Diwali Puja

पुणे (भारत)

Feedback
Share
Upload transcript or translation for this talk

Diwali Puja 1st November 1986 Date : Place Pune Type Puja Speech Language Hindi

दिवाली के शुभ अवसर पे हम लोग यहाँ पुण्यपट्टणम में पधारे हैं। न जाने कितने वर्षों से अपने देश में दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है, दिवाली की जो दीपावली है वो शुरू हो गयी । दिवाली में जो दीप जलायें जाते थे , वो थोड़ी देर में जाते हैं। बुझ फिर अगले साल दूसरे दीप खरीद के उस में तेल डाल कर, उस में बाती लगा कर दीपावली मनायी जाती थी। इस प्रकार हर साल नये नये दीप लाये जाते थे। दीप की विशेषता ये होती थी, कि पहले उसे पानी में डाल के पूरी तरह से भिगो लिया जाता था| फिर सुखा लिया जाता था। जिससे दीप जो है तेल पूरा न पी ले और काफ़ी देर तक वो जले। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है तब से हम लोग हृदय की दिवाली मना रहे है। हृदय हमारा दीप है। हृदय में बाती है, शांत है और उसमें प्रेम का तेल डाल कर के और हम लोग दीप जलाते हैं। इस तेल को डालने से पहले इस हृदय में जो कुछ भी खराबियाँ हैं उसे हम पूरी तरह से साफ़ धो कर के सुसज्जित कर लेते है। ये प्रेम हृदय में जब स्थित हो जाता है, तब उसको हृदय पूरी तरह से अपने अन्दर शोषण नहीं कर लेता। जैसे पहले कोई आपको प्रेम देता है, माँ देती है प्रेम, पिताजी देते हैं प्रेम और भी लोग आपको प्रेम देते हैं। उस प्रेम को आप लोग अपने अन्दर शोषित कर लेते हैं। जो प्यार पति से मिला, पत्नी से मिला, वो आपके रोम रोम में छा जाता है और अपने तक ही सीमित रहता है। उसका प्रकाश औरों को नहीं मिलता। एक अगर माँ अपने बच्चे को प्यार करती है, तो वो उस बच्चे तक और उस माँ तक ही सीमित रहता है। कभी कभी इसके विपरीत भी परिणाम निकल आते हैं। कोई माँ अगर अपने बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यार करती है तो बच्चा कभी कभी बूरा बर्ताव करता है। उसके व्यवहार में शुष्कता आ सकती है। धृष्टता आ सकती है। वो माँ को तंग कर सकता है। उसका अपमान कर सकता है। या कोई बच्चा अपने माँ के प्रति बहुत ज्यादा जागरूक हो, तो हो सकता है कि उसकी माँ उस पे हावी हो जाये। उसके सर पे सवार हो जाये। इसी प्रकार एक पति-पत्नी में भी जो प्रेम होता है वो अगर संतुलन से हट जाये, लेन-देन में फर्क पड़ जाये , तो उसके अनेक विपरीत परिणाम होते हुये देखे गये हैं। लेकिन सहजयोग का जो स्निग्धमय प्रेम है वो हृदय के इस दीप में भर दिया जाता है तो वो अपने तक सीमित नहीं रहता है। और उसमें जब दीप जल जाता है, जब आत्मा की ज्योत फैल जाती है, तो वो सारे संसार के लिये आलोकित करने का माध्यम है। उसकी ये शक्ति हो जाती है, उस हृदय की, कि वो सारे संसार को आलोकित करें। सारे संसार में प्रकाश फैलायें। सारे संसार का अज्ञान हटायें। सारे संसार में आनन्द फैलायें। यही एक मिट्टी का दीप हर साल तोड़ | दिया जाता था, एक समर्थ, ऐसा विशेष दीप बन जाता है, कि कभी भी नहीं बुझता है और इस दीप से अनेक दीप जलते हैं। और वो जो दीप जलाये जाते हैं, कभी नहीं बुझते। ये कौनसी धातु का बनाया हुआ दीप है, ऐसा अगर कोई पूछे, तो कहा जायेगा, कि ऐसा तो कोई धातु है ही नहीं संसार में जो इस तरह के दीप बनायें । जो जलते रहें और दूसरों को भी आलोकित करते रहे और कभी भी नष्ट न हों। उल्टा अमर हो के सारे संसार में तारांगण बन के ন

चमक उठे। ऐसे अनेक दीप अकेले अकेले इस संसार में आये। कहीं पर, आपने देखा है, कि बड़े बड़े संत-साधु हो गये। इस महाराष्ट्र भूमि में भी अनेक संत -साधु हो गये। अकेले अकेले कहीं बैठे हये, धीरे-धीरे, धीमे-धीमे जलते रहे । लेकिन वो आज भी तारांगण बन के संसार में छाये है। लेकिन वो अकेले दीप थे, दीपावली नहीं थी । अकेले दीप थे। कभी – कभी एक -दूसरे से मिल लेते थे । लेकिन आज हमारी दीपावली है। आप लोग सब वही दीप है, जिनकी मैं व्याख्या कर रही हूँ, जिनका मैं वर्णन कर रही हूँ, वही सुन्दर दीप है। जो कि आलोकित हो गये और आलोकित होने के बाद दूसरे अनेक दीप जला रहे हैं। एक दीप से हजारो दीप जल रहे है। यही एक तरीका है, जिससे संसार का अंध:कार, अज्ञान सब नष्ट हो सकता है। लेकिन इसके अन्दर एक बात याद रखनी है, कि हम जिस तेल से जल रहे हैं, जिस स्निग्धता से जल रहे हैं, वो प्रेम है। वो निव्व्याज्य प्रेम है। वो निरपेक्ष प्रेम है। वो प्रेम किसी से चिपकता नहीं। वो कोई अभिलाषा नहीं रखता। वो कोई प्रतिकृति नहीं चाहता। वो अविरल इस दीप को जलाये रखता है। अत्यन्त सुन्दरता से। ऐसे दीप की कांति आपके मुखराविंद पे भी छा जाती है। आपकी आँख से ये दीप चमकते हैं। सहजयोगी की आँखें, आप अगर कभी देखें तो हीरे जैसी चमकती हैं। ऐसे हिरे में अपनी ही ज्योत होती है। इसी प्रकार एक सहजयोगी की आँख के अन्दर अपनी ही एक दीपशिखा होती है, जो झिलमिल, झिलमिल चमकती रहती है। ये सब कायापलट हो गया। पत्थर के हृदय में एक ऐसा अनूठा सा दीप जल गया। एक मिट्टी की दीप की जगह एक अविनाशी, अक्षय ऐसा एक दीप जल गया। हृदय जो कि छोटी छोटी बात में रो पड़ता था। जो छोटी छोटी सी हानि से ही ग्लानि प्राप्त होता था। वो हृदय आज एक बलवान दीपक बन गया है। जो कि सुख या दुःख के थपेडे से नहीं डरता है और ना ही किसी लाभ या हानि की ओर देखता है। उसका कार्य है अंध: कार को दूर करना और बड़ी हिम्मत के साथ। वो इस बात को जानता है कि वो एक विशेष दीप है, एक विशेष रूप में है। ‘और वो एक विशेष रूप का मेरे हृदय में दीप जला हुआ है इससे मैं अनेक लोगों का दीप जला सकती हूँ।’ उसको ये पूर्ण विश्वास हो गया है। और उस दीप के उजाले में वो अपने भी दोष अगर देख ले, उसे वो छोड़ देता है। उसे एकदम | छोड़ देता है। धीरे धीरे उसका भी जीवन अत्यंत प्रकाशमय हो जाता है। और हृदय में बसा हुआ प्रकाश सारे अंग अंग से, उसकी आँख से, उसके मुख से टपकता है। उसका सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है। और उस प्रकाश से वो आंदोलित हो जाता है। उसके तरंगों में बैठ कर के आनंदित होता है। अपने ही अपने मन में मुस्कुराता हुआ, अपने ही मन को सोचता है कि मैं कितना सुन्दर हो गया हूँ। कितनी सुन्दरता मेरे अन्दर से बह रही है। पहली मर्तबा एक मानव अपने से पूर्णतया संतुष्ट हो जाता है। असंतोष मनुष्य में तब आता है, जब वो अपने संतुष्ट नहीं होता। अगर आप कहें कि आज हमारे पास एक चीज़ नहीं है। इसलिये आप असंतुष्ट है। कोई बात नहीं। कल दूसरी चीज़ आ जायेगी। उससे आप असंतुष्ट हो जायेंगे। आप असंतुष्ट ही रहेंगे। संतोष आप जब अपने में संतुष्ट होंगे तो फिर आपको वो बाहर खोजना नहीं पड़ेगा। और ना वो कभी आपको बाहर मिल सकता है। संतोष आपको अपने अन्दर, अपने ही आत्मा से प्राप्त हो सकता है। ये प्रकाश आज हम लोग देख रहे है कि कितना बढ़ गया है। विशेष कर महाराष्ट्र में इसका प्रचार ज़्यादा हुआ है। तो आज और पुणे इस महाराष्ट्र का हृदय है। ये महाराष्ट्र का हृदय है। और इस हृदय में जो आप लोग आये हये हैं,

जाते वक्त अपने साथ बहुत सारा प्यार लेते जाईये। ये प्यार आपको वो प्रकाश देगा जो चिरंतन तक, अनंत तक आपके अन्दर सुन्दरता की लहरें उत्पन्न करता रहेगा। और आपका मार्गदर्शन करता हुआ आपको एक ऐसे आदर्शों तक पहँचा देगा जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जिसको आप सोच भी नहीं सकते, कि आप ये सब कर सकते हैं। आपने बहुत बड़े बड़े महान लोगों के बारे में सुना होगा। इन सब से कहीं अधिक आप लोग कार्य कर सकते हैं। इनसे कहीं अधिक आसानी से ऊँचे ऊँंचे शिखर तक पहुँच सकते हैं। फर्क इतना ही ै कि उनकी महत्त्वाकांक्षायें जो थी उससे लड़ते लड़ते, जूझते जूझते वो लोग तंग आ गये थे। लेकिन आप अपना रास्ता इतना सुगम, सुरक्षित और आलोकित पाईयेगा, कि उसमें किसी भी प्रकार की आपको अडचन नहीं। सिर्फ याद रखने की बात एक ही है, कि ये प्रेम का दिया है। ये दीप प्रेम ही से जल सकता है और किसी चीज़ से नहीं । जो भी आप कार्य करते हैं वो आप प्रेम से करें। जब आप किसी को शिक्षा देते हैं, जब आप किसी को सहजयोग के बारे में समझाते है तब ये सोच लेना चाहिये कि क्या मैं इन को इसलिये समझा रहा हूँ, कि मुझे इनसे प्रेम है। इनके प्रति प्रेम है और मैं चाहता हूँ कि जो कुछ मैंने पाया वही ये भी पा लें। क्या मैं यही विचार से इनको समझा रहा हूँ। या मैं इसलिये समझा रहा हूँ, कि मैं कुछ ज़्यादा इन लोगों के बारे में जान गया हूँ। और मैं काफ़ी अच्छे से बातचीत कर सकता हूँ और मैं इन सब लोगों के बुद्धि पर छा सकता हूँ। तो इस तरह की बात सोच कर अगर कोई सहजयोग चाहे तो फैलाये, तो नहीं हो सकता। धीरे धीरे, आराम से, जैसे कि चन्द्रमा की चाँदनी धीरे धीरे फैलती है और उस पे सभी चीज़ एक स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगती है। इसी प्रकार आपका बर्ताव दूसरों के प्रति होना चाहिये। उसमें किसी भी प्रकार का आक्रमण, किसी भी तरह की भिरुता, दिखने की जरूरत नहीं । हाँ , एक बात है, इस दीप को संजोना चाहिये, सम्हालना चाहिये। उसकी ओर ऐसी नज़र होनी चाहिये, जैसे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज़ को हमने पाया हुआ है। और ये अभी अगर बाल्य स्वरूप में है तो इसे धीरे धीरे हमें आगे बढ़ाना है। उसके प्रति बड़ा आदर और एक तरह की प्रतिष्ठा होनी चाहिये, कि आज हम सहजयोगी है। अगर आप सहजयोगी हैं तो हमारे अन्दर विशेष गुण होने चाहिये। इसलिये नहीं, कि हम गलत काम करेंगे तो हमें कोई दुर्घटना उठानी पड़ेगी। या हमें कोई नुकसान हो जायेगा। या परमात्मा हमें कोई किसी तरह का दण्ड देगा । इस भय से सहजयोग नहीं करना है। आनन्द से और प्रेम से सहजयोग में उतरना है। एक मजे की चीज़़ है कि हमें माँ ने पानी में तैरना सिखा दिया है और अब हम इस पानी में तैर सकते हैं। डूबेंगे नहीं । कोई भी भय, आशंका मन में न रखते हये, हमें उस प्रेम को जानना चाहिये। जानना चाहिये कि ये क्यों हमारा हृदय है। एक मुट्ठीभर का हृदय है। इस हृदय में ये सागर कहाँ से आया। अजीब सी चीज़ है, कि देखा जाता है कि इस छोटे सी मुट्ठी में पूरा सागर सा, पता नहीं कहाँ से समाये चला जा रहा है। और जितना जितना उसके सूक्ष्म में आप उतरेंगे तो देखेंगे कि इस छोटे से हृदय में कितनी सुन्दर भावनायें दूसरों के प्रति, समाज के प्रति में आयेंगी। इतनी उदात्त भावनायें, इतनी महान भावनायें कि जिनसे संसार का हम लोग पूरी तरह से उद्धार कर सकते हैं। मैं देखती हूँ की सहजयोग में बहुत लोग आ गये हैं। बहत ज़्यादा लोग भी आ जायेंगे। और आना चाहिये ।

लेकिन हर आदमी को एक विशेष रूप धारण कर के, एक विशेष समझ रख के आना चाहिये। ये नहीं कि सब लोग बैठे हैं तो हम चले गये सहजयोग में। आप एक विशेष हैं। और आप जो सहजयोग में आये हैं, आपका कोई न कोई | इसमें विशेष काम होगा। अभी देखिये एक छोटी सी चीज़़ खराब हो जाने से ही ये यंत्र नहीं चलता था । इस का हर एक छोटा छोटा पुर्जा भी कितना महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार हर इन्सान जो भी सहजयोग में आता है, वो स्त्री हो या पुरूष हो, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। और हर एक को चाहिये कि हम अपनी तबियत ऐसी रखें जिससे हमारी जो ये यंत्रणा है, जो परमात्मा ने यंत्रणा बनायी है, वो ठीक से चल पड़े। हमारे जीवन की ओर लक्ष देना चाहिये कि हमने जीवन में जो गलतियाँ की है और जिस तरह से अपने अन्दर षडरिपु एकत्रित किये थे , वो एक एक कर के छोड़ देना चाहिये। वो बहुत ही आसान है। क्योंकि आप अपने अन्दर बसे हये साँप को देख सकते हैं। जब तक प्रकाश नहीं था आपने हाथ में साँप पकड़ लिया था। जैसे ही प्रकाश आ गया साँप गिर जाता है। आप जैसे ही अपने को देखना शुरू कर देंगे, इसी सुन्दर प्रकाश में आप वो भी देख सकते हैं कि जो आपकी सुन्दरता है और वो भी देख सकते हैं जो आपकी कुरूपता है। उस कुरूपता को कोशिश करेंगे, ऐसे आधे लोगों से ये काम नहीं होने वाला। एकदम से ही छोड़ देना चाहिये। आज छोडेंगे, फिर कल छोड़ेंगे, फिर