Sahasrara Puja, Above the Sahasrar मुंबई (भारत)

सहस्रार पूजा बम्बई, ५ मई १९८३ आप सबकी ओर से बम्बई के सहजयोगी व्यवस्थापक जिन्होंने यह इन्तजामात किये हैं, उनके लिये धन्यवाद देती हूँ, और मेरी तरफ से भी मैं अनेक धन्यवाद देती हूँ। उन्होंने बहुत सुन्दर जगह हम लोगों के लिये ढूँढ रखी है। ये भी एक परमात्मा की देन है कि इस वक्त जिस चीज़़ के बारे में बोलने वाली थी, उन्हीं पेड़ों के नीचे बैठकर सहस्रार की बात हो रही है। चौदह वर्ष पूर्व कहना चाहिये या जिसे तेरह वर्ष हो गए और अब चौदहवाँ वर्ष चल पड़ा है, यह महान कार्य संसार में हुआ था, जबकि सहस्रार खोला गया। इसके बारे में मैंने अनेक बार आपसे हर सहस्रार दिन पर बताया हुआ है कि क्या हुआ किस तरह से ये घटना हुई, क्यों की गई और इसका महात्म्य क्या है? था, लेकिन चौदहवाँ जन्मदिन बहत बड़ी चीज़ है। क्योंकि मनुष्य चौदह स्तर पर रहता है, और जिस दिन चौदह स्तर वो लाँघ जाता है, तो वो फिर पूरी तरह से सहजयोगी हो जाता है। इसलिये आज सहजयोग भी सहजयोगी हो गया। अपने अन्दर इस प्रकार परमात्मा ने चौदह स्तर बनाए हैं। अगर आप गिनिये, सीधे तरीके से, तो भी अपने अन्दर आप जानते हैं सात चक्र हैं, एक साथ अपने आप। उसके अलावा और दो चक्र जो हैं, उसके बारे में आप लोग बातचीत ज़्यादा नहीं करते, वो हैं ‘चन्द्र’ का चक्र और ‘सूर्य’ का चक्र। फिर एक हम्सा चक्र है, इस प्रकार तीन चक्र और आ गए। तो, सात और तीन-दस। उसके ऊपर और चार Read More …

Public Program मुंबई (भारत)

सार्वजनिक भाषण मुंबई, ४ मई १९८३ परमात्मा को खोजने वाले सभी साधकों को मेरा प्रणाम ! मनुष्य यह नहीं जानता है कि वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ परमात्मा को ही खोजता है। अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौड़ता है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति और मान-सम्पदा पाने के लिए संसार में कार्य करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बनकर संसार में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को ही खोजता है। लेकिन परमात्मा को खोजने का रास्ता ज़रा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वस्तुमात्र जो है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते। उन पैसों की विवंचनायें, अधिक पैसा होने के कारण बुरी आदतें लग जाना, बच्चों का व्यर्थ जाना आदि ‘अनेक’ अनर्थ हो जाते हैं। जिससे मनुष्य सोचता है कि ‘ये पैसा मैंने किसलिये कमाया? यह मैंने वस्तुमात्र किसलिये ली?’ जिस वक्त यहाँ से जाना होता है तो मनुष्य हाथ फैलाकर चला जाता है। लेकिन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा लेते हैं, जब आप आत्मा पा लेते हैं और जब आप का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है। परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सोौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर Read More …