Guru Puja, The Statutes of the Lord

Temple of All Faiths, Hampstead (England)

1980-07-27 Shri Guru Puja, Hampstead, UK, 67' Download subtitles: EN,PT,RU (3)View subtitles:
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” परमात्मा द्वारा निर्देशित धर्म “, गुरु पूर्णिमा ,लंदन २७ जुलाई १९८०

       आज आपने अपने गुरु की पूजा का आयोजन किया है जो आपकी माँ है। शायद आप बहुत ही अद्भुत लोग हैं जिनकी गुरु एक माँ हैं। यह पूजा क्यों आयोजित की गयी है? आपको यह जानना होगा कि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक शिष्य गुरु की पूजा करे, लेकिन गुरु को एक वास्तविक गुरु होना चाहिए, न कि वह जो केवल शिष्यों का शोषण कर रहा है और जो परमात्मा द्वारा अधिकृत नहीं है।

       इस पूजा का आयोजन इसलिए किया गया है क्योंकि आप लोगों को परमात्मा द्वारा निर्देशित धर्म की स्थापना के लिए चुना गया है। आपको बताया गया है कि मानव के क्या धर्म हैं। वैसे इसके लिए आपको एक गुरु की आवश्यकता नहीं है। आप किसी भी पुस्तक को पढ़कर जान सकते हैं कि परमात्मा द्वारा निर्देशित धर्म क्या हैं। परंतु गुरु को यह देखना चाहिए कि आप इनका पालन करें।  इन धर्मों का पालन करना होगा, अपने जीवन में उतारना होगा, जो एक कठिन चीज़ है और बिना गुरु के, सुधारक शक्ति के, इन धर्मों का पालन करना बहुत कठिन है क्योंकि मानव चेतना और परमात्मा की चेतना में एक अंतर है, बहुत बड़ा अंतर। और इस अंतर की पूर्ति एक गुरु ही कर सकते हैं जो स्वयं संपूर्ण है।

आज पूर्णिमा का दिन है। “पूर्णिमा” का अर्थ है पूर्ण चंद्रमा। गुरु को एक संपूर्ण व्यक्तित्व होना चाहिए; इन धर्मों के विषय में बात करने के लिए और अपने शिष्यों को समझ के उस स्तर तक उठाने के लिए जहाँ वे उन धर्मों को ग्रहण करें।

        वे (गुरु) इस कमी को पूरा करने के लिए हैं और इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक गुरु को – एक उच्च कोटि का और बहुत विकसित – आत्म साक्षात्कारी व्यक्ति होना चाहिए।  ज़रूरी नहीं है कि वह (गुरु) एक ऐसा व्यक्ति हो जो कि एक तपस्वी हो या जरूरी नहीं है कि वह एक ऐसा व्यक्ति हो जो कि जंगल में रह रहा हो।  वह एक सामान्य गृहस्थ व्यक्ति हो सकता है।  वह राजा हो सकता है।  किसी के जीवन की यह सभी बाहरी अभिव्यक्तियाँ  मायने नहीं रखतीं। आपका जो भी पद हो – मैं कहूँगी इस दुनिया के तथाकथित पद – इन से आपके गुरु होने में कोई अंतर नहीं पड़ता, जब तक आपने परमात्मा द्वारा निर्देशित धर्मों को ग्रहण किया हो।  फिर से मैं कहूँगी आपको अधिनियमों  को आत्मसात् करना होगा।

      अब परमात्मा के यह अधिनियम क्या हैं – सबसे पहला आप किसी को हानि ना पहुँचाएँ। पहला सिद्धांत है कि हमें किसी को हानि नहीं पहुँचानी है। पशु हानि पहुँचाते हैं यह जाने बिना कि वे हानि पहुंचा रहे हैं। यदि आप साँप के पास जाते हैं तो वह काटेगा, यदि कोई बिच्छू है तो वह अपना विष आप में डाल सकता है। पशु किसी को हानि पहुँचाने के लिए नहीं हैं। उन्हें सुधार सकते हैं लेकिन उनको हानि नहीं पहुँचा सकते।

        तो हानि न पहुँचाने के सिद्धांत को एक ऐसे मोड़ पर ले जाया गया जहाँ वास्तविकता लुप्त हो गई। उदाहरण के लिए जब यह कहा गया कि किसी को हानि न पहुँचाएँ तो लोग कहने लगे “ठीक है हम मच्छरों को नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे, हम कीड़े मकोड़ों को हानि नहीं पहुँचाएँगे, हम उन्हें नहीं मारेंगे”, और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो किसी ऐसे धर्म का पालन कर रहे हैं जिसमें वह मच्छरों और कीड़ों को सुरक्षित संभाल कर रखते हैं। यह मूर्खता है। किसी भी चीज़ को मूर्खता के चरम तक ले जाना वास्तविकता नहीं हो सकती।

सबसे पहले हमें किसी ऐसे व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचानी  चाहिए जो परमात्मा के पथ पर अग्रसर है, जो आत्म साक्षात्कारी है। वह ग़लत हो सकता है, उसमें कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं, उसे फिर भी सुधार की आवश्यकता है। अभी तक कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं है।  इसलिए हानि न पहुँचाएँ। सदैव सहायता करने की कोशिश करें। दूसरी बात, यदि कोई सच्चा साधक है, हो सकता है वह ग़लत हो, वह ग़लत गुरुओं के पास भी गया हो, उसने ग़लत काम किए हों, परंतु उसके लिए सहानुभूति रखें क्योंकि कभी- कभी आप स्वयं भी ग़लत मार्ग पर चले थे। आप भी कभी मार्ग से भटके थे, इसलिए अधिक संवेदना दिखाएँ। इसलिए यदि आपने ग़लतियाँ की हैं तो एक तरह से अच्छा है क्योंकि आपके पास ऐसे व्यक्तियों के लिए अधिक संवेदना होगी। फिर आप किसी भी तरह से उनको हानि नहीं पहुँचा सकते, आप उन्हें किसी भी तरह का शारीरिक कष्ट नहीं दे सकते। किसी भी तरह का भावनात्मक कष्ट नहीं दे सकते, केवल हानि पहुँचाने के लिए। उनका सुधार करने के लिए ठीक है ।

           दूसरा अधिनियम  यह है कि आपको अपने पैरों पर खड़ा होना है, और यह जानना है कि आप यहाँ हैं, सत्य के साथ एकाकार, प्रमाण के, सत्य के प्रमाण के साथ – कि आपने सत्य को देखा है, आप जानते हैं कि सत्य क्या है और आप असत्य से समझौता नहीं कर सकते, आप नहीं कर सकते।  इसके लिए आपको किसी को हानि पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है। आपको केवल विश्वास करना है, आपको आगे बढ़कर कहना होगा कि आपने सत्य को देखा है और यह सत्य है और आपको इसके साथ एकाकार होना होगा ताकि लोग आपके भीतर सत्य के उस प्रकाश को देखें और इसको स्वीकारें। यह केवल दूसरों को बताने के लिए नहीं होना चाहिए कि ‘आपको सत्य के मार्ग पर चलना होगा और यह सत्य है जिसे हमने देखा है, कि यही परमात्मा के धर्म हैं, वह कैसे कार्य करते हैं।’  परम् चैतन्य की अनुभूति के माध्यम से हम यह देख पाए हैं कि यह सत्य है।  लेकिन इसके बारे में पूर्ण आत्मविश्वास रखें।  इसके लिए सबसे पहले आपको स्वयं पर आज़माना चाहिए अन्यथा आप अहंकार के हाथों में खेल रहे होंगे। यह कई लोगों के साथ होता है जो सहजयोग करना शुरू करते हैं। इसलिए सतर्क रहें, सुनिश्चित करें कि आप सत्य ही कह रहे हैं और कुछ नहीं, और यह कि आपने सत्य को पूर्ण रूप से अनुभव किया है ।

       जिन लोगों ने परम् चैतन्य का कोई अनुभव नहीं किया है उन्हें सहज योग की बात बिलकुल नहीं करनी चाहिए। उनका कोई अधिकार नहीं है। उन्हें चैतन्य प्राप्त करना होगा, उन्हें अपने भीतर पूर्ण रूप से आत्मसात् करना होगा और फिर वे कह सकते हैं कि ‘हाँ हमें अनुभूति हुई है’।

         यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है जो सहज योगियों को इस आधुनिक समय में करना है। ऊँचे स्वर में बताना है कि उन्हें सत्य प्राप्त हो गया है। यह गुण बहुत क्षीण है। आपको जो भी तरीक़ा पसंद हो – आप पुस्तकें लिख सकते हैं, आप इसकी घोषणा कर सकते हैं, आप अपने दोस्तों से, अपने संबंधों और हर जगह बात कर सकते हैं। उन्हें बताएँ अब यह सत्य है। कि आपने परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश कर लिया है, कि आप परमात्मा की कृपा दृष्टि में हैं। 

कि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, आपको दिव्य शक्ति की अनुभूति हुई है जो हर जगह व्याप्त है और यह कि आप दूसरों को आत्म साक्षात्कार दे सकते हैं। यह आपको दूसरों को बताना होगा। और जान लें कि सत्य को स्वीकार करने से आप कुछ भी जोड़ नहीं रहे हैं बल्कि आप स्वयं को विभूषित कर रहे हैं।

सत्य का आनंद लेने के लिए साहस की आवश्यकता होती है।  कभी-कभी लोग आप पर हसेंगे, आप का मज़ाक़ उड़ाएँगे, अत्याचार  भी कर सकते हैं लेकिन यह आपके लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए क्योंकि आपका संबंध परमात्मा के अधिनियमों से और परमात्मा की कृपा से है।  जब परमात्मा से आपका संपर्क है तो आपको अन्य लोगों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए कि इसके बारे में उनका क्या कहना है।  आपको आगे बढ़ना होगा, अपने आप को उस सत्य से विभूषित करना होगा और लोगों से बात करनी होगी तब लोगों को पता चल जाएगा कि आप इसे पा चुके हैं।  जिस प्रमाणिकता के साथ आप बोलेंगे उस से लोगों को पता चल जाएगा कि आपने इसे पा लिया है ।

एक आत्मसाक्षात्कारी और बिना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किए हुए मनुष्य के बीच का अंतर मूल रूप से यह है कि वह अपने कष्टों और परमात्मा से अपने वियोग की बात नहीं करता, लेकिन वह कहता है कि “मैंने अब इसे प्राप्त कर लिया है। यही है।” जैसे क्राइस्ट ने कहा था कि “मैं प्रकाश हूँ, मैं पथ हूँ।” या ऐसा कोई अन्य भी कह सकता है, लेकिन आप यह बता सकते हैं कि वह सत्य नहीं कह रहा है। पूर्ण आत्मविश्वास के साथ, अपने हृदय से निकलने वाली उस पूर्ण समझ के साथ, लोग बता सकते हैं कि यह सम्पूर्ण सत्य है।  और तब सभी प्रकार के असत्य की निंदा करनी होगी।  कोई बात नहीं, यदि किसी को बुरा लगता है क्योंकि यह बताने से आप उन्हें बचा रहे हैं और उन्हें हानि नहीं पहुँचा रहे हैं। लेकिन सही प्रकार से बताना चाहिए ना कि तुच्छ प्रकार से। बहुत ही प्रेरक तरीक़े से आपको उन्हें बताना होगा कि “नहीं यह ग़लत है”। आपको उस समय की प्रतीक्षा करनी होगी जब आप लोगों को बता सकें अधिक आत्मविश्वास के साथ। उनसे बात करें, “यह ग़लत है, ग़लत है आप नहीं जानते।  हमने भी ऐसा किया था”। इस प्रकार आप अपने गुरु के सिद्धांत को व्यक्त  करेंगे, या आप कह सकते हैं गुरु तत्त्व को। आपको सत्यवादी होना होगा। सबसे पहली बात यह है कि आपको सत्य को जानना चाहिए, आपको सत्य का प्रमाण देना होगा और तब आपको इसकी घोषणा करनी होगी।

    सहज योग में एक गुरु के लिए तीसरी बात यह है कि उसे निर्लिप्तता का विकास करना होगा। धीरे-धीरे आप इसे प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि आप पाते हैं जब तक आप उस निर्लिप्तता को विकसित नहीं करते तब तक आप को पूर्ण रूप से चैतन्य प्राप्त नहीं होता। सभी प्रकार की निर्लिप्तता को विकसित करना होगा अर्थात् आपकी प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। एक बार जब आप का चित्त आपकी आत्मा के साथ जुड़ जाता है तो उन चीज़ों पर पकड़ या अधिकार, जिनका कोई महत्त्व नहीं है, अपने आप ही कम हो जाती है। उदाहरण के लिए आपके पिता हैं, आपकी माँ हैं, आपकी बहन हैं, भारत में यह बड़ी समस्या है। यहाँ आप अत्यधिक निर्लिप्त हैं लेकिन भारत में लोग अपने बच्चों में बहुत लिप्त हैं, स्वयं में, “यह मेरा बेटा है” और अन्य सभी अनाथ हैं। केवल आपके बेटे ही असली बच्चे हैं, आपकी बेटी, आपके  बेटे। “मेरी बेटी; मुझे अपने बेटे के लिए ऐसा करना है, अपने पिता के लिए, अपनी माँ के लिए”I यहाँ भी, दो प्रकार के लगाव हैं। एक मोह के माध्यम से – उन में लिप्त होने के माध्यम से कि आप उनके लिए यह करना चाहते हैं, उनके लिए वह करना चाहते हैं और सारी संपत्ति उन्हें दे देते हैं, उनके लिए बीमा, हर तरह की चीज़ करना चाहते हैं। और दूसरा यह हो सकता है, जिस तरह से यहाँ है, कि आप अपनी माँ से घृणा करते हैं, आप अपने पिता से घृणा करते हैं, आप सभी से घृणा करते हैं। दोनों चीज़ें समान हैं।

        तो निर्लिप्तता का विकास होना चाहिए। वह निर्लिप्तता कि आप स्वयं ही अपने पिता हैं, आप स्वयं ही अपनी माँ हैं, आप सब कुछ हैं। आपकी आत्मा ही आपके लिए सब कुछ है। आपको हर एक रुप में केवल अपनी आत्मा का आनंद लेना है। फिर यहाँ से निर्लिप्तता आती है और फिर आप वास्तव में उनके साथ अच्छा करते हैं – निर्लिप्त होकर – क्योंकि आप उनके बारे में संपूर्ण दूरदर्शिता रखते हैं कि क्या किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए लोगों को कुछ पागलपन से भी लगाव होता है। मनुष्य हमेशा किसी भी चीज़ के पीछे पागल हो जाते हैं। अर्थात् यह कुछ भी हो सकता है। आपको समझना होगा कि केवल एक ही पागलपन होना चाहिए, अपनी आत्मा में पूर्ण रुप से स्थित होने का। अन्य सभी पागलपन लुप्त हो जाएँगे क्योंकि यह सबसे बड़ा आनंद देने वाली स्थिति है। वह सबसे पोषक स्तिथि है। वह सबसे सुंदर स्थिति है। बाक़ी सभी चीज़ें हट जाती हैं। आप केवल उसी का आनंद लेते हैं जो संपूर्ण आनंद का स्त्रोत है। इसलिए जब आप स्वयं को अपनी आत्मा से जोड़ लेते हैं तो निर्लिप्तता कार्य करना शुरू कर देती है।

              कभी-कभी निर्लिप्तता का प्रयोग, दूसरों के प्रति शुष्क बनने के अधिकार के रूप में किया जाता है, जो कि मूर्खता है। यह केवल मानवीय गुण ही है कि जो कुछ भी सुंदर है उसे कुरूप बनाओ। वास्तव में जो व्यक्ति निर्लिप्त होता है वह सबसे सुंदर व्यक्ति होता है, वह अत्यंत प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है। वह प्रेम है। 

 फूलों को देखिए वे निर्लिप्त हैं। वे मुरझा रहे हैं। कल वे जीवित भी नहीं रहेंगे। परंतु जिस क्षण तक जीवित रहते हैं वह आपके लिए सुगंध प्रसारित करते रहते हैं। पेड़ किसी चीज़ से नहीं जुड़े हैं। वे कल नष्ट हो जाएंगे, कोई बात नहीं। लेकिन जो भी उनके समीप आता है, वे छाया देते हैं, वे फल देते हैं।  

             मोह का अर्थ है प्रेम का विनाश, प्रेम का पूर्ण विनाश ही मोह है। उदाहरण के लिए एक वृक्ष में, रस बनता है, सभी पत्तियों तक जाता है, सभी आवश्यक भागों में जाता है। सभी फूल, सभी फल और वापस धरती में चला जाता है। वह किसी से संलग्न नहीं है। मान लीजिए कि रस जाकर एक फल से जुड़ जाए तो क्या होगा – पेड़ मर जाएगा और फल मर जाएगा। निर्लिप्तता आपको अपने प्रेम की गति, उसका संचालन देती है। 

अब वस्तुओं का, वस्तुओं का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक कि उनके पीछे भावनाएँ ना हों। उदाहरण के लिए यह साड़ी जिसे मैंने आज पहना है गुरु दिवस के लिए ख़रीदी गई थी, गुरु पूर्णिमा के लिए; लेकिन उनके पास कोई साड़ी नहीं थी। उस दिन पूजा के लिए उन्हें एक साड़ी चाहिए थी तो मैंने कहा “ठीक है! इस साड़ी का उपयोग कीजिये।” लेकिन मैंने इसे आज फिर से पहना। केवल यह बताने के लिए कि इस साड़ी को उस भावना के साथ ख़रीदा गया था कि, गुरु दिवस पर माँ कुछ हल्के रंग का पहनना पसंद करेंगी। सफ़ेद – रेशम का शुद्ध रंग। यह पूर्ण निर्लिप्तता है। लेकिन सफ़ेद में सभी रंग मिश्रित होते हैं, तभी यह सफ़ेद बनता है। यह इतने  संतुलन और एकता में है, होना चाहिए कि आप सफ़ेद हो जाते हैं, बर्फ़ से भी ज़्यादा सफ़ेद ।

   निर्लिप्तिता पवित्रता है, अबोधिता है। अबोधिता ऐसा प्रकाश है, ऐसा प्रकाश जो सभी अपवित्र चीज़ों के प्रति आपको नासमझ बना देता है। आपको पता भी नहीं होगा कि कोई व्यक्ति बुरे इरादों के साथ आया है। आप उस व्यक्ति को देखेंगे, कोई आपके पास आता है, आप कहेंगे, “ओह! आइए। आपको क्या चाहिए?” आप उसे चाय इत्यादि देंगे और वह कहेगा “मैं तुम्हें लूटने आया हूँ।” “ठीक है, यदि तुम चाहते हो तो मुझे लूट लो। कोई बात नहीं।” हो सकता है कि वह आपको बिलकुल ना लूटे। यही अबोधिता है, जो निर्लिप्तता के माध्यम से ही विकसित हो सकती है। निर्लिप्तता चित्त की होती है। अपने चित्त को किसी चीज़ में अधिक उलझने ना दें, किसी  कर्मकांड में भी नहीं। अब जैसे हमने श्री माताजी के श्री चरण नहीं धोए हैं। ठीक है, कोई बात नहीं। आप मुझे प्रेम करते  हैं। ठीक है, यदि कुछ ग़लतियाँ हो जाती हैं, तो इससे क्या अंतर पड़ता है? यदि आप भावात्मक धरातल पर देखते हैं, तो यह प्रेम है। यह केवल एक क़दम आगे है। जैसे कोई बहुत तेज़ दौड़ा और मुझ तक पहुंचने से पहले ही नीचे गिर गया और उसने कहा, “माँ क्षमा करें! मैं आप तक पहुँचने से पहले नीचे गिर गया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन देखिए कि मैंने आपके सामने कैसे साष्टांग प्रणाम किया।” यह पूरी कविता है, निर्लिप्तता।

                    तो एक गुरु होने के लिए उस निर्लिप्तता को विकसित करना होगा।  और उस निर्लिप्तता का अर्थ सन्यास या ऐसा कुछ नहीं है। हाँ, कभी- कभी आप को उन वस्त्रों को धारण करके घोषणा करनी पड़ती है क्योंकि आपको कम समय में बहुत कार्य करना पड़ता है। तब आपको इस तरह का गहन व्यवहार करना होगा। जैसे ईसा मसीह, हम कह सकते हैं, आदि शंकराचार्य – इन सभी लोगों के पास बहुत, बहुत छोटा जीवन था और उस छोटे से जीवन में, उन्हें इतना महत्त्वपूर्ण कार्य पूर्ण करना था कि उन्हें वास्तव में युद्ध वाली पोशाक धारण करनी पड़ी। केवल समस्याओं से बचने के लिए, दूसरों को प्रभावित करने के लिए नहीं। आजकल लोग उस पोशाक को केवल दूसरों को प्रभावित करने के लिए पहनते हैं कि वे निर्लिप्त हैं और इसके ठीक विपरीत कार्य करते हैं।

           तो सबसे पहला है किसी को हानि नहीं पहुँचाना, अहिंसा, किसी को मारना नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको मांस और मछली इत्यादि नहीं खानी चाहिए। वह सब निरर्थक है। मेरा मतलब है कि आप को भोजन के पीछे लालायित नहीं होना चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है। “आप किसी को नहीं मारेंगे” का अर्थ है कि आप किसी मनुष्य को नहीं मारेंगे। “आपको किसी की हत्या नहीं करनी है”I   

(थोड़ा आगे आ जाइए ताकि वह वहाँ बैठ सकें, थोड़ा सा आगे आइए हमें लगता है सबसे आगे आना बेहतर होगा।)   

       तो पहली बात यह है कि किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाना। दूसरा है, यह जानना कि आपने सत्य को पाया है और सत्य का प्रमाण देना। तीसरा है निर्लिप्तता। जिस प्रकार मैंने आपको निर्लिप्त होने के बारे में बताया है, किसी एक व्यक्ति से बँधना  नहीं है क्योंकि वह आपके रिश्तेदार हैं या कुछ और। किन्तु विश्वव्यापी भावना विकसित कीजिये और किसी से घृणा न करें, यह तो और भी बुरा है। इस प्रकार का बंधन सबसे बुरा बंधन है। यह शब्द सभी सहजयोगियों के मुख से दूर हो जाना चाहिए कि “मुझे नफ़रत है”I इसे दंडक कहा जाता है – यह एक अधिनियम है। आप किसी से घृणा नहीं कर सकते; यहाँ तक कि राक्षसों से भी, बेहतर है आप घृणा न करें। उन्हें एक अवसर दें।

         अब चौथी चीज़, परमात्मा का चौथा धर्म है – नैतिक जीवन व्यतीत करना। यह धर्म सभी गुरुओं द्वारा बताए गए थे। सुकरात से शुरू करके , मूसा, इब्राहिम, दत्तात्रेय, जनक, नानक, मोहम्मद साहब तक। और आज से लगभग केवल 100 साल पहले, आप कह सकते हैं – साईं नाथ तक। उन सभी ने कहा है कि आपको नैतिक जीवन व्यतीत करना है।  उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि आप विवाह न करें। कि आप अपनी पत्नी से बात न करें, कि आपका अपनी पत्नी के साथ कोई सम्बन्ध न हो। यह सब निरर्थक है। एक नैतिक जीवन का निर्वाह करें। जब आप युवा हैं, अविवाहित हैं, तो अपनी दृष्टि पृथ्वी की ओर रखें।

           धरती माँ आपको वह अबोधिता प्रदान करती है जिसके द्वारा आप अपने भीतर उस मूलतत्व को विकसित करते हैं। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। यह इतना पवित्र सिद्धांत है। यह वास्तव में समाज को अपनी गरिमा विकसित करने में सहायता करता है। अब सोचिए, जिस समाज में आप यह नहीं जानते हैं कि आपकी बहन कौन है, आपका भाई कौन है, आपकी माँ कौन है, यह कितनी जटिलताएँ उत्पन्न कर सकता है। कितनी उलझन, कितनी अप्रसन्नता! इंसान का नैतिक होना सबसे आवश्यक चीज़ों में से एक है। पशुओं के लिए यह आवश्यक नहीं है।

अधिकांश भ्रम और समस्याएँ, विशेष रूप से पश्चिमी जीवन में, इसलिए आई हैं क्योंकि उन्होंने नैतिकता को समुद्र में फेंक दिया है। और समाज के आधार के रूप में नैतिकता को स्वीकार करना उनके लिए बहुत कठिन है। यह बिलकुल विपरीत स्थिति है। लेकिन आपको यह करना होगा। आपको पूरा पहिया वापस घुमाना होगा। इन पवित्र सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए, समाज की शुरुआत में बहुत सी चीज़ें की गईं। ऐसे नियम हैं जो कार्य करते हैं। जैसे  रासायनिक नियम हैं, भौतिक नियम हैं, भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान में;  उसी प्रकार आज मानवीय  नियम हैं जिन्हें आप को समझना चाहिए। एक-दूसरे के बीच के संबंध, उन सम्बन्धों का गौरव, संबंधों की पवित्रता को समझना होगा। और उसके बाद ही आप एक बहुत ही ख़ुशहाल विवाहित जीवन व्यतीत कर सकते हैं, जो कि मूल आधार है।

“आपको व्यभिचार नहीं करना है”। परन्तु ईसा मसीह ने कहा है – शायद वे आधुनिक लोगों को जानते थे कि वे (लोग) इसके लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करेंगे – उन्होंने कहा, “आपकी आँखें भी व्यभिचारी नहीं होनी चाहिए”I क्या दृष्टिकोण था, उस समय, सोचिए! मेरा अर्थ है कि जब मैं भारत में थी तब मैं भी इसे समझ नहीं पायी। केवल यहाँ आने के बाद ही मैं यह देख पायी कि इसका क्या अर्थ था। यह आँखों पर भूत- बाधा है, भूत-बाधा। यह एक आनंदहीन, व्यर्थ का व्यवहार है। यह थकानेवाला है। चित्त पूर्णतः बिखर जाता है। कोई गरिमा नहीं रहती।

आँखें स्थिर होनी चाहिए। जब आप किसी को स्थिरतापूर्वक देखते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि आप के अंदर सहज योग है; प्रेम के साथ, सम्मान के साथ, गरिमा के साथ। लोगों को घूरना और इन बाधाओं के हाथों में नहीं खेलना है। पूरा समाज बाधित है। मुझे लगता है, सभी शैतानी शक्तियाँ हावी हो गई हैं। और जिस तरह से लोग बाधित हैं, वे इन चीज़ों के आर-पार नहीं देख सकते। और उन्हें ईसाई माना जाता है। चित्त को संभाल कर रखना चाहिए। यह सबसे महत्त्वपूर्ण बात है क्योंकि चित्त वही है जो प्रबुद्ध होने वाला है।

इसलिए हमें यह जानना होगा कि नैतिकता क्या है। लोगों को हम पर हंसने दीजिये। उन्हें कहने दीजिये कि यह ‘नेकी का दिखावा करने वाले लोग’ हैं, या इस तरह की चीज़। हम हैं, हमें गर्व है। हमें नेक इंसान होने पर शर्म नहीं आती। यह धार्मिकता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। जो लोग इसका पालन नहीं करते हैं वह बहुत शीघ्रता से अपना चैतन्य खो देंगे।

फिर एक गुरु के लिए, उसे चीज़ों को संग्रह नहीं करना चाहिए। उसके पास संपत्ति, अधिक संपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि उसके पास संपत्ति है, तो वह बस देने के लिए होनी चाहिए। एक गुरु को अपनी संपत्ति देनी होगी। उसके पास डाक टिकट का संग्रह नहीं होना चाहिए, और सभी तरह की चीज़ें जो लोग एकत्रित करते हैं। जो भी चीज़ें उपयोगी हैं, सुंदर हैं, जो दूसरों को प्रसन्नता और आनंद देती हैं, उनकी आँखों को, ऐसी चीज़ें एकत्रित की जानी चाहिए। ऐसी चीज़ें जो उनके जीवन को प्रतीक बनाती हैं। उनके (गुरु के) पास बहुत प्रतीकात्मक चीज़ें होनी चाहिए, जो यह बताती हैं कि वह एक धार्मिक व्यक्ति हैं। उनके पास ऐसी चीज़ें नहीं होनी चाहिए जो अधार्मिकता का प्रतीक हों, अधार्मिक जीवन का। उसके पास जो कुछ भी है या जो कुछ भी वह पहनता है, या वह दिखाता है, वह उसकी धार्मिकता का प्रतिनिधित्व करे।

मैं नहीं जानती कि यहाँ क्या स्थिति थी लेकिन, भारत में, जब हम छोटे थे, हमें हर प्रकार का संगीत सुनने की अनुमति नहीं थी, इजाज़त नहीं थी, बस अनुमति नहीं थी। किसी भी प्रकार की गंदी चीज़ों और गंदे वृत्तचित्रों इत्यादि को देखने की अनुमति नहीं थी। कुछ भी जो अपवित्र हो, जिसका चैतन्य ख़राब हो, उसको पास नहीं रखना है। और यहाँ तक कि आपके पास जो कुछ भी है, आपको सोचना है कि यह आप किसे दे सकते हैं। तो इसका अर्थ है कि आपके पास अपनी उदारता व्यक्त करने के लिए चीज़ें होनी चाहिए। सहज योगी को समुद्र की तरह उदार होना चाहिए। एक कंजूस सहजयोगी, मैं इसके बारे में सोच भी नहीं सकती, यह प्रकाश के साथ अन्धकार को मिलाने समान है। सहज योग में कंजूसी नहीं चलेगी। कोई भी जो यह सोचता है कि “मैं कितना पैसा बचा सकता हूँ ?” या “अपना श्रम कैसे बचाएँ?”l यहाँ कई श्रम बचाने वाले साधन भी हैं, और पैसे बचाने वाले साधन भी। या दूसरों को धोखा देने वाले, या और कुछ चीज़ों से, यहाँ वहाँ पैसा कमाने के, ऐसी सभी चीज़ें सहज योग के विरुद्ध हैं। वह आपको नीचे खींच लेंगी। अपनी उदारता का आनंद लें। कितनी बार मैंने आपको उदारता के बारे में बताया होगा।

मुझे याद है एक बार मैं एक साड़ी देना चाहती थी जो मैं विदेश से लाई थी। क्योंकि भारत में लोग उस तरह की साड़ी को बहुत पसंद करते हैं। हालांकि मुझे समझ नहीं आता कि वे इसे क्यों पसंद करते हैं -नायलॉन जैसी चीज़ को। और एक महिला ने कहा कि “मेरे पास बाहर की कोई साड़ी नहीं है और मैं एक विदेशी साड़ी लेना चाहती हूँ”। और मेरे पास केवल एक ही बची थी क्योंकि मुझे लोगों को देना बहुत पसंद है। तो मैंने अपनी एक भतीजी को बताया। मैंने कहा, “मैं उसे यह साड़ी देना चाहती हूँ। एक धार्मिक दिवस पर हम इसे अपने बड़ों को दे सकते हैं, तो मैं इसे तब दें दूँगीl”

उसने कहा, “आपके पास अब केवल एक ही बची है, आप क्यों देना चाहती हैं ? आपने सब कुछ दे दिया है जो आपके पास था।” मैंने कहा, “अब मेरा देने का मन कर रहा है। मैं दे दूँगी।” और हम रसोई में इस बात पर चर्चा कर रहे थे और मैंने कहा, “आप मुझे क्यों बता रही हैं? मैं इस विषय पर आपकी सलाह नहीं मानूंगी।” और उसी समय घंटी बजी और एक सज्जन आए। वह अफ़्रीक़ा से हमारे लिए तीन साड़ियाँ लाए थे, और उनमें से एक बिल्कुल वही थी, जो हमारे पास थी। क्योंकि मैंने इस महिला को कुछ रेशमी साड़ियाँ दी थीं, जब वह अफ़्रीक़ा जा रही थी, तो उसने सोचा कि मुझे कुछ साड़ियाँ भेजनी चाहिए, इसलिए उसने भेज दीं। आप केवल मध्य में खड़े हैं, एक दरवाज़े से यह आता है और दूसरे दरवाज़े से यह जाता है। यह सब आदान- प्रदान देखकर प्रसन्नता होती है। यह बहुत मनोरम है।

इसके अलावा जिस प्रकार आप देते हैं, आप देखिए, इसका भावनात्मक पक्ष इतना सुंदर है, आप कल्पना नहीं कर सकते हैं। मैं एक महिला से मिली, संभवतः उसके विवाहित जीवन के बीस साल बाद, अचानक लन्दन में; और उसने कहा, “ओह, क्या संयोग है।” 

मैंने कहा “क्यों?”

“देखिए, आज मैंने वही मोती का हार पहना है जो आपने मुझे मेरी शादी के दिन दिया था और आज मेरा आपसे मिलना हो गया।” 

और वह पूरी स्थिति, पूरा नाटक बदल गया! उस मुलाक़ात से! अर्थात् मैं आपको कुछ बताती हूँ; कोई बड़ी बात नहीं। यह है कि आप कैसे देते हैं; छोटी सी चीज़ भी।  यह देने की एक बहुत बड़ी कला है, जो आपको सहजयोग में सीखनी है। साधारण चीज़ों को त्याग दें। जैसे यदि आप किसी के जन्मदिन पर जाते हैं, तो आप एक कार्ड भेजते हैं – ‘बहुत बहुत धन्यवाद’। इसे और अधिक गहरा, और अधिक महत्त्वपूर्ण बनाएं। देखते हैं कि आप अपने प्रेम के प्रतीकों को कैसे विकसित करते हैं। और जब आप के पास चैतन्य पूर्ण वस्तुएं होंगी, और फिर आप इसे किसी सहज योगी को देंगे, तो उसे पता चल जाएगा कि यह क्या है। उदारता में कभी कमी न रखें, विशेष रूप से सहज योगियों के बीच। धीरे-धीरे आपको आश्चर्य होगा कि कैसे, छोटी-छोटी चीज़ों के माध्यम से, आप उस का मन जीत लेते हैं, जैसे उन चीज़ों से चैतन्य बह रहा हो और उन लोगों पर कार्य कर रहा हो।

फिर एक सहज योगी के लिए महत्त्वपूर्ण है, उन चीज़ों का उपयोग करना जिनका स्वरुप अधिक प्राकृतिक है। कृत्रिमता त्यागनी होगी, अधिक साधारण होना होगा। मैं यह नहीं कह रही कि आप जाइए और जड़ों को निकालकर खाइए या आप मछली को कच्चा खा सकते हैं, मेरा अर्थ यह नहीं है। मतलब किसी भी चीज़ में सीमा से बाहर जाने से बचें। लेकिन ऐसा जीवन व्यतीत करने की कोशिश करें जो अधिक प्राकृतिक हो। प्राकृतिक – अर्थात् लोगों को ज्ञात  हो कि आप में कोई दिखावा नहीं है। या कुछ लोग विपरीत प्रकार के हो सकते हैं, आप देखिए वे ध्यान आकर्षित करने के लिए एक आवारा की तरह तैयार होंगे। मेरा मतलब है कि वे दोनों तरीक़े के हो सकते हैं। फिर मैं कुछ लोगों को देखती हूँ, जो अपने बालों में रंग इत्यादि करते हैं।

(कौन है? आने दीजिए उन्हें। ठीक है। जाने दीजिये, जाने दीजिए, जाने दीजिये उन्हें। 

अपना चित्त यहाँ रखें और हम कार्यान्वित कर लेंगे।)

इसलिए आपको प्राकृतिक व्यक्ति बनना होगा, अपने आचरण में अत्यधिक साधारण। यह कुछ लोगों के लिए बेतुका भी हो सकता है जो अपने विवेक का उपयोग नहीं करते हैं। सहज योग में विवेक बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसको हर समय बरक़रार रखना है। प्राकृतिक का मतलब है कि आपको साधारण वस्त्र पहनने चाहिए जो आपके लिए उपयुक्त हों। उदाहरण के लिए इस मौसम में आपको इस तरह की पोशाक पहनने की कोई आवश्यकता नहीं है जैसे श्री राम पहनते थे। आपने देखा होगा वह ऊपर कोई वस्त्र धारण नहीं  करते थे। कोई आवश्यकता नहीं है। आपको उसी प्रकार की पोशाक पहननी चाहिए, जिस भी देश से आप हैं, जो भी वस्त्र उस स्थिति में आपको शोभा देते हों। जो भी आप सोचते हैं कि गरिमापूर्ण और अच्छा है, जो आपके लालित्य और आपके व्यक्तित्व के बारे में बताता है। जो भी आपको शोभा दे, आपको पहनना चाहिए। उन सब लोगों के समान नहीं जो मोस ब्रदर्स के कपड़े पहनते हैं, ग्रे सूट में, भयानक दिखते हुए, जो लोगों को जोकर बना रहे हैं। जोकर जैसी पोशाक की आवश्यकता नहीं हैं। कोई छैल-छबीले परिधान की आवश्यकता नहीं है। सरल, सुंदर कपड़े पहनने चाहिए, जो आपको गरिमा प्रदान करते हैं।

वास्तव में पूर्व में, लोगों का मानना है कि परमात्मा ने आपको एक सुंदर शरीर दिया है और इसे उस सौंदर्य से सुशोभित करना है जो मनुष्य द्वारा बनाया गया है, केवल अपने शरीर का सम्मान करने के लिए, केवल उसकी पूजा करने के लिए। उदाहरण के लिए अब भारत में महिलाएँ अपनी साड़ी पहनती हैं। साड़ियाँ इन महिलाओं की मनःस्थिति को व्यक्त करती हैं। उनके शरीर की पूजा की अभिव्यक्ति है क्योंकि आपको अपने शरीर का सम्मान करना चाहिए। वस्त्र ऐसे होने चाहिए जो उपयोगिता के साथ-साथ गरिमा के लिए भी हों। सहज योग के लिए एक वर्दी जैसी पोशाक पहनने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। मुझे यह पसंद नहीं है। विविधता होनी चाहिए, जैसा कि प्रकृति में है।

हर किसी को एक अलग व्यक्ति दिखना चाहिए। पूजा इत्यादि के लिए आप कुछ समान पहन सकते हैं, कोई अन्तर नहीं पड़ता, जहाँ आपका ध्यान विविधता पर नहीं होना चाहिए। लेकिन बाहर, आपको एक सामान्य व्यक्ति होना चाहिए। आप सभी गृहस्थ हैं। किसी को कोई घोषणा नहीं करनी है। यहाँ तक कि लोगों को मैं यह भी नहीं कहती कि आप सड़क पर चलते समय अपने माथे पर लाल टीका  लगाएँ, क्योंकि आपको सामान्य लोगों की तरह होना चाहिए; किसी की नज़र में नहीं आना है। आपको बेतुके ढंग से कपड़े पहनने या विचित्र कपड़े पहनने की आवश्यकता नहीं है; एक सामान्य तरीक़े से वस्त्र पहने, अन्य लोगों की तरह। सहज योग में सामान्य होना बहुत महत्त्वपूर्ण है।

फिर हमें यह जानना होगा कि सहज योगियों को सभी प्रकार के भेदभावों या तादात्म्य से परे होना है – जाति, रंग या विभिन्न धर्मों के अनुसार, जिनमें आप जन्मे हैं। क्योंकि आप एक ईसाई धर्म में जन्मे हैं, तो आप केवल चर्च के ही नहीं हो जाते। आप एक चर्च में पैदा नहीं हुए थे – शुक्र है! अन्यथा वहाँ के सभी भूत आपको तुरंत पकड़ लेते। लेकिन इस प्रकार का तादात्म्य बहुत समय तक चलता रहेगा। कुछ भी नया स्वीकार करने के लिए, आपका पुनर्जन्म होना चाहिए और आपका पुनर्जन्म हो गया है। अब आप धर्मातीत हैं अर्थात् आपको किसी विशेष प्रकार के धर्म का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। आप सभी धर्मों को अपना सकते हैं और सभी धर्मों का सार आपको लेना है। आपको किसी भी धर्म पर, किसी भी समय, आरोप नहीं लगाना है। आपको किसी भी धर्म का अपमान नहीं करना, या किसी भी अवतरण का अपमान नहीं करना  है, यह पाप है। सहज योग में यह एक महान पाप है, इनमें से कुछ भी। और आप जानते हैं कि वे कौन हैं।

स्वयं का वर्गीकरण जाति के आधार पर नहीं होना चाहिए। आप एक चीनी हो सकते थे या आप एक नीग्रो हो सकते थे, आप कुछ भी हो सकते थे। जब तक हम सभी मनुष्य हैं, हमें पता होना चाहिए कि हम उसी तरह हँसते हैं, हम उसी तरह मुस्कुराते हैं, हम सभी उसी प्रकार हैं। यह सब, हमारी बुद्धि में, समाज के अनुबंधन हैं कि कुछ (लोग) अछूत हैं, कुछ (लोग) अछूत नहीं हैं। यह हमारे भारतीय समुदाय में है, डरावने लोग। भारत के ब्राह्मणवाद ने भारत को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है और आप उनसे सीखिए। उदाहरण के लिए, व्यास कौन थे? जिन्होंने गीता लिखी, वे कौन थे? वे एक मछुआरिन के नाजायज़ पुत्र थे। इसलिए जानबूझकर उन्होंने इस तरह जन्म लिया। यह सभी ब्राह्मण जो गीता पढ़ते हैं उन्हें बताइये, व्यास कौन थे। ‘ब्राह्मण’ वे होते हैं जो आत्मसाक्षात्कारी हैं और आत्म साक्षात्कारियों के लिए यह सभी निरर्थक बातें कुछ भी मायने नहीं रखतीं, जैसे आप कहाँ जन्मे, आप किस जाति और समुदाय में जन्मे।

पश्चिम में इतनी साक्षरता और सब कुछ होने के बाद भी आप जातिवाद की इस मूर्खता को पाते हैं। मैं समझ नहीं पाती। यदि कोई गोरा या काला है। आख़िरकार परमात्मा को विविधता बनानी है, रंगों में, हर प्रकार से। आपको किसने कहा कि आप सबसे सुंदर लोग हैं पूरे संसार में? शायद यहाँ के बाज़ार के लिए, या शायद हॉलीवुड के लिए यह अनुकूल हो सकते हैं। लेकिन परमात्मा के साम्राज्य में इन सभी तथाकथित सुंदर लोगों को प्रवेश से वंचित कर दिया जाएगा। सात पतियों से शादी करना और इस तरह की सभी व्यर्थ की बातें l वे सब नरक में डाल दिए जाएँगे।

सुन्दरता हृदय की होती है, चेहरे की नहीं, जो झलकती है और प्रकाशित होती है। लोग इसके बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं, इसलिए वे अपने चेहरे को भूरा करते हैं। मुझे नहीं पता। वे जानते हैं कि यह बहुत अधिक दिखावा है जो हम कर रहे हैं। किन्तु घमंड होना? ऐसे बेतुके विचार होना? कुछ लोगों को लाल बाल पसंद हैं, कुछ लोगों को काले बाल पसंद हैं, कुछ को यह पसंद हैं। मेरा अर्थ है कि विभिन्न प्रकार के बाल होने ही चाहिए। आप एक विशेष प्रकार के बाल क्यों पसंद करते हैं? यह मैं नहीं समझ सकती। ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए – पसंद और नापसंद; परमात्मा ने जो कुछ भी बनाया है वह सब सुंदर है। यह निर्णय करने वाले आप कौन हैं कि ‘मुझे यह पसंद है’ और ‘मुझे वह पसंद है’? “मैं” – यह “मैं” कौन है? जो पसंद करता है वह श्रीमान अहंकार है, जिसे इस समाज द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। जो आपको सिखाता है कि कैसे सिगार पीना है और कैसे शराब पीनी है – सुबह से शाम तक । यह सब प्रशिक्षण और इस तरह के आचरण को फेंक देना होगा – गन्दगी की तरह। और देखिए कि परमात्मा ने आप सभी को अपने बच्चों के रूप में बनाया है, इतने सुंदर रूप में। आप इन बेकार विचारों के साथ इसे बदसूरत क्यों बनाना चाहते हैं? यह सब कुरूपता – मुझे पसंद है और मुझे नापसंद है – कि, सब निरर्थक है। केवल एक शब्द होना चाहिए ‘मुझे प्रेम है’।

सब कुछ भूल जाइए। यह याद रखने की आवश्यकता नहीं है कि अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ क्या किया और जर्मन लोगों ने यहूदियों के साथ क्या किया। भूल जाइए। जिन लोगों ने कुछ भी किया वे मर चुके हैं और ख़त्म हो चुके हैं। हम अलग लोग हैं। हम अलग लोग हैं, हम संत हैं। यह आपके अधिनियमों के लिए है, जो मैंने आपको बताए हैं, जिन्हें आपको आत्मसात् करना है।

लेकिन आज मैं आपको गुरु बनने के लिए अधिकृत करती हूँ, ताकि आप अपने चरित्र और अपने व्यक्तित्व के माध्यम से, जिस प्रकार आप अपने जीवन में सहज योग का अभ्यास करते हैं और प्रकाश को प्रकट करते हैं, अन्य लोग आपका अनुसरण करेंगे। और आप परमात्मा के अधिनियमों को स्थापित करेंगे, उनके हृदय में, और उन्हें बंधनमुक्त करेंगे। उन्हें मोक्ष प्रदान करें क्योंकि आपको अपना मोक्ष प्राप्त हो गया है।

आप माध्यम हैं। माध्यमों के बिना, यह सर्वव्यापी शक्ति कार्य नहीं कर सकती। यही पद्धति है। यदि आप सूर्य को देखते हैं, तो इसका प्रकाश इसकी किरणों द्वारा  फैलता है। आपके हृदय से रक्त, धमनी (आर्टरी) के माध्यम से बहता है, वह छोटी और छोटी होती जाती है। आप धमनी (आर्टरी) हैं, जो मेरे प्रेम के इस रक्त को सभी लोगों के लिए प्रवाहित करेंगी। यदि धमनी (आर्टरी) टूट जाती हैं, तो यह शक्ति लोगों तक नहीं पहुँचेगी। यही कारण है कि आप इतने महत्त्वपूर्ण हैं – बहुत, बहुत महत्त्वपूर्ण। आप जितने विशाल हो जाते हैं, उतनी ही विशाल धमनी (आर्टरी) आप बन जाते हैं, फिर आप अधिक लोगों को पार कराते हैं। इसके कारण आप और अधिक उत्तरदायी हो जाते हैं।

गुरु की गरिमा होनी चाहिए जैसा कि मैंने पिछली बार आपको बताया था। ‘गुरु’ का अर्थ है वज़न (प्रभाव) – गुरुत्वाकर्षण। ‘गुरुत्व’ का अर्थ है ‘गुरुत्वाकर्षण’। आपके ‘वज़न’ के अनुसार आपके पास गुरुत्वाकर्षण होना चाहिए। ‘वज़न’ का अर्थ है आपके चरित्र का प्रभाव, आपकी गरिमा का प्रभाव, आपके व्यवहार का प्रभाव, आपकी निष्ठा का प्रभाव और आपके प्रकाश का। आप तुच्छता और अहंकार के माध्यम से गुरु नहीं बन सकते – घटियापन, अशिष्ट भाषा, अभद्र मज़ाक़, क्रोध, मनोवृति (के माध्यम से नहीं)। इन सबको पूर्णतः त्याग देना चाहिए। आपकी जिह्वा की मधुरता का प्रभाव, गरिमा – लोगों को आकर्षित करेगा, ठीक उसी प्रकार जैसे पुष्प जब मधु से लदे होते हैं तो मधुमक्खियों को चारों ओर से आकर्षित करते हैं, उसी तरह आप लोगों को आकर्षित करेंगे। लेकिन उस पर गर्व करें। उस पर बहुत, बहुत गर्व करें और दूसरों के प्रति सहानुभूति रखें और दूसरों की देखभाल करें।

अब संक्षेप में मुझे आपको यह बताना है कि आपको यह स्वयं कैसे करना है, गुरु की कार्य प्रणाली क्या है। आपको अपने भवसागर को स्वच्छ करना होगा। सबसे पहले, आपको यह जानना होगा कि एक ग़लत प्रकार का गुरु होने पर भवसागर पकड़ता है – या हो चुके होने पर। आपको अपने गुरु के बारे में पूरी तरह से पता होना चाहिए। अपने गुरु के चरित्र का पता लगाने की कोशिश करें। कठिन है क्योंकि आपकी गुरु बहुत भ्रान्तिरूपेण हैं। वह महामाया हैं, पता लगाना आसान नहीं है। वह बहुत सामान्य ढंग से व्यवहार करती हैं और कभी-कभी आप चकमा खा जाते हैं। लेकिन आप देखें, छोटी-छोटी चीज़ों में भी वह कैसे व्यवहार करती हैं, कैसे उनके चरित्र की अभिव्यक्ति हो रही है, उनका प्रेम कैसे व्यक्त हो रहा है, वह सब स्मरण करने की कोशिश करें, उनका क्षमाभाव।

और तब आपको जानना होगा कि आपके पास वह गुरु है जिसे कई लोगों ने प्राप्त करने की इच्छा की होगी, जो सभी गुरुओं का स्रोत है। यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी तीव्र इच्छा है कि उन्हें भी एक ऐसा गुरु प्राप्त हो, उन सभी को भी आपसे ईर्ष्या होगी। लेकिन यह गुरु बहुत भ्रान्तिमय है। तो अपने भवसागर को सुधारने के लिए आप कहिए कि “माँ आप ही हमारी  गुरु हैं”। इस मायाजाल के कारण वह भय और वह आदर जो आवश्यक है, वह सम्मान जो गुरु के लिए आवश्यक है, स्थापित नहीं हुआ है। जब तक आप अपने भीतर, उस भय और आश्चर्य से युक्त उस आदर को उत्पन्न नहीं करते तब तक आपके गुरु तत्व का विकास नहीं होगा। कोई अधिकार नहीं मानना है। मैं आपको स्वयं बता रही हूँ, लेकिन मैं अत्यंत भ्रान्तिरूपेण हूँ। अगले क्षण मैं आपको हँसाऊँगी और भुला दूँगी, क्योंकि मैं आपकी स्वतंत्रता की परीक्षा ले रही हूँ, पूर्ण स्वतंत्रता में। मैं आपके साथ इस तरह से क्रियाशील होती हूँ कि आप हर क्षण भूलते  रहेंगे कि मैं आपकी गुरु हूँ, प्रत्येक क्षण।

इसलिए सबसे पहले आपको अपने गुरु के बारे में जानना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में स्थापित करें। मेरा अर्थ है, आपके पास एक अद्भुत गुरु है, मैं कहूँगी काश मेरे पास भी ऐसा (गुरु) होता। और वह इच्छा-रहित और पापहीन है, बिल्कुल पाप रहित है। मैं जो कुछ भी करती हूँ  वह मेरे लिए पाप नहीं है। मैं किसी का भी वध कर सकती हूँ, कोई भी साज़िश या कुछ भी कर सकती हूँ। मैं वास्तव में आपको बता रही हूँ। यह तथ्य है। कुछ भी कर सकती हूँ। मैं पाप से परे हूँ। लेकिन मैं यह ध्यान रखती हूँ कि मैं आपकी उपस्थिति में ऐसा कुछ न करूँ, जिससे आपको ऐसा कुछ न मिले, क्योंकि यह मेरा गुण है।

आपके पास एक सर्वोच्च गुरु हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन फिर भी आपको पता होना चाहिए कि प्रभुत्व की वह शक्तियाँ आपके पास नहीं हैं। मैं इन सब चीज़ों से ऊपर हूँ। मैं नहीं जानती कि प्रलोभन क्या हैं, कुछ भी नहीं। मेरा मतलब है मुझे जो अच्छा लगेगा मैं वही करुँगी। यह सब मेरी इच्छा है। लेकिन इसके बावजूद मैंने स्वयं को बहुत सामान्य बनाया है, और क्योंकि मुझे आपके समक्ष इस तरह प्रतीत होना है कि आप समझ सकें कि परमात्मा के क्या अधिनियम हैं। मेरे लिए कोई नियम नहीं हैं। मैं ही सब नियम बनाती हूँ। है न? आपके कारण मैं यह सब करती हूँ और आपको हर छोटी से छोटी बात सिखाती हूँ, क्योंकि आप अभी भी बच्चे हैं।

उसी तरह, आपको याद रखना चाहिए कि जब आप सहज योग के बारे में अन्य लोगों से बात कर रहे हैं – तो याद रखें कि वे आपको हर समय देखेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि आपने इसमें कितनी गहराई प्राप्त की है। जैसा कि मैं आपको समझती हूँ, आप उन्हें समझने की कोशिश करें। जैसा कि मैं  आपको प्रेम करती हूँ, आप उन्हें प्रेम करने की कोशिश करें। मैं निःसंदेह आपसे प्रेम करती हूँ। लेकिन मैं निर्मम हूँ – मैं प्रेम से परे हूँ। यह पूर्ण रूप से एक अलग स्थिति है।

इन परिस्थितियों में, आप भाग्यशाली हैं, बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि कोई भी गुरु कभी भी इस हद तक नहीं जाता है। इसके अलावा मैं सभी शक्तियों का स्रोत हूँ। सभी शक्तियों का। इसलिए आप मुझ से सभी शक्तियाँ प्राप्त कर सकते हैं – जो भी आपको पसंद हों। मैं  इच्छा-रहित हूँ, लेकिन आपकी जो भी इच्छा है वह पूरी होगी। यहाँ तक कि मेरे लिए भी आपको इच्छा करनी होगी, अब देखिए किस तरह मैं आपसे संलग्न हूँ। जब तक आप मेरे अच्छे स्वास्थ्य की इच्छा नहीं करेंगे, तब तक मेरा स्वास्थ्य ख़राब रहेगा। यह इस हद तक है। लेकिन मेरे लिए क्या बुरा स्वास्थ्य और क्या अच्छा स्वास्थ्य? और इन सुंदर  परिस्थितियों के अनुसार आपको इतनी अच्छी तरह से समृद्ध होना चाहिए। आपको गुरु बनने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।

अब भवसागर की स्थापना की जानी है। सबसे पहले आपको अपने गुरु को जानना चाहिए और वह हर चक्र पर कार्य कर रही है – सोचिए आपके पास कितनी अद्भुत गुरु हैं। इससे आप आत्मविश्वास महसूस करेंगे। और क्योंकि यह इतनी अद्भुत गुरु हैं, प्रत्येक (व्यक्ति) इतनी आसानी से पार हो रहा है। यदि आप एक धनवान आदमी के पास जाते हैं तो वह आपको दो पाई नहीं देगा। क्योंकि आपकी गुरु बहुत शक्तिशाली हैं, आप अपनी शक्तियाँ सहज ही प्राप्त कर रहे हैं। तो आपको इसके बारे में बहुत प्रसन्नता महसूस करनी चाहिए, अत्यधिक प्रसन्नता और इतना सुंदर कि आपको यह सभी शक्तियाँ मिली हैं। कम से कम जो लोग सहज योग में हैं, वे जानते हैं – कुछ समय के लिए। जो लोग पहली बार आए हैं, वह मेरे व्याख्यान से थोड़ा आश्चर्यचकित हो सकते हैं। आप सभी को पता है। आप सभी निश्चित रूप से जानते हैं कि यह क्या है।

तो अपनी गुरु शक्ति को समझने के लिए आपको जानना चाहिए कि आपकी गुरु कौन है, साक्षात् आदि शक्ति। हे भगवान, यह बहुत ज़्यादा है। फिर अपने भवसागर की स्थापना करें। एक गुरु किसी और के समक्ष अपना सिर नहीं झुकाता है और विशेष रूप से मेरे शिष्य। माताओं और बहनों के अलावा, और यदि कुछ संबंध ऐसे हैं तो आप उनके समक्ष नमन करते हैं। लेकिन वे किसी और के सामने नहीं झुकते।

और दूसरी बात आपको पता होनी चाहिए कि आपकी गुरु बहुत महान लोगों की माँ रही है। उनके बारे में सोचने मात्र से ही आपका गुरु तत्व स्थापित हो जाना चाहिए। मेरे कितने अद्भुत पुत्र रहे हैं, कितने महान व्यक्तित्व। कोई भी शब्द उनका वर्णन नहीं कर सकते। और कितने सारे, एक के बाद एक। और आप उसी परंपरा में हैं, मेरे शिष्य। उन्हें अपने आदर्शों के रूप में रखें। उनका अनुसरण करने की कोशिश करें। उनके बारे में पढ़ें, उन्हें समझें – उन्होंने क्या कहा है, कैसे उन्होंने इतनी ऊँचाईयाँ प्राप्त की हैं। उन्हें पहचानें। उनका सम्मान करें। आप अपना गुरु तत्व स्थापित कर पाएँगे।

अपने भीतर सभी धर्मो का पालन करें और इसके बारे में गर्व महसूस करें। लोग जो कह रहे हैं, उससे भ्रमित न हों। अधिकतर लोग जो बात करते हैं, उससे । हम पूरी भीड़ को अपनी ओर खींचने जा रहे हैं। सबसे पहले, आइए हम अपना प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण स्थापित करें। जैसे कि धरती माँ हर किसी को अपनी ओर खींचती रहती हैं, हम उन सभी को अपनी ओर आकर्षित करें।

आज, आप सभी को, अपने भीतर, अपनी आत्मा से प्रतिज्ञा करनी है कि आप एक गुरु बनेंगे जो आपकी माँ के योग्य होगा।

आप सबको अनंत आशीर्वाद।

अब जो लोग पहली बार आए हैं उन्हें पता होना चाहिए कि पूजा एक ऐसी चीज़ है जो हर किसी के लिए नहीं है।