होली पुजा, २९।३।१९८३ , दिल्ही, इंडिया
दिवाली के सुभ अवसर पे (सहजयोगी : होली श्री माताजी ) हा होली ! में यही सोचा कुछ गरबड़ कह दिया। लेकिन कल दिवाली की बात कही थी ना यही ख्याल बना। फिर होली के शुभ अवसर पे आज दिवाली मनाई जाएँगी। होली के दिन आप जानते है की होलिका को जलाया गया। अग्नि का बड़ा भारी दान है कार्य है क्योंकि अग्नि देवता ने होलिका को वरदान दिया था की किसी भी हालत में तुम जल नहीं सकती। और किसी भी कारण से मृत्यु आ जाए पर तुम जल नहीं सकती। और वरदान दे करके वो फिर बहोत पछताए। क्योकि प्रह्लाद को लेकर वो गोद में बैठी। और अग्नि देवता के सामने प्रश्न पड़ा , धर्मं का प्रश्न, की मैंने उनको वचन दे दिया इनको तो में जलाऊंगा नहीं और इस वचन को अभी में कैसे भंग करू ? और प्रह्लाद तो स्वयं साक्षात् अबोधिता है , स्वयं साक्षात् गणेश का पादुर्भाव है। और इनको किस तरह से जलाया जाए । इनको तो कोई नहीं जला सकता। वो मेरी भी शक्ति से परे है। ये तो मेरी शक्ति से भी बड़े है। तो उन्होंने विचार ये किया की, “ये अहंकार कैसा है की इतनी बड़ी शक्ति के सामने में अपनी शक्ति की कौनसी बात कर रहा हूँ ? मेरी ऐसी कोई सी भी शक्ति नहीं है जो इनके आगे चल सके। इनकी शक्ति इतनी महान है । तो इनको तो में जला सकता ही नहीं चाहे जो कुछ भी करुलू । लेकिन इस वख्त दूसरा बड़ा भारी मेरे सामने धर्मकार्य है ।“ तो कर्त्तव्य और धर्मं इसमें जो कशमकश हुई, उस वख्त ये सोचना चाहिए की धर्म कर्त्तव्य से ऊँचा है। धर्मकर्तव्य एक सर्व साधारण कर्तव्य से ऊँचा है। और उससे भी ऊँची चीज आत्मा है। याने जो छोटा परीघी में बंधा हुआ , सिमित, जो कुछ भी हमारा वलय है, गोळ है, उससे जो ऊँचा गोळ है, जो ऊँचा वलय है उसको करना पड़ेगा ये छोटे को छोड़ना पड़ेगा। और यही श्री कृष्ण ने शिक्षा दी। श्री कृष्ण ने कहा की अगर आपको हित के लिए झूठ बोलना पड़े तो आप झूठ बोलिए । सच बोलने की बात ठीक है लेकिन किसी ऊँची चीज के लिये नीची चीज को छोड़ना पड़ेगा।
जैसे की कोई आदमी अगर अंदर आ जाए और वो किसीको मारना चाहता है , खून करना चाहता है । एक तो ये उसकी अनाधिकार चेष्टा है । पूछे आपसे ये महाशय ऊपर है ? तो आपने कहा की । “ हा अंदर है “ तो सच कहा, सच कहना चाहिये , सच कह दिया। तो वो जाके उसको तो मार डालेगा। लेकिन उनकी जान बचाना ये बहोत ऊँची चीज है। वो बहोत महत्वपुर्ण है , बड़ी चीज है। उस बड़ी बात के लिए, बड़े ध्येय के लिए ये जो छोटी सी चीज है उसको छोड़ना पड़ेगा। यही श्री कृष्ण ने अपने जीवन में बताया है । श्री कृष्ण के जीवन को बहोत कम लोग समज पाए है । क्योंकि उस ज़माने में धर्म की ये दशा हो गयी थी की लोग धर्म को बहोत ही ज्यादा गंभीरतापुर्वक , बहोत सीरियस बनाकर [not clear] । की धर्म बहोत सीरियस चीज है। उसमे आदमी को जो है बिलकुल सीरियसली सब करना चाहिए। क्योकि कर्मकाण्ड बढ़ गए। क्योंकि कर्मकाण्ड करने में बड़ी आफ़त रहती है। अगर आपने इधर से उधर दिप जला दिया तो भगवानजी नाराज़! इधर से उधर आपने अगर उतबती जलादी भगवानजी नाराज़! अगर लेफ्ट हैण्ड से कुछ कर दिया तो गया काम ! इन सब बातों की वजह से लोगो में कंडीशनिंग हो गयी। और वो कंडीशनिंग की वजह से लोग बड़ी गंभीरता पुर्वक धर्म करने लग गए। इतने गंभीर हो गए की उसका अलहाद , उसका उल्हास सब ख़तम हो गया। राधाजी की जो मैन शक्ति थी वो अलहाददायिनी है। सब को अलहाद देना ये उनकी मैन शक्ति है। और इसीलिये उन्होंने फिर होली का त्यौहार मनाया। श्री कृष्ण ने आकर के जीतनी भी पूजाए थी वो सबको बंद कर दिया। और कहा की अभी ये पुजा पुजा मत करो तुम । उस आत्मा की तरफ बढ़ो जिसको तुम्हे पाने का है। और छोटी छोटी चीजो मै मत खोवो, शुद्र चीजों मै नहीं खोना है। लेकिन ऊँची चीज की ओर अपनी दृष्टि लगानी है।अब जो आदमी , “ मै तो बड़ा झूठ कभी भी बोलता नहीं साब झूठ कभी कभी ऐसा आदमी [नोट क्लियर] अहंकार में लोगो के दिल को दुखाता है। या नहीं तो उसी में उसका जीवन का सत्यानाश हो जाता है। सच भी क्यों बोलना? धर्म भी क्यों करना? कर्तव्य क्यों करना? क्योंकि आपको आत्मा होना है। और किसी भी चीज से आप बन्धन में फंस जाए और आपको सीरियसनेस आ जाए , आप बुढा जाए। इसको बुठाना बोलते है , इससे कोई फायदा नही। सो धर्म जो है वो आदमी को बिलकुल ,पूरी तरह से एकदम जमा देता था, जैसे आइसक्रीम नहीं जम जाती ऐसे जम जाता था। फिर शक्ति का संचार कैसे हो? उसका आनंद कैसे लोग उठाये? तो उन्होंने रंग वगेराह खेलनेका शुरु किया। अभी ये रंग सारे जो रंग है वो देखिये वो भी देवी के रंग है। सातों चक्रों के रंग से रंगेगा राजा। सारे चक्रों के रंग ही अपने ऊपर उतारदो उसे खेलो। उल्हास – अल्हाद आनंद में रहो। गंभीरतापूर्वक बेठने की कोनसी जरूरत है जो आप परमात्मा को पाए है तो ख़ुश रहो।
वल्लभाचार्य के पास एक दिन सूरदासजी गए और अपना रोना धोना शुरु करा।[नोट क्लियर] , तो रोना शुरु करा। तो वल्लभाचार्य तो साक्षात् श्री कृष्ण ही थे, अंशावतार थे। तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने बोला , “ काहे गिगियावत हो?”। की हर समय गिगियावत क्यों हो ? ये गिगियावत शब्द कही नहीं मिलेंगा आपको. की हर समय ये रोने की क्या जरूरत है ? परमात्मा के प्रेम में आदमी आनंद विभोर हो जाता है। लेकिन ये अंदर से आनेवाली एक आह्लाद दायिनी शक्ति है जो अंदर से आनी चाहिये । नहीं की ढोलकी बजाते गुमते रहते है। हरे रामा हरे कृष्णा की तरह नहीं। ये उसकी कॉपी है जो मैंने कल कहा की रियलिटी और कांसेप्ट में बहुत अंतर है । जो असलियत है उसमे आदमी आनंद से विभोर होके रहेता है। उसमे कोई अश्लीलता नहीं। उसमे कोई जल्दी नहीं है। उसमे कोई जानबुझ के नाटक कार्य नहीं है । अंदर से ही आदमी ख़ुश हो करके आह्लाद उल्हास महेसूस करता है। और वही चीज बाद में अनेक आघातों से [] हो गई ।
सब धर्मो में अनेक प्रकार रहते है। जैसे की मुसलमानों में आपने देखा है की वो लोग मारते है अपने को। “हाय हुसैन हम न हुए “सुना होगा आपने । भाई , ये रोनेवाला धरम ये धरम नहीं है । जब धर्म में रोना ही है तो ऐसे धर्म में कायको जानेका। ऐसे धर्म में तो रोना ही होता है । तो दुःख पानेवाला और दुःख देनेवाला धर्म हो नही सकता। लेकिन ये सब धर्मो में ऐसी बातें आ गयी, हिन्दू धर्म में भी आ गयी है । माने एक ये जो आदमी बिलकुल मरगिल्ला हो, वही बड़ा भारी साधू संत मानने लगते है। बिलकुल मरगिल्ला होना चाहिये। उसकी हालत ये होनी चाहिये की उसमे उदविग्नता होनी चाहिये, और वो ऐसी दशा होना चाहिये की , आधा पागल है तो अच्छा । कभी उठा ये डांस करना शुरु कर दिया। या कभी बोलने को बेठ गया। दुबला-पतला , हड्डिया उसकी पिचका हुआ मुंह, पचासों उसमे झुऱिया पड़ी हुयी। आंखे जैसे बटन बाल ,[नोट क्लियर] तंदुरस्ती चोपट, और हर तरह सी उसकी दुर्दशा। ऐसा आदमी कभी भी धार्मिक नही हो सकता। प्रसन्न चित्त होना चाहिये। साफ़, खिली हुई तबियत , खुला हुआ हृदय , और प्रकाश उसके अंदर से बहना चाहिये।
सो होलिका के दहन के बाद, जैसे मैंने कल कहा कि , आज से ये तय करले की अब जो होळी है वो दिवाली हो जायेगी। इसका आनंद जो है विभोर होना चाहिये । होली का आनंद सिमित है अगर हम सिर्फ होलिका को जलाते है। फिर वो कलेक्टिव कोन्सिअस में बहेता है। जैसे हर आदमी जैसे वो चमार हो, भंगी हो, घर में कोई भी लोग हो। जैसे हमारे खानदान में। लखनऊ में जहाँ के रहनेवाले है, ज़मीदार लोग हे ये।[नोट क्लियर ] [] तुम दहेलिज पर क्यों आये। [] पर होली के रोज चाहे कोई भी हो, चाहे मालिक हो चाहे नौकर हो सब आपस मै होली खेलते है। यहाँ तक की मालिक के कोई कपड़े फाडे तो भी कोई कुछ नहीं कहता होली के रोज। और इस तरह से एक समाजवाद और एक सामाजिक ख़ुशी का त्यौहार अपने देश में शुरु हुआ है। पर जैसे की होली मै भी, आदमी फिर, एक नीचे स्तर पे उतरने लग जाता है। अश्लीलता पे आ जाता है। ऐसे हर एक जगह पे होता ही है। हर चीज सड़ती है। सडन इसीलिये आती है क्योंकि उसमे जिवंतता है। जो चीज में जीवंतता हो वो चीज सड़ेगी। और इस तरह से जब होने लग जाता है तो वही चीज बहोत गंदी और बुरी दिखाने लगती है।
जब होली का त्यौहार महारास्ट्र में मनाया जाता था तो [] लोगो ने उसका काफी विरोध करा। गालिगलोच । क्योकि “UP” के लोगो को उधर भैय्या बोलते है। और महारास्ट्र मै मराठी में गालियाँ है ही नहीं। और ये सब जो गालियाँ होती है गंदी गंदी, ये सब मराठी लोग भी हिंदी की ही गाली देते है। क्योकि उन्होंने आने पर यही इम्पोर्ट करा हुआ है. और अभी तक गालियाँ हिंदी की ही बोलते है और मराठी की कोई गालियाँ कुछ होती ही नहीं। और या तो फिर पारसी लोग भी बहोत गालियाँ देते है। और हमारे पंजाब की भी गालियाँ कुछ कुछ होती है वो भी काफ़ी मुम्बई में चलती है। तो ये गालिगलोच आदि चीजे जो है, की ये है की , अंदर की जो बढाश है वो सब निकाल दीजिये वगेराह वगेराह कहते है । ऐसा कहते है की उसको निकाल देने से अच्छा होता है। पर ये बड़ी रोंग (wrong) चीज है। ये कभी निकलती नहीं ये जबान पे चढ़ जाती है। हमने देखा है की हमारे हसबंड जो ज़मीदार फॅमिली के है, सिवाय हमारे हसबंड छोडके वहा हर आदमी गाली के सिवाय कभी बात नहीं करते है। मतलब बड़ो में भी, उनको गाली देने में कुछ लगता नहीं। फट से गाली देते है। एक हमारे पति ऐसे है , काफ़ी सुचारू रूप के आदमी है। कभी भी उनके मुंह से मैंने गाली नहीं सुनी किसी के भी लिए। आजतक कभी भी उन्होंने किसीको भी गाली देते मैंने सुना नहीं ये विशेष बात है ।एक तो उनके घर में बात करते हुए किसीने एक दो गाली नहीं दी तो वो सोचते होंगे की उन्होंने प्रेम ही नहीं जताया है । वहा तरीका ही यही है की दोस्त को मिलेंगे तो पचास पहले गालि देंगे उसके बाद फिर गले मिलेंगे। वो यही चीज है फिर ये चढ़ जाती है गाली की। उसका नुकशान भी बहोत कुछ आता है एसी चीजे जब चढ़ जाये जबी जिह्वा मै शक्ति नष्ट हो जाती है। जिह्वा का आदर नहीं होने से आप जो बोलते है वो ही जूठ हो जाता है। जो आदमी मुंह से गाली नहीं देता है उसकी जिह्वा पे शक्ति होती है। आपने बहोत बार देखा होगा की बहोत बार भाषण करते वख्त जब कहेना भी होता है तो में जिजक जाती हूँ की जो बाते जो ईसा मसीह ने कही थी की “ सुवर के आगे मोती नहीं डालना चाहिये”। लेकिन अंग्रेजी में ये सुवर शब्द जो है वो गाली है और बहोत बुरी गाली है। और मराठी में नहीं है। हिंदी में थोड़ी सी है पर ज्यादा नहीं है। पर अंग्रेजी भाषा में बोलते वखत में नहीं बोलती हूँ । हिंदी में बोलते वख्त ठीक है सुवर किसी को कह दो तो ज्यादा से ज्यादा तय होगा की बेवकूफ है। लेकिन वहापे ये बहोत गंदा शब्द होता है। इस तरह से जहाँ जहाँ जिस तरह का व्यवहार है उसकी मर्यादा रखते हुए आदमी को रहना चाहिए नहीं तो जिह्वा जो है वो नष्ट हो जाती है । जिह्वा की शक्ति जो सरस्वती की है वो नष्ट हो जाती है ।इसलिये भाषण मै भी, इसको वाचालता कहते है ,तो वाचालता मै भी अश्लीलता बहोत दूर होनी चाहिये। [not clear ]।
एक तो हम लोग सुबोध घराने के है। और सुबोध घराने के लोगो में एक तरह की सभ्यता , decency) होनी चाहिये। और उस सभ्यता को लेकर हम गाली गलोच से बात नहीं करेंगे। और इसलिये कहते है की होली मै कुछ ना कुछ गाली देनी ही चाहिये। और अगर नहीं दी तो आपने होली मनाई नहीं । और इस तरह से घर में लोग भांग भी पीते है । और बहोतो ने कहा “एक दिन भांग पीने से क्या हर्ज है माँ ?” कोई हर्ज तो है नहीं , ऐसे कोई हर्ज नहीं है। तो एक दिन भांग पीने से कोई भंगेडू नहीं हो जाते है। पर अगर आप हमें भांग पीने को कहेंगे तो हम तो नहीं पियेंगे भाई। क्योकि वजह ये है की हम तो पहले ही पिये हुए है। हमें कोई जरुरत नहीं। और लोग इसलिये पीते है की वो सोचते है जो सीरियस लोग है वो जरासे हलके हो जाते है। जैसेकि जो ईगो(ego) ओरिएंटेड लोग है अगर वो भंग पिले तो थोडे लेफ्ट साइड की मूवमेंट हो जाती है। वो थोड़े से खिल जाते है और भांग मै बकना शुरु कर देते है। लेकिन भयंकर प्रकार है ये भांग भी । क्योंकि हमारे सुसुराल जब हम गए, तो हमें क्या पता था की भांग भांग पीते है। महारास्ट्र मै ऐसा देखा नहीं। महारास्ट्र जरा इस बात के लिए बहोत सभ्य है। और औरते औरते तो बिलकुल भांग का नाम तक नहीं लेती। उनको ये अच्छा ही नहीं लगता. तो घर में गये तो हमको क्या पता था की सब भंग पिये बेठे है। [नोट क्लियर ] अब मै तो कितना खाती हूँ आप सब जानते ही है । चलो उस दिन त्यौहार का थोड़ा ज्यादा ही खा लिया। अब वो खाते ही चली गई, खाते ही चली गई। हमको लगा ये क्या हो रहा है कुछ समझ नहीं आ रहा है। और हँसते जाये और खाते जाये । तो हमारी जेठानीजी थी वहा। तो जो विधवा होती है वो भंग नहीं पीती। विधवाओ के लिये सब मना है। उनको कहा इनको क्या हो गया है जिजी? तो वो सब हँसी ही जाये और खाते जाए और हँसे जाए / कुछ समझ ही नहीं आये क्या हो रहा है? फिर उन्होंने बताया का इन सबने भंग पिया है। तो मै ऐसे उठी थाली पर से , नमस्कार करके और हाथ धोया और अपनी अटेची उठाके में बेठ गई ट्रेन मै। किसीके पैर भी नहीं छुए – हमारे यहाँ पैर छूने का रिवाज़ है। तो कुछ नहीं करा और चल दिए। तो लखनऊ मै उन्होंने ख़बर दी की भाई कहा चली गई दुल्हन? तो हमने कहा कि सबने भंग पी रखी उनसे क्या बात करे इसलिए चले आये हम वहाँ से। तो अब नहीं पी रहे है। तो बात ये है की भंग पीने की सहजयोगीयो को कोई ज़रूरत नही है। जब चाहे तब मन मै ही भंग पीली। भंग का जो उपयोग है वो लेफ्ट साइड मै जानेका है। वो हम ऐसेहि कर सकते है। मतलब ये की कोई आदमी अगर ईगो ओरिएंटेड है , बहोत ड्राई है , शुष्क है, गंभीर है तो उसके लिये सहजयोग में पूर्ण व्यवस्था है। वो अपने आज्ञा चक्र को ठीक करले। आज्ञा चक्र को वो किसी तरह से खुलवा ले , अपने ही आज्ञा चक्र को ठीक करले तो वो लेफ्ट साइड मै काफ़ी आ सकता है। निद्रां के समय अगर आज्ञा चक्र को अच्छी तरह से घूमा के सो जाए तो नींद अच्छी आती है। और अगर उसको फिर भंग की दषा से निकालना है तो फिर आज्ञा चक्र कसले तो फिर राईट साइड में आ जायेंगे। तो जब अपने ही हाथ मै सारी चीज पड़ी हुई है और हमारी सारी ही शक्ति हमारी अंदर समाई हुई है तो , और जब उसका पूरा ही ज्ञान हमको मालुम है की कोनसी स्विच किस समय घुमानी है तो ये बहार की चीजो का अवलंबन करने की जरूरत नहीं।
तो उस वख्त मै हो सकता है की भंग जस्टीफ़ाइड थी। शायद कृष्ण के ज़माने मै , पर कृष्ण भी पीते नहीं होंगे। [] पता नहीं क्या करते होंगे ।।जो भी। तो उन्होंने ये किया नहीं लेकिन बाकीं लोंगो को ये ज़रूरत पड़ी। क्योंकि जो सीरियस लोग थे उनको जरुरत थी की ये भंग पिये क्योंकि मिस-आइडेंटिफिकेशन है की हम राजासाहेब है , हम महारानी साब है। हम घर के मालिक है। हम फलाने है, हम कैसे मेंतर से मिले ? क्योकि मेंतर तो घर के झाड़ू लगाते है .तो उसके लिये पहले तुम भंग पियो और मेंतर और तुम एक हो जाओ. भूल ही जाओ की तुम मेंतर हो और वो ब्रहामिन . इसलिए भंग पिलाते थे की तुम को होंश ही नहीं रहे की तुम कौन हो. क्योंकि मिस-आइडेंटिफिकेशन बने हुए है की हम फलाने है , हम ठीकाने है। भंग पिले तो सब बेवकूफ। अब इसीका उल्टा हिस्सा ऐसा है की जब कबीरदासजी ने कहाँ की सूरज की जब चढ़ती है तो सब एक जात होते है । तो उन्होंने सोचा की जब तम्बाकू आदमी खाता है तो ये एक जात हो जाते है तो ये तम्बाकू का नाम सुट्टी रख दिया।[नोट क्लियर] जिसको तम्बाकू की तलब लगती है तो वो चाहे राजा हो और उस समय कोई गरीब भी बेठा हो तो बोलेगा “ भाई जरा थोड़ा तम्बाकू तो दो “ वो मांग लेता है। तो ये तंबाकू सुट्टी होती है क्योंकि इसमें राजा और रंक नहीं रहेता। ये इंसान की खाशियत है। ये किसको कहा जाके मिलाएगा ये वोही जाने। लेकिन होली की जो विशेषता है ये पर्व की ,इसमें ये याद रखना चाहिये की अगर दिवाली अगर इसमें बनानी है तो इसमें dicensy के साथ होनी चाहिये।इनदेसेंट (indecent ) काम नहीं होने चाहिये, अश्लील काम बिलकुल नहीं होने चाहिये। इसमें अगर अश्लीलता आ गई तो फिर ये होली नहीं ये कृष्ण की नहीं। वो तो होली हुई ऐसे लोगो की , की जो पार नहीं है। जो पार हो जाते है वो होली खेलते वख्त कोई सी भी अश्लीलता ना करे।
यानि ऐसे जैसे सहजयोग में भी कभी स्त्री-पुरुष होली नहीं खेलते है। पुरुष – पुरुषो के साथ और औरते औरतो के साथ होली खेलते है। सहजयोग में, वहा भी जयवर्धन हो सकता है, उसका भी एक नियम है आप जानते है की जो औरते बड़ी है वो अपने से छोटो के साथ खेल सकती है । और जो बड़े है , जो बड़े पुरुष हो वो अपने से छोटी स्त्री के साथ होली नहीं खेल सकते। [नोट क्लियर ] इसलिए भाभी देवर में होली होती है पर जेठ और दुल्हन में नहीं होती। जेठ से परदा होता है। और ये कायदा आपको आश्चर्य होगा की सारे हिंदुस्तान में है। और वो अपने आप ही चलता है। अपने अंदर ये है की हमारे संस्कार में बेठा है। [नोट क्लियर ] जैसे की इंग्लैंड में आप देख लीजिये की अस्सी साल की बुढिया जो है अठारा साल के लड़के के साथ शादी करती है। उनको कोई हर्जा नहीं । अपने यहाँ ये कोई सोच भी नहीं सकता की कोई [नोट क्लियर ]।माने ये अपनी बुद्धि ही नहीं है । तो इधर तो ये सब चीज होती ही है पर हमारे संस्कार [नोट क्लियर ] की अस्सी साल की कोई स्त्री है तो वो माँ हो ही गई। तो उनको तो माँ मानना ही हुआ। माँ क्या हुई वो तो नानी हुई । तो ऐसी बात किसी बेवकुक के दिमाग मै भी ऐसी बात नहीं आएगी। कितने भी पतितआदमी के दिमाग में भी ऐसी बात नहीं आएगी। [नोट क्लियर] तो हमारे जो संस्कार है , भारतीय संस्कार है उनसे हमें ईन सब चीजो में परिपक्वता आ गई है। तो वो लोग परिपकव नहीं होते । उनकी उम्र हमेंशा गधेपच्चिसी में ही रहती है । उससे ऊपर नहीं उठता। हम परिपकव हो जाते है क्योंकि हमारे अंदर के संस्कार ऐसे है की पूरी तरह से मान देते है। जैसेकि जो पैड है अगर वो बढ़े तो वो परिपकव हो जायेगा। अगर हवा लटके तो वो परिपकव नहीं हो सकता। तो वो बुढ्ढे भी हो जाते है तो उनका बचकानापन नहीं जाता ही नहीं है। और जो हिंदुस्तानियों का संबध भी वेस्टर्न लोगो से आता है वो भी आजकल कुछ ऐसेही हो जाते है, मैंने देखा है । उनकी वो बूढ़ी औरते, बड़ी बड़ी लड़कियां उनकी , वो भी वही बेवकूफी की बातें करेंगी जो उनकी लड़कियां करती है। लेकिन ये समझ में, सूझ-बुझ मै परिपकवता नहीं है। और इस परिपकवता को पाने के लिये मनुष्य को चाहिये की वो जो क़ायदे कानून बने है उसको चलाये। और उसमे बहोत आनंद की बात होती है, कुछ गरबडी नहीं हो सकती । कुछ अपने समाज़ में दोष नहीं आ सकते।
तो होली का जो ये हिस्सा है उसको सहजयोग में छोड़ देना पड़ेगा, अश्लीलता का। और होली का प्रेम का जो हिस्सा है उसको अपनाने का है। हम सब एक है ये भावना आप जानते है। इस वखत विशेष रूप से गले मिलना चाहिये क्योंकि कृष्ण का सारा कार्य प्रेम का था। प्रेम तो पूरी तरह से लूटनें के लिये होना चाहिये क्योकि उन्होंने कहा था की ये तो परमात्मा के प्रेम की सब लीला है ।[नोट क्लियर ] लीला ।।।। लीलाधर ।।जिसने लीला को धारण करा वो श्री कृष्ण थे। इसलिए उन्होंने कहा की सब चीजो को लीला स्वरूप मै देखो। लीलाधर….! और ये जो लीलाधर की जो लीला है उसमे अश्लीलता कही नहीं है। और जो हमारी जो संस्कृति सीधी सरल बैठी हुई है, पर इन लोग की उलटी खोपड़ी है। जैसे औरते जो है वो बदन खोलके गूमेंगी। और मर्द जो होते है वो अगर एकाद अगर औरत आ जाए वो फ़ौरन अपने कोट के बटन लगायेंगा । हमने बोला भाई आप मर्दों को बटन की क्या जरूरत है। [नोट क्लियर ] । पर उ नकी सभी संस्कृति उलटी पुलटी बैठी है। और वो खुद बैठ ही गई है और वो जमेगी और धीरे धीरे सहजयोग में आने से वो लोग जम गए है। और अब आप लोगो की जो संस्कृति है उसको कृपया न छोड़े। सहजयोग के लिये ये बहोत महान चीज है की आप हिंदुस्तानी भी है और आपकी संस्कृति भी है। आपके पास संस्कृति थी जो वो बड़ी भारी धरोहर – वस्तु है वो आप पकडे रखे। पकड के उसी चीज पे जमे और उसी पे आप परिपकवता पाए । लेकिन उसका बिलकुल मतलब नहीं की आप [नोट क्लियर ] और किसी तरह से आप बहोत सीरियस आदमी है। [नोट क्लियर]
आपकी माँ जब हसती है तो कभी सात मंजिल तक हंसी जाती है। सब लोग हैरान होते है की गुरु लोग तो कभी मुस्कुराते भी नहीं और माँ जो है वो हसती ही रहती है और उनके मुंह से तो कभी मुस्कराहट जाती ही नहीं। मै तो एक मिनट से ज्यादा सीरियस नहीं हो सकती। और जब सीरियस भी होती हूँ तो नाटक रहेता है। और बहोत लोग इस बात को जान गए है इसलिये वो भी सीरियसली नहीं लेते । वो गलत बात है। तो कृष्ण ने ये चाहा की जो कुछ भी गलत- सलत हो गया है राम के जीवन की वजह से , राम का जीवन बहोत आदर्श, बहोत ऊँचा , बहोत गंभीर । तो उन्होंने देखा की ये अब सब लोग अभी राम बनने जा रहे है । तो बोला की ऐसी बात नहीं है। वो राम का कार्य राम करके चले गए अब तो लीला का समय है तो लीलामय होना चाहिये । और इसीलिये उन्होंने सारे संसार को लीला का एक पाठ पढ़ाया । और लीला का कभी भी मतलब अश्लीलता और अपनी मर्यादाओ से गिरना , अपनी परम्पराओ से उतरना और या अपनी जो प्राचीन धारणाये – बहोत सुंदर – अभीतक बनी हुई है – उसको छोड़ना ऐसा नहीं है। हा, जो गंदी चीजे है तो उसको छोड़ देना चाहिये । जो गंभीर चीजे है उसे छोड़ना चाहिये पर जो पवित्रता की भावना है , आपस से रिश्तेदारी की है उसको पूरी तरह से सहजयोग में हमलोग मानते है और उसको निभाना चाहिये। भाई-बहेन के रिश्ते। अब कल हमारे भाई साहेब आये थे। बस देखा उन्होंने की हमारी बहेन [] उनके आँसू निकल आये। मै देख रही थी की बार बार वो अपने आँसू पोंछ रहे थे। [नोट क्लियर ]
सो ये जो पवित्रता की भावनाये है , प्रेम की भावनाये है , इसमें आदमी को चाहिये की सहजयोग की दृष्टि से विचारे। हर एक व्यक्ति। सहजयोग की। सहजयोग की दृष्टि से जो शोभायमान है वो होना चाहिये। तो माधुर्य को लेते हुए , शोभायमान करना चाहिये। कोई सा भी बिहेविअरजो की अशोभनीय है, छोटी छोटी बातों पे बात करना , छोटी छोटी बातों पे उलझना, बेकार में आपस मै झगड़े करना , किसी भी चीज की मांग करते रहेना – मुझे ये चाहिये- वो चाहिये , या कोई भी तरह की इसी प्रकार की बातें करना वो ओछापन है, ओछापन है । और ऐसे लोग सहजयोगी नहीं हो सकते। एक बड़प्पन ले करके , उदारता ले करके , अपने को चलना चाहिये।
तो आज की तो असल मै पूजा जो है मै बिलकुल थोड़ी सी पूजा करना चाहती हूँ । वाइब्रेशनस इतने है की कोई विशेष पूजा की आवशकयता नहीं है । मंत्र बोलने की भी आवशकयता नहीं है। मंत्र भी गंम्भिर्य मै दल देता है। पता नहीं क्यों? तो आज प्रसन्न चित्त हो करके , बस दो ही तीन मंत्रो मै हम आज खत्म करेंगे। बस इतना मै कहूँगी के होली को दिवाली बनानी पड़ेंगी और दिवाली को होली। तब सहजयोग का इंटीग्रेशन पूरा होने वाला है। दिवाली भी प्रसन्न चित्त हो करके करनी चाहिये। और दिवाली मै भी लोग इतना रुपया खर्च करते है की दिवाली के बाद दिवालिया हो करके । यानि इसिपे शब्द दिवालिया निकला है । क्या आप मान सकते है की दिवाली से दिवालिया शब्द निकला है की जिसने दिवाली मनाई वो दिवालिया हो गया। नहीं तो दिवालिया शब्द कैसे निकला ये बताइए । कुछ कुछ बड़े सुंदर शब्द है उसमे से ये दिवालिया शब्द – की दिवाली मनाई आपने? तो ठीक है अब आप दिवालिया हो जाइये। सो हम लोगों को दिवालिया नहीं होना है। कोई ऐसी चीज नहीं करनी चाहिये जो की मर्यादा से बहार हो। दिवालिया नहीं होना। जितना आपके मुद्दे का है उतना आप करिये उससे आगे परमात्मा पे छोड़िये। दिवालियापन करने की जरूरत नहीं। और होली मै दिवानगी करने की जरूरत नहीं। कोई सा भी कार्य ऐसा नहीं करना चाहिये जो indecent हो। जिसमे कोई डीकोरम नहीं हो, जिसमे कोई सभ्यता नहीं हो।[नोट क्लियर] छोटी छोटी चीज मै आपको अंदाज़ आ जायेगा कीस मे मर्यादा है । अभी कल जो आर्टिस्ट बजा रहे थे , उस समय किसी को उठाना नहीं चाहिये। किसी भी आर्ट का मान करना चाहिये। आपने बहोत बार देखा होगा की जब कोई आर्टिस्ट बजाता है तो मै खुद जमीन पर बैठती हूँ । क्योंकि आप भी सीखे। मान पान किसका करना चाहिये वो सहजयोगीयो को बहोत आना चाहिये। क्योंकि प्रोटोकॉल की बात है। आर्टिस्ट लोग भी देंखे हमेंशा देखे पैर पे अपने- ये ट्रेडिशन है पैर पे शौल रखे रहते है [नोट क्लियर] क्योंकि हो सकता है की श्रोतागन मै कोई बैठे हो देव-देवता । तो उनके मेरे पैर न दिखाई दे। अपने देश की इतनी बारीक़ बारीक़ चीजे है की मै आपसे क्या कहूँ? इतना सुंदर अपना विश्व बना हुआ है इतना सुंदर परमात्मा का कहना चाहिये के जैसे अंग वस्त्र है की उसकी गहनता और उसकी बनावट मै [नोट क्लियर]।बहोत ही सुंदर काव्यमय चीज है। लेकिन हम उसको नहीं समझ पाते की और अपने जीवन में नहीं ला पाते [नोट क्लियर] अब कल जेठ बेठे हुए थे हमारे सामने तो हमें देखये आप पुरे लेक्चर मै वो एक मर्यादा बनी रही की हमारे जेठ – बड़े भाई बैठे हुए है तो उनके आगे कहा तक हम बोल सकते है? अब हम तो आदिशक्ति है हमारे लिये कौन जेठ और कौन बड़े भाई ? लेकिन पर जब इस रिश्ते मै बैठे हुए है तो उसका मान पान पूरी तरह से रखना चाहिये। हर रिश्ते का मान पान रखा है । आप कुछ भी हो जाओ सहजयोगी भी गए तो भी आप मान पान को लेके चले। ये नहीं की उसको आप तोड़ दे। और इस तरह से जब आप करेंगे तो धीरे धीरे आपकी समझ मै आ जायेगा की इसमें बड़ा ही माधुर्य है। और बहोत ही मीठी चीज है।
तो आज के होली के दिन सिर्फ होली का दहन का एक मंत्र आप अगर कहे की “होलिका मर्दिनी “ ये मंत्र से आपलोग मेरे पैर धोए और बच्चों को – गणेश की स्तुति तो होनी ही चाहिये तो बच्चे गणेश की स्तुति करके बच्चे मेरे पैर धोलें। और फिर तीन मंत्रो से मेरे पैर धोलें और कोई खास चीज करने की ज़रूरत नहीं। तो और कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं फिर वो सीरियसनेस आ जाती है। क्योंकि कृष्ण ने सब पूजा बंद करवाके होली की शरुआत करी । कम्पलीट पूजा पूरी बंद करवा दो ।उसी तरह हमलोगों को कृष्ण को यद् करते हुए सब पूजाये बंद कर देनी चाहिये। और बस यही करना चाहिये बस उल्हास आनंद का दिन है और होली मिलो क्योंकि आज होली आई है। और होली का ही आनंद उठाना है। और इसका दिवाली बनाने का मैंने जो आपको मतलब बताया की जो इसकी तो सुचारू रूप से । सभ्यतापूर्वक [नोट क्लियर] इसलिए होली को दिवाली बनाना है और दिवाली तो को होली बनाना है।
आप सबको मेरा अनंत आशीर्वाद!!