Guru Puja: The State of Guru

Grand Hotel Leysin (Leysin American Schools), Leysin (Switzerland)

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                          गुरु पूजा

 लेसिन (स्विट्जरलैंड), 14 जुलाई 1984।

मैं दुनिया के सभी सहज योगियों को नमन करती हूं। आप सब को बड़ी संख्या में यहां गुरु पूजा करने के लिए इकट्ठा होते देखना बहुत खुशी की बात है।

व्यक्तिगत रूप से अपने गुरु की पूजा करना सर्वोच्च आशीर्वाद माना जाता है। लेकिन मेरे मामले में यह बहुत अलग संयोजन है कि मैं आपकी माता और आपका गुरु हूं।

तो आप समझ सकते हैं कि कैसे श्री गणेश ने अपनी माता की आराधना की थी। आप सभी श्री गणेश जैसी ही छवि में बने हैं जिन्होंने अपनी माँ की पूजा की और फिर वे आदि गुरु, पहले गुरु बने। वह गुरुत्व का मौलिक सार है।

मां ही बच्चे को गुरु बना सकती है। और किसी भी गुरु में केवल मातृत्व ही  – चाहे वह पुरुष हो या महिला – शिष्य को गुरु बना सकता है। तो पहले आपको पैगम्बर बनना होगा और उस मातृत्व को अपने अंदर विकसित करना होगा, फिर आप दूसरों को भी पैगम्बर बना सकते हैं। अब  बोध के बाद, गुरु बनने के लिए हमें क्या करना होगा?

गुरु शब्द का अर्थ है गुरुत्वाकर्षण। गुरुत्वाकर्षण का अर्थ है एक व्यक्ति जो गंभीर है, जो गहरा है, जो चुंबकीय है। अब जैसा कि आपने सहज योग में सीखा है कि बोध पूर्ण अनायास में होता है। तो आमतौर पर एक गुरु अपने शिष्यों को प्रयासहीन बनाने की कोशिश करता है, जिसे प्रयत्न शैथिल्य  कहा जाता है – जिसका अर्थ है ‘अपने प्रयासों को आराम दें’। बिना कुछ किए आपको अपनी प्रयत्न शैथिल्यता मिल गई, नहीं तो कुंडलिनी नहीं उठती।

फिर दूसरा चरण विचार शैथिल्य है – निर्विचार जागरूकता। यह भी आपको बिना कुछ किए ही मिल गया।

और तीसरा है पूर्ण विचार निषेध , अभव और शांति का आनंद।

तो किसी को यह समझना होगा कि आपको तीन चरणों से गुजरना होगा। पहला, जब आपको अपना आत्मसाक्षात्कार होता है तो ये सभी चीजें अनायास आती हैं, उस क्षण के लिए। जब आप दूसरों की कुंडलिनी उठाते हैं, तो उनके साथ ये चीजें अनायास ही हो जाती हैं। अब आप में भी लोगों की कुंडलिनी को ऊपर उठाने और उसे उनमें स्थापित करने की शक्ति है।

लेकिन हमें समझना चाहिए कि ऐसा इस तरह क्यों करना है, हमें विचार शैथिल्य क्यों करना है – ऐसा इसलिए क्योंकि जब आप कोई विचार पेश करते हैं, तो यह कृत्रिम है, यह वास्तविकता नहीं है। विचार हमेशा आपके और वास्तविकता के बीच खड़ा होता है। जब आप कोई प्रयास करते हैं, तो आप ‘हो जाने’ के खिलाफ खड़े होते हैं।

उदाहरण के लिए, अगर मुझे तुम्हें ठीक करना है, तो मैंने अपना हाथ रखा और बस – कोई प्रयास नहीं, क्योंकि मैं वह हूं। तुम अपना बोध प्राप्त करते हो क्योंकि मैं वह हूं। मैं कोई प्रयास नहीं करती, मैं इसके बारे में नहीं सोचती, मैं वह हूं। किसी की तरफ दृष्टी मात्र से ही ऐसा किया जा सकता है। किसी पर ध्यान देने मात्र से यह किया जा सकता है। बस एक छोटी सी इच्छा से, यह किया जा सकता है – क्योंकि तुम वह हो। आप इसे अपनी पसंद के अनुसार ढाल सकते हैं। आप एक उदाहरण सोने से प्राप्त कर सकते हैं। अब सोना ऐसी धातु है जो बेदाग है। उसे यह सोचने की ज़रूरत नहीं है कि वह कलंकित नहीं है, उसे कलंकित न होने का कोई प्रयास नहीं करना है – वह है। तो होने के लिए, होने के लिए, आपको कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। अगर आपको कोई प्रयास करना है, तो इसका मतलब है कि आप अभी तक ‘वह’ नहीं हैं।

यदि आप सूर्य को देखते हैं – यह चमकता है। इसे चमकने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है – यह चमकता है। तो ऐसा होने के लिए, अगर आपको कोई प्रयास करना है, तो इसका मतलब है कि आप ‘वह’ नहीं हैं, आप कोशिश कर रहे हैं, आप कृत्रिम हैं। फूल सुंदर हैं, इसलिए उन्हें खुद को सुशोभित करने की आवश्यकता नहीं है। और यही बात समझनी है- कि सहज ही यदि तुम ‘वह’ हो, यदि बन ही चुके हो, तो और मेहनत करने की क्या जरूरत? लेकिन जब हम ये बातें कहते हैं, आप देखिए, तो लोग सोचते हैं कि आपको सुस्त होना है, कि आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, आप बिना कुछ किए ही गुरु बन जाते हैं। इसलिए, शुरू में ही, मैंने कहा था कि ऐसा चरणबद्ध ढंग से होता है।

तो पहला चरण श्री गणेश का है – वे कैसे शक्ति को, माता को समर्पण करते हैं – यही शुरुआत है। यदि कोई समर्पण नहीं कर सकता… इसका मतलब यह नहीं है कि आप कुछ भी नहीं करते हैं, लेकिन समर्पण का अर्थ है पूजा, उच्चतर का सम्मान, उच्चतर के प्रति आज्ञाकारिता। इस पर बहस नहीं करना, प्रतिक्रिया नहीं करना, स्वीकृति, अवशोषण। जैसे कोई बच्चा बिना सवाल किए, बिना तर्क के मां के दूध को सोख लेता है। इसलिए क्राइस्ट ने कहा है, ”तुम्हें बच्चों जैसा बनना है”। लेकिन अगर तुम सवाल कर रहे हो, तो तुम बच्चे नहीं रहे।

तो पहले वह अवस्था है, जिसे विकसित करना है, वह है बच्चे जैसी अवस्था। लेकिन बच्चा, जो एक आत्मसाक्षात्कारी बच्चा है, जिसमें गुरुत्वाकर्षण होना चाहिए। यदि आप बचपन को पहले विकसित कर पाते हैं, तो सब कुछ उचित क्रम से होता है, क्योंकि परिपक्वता तब तक नहीं हो सकती जब तक कि आप प्रारंभ से ही सूत्रपात नहीं करते हैं, और गुरुत्वाकर्षण का मतलब परिपक्वता है न कि तुच्छता।

तो अब गणेश का गुण, जैसा कि आप जानते हैं, कि उनके पास विवेक है, अर्थात उनके पास सुज्ञता है। उनके पास ‘है’ का अर्थ है कि वह विवेक है। इसलिए अपनी विवेक शक्ति को विकसित करने का प्रयास करें ताकि श्री गणेश आपको विवेक – सुबुद्धि – सुज्ञता प्रदान करें। और इसलिए आपको श्री गणेश पर निर्भर रहना होगा।

इसलिए इस समय आपको प्रयासों को नकारना होगा। जैसे, गणेश विरोधी या अबोधिता विरोधी जो भी प्रयास हों, उन्हें नकारना चाहिए। तो जो कुछ भी प्रयास है उसे नकार कर प्रयास के निषेध को प्राप्त करना है – अर्थात निषेध का प्रयास। तो शुरुआत में आप सहज नहीं होंगे, इसके लिए आपको प्रयास करने होंगे। जैसे ईसा-मसीह ने कहा है, ”तू व्यभिचारी आंखें न रखना”।

तो आप अपनी आँखों को निर्दोष कैसे बनाते हैं? सहज योग में हमारे पास एक तरीका है जिसके द्वारा हम अपनी आंखों को व्यभिचारी बनाने वाली आदत से विचलित करने का प्रयास करते हैं। जैसे, हम अपना चित्त, अपनी आँखें, धरती माँ पर, घास पर, पेड़ों पर लगाने की कोशिश करते हैं।

तो परिहार, प्रयास से बचना ही प्रयास है। तो जो लोग अभी हाल ही में आए हैं, उन्हें भी यह समझना होगा कि उन्हें प्रयासों को रोकने के लिए हर तरह के प्रयास करने होंगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को बहुत आरामदायक जीवन की आदत होती है, वे सभी प्रकार के त्याग (अपरिग्रह)की बातें कर सकते हैं, लेकिन जब आराम की बात आती है, तो वे आराम चाहते हैं। ऐसे लोगों को आराम की आदत से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए – जमीन पर सोएं, धरती मां पर सोएं। कुछ लोगों के पास ऐसा चित्त होता है जो हर समय इस या उस तरफ देखता है, – एक बिंदु पर दृष्टी बनाये नहीं रख पाता – इसलिए अपना चित्त स्थिर करें। तो धीरे-धीरे, आप पाएंगे, आप स्वयं को अनुशासित करेंगे। तो सहज योग की शुरुआत में आपने जो प्रयास किया है वह बहुत महत्वपूर्ण है।

एक और बात बहुत आम है, पश्चिम में, कठोर जीभ, कटाक्ष, और दूसरों को चोट पहुँचाना – हिंसा का एक बहुत ही सूक्ष्म तरीका है। या यदि वे वास्तव में मुंहफट हैं तो वे अहंकार की अभिव्यक्ति से भी शुरू कर सकते हैं “मैं, मैं, मैं …” ऐसे लोगों को पूरी तरह से बात करना बंद कर देना चाहिए, रोकने का प्रयास करना चाहिए – बस बात न करें। अब अपने मन को देखें – क्या यह कुछ व्यंग्यात्मक, निरर्थक बात करने की कोशिश कर रहा है? तो यह देखने के लिए भी मेहनत करनी पड़ती है।

तो, बीज को अंकुरित करना आसान है, लेकिन फिर छोटे पौधे की देखभाल के लिए प्रयास करना पड़ता है। और जब यह परिपक्व होता है, तो यह आत्मनिर्भर होता है। तो, सबसे पहले खुद को उस मन से बचाने का प्रयास करना चाहिए जिसे आपने अपने अहंकार या प्रति-अहंकार के माध्यम से बनाया है, जो प्रयास की गलत दिशा में जाता है।

लेकिन कभी-कभी, बहुत सावधान रहें, आपको विवेकवान रहना होगा। और विवेकवान और सुरक्षित रहने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप मध्य में रहें – कभी भी किसी भी चीज की चरम सीमा पर न जाएं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग संगीत के शौकीन होते हैं,  मान लें, इसलिए वे इसके संगीत वाले भाग के पीछे पड़े रहेंगे। कुछ लोग, जैसे, कविता के शौकीन हैं, तो बस वे कविता के पीछे ही जाएंगे। उन चीजों में गलत कुछ भी नहीं है, लेकिन इन सभी चीजों में आप जो कुछ भी हासिल करते हैं उसे वापस सामूहिकता में लाया जाना चाहिए और सभी को इसका आनंद लेना चाहिए, और दूसरों ने भी जो उपलब्धि पायी है उसका आप को भी आनंद लेना चाहिए।

उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहुत ही विद्वान व्यक्ति है और शुष्क व्यक्ति है। तो खुद को मधुर बनाने का पुरूषार्थ करना पड़ता है। तो मध्य में आकर अपने अतिवादी स्वभाव को बेअसर करने की कोशिश करो, और कहने का सबसे अच्छा तरीका है, “मुझे सब कुछ पसंद है। आप जिस तरह से मुझे रखते हैं, मैं उस अवस्था में खुश हूं।” और अपने आप को सुझाव देने के लिए कहें कि, “मैं शांति हूं” – खुद को सुझाव दें कि, “मैं संतुष्टि हूं, मैं गरिमा हूं।”  सद्गुणों और धार्मिकता की इन कृत्रिमताओं को अपने ऊपर थोपने की कोशिश करो, और फिर अपने आप से पूछो, “यदि मैं प्रतिष्ठित हूं तो मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं?”इस तरह से स्वयं से प्रश्न करें, इस की रौशनी में खुद का आंकलन करे। उदाहरण के लिए, कोई कंजूस है और वह कहता है, “ओह, आपको उदार होना चाहिए” – तब आप उसे पाखंडी कह सकते हैं। लेकिन अगर कंजूस खुद से सवाल करें तो वह पाखंडी नहीं है।

तो जब आप इन सभी कृत्रिम, तथाकथित, मूल्यों को अपने ऊपर रखते हैं – एक लक्ष्य की तरह – और फिर अपने प्रयास से उस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, तो आप वह बन जाते हैं। तो आप स्वतः ही स्वयं की आलोचना करते हैं और आप दूसरों की आलोचना नहीं करते हैं और आप जानते हैं कि आपके साथ क्या गलत है। क्योंकि, दूसरों के साथ क्या गलत है, यह जानने का क्या फायदा? यह तो ऐसा ही हुआ, जैसे इंग्लैंड भारत में परिस्थितियों को सुधारने की कोशिश कर रहा है, और भारत इंग्लैंड में परिस्थितियों को सुधारने की कोशिश कर रहा है।

लेकिन इससे भी बच निकले का इंसानी दिमाग में तरीका होता है। जब वे स्वयं की आलोचना करना चाहते हैं, तो वे बायीं विशुद्धि नामक एक थैली ढूंढते हैं और वहीं स्थापित हो जाते हैं। आप जितने चालाक हैं, जितने ही चतुर हैं, बाईं विशुद्धि उतनी ही खराब है। फिर आप वहां सब कुछ डाल देते हैं, अच्छी तरह से स्थिर हो सड़ने के लिए, उसमें हर तरह की गंदगी जमा हो जाती है और आपके साथ अच्छी तरह से बस जाती हैं। यह किसी भी घटिया गृहिणी की तरह है – वह घर की सारी गंदगी और वह सब ले जाती है और एक कमरे में ढेर कर देती है, उसे बंद कर देती है, और सोचती है, ओह, वह बहुत कुशल रही है।

आपको इसका सामना करना होगा और आपको इसे ठीक करना होगा और इसे सुनिश्चित करना होगा! और इस तरह आप शक्तिशाली बनते हैं। क्योंकि अगर आपकी मशीनरी खराब हो गई है, तो किसी और की मशीनरी को सुधारने का क्या फायदा? और जब आपकी मशीनरी खराब हो जाती है, तो आप उसे कमरे में बंद कर ताला लगा देते हैं, और कहते हैं, “अब यह ठीक है।” या आप इसके लिए किसी अन्य को दोष देते हैं, इसके कारण, उसके कारण – अपने अलावा कुछ और। आज, सहज योग के लिए,  ईश्वर को धन्यवाद है कि आप सभी को बोध हो गया है, इसलिए मुझे वह सब सफाई करने की ज़रूरत नहीं है, आप स्वयं कर सकते हैं।

तो, संक्षेप में, प्रारंभ करने के लिए आप अपने स्वयं के गुरु बन जाते हैं। आप अपने आप को बताने की कोशिश करें, अपने आप को खुद से अलग करें और कहें, “नमस्कार सर, अब आप कैसे हैं, चलो आओ।” लेकिन सहज योग में, आप देखिए,  अचानक लोग मान लेते हैं, आप देखिए, एक बड़ा प्रकार का फालतू अहंकार है, और वे सोचते हैं कि वे बड़े गुरु हैं, आप देखिए, बड़े, महान लोग, अवधूत, आप देखिए, ऐसे ही। और यदि आप उनसे पूछते हैं, तो वे कहते हैं, “माँ, माँ मैं तुमसे बहुत प्यार करता था।” तो वे सोचते हैं कि यदि वे मुझसे प्रेम करते हैं, तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं वास्तव में तुम्हें शुद्ध रखूं। यह गुरु का रवैया नहीं है। गुरु क्या करता है, स्वयं को और दूसरों को शुद्ध करना और उन शुद्ध किये फूलों को देवता को अर्पित करना। जब तक तुम सब गुरु नहीं बन जाते, मैं तुम्हारी गुरु हूं, लेकिन एक बार तुम गुरु बन गए तो मैं तुम्हारा देवता बन जाती हूँ।

[अनुवादक माँ से स्पष्ट करने के लिए कहता है] जब तक वे गुरु नहीं हैं, मैं उनकी गुरु हूँ। जब तक वे उस अवस्था में नहीं पहुँच जाते। एक बार वे गुरु बन गए, तो मैं उनकी देवता हूं।

जैसे सभी गुरुओं ने, उदाहरण स्वरुप मोहम्मद साहब  – उन्होंने “अल्लाह हू अकबर” की बात की। उन्होंने पवित्र आत्मा की बात की, उन्होंने पुनरुत्थान की बात की, क्योंकि वे एक गुरु थे। और उन्हें जो कुछ भी कहना था, उन्होंने पूरे विश्वास के साथ उस बिंदु की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह कहाँ देखते है, या जहाँ से उन्हें मार्गदर्शन मिलता है। उसी तरह मोसेस, वैसे ही क्राइस्ट ने भी अपने पिता को दर्शाते हुए अपनी दो उंगलियां प्रदर्शित की।

इसलिए जब तक आप अपने गुरु नहीं बन जाते, तब तक आपको शुरुआत में प्रयास करना होगा। फिर धीरे-धीरे आप इसे सहजता से हासिल कर सकते हैं। प्रयासहीनता को प्रमाणित नहीं करना है, लेकिन आप इसे सत्यापित कर सकते हैं। एक व्यक्ति जो विवेकवान है – उसकी उपस्थिति में दूसरे विवेकवान हो जाते हैं। एक व्यक्ति जो ईमानदार होता है – उसकी उपस्थिति में अन्य लोग भी ईमानदार हो जाते हैं। संस्कृत भाषा में कहा गया है, ‘यथा राजा तथा प्रजा’ – ‘जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है’।

जब आप गुरु होते हैं, तो आप उदाहरण होते हैं। आपको उदाहरण बनना होगा। अब मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो गुरु हैं, जो सोचते हैं, खुद को गुरु कहते हैं, विभिन्न किस्मों और विभिन्न प्रकार के जीवन में: आप उन्हें प्रोफेसर, शिक्षक, कह सकते हैं लेकिन आध्यात्मिक गुरु नहीं कह सकते। वे भी, जब वे एक सांसारिक प्रकार के जीवन का पालन करने की कोशिश करते हैं – कुछ असाधारण नहीं – तब उनके शिष्यों का उन पर से विश्वास खो जाता है। यहां तक कि राजनीतिक नेता भी, जब वे … मान लीजिए कि एक राजनीतिक नेता लम्पट है, उसकी कमजोरियां हैं, तो जो लोग उसका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं, उनका कोई सम्मान नहीं रहता है। इसलिए उनके पास भी एक व्यक्तिगत चरित्र, एक व्यक्तिगत मूल्य प्रणाली होनी चाहिए।

तो फिर आध्यात्मिक गुरुओं के बारे में क्या? उन्हें बेहतरीन इंसान बनना होगा। जीवन दो प्रकार का नहीं होना चाहिए, एक बाहर, एक भीतर। जब बाहर और भीतर एक हो जाते हैं, तब यह सहज होता है और यही करना होता है – भीतर और बाहर, भीतर से कार्यान्वित करना होता है। उसके लिए तुम बाहर को भीतर नहीं ला सकते, लेकिन अंदर से बाहर जाना पड़ता है। तो यह अंतर योग, आंतरिक योग की शुरुआत है।

दूसरे चरण में तुम्हें निर्विचार बनना है। पश्चिम में यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे विचारों में जीते हैं – उन्हें सतही प्रकृति की अन्य समस्याएं नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, उन्हें इस तरह से पाला जाता है कि वे नियम कानून से डरते हैं। उन्हें इस तरह से पाला गया है – वे अपने सभी कालीनों को साफ रखेंगे, सब कुछ साफ रखेंगे, आप देखिए, हर जगह को साफ रखने के बारे में विशेष सावधान। वे सभी स्थूल चीजों को साफ रखते हैं, और फिर जब वे खुद से सामंजस्य करने की कोशिश करते हैं, तो वे सारा एडजस्टमेंट भीतर करते हैं। बाह्य रूप से वे सज्जन हैं, लेकिन भीतर से, उनके विचार में, वे स्वच्छ नहीं हैं। उनके व्यवहार में वे साफ नहीं हैं, उनकी आंखें पवित्र नहीं हैं, यह अंदर का जहर है। और वे उस जहर को बाहर निकालना पसंद करते हैं – कभी-कभी यह व्यंग्य के रूप में सामने आता है, यह दूसरे देशों पर आक्रमण के उनके भयावह कृत्यों के रूप में सामने आता है। वे दुनिया के पूर्ण विनाश की योजना बना सकते हैं और उन्हें नहीं लगता कि इसमें कुछ भी गलत है क्योंकि यह ‘एक विचारधारा’ है जिसके लिए,  वे ‘एक विचार है’ जिसके लिए वे लड़ रहे हैं। जब तक कोई ‘विचारधारा’ है, ‘एक विचार है’, कोई ‘प्रभावशाली बात’ है, तब फिर वे जो चाहें कर सकते हैं।

यह गंदगी बहुत परिष्कृत है। जैसे कि जो लोग स्नान नहीं करते हैं वे सुगंध प्राप्त करने के लिए कुछ कृत्रिम खुशबू की चीजों का उपयोग कर सकते हैं। स्वच्छता भीतर होना चाहिए इसलिए पहले अच्छे विचार रखने का प्रयास करना चाहिए। अपने मन को देखें – यह दूसरों के बारे में कैसा सोचता है? मैं कहूंगी, जातिवाद उसी चीज की बीमारियों में से एक है। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो बहुत अच्छी तरह से पदस्थ हैं, परिष्कृत हैं, बेदाग कपड़े पहनते हैं: जब किसी विकासशील देश के व्यक्ति की बात आती है, या कहें, किसी अन्य रंग व्यक्तित्व की बात आती है, तो वे एक टिप्पणी के साथ सामने आते हैं, भले ही वे सहज योगी हों, मैंने देखा है कि वे ऐसा करते हैं। यह मैं सहजयोगियों के लिए कह रही हूं, दूसरों के लिए नहीं। कि अचानक वह मृत वस्तु, जिसे हम मृत कहते हैं, जीवित हो जाती है।

तो मन गंदा है, काम, लोभ और क्रोध, ईर्ष्या से भरा है – और इसलिए हमें बहुत सावधान रहना होगा।

जो लोग बनावटी सभ्य हो गए हैं उनकी कमजोरियां भी परिष्कृत हो गई हैं, और इसलिए ईर्ष्या एक आम बीमारी है। जैसे, एक अन्य दिन मैंने किसी से पूछा, “पिता बेटे पर और अपने ही भाई से क्यों नाराज़ है?” तो जवाब था, “क्योंकि भाई लंदन में बेटे की देखभाल कर रहा है।” आम तौर पर किसी भी व्यक्ति को आभारी होना चाहिए कि: मेरी अनुपस्थिति में कोई मेरे बेटे की देखभाल कर रहा है। लेकिन व्यक्ति स्वामित्व की भावना के कारण ईर्ष्या करता है और स्वामित्व की भावना असुरक्षा से आती है, और हमारे भीतर असुरक्षा इसलिए आती है क्योंकि हम दूसरों को असुरक्षित बनाते हैं। असुरक्षा के कई कारण हैं, लेकिन उनमें से एक यह है कि हम द्वेषपूर्ण हैं और हम दूसरों में वह कुरूपता देखते हैं।

अब बाहर की गंदगी से ज्यादा इस अंदर की गंदगी को मेहनत से निकालना होगा, और उस अंदर की गंदगी की आप अपने भीतर चौकसी और निगरानी कर सकते हैं। कुछ लोग दूसरों पर हावी होने की कोशिश करते हैं, उन्हें बातें बताने के लिए – सिर्फ अपने बड़प्पन के लिए। अब ध्यान दें – सबसे पहले, क्या आपने अपने आप पर्याप्त बड़प्पन हासिल कर लिया है? क्या आपने अपने आप में काफी महारत हासिल कर ली है? क्या आप खुद के गुरु हैं या आप में अभी भी कमी है? जिन लोगों ने खुद पर महारत हासिल नहीं की है, वे चाहते हैं कि कोई अन्य उन पर प्रभुत्व हासिल करें। लेकिन जो स्वयं का गुरु है, उसे किसी पर भी प्रभुत्व करने की आवश्यकता नहीं होती है। वह गुरु बन जाता है। उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, वह महारत हासिल करता है। और ऐसी बहुत सी तरकीबें हैं जिनके द्वारा वह महारत हासिल कर सकता है, इतनी सारी चीजें जिससे वह सुधार कर सकता है। हो सकता है कि वह न कहे, भले ही वह कुछ न करे, लेकिन वह बस प्रबंधित कर लेता है। इसके बारे में कुछ किए बिना हर कोई एक सबक सीखता है। लेकिन वे जानते हैं कि कोई न कोई गुरुओं का गुरु है। हो सकता है, ऐसा व्यक्ति कल्पना के परे बहुत ही सरल, सादा, मासूम दिखने वाला होगा, लेकिन वह महामाया है, यही भ्रम है।

तो जो व्यक्ति वह शक्ति है वह उसे बाहर प्रदर्शित नहीं करना चाहता, इसके विपरीत, यह इस तरह दिखाता है कि लोग इसे जान जाते हैं। मेरा मतलब है, जीवन में जिस तरह से चीजें होती हैं, हम समझने लगते हैं कि हमें कोई प्रदर्शन नहीं करना है – कोई सब कुछ जानता है। जब हमारे पास ऐसा कोई हो, तो उसका अनुसरण करने का प्रयास करें।

तो, तीसरे चरण में अपने गुरु का अनुसरण करने का प्रयास होना चाहिए जो एक सत गुरु है।

अब वह व्यक्ति बन जाता है… एक आदर्श, जिसका आपको अनुसरण करना होता है। लेकिन इसमें भी सहज योगी बहुत सतही हो सकते हैं। सहज योगियों में से एक व्यक्ति विशेष प्रकार से शॉल पहनता था। तो, मैंने उसे कुछ और सहजयोगियों के पास भेजा कि वह उनकी मदद करने की कोशिश करेगा, वह उनका गुरु हो सकता है; वे सब उसी तरह शॉल पहनने लगे। (हँसी) यह बाहर नहीं है; आपको आन्तरिकता का पालन करना होगा। तो जब तुम गुरु बन जाते हो, गुरु बन जाते हो, तुम होते हो। यह इतनी छोटी विधि है-बस बनने की।

अब यदि आप स्वयं का सामना करते हैं, तो आप जानेंगे कि बनने के लिए आपको अभी भी कुछ कदमों को पार करना होगा। अभी भी जब मैं तुम्हें व्याख्यान दे रही हूँ, तुम दूसरों के बारे में सोच रहे हो – “ओह, माँ उसके बारे में बात कर रही है” – अपने बारे में नहीं।  किसी भी व्यक्ति को इस तरह अपने गुरु से इसे ग्रहण करना है, कि आपको स्वयं को देखना है। अब, यह बहुत महत्वपूर्ण है यदि हमें ऐसे पैगंबर बनना है जो दूसरों को भी पैगंबर बनाएंगे।

अब, उच्च स्थिति यह है कि आपका गुरु देवता बन जाता है। जब आप कहते हैं “गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वर”। वे उस बिंदु तक जाते हैं लेकिन कोई नहीं कहता कि “गुरु देवी हैं”। आपके पास ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तुलना में उच्च स्तर हो सकता है। क्योंकि गुरु अवस्था वह है जहाँ आप इन सभी ब्रह्मा और महेश और विष्णु की अबोधिता रखते हैं — उनकी अबोधिता की शक्ति। लेकिन फिर अंततः वे कहते हैं, “गुरु साक्षत परब्रह्म”। और परब्रह्म माता की शक्ति है जो आप में प्रवाहित हो रही है।

तो आप उस परब्रह्म के निमित्त बन जाते हैं – लेकिन कैसे? न केवल बनकर बल्कि अब, अपने देवता के परावर्तक बनकर, अपने आप को गुरु से उस  परावर्तक अवस्था तक में विकसित करने के लिए। उस अवस्था में आप सभी तत्वों को नियंत्रित करना शुरू कर देते हैं। इसलिए आदि गुरु के इन सभी अवतारों का तत्वों पर नियंत्रण था। उनके माध्यम से ब्रह्मदेव पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होते हैं।

तो गणेश से, जो आदि गुरु हैं, उनका जन्म होता है, या वे इन तीनों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं – ब्रह्मा, विष्णु, महेश – और फिर वे चार सिरों के साथ ब्रह्मदेव के रूप में प्रकट होते हैं, तीन ब्रह्मा, विष्णु, महेश, और चोथे श्री गणेश |  तो ब्रह्मदेव गुरु के प्रतीक बन जाते हैं, और जैसा कि आप जानते हैं कि गणेश चत्वारी हैं, चार हैं – हर समय। वह ये चार बन जाते हैं – अभिव्यक्ति में, प्रकटीकरण में। और जैसे ही आप ब्रह्मदेव बनते हैं, उस स्तर पर आप सभी तत्वों को नियंत्रित करते हैं।

तो, आज मैंने आपको गुरुपद के विभिन्न चरणों – गुरु की अवस्था को समझाने की कोशिश की है। और व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि, आज जो कुछ भी हम हैं, हम अत्यंत आशिर्वादित और भाग्यशाली लोग हैं कि, इस कम समय में, कीचड़ में पड़े एक तिनके से प्रारंभ करके और आप कमल बन गए।

कमल कई कीड़ों को आमंत्रित करेगा और उन्हें कमल में बदल देगा। वे इसे मधुकर कहते हैं, मधुकर, जो मधु इकठ्ठा कर रहे हैं, अमृत, … आप क्या कहते हैं? – शहद। जब उन्हें अमृत मिलता है, तो वे स्वयं कमल बन जाते हैं।

सारा गंदा, मैला तालाब उन कमल के फूलों से आच्छादित है। और एक कमल, जो गुरु है, उच्चतर विकसित होता है, और फिर वह देवी को दिया जाता है जिस पर वह निवास करती है। वह हृदय में रहती है, मंच पर, सुंदर मंच जिसे इस कमल ने बनाया है। लेकिन उसे अपने हृदय पर धारण करने के लिए, आपके पास एक दिल होना चाहिए। गुरु के इतने गुण हैं, जो मैंने आपको बताए हैं। एक गुरु में सर्व श्रेष्ठ गुण, सभी पक्षों के बारह गुण पूर्ण रूप से प्रकट होने चाहिए और उन गुणों के स्वामी शिव हैं। तो इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से , महेश के गुण, शिव का सार आपके माध्यम से चमकना चाहिए।

विष्णु का गुण – धर्म  – पहले आपको धार्मिक होने का, संतुलित होने का प्रयास करना होगा। फिर तुम्हारा उत्थान होता है। तब आप विराट के साथ एकाकार हो जाते हैं और फिर आप दूसरों को धर्म दे सकते हैं।

तो किसी भी व्यक्ति को यह जानना होगा कि चरण-दर-चरण यह आपके साथ होता है और आप पाखंडी नहीं बनते हैं। लेकिन तुम वास्तविक हो जाते हो और वास्तविकता उसके व्यक्तित्व से प्रदर्शित होती है। वैसे ही तुम बन जाते हो। इसलिए अपने भीतर की वास्तविकता को समझें, उसका सामना करें, उसका समाधान करें। लेकिन ज्यादातर, मैंने देखा है, जब मैं किसी से कहती हूं, “नहीं, मां, मैं ऐसा नहीं हूं। नहीं माँ, मैंने ऐसा नहीं कहा, यह सच नहीं है!” कुछ ऐसे लोग सामने बैठना चाहेंगे या दिखावा करने की कोशिश करेंगे या कुछ भी, लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है।

महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं को कितना जानते हैं, वह है आत्म-साक्षात्कार। एक बार जब आप इसे विकसित कर लेते हैं, तो आप दूसरों को वास्तविक तरीके से जानते हैं, कृत्रिम रूप से नहीं, और तब पूर्ण आनंद होता है। जैसे मधुमक्खी कभी कृत्रिम फूल के पास नहीं जाएगी। लेकिन मनुष्य को मधुमक्खी बनना है। गुरु को यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वह गुरु है।

आज मैं आपको आशीर्वाद देती हूं।

मैंने गुरु के बारह वर्ष पूरे कर लिए हैं और आपको वास्तव में शिव की शक्तियों को अपने भीतर धारण करना चाहिए। मैंने, अर्थात मेरा शरीर, मेरा मन, मेरा हृदय, सब कुछ ने, इस शुद्धि में, इस निर्माण में, आप लोगों के इस बनने की प्रक्रिया में पूरी तरह से शामिल होने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मैं अब आपसे अनुरोध करती हूं कि कृपया मेरे प्रयासों को बर्बाद न करें। स्वयं को देखें, स्वयं की सहायता करें और स्वयं बनने के लिए ऊंचे और ऊंचे उठने का प्रयास करें।

जब आप ‘स्व’ बन जाते हैं, तब आप गुरु बन जाते हैं। और एक बार जब आप गुरु बन जाते हैं, तो आप ब्रह्मदेव, महेश और विष्णु बन जाते हैं। तो पहले आप गणेश के प्रतिमान में बने हैं, फिर ब्रह्मा, विष्णु, महेश। लेकिन बहुत कुछ इसे करने के लिए आपकी तत्परता और सबसे बढ़कर आपकी ईमानदारी और लगन पर निर्भर करता है।

मुझे आशा है कि श्री गणेश आपको समझने का विवेक देंगे। शक्ति आपको कड़ी मेहनत करने की शक्ति देगी, और शिव आपको आनंद देंगे, सदाशिव आपको आनंद देंगे ताकि आप अपने स्थापित होने की तरफ आगे बढ़ें।

परमात्मा आपको आशिर्वादित करें।

वे सभी जो मेरी पूजा करने जा रहे हैं, वे यहां आकर बैठ सकते हैं। जिस तरह से आज हमने वर्णन किया है, उसमें तीन पूजाएं होंगी। एक श्री गणेश की फिर गुरु पूजा और तीसरी देवी की। मुझे लगता है कि आपने हर जगह से जिन दो नेताओं को चुना है, वे यहां आ सकते हैं तो बेहतर होगा।