The Power of Brahma

New Delhi (भारत)

1981-03-11 The Power Of Brahma New Delhi Source NITL HD, 51'
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“The Power of Brahma”, Public Program,  Delhi (India), 11 March 1981.

[Hindi translation from English]

उस दिन मैंने आपको बताया था कि चैतन्य लहरियाँ ब्रह्मशक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं–ब्रह्मा की शक्ति | ब्रह्मा की शक्ति वह शक्ति है जो सृजन करती है, इच्छा करती है, उत्क्रान्ति करती है तथा आपको जीवन्त-शक्ति प्रदान करती है। यही शक्ति हमें जीवन्त शक्ति प्रदान करती है | अब ये समझना सुगम नहीं है की मृत शक्ति क्या है और जीवन्त शक्ति क्या है।.जीवन्त शक्ति को समझना अत्यन्त सुगम है। कोई पशु या हम कह सकते हैं, एक छोटा सा कीड़ा जीवन्त शक्ति है। इच्छानुसार ये अपने को घुमा सकता है, किसी खतरे से अपनी रक्षा कर सकता है | ये जितना चाहे छोटे आकार का हो परन्तु जीवन्त होने के कारण ये अपनी रक्षा कर सकता है। परन्तु कोई भी मृत चीज़ अपने आप हिलडुल नहीं सकती। जहाँ तक ‘स्व’ (self) का प्रश्न है वह तत्व इस में नहीं होता। जीवन्त शक्ति होने के नाते अब हमें यह पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिए कि, “क्या हम जीवन्त शक्ति बनने वाले हैं या जीवन- विहीन |” इस विश्व में रहते हुए हम अपनी सुख सुविधाओं के विषय में सोचने लगते हैं कि हमें कहाँ रहना है और क्या करना है। जब हम इन चीजों के विषय में सोचते हैं तो हम मत्त चीज़ों के विषय में सोच रहे होते हैं| परन्तु जीवन्त कार्य करने के लक्ष्य से जब हम कोई स्थान, कोई आश्रम प्राप्त करने के विषय में सोचते हैं तब हम उस स्थान को जीवन प्रदान करते हैं। सारी जीवन विहीन चीजों से उस वातावरण की सृष्टि की जानी चाहिए – जीवन्त शक्ति का सृजन करने के लिए। अब यह अत्यन्त सूक्ष्म बात है जिसे बहुत कम लोग समझते हैं। उदाहरण के रूप में कोई व्यक्ति मेरे पास श्री गणेश का फोटो लाकर पूछता है, “क्या मुझे श्री गणेश के इस फोटो की पूजा करनी चाहिए या नहीं?” सर्वप्रथम हमें देखना चाहिए कि इसमें चैतन्य लहरियाँ आ रही हैं या नहीं? मान लो आप एक घर लेते हैं, तो आपको अवश्य देखना चाहिए कि घर से चैतन्य आ रहा है या नहीं। हम सुख-सुविधा को देखते हैं, अन्य चीज़ों को देखते हैं, हम यह भी देखते है कि वहाँ पर आने वाले अन्य लोगों के लिए ये स्थान ठीक है या नहीं, परन्तु चैतन्य लहरियों के नज़रिये से उस घर को नहीं देखते। अब जो भी कुछ हम करते हैं उसे चैतन्य चेतना के दृष्टी-कोण से सोचना आवश्यक है, अर्थात्‌ जीवन्त चीज़ों पर कार्य करने वाली चेतना के दृष्टिकोण से। जैसे हम कह सकते हैं कि पेड़ की जड़ के सिरे का तन्तु जीवन्त चीज़ है। बेशक इस में सोचने की शक्ति नहीं है, परन्तु जीवन्त शक्ति स्वयं इसका पथ प्रदर्शन करती है| अतः इसे इस बात का ज्ञान हैं कि जीवन्त शक्ति के साथ किस प्रकार चलना हैं, इस के साथ किस प्रकार रहना हैं, और इसके साथ चलने के लिए, इसमें विलीन होने के लिए, इसकी योजनाओं को किस प्रकार समझना है। परन्तु मानव को निर्णय लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। एक बार जब आपको आत्मसाक्षात्कार मिल जाता है तो आपको जीवन्त शक्ति प्राप्त हो जाती है। इसी जीवन्त शक्ति को आप महसूस करते हैं। अतः अपने शरीर, मस्तिष्क, अहं, प्रतिअहम्‌ तथा अन्य सभी चीज़ों को ज्योतिर्मय अवस्था में बनाये रखने के लिए इस जीवन्त शक्ति की योजनाओं को समझकर इस का उपयोग करना आपने सीखना है। अधिकतर समस्याओं के विषय में यह आपको विचार प्रदान करती है। उदाहरण के रूप में इस देश में विशेष रूप से दिल्ली में, आप लोगों को बाई नाभी की पकड़ होती हैं, दाएं स्वाधिष्ठान की भी पकड़ होती है और इसके बाद हृदय और आज्ञा की पकड़ होती है। यह चक्र हमारे अस्तित्व को देखते हैं। अतः हमें चाहिए कि बाई ओर से देखना आरम्भ करें कि क्‍या होता है? बाई ओर समस्या का आरम्म-बाएं स्वाधिष्ठान से होता है क्योंकि ये पहला चक्र है जो हमारे अन्दर नकारात्मकता प्रवाहित करने लगता है| वास्तव में बाएं स्वाधिष्ठान के शासक श्री गणेश हैं। क्योंकि श्री गणेश ही जीवन का आरभम्म हैं तथा – जीवन और मृत्यु के बीच की कड़ी हैं अतः श्री गणेश ही सन्तुलन प्रदान करते हैं, आपको वह विवेक, वह सूझबूझ प्रदान करते हैं जिसके द्वारा आप समझ पाते हैं कि किस सीमा तक जाना है। जब बायां स्वाधिष्ठान पकड़ता है तो आप उन लोगों के पास जाना शुरु कर देते हैं जो ऐसी चीज़ों का वचन आपको देते हैं जैसे “मैं आपको यह दूंगा, मैं आपको वह दूंगा, ऐसा हो जाएगा, आपके साथ वैसा घटित हो जाएगा।” परन्तु आपकी अपनी गलत इच्छाओं के कारण भी आपमें यह बाई ओर की पकड़ आ सकती है। उदाहरण के रूप में हम किसी गलत चीज की इच्छा कर सकते हैं, सोच सकते हैं कि यह मृत चीज हमें मिल जानी चाहिए या इसी प्रकार की कोई विशेष बात सोच सकते हैं| मान लो किसी को रैफ्रीजरेटर चाहिए और वह उसी के बारे में ही सोचता रहता है। वह सोचता है कि उसके पास फ्रिज होना ही चाहिए। उसे फ्रिज के पास जाना चाहिए क्‍योंकि उसे फ्रिज चाहिए। वह उसे मिलना ही चाहिए। फ्रिज उसे क्‍यों चाहिए? क्योंकि वह सोचता है कि इससे उसे अधिक सुविधा मिलेगी | परन्तु फ्रिज लाने के बाद उसे पता चलता है कि वास्तविकता यह नहीं है। अतः सभी भौतिक चीजों को देखने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि इनमें बहुत अधिक न उलझा जाए। आपको यदि यह चीज मिल जाए तो ठीक है और न मिल जाए तो भी ठीक है। अधिक से अधिक चीज़ों के साथ भी आप रह सकते हैं और कम से कम चीजें पाकर भी। परन्तु अपनी भौतिक (मृत) चीज़ों को जब हम बढ़ाने लगते है तो यह बहुत बुरी बात है। तब हमारा चित्त इन्हीं मृत (भौतिक) चीज़ों की और ही जाता है। इस प्रकार से हम अपने अवचेतन में चले जाते हैं और फिर सामूहिकअवचेतन में | फिर यह पकड़ ऊपर की और बाई नाभि पर चली जाती है और बाई नाभि की पकड़ से हम भौतिक पदार्थों के लिए पगला जाते है। उदाहरण के लिए घड़ी, समय | समय मृत हैं यह जीवन्त नहीं है| जीवन्तता से इसका कोई लेना देना नहीं है। उदाहरण के लिए आप यह नहीं कह सकते कि किस समय फूल फल बन जाएगा। अतः घड़ी या समय को जीवन्त शक्ति से कोई लेना देना नहीं है। यह सब मानव रचित चीजें हैं जैसे घड़ी; समय भी मानव का ही बनाया हुआ है। आज यहाँ पर कुछ समय है परन्तु इंग्लैड में कुछ और है। आप यदि कहते हैं कि भारत में चार बजे हैं तो इंग्लैंड में समय वही नहीं है। अत: समय महत्वहीन है। आप कब पहुँचते हैं, कब जाते हैं, कितनी बार कार्य करते हैं, यह सब महत्वहीन है। क्योंकि जीवन्त शक्ति असीम है इसलिए इसकी न तो कोई समय-सीमा हैं और न ही कोई दूरी सीमा है। जिस प्रकार ये कार्य करती है आप इसका हिसाब नहीं लगा सकते। यदि हम ये समझते कि यह जीवन्त शक्ति है जो स्वचालित है और जो हमारे भौतिक विचारों की तनिक भी परवाह नहीं करती तो हम भौतिकता (Dead) से मुक्त हो जाते हैं| तो हमारा चित्त हर समय भौतिक (Dead) पदार्थों की तरफ है। हमें क्‍या प्राप्त करना चाहिए, क्या पा लेना चाहिए, हमारी आवश्यकता क्‍या है? हर समय हम इस नश्वर शरीर की चिंता में लगे रहते हैं। आत्मा की आवश्यकताओं को हम नहीं देखते। आत्मा की आवश्यकता को देखने से आप बाई ओर की समस्याओं पर काबू पा सकते हैं, आप अपनी आत्मा की देखभाल करने लगते हैं जिससे आप जान पाते हैं कि आपको चैत्तन्य लहरियाँ आने लगी हैं| आप की आत्मा यदि प्रसन्‍न है तो आपको चैतन्य लहरियाँ आती हैं, यदि यह प्रसन्न नहीं है तो आपको चैतन्य लहरियाँ नहीं मिलतीं। इतनी साधारण सी बात है! आपको यदि. बाई ओर की कोई बीमारी या समस्या है तो इसे संतुलित करनें के लिए आप अपना चित्त भविष्य पर डालें | परन्तु मैं जब भविष्य पर चित्त डालने के लिए कहती हूँ तो लोग भविष्य पर ही अड़ जाते हैं । क्योंकि मृत मृत है और मिथ्या है। इसी प्रकार भविष्य भी मिथ्या है, इसका कोई अस्तित्व नहीं | दोनों ही काल एक सम (मिथ्या) हैं, चाहे आप बाएं को जाएं या दाएं को (तामसिकता में या राजसिकता में) आप चाहे अवचेत्तन मन में जाएं (Subconcious Mind) या अतिचेतन मन (Supra-concious mind) में | दोनों ही चीज़ें एक सी हैं। अतः भूतकाल में जाने का कोई लाभ नहीं | परन्तु यदि आप भूतकाल में बहुत अधिक हैं तो भविष्य के विषय में सोचना बेहतर होगा ताकि आप थोड़ा सा मध्य (Centre) की ओर जा सकें। परन्तु आप मनुष्यों के लिए ये कर पाना मुश्किल है। अब एक अन्य समस्या का आरम्भ तब होता है जब हममें किसी चीज़ के विषय में दोष भाव आ जाता है। जब बाई विशुद्धि पकड़ जाती है तब हममें दोष भाव आ जाता है। “मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।” तब आप कहनें लगते हैं, “मैं अत्यन्त दुःखी हूँ; मैं बहुत दोषी हूँ। इस प्रकार आप स्वयं को कोसने लगते हैं। ये एक अन्य मूर्खता है। इस प्रकार से एक बार जब आप करने लगते हैं तो पुनः आप मृत स्थिति में आ जाते हैं क्‍योंकि जीवन्त शक्ति कभी किसी को दोषी नहीं ठहराती | नहीं, ये कभी ऐसा नहीं करती । यह स्वत: उन्नत होती चली जाती है, देखती है कि किस ओर को चलना है, इस ओर या उस ओर | यह स्वयं को कोसती नहीं है। किसी चीज के प्रति यह आक्रामक नहीं होती, मध्य में बने रहने का विवेक इसमें होता है। इस प्रकार अपना चित्त मृत चीज़ों से हटा कर आपको बाईं ओर की समस्याएं दूर कर लेनीं चाहिएं। जब आप बाई ओर को हों तो आपको चाहिए की मध्य में रहते हुए देखें। जो चीज़ आप देखना चाहते हैं, उसे नहीं देखते और अन्ततः इनसे पलायन करने के लिए हर समय स्वयं को दोष देने लगते हैं और दुखी रहतें हैं। इस प्रक्रार बाई ओर की समस्याओं का परिणाम अत्यन्त खिन्नता की अवस्था में चले जाना है। बाई ओर के लगावों का यही अन्तिम परिणाम है | अन्तत्तः आप सोचने लगते हैं कि आप किसी काम के नहीं, बेकार हैं। आपको ऐसा कर लेना चाहिए था, वैसा कर लेना चाहिए था। अब इस समय इस पर काबू पाने के लिए आपको प्राप्त हुए आशीर्वाद गिनने होंगे। जो आशीर्वाद आपको प्राप्त हुए हैं उन्हें एक एक करके गिनिए | आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है। पिछले हजारों वर्षो में कितने लोगों ने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया? आपको चैतन्य लहरियाँ प्राप्त हो गई हैं। इतनी सदियों मे कितने लोगों को चैतन्य लहरियाँ प्राप्त हुई? जेन (शा) ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि आठ शत्ताब्दियों में कुल मिलाकर 26 कश्यप (आत्मसाक्षात्कारी) हुए। बुद्द के पश्चात्‌ भी कितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार मिला? आप एक बात अवश्य सोचें कि इतने सारे साक्षात्कारी लोग हैं जो एक हीं भाषा और एक ही जुबान बोलते हैं। आप शुक्रगुजार हों कि आप सभी कुछ जान सकते हैं। परन्तु यदि आपको बाई ओर की पकड़ हो तो आप भूतकाल में चले जाते हैं और कहते हैं, “हे परमात्मा! मैं इतना बेकार हूँ, मैं किसी काम का नहीं | मैं इतना बेकार, निकम्मा हूँ कि अब भी मुझे पकड़ है। जैसा आप जानते हैं कि जिन लोगों को बाई ओर की पकड़ रहती है वे सदा शिकायत करते रहते हैं और छोटे-छोटे कष्टों की शिकायत करते रहते हैं। अब इसी के मुकाबले एक अन्य पक्ष हैं। मैं यदि आपसे कहूं कि दूसरी ओर भी जाएं तो वह अत्यन्त भयानक खेल होगा | उदाहरण के रूप में हमारे जीवन में बहुत से बन्धन हैं। आप देखें, -सर्वप्रथम हमारी इच्छाएं हैं, हमारी इच्छा है कि शानदार सहजयोगी बनें, महान गुरु बनें या कुछ महान चीज बन जाएं। हमारी यह भी इच्छा होती हैं कि हमारे बहुत से शिष्य हों जो हमारे चरण छूए और हम महान गुरु कहलाएं। अतः सहजयोग में कुछ चीज़ों की मनाही है। कि न कोई किसी के चरण छूए और न कोई सहजयोगी किसी को चरण छूने दे। सभी सहजयोगियों के लिए यह बहुत बड़ा बन्धन है। कोई किसी के पैर न छूए और न ही किसी को अपने चरण छूने के लिए कहे, चाहे आपमें कितने भी गुण हों। चरण छूने वाले लोगों की चैतन्य लहरियाँ समाप्त हो जाएंगी और जो लोग प्रणाम करवाते हैं उनका भी हृदय चक्र पकड़ जाएगा। अतः सहजयोग के विषय में भी इस प्रकार के जो बन्धन हममें हैं उन्हें दूर किया जाना चाहिए।  हम सब सामूहिक रूप से उन्नत हो रहे हैं| हम एक ही व्यक्तित्व के अंग प्रत्यंग हैं, न कोई ऊँचा है और न कोई नीचा। इससे अलग यदि कोई सोचता है तो बड़ी तेजी से उसका पतन हो जाएगा। यह बाई ओर के बन्धन हैं जिनमें लोग बहुत अधिक लड़खड़ाते हैं। सहजयोग में बहुत अधिक इच्छाएं त्याग दी जानी चाहिएं।  सहजयोग में आपमें बहुत विशाल इच्छा होनी चाहिए कि हम सब आत्मसाक्षात्कार को पा लें। जितना भी अधिक से अधिक हो सके अधिक से अधिक लोगों की रक्षा करने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। जहाँ तक हो सके हम अपने को सुधारें। हम स्वयं को सुधार सकते हैं तथा बहुत से आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। बाई ओर से भी विचार आ सकते हैं। मान लो आपके सिर में कुछ भूत हैं, तो वे आपमें विचार पैदा कर सकते हैं कि, “ओह, आप बेकार हैं या किसी काम के नहीं।” ऐसे में अपने दाएं हाथ से अपनी दाई ओर को उठाएं और बाई को नीचे गिराएं। ऐसा हम क्यों करते है? क्योंकि अपनी दाई ओर से आप कृपा प्राप्त करते है और बाई ओर को कम करते हैं | जिन लोगों को बाई ओर की समस्या हैं वे इस विधि को अपना कर देखें। एक अन्य विधि यह है कि जब भी आपको ऐसे विचार आएं कि आप किसी काम के नहीं आदि आदि तो स्वयं को, अप॑ने नाम को जूते मारना बेहतर होगा। जाकर परमात्मा की स्तुति गाएं और कहें “मैं अत्यन्त प्रसन्‍न हूँ, मुझे सभी कुछ प्राप्त हो गया है।”  दूसरी चीज दाई ओर के विषय में है, दाई ओर प्राय: आपको स्वाधिष्ठान की पकड़ आती है। यह सोचने के कारण होता है। यह दूसरी तरह की सोच आपको दाएं स्वाधिष्ठान की पकड़ देती है। विचार चाहे बाएं से आए या दाएं से इनसे आपको ‘जिगर की समस्या होगी। सबसे बुरा प्रभाव तो तब आता है जब दोनों पक्ष (बायां और दायां) प्रभावित हों । कुछ भूत आपको विचार देते हैं कि आप बेकार हैं या फिर आप स्वयं को बहुत महान चीज मान लेते हैं या समझ लेते हैं। इससे स्थिति अत्यन्त डावांडोल हो जाती है और भ्रम उत्पन्न होने लगता है। अतः व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि सहजयोग में आपको एक तेजधार, एक मध्य बिन्दु विकसित हो रहा है जिससे आपको न तो बाई और जाना है न दाई तरफ | ये इतनी सूक्ष्म चीज़ है कि यदि आप तामसिक प्रवृत्ति हैं तो आवश्यक नहीं कि आप तामसिक ही बने रहें | कल हो सकता है, आप राजसिक प्रवृत्ति बन जाएं। निसन्देह कल आप राजसिक समस्याओं के साथ आएंगे। अतः सन्तुलन सीखना आवश्यक है, वैसे ही जैसे साइकिल सीखते हुए करते हैं। आप इस ओर भी गिर सकते हैं उस ओर भी। साइकिल चलानी आप कब सीखते हैं। आप यदि मुझसे पुछें तो मैं कहूंगी कि जब आप साइकिल चलाते हैं तभी सीखते हैं | अतः सहजयोग में भी संतुलित होने के लिए आपको स्वयं को सावधानी से देखना पड़ेगा कि आप किधर जा रहे हैं। यदि बायें को जा रहे हैं तो दायें को आ जाएं, यदि दायें को जा रहे हैं तो बाएं को आ जाएं | और फिर मध्य में आयें। स्वयं को अलग कर लीजिए, हर समय स्वयं को निर्लिप्त कर लीजिए | न अपनी आलोचना करनी है, न किसी के प्रति आक्रामक होना है और न ही किसी की आलोचना करनी है। यह युक्‍ति स्वयं को देखने के लिए उपयोग करनी है। केवल देखें और अपना पथ प्रदर्शन करें। पंथ प्रदर्शन भटक :जाने से बहुत भिन्‍न है। यही वास्तविकता है। मानलो कोई मृत चीज है। इसे यदि मैं फेंकूं तो यह फेंके हुए स्थान पर गिरेगी। परन्तु यदि मैं किसी जीवन्त चीज़ जे फेंकूं तो यह ठीक उसी स्थान पंर नहीं गिरेगी। अतः जीवन्त शक्ति जानती है कि स्वयं का पथ प्रदर्शन किस प्रकार करना है। इसी प्रकार से आप भी अपना थ प्रदर्शन करना सीख जाएंगें। ऐसा करना यदि आप सोच लेते हैं तन आप सहजयोग में कुशल हो जाते हैं। किसी भी प्रकार से अपनी भर्त्सना करने  का या ये सोचने का कि मैं महान हूँ या तुच्छ हूँ, कोई लाभ नहीं है। अब तो केवल ये देखें कि घोड़ा कहाँ जा रहा है। आप घोड़े की पीठ पर बैठे हैं, स्वयं घोड़ा नहीं हैं। आत्मसाक्षात्कार से पूर्व आप घोड़ा होते हैं| जहाँ वो आप को ले जाता है आप चले जाते हैं। घोड़े को जहाँ घास नज़र आती है घोड़ा वहीं रुक जाता है। घोड़ा कभी कभी किसी को दुलत्ती भी मारना चाहता है और वह ऐसा करता है। अब आप घोड़े से बाहर आ गए हैं और सवार बनकर घोड़े पर बैठे हैं। अब आप सवार हैं अत: अब आपको पता होना चाहिए कि किस प्रकार ये चीजें आपको मूर्ख बनाती रहीं। आपके अन्दर ये सभी इच्छाएं प्राचीन तथा युगों पुरानी हैं। आप देखें कि आक्रामकता, कर्म जो आप कर रहे हैं, भी प्राचीन है। ऐसा करने से आपको ये मिल जाएगा या वो मिल जाएगा। बहुत से लोग कहते हैं, “श्रीमाताजी हम यह कार्य कर रहे हैं, सहजयोग के लिए हम इतना कार्य कर रहे हैं फिर भी हमें कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं हुई।” क्या करें? कुछ नहीं कर सकते! आप स्वयं पता लगाएं कि आपमें क्या कमी है?  हृदय चक्र यदि पकड़ता है तो ऐसे लोग कभी उन्नति नहीं कर सकते। हृदय प्रकाश का स्रोत है, यह ब्रह्म शक्ति का स्रोत्त है। यह आत्मा का सिंहासन है। हृदय में यदि जीवन्त शक्ति नहीं होगी तो आप उन्नत कैसे हो सकते हैं? आपको ज्ञान होना-चाहिए कि क्‍या चुनना है | सहजयोग से आपमें यह परिवर्तन आना चाहिए। आपको उस बिन्दु तक परिपक्व होना चाहिए जहाँ आप यह समझ सकें कि क्‍या चुनना है। यही उन्नति है। तब आपको न तो श्रीमाताजी से कुछ पूछना पड़ता है न किसी अन्य से। यह विकास आपमें होना चाहिए कि, “मै जो कर रहा हूँ उसका मुझे पूरा ज्ञान होना चाहिए। मुझे पता होना चाहिए कि क्‍या ठीक है। इसे ठींक करने की विधि का ज्ञान भी मुझे होना चाहिए।’ इस “मैं” की समझ मुझे होनी चाहिए कि ये आत्मा है अहम्‌ नहीं। अब अहम्‌ या प्रतिअहम्‌ का अस्तित्व नहीं बचा। आत्मा ही आपका पंथ प्रदर्शन करती है। आत्मसाक्षात्कारी बच्चों को आप देखें, वे ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं। वो जानते हैं कि पकड़ा हुआ कौन है, वो जानते हैं कि किसका मुंह बन्द करना है और किससे बहस करनी है। पकड़े हुए लोगों से उन्हें कोई हमदर्दी नहीं होती | वो तो बस देखते हैं| कोई यदि आता है तो वो मुझे बताते हैं, “श्रीमाताजी ये व्यक्ति पकड़ा हुआ है।” मात्र इतना ही। कोई अन्य व्यक्ति आता है तो एकदम से वे कहते हैं, “ये ठीक है।” बस । मात्र इसकी घोषणा करते हैं। न वें किसी चीज की चिन्ता करते हैं और न वे किसी से घृणा करते है। भंयकर बाधा वाला कोई व्यक्ति यदि आता है तो वे कहते हैं, “बेहतर होगा कि आप चले जाएं”, उस व्यक्ति के प्रति बिना किसी दुर्भाव के। पहाड़ की चोटी पर जब आप पहुँच जाते हैं तो सड़क पर चलने वाले वाहनों की चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं। अभी तक आप चोटी पर नहीं पहुंचे, इसीलिए चिन्तित हैं कि मैं चढ़ता हूँ। ये सब मिथक (Myth) हैं | आपके मस्तिष्क पर मानसिक साया। ये वास्तविकता है कि आप पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए हैं| परन्तु आपको पूर्ण विश्वास नहीं है, पूर्ण विश्वास का अभाव है। परमात्मा ही आनन्द भोक्‍ता हैं। आप आनन्द नहीं उठा सकते। आप तो केवल परमात्मा का आनन्द ले सकते हैं। यही महानतम आनन्द है, ये महसूस करना कि परमात्मा ने आपके लिए क्‍या सृजन किया है, मानवीय चेतना में परंमात्मा ने आपको कितना सुन्दर जीवन दिया है! इसी के द्वारा आप जान सकते हैं कि वो आपको कितना प्रेम करते हैं और आपके लिए उन्होंने कितना कार्य किया है। वे ही आपको इस स्तर पर लाए हैं। परमात्मा ने जो आपको दिया है वो आप अन्य लोगों को दे सकते हैं और उन्हें आनन्दित कर सकते हैं। आप यदि ऐसा सोचें तो आपके दोनों पक्ष (बायां और दायां ) एक दम से ठीक हो जाएंगे और दिव्य चैतन्य लहरियों से आप परिपूर्ण हो जाएंगे। हिन्दी प्रवचन अब हिन्दी में बतायें। आपको विराजना चाहिये। विराजिये, आसन पर विराजिये। आसन पर बैठकर भीख मांग रहे हैं, रो रहे हैं। आसन पर बैठकर पागलपन कर रहे हैं! इनका किया क्या जाये? अरे भई, आसन पर विराजों। आप राजा साहब हैं। बैठिये, और अपनी पौँचों इन्द्रियों को आप आज्ञा दीजिए, “जनाब आप अब ऐसे चलिए, बहुत हो गया | अब ये ठीक है, अब वो ठीक है, हाँ बहुत समझ लिया आपको।” जब आप इस तरह से (Command) कमाण्ड में अपने को करेंगे, जब आप अपने को पूरी तरह कण्ट्रोल (Control) में करेंगे, तभी तो आप अच्छे सहजयोगी हुए। नहीं तो आपके मन (Mind) ने कहा, “चलो इधर”, आप बोलते हैं, “माताजी, क्या करूं, इतना मन को रोकता हूँ, पर मन इधर जाता है।” फिर मन क्‍या है? मन तो एक (Living force) जीवन्त शक्ति है, वो जाएगा ही। मन तो उसी जगह जाएगा, जहाँ जाना है | हमारी जो इन्द्रियां हैं, वो जागृत हो जाती हैं और फिर हम इधर-उधर जाना ही नहीं चाहेंगे और बहुत सी चीज़ें छोड़ते चले जायेंगे। इन सब चीज़ों में हमको एक ही ध्यान रखना चाहिए; अपने हृदय को स्वच्छ रखना। जिन लोशें का हृदय स्वच्छ रहता है, उनको समस्या (Problem) कम होती है। इसका मतलब यह नहीं है, कि आप लोग गंदी बातें सोचते रहते हैं| स्वच्छ हृदय का मतलब है, समर्पण | सहजयोग में अगर समर्पण में कमी हो जाय या कोई समझे कि मैं कोई विशेष हूँ, तो उस आदमी में (Growth) प्रगति नहीं हो सकती। उसके लिए कोई पढ़े-लिखे नहीं चाहिएं, कोई विशेष रूप के नहीं चाहिएं। “मुझे यह नहीं हुआ, मुझे कोई अनुभूति नहीं हुई’-तो दोष आपका है या सहजयोग का? बज कभी कभी इस तरह से मुझसे बातें करते द्ठँ कि मैंने ठेका ही ले रखा है या मेरे पास आपने कोई रुपया पैसा जमा किया हुआ है कि माँ, हम तो आपके पास पच्चीस साल से आ रहे हैं।” पच्चीस क्‍या, तीस साल तक; बूढ़े होने तक भी कोई काम नहीं होने वाला। इसलिए अगर यह नहीं हो रहा है, इसका मतलब है कि आपमें कोई न कोई कमी है। लेकिन जैसे ही आप अपने को अपने से हटाना शुरु करेंगे, आपको अपने दोष बड़ी ही जल्दी दिखाई देंगे और जैसे ही दिखाई देंगे, वैसे ही आप पूरी तरह से विराजिये, जैसे कोई राजा साहब हैं; अपने सिहासन पर बैठे हैं। आपको अगर सुनाई दिया कि हमारे प्रजाजन, कुछ गड़बड़ कर रहे हैं; तो कहिए, “चुप रहिये, ऐसा नहीं करने का है। यह नहीं कि ऐसा करो, वैसा करो |” अपने को पूरी तरह (Command) कमाण्ड में जो आदमी कर लेता है, वही शक्तिशाली है।  मिसाल के तौर पर लोगों की बातचीत लें। लोग जब बात करते हैं यानी हमसे भी बातचीत करने में ख्याल ही नहीं रहता कि किससे बात कर रहे हैं। ऐसी बात करते हैं कि बड़ा आश्चर्य सा होता है। उनको अन्दाज नहीं रह जाता कि हमें क्या कहना चाहिये, क्या नहीं कहना चाहिए । हमारी जबान पर भी काबू होना चाहिए | यह काबू भी तभी होता है, जब आप अपने को अपने से हटे देखेंगे। यह जबान है न, उसे ठीक रखना पड़ता है। धीरे धीरे, आपकी नई आदतें हो जायेंगी, नए त्तरीके बन जायेंगे, नया अन्दाज बन जायेगा फिर आप अपने को (order) आदेश देंगे। हमेशा 3rd Person में | जो आदमी पार होता है वो कभी 1st Person[प्रथम पुरुष) में बात नहीं करता, हमेशा 3rd Person में बात करते हैं, वहां चलिये, वहां बैठिये।” बच्चे भी ज्यादातर ऐसा ही करते हैं 3rd Person में बात करते हैं,” ये निर्मला अब जाने वाली नहीं है। ये यहीं बैठी रहेगी।” सहजयोगियों को भी इसी तरह बात करनी चाहिये। अपनी जो इच्छाएं हैं, अपने जो ideas (विचार) हैं. या और कोई विचार, जैसे सत्ता के. विचार, इत्यादि, ये सब छोड़कर हमें यह सोचना चाहिए कि हम सहजयोग के लिए क्‍या कर रहे हैं और क्‍या करना है। अभी भी हिन्दुस्तान में ये चीजें कम हैं, परदेस में बहुत ज्यादा हैं। वो लोग कभी मुझसे आकर यह नहीं कहते कि मेरे बाप के, दादा के चाचा के सगे भाई का फलाना फलाना बीमार है उनको आप ठीक कर दें | कमी भी अपनी Material difficulties या Problems नहीं कहते हैं। हालांकि, आप पार जल्दी होते हैं, वो लोग बिचारे अपनी गलतियों की वजह से ज्यादा समय लेते हैं। पार आप जल्दी होते हैं पर आपको उसकी कीमत्त नहीं, वो जो पार देर से होते हैं, उनको उसकी कीमत है उनको तरीका मालूम है, क्या चीज है। उनकी आँखों में ही देखिये, कितनी एकाग्रता है| एक एक शब्द को अगर मैं हिन्दी में बोल रही हूँ एक एक शब्द को अगर मैं हिन्दीं में बोल रही हूँ, पूरें ध्यान से सुनते हैं। हालांकि भाषा नहीं समझते लेकिन उसमें कैसे वाइब्रेशन (Vibrations) निकल रहे हैं, हाथ में कैसे (Vibrations) पूरा चित्त रहता है। अब इन्होंने अपना जीवन ही सहजयोग को दे दिया है। वो कोई चीज नहीं सोचते, कि भई यह भी कर लेंगे, वो भी कर लेंगे। तभी आप गहरे उतरेंगे। जीवन सहजयोग को देने से ही आप पनपते हैं; यह भी बात है। उसमें आपका कुछ लेना देना तो है नहीं । कोई आपको कमी नहीं हो जाती | सारा क्षेम आपके अन्दर आ जाता है। सारा जीवन ही सहजयोग को दे देना चाहिये। एक-एक क्षण सहजयोग को देना चाहिये। इसका मतलब है Living spontaneously | कहाँ से आयेगी spontaneity? वो Living force से आती है| हमारे अन्दर हर समय जो जीवन्त शक्ति है, उससे | और सब बातों को सोचना ही नहीं चाहिये।  वैसे भी आप कभी भोग नहीं सकते | भोगने वाला सिर्फ परमात्मा है। आपको गलतफुहमी है कि आप भोग रहे हैं। आप भोग ही नहीं सकते। भोगने * वाला परमात्मा है और वही रचयिता है और आप तो सिर्फ बीच में हैं। जिस तरह पाइप (pipe) होते हैं, उसी तरह आप हैं | अगर थोड़ा भोग ही सकते हैं, तो एक चीज भोग सकते हैं वह है परमात्मा जिसे आपसे अनन्त प्रेम है। बस, यही एक सत्य है जिससे आप पूरी तरह से आनन्दित रह सकते हैं, पुलकित रह सकते हैं, पुलकित रह सकते हैं। बाकी किसी भी चीज से आपको आनन्द नहीं मिल सकता, किसी भी चीज को भोगने वाला सिर्फ वहीं है। बात यह है कि आपको आज कुछ चाहिये वो ला दिया, फिर भी आप खुश नहीं। कल फिर आपको कूछ चाहिये, कल दूसरी चीज ला दी, फिर त्तीसरी चीज़ ला दी, फिर भी खुश नहीं। आप कभी भी सांसारिक चीज़ों से खुश नहीं हो सकते। भोगने वाला सिर्फ परमात्मा है, इसलिये सबको चाहिए कि हम उसको भोगें। हमको परमात्मा को भोगना चाहिये, वही जो सबको भोगने वाला है। अगर उसको भोगना शुरु कर दिया तो फिर हमें और क्या भोगने की जरूरत है। उसका ही सुख भोगें। परमात्मा ने क्या-क्या सृष्टि रची है, कितना सुन्दर सारा संसार बनाया है, कितनी सारी चीजें हमें दी हैं! हम सहजयोगी हो गये हैं। हमारे अन्दर ये शक्ति परमात्मा ने दी है। अब आप अपनी आत्मा को पा सकते हैं, दूसरे की आत्मा को पहचान सकते हैं। कितनी अनन्त कृपा परमात्मा की हमारे ऊपर हैं। बस यहीं सोच-सोच कर अपने अन्दर फूलिये! इस तरह से जब आप परमात्मा को भोगना शुरु करेंगे तो आप देखेंगे कि आपका Heart (हृदय) बहुत बड़ा हो जाता है। ऐसा लगेगा कि सारी सृष्टि उस हृदय (Heart) में समा गई है।  आज का मेरा आपको सन्देश है-आप परमात्मा को भोगना शुरु करें | बाकी सब चीजों का भोग आप छोड़ कर परमात्मा का भोग करें और उसका आनन्द उठायें कि आपको परमात्मा ने क्या क्‍या दियां। क्‍या क्या चीजें दी हैं? हर जगह इसका आनन्द उठाना शुरु कर दीजिये। आप देखेंगे कि आपका चित्त एक दम स्थिर हो जायेगा। सहजयोग में प्रगति इसी तरह से होगी। हर मिनट में हमें क्या मिला। इतना मिल गया, इतना मिल गया, ऐसे कहते हुए चलिये, नहीं तो आपके complaints कभी नहीं खत्म होने वाले और आप का aggression भी कभी खत्म नहीं होने वाला।

परमात्मा आपको आशीर्वादित करें।