Puja, Mother You be in our brain

Adelaide (Australia)

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Puja, Mother You be in our brain

आप सबके बीच आना बड़ा सुखद अनुभव है और अभी मेरे आने से पहले यहां जो कुछ हुआ उसके लिये मुझे खेद है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि प्रकृति भी परमेश्वरी व्यक्तित्व की उपस्थिति में जागृत हो जाती है और एक बार जब ये जागृत हो जाय तो यह उसी तरह का व्यवहार करने लगती है जैसे कोई साक्षात्करी आत्मा करती है। ये उन लोगों से नाराज हो जाती है जो धार्मिक नहीं हैं … जो परमात्मा के बारे में जानना नहीं चाहते हैं…. जो लोग गलत कार्य करते हैं… जो लोग सामान्य लोगों जैसा व्यवहार नहीं करते हैं … या एक तरह से वे पूर्ण का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं … इस तरह के सभी लोगों से वह नाराज हो जाती है। एक बार जब वह इस स्तर तक आ जाती है तो यह स्वयं ही कार्यान्वित होने लगती है। जैसा कि आपको मालूम है कि सहजयोग के अनुसार सभी तत्वों के पीछे उनके देवता होते हैं। उदाहरण के लिये आग के देवता अग्नि हैं। अपने शुद्ध स्वरूप में ….वास्तव में अग्नि देवता हमें शुद्ध करते हैं। ये सभी को शुद्ध करते हैं … ये सोने को शुद्ध करते हैं … यदि आप सोने को आग में डाल दें तो यह जलता नहीं है बल्कि और भी चमकदार हो जाता है। लेकिन अन्य बेकार की वस्तुओं को आग जला डालती है।
अतः सभी ज्वलनशील वस्तुयें अधिकांशतया निम्न श्रेणी की होती हैं जिनको जलाना ही उचित है। आश्चर्यजनक रूप से इन न्यून श्रेणी की वस्तुओं को जब जलाया जाता है तो उन्हें सत्य और असत्य का पता चल जाता है या वे इस प्रकार से प्रतिक्रिया करने लगती हैं जैसे कि उन्हें मालूम हो कि कौन सा कार्य किया जाना चाहिये। एक सहजयोगी और आग के बीच यह अंतर है कि आग सोचती नहीं है और जिन चीजों को जलाना हो वह उन्हें जलाती जाती है और यह जानती है कि किस चीज को जलाना है और कहां जाना है और इसी तरह से ये चीजों को जलाती जाती है। ।
इसमें सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि लोग समझते हैं कि आग में किसी प्रकार का दया भाव नहीं है जबकि इसमें कुछ तो दयाभाव तो होना चाहिये ताकि ये कुछ लोगों को बचा सके। लेकिन समस्या ये है कि हमारे अंदर कई प्रकार की चीजें हैं। हमारे अंदर आग है… पानी है…. और पृथ्वी तत्व है। लेकिन आग में केवल अग्नि तत्व है…. अन्य कुछ नहीं है। ये अपने गुण के अनुरूप ही कार्य करती है। और आग का जो भी गुण है……. यह सत्य को असत्य से अलग कर देती है और उसके अनुसार ही ये व्यवहार करने लगती है लेकिन रहती आग ही है। ये करूणा नहीं हो सकती है। एक तरह से देखें यदि आप किसी अच्छे और गलत व्यक्ति में से गलत व्यक्ति का चुनाव करते हैं …. तो सूक्ष्म रूप से देखने पर ये भी करूणा है क्योंकि ये सत्य है और सत्य ही प्रेम है। अतः ये जो कुछ भी कर रहीं है वह परमात्मा के प्रेम के लिये कर रही है। और जब ये परमात्मा के प्रेम का प्राकट्य कर रही है तो यह एक व्यक्ति की तरह से कार्य करने लगती है … जैसे कि वह एक मनुष्य हो क्योकि इसके अंदर विवेक है। ये जानती है कि क्या जलाना है और क्या नहीं जलाना है।
एक दिन जब हम लैंप लेकर दरवाजों की सफाई कर रहे थे तो लिंडा गलती से एक लैंप मेरे शरीर के पास ले आई। लैंप की लौ बहुत तेज थी लेकिन वह घूम कर मेरे शरीर के छुये बिना चली गई … उसने मुझे छुआ तक नहीं। लिंडा हैरान रह गई … उसने कहा माँ आप जल रही हैं। मैंने कहा चिंता मत करो …. ये मुझे छुये बिना चली गई है। आग उन लोगों को नहीं जलाती है जो पावन होते हैं… शुद्ध होते हैं। इसका उदाहरण सीता जी हैं। जब सीता जी को रावण के महल से लाया गया तो सब कहने लगे कि वह एक राक्षस के साथ रह कर आई है और यह अवश्य देखना चाहिये कि वह दोषी हैं या नहीं। सीताजी ने कहा आप मेरी अग्नि परीक्षा ले लीजिये. श्रीराम ने आग जलाई और वह उस आग में बैठ गईं लेकिन आग उनका कुछ न बिगाड़ सकी और बुझ गई।
ऐसे समय में अग्नि देवता को मालूम होता है कि क्या गलत है और क्या सही है … कौन पवित्र है और कौन अपवित्र है। मनुष्य समझने और पहचानने के लिये काफी लंबा समय लेते हैं। लेकिन ऐसा क्यों है कि पानी और आग मनुष्यों से अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। किस प्रकार से वे आज्ञाकारियों की तरह से कार्य करते जाते हैं मानों उन्हें मालूम हो कि उनका कार्य क्या है और वे इस कार्य को इतनी शीघ्रता और दक्षता से करते हैं।
इसका कारण ये है कि वे पूरी तरह से परमात्मा के नियंत्रण में हैं। वे परमात्मा की शक्तियों के नियंत्रण में हैं … पूर्णतया … शत-प्रतिशत। जो कुछ भी परमात्मा चाहता है … जब ये प्रकाशित हो जाते हैं तो ये वही करते हैं। लेकिन मनुष्य अभी भी अपनी मानव चेतना और दिव्य चेतना और परमात्मा से एकाकारिता के बीच झूल रहा है। मनुष्य की संवेदनशालता बहुत धीरे-धीरे विकसित होती है। वैसे कोई बात नहीं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है लेकिन जब ये विकसित होती है तो ये दो कदम आगे जाकर पांच कदम पीछे हो जाती है। यदि दो वर्ष का समय है तो आप देखेंगे कि एक आदमी अभी भी वहीं खड़ा है जहां वो पहले दिन खड़ा था। आप परेशान हो जाते हैं कि ऐसा कैसे हो गया … सहजयोग के बावजूद भी। लेकिन बात यह है कि मनुष्य सोच सकता है… निर्णय ले सकता है और उनके पास स्वतंत्रता है कि वे इस संवेदनशीलता को किसी भी समय त्याग दें। अतः आपको परमात्मा की आज्ञा का पूरी तरह से पालन करना चाहिये … पर हम कई बार ऐसा कर नहीं पाते हैं … क्योंकि हमारा लालन-पालन इस तरह से नहीं हुआ है … हमें मालूम भी नहीं होता कि किस प्रकार से ये करना चाहिये और ये काफी कठिन भी है।
कई लोग कहते हैं कि माँ समर्पण करना बहुत कठिन है … ऐसा नहीं है कि आप समर्पण नहीं करना चाहते हैं लेकिन…… अभी भी उनमें कहीं अहंकार की भावना है…. माँ कुछ कहती हैं और वे प्रश्न करना प्रारंभ कर देते हैं। माँ कुछ कहती हैं और हम सोचते हैं कि हम माँ को सुझाव दें कि इसका अन्य विकल्प भी है … या ये या वो। लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है …. यदि कोई व्यक्ति संवेदनशील है तो इसका कोई विकल्प नहीं है

परमात्मा हमेशा आपके हित के बारे में सोचता रहता है… आपके कल्याण के विषय में सोचता रहता है और जो कुछ भी वह देखता या करता है ….. उसमें यह निश्चित है कि वह आपसे कहीं अधिक ज्यादा जानता है …. बहुत अधिक। लोग दूसरों के प्रति सहानुभूति, दया आदि के विचार रखते हैं पर परमात्मा की करूणा के सामने मानवीय दया एवं करूणा क्या है…. इसमें लोग केवल बातें करते हैं …. करते कुछ नहीं। जबकि परमात्मा की करूणा कार्य करती है…. लोगों पर कार्य करती है …. वह केवल बातें ही नहीं करती कि ओह मैं तो इतना दयावान हूं … दया से ओतप्रोत हूं … ऐसा कुछ नहीं बस ये कार्य करती रहती है…. इसका केवल प्राकट्य होता है। अतः हमें पूर्णतया अहंविहीन हो जाना चाहिये। आपको सदैव अपने अंतर में स्थित अपनी आत्मा का कहना मानना चाहिये। परंतु अपने अंतर में स्थित अपनी आत्मा का कहना किस प्रकार से मानना चाहिये? अपनी चैतन्यमय चेतना के माध्यम से। अपनी चैतन्यमय चेतना के माध्यम से आत्मा का कहना मानिये। कोई भी प्रश्न आप पूछना चाहते हैं … कुछ भी आप करना चाहते हैं आप अपनी चैतन्यमय चेतना का कहा मानें। लेकिन कुछ लोग इतने संवेदनशील नहीं होते हैं … ये बात सच है। वो लोग इतने संवेदनशील क्यों नहीं होते हैं क्योंकि वे इसके बारे में सोचते रहते हैं। आप अपने मस्तिष्क से सोचते हैं… सोचते हैं न? यदि आपके मस्तिष्क को प्रकाशित कर दिया जाय तो आप ठीक वैसा ही सोचने लगेंगे जैसा परमात्मा सोचता है और आपकी संवेदनशीलता भी बढ़ने लगेगी क्योंकि संवेदनशीलता मध्य नाड़ी तंत्र से आती है। यदि हमारे मध्य नाड़ी तंत्र में किसी प्रकार की बाधा है तो वास्तव में यह बाधा आपके मस्तिष्क में है क्योंकि सभी केंद्र आपके मस्तिष्क में होते हैं। अतः सबसे अच्छा तो ये कहना होता है कि माँ मेरे मस्तिष्क में विराजिये …. माँ मेरे मस्तिष्क में निवास करिये। कृपया आप मेरे मस्तिष्क को नियंत्रण में रखिये। माँ आप मेरे मस्तिष्क का मार्गदर्शन अपने ईश्वरीय विवेक से कीजिये। आप अपने विषय में सोचना छोड़ दीजिये और ये शब्द … मैं सोचता हूं तो सहजयोगियों को एकदम से छोड़ देना चाहिये। मैं सोचता हूं का अर्थ है ….ये कुछ भी हो सकता है। जैसे कि एक बार हम बाहर गये और हमारे साथ हमारी एक रिश्तेदार लड़की रह रही थी। उस दिन हमारे घर पर कोई भी नौकर चाकर भी नहीं थे और खाना मैं ही पका रही थी। पर जब मैं बाहर जा रही थी तो मैंने उससे कहा कि सवेरे मैं चली जाऊंगी तो क्या तुम हमारे लिये थोड़ा खाना बना सकोगी ताकि जब हम वापस आंये तो हम खा सकें। जब हम वापस आये तो उसने मुझे बताया कि उसने खाना नहीं बनाया है। मैंने उससे पूछा कि क्यों नहीं बनाया हम तो खाना यहीं खाने वाले थे तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि शायद आप लोग वापस न आंये … शायद आप लोग भूखे ही न हों … और आप खाना खाना ही न चाहें … मैं खाना अच्छी तरह से बना ही न पांऊ। उसने मुझे खाना न बनाने के ये चार विकल्प दिये। मैंने उससे पूछा कि तुमने ये क्यों नहीं सोचा कि हम भूखे होंगे और हम खाना खायेंगे। तुमने इस प्रकार से क्यों नहीं सोचा?
मैंने सोचा का अर्थ है कि आपके मस्तिष्क में परमात्मा का मार्गदर्शन तो है ही नहीं। ये मार्गदर्शन तो आपके अहं अथवा प्रतिअहं से आ रहा है … जो कहता है कि ऐसा हो सकता है या वैसा हो सकता है। लेकिन कैसे ? आपने ये क्यों नहीं सोचा ? आपने दूसरी तरह से क्यों नहीं सोचा। लेकिन ये ऐसा ही है और जब ये चीजें होती हैं तो हम इस प्रकार के विकल्प और तर्क देने के आदी हो जाते हैं कि ये भी मस्तिष्क की आदत हो जाती है और मस्तिष्क परमात्मा से अलग हो जाता है। अतः आपको अपने मस्तिष्क से कहना है कि तुमने क्यों ऐसा सोचा। क्या तुम इस प्रकार से सोचना छोड़ोगे ? चलो हम सकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हैं।
सकारात्मक सोच और कुछ नहीं बस सोचना भर है। सहजयोग के अनुसार सोचना आक्रामक नहीं होना चाहिये बल्कि इसका अर्थ है कि ऐसी सोच जिससे परमात्मा का प्राकट्य हो …यही सकारात्मक सोच है और इसके परिणामस्वरूप आपकी नसें खुलनी प्रारंभ हो जाती हैं और इसकी या परमात्मा की शक्ति की प्रचीति आपको अपनी अंगुलियों के पोरों पर होने लगती है। यही एक मूलभूत बात है जो पश्चिम में या पश्चिमी संस्कृति में नहीं होती है क्योंकि यहां हमें हर बात का स्पष्टीकरण चाहिये। देखिये यदि आप किसी भूतबाधित व्यक्ति के पास जाते हैं और स्वयं बाधित हो जाते हैं तो आप स्पष्टीकरण देने लगते हैं कि देखिये मैं उस व्यक्ति के पास ये सोच कर गया था … या मैंने सोचा कि मैं उस व्यक्ति को ठीक कर दूंगा। लेकिन इसका परिणाम ये हुआ कि आज आप पागल हो गये हैं। उस व्यक्ति को ठीक करने की बजाय आप खुद पागल हो गये (अस्पष्ट)। तो इसका कारण क्या है? इसका कारण है कि आपने अत्यंत नकारात्मक ढंग से सोचा कि मैंने सोचा कि इससे मेरा ही भला होगा या मैं तो उस व्यक्ति की मदद ही कर रहा था लेकिन इसके उलट मैं खुद ही परेशानी में पड़ गया। देखिये परेशानी ने सोचा नहीं बल्कि यह तो आपके अंदर स्वयं ही प्रवेश कर गई। यह वहां जाकर बैठ गई बिना सोचे हुये … उसने कभी नहीं सोचा कि मैं इस व्यक्ति के अंदर बैठू या नहीं, यह आई और जब आप सोच रहे थे तो यह आपके अंदर गहरे जाकर बैठ गई। ये किसी चोर की तरह से आपके घर में घुस जाती है और आप किसी और ही कार्य में व्यस्त थे … कुछ और ही कार्य कर रहे थे । ये एकदम वैसा ही है । आप अचानक से देखते हैं कि चोर तो आपके पीछे ही खड़ा है और आप कहते हैं कि मैं तो सोच रहा था।
इसी प्रकार से यही हमारे साथ भी होता है जब हम जानते हैं …… हमारा मस्तिष्क जानता है कि मैं इसकी कोई व्याख्या कर सकता हूं। जब भी मस्तिष्क व्याख्या करने के लिये तैयार होता है तो मस्तिष्क इसका आदी हो जाता है और स्पष्टीकरण देने लगता है। परंतु स्पष्टीकरण से आपकी कोई सहायता नहीं हो पाती है।
अतः आपको विचारों की लहरों पर सवार नहीं होना चाहिये और न अपनी सोच पर सवार होना चाहिये क्योंकि सोच का एक विकल्प होता है। सोच का हमेशा एक विकल्प होता है। आप कह सकते हैं कि मैं ये सोच रहा था या वो सोच रहा था लेकिन आप किस को दोष दे रहे हैं? आप ही सोच रहे थे तो आपको ही अपनी सोच के लिये उत्तरदाई होना पड़ेगा। माना कि एक इंजन का ड्राइवर निर्णय लेता है कि मुझ किसी दूसरे रास्ते से जाना चाहिये और फिर उसका एक्सीडेंट हो जाता है। लोग उससे पूछ सकते हैं कि आपने ऐसा क्यों सोचा कि आप दूसरी जगह से जांय … किसने आपको ये सोचने पर मजबूर किया। लेकिन मैं दैनिक जीवन में देखती हूं कि लोग कहते हैं कि मैं सोचता हूं … मैं सोचता हूं … मैं सोचता हूं। वे हर समय विकल्प देते हुये रहते हैं और इसीलिये वे ऊपर नीचे …. ऊपर नीचे …. ऊपर नीचे जाते रहते हैं।
लेकिन अग्नि, जल और धरती माँ के लिये कोई भी विकल्प नहीं है। यदि मैं धरती माँ को छू लूं और कहूं कि मेरी इस समस्या को सोख लें तो वह उनको सोख लेगी। यदि मैं आग से कहूं कि आओ जल जाओ …. मैं तो कहती भी नहीं हूं …. लेकिन वह तुरंत ही सब सोख लेते हैं। आप कह सकते हैं कि उनकी कुंडलिनियां उठ जाती हैं। आप मेरे चित्र के साम ने आग रखें तो ये चैतन्यमय हो उठती है … आप अग्नि तत्व को रख दें तो ये चैतन्यमय हो जायेगा। उसके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। ये सोचता ही नहीं है …. इसके पास विकल्प भी नहीं हैं .. ये तो बस प्रकाशित है ….. इसके अंदर प्रकाशित होने का गुण है क्योंकि सोचने से ये अशुद्ध हो जाता है। सोचने से आपका प्रकाशित होना अशुद्ध हो जाता है …. तर्क करने से … व्याख्या करने से….. मूर्खतापूर्ण विकल्प देते रहने से। आपको मालूम होना चाहिये कि परमात्मा के लिये कोई विकल्प नहीं होने चाहिये। संस्कृत में इसे पर्याय कहते हैं …. परमात्मा के यंत्र का कोई पर्याय नहीं है। इसके जैसा कुछ भी नहीं है। मान आप इसे स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं तो आपको ही समस्यायें होंगी और फिर आप कहेंगे कि माँ हमको किस प्रकार से समस्यायें हो गईं।

परमात्मा आपको आशीर्वादित करे।