का अर्थ है वह अस्त्र जो महावत द्वारा उपयोग में लाया जाता है,तो जिस प्रकार से वह हाथी को नियंत्रण में रखता है उसी प्रकार वह अबको नियंत्रण में रखती हैं, सर्वखेचरी- वह जो सबको आकर्षित करती हैं, सर्वबीजा- वह जो सबमें बीजस्वरूप हैं, सर्वयोनि- वह जो सभी योनियों में विद्यमान हैं और सर्वत्रिखंडा- वह जो सभी तीन आयामों में उपस्थित हैं। योनि का अर्थ दीर्घवृत्त है जो कि माँ की शक्ति है।
इन सबके अलावा अन्य देवियाँ हैं; जो पीली रेखा (रोशनी) के रूप में विद्यमान हैं जिन्हें मुक्तशक्तया कहते हैं। मातृका देवियाँ कही जाती हैं। मातृका देवियाँ कही जाती हैं – माहेन्द्री, चामुण्डा और महालक्ष्मी। सिद्धियां जो लोग प्राप्त करना चाहते हैं वो हैं –अणिमा, लघिमा, महिमा, ईशत्व, वशित्व, प्राकाम्य, भुक्ति, इच्छा, प्राप्ति, मुक्ति।
अणिमा- एक छोटे अणु जितना हो जाना, लघिमा- अर्थात् छोटा होना, महिमा- बड़ा स्वरूप धारण करना, ईशत्व- साधारण मानव से भगवान का सृजन करना, वशित्व- आकर्षण है, प्राकाम्य- अभिव्यक्ति है, भुक्ति- आनंद उठाना है, इच्छा की पूर्ति है, प्राप्ति- प्राप्त करना, मुक्ति- मोक्ष है। ये सब वह सिद्धियाँ हैं जो सहजयोगी को प्राप्त हो सकती हैं।
भाग 2- ( श्रीमाताजी माइक्रोफोन में 7 बार श्वांस छोड़ रही हैं )
श्रीमाताजी– अब ( 7 बार माइक्रोफोन में श्वांस छोड़ती हैं )
यह पहाड़ के जैसा है ( 3 बार माइक्रोफोन में श्वांस छोड़ते हैं )
अपना हाथ बदलिए कृपया फिर से ( 3 बार माइक्रोफोन में श्वांस छोड़ती हैं)
(पुनः इस क्रिया को दोहराया जाता है)