Makar Sankranti Puja

मुंबई (भारत)

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Makar Sankranti Puja Date 14th January 1985: Place Mumbai Type Puja

[Hindi translation from English talk]

अब आपको कहना है, कि इतने लोग हमारे यहाँ मेहमान आए हैं और आप सबने उन्हें इतने प्यार से बुलाया, उनकी अच्छी व्यवस्था की, उसके लिए किसी ने भी मुझे कुछ दिखाया नहीं कि हमें बहुत परिश्रम करना पड़ा, हमें कष्ट हुए और मुंबईवालों ने विशेषतया बहुत ही मेहनत की है। उसके लिए आप सबकी तरफ से व इन सब की तरफ से मुझे कहना होगा कि मुंबईवालों ने प्रशंसनीय कार्य किया है । अब जो इन से (विदेशियों से) अंग्रेजी में कहा वही आपको कहती हूं। आज के दिन हम लोग तिल गुड़ देते हैं। क्योंकि सूर्य से जो कष्ट होते हैं वे हमें न हों। सबसे पहला कष्ट यह है कि सूर्य आने पर मनुष्य चिड़चिड़ा होता है। एक-दूसरे को उलटा -सीधा बोलता है। उसमें अहंकार बढ़ता है। सूर्य के निकट सम्पर्क में रहने वाले लोगों में बहुत अहंकार होता है। इसलिए ऐसे लोगों को एक बात याद रखनी चाहिए, उनके लिए ये मन्त्र है कि गुड़ जैसा बोलें गुड़ खाने से अन्दर गरमी आती है, और तुरन्त लगते हैं चिल्लाने। अरे, अभी तो (मीठा-मीठा बोलो)। तिल तिल-गुड़ खाया, तो अभी तो कम से कम मीठा बोलो। ये भी नहीं होता। तिल-गुड़ दिया और लगे चिल्लाने। काहे का ये तिल-गुड़? फेंको इसे उधर! तो आज के दिन आप तय कर लीजिए। ये बहुत बड़ा सुसंयोग है कि श्री माताजी आई हैं। उन्होंने हमें कितना भी कहा तो भी हमारे दिमाग में वह नहीं आएगा। अगर हमारे दिमाग में गरमी होगी तो कुछ भी नहीं आएगा। ये गरमी निकलनी चाहिए। और ये गरमी हम में कहाँ से आती है ? अहंकार के कारण। बहुत पहले जब मैंने सहजयोग शुरू किया तब सबका लड़ाई-झगड़ा। यहाँ तक कि एक दूसरे के सर नहीं फूटे, यही गरनीमत है। बाकी सभी के सर ठीक-ठाक हैं। परन्तु झगड़े बहुत, किसी का किस बात पर, किसी का किस बात पर। देखा आधे भाग गए, कुछ बच गए। मैंने सोचा, अब सहजयोग को कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि एक आया काम करने, दो दिन बाद भाग गया। दूसरा आया, तीन दिन बाद भाग गया, ये स्थिति थी। ऐसी स्थिति में अब हमने सहजयोग जमाया है। पर उसके लिए आपकी इच्छा चाहिए कि कुछ भी हो हम परमात्मा को पाने आए हैं। हमें परमात्मा का आशीर्वाद चाहिए। हमें परमात्मा का तत्व जानना है। हमें दुनिया की सारी गलत बातें जिनसे कि कष्ट और परेशानियाँ हो रही है, नष्ट करनी हैं। तो यहाँ झगड़े नहीं करने हैं। इस अहंकार से सारी दुनिया में इतनी परेशानियाँ हुई हैं। अब सहजयोग में इसे पूर्णतया तिलांजली देनी पड़ेगी। तिलांजली माने तिल की अंजली। मतलब अब तिल- गुड़ खाकर इसकी (अहंकार की) अंजली आप दीजिए । मतलब इसके बाद हम कोई क्रोध नहीं करेंगे, गुस्सा नहीं करेंगे। एक बार करके देखिए । देखना चाहिए । गुस्सा न करके कितनी बातों को मनुष्य समेट सकता है। कितनी बातों का सामना कर सकता है। बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें ज़्यादा चित्त न रखने से उनके हल मिले हैं। और जो कुछ समस्याएं हैं वह पूरी तरह से हल हुई हैं। तो किसी बात में आपने बहुत ज़्यादा चित्त रखा तो आप तामसिक स्वभाव के बन गए, ऐसा कहते हैं। तामसिक माने क्या? तो कोई औरत है, अब उसका पति बीमार है, ‘मेरा पति

बीमार है, मेरा पति बीमार है।’ बाबा है, मान लिया ! परन्तु तुम तो ठीक हो न? तुम्हारी तबियत तो अच्छी है! उसका कुछ नहीं। पति है ये भी तो बड़ी बात है। परन्तु नहीं, एक छोटी सी बात को लेकर के हल्ला मचाना, दूसरों को हैरान करना। ये जो हमारे यहाँ बात है, उसका कारण है हमारे यहाँ छोटी सी बात को ज़्यादा महत्व देना और बड़ी-बड़ी बातों की तरफ ध्यान नहीं देना। इन लोगों (विदेशियों) के लिए बड़ा क्या, छोटा क्या, सब बराबर है। कुछ नहीं मालूम। पर आप लोगों को समझना चाहिए। क्योंकि हमारा जो वारसा है वह इतना महान है। हम इस योगभूमि भारत में जन्मे हैं। इस योगभूमि में जन्म लेकर हमने क्या प्राप्त किया है? हजारों वर्षों की तपस्या के फलस्वरूप इस भारत में जन्म होता है। और उसमें भी हजारों वर्षों से महाराष्ट्र में होता है। लेकिन रास्ते पर पी कर पड़े हुए लोगों को देखकर मेरी समझ में नहीं आता ये महाराष्ट्र के हैं या और कहीं के? ये कीड़े यहाँ कहाँ से जन्मे हैं? यही नहीं समझ में आता? अबआप सहजयोगी हैं और आपकी पूर्व जन्मों की तपस्या अब फलित हुई है। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि बाकी की, इस जन्म की, तपस्या माताजी ने करनी है। इस जन्म की पहली तपस्या है आपस में मीठा बोलना, प्यार से रहना। ये पहली बात। इसलिए पहला दिन हमने पूजा का शुरू किया है। उस दिन आप सब को मीठे बोल बोलने चाहिए। और मिठास से रहना चाहिए, क्योंकि मीठा बोलना ये सबसे आसान है। गुस्सा करना बड़ा कठिन काम है, और मारना तो आता ही नहीं है। तो इतने कठिन काम किसलिए करते हैं? तो सीधी- सीधी बात, मीठा बोलो, बस। अब हमारे यहाँ बहत से लोगों का नाम (सरनेम) ‘गोडबोले’ होता है। तो मैंने सोचा इनके परिवार में लोग मीठा बोलते थे। पर वे मीठी बातें करके लोगों के गले काटते थे। मैंने मीठा बोलते होंगे। तो सचमुच वे लोग कहा ये कहाँ का मीठी बातें करने का तरीका ? तो बोले, ‘हाँ, हमारे यहाँ पहले लोग बड़ा मीठा बोलते थे। उनके बहुत मीठा बोलने का लोगों ने बहुत फायदा उठाया। इसलिए अब हम मीठा बोलते हैं और लोगों के गले काटते हैं।’ मैंने कहा , ‘ऐसा क्यों करते हैं? इससे आपको क्या लाभ हुआ है? वही लोग अच्छे थे जो मीठा बोलते थे और आराम से रहते थे। वे सन्तोष में रहते थे। किसी व्यक्ति के साथ आपकी लड़ाई हो गई और उसके आपने गले काटे तो (गले काटना माने ‘मुंह में राम, बगल में छुरी) तो आपने क्या पाया?’ हमने क्या प्राप्त किया? यह देखना है। तो आज का दिन विशेष त्यौहार का, सभी को अत्यन्त सुशोभित करने वाला है। इस समय मुझे तो बिल्कुल भी कटु नहीं बोलना है। बड़े सम्भालकर मैं बात करती हूँ। मैं इतना समझकर व्यवहार करती हूँ कि किसी को किसी बात से दु:ख न पहुँचे। अब कुछ लोग आतेहैं, वे मुझे झट से हाथ लगाते हैं उससे मुझे बड़ी तकलीफ होती है। वैसा नहीं करना चाहिए। परन्तु यह कैसे बताएं ? इसलिए सहती रहती हूँ। जाने दो, क्या करें ? अब कैसे बताऊं? उनको दुःख होगा। ऐसी बहुत सी बातें मैं सहती हूँ। मेरी कोई बात नहीं, मैं सह सकती हूँ। जो सहनशक्ति मुझ में है, वह दूसरों में नहीं है। दूसरों को दुःखी करने से अच्छा वही दु:ख में सह लू। यह बात जानने से उसका दुःख नहीं महसूस होता। प्रेम के बारे में यही बात है। अपने प्रेम की शक्ति ज़्यादा है और दूसरों में कम है। तो हम बड़े कि वे बड़े? इस तरह का एक विचार ले लिया तो आप सहजयोग अच्छी तरह पा सकते हैं। हमें माँ ने प्रेम की शक्ति ज़्यादा दी है, तो वे कुछ भी बोलें उससे हमारा क्या बिगड़ता है? क्या जरूरत है उनसे लड़ाई-झगड़े करने की ? धीरे-धीरे आपका स्वभाव शान्त हो जाएगा। तब आपका चेहरा तेजस्वी दिखाई देगा। जब लोग आपके

निकट आएंगे तो कहेंगे, ‘अरे, ये कौन है?’ परन्तु ‘शान्त स्वभाव’ का ये मतलब नहीं कि, कोई आपको जूते मारे तो भी आप चुप रहें, ऐसा बिलकुल नहीं। केवल सहजयोगियों के लिए ख्रिस्त ने कहा है । किसी ने आपको एक गाल पे मारा तो आप दूसरा गाल आगे करिए, केवल सहजयोगियों के लिए, ख्रिस्त ने कहा है। औरों ने अगर एक मारा तो आप उसे चार मारिए, ये मैं कहूँगी। क्योंकि उनके जो भूत होंगे वे निकल जाएंगे | परन्तु सहजयोगियों की आपस में शुद्ध बातचीत होनी चाहिए। प्यार से आपस में बातें करनी है। ये बड़ी आवश्यक बात है। औरों के साथ आप कैसे भी रहें, कोई हर्ज नहीं है। परन्तु जो अपने हैं, ये सहजयोगी सारे मेरे शरीर में हैं। एक-एक मनुष्य मेरे शरीर के अन्दर है। आपने अगर एक-दूसरे को लातें मारी, गालियाँ दीं तो मुझे ही गाली दी, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि अब देखिए किसी पेड़ की डालियाँ आपस में लड़ने लगेंगी तो उस पेड़ का क्या होगा? और उन पत्तों का भी क्या होगा? अब ये एक हाथ अगर दूसरे हाथ से लड़ने लगे, तो क्या होगा ? अगर ये चीज़ समझ में आ गई कि हम सब एक हैं, समग्र हैं, हमारे में इतनी एकता है कि हम सब एक शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं, तब आपने किस तरह का व्यवहार करना चाहिए? आपमें कितनी समझदारी होनी चाहिए? कितना प्यार होना चाहिए? आपस में कितना सुख बॉटने की इच्छा होनी चाहिए? इनके लिए क्या करू? इन्हें क्या अच्छा लगता है? दिवाली के समय हम कुछ उपहार देते हैं या संक्रान्ति के समय क्या ‘वाण’ (उपहारस्वरूप वितरण की जाने वाली वस्तु) दें उन्हें? तो जो सस्ते से सस्ता होगा ऐसा कुछ गन्दा सा बाजार से लाकर दे देना इसमें हम माहिर हैं! जो सबसे सस्ती कोई चीज़ है वह लाकर देते हैं। और ये लीजिए ‘वाण’! बहत अच्छे! फिर चाहे वह (जिसे दिया) उसको उठाकर फेंक दे। तो हृदय का बड़्पन हुए बगैर ये बातें नहीं होने वाली। और उस हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है। वह हृदय के बड़प्पन की आपके लिए कोई कमी नहीं है । वह हृदय आप में है ही क्योंकि उसमें आत्मा का दीप जला है। उसने आपको प्रकाश दिया है। ऐसा स्वच्छ, सुन्दर हृदय, उसमें जो कुछ बह रहा है, उसी की तरफ देखते रहना। मुझे यहाँ पर आप सबको देखकर लगा, अरे इस हृदय के प्रकाश में क्या- क्या देख रही हूँ? कितना मज़ा आ रहा है? ऐसा ही आपको होना चाहिए, कि हम सब माताजी के शरीर के अंग – प्रत्यंग हैं, हमने कोई गलती की तो माताजी को तकलीफ होगी। उन्हें तकलीफ हो इस तरह का हमें व्यवहार नहीं करना चाहिए। हम में एक तरह की सुज्ञता होनी चाहिए, एक तरह की पहचान होनी चाहिए । रोजमर्रा के व्यवहार में शालीनता होनी चाहिए। कहीं किसी व्यक्ति के पीछे पड़ना (तंग करना), कभी कुछ बहककर बड़बड़ाते रहना। बहुतों को गाना गाने की ही आदत होती है। किसी को कविता ही पढ़ते रहने की आदत होती है। वे कविता ही बोलते रहते हैं, तो कोई गाने ही गाते रहते हैं। ऐसा नहीं। जो ठीक है, व्यवहारी है, सौन्दर्यमय है, वही करना चाहिए। रोज के व्यवहार में भी सुन्दरता होनी चाहिए। अब आप माँ के लिए सब जेवर बनाते हो (इस दिन तिल के दानों के जेवर बनाने का रिवाज है।) कितने सुन्दर होते हैं वे! परन्तु आप ही मेरे जेवर हो, आप ही से मैंने अपने आपको सजाया है। उन जेवरें में अगर स्वच्छता न हो या वे अशुद्ध हों, माने उनका जो मुख्य गुण है, वही अगर उनमें नहीं हो। मान लीजिए सोने की जगह सोना न होकर पीतल है तो उसका क्या अर्थ है? वैसे ही आपका है। आपमें की जो महत्वपूर्ण धातु है वही झूठी होगी तो उसे सजाकर मैं कहाँ जाऊंगी? तो आप ही मेरे जेवर हैं, आप ही मेरे भूषण हैं। मुझे आप ही ने विभूषित किया है । मुझे किसी दूसरे आभूषण की आवश्यकता नहीं

है। यही मैं अब आपसे विनती करती हूँ कि बात करते समय, बच्चों से हो या और किसी के साथ हो, अत्यन्त समझदारी से, अत्यन्त नम्रता से और आराम से सब कार्य होना चाहिए। किसी से भी जबरदस्ती, जुल्म या जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है। इसी तरह एक दिन ऐसा आएगा जब सारी दुनिया आपकी तरफ आश्चर्य से देखेगी, ‘अरे, ये कहाँ के लोग हैं? ये कौन आए?’ तब मालूम होगा कि ये स्वर्गलोक के दूत हैं, सारी दुनिया को सम्भालने के लिए, सारी दुनिया को यशस्वी बनाने के लिए, और सबको परमात्मा के साम्राज्य के दरवाजे तक ले जाने के लिए, ये परमात्मा के भेजे हुए दूत है। ऐसे सभी द्तों को मेरा नमस्कार!