“ब्रह्मनाड़ी की अंतरतम धारा” श्री महालक्ष्मी पूजा
कोल्हापुर (भारत), ३ फरवरी १९८४।
तो हम सब अब यहाँ इस पवित्र स्थान कोल्हापुर में हैं। देवी ने यहां कोल्हासुर नामक असुर का वध किया, जो एक बहुत ही दुष्ट राक्षस था; जो हाल ही में फिर से पैदा हुआ था, लेकिन उसकी मृत्यु भी हो गई। तो भगवान का शुक्र है कि कोल्हासुर की मृत्यु हो गई!
इस स्थान को विशेष रूप से इसलिए चिन्हित किया गया है क्योंकि धरती माता से महालक्ष्मी ऊर्जा विशेष रूप से देवी महालक्ष्मी से उत्सर्जित हुई थी। और, जैसा कि आप जानते हैं, महालक्ष्मी हमारे भीतर उत्थान की शक्ति है, जिसके माध्यम से हम उन्नत होते हैं। यह उस सीढ़ी की तरह है जो आपको परमात्मा के राज्य में ले जाती है, और इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
और महाराष्ट्र के देवता विट्ठल, श्री कृष्ण हैं। क्योंकि यह विष्णु की आरोही शक्ति है, श्री कृष्ण तक, फिर महाविष्णु और फिर सहस्रार को। यह सब इसलिए संभव है क्योंकि हमारे भीतर महालक्ष्मी नाड़ी है। अगर आप में सुषुम्ना नाड़ी न होती तो हम जानवर ही होते। जानवरों के पास भी यह नाड़ी एक हद तक होती है। जैसा कि आप जानते हैं कि वे भवसागर तक आ सकते हैं। लेकिन भवसागर के बाद मनुष्य के रूप में विकास हमारे भीतर इस महालक्ष्मी ऊर्जा के माध्यम से शुरू होता है। तो यह ऊर्जा बहुत महत्वपूर्ण है और इस देश में इसकी बहुत पूजा की जाती है।
सबसे पहले यह ऊर्जा हमारे भीतर खोज के रूप में काम करना शुरू कर देती है: आश्रय और भोजन की तलाश में। एक बार जब आश्रय की स्थापना हो जाती है, जो की महाकाली शक्ति द्वारा स्थापित होती है। मेरा मतलब है कि जब यह जानवर के हृदय में होता है – सुरक्षा की भावना स्थापित होती है – तब वह भोजन की तलाश शुरू कर देता है। उसी प्रकार मनुष्य भी एक बार जब वह अपनी सुरक्षा में स्थापित हो जाता है, तब वह अपना पेट भरने, अपनी देखभाल करने के बारे में सोचने लगता है।
इसलिए आदिम अवस्था में मनुष्य ने पहले कुछ गुफाओं या कुछ आश्रयों में जाकर अपनी सुरक्षा स्थापित करने की कोशिश की, जहाँ वे जीवन के लिए बिना किसी डर के रह सकते थे, क्योंकि यदि कोई जीवन नहीं है तो आप भोजन के बारे में नहीं सोचते हैं, उदाहरण के लिए यदि वहाँ कोई आपातकालीन स्थिति हो। हमारे पास पटना में बहुत खराब बाढ़ थी, और यह इतनी बुरी बाढ़ थी कि लोगों को ऊपरी मंजिल में जाकर अपनी सुरक्षा की देखभाल करनी पड़ी, यह पहली बात थी। जो मनुष्य में जीवन की रक्षा के लिए एक ऐसी सहज भावना है जो महाकाली की शक्तियों से आती है।
और जब वे वहाँ गए, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास तीन दिन से भोजन नहीं था, लेकिन उन्होंने कभी भोजन के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि वे भूखे थे! वे केवल इस बात से चिंतित थे कि पानी उस बिंदु तक बढ़ जाएगा जहां वे हैं और वे सभी डूब जाएंगे और मर जाएंगे। तो केवल चिंता यह थी कि कैसे अस्तित्व में रहें, कैसे जीवित रहें, और भोजन का प्रश्न ही नहीं आया। लेकिन जब लोग भूखे मरते हैं तो वे भी असुरक्षा के बारे में सोचने लगते हैं, कि वे मर सकते हैं, और वे भोजन के बारे में सोचने लगते हैं। तो पहली बात सुरक्षा की आती है।
फिर दूसरा आता है: भोजन की भावना।
आपात स्थिति में भोजन का जो भाव आता है वह शुरुआत है। लेकिन बाद में हम अपना ध्यान भोजन पर लगाना शुरू करते हैं, फिर भोजन का आनंद, फिर भोजन का भेदभाव; और वे सभी विभिन्न चीजें हमारे अंदर आने लगती हैं और हम इस महालक्ष्मी तत्व के साथ खो जाते हैं।
जितना हम भोजन की चिंता करते हैं, उतना ही हम भोजन के स्वाद की चिंता करते हैं, उतना ही हम भोजन के समय की चिंता करते हैं … मेरा मतलब है कि कोई बिना भोजन के दो तीन दिन बहुत आसानी से रह सकता है, कोई समस्या नहीं है। लेकिन हम सोचते हैं कि हम आठ बजे नाश्ता करने के आदी हैं इसलिए हमें आठ बजे नाश्ता करना चाहिए। जैसे, भारतीयों को दस बजे दोपहर का भोजन करने की आदत होती है इसलिए उन्हें दस बजे दोपहर का भोजन करना चाहिए। यह सब समय की हमारी गुलामी है, और इस तरह हमारी खोज, जो उच्चतर है, समाप्त हो जाती है।
फिर वे हर समय भोजन के बारे में बात करना शुरू कर देंगे। निःसंदेह यह महालक्ष्मी का आशीर्वाद है कि आप भोजन के बारे में सोचते हैं, लेकिन वह यह नहीं कहती कि आप इसमें खो जाएँ। तो हम इसके साथ खो जाते हैं और एक बार हम इसके साथ खो जाते हैं, तो हमारी खोज उच्चतर नहीं होती है।
हमारी स्वाद की आदतें – हम इसे पसंद करते हैं, हम उसे पसंद करते हैं, यह अच्छा है, यह बुरा है, हम इसे लेना चाहते हैं – अब भी अगर यह चलता रहता है तो यह हमें नीचे ही रखता है। हमें जो कुछ भी मिले उसे खाने की कोशिश करनी चाहिए। जो कुछ भी हमें अच्छा लगता हैं, वह हमारे लिए अच्छा नहीं भी हो सकता है। यह जीभ के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन हमारे लिए अच्छा नहीं हो सकता है, वायब्रेशन की दृष्टि से अच्छा नहीं हो सकता है। तो ईश्वर हमें जो कुछ भी देता है, जो कुछ भी है, वह अच्छा है, उसमें चैतन्यित करो और खाओ।
साथ ही संरक्षण भाव यह आता है कि यदि आप गलत प्रकार का भोजन करते हैं तो लोग यह सोचने लगते हैं कि इससे उनकी सुरक्षा भी नष्ट हो जाएगी क्योंकि उनका स्वास्थ्य खराब हो सकता है। फिर वे इस बारे में सोचने लगते हैं… एक हद तक तो ठीक है, लेकिन अगर आप बहुत ज्यादा करते हैं, तो आप प्रचलन से बाहर हो जाते हैं। इस अर्थ में कि यदि आप उड़ रहे हैं …
क्या आप कृपया यहाँ ध्यान देंगे! मुझे आश्चर्य है कि आप सहजयोगी हैं। आपका ध्यान इस तरह की छोटी-छोटी बातों पर कैसे जाता है? एक महिला अभी भी उस तरफ देख रही है।
मैं जो कह रही हूं उस पर अपना चित्त एकाग्र रखने की कोशिश करें। फिर यह महत्वपूर्ण है, चूँकि वे कुछ ला रहे हैं, क्या आपको यह देखना चाहिए? मेरा मतलब है कि इस उम्र में यह वास्तव में मूर्खतापूर्ण है। अब आप सहजयोगी हैं, आपका ध्यान एकाग्र होना चाहिए।
तो अब अधिक ध्यान भोजन या बेहतर भोजन के लिए बेहतर सुविधाओं की प्राप्ति की ओर जाता है या जिसे आप स्वास्थ्यप्रद भोजन कहते हैं, और ज्यादा से ज्यादा आप किनारे को छू सकते हैं, लेकिन आपको पार करके चलने नहीं लगना चाहिए, अन्यथा तुम नदी पर कैसे चलोगे, यही बात है।
तो हम उस तरह की बकवास भी बनाना शुरू कर देते हैं: “यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है, यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।” और स्वास्थ्य किस लिए? स्वास्थ्य क्यों ? एक अच्छा चित्त रखने के लिए स्वास्थ्य है, जो आपके पास नहीं है! यह भोजन में खो गया है।
और कुछ लोगों को मैंने देखा है, वे अभी भी भोजन में पूरी तरह खोए हुए हैं। हालांकि उन्हें सहज योग की झलक मिल गई है, लेकिन फिर भी उन्हें भोजन से बहुत लगाव है। इसलिए इस तरह का रवैया बदलना होगा। हमें देखना चाहिए कि हम कहाँ जाते हैं और किस चीज़ में लिप्त हो जाते हैं और अपना चित्त गँवा देते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हमें अपने चित्त के प्रति बहुत सावधान रहना चाहिए कि: वह कहाँ है?
तो अब इस के साथ चित्त चलता जाता है। मेरा मतलब उन लोगों से है जो अभी भी आगे तो बढ़ते हैं और किनारे (मंजिल)पर नहीं पहुँचते, अब भी नदी में आगे बढ़ते जाते हैं। चित्त चलता रहता है, फिर वे सोचते हैं कि, आप इस प्रकार को देखिए, यह इस का असुरक्षा की भावना वाला भाग हर समय कार्यरत रहता है।कि, “यह भोजन समाप्त हो सकता है, तो हमें बेहतर भोजन पाने के लिए क्या करना चाहिए?” तो फिर वे पैसे के बारे में सोचना शुरू कर देंगे। तो आप जानते हैं कि वस्तु विनिमय प्रणाली जो थी वो पैसे की व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। लोगों के पास पैसा होने लगा। लेकिन फिर, भोजन, वस्त्र के अलावा, अन्य चीजें शुरू हुईं और लोग इसके साथ महाकाली शक्ति में अधिक से अधिक जाने लगे। और रचनात्मक शक्ति अधिक से अधिक।
किनारे(मंजिल) भी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होते जा रहे हैं, गति भी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती जा रही है। इसलिए जैसे-जैसे आदमी उच्च और उच्चतर जाने लगा, दाईं ओर कला विकसित हुईं और जीवन की गुणवत्ता या सुरक्षा की गुणवत्ता सम्बन्धी विचार बदल गये। तो दोनों पक्ष सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होते जा रहे हैं और विकास सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जा रहा है, मनुष्य फिर से उन सूक्ष्म किनारों (मंजिल) में खो जाता है, दाएं और बाएं। लेकिन फिर भी आपको आगे बढ़ना है।
तो महालक्ष्मी शक्ति आपको ऊंचा और ऊंचा ले जाती है। उस समय आपको लगता है कि आपको खुद को व्यक्त करना चाहिए। और कला, संस्कृति से अभिव्यक्ति की शुरूआत होती है। यह आपके जीवन में भी शुरू होता है, आपके सुरक्षा संस्थानों में, जैसे राजनीतिक उन्नति, राजनीतिक संस्थान। और इस तरह मनुष्य एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया जहाँ अब उन्हें लगता है कि उन्होंने वह सब कर लिया है जो संभव था, लेकिन फिर भी एक सूक्ष्म तरीके से वे अभी भी खोए हुए हैं।
तो महालक्ष्मी तत्व उस बिंदु तक कहो, ईसा-मसीह तक ऊपर गया, और अभी भी लोग उसके सूक्ष्म पक्ष में नहीं गए हैं। वे अभी भी किनारे पर हैं या, किनारे की ओर बढ़ रहे हैं, उसके मध्य में नहीं।
सहज योग में क्या होता है कि शुद्ध इच्छा, अर्थात कुंडलिनी, जीवन की शुरुआत में, बिल्कुल जीवन की शुरुआत में ही रखी जाती है, जब आप इंसान भी नहीं थे। इस कार्बन से भी पहले और कार्बन से आगे की सारी यात्रा कुंडलिनी के माध्यम से फिर से पता करनी है। यह सारी यात्रा जो आपने इस महालक्ष्मी धारा के सतही स्तर पर की है, अंतरतम तरीके से फिर से करना होगी, इन सभी सूक्ष्म चक्रों के माध्यम से गुजरने के लिए, जो धारा के अंदर हैं, बाहर नहीं – क्योंकि यदि आप बाहर हैं, तो आप हमेशा किनारों पर जाते हैं – जहाँ से आप कोई किनारा नहीं देख सकते हैं, वहाँ कोई चित्त ही नहीं है जो किनारों की ओर ले जाया जा सकता है, लेकिन आप आगे बढ़ते हैं, एक जेट की तरह।
और यही कुण्डलिनी ही सच्ची इच्छा है, लेकिन आपका ध्यान लक्ष्य पर होना चाहिए। यदि आप ऐसा भी कहते हैं कि कुंडलिनी गतिमान शक्ति है, तब भी आपका चित्त कहाँ है? फिर भी तुम्हारा ध्यान किनारे पर है, इसलिए तुम फिर से सतही परिणाम पर पहुँच पाते हो। आप आते हैं और सतही रूप से तैरते हैं और फिर किसी किनारे पर कूद जाते हैं। फिर फिर से मुझे तुम्हें पानी के अंदर नीचे रखना होगा, “अंदर, अंदर जाओ।” फिर से कुंडलिनी पर वापस जाएं। फिर से अपनी यात्रा शुरू करें।
लेकिन शुरू से ही अगर आप लक्ष्य की ओर, आत्मा की ओर बढ़ते हैं, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन इंसानों के साथ ऐसा नहीं होता है। वे किनारों के आकर्षण के इतने आदी हैं कि वे हमेशा ऊपर आते हैं, तैरते हैं, किनारों पर जाते हैं और फिर कभी-कभी वहीं बस भी जाते हैं या फिर वापस आ जाते हैं। तो यात्रा ऊपर, नीचे, नीचे, ऊपर की ओर है। हालांकि कुंडलिनी की गति ऐसी हो सकती थी कि आप जेट की तरह कूद कर वहीं बैठ जाएं। जिस दिन ऐसा शुरू होगा मैं सबसे खुश व्यक्ति बनूंगी क्योंकि हर किसी के साथ चार बार ऊपर और नीचे इस तरह की यात्रा करना मेरे लिए बहुत ज्यादा ही है, क्योंकि उन लोगों के पास तथाकथित बाहरी लगाव है।
एक निर्लिप्त मन के साथ आंतरिक गति, यदि वे स्थिति को स्वीकार करते हैं और वे अपने भीतर निर्णय लेते हैं कि, “मैं ऐसा करने जा रहा हूं, मैंने इस पर फैसला किया है,” वे इसे कार्यान्वित कर सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है।
प्राय: यह भाव होना चाहिए कि माँ आईने की भांति है। और हमारे सामने एक दर्पण है, इसलिए हम जानते हैं कि हम कैसे आगे बढ़ रहे हैं। इसलिए आईने में अगर मैं खुद को इस तरह का पाता हूं, तो बेहतर होगा कि इस समस्या से छुटकारा पाएं और आगे बढ़ें। लेकिन होता इसके विपरीत है कि, यदि माँ किसी से कुछ कहती हैं कि, “ऐसा है,” तो उन्हें दुख होता है और वे फिर से ऊपर तैरने लगते हैं। आईने को कुछ कहना ही पड़ता है। मान लीजिए कि आपके चेहरे पर कुछ दाग है, तो दर्पण आपको खुश नहीं करेगा, यह कहेगा कि यह दाग वहां है। तो आप आईने पर प्रहार नहीं करते और आप आईने से नाराज़ नहीं होते हैं ना? आप सुनिश्चित करते हैं कि आप अपने आप को साफ़ कर लें क्योंकि आप कोई धब्बे नहीं रखना चाहते हैं।
लेकिन यह बिल्कुल दूसरा ही ढंग है। मैंने देखा है कि लोगों के साथ क्या होता है, अगर आप उन्हें कुछ भी कहते हैं या आप उन्हें बस इतना ही कहते हैं कि, “यह गलत है,” वे पहले स्पष्टीकरण देंगे, बहस करेंगे, यह बात है, और अगर यह काम नहीं करता है तो वे बस सहज योग और आप से नाराज़ हो जायेंगे। मानो वे सहज योग पर अहसान कर रहे हों। मानो वे माँ पर अहसान कर रहे हों। असल में आप खुद पर उपकार कर रहे हैं। आप किसी अन्य पर उपकार नहीं कर रहे हैं। ठीक है, यदि आप उस तरह का रवैया अपनाते हैं, तो ही आपको एहसास होगा कि आपको बाएं या दाएं देखे बिना आगे बढ़ना है।
तो हमारे पास कई अनुभव हैं, काफी मजेदार: यदि आप पीछे मुड़कर देखते हैं तो आप देख सकते हैं कि आप कभी रोमियो और जूलियट रहे हैं, कभी आप धन पर ही मन रखने वाले लोग रहे हैं, कभी आप लड़ते-झगड़ते बहसबाज़ रहे हैं। हमारे पास सभी प्रकार हैं। लेकिन जो लोग यह सब भूल जाते हैं और लक्ष्य की ओर बढ़ जाते हैं, वे सबसे अच्छे और सबसे समझदार होते हैं। वे सबसे स्वार्थी लोग हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि स्वार्थ क्या है। बाकी सब मूर्ख हैं क्योंकि वे अपना समय खो रहे हैं।
कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें मैंने देखा है जो सहज योग का उपयोग पैसा बनाने या सहज योग के लिए कुछ बनाने के लिए करते हैं, और इससे कुछ पैसे कमाते हैं। बेहतर हो की आप खुद को बनायें, यह सबसे अच्छा तरीका है! और इसका आनंद इस तरह से लें जिससे सहज धारा में आपको खुशी मिले और दूसरों को भी खुश करे। लेकिन सहज धारा से बाहर निकलना और कुछ करना फिर से ब्रह्म नाड़ी के उस अंतरतम चैनल से बाहर आना है, बाहर की ओर, फिर से तैरते हुए और किनारे पर जाना है, फिर से नीचे जाना है, क्योंकि हर बार जब आप इस तरह नीचे जाते हैं तो आपको अपनी कुंडलिनी फिर से शुरू करनी होती है। वापस। यह बहुत कठिन बात है। और कुंडलिनी का बल खर्च हो जाता है।
तो यह समझना होगा कि, अगर आपको यह यात्रा करनी है, तो आपको एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति बनना होगा। आपको एक अनुशासित व्यक्ति बनना होगा, आप, आप स्वयं। कोई आपसे यह न कहे कि, “स्वयं को अनुशासित करो, यह करो वह करो।” आपको यह करना है। दूसरे क्या कर रहे हैं, सबसे पहले ध्यान है। मेरा मतलब है कि अगर कोई इसे यहां लाता भी है, तो सभी का ध्यान वहां जाना चाहिए। वहाँ क्या देखना है? लेकिन ये कुछ भी नहीं है. यह बहुत ही फालतू बात है। लेकिन गंभीर बातों ने भी आपका ध्यान नहीं खींचनी चाहिए।
आपका ध्यान सभी समाधानों के समाधान, सभी आशीर्वादों के आशीर्वाद, सभी मुक्ति की मुक्ति पर होना चाहिए।
आपको किसी और चीज की चिंता नहीं करनी चाहिए। यदि आप केवल उस संबंध की चिंता करते हैं, जो स्थापित हो रहा है अन्य कुछ नहीं, तो हर चीज का ध्यान रखा जाता है। यह बहुत ही सरल है।
यदि यह कनेक्शन टूट गया है तो साधारण बात यह है कि कनेक्शन को चालू रखना है। इसे चमकाने, ऐसा करने, वैसा करने से क्या फायदा? क्या आप कनेक्शन वापस लेने जा रहे हैं?
यह एक सरल, व्यावहारिक बात है जिसे हम भूल जाते हैं। और एक बार जब हम उस व्यावहारिक पक्ष को भूलने लगते हैं, तो हम अपनी प्रगति में मंद हो जाते हैं और जो हम पाते हैं कि, हम जहाँ थे वहीं हैं।
जैसे इस कोल्हापुर में, मैं कहूंगी, जब मैं आती हूँ, तुम आज रात देखोगे, बहुत भीड़ होगी, बहुत बड़ी भीड़, हमेशा हमारे पास होती है। उनमें से कितने वास्तव में यह यात्रा करते हैं? बहुत कम! कोई बात नहीं, आपको इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्योंकि वे अभी तक विवेकवान नहीं हैं। लेकिन जो विवेकवान हो जाते हैं, जो यात्रा करते हैं, वे भी बीच में [जैसे] जैक-इन-द-बॉक्स से बाहर हो जाते हैं। अचानक मुझे कोई बहता हुआ मिलता है। हम पनडुब्बी के माध्यम से जा रहे हैं और वे बस बाहर निकल गए। हमारी सारी यात्रा के साथ ऐसा ही हुआ है।
और इस जगह पर जब हम हैं, हम यहां हवाई जहाज से नहीं पहुंचे हैं, कार से नहीं, सड़कों से नहीं, बल्कि हमारे दिल के अंतरतम केंद्र से, आप यहां पहुंचे हैं, ब्रह्म नाड़ी। हम कोल्हापुर महालक्ष्मी के बिंदु पर, सबसे अंतरतम भाग से पहुंचे हैं, और इसी तरह हम यहां हैं।
तो हम इस जगह को बहुत स्थूल रूप से देखते हैं, यह हमारी पुरानी आदतें हैं। लेकिन नई आदत चैतन्य के ढंग से देखने की होनी चाहिए कि, हम कहां हैं? यह क्या है? एक बार जब आप इसे विकसित कर लेंगे तो मैं निश्चित रूप से इस कोल्हापुर को पूरी तरह से दूसरी जगह में परिवर्तित कर सकती हूं। आप मेरे माध्यम की तरह हैं। जब आप मेरे साथ जाते हैं, तो मैं आपको अपने साधन के रूप में उपयोग करती हूं। लेकिन जो मैंने पाया है कि, चैनल कभी टेढ़े होते हैं, कभी टूटे, कभी छेद होते हैं और ऊर्जा बर्बाद हो जाती है। तो यह उन सभी सहज योगियों का कर्तव्य है जो विशेषत: मेरे साथ यात्रा पर है कि, वे माध्यम बने| लेकिन अगर आप यह रवैया अपनाते हैं कि आप यहां मेहमान के रूप में हैं, आपकी देखभाल की जानी है, व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए, वह अच्छी होनी चाहिए तो आपकी यात्रा का कोई मतलब नहीं है। आप ऐसे संतों की तरह यात्रा कर रहे हैं जिन्होंने बुद्ध के साथ यात्रा की, और भी अधिक, क्योंकि उन्होंने कुछ नहीं किया। लेकिन आप माध्यम हैं। इसलिए, जैसा कि आप माध्यम हैं, आपको अपने माध्यम को खुले, कुशल बनाये रखने होंगे, और आपको इस पर काम करना चाहिए।
आज का दिन आप सभी के लिए विशेष दिन है, जिसे महाबीज कहा जाता है, महाबीज का दिन, अर्थात सभी मंत्रों का एक बीज होता है और उसी का महाबीज स्वयं ॐ, ओंकार होता है।
और यह पहला स्थान है, यह ॐ एक अंडे की तरह था, ब्रह्माण्ड। वे इसे ब्रह्माण्ड कहते हैं। पूरा ब्रह्म एक अंडा बन जाता है। बेशक, जब वे ‘ब्रह्मांड’ कहते हैं तो संस्कृत के लोग भी नहीं जानते कि वे अंडे की बात कर रहे हैं। ब्रह्म-अंडा। ब्रह्मा का अण्डा। वही पहला बीज है।
और कैसे यह ब्रह्म, यह स्पंदन, कैसे उत्पन्न हुए। सबसे पहले जब देवी शिव से अलग हुई, उससे पहले वह उनके चक्कर लगा चुकी थी, जैसा कि आप जानते हैं। और फिर शिव ने उससे कहा, सदाशिव ने उससे कहा, कि अब तुम्हें रचना करनी है। और अलगाव हो गया। तो वह उस प्रदक्षिणा से बाहर आयी, या आप इसे अण्डाकार आकृति कह सकते हैं, और जब वह उसमें से निकली, जिसने एक प्रकार की ध्वनि, ध्वनि उत्पन्न की जिसमें यह ब्रह्म था। ताकि ब्रह्म उस क्षेत्र में रह गए।
जैसा कि मैंने आपको बताया है कि सबसे पहले देवी ने सदाशिव का चक्कर लगाया और एक माला बनाई। उस माला ने उसमें शिव को ढँक दिया था। अंदर के नाभिक की तरह। लेकिन जब सदाशिव उसमें से निकले, तो उसने एक ध्वनि पैदा की, और उस ध्वनि ने उस अण्डाकृति को भर दिया, अर्थात् एक अंडे का रूप और वह है महाबीज। वह ॐकार है, और वह श्री गणेश के रूप में और बाद में ईसा मसीह के रूप में पुनर्जन्म लेता है। इसलिए महालक्ष्मी के स्थान पर महाबीज दिवस के साथ आना एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि महालक्ष्मी जीसस की माता थीं – मरियम – और उनका पुत्र महाबीज का अवतार था।
तो ऐसे-ऐसे दिन यहां आना और महालक्ष्मी की पूजा करना एक बहुत बड़ा सौभाग्य है, आप सभी के लिए बड़े सौभाग्य की बात है। और उस विशेषाधिकार के साथ आप विनम्रतापूर्वक इस पूजा को करें और उस महाबीज में जाने का प्रयास करें, उस महाबीज का एक हिस्सा बनें, जो कि यह ब्रह्माण्ड है, संपूर्ण ब्रह्माण्ड, ब्रह्मा का अण्डा – ‘अंड’ का अर्थ है अंडा – बनाया गया, अंश और पार्सल बन उसमें से और किसी भी कोणीयता या किसी भी प्रकार की गलत बयानी पैदा करने के लिए नहीं बल्कि पूरे ब्रह्म के साथ एकरूप होने के लिए।
अपनी ब्रह्म शक्ति पर ध्यान देना होगा जो चैतन्य के रूप में प्रकट होती है।
आज वायब्रेशन इतने तेज हैं कि मुझे नहीं लगता था कि मैं इस पर बोल पाऊंगी, लेकिन किसी तरह मैं कामयाब हो गयी।
मैं आशा करती हूँ कि आज मैंने आपसे जो सूक्ष्मता से बात की है, उसकी सूक्ष्मतम सूक्ष्मता को आप सभी समझ गए होंगे।
इसलिए जब आप मेरे साथ यात्रा करते हैं तो आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि आप यहां पूरी भूमि और वह सब देखने आए हैं, या जीवन का आनंद लेने के लिए आए हैं। आप यहां अपनी मां के काम का माध्यम बनने आए हैं। अगर आप इसे समझ लेंगे, तो आप महसूस कर पाएंगे कि भगवान ने आपको एक बहुत ही नियत स्थान दिया है। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूंगी कि, योग्य बनो, इसके लायक बनो, और अपने आसन, प्रतिष्ठित स्थानों को ग्रहण करो जहां ईश्वर ने तुम्हें रखा है।
परमात्मा आपको आशिर्वादित करें!