आप विराट के सहस्त्रार में प्रवेश कर रहे हैं ….
(सहस्त्रार पूजा, लक्समबर्ग , वियेना, ( ऑस्ट्रिया ), 5 मई 1985)
आज हम ऑस्ट्रिया की महारानी द्वारा बनाये गये इस स्थान पर सहस्त्रार पूजा के लिये एकत्र हुये हैं। जैसे ही आप सहस्त्रार के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तभी आपको सहस्त्रार पूजा करने का अधिकार है। इससे पहले किसी ने भी सहस्त्रार के विषय में बात नहीं की ….. और न ही उन्होंने कभी सहस्त्रार की पूजा की। ये आपका ही विशेषाधिकार है कि आप सहस्त्रार के क्षेत्र में पंहुच चुके हैं और इसकी पूजा भी कर रहे हैं। ये आपका अधिकार है ….. इसी कार्य के लिये आपका चयन हुआ है। ये आपके लिये विशेषाधिकार प्राप्त स्थान है कि आप विराट के सहस्त्रार में प्रवेश कर रहे हैं …. उनके मस्तिष्क में सहस्त्रार की कोशिका के रूप में निवास करने के लिये। आइये देखें कि सहस्त्रार की कोशिकाओं की विशेषतायें क्या हैं। स्वाधिष्ठान के कार्य करने के कारण ये कोशिकायें विशेष रूप से सृजित हैं और ये सभी चक्रों से होकर गुजरती हैं। जब वह सहस्त्रार पर पंहुचती हैं तो वे बिना शरीर के अन्य तत्वों से मिले या आसक्त हुये मस्तिष्क की गतिविधियों की देख रेख कर सकती हैं। इसी प्रकार से सहजयोगियों को भी अन्य कोशिकाओं ….. इस ब्रह्मांड के अन्य मनुष्यों से नहीं मिलना चाहिये।
सबसे पहली चीज जो सहजयोगियों को सहस्त्रार के स्तर पर होती है वह है उसका सभी चीजों से परे हो जाना। वह कई चीजों से परे हो जाता है …. कालातीत … वह समय से परे हो जाता है। समय स्वयं उसका दास हो जाता है। यदि आप कहीं जांय तो आपको मालूम होता है कि प्रत्येक चीज उसी समय घटित हो रही है जब आप उसे करने में सक्षम होते हैं। माना कि आपको ट्रेन पकड़नी है और आपको स्टेशन पंहुचने में देर हो जाती है तो आप देखेंगे कि ट्रेन आपके लिये लेट हो चुकी है। सभी चीजें इस प्रकार से कार्यान्वित होती हैं कि आपको लगता है कि वे आपकी सुविधा के अनुसार कार्य कर रही हैं। अतः आप समय के परे हो जाते हैं …. कालातीत।
इसके बाद आप धर्म के परे हो जाते हैं….. धर्मातीत अर्थात धर्म आपके शरीर का अंग प्रत्यंग बन जाता है। आपको कोई बताता भी नहीं और आप चाहें तो इसे अपना लीजिये चाहे मत अपनाइये। आप वही करते हैं जो आप करना चाहते हैं ।
जब आप इन धर्मों के परे चले जाते हैं …. मानव धर्म के परे …. मानव धर्म में आपका चित्त लालच व वासना की ओर आकर्षित होता है और फिर वह अपने चित्त को वापस खींच नहीं सकता है। परंतु अब चित्त अपना धर्म खो देता है। चित्त का धर्म ऐसा होता है कि उसको नियंत्रित करने के लिये हमें पैगंबरों द्वारा बताये गये धर्म का प्रयोग करना पड़ता है। क्योंकि हम अत्यंत निचले स्तर से आये हैं अतः ये सभी धर्म हमारे अस्तित्व में मौजूद होते हैं और दिखाई पड़ने लगते हैं और जब वे हम पर आक्रमण करते हैं तो हमारे पास उनको नियंत्रित करने के उपाय भी होने चाहिये। हम अपने धर्मों को बनाते हैं … अपने लिये नियम बनाते हैं और उन पर नियंत्रण करते हैं …. उन धर्मों को जो हमारे पास निम्न कंडीशनिंग के कारण आये हैं। यह मानव जाति की महानता है कि उन्होंने अपने लिये धर्म बना लिये हैं …. जो निचले धर्मों की सबसे ऊंची पायदान पर है। जिस प्रकार से कार्बन की चार वैलेंसियां या संयोजकतायें हैं और यह उन्हीं चार संयोजकताओं के अनुरूप कर्य करता है … यह उऩ्हें छः नहीं बना सकता है।
लेकिन मानव उन संयोजकताओं को स्थापित करवा सकता है जो मानव धर्म …. मनु धर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन सहस्त्रार तक के उत्थान से हमारा चित्त उस गुण को भी खो देता है क्योंकि आपकी जरूरतें ही नहीं रहती हैं लेकिन धर्म की वर्जनाओं को अपने ऊपर लादने की आपकी जरूरत बनी रहती है। आपको अपने ऊपर अंकुश लगाने की जरूरत नहीं रहती परंतु आप स्वयमेव ही अनुशासित हो जाते हैं। ये उस व्यक्ति की सबसे बड़ा लक्षण है जो निर्मल धर्म को मानता है … जो एकदम पावन है … पवित्र है। आपका चित्त कहीं भी आसक्त नहीं होता और न ही इस पर कहीं से कोई आक्रमण होता है … ये अत्यंत निर्मल होता है … एकदम कमल के फूल की तरह से जिस पर पानी ठहरता ही नहीं है।
अतः आप कालातीत बन जाते हैं … धर्मातीत बन जाते हैं …गुणातीत बन जाते हैं। इसका अर्थ है कि जिन तीन गुणों में आप जन्म लेते हैं … दांये बांये और मध्य … इन तीनों से आप परे चले जाते हैं। बांया गुण वह है जिससे आप अपने चित्त से भावनात्मक रूप से आसक्त होते हैं। दूसरा शारीरिक और मानसिक आसक्ति है और तीसरा धर्म से आसक्ति है। धार्मिकता के लिये आसक्ति होना और दूसरों को भी धार्मिक बनाना…. स्वयं को अनुशासित करना तथा दूसरों को भी अनुशासित बनाना … अर्थात सात्विक बनना जिसमें एक व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहकार और मत्सर जैसे अपने षडरिपुओं पर नियंत्रण रखता है। अतः हमारे चित्त से इन सभी वस्तुओं के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है और आप अत्यंत विवेकवान व्यक्ति बन जाते हैं। स्वयं आपका चित्त भी धार्मिक बन जाता है।
आपके गुण समाप्त हो जाते हैं और आप सद्गुणी बन जाते हैं … अर्थात धार्मिक लेकिन अपने अनुशासन के कारण नहीं बल्कि आप स्वतः सद्गुणी बन जाते हैं। कई बार इस प्रकार के लोग आपको परेशान भी कर देते हैं। जैसे एक बार ईसा अपने हाथ में हंटर लेकर उन लोगों को मारने लगे जो प्रभु की उपस्थिति में मंदिर के सामने कुछ चीजें बेच रहे थे। वैसे तो मान्यता है कि हमें क्रोध नहीं करना चाहिये परंतु ये क्रोध एक गुणातीत का क्रोध है जो क्षणिक होता है जिसका विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिये। देवी का राक्षसों पर क्रोध … राक्षसों को मारना … कृष्ण का अर्जुन को यह कहना कि तुमको इन सबको मारना है क्योंकि ये सब तो पहले ही मारे जा चुके हैं…. इसकी व्याख्या हो जाती है क्योंकि आप इऩसे परे हो जाते हैं। आप पर अतीत के परे की शर्ते लागू हो जाती हैं …… केवल वही लोग जो परे जाकर इसको नियंत्रित कर सकते हैं … जो इसके अंदर ही हैं वे इसे नियिंत्रत नहीं कर पाते हैं। यदि आपको एक समुद्री जहाज को खींचना है तो आपको किनारे पर खड़े होना होगा …. जो इसके परे चला जायेगा वही इस कार्य को कर पायेगा। अतः आप परे यानी अतीत हो जाते हैं। लेकिन जब इस तरह के व्यक्ति के ज्ञान की बात होती है तो आप सोच नहीं सकते हैं क्योकि आप सोच से भी परे चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की आप व्याख्या भी नहीं कर सकते हैं क्योकि ऐसा व्यक्ति व्याख्या से भी परे होता है। आप कह नहीं सकते हैं कि सुकरात जहर पीने के लिये क्यों राजी हुआ … क्यों ईसा सूली पर चढ़ने के लिये राजी हुये। ये सब मानव की सोच से परे है परंतु आपको मनुष्यों से प्रमाणपत्र नहीं लेना है। आपको परमात्मा द्वारा प्रमाणपत्र दिया जाता है न कि इन मनुष्यों द्वारा जो अत्यंत निचली पायदान पर हैं। ये ऐसा ही होगा जैसे कि कोई कुत्ता मनुष्यों के बारे में कुछ लिख रहा हो।
आप ऐसी अवस्था में पंहुच जाते हैं कि इसका वर्णन करने के लिये अ शब्द का प्रयोग करना पड़ेगा जिसका अर्थ है बिना… अतः ऐसा व्यक्ति बिना किसी विचार के होता है …बिना लालच … बिना वासना के होता है। ऐसे व्यक्ति को अशेष कहा जाता है जिसमें कुछ भी बाकी नहीं है। माना आप शून्य या निर्वात या वैक्यूम का सृजन करना चाहते हैं … और करते ही जाते हैं और एक बिंदु पर पंहुच जाते हैं और उस बिंदु पर पूर्ण शून्य का सृजन नहीं किया जा सकता है क्योंकि हर बार इसका कोई न कोई भाग बाकी रह जाता है। आप पूर्ण वैक्यूम का सृजन नहीं कर सकते हैं। लेकिन इस प्रकार का व्यक्ति पूर्णरूप से शून्य होता है …. सभी प्रकार की नकारात्मक, उग्र गुणों से ….. पूर्णतया शून्य।
इस प्रकार का व्यक्ति अनंत होता है…. उसे कोई मार नहीं सकता है….. कोई उसे हानि नहीं पंहुचा सकता है …. कोई उसे व्यथित नहीं कर सकता है। ऐसे व्यक्ति को किसी के क्रोध और किसी के सम्मान से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसे किसी के मान अपमान से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। किसी प्रकार की प्रशंसा उसे डिगा नहीं सकती है क्योंकि वह तो अहंकार के आशीषों का आनंद उठाने सक्षम ही नहीं है। अतः वह जिस तीसरी अवस्था में जा पंहुचता है वहां उसे निहि शब्द के आशीष प्राप्त होने लगते हैं … निहि मेरे नाम का भी पहला अक्षर है लेकिन संस्कृत में जब इसे मला के साथ जोड़ दिया जाता है तो यह निर्मला बन जाता है परंतु वास्तव में शब्द निहि है।
नि शब्द हल्का सा कंपन करता है नि..हि इसका अर्थ है निरा या जब इसके साथ एक इ को और जोड़ा जाता है … पहली निहि का अर्थ होता है बिना और निरा का अर्थ है वास्तविक। जैसे कि आप कहें निरानंद, निरात्मा, निरा आत्मा, निरा नंद … केवल … एक ही … जिसमें और कुछ नहीं बस आनंद ही आनंद है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि निरा और निहि दो प्रकार से प्रयोग किये जा सकते हैं … एक तो बिनाके लिये और दूसरे केवल …. संपूर्ण के लिये। तो यहां पर आनंद निरानंद हो जाता है … पूर्ण आनंद… और कुछ नहीं परंतु केवल आनंद। यही पूर्ण स्वतंत्रता है।
श्रीमाताजी निर्मला देवी