Public Program, Sahajyog Ke Anubhav

कोलकाता (भारत)

1986-03-31 Public Program, Calcutta, India, DP (Hindi), 145'
Download video - mkv format (standard quality): Download video - mpg format (full quality): Watch on Youtube: Watch and download video - mp4 format on Vimeo: View on Youku: Listen on Soundcloud: Transcribe/Translate oTranscribeUpload subtitles

Feedback
Share
Upload transcript or translation for this talk

Sahajyog Ke Anubhav 31st March 1986 Date : Place Kolkata Public Program Type Speech Language Hindi

सत्य को खोजने वाले सभी साधकों को हमारा प्रणिपात! सत्य क्या है, ये कहना बहुत आसान है। सत्य है, केवल सत्य है कि आप आत्मा हैं। ये मन, बुद्धि, शरीर | अहंकारादि जो उपाधियाँ हैं उससे परे आप आत्मा हैं। किंतु अभी तक उस आत्मा का प्रकाश आपके चित्त पर | आया नहीं या कहें कि आपके चित्त में उस प्रकाश की आभा दृष्टिगोचर नहीं हुई। पर जब हम सत्य की ओर नज़र करते हैं तो सोचते हैं कि सत्य एक निष्ठर चीज़ है। एक बड़ी कठिन चीज़ है। जैसे कि एक जमाने में कहा जाता था कि ‘सत्यं वदेत, प्रियं वदेत।’ तो लोग कहते थे कि जब सत्य बोलेंगे तो वो प्रिय नहीं होगा। और जो प्रिय होगा वो शायद सत्य भी ना हो। तो इनका मेल कैसे बैठाना चाहिए? श्रीकृष्ण ने इसका उत्तर बड़ा सुंदर दिया है। ‘सत्यं वदेत, हितं वदेत, प्रियं वदेत’ । जो हितकारी होगा वो बोलना चाहिए। हितकारी आपकी आत्मा के लिए, वो आज शायद दुःखदायी हो, लेकिन कल जा कर के वो प्रियकर हो जाएगा। ये सब होते हुए भी हम लोग एक बात पे कभी-कभी चूक जाते हैं कि परमात्मा प्रेम है और सत्य भी प्रेम ही है। जैसे कि एक माँ अपने बच्चे को प्यार करती है तो उसके बारे में हर चीज़ को वो जानती है। उस प्यार ही से उद्घाटन होता है, उस सत्य को जो कि उसका बच्चा है। और प्रेम की भी व्याख्यायें जो हमारे अन्दर हैं वो भी सीमित, मानव की जो चेतना है उससे उपस्थित हुई है। वास्तविक में प्रेम किसी चीज़ से चिपक ही नहीं सकता है। प्रेम तो उसी तरह की चीज़़ है जैसे कि एक वृक्ष में उसका जो प्राण रस है वो चढ़ता है और जड़ों को, उसके पत्तियों को, उसके फूलों को, फलों को पूर्णतया आशीर्वादित करता हुआ फिर लौट जाता है। लेकिन अगर सोचे कि वो कहीं जा कर के एक फूल में अटक जाए और कहें कि ये फूल मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है। तो उस पेड़ की तो मृत्यू होगी ही और उस फूल की भी हो जाएगी। ये जो चिपकने वाला प्रेम है ये मृत्यू को प्राप्त होता है। इसलिए आप जब देखते हैं कि जब दो इन्सान में प्यार होता है, थोड़े दिन बाद वो प्यार बैर भी हो सकता है। इसी प्रकार दो देशों में प्यार हो, कल वो भी बैर हो सकता है। दो जाति में प्यार हो, वो बैर हो सकता है। ये प्रेम बैर कैसे हो जाता है? ये बड़ी सोचने की बात है। इसलिए कि प्रेम का सत्य स्वरूप हमने जाना नहीं। परमात्मा का प्रेम बहुता है, देता है, करता है और उसके बाद कहीं चिपकता नहीं। किसी में अटक नहीं जाता। लेकिन हम लोग इन दोनो का मेल बिठा नहीं पाते कि सत्य और प्रेम एक ही चीज़़ है । जैसे चाँद और उसकी चाँदनी और सूर्य और उसकी किरण। जैसे अर्थ और शब्द, दोनो एकसाथ मेल खाते हैं। उसी प्रकार सत्य और प्रेम दोनो एक साथ हैं। इसलिए बहुत से लोग सत्य के खोज में न जाने क्या-क्या विपदायें उठाते हैं। क्या-क्या तकलीफें उठाते हैं। वो सोचते हैं कि जब शरीर को दु:ख दिया जाएगा तो हमें सत्य मिल जाएगा। शरीर को दुःख देने का आपको कोई अधिकार नहीं क्योंकि शरीर परमात्मा ने बनाया है। और वो एक मन्दिर है। उसमें एक दीप जलाना है। ন

जैसे आजकल विदेशों में एक पागलपन सवार है कि हर इन्सान जो है वो बिल्कुल मच्छरों जैसा पतला- दुबला हो जाए। उसके लिए सब आदमी इस तरह से मेहनत करते हैं कि मच्छरों जैसे होने के लिए उसकी वजह से अनेक बीमारियाँ वहाँ लोगों में आ गयी । और इन मच्छरों को कोई सुख मिला है ऐसा दिखाई नहीं देता। ना उस देश में कोई आनन्द है। तो दृष्टि कहाँ गयी? एक बहुत ही स्थूल चीज़ की ओर, जिसका कोई भी अर्थ नहीं लगता है। जिसकी दृष्टि स्थूल होगी वो स्थूल ही चीज़ों को देखता है । लेकिन सूक्ष्मता से आप विचार करें कि इस तरह के पागलपन से क्या परमात्मा किसी को भी मिला? क्या परमात्मा को इससे सुख होगा कि आप अपने को दुःख दे। ईसाई लोगों ने तो हद कर दी, कि ईसा-मसीह की हड्डियाँ निकाल के और टाँग देते हैं और कहते हैं ये ईसा-मसीह है। देख कर मेरा जी, ऐसा लगता है कि इनसे पूछा जाए कि जिस इन्सान ने एक इतने बड़े क्रॉस को अपने कंधे पर उठाया था क्या वो उन हड्डियों के बूते पर! लेकिन इसमें एक समाधान उन लोगों के पास है कि हम किसी जालिम तरीके से कोई दुष्ट, क्रूर प्रकृती से इसा-मसीह की ओर देख रहे हैं। यही चीज़ आपको आगे हम सुनाते हैं कि जब आप जाईये पोप के सिस्टिन चॅपल में, तो ये जो प्रेम की शक्ति है, इस प्रेम की शक्ति को समझने के लिए बड़ा भारी हृदय चाहिए। जिस इन्सान के पास हृदय नहीं होगा वो इसे समझ नहीं पायेगा। जैसे कि सिस्टिन चॅपल, जो कि आप रोम में जायें व्हॅटिकन में देखें तो वहाँ माइकेल एंजेलो नाम के एक बहुत बड़े कलाकार ने सारा कुण्डलिनी का चित्र बनाकर रखा हुआ है। और आज्ञा चक्र पे ईसा-मसीह को खड़ा किया है, वो भी गणेशजी जैसे लंबोदर खड़े हुए हैं और इधर से उधर लोगों को फेंक रहे हैं। उसका नाम | उन्होंने ‘लास्ट जजमेंट’ कहा हुआ है। लेकिन पूरी कुण्डलिनी खड़ी है। अगर आपको कुण्डलिनी का ज्ञान हो तो आप अवाक् रह जायें कि इस आदमी ने कौनसी दृष्टि से ये सब चित्र देखा और इस तरह से ये सब चित्र बनाया। लेकिन उसी के नीचे वो हड्डी वाला ईसा-मसीह रखा हुआ है। देख कर ग्लानी होती है। कम से कम हमारे भारत वर्ष में किसी भी अवतारों को हड्डी मारका नहीं दिखाते हैं। और न ही ये माना जाता है कि ‘हड्डी मारका’ परमात्मा हो सकता है। वजह ये है कि हमारे अन्दर प्रेम की दृष्टि नहीं, या तो हमारे अन्दर वासना है और दूष्टता है। जिसके अन्दर प्रेम की दृष्टि होती है वही गहन उतर सकता है। जैसे मैंने कहा कि हृदय का बड़ा होना जरूरी है। लेकिन बहुत इसका अर्थ ऐसा नहीं कि आप अपने हृदय को बड़ा करने के लिए अवास्तव तरीके से दान-पुण्य करें। चोरों को भी दान करें और जो बहुत से गुंड बनके घूमते हैं उनको आप दान करते फिरें । धन की व्याख्या कृष्ण ने जितनी सुंदरता से की है, मेरे ख्याल से, कोई भी नहीं कर पाया होगा कारण वो एक बड़े भारी होशियार, डिप्लोमैट थे। उन्होंने कर्ण के जीवन में बताया कि कर्ण बहुत दानशूर थे, बहुत दानी थे। अत्यंत धार्मिक। हर समय पूजा – पाठ आदि में व्यस्त रहते थे। और वो पाण्डवों के सबसे बड़े भाई , क्षत्रिय थे। लेकिन जिस वक्त उनका पॉव युद्ध में चक्र में फँस गया उस वक्त अर्जुन ने अपना गांडीव उनके उपर उठाया। उस वक्त उन्होंने चुनौती दी। कर्ण ने कहा कि, ‘अर्जुन तु भी वीर है और मैं भी वीर हूँ और हम क्षत्रिय हैं। और एक निहत्थे वीर पर दूसरे वीर का हथियार उठाना धर्म में मना है।’ कृष्ण ने तब अपनी उंगली आगे करके कहा कि, ‘इसे तु मार।’ अहिंसा की बात नहीं करी। ‘इसे तु मार। जिस वक्त द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी, तब इनकी वीरता कहाँ गयी थी? तब ये कहाँ थे?’ इतनी धर्म की सुन्दर व्याख्या! आपकी वीरता, आपकी दानशूरता, आपका धर्म

सबकुछ एक तरफ, पर एक स्त्री की लाज बहुत बड़ी चीज़ है। उसी कृष्ण के भारत वर्ष में अगर हम देखें तो धर्म के नाम पर ही इतने सारे अत्याचार हम लोग कर रहे हैं वो क्या हम अपने को भारतीय कहलाने के लायक हैं। भारतीय संस्कृति की हम डिंगे पीटते रहते हैं। लेकिन हम क्या वाकई में इस योग्य हैं, जब बाहर जा कर के लोग बताते हैं कि बहुओं को जला दिया। घर में आयी हुई लक्ष्मी को मार डाला। तो दूसरे लोग पूछते हैं कि आपके देश में बहुत बड़ी योग भूमि है, बहुत कुछ शास्त्र हुआ, बहुत कुछ लोग धार्मिकता की बात करते हैं, बड़े ही वहाँ पर बड़े-बड़े व्याख्यान लोग देते हैं, तो ऐसे देश में ऐसी दूर्धर बातें, ऐसी भीषण हत्यायें कैसे हो सकती हैं? क्या जवाब है हमारे पास इसका ? एक ही जवाब मैं देती हूँ कि श्रीकृष्ण ने कहा था कि, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ । इसमें भी पकड़ है । ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ पहले योग होना चाहिए फिर मैं इनका क्षेम देखूंगा। उन्होंने ‘क्षेमयोग’ क्यों नहीं कहा ? पहले योग होगा तब मैं इनका क्षेम करूंगा। ये धर्म की व्याख्या है कि प्रथम आप योग को प्राप्त हों। अगर आप भारतीय संस्कृति की इतनी बढ़ाई करते हैं तो सबसे बड़ी चीज़ भारतीय संस्कृति का सबसे महान तत्व एक ही है कि आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होना। अपने चित्त का निरोध बताया गया है। अष्टांग योग बताये गये हैं। अनेक विधियाँ बताई गयी हैं। किसलिए? कि आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो। लेकिन देखिये कितने लोग इधर नज़र करते हैं। ईसा-मसीह ने यही कहा कि आपका फिर से जन्म होना चाहिए, पर कितने ईसाई इस बात को सोचते हैं? बाप्तिस्मा, कोई भी आ कर के, सिर पे हाथ रख के कह देता है कि ‘तू ईसाई हो गया।’ ऐसे ही हमारे यहाँ, किसी भी आदमी के गले में यज्ञोपवित किसी भी ब्राह्मण ने ला कर डाल दिया, हो गये आप ब्राह्मण। कौन है ब्राह्मण? जिसने ब्रह्म को जाना वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है। द्वि जायते द्विज । जो दूसरी मर्तबा पैदा हुआ है। माने जिसका दूसरा जन्म हुआ है, उसको द्विज कहते हैं। पक्षी को भी कहते हैं और मनुष्य को भी कहते हैं। पक्षी पहले अंडरूप से आता है और उसके बाद उसका जब दूसरा जन्म होता तो पक्षी हो जाता है । जब तक मनुष्य का दूसरा जन्म नहीं होता माने उसका आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है तब तक वो ब्रह्म तत्व को नहीं जान सकता। और जब तक उसने ब्रह्म तत्व को नहीं जाना उसको अपने को ब्राह्मण कहने का कोई भी अधिकार नहीं । लोग कहते हैं। मैंने तो कभी गीता पढ़ी भी नहीं। गीता में लोग इसके शास्त्रों में अनेक आधार हैं। गीता पर बहुत कहते हैं कि जो जन्म से जिस जाति में पैदा हुआ वही उसकी जाति हो ही नहीं सकती। कारण जिसने गीता लिखी वो व्यास, किसके बेटे थे? एक धिमरनी के, वो भी जिनका पता नहीं था बाप का। जिन्होंने वाल्मिकी रामायण लिखी, वो कौन थे? एक फिर वही धिमर, मछली पकड़ने वाले। वो भी डाकू। उनसे रामायण लिखवायी परमात्मा ने । जिन्होंने शबरी के बेर खाये झूठे, जिन्होंने विदूर के घर जा कर साग खाया। इन सब अवतारों को समझने के लिए पहले ये समझ लेना चाहिए कि ये जो बाह्य के हम लोगों ने तरीके बनाये हैं कि तुम इस जाति के, तुम इस पंथ के, ये सब मनुष्य ने बनाये हुये हैं। बेकार के कारनामे हैं। यही हमारे जेल हैं। जिनमें हम रहते हैं और बहुत संतुष्ट हैं कि हम इस धर्म, इस संप्रदाय के हैं। सारे संप्रदाय एक बुद्धि का ही खेल है । जिसे कि ‘मेंटल प्रोजेक्शन’ कहिये। जो कि सब तरफ नहीं फैलता है सिर्फ एक दिशा में जाता है और फिर लौट के चला आ जाता है। जितनी भी इस तरह की धारणाये हैं ये अधर्म की हैं, धर्म की हो ही नहीं सकती! जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से हटाता है या किसी भी बात से ये कहता है कि हम उनसे ऊँचे और वो हमसे नीचे हैं। वो धर्म नहीं हो सकता।

आज अपने देश में एक क्रान्ति की जरूरत है। बहुत बड़ी क्रान्ति की जरूरत है जहाँ कि हम आत्मिक ज्ञान को प्राप्त करें । इस शस्य श्यामला, भारत भूमि पर, जहाँ हमारा जन्म हुआ है। ये वास्तविक में ही योगभूमि है इसमें कोई शंका की बात ही नहीं है! लेकिन जब हमने अपने आत्मा को ही नहीं पाया, तो सिर्फ ये योगभूमि , योगभूमि कहने से आप इस योगभूमि के पूत्र नहीं हो सकते! योग को आपने जब प्राप्त नहीं किया तो आप इस योगभूमि को क्या , ये तो ऐसे ही आप रास्ते पे घूमते फिरते रहते हैं, इसपे तो कुत्ते-बिल्ली सभी घूमते फिरते हैं । लेकिन अगर आप इसके वास्तविक में ही एक गौरवशाली पुत्र हैं, तो आपमें योग स्थापित होना चाहिए। बातें करना, और धर्म के नाम पे इसको त्यागना, उसको त्यागना या किसी से कुछ लूट मार करना ये किसी भी तरह से धर्म नहीं है। और एक बड़ी ग्लानि की बात है कि बाह्य के देशों में हम लोगों के बारे में जो चित्रण दिया जाता है, वो अत्यंत कलुषित है। बाहर के लोगों के बारे में मुझे कोई भी आस्था नहीं, ना ही मैं ऐसा सोचती हूँ कि ये लोग किसी काम के हैं। परमात्मा के साम्राज्य में जाने के लिए काफी लोग बेकार हैं, इसमें कोई शक नहीं है । दो-चार कहीं- कहीं मिल जाते हैं तो लगता है, ‘चलो भाई, मिल गये।’ लेकिन जब वो मिलते हैं, तो वो आप लोगों से कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं, उसका उदाहरण आपने डॉ.वॉरन को देखा। और ऐसे अभी हजारों हैं । हजारों में हैं। वजह ये है कि इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी। बुद्धि की टकरे लेते-लेते इनमें शुद्ध बुद्धि आ गयी है। और ये अब समझते हैं कि इस शुद्ध बुद्धि से ये देखा जा रहा है कि सत्य क्या है और सत्य को पकड़ना है और असत्य जो है उसे छोड़ना ही होगा। ये कहिए कि इनकी विल-पावर; आत्मशक्ति इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार जब इन्हें सत्य मिल जाता है तो, तो उसे इस तरह से पकड़ लेते हैं। आप लोग गणेशजी के बारे में मैं कहती हैँ कुछ भी नहीं जानते हैं, जो ये लोग जानते हैं। हांलाकि मैंने उन्हें बताया है ये दूसरी बात है। पर तो भी वो जानने के लिए भी तो लोग चाहिए। यहाँ तो जब आईये हिन्दुस्तान में, तो ‘मेरे बाप को बीमारी है, मेरे माँ को बीमारी है, तो मेरे फलाने को बीमारी है। माँ इनको ठीक कर दीजिए या तो कुछ पैसा दे दीजिए या तो कुछ नौकरी दे दीजिए। इसीसे कोई प्रथा से उपर उठा तो वो धर्ममार्तंड बन के मुझसे वाद-विवाद करने के लिए खड़े हो जाते हैं। ऐसे धर्ममार्तण्डों से कहने की बात ये है कि जिन्होंने आदि शंकराचार्य को परास्त करने पर उन्होंने फिर सिर्फ माँ की ही स्तुति लिखी। उसे कुछ अकल नहीं? आखिर उन्होंने पाया ही क्या है? जिसके बूते पर वो इतनी बड़ी-बड़ी बातें और लेक्चर देते रहते हैं बगैर पाये हये। ठूठ जैसा शरीर और बड़ी-बड़ी बातें। इसमें अर्थ क्या है? ‘कुछ तुमने पाया नहीं इस एक बात को मान लेने से ही बहुत कुछ काम हो सकता है। क्योंकि जब आदमी असत्य पे खड़ा होता है तो उसमें बड़ा अहंकार होता है। आपने देखा है महिषासुर को? आपने देखा है रावण को? उनकी बात-चीत सुनी ? उस अहंकार में मनुष्य यही सोचता है, ‘ये क्या जाने? हम तो सब भगवान के बारे में जानते हैं।’ और कुछ-कुछ लोगों का तो ये भी विश्वास है कि, ‘अरे, भगवान तो हमने बनाये ह्ये हैं। इनको तो बेवकूफ बनाने के लिए भगवान एक चीज़ है।’ अब उसमें से तो कोई अति-अकलमंद निकल आयें हैं, वो फर्माते हैं कि, ‘हाँ भगवान – वगवान तो हम मानते नहीं, बहुत हम सत्यवचनी हैं। भगवान नाम की कोई चीज़ ही नहीं ।’ क्या कहें? एक से एक बढ़ के विद्वान इस देश में पले हये हैं। तो जब ऐसे बाहर से लोग आ के कुछ समझाएंगे हो सकता है कुछ खोपड़ी में बात जाये । लेकिन उससे पहले ही सर्वनाश की तैय्यारी हो रही है। ये समझ लीजिए कि सर्वनाश पूरी तरह से इस देश को खाने के लिए तैय्यार हो रहा

है। उसका कारण ये नहीं है कि हम लोग पापी हैं या बूरे हैं किंतु ये है कि हम अज्ञान को ही ज्ञान समझ के बैठे हये हैं। अगर आपने अज्ञान को ज्ञान समझ लिया, तो क्या होगा! अंधेरे में अगर आप लोग सब बैठे हो और चलना- फिरना शुरू कर दिया, तो कोई किसी के उपर कूदेगा, कोई किसी को मारेगा, कोई दौडेगा, अंधाधुंध जो चीज़ें हो रही है। ये जो भ्रान्ति आ रही है इसका कारण एक है कि हमें ज्ञान नहीं। अब ज्ञान हमें होना चाहिए। इसके प्रति किसकी रुचि होनी चाहिए? कौन जानेगा? यहाँ तो बड़े-बड़े विद्वान बैठे हये हैं। वो अपने पठनों में लगे हुये हैं । बड़े-बड़े यज्ञ कर रहे हैं, ये कर रहे हैं, वो कर रहे हैं। परमात्मा का पता ही नहीं वहाँ कहाँ है? परमात्मा को, लोग सोचते हैं कि उनको अगर पैसा-वैसा चढ़ाया जाए तो वो खुश हो जाएंगे। वो तो पैसा क्या चीज़ है, वो जानते ही नहीं है। मेरी ये उमर हो गयी है अभी अगर आप मुझसे कहें कि ‘चेक लिखो।’ तो मैं कहँगी कि, ‘तुम लिख दो, मैं सही करती हैंँ। मेरे को, मेरे बस का नहीं।’ उधर बुद्धि नहीं चलती है नं ! ‘भगवान के उपर पैसा चढ़ा दिया, बस, वहाँ हमारा टिकट कट गया है।’ ये तो पोप का जमाना आ गया। यहाँ के पोप कहते हैं, ‘चलो, टिकट कटा लो। तुमको हम स्वर्ग भेज देंगे ।’ वो स्वयं नर्क में जा रहे हैं वहीं आप उनके पीछे-पीछे चले जाईये। इस तरह की हमारी जो प्रवृत्तियाँ बनी जा रही है, उसका कारण कि हम अपने अज्ञान में संतुष्ट हैं। जैसे भी हैं ‘वाह! मस्त है।’ लेकिन नीचे से धरती खिसकती जा रही है। उससे सम्भलना चाहिए। ये धरती नीचे से खिसकती जा रही है। इस खिसकती हुई धरती पर आप खड़े हुये हैं। ये धरती, जो शस्य श्यामला, पुण्य भूमि है, इसको अपुण्य से भरने से ही आपने कुछ भी नहीं पाया हुआ है। आज आपके सामने कुण्डलिनी के बारे में बताया गया है। अब ये जो बताना है, ये तो सब कुछ हम बतायेंगे ही। आप जानेंगे ही कि आपके अन्दर कुण्डलिनी नाम की शक्ति है। वो शुद्ध विद्या है। और आप व्रत भी लें तो आप सब पाठांतर कर लीजियेगा। और सब भाषण हमारे जैसे देने भी लग जाएंगे। लेकिन उससे फायदा क्या होने वाला ? जब तक आपको उसका अनुभव न हो, तो इस अनुभव शून्य, ऐसे अज्ञान में क्या मिलने वाला है? आप अपने को कुछ भी समझ लें लेकिन आप अनुभव शून्य हैं। और अनुभव प्राप्त करना यही हमारा एक ही परम कर्तव्य है। क्योंकि इस भारत वर्ष में ही ये जड़ों की विद्या है । ये मूल की विद्या यहीं पर है। इसी देश से सारे संसार को प्रेरित करने के लिए जो प्रकृति ने और अवतारों ने व्यवस्था की है वो सब हमारे जिम्मेदारी पर है। हम हिन्दुस्थानियों के जिम्मेदारी पर है। इस भारतीय लोगों के जिम्मेदारी पर है जहाँ कि हमें ये कहना है कि, ‘हाँ हम इस ज्ञान को प्राप्त करेंगे। इस ज्ञान में उतरेंगे।’ लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप किताबे पढ़िये। बिल्कुल भी नहीं होता। किताबे कुछ भी न कह पाते। लेकिन जो पढ़ने से मेरा मतलब नहीं है। अगर ये डॉ.वॉरेन सिर्फ किताबें पढ़े होते तो ये अनुभव से जाना हुआ है, अनुभव से जो इन्होंने पहचाना हुआ है तभी तो न ये इन्होंने तीन विषय में क्या पता नहीं पीएचडी किये हैं, फलाना किये हैं, ठिकाना किये हैं । अब एक छोटी सी बात साइन्स की आपको बताऊं। एक बड़े भारी साइंटिस्ट हैं, जिनका नोबल प्राइज थोडे इससे चूक गया। तो उन्होंने कहा कि, ‘माँ, आप कहती हैं कि मूलाधार चक्र पे श्रीगणेश का स्थान है और एक तरफ से वो ॐकार हैं और दूसरी तरफ से वो स्वस्तिक हैं। ये क्या है?’ मैंने कहा कि, ‘भाई तुम तो मॉडर्न आदमी हो, ব

तुम्हें कोई मुश्किल नहीं है पता लगाना। तुम ऐसा करो एक अॅटम का चित्र बनाओ। एक बार लेफ्ट से बनाओ और एक राइट से बनाओ। कार्बन अॅटम को ले कर के तुम चित्र बनाओ।’ उन्होंने मुझे खबर की कि, ‘माँ, आश्चर्य की बात है कि जब लेफ्ट साइड से देखते हैं तो ओंकार दिखाई देता है क्योंकि राइट साइड दिखाई देती है। जब राइट साइड से देखते हैं तो लेफ्ट साइड में क्या दिखायी देता है, स्वस्तिक ! और ये कार्बन का अॅटम है। आपने कैसे ये बात कही है?’ मैंने कहा, ‘लिखा हुआ है चत्वारी। इसमें चार वेलन्सीस हैं वही कार्बन है। इसमें कौनसी ऐसी नयी बात मैंने बतायी। लेकिन ये कि तुम लोग विश्वास क्यों नहीं करोगे।’ घर में गणपति का चित्र रखा हुआ है उसको नमस्कार कर लिया । पर किसी डॉक्टर से मैं कहूँ कि भाई, इस गणपति की वजह से तुम्हारा पेल्विक प्लेक्सस चलता है।’ तो कहेंगे कि, ‘रहने दीजिए, रहने दीजिए माताजी। अब इसके उदाहरणार्थ में आपको बताती हूँ कि हमारे एक सहजयोगी थे, काफी उमर के, उनका नाम था अग्निहोत्री साहब। और उनके यहाँ बहुत अग्निहोत्र हुये। और बड़े खानदानी ब्राह्मण थे। वो पूना से हमारे पास आयें और मुझे कहने लगे कि, ‘माँ, आश्चर्य की बात है कि मुझे तकलीफ हो रही है वो मूलाधार चक्र से!’ मैंने कहा, ‘ये कैसे हो रही तुमको मूलाधार चक्र से। माने ये कि एक वहाँ ग्लैण्ड होता है, वो ग्लैण्ड अब काम नहीं कर रहा है। मैंने कहा, ‘ये कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम तो गणेश के भक्त हो और सहजयोगी हो ।’ तो उस वक्त जब वो जाने लगे तो हमारा जो प्रसाद है चने, मैंने कहा, ‘अच्छा, अब चना खाओ।’ मैंने उनके हाथ में चना दिया। तो इधर-उधर आना- कानी करने लगे। मैंने कहा, ‘तुम्हें अपनी प्रोस्टैट ग्लैण्ड ठीक करनी है या नहीं। मैंने कहा, ‘आना-कानी क्यों करते हो?’ कहने लगे, ‘माँ, कल खा लूंगा।’ मैंने कहा, ‘क्यों?’ कहने लगे, ‘आज संकष्ट है। आज मैं चना वगैरे नहीं खाता।’ मैंने कहा, ‘यही कारण है तुम्हारा प्रोस्टैट खराब होने का।’ कहने लगे, ये क्यों कारण?’ मैंने कहा, ‘जिस दिन गणेश का जन्म हुआ वो संकष्टी तुम मनाते हो! जिस दिन किसी का जन्म होता है उस दिन तुम उपास करते हो? क्या तुमसे गणेशजी खुश होंगे? खाओ अभी।’ चना खा कर के, आप विश्वास नहीं करेंगे कि लेकिन आप पूछ सकते हैं, वो जब पूना पहुँचे तो देखते हैं कि उनकी प्रोस्टैट एकदम ठीक चलने लग गयी। इस प्रकार की हम अनेक गलतियाँ करते रहते हैं। जब कभी भी कोई भगवान का जन्म होना है तो सूतक बना के बैठ गये। सूतक कर रहे हैं। माने ये कि जो हमारी पूजा-अर्चना है उसे भी हम नहीं समझते। वही हाल अंग्रेजों का है। जब कोई मरा तो शॅम्पेन पिएंगे। ईसा-मसीह का जिस दिन जन्म हुआ उस दिन शॅम्पेन पिएंगे। उनसे कहा, ‘भाई , शॅम्पेन तुम क्यों पीते हो? शराब तो निषिद्ध है। कैसे आप शराब पी सकते हैं क्योंकि ये चेतना के विरोध में है।’ वो कहेंगे कि, ‘होगा आपके धर्म में, हमारे धर्म में नहीं।’ ‘कैसे?’ ‘ईसा-मसीह ने एक शादी में शराब बनाई। मैंने कहा, ‘हो ही नहीं सकता। उन्होंने पानी को द्राक्षासव, द्राक्ष का रस बना दिया। आप बताईये शराब को सड़ाये बगैर बनती है क्या शराब? एक क्षण में कोई बना सकता है शराब?’ लेकिन इस बात को पकड़ के अब शराब पीना ही ईसाई धर्म हो गया है। इसी प्रकार उपास करना ही हमारे यहाँ हिन्दू धर्म हो गया। ठीक है, परमात्मा कहते हैं कि, ‘तुमको उपास करना है, तो उपास कर लो। करो उपास। जिस जिस की आप इच्छा करेंगे वो वो इच्छा परमात्मा आपकी पूरी करते हैं। उलटी खोपडी से परमात्मा नहीं समझा जा सकता है। जो वो हैं वो हैं। उनके आगे

आप अगर कहें कि, ‘हम आपको बनायें और आपकी हर व्यवस्था खुद करेंगे, तो ये बड़ी गलतफहमी हम लोगों को है। आप स्वतंत्र हैं, ऐसा आप कहते हैं। स्वतंत्रता के लिए हमने भी बहत आफतें उठायीं । आज हम लोग स्वतंत्र हो गये। लेकिन मैं नहीं सोचती आप स्वतंत्र हैं। आपको स्वातंत्र्य मिला है, लेकिन ‘स्व’ का तंत्र जानना चाहिए । शिवाजी महाराज जो थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। उनको मैं कहती हैँ पूरे भारतीय थे। उन्होंने कहा कि ‘स्व’ का तंत्र जानना चाहिए। उनके गुरू रामदास स्वामी थे। उन्होंने उनसे बताया कि, ‘देखो, जब तक स्वधर्म नहीं बनने वाला, ‘स्व’ का धर्म, स्वधर्म, तब तक इस देश का कल्याण नहीं होगा। अब उनके नाम से ही लोग आफत मचाये ह्ये हैं। पर जिस स्वधर्म की बात की थी, उस ‘स्व’ को जानने के लिए कोई भी प्रयत्नशील नहीं है। सारे धर्मों में यही रोना है। मोहम्मद साहब की तो बात क्या कहने। उन्होंने तो साफ कहा है कि ‘जब उत्थान का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे।’ इसको ‘कयामा’ कहते हैं। उत्थान का समय, रिझरेक्शन का समय, जिसे कहना चाहिए उत्क्रान्ति का समय आयेगा तब आपके हाथ बोलेंगे। उन्होंने इतना कुछ कुराण में लिखा है। मेरे पिता ने खुद इसका ट्रान्सलैशन किया है, मैं जानती हूँ। उन्होंने साफ लिखा है कि उस वक्त आपके हाथ बोलेंगे। इसका मतलब क्या है? सारे नमाज जो हैं कुण्डलिनी का जागरण है। और उन्होंने जो ‘अल्लाह-हो-अकबर’ कहा हुआ है वो अकबर भी विराट श्रीकृष्ण की बात थी। लेकिन ये बात कहने से मुसलमान कल मुझे मारने दौडेंगे। और इससे भी अगर आगे बातें करने लग जाऊं तो हिन्दू भी मुझे मारने दौडेंगे । क्योंकि सत्य का विपरीत रूप करने से ही आज हम हर तरह से धर्म में , अधर्म में हर तरह से एक भ्रान्ति में हैं। इस भ्रान्ति को हटाने के लिए सबसे पहले जैसे डॉ.वारेन ने बताया है और जैसे आप सब सहजयोगी कहेंगे कि पहले आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। ये खेल-खिलवाड की बात नहीं है कि आप जिससे चाहें उससे खेल-खिलवाड कर लें । आप अपने से खेल-खिलवाड कर रहे हैं । लेकिन ये टाइम, ये समय ऐसा है इस वक्त चूकना नहीं चाहिये। अगर आप इमानदार हैं और अगर आप अपने जीवन को पूर्णतया समझते हैं, तो एक बात तो माननी होगी कि अब आप में कुछ कमी तो जरूर है। आप केवल सत्य तो नहीं हैं, आप ऐब्सेल्यूट तो हैं नहीं, तो उसके लिए अगर ऊर्ध्वगामी जाने के लिए कुण्डलिनी ही की व्यवस्था की हुई है, तो क्यों न उसे किया जाए। हर शास्त्र में, लाओत्से की ही किताब आप पढ़ लीजिए या आप कन्फ्यूशिअस को पढ़ लीजिए या आप साँक्रेटिस को पढ़ लीजिए, दुनिया के जितने भी बड़े-बड़े महान लोग हो गये हैं सबने यही कहा हुआ है कि आपको अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए। लोग आते हैं, ‘हम साहब ज़ेन कर रहे हैं।’ ज़ेन माने क्या? ज़ेन माने ध्यान, पर ध्यान किया नहीं जाता, होता है। एक ज़ेन के बड़े भारी प्राचार्य यहाँ आये थे, जो कि वहाँ के हेड ऑफ ज़ेन सोसायटी और उनको कोई बड़ी शिकायत थी, तो मुझे लोग ले गये कि, ‘माँ, इनको ठीक करो।’ तो मैंने कहा, ‘भाई, तुम ज़ेन कैसे हो? तुम्हारी तो वैसी दशा नहीं है। ‘माँ हूँ ना’ तो सच कह दिया। ‘तुम्हें तो आत्मसाक्षात्कार हुआ नहीं। तो आपने इतनी बड़ी अपने उपर जिम्मेदारी कैसे ले ली।’ कहने लगे कि, ‘छठी शताब्दी से ले कर के बारहवीं शताब्दी तक जरूर छब्बीस ज़ेन हये थे। जिसको वो काश्यप कहते हैं। देखिये, अपने कश्यप मुनि के पुत्र काश्यप का नाम रखा है। वो काश्यप, रिअलाइज्ड सोल थे। और उसके बाद फिर हये ही नहीं । तो मैंने कहा, ‘फिर तुम ज़ेन-वेन मत करो। तुम समझ ही नहीं पाओगे कि ज़ेन क्या है? जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं होता है, तब तक तुम्हें ज़ेन करना ০

व्यर्थ है।’ आत्मसाक्षात्कार के बाद जो सामाजिक कार्य होता है उसमें मनुष्य जानता है कि आनन्द और सुख क्या है। उसमें मनुष्य जानता है कि दूसरे आदमी की क्या विशेषता है ? यहाँ पर आपके कलकते में एक बार जब शुरू में हम आये थे, एक होटल में ठहरे थे, वहाँ कोई ऐसे अजनबी ने हमारा नाम सुना और वो हमसे मिलने आये और कहने लगे कि, ‘माँ, हमें आप आत्मसाक्षात्कार दीजिए।’ हमने कहा, ‘अच्छा, कोई बात नहीं।’ और जब वो मेरे पैर पे आयें, उनकी कुण्डलिनी इतनी जोर से उपर में आयी। जो दूसरे सहजयोगी, दूसरे कमरों में बैठे हुये थे उनको ऐसा लगा कि पता नहीं कहाँ से इतना आनन्द बरस आ रहा है । वो दौड़ते-दौड़ते मेरे कमरे में आ के पूछते हैं, ‘माँ, किसको आपने आत्मसाक्षात्कार दिया ?’ मैंने कहा, ‘देखो!’ जब उसपे हाथ रखा, तो आनन्द विभोर हो गया। ‘ओ…हो…हो माँ क्या है! ऐसे-ऐसे अनुभव, अनेक अनुभव सहजयोग में आते हैं। जहाँ जिस आदमी को हम सोचते हैं कि बहुत उँचा आदमी है, जब उसके पास जाईये तो लगता है कि बिल्कुल घास-फूस और कचरा है। और कोई आदमी के लिए सोचते हैं कि अरे, ये बिल्कुल बेकार आदमी है, किसी काम का नहीं, उसको देखते हैं तो पता नहीं कब का आत्मपिंड हैं, कब का ये बड़ा महान पुरुष रहा, इस संसार में आया है। लेकिन इसको पहचानने के लिए भी तो आपके पास में वही, केवल सत्य होना चाहिए कि उसकी ओर हाथ करके आप जान लेते हैं कि क्या है! कुंभ के मेले में जाने की आज-कल बड़ी आफ़त मची हुई है, कुंभ के मेले में। क्यों जाना कुंभ के मेले में? क्या आप गंगाजी को पहचान सकते हैं? क्या आप जमनाजी को पहचान सकते हैं? अगर आपके पास गंगाजल ला के रखा तो क्या आप पहचान लेंगे कि ये गंगाजल है? नहीं पहचान सकते। कारण आपके पास में केवल सत्य नहीं है। जब गंगाजल सामने रखियेगा तो कोई भी सहजयोगी बता देगा कि ये गंगाजल है क्योंकि उसमें से चैतन्य की लहरियाँ आ रही है। जो शिवजी के सहस्रार से बह रही गंगा है, तो उसमें तो चैतन्य आना ही हुआ। अब गंगाजी को हम पूजते हैं, लेकिन गंगाजी जो सूक्ष्म है उसको तो जानते ही नहीं कि चीज़़ क्या है ये गंगाजी ? सालों से चला आ रहा है, ‘गंगाजी में नहाओ, गंगाजी में नहाओ ।’ ये तो ऐसा है जैसे पत्थर उसमें पड़े हये हैं, ऐसे ही लोग नहाते हैं और बाहर आते हैं। और फिर उनमें कोई भी ऐसा दिखता नहीं कि गंगाजी हो के आये तो कोई विशेष बात की। ऐसे ही जो लोग हज में जाते हैं, वहाँ से लौट के आते हैं तो फिर वही स्मगलिंग करते हैं। जब हज हो के आयें, हाजी हो गये, दाढ़ी बढ़ा ली, अपने को हाजी बनके घूम रहे हो तो भाई, कुछ तो असर दिखाई देना चाहिए। कोई नहीं! सब एक ही साथ एक जैसे ही रह जाते हैं जैसे गये थे वैसे ही बिल्कुल नीरे, कोरे। जैसे गये थे वैसे ही कोरे वापस चले आये। कुछ असर नहीं आया। क्या वजह है कि जो गंगाजी की सूक्ष्म चीज़ है उसको आपने पकड़ा नहीं। और पकड़ेंगे भी कैसे ? अब यहाँ पर हमारे यहाँ जागृत स्थान है। हम तो कहते हैं कि हैं। हर जगह हमारे यहाँ जागृत स्थान है, और ये बायबल में भी लिखा हुआ है कि जो पृथ्वी तत्व ने और आकाश ने बनाया हुआ है। उसको फिर से बना कर उसकी पूजा न करें। इसका मतलब वो नहीं कि जो पृथ्वी तत्व ने बनाया है उसकी हम पूजा न करें। अब ये तत्व हमारे यहाँ पृथ्वी तत्व से निकले हये जो जागृत स्थान हैं…. आप कैसे जानियेगा कि ये जागृत है या नहीं? कहीं पत्थर रख दिया, ‘हाँ, ये जागृत स्थान है।’ अब ये राम की भूमि है कि नहीं है ? ये जानने के लिए मुसलमान और हिन्दू दोनों

को अगर पार कराईये तो कहेंगे कि ये श्रीराम की भूमि है इसमें शंका नहीं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सब हिन्दू जा के वहाँ लड़े और लड़ के राम की भूमि भी मिल गयी तो भी क्या फर्क आने वाला है हमारे अन्दर! ये बाह्य की चीज़ों से अंतर्योग घटित नहीं होता है। जब अंतर्योग हो जाएगा तो समझ में आ जायेगा मुसलमानों को भी और हिन्दुओं को भी कि श्रीराम की भूमि है और श्रीराम ये मुसलमानों के लिए कोई दूसरे नहीं है। और हमारे लिए भी मोहम्मद साहब कोई दूसरे नहीं हैं। ये लोग सब रिश्तेदार हैं, बड़े पक्के, आपस में। इनका कभी भी झगड़ा नहीं होता। एक-दूसरे के सहायक हैं आपको पता नहीं। लेकिन हम ही लोग बेवकूफ जैसे एक का नाम ये लिया, एक का नाम ये लिया, लड़ते रहते हैं। जैसे कि एक पेड़ पे अलग-अलग समय पर निकले हुये महासुन्दर फूल हैं। उनको अलग हटा लिया, उनको तोड़ लिया, जब वो मर गये तो ये मेरा फूल, ये मेरा फूल, पर अरे भाई, तुममे क्या विशेषता आयी है? कौनसी विशेष तुमने बात करी ? जब खराबी पर आते हैं हो तो सब एक साथी ही हैं। तब तो कुछ दिखायी नहीं देता। इस तरह से पंथ, जातियाँ बना-बना कर के हम लोगों ने एक तमाशा बेवकूफी का खड़ा किया है। कितने बेवकूफ इन्सान हैं आप ही सोचिये। ये बेवकूफी के लक्षण हैं या नहीं कि हम इस तरह से ‘ये मेरा धर्म, ये मेरा धर्म’। अरे, धर्म तो है ही नहीं तुम्हारे अन्दर। जिस वक्त कुण्डलिनी का जागरण होता है, तो जिसे हम लोग वॉइड कहते हैं, जिसको भवसागर कहते हैं, उस भवसागर में जब प्रकाश आता है तो धर्म अपने आप जागृत हो जाता है। ऐसे आदमी धर्मातीत होते हैं। माने आप ही सोचिए कि तुकाराम, जो बड़े संत हो गये। अगर कभी उनसे कहना पड़ता था कि ‘आप शराब मत पिओ या दूसरों का पैसा मत खाओ?’ कहना पड़ता था क्या? उन संतो से कहना तो नही पड़ता था ना! नानक साहब से ये तो नहीं कहना पड़ता था कि, ‘भाई, तुम चोरी-चकारी मत करो ।’ उनको ये बात मालूम ही नहीं थी । माने वो धर्मातीत लोग थे। और ऐसे लोग हमारे देश में हो गये हैं। और उन्होंने जो बता दिया है अगर उनकी तरफ जरा सी भी नज़र करें तो समझना चाहिए कि वो कोई झूठ बोलने वाले तो लोग नहीं थे। उन्होंने जो बता दिया उसे हमने क्यों न करना चाहिए। इन लोगों की बातें भी और तरह की हैं मैं आपसे बताऊं। ये जाति-पाति को लेने वाले जो लोग हैं, खास कर के सारी ही जाति में बड़े-बड़े संत हैं। महाराष्ट्र में तो इसकी आप पुष्पमालिका बना लीजिए । यहाँ पर एक, हमारे यहाँ एक दर्जी जो कि नामदेव के नाम से मशहर हैं। कभी नामदेव कहते हैं, संत नामदेव, वो गये मिलने…. किसे तो कुम्हार एक था, जो गोरा कुम्हार था। हम लोग उँची जाति और निची जाति ये सारा कुछ अपना दिमागी जमा-खर्च चलाते रहते हैं। वो जब उनसे मिलने गये तो उन्होंने मराठी में काव्य किया हुआ है। नामदेव बहुत बड़े कवी थे। ‘निर्गुणाच्या भेटी, आलो सगुणाशी ।’ निर्गुण को मिलने आया तो मेरे सामने खड़ा हो गया। कितनी बड़ी बात है। इसको समझने के लिए भी आपको आत्मसाक्षात्कार चाहिए कि वो तो चैतन्य देखने आये थे तो सगुण हो गया चैतन्य। ये बातें हम लोग नहीं कर सकते। वो एक कुम्हार था, मिट्टी से खेलने वाला और ये एक दर्जी था। अब हमारे यहाँ के बड़े बुद्धिमान लोग हैं, वो कहते हैं कि, ‘साहब, ये जो नामदेव, संगुण जिनको गुरू नानक ने पाचारण किया था, जिनका इतना आदर किया था , जिन्होंने हिन्दी और पंजाबी में इतने सुंदर काव्य लिखे और जो इनके ग्रंथसाहब में नामदेव जी का नाम है वो दूसरे थे और ये दर्जी दूसरा था।’ ये अकल निकाली और दूसरी अकल की बात ऐसी निकाली है कि आदि शंकराचार्य, जिन्होंने विवेक चूड़ामणी आदि ग्रंथ

लिखे थे उन्होंने सौंदर्य लहरी नाम की चीज़ लिखी ही नहीं। क्योंकि सौंदर्य लहरी इनकी खोपड़ी में जाती ही नहीं है। इसलिए सौंदर्य लहरी नाम की चीज़, जिसमें माँ की स्तुति कर दी ये क्या ये बेवकुफी की बात है इनके साथ। ऐसे विद्वानों के चक्कर में रह-रह कर के और ऐसे लोगों के लेक्चर सुन-सुन के हम लोग भी ‘पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भये’ । जब कबीरदासजी को मैं पढ़ती थी। मैं कहती कि ऐसी कैसी बात कबीरदासजी कहते हैं कि पंडित कैसे मूरख हुये? अब ऐसे बहुत मुझे मिलते हैं। और जब ऐसे मिलते हैं तो मैं चुप्पी लगा जाती हूँ और कबीरदासजी से कहती हूँ कि, ‘अच्छे दर्शन दिये आपने इन लोगों के। कबीरदासजी के साथ कितने अन्याय हये । कबीरदासजी ने कुण्डलिनी को सुरति कहा। साफ-साफ बात लिख दी थी कि ये सूरति है। उस पर हमारा आक्रमण इतना बूरा और भद्दा है कि बिहार में और हमारे उत्तर प्रदेश में जहाँ मेरा ससुराल है, वहाँ पर लोग तम्बाकू को सूरति कहते हैं। और पता नहीं कौनसे-कौनसे उल्टे देशों में कहते हैं। पर बहरहाल इन दोनों को मैं जानती हूँ। कहाँ तो कुण्डलिनी और कहाँ ये राक्षसी तम्बाकू। कैसे इसका मेल बिठाया और कबीरदासजी को भी सारे बड़े-बड़े विद्वान, हमारे हिन्दी के साहित्यिक हैं उन्होंने कहा कि साहब, इनकी भाषा तो सब भुक्खड़ ही है। और इसमें कोई सौष्ठव ही नहीं है। क्या कहा जाए? मैं तो कहती हूँ कि जब आप जनसाधारण से बातचीत करिये तो रोजमरा की ही भाषा में बोलना चाहिए, नहीं तो लोग समझेंगे कैसे ? हम तो महाराष्ट्र के रहने वाले हैं और आप जानते हैं कि महाराष्ट्र की भाषा बहुत ही, जब हिन्दी बोलते हैं तो अत्यन्त क्लिष्ट भाषा होती है। उस क्लिष्ट भाषा को कोई समझ नहीं पाता है। मुझे तो सोच-सोच कर के ये देखना पड़ता है कि रोजमर्रा की भाषा में किस तरह से बोलूं। और उन्होंने रोजमर्रा की भाषा में इतना सुन्दर और इतना गहन विषय लिखा है और सभी संतो ने ऐसे किया है। एक सजन कसाई थे । कसाई थे वो कसाई। उनका किस्सा है कि एक बार एक बड़े भारी साधु बाबा पहुँचे और उनके किसी पेड़ के नीचे बैठे थे। तो उनपे एक चिड़िया ने गन्दगी कर दी। तो उसकी ओर देखा तो चिड़िया टप से मर गयी और नीचे गिरी। आगे गये, देखते हैं एक औरत, वहाँ जा के दरवाजा खटखटाया। उसने कहा, ‘अभी ठहरिये मैं आती हूँ।’ उसने फिर कहा, ‘चलो भिक्षा दो ।’ तो चावल ले के आयी। कहती हैं, ‘बिगड़ने की कौनसी बात है। जिस चिड़िया को उपर से नीचे टपकाया है वैसी मैं नहीं हूँ। आप कोशिश कर लीजिए ।’ तो उसने कहा, ‘तुमने कैसे जाना ?’ कहने लगी, ‘जाना, कुछ न कुछ बात तो है ही जानने की।’ कहने लगी कि, ‘देखिये , आप यहाँ से आगे जाईये, एक गाँव है वहाँ जा के पूछो कोई सजन है क्या ? उस सजन ने मुझे सिखाया है।’ तो ये उस गाँव में गये। उन्होंने कहा, ‘यहाँ पर कोई सजन नाम का आदमी रहता है।’ कहने लगे, ‘कोई नहीं। एक कसाई रहता है। कहने लगे, ‘उसको भगवान-वगवान का कुछ है?’ ‘बाप रे! बहुत है।’ जब वहाँ पहुँचे तो उन्होंने कहा कि, ‘आपके बारे में मैंने सुना है।’ कहने लगे, ‘मालूम है। तुमने चिड़िया को मारा था। और उस गाँव में गये थे वहाँ उस लड़की ने तुमसे बताया। ठीक है। अब तुम यहाँ पहुँच गये हो।’ हैरान हो गये ‘इन्होंने मेरे बारे में इतना कैसे जान लिया?’ वो एक कसाई था, कसाई। लेकिन हम कसाईयों पर विश्वास नहीं करने वाले जो कि संत शिरोमणी हैं! हमारे लिये तो संत तो ये हैं जो जेल से छूट कर आया हो पहली बात। कुछ न कुछ फ्रॉड किया हो। पहला, कम से कम फ्रॉड करने लायक हो।

उसके बाद वो टीला-वीला लगा कर के, गेरूआ वस्त्र पहन कर के चौक में बैठ सकता है और लम्बे-लम्बे भाषण दे सकता है। हो सकता है किसी पोलिटिकल लीड़र रहा हो। अब उधर चली नहीं तो उसने ये धंधा शुरू कर दिया। ऐसे ही धंधे हम लोग शुरू करते हैं और लोग, ऐसे लोगों को, वाह ! वाह! ऐसे चक्करों में घूम-घूम कर के आप लोग कहाँ पहुँचे? सर्वनाश का समय आ गया है। बड़ा चक्र चल रहा है। आपको नहीं पता है कि कालचक्र कितनी जोर से हमारे उपर दौड़ा आ रहा है। सारे संसार में ये फैलने वाला है । और इसको रोकने का पूरा उत्तरदायित्व, इसकी पूरी जिम्मेदारी, रिस्पॉन्सिबिलिटी आप लोगों पर है जो हिन्दुस्थानी बनते हैं और विशेष कर बंग देश में रहते हैं। जो कि माँ के पूजारी हैं। और आजकल सिर्फ महिषासुर की पूजा करते हैं। आज आपसे मैंने जो बात कही वो उस तरीके से कहना ठीक है कि प्रेम की ओजस्विता है। एक माँ की पहचान इसमें होती है कि वो सही बात अपने बच्चों से निर्भिक कह दें। शिवाजी महाराज के माँ के बारे में आपने होगा जिजाई, जिसने कि अपने बच्चे को हमेशा तलवार की धार पे खिलाया है। ईसा-मसीह की माँ साक्षात लक्ष्मी थीं | लेकिन अपने बच्चे को सूली पर चढ़ता हुआ उस औरत ने देखा होगा। हमारे देश में ऐसी अनेक स्त्रियाँ एक-एक के नाम लीजिए तो रौंगटे खड़े हो जायें । लेकिन आज हम ये देखते हैं कि अंधकार में सुना हो गयी। जिनके बढ़ते-बढ़ते पाश्चिमात्यों का हाथ पकड़ लिया अब तो पूरी तरह से बेड़ा गर्क है। कृपया कम से कम ये न कर के थोड़ी नज़र अपनी ओर करें और इस आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो। आज आशा है आप लोग सब आत्मसाक्षात्कारी बनेंगे। लेकिन आज एक क्रान्ति का दिन है, जब कि घर में बैठ के घंटा बजा के पूजा करने वाले नहीं है । आज सामूहिक तरीके से सहजयोग करना होगा। सामूहिकता में ही आप सहजयोग में बढ़ पाएंगे नहीं तो आप बढ़ नहीं पाएंगे । इसलिय जान लीजिए कि जो लोग, बहुत लोग कहने लगे कि, ‘हम तो माँ आपसे दीक्षित हो गये’ और फिर यहाँ दीक्षित कहते हैं। दीक्षित हो गये। और आगे क्या ? ‘हम घर में बैठ कर आपकी पूजा करेंगे।’ उससे कोई फायदा नहीं होने वाला। आपको सामूहिकता में उतरना चाहिए। परमात्मा आप सबको सुबुद्धि दें और उस सुबुद्धि में आप परमात्मा को प्राप्त करें। आप सबको अनन्त आशीर्वाद !