Shri Mahalakshmi Puja

New Delhi (भारत)

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महालक्ष्मी पूजा दिल्ली, ३/११/१९८६

इस नववर्ष के शुभ अवसर पर दिल्ली में हमारा आना हआ और आप लोगों ने जो आयोजन किया है ये एक बड़ी हुआ महत्त्वपूर्ण घटना होनी चाहिए। नववर्ष जब शुरू होता है तो कोई न कोई नवीन बात, नवीन धारणा, नवीन सूझबूझ मनुष्य के अन्दर जागृत होती है। वो स्वयं होती है। जिसने भी नवीन वर्ष की कल्पना बनाई है वो कोई बड़े भारी द्रष्टा रहे होंगे कि ऐसे अवसर पर प्रतीक रूप में मनुष्य के अन्दर एक नई उमंग, एक नया विचार, एक नया आन्दोलन जागृत हो जाए । ऐसे अनेक नवीन वर्ष आये और गये, नई उमंगे आयी, नई धारणाऐं आयी और खत्म हो गयी। मनुष्य की आज तक की जो धारणाऐं रही है, एक परमात्मा को छोड़कर बाकी सब मानसिक क्रियाऐं या बौद्धिक परिक्रियाऐं थी। मनुष्य अपनी बुद्धि से जो भी ठीक समझता था उसका आन्दोलन कुछ दूर तक जा के फिर न जाने क्यों हटा और उसी विशेष व्यक्ति को और उसी समाज को या उस समय में रहने वाले लोगों पर आघात पहुँचा । इसका कारण क्या था ये लोग नहीं समझ सके। लेकिन आज हमें इसका साक्षात बहत ज्यादा अधिक स्पष्ट रूप से हो रहा है। जैसे कि धर्म की व्यवस्था हुई। धर्म की व्यवस्था में मनुष्य ने जब भी बुद्धि और मानसिक शक्तियों का उपयोग किया, तो बुद्धि के दम से वो एक वाद- विवाद के क्षेत्र में बंध गया और अनेक वाद-विवाद शुरू हो गये। गर सत्य एक है…. तो पन्थ इतने क्यो हुए? इतने धर्म क्यों हुए? उन धर्मों में भी इतने जाति भेद क्यों हो गए हैं? ऐसे भेद करते करते न जाने दुनिया में कितने ही गुट जम गए हैं जिसका समझ में नहीं आता है। किसी से पूछते हैं कि आप साहब कौन धर्म के हैं तो आपको ऐसे धर्म का नाम बताऐंगे जो आपने कभी सुना ही नहीं । ऐसे नए धर्म मेरे ख्याल से हरेक नवीन वर्ष में ही उत्पन्न होते ही रहते हैं क्योंकि मनुष्य की बुद्धि, हर एक नवीन वर्ष में कोई न कोई उमंग लेकर पैदा हुई। इसी प्रकार हमारी बुद्धि से राजनैतिक क्षेत्र में भी उमंगे आयी और नित नई नई बातें बताई जैसे शुरुआत में माना गया कि चलो एक राजा ही रहे तो अच्छा है । राजा सबको समझ लेगा और राजा से ही सबको बड़ा लाभ होगा। तो देखा जिसको राजा बनाया वही दुष्ट निकला, उसी ने सताना शुरू कर दिया। फिर कहा, ‘राजा तो ठीक नहीं । इसकी जगह ऐसा करो कि प्रजातन्त्र की व्यवस्था करो ।’ फिर उन्होंने प्रजातन्त्र की स्थापना की। प्रजातन्त्र में देखा गया कि हर एक आदमी अपने को बिल्कुल ऐसा समझता है कि वो स्वयं ही उस प्रजातन्त्र का संस्थापक है, संचालक है और कर्ता है । अब आप देख रहे हैं कि अमेरिका में कितना आतंक फैल रहा है। किस कदर हिंसा का आलम है। अगर पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता कि प्रजातन्त्र का हाल ऐसा क्यों हो गया? ये तन्त्र सारा गड़बड़ क्यों? वही हैं कि अब हम एक नया ऐसा संसार बसाएँगे कि जिसमें सब मनुष्यों में समानता आ जाए, उनमें कोई भी फर्क न रहे। खाने पीने में हर चीज़ में एक जैसा हो जाए और उसके अलावा उसको कोई स्वतन्त्रता न रहे । गर हाल बाद में आप साम्यवाद का देखेंगे। कहते वो स्वतन्त्र हो गया तो स्व के तन्त्र में वो गड़बड़ हो जाता है। इसलिए इसकी स्वतन्त्रता हटा दी। मनुष्य को जब एकदम मूर्ख समझा जाए तभी ऐसा हो सकता है। पर मनुष्य मूर्ख नहीं है, वो तो हर जगह उसको आप जितना दबाईयेगा उतना ही वो खोपड़ी पर चढ़ेगा । तो ये भी चीज़ कुछ बन नहीं पाई। वो भी नहीं बनी, ये भी नहीं बनी। इस तरह जहाँ देखते है वही आतंक है। धर्म के मामले में तो आप देख रहे हैं। किसी धर्म की हालत देखकर तो लगता ही नहीं कि परमात्मा भी कोई चीज़ हो सकती है। जो एकमेव हो, जो केवल हो , उसके लिए सब लोग आपस में सर काट रहे हैं । सबको मार ड्राल रहे हैं । तो ये कारण क्या है? जब (अस्पष्ट) आपकी एक बहुत ही ज्यादा सूक्ष्म रूप से बहुत ही नवीनतम संसार में आयी हे तो इस नवीनतम चीज़ में और इस नविनयपूर्ण चीज़ को इस कदर गन्दी मैली कुचैली करके क्यों संसार में आखों में नज़र आ रही है उसका ऐसा हाल क्यों हो रहा हैं? क्या वजह हैं की जो चीज़ इतनी उदात्त ,महान और उसके शुरू करनेवाले भी बड़े महान और उदात्त रहे हैं वो सब के सब जाकर के आज कहाँ पहुंच गए हैं। जैसे अमेरिका में मैं सोचती हूँ के बहुत बड़े इंसान हो गए हैं जिनको हम कहते हैं अब्राहम लिंकन। बहुत बड़े आदमी थे ,रेअलाइज़्ड सोल थे। उन्होंने सीधी चीज़ इतनी बढ़िया चीज़ संसार में ला दी ,इतना बड़ा काम कर दिया , लेकिन अब जो हैं वहाँ देखते हैं तो सोचते हैं के उन्होंने जो किया था पता नहीं उसको किस तरह से इन लोगो ने विद्रूप और कुरूप करके रख दिया। एक ये बात हो गयी दूसरे गर आप देखिये तो कम्युनिज्म भी लेनिन और मार्क्स ने बनाया था वो भी रेअलाइज़्ड सोल्स थे।उन्होंने भी जो सोचा था वो भी हितकारी चीज़ थी वो हित अब ही हो रहा हैं। या धर्म के भी जो जो संस्थापक हो गए उन्होंने भी बड़े उदात्त और महान लोग थे और उनको भी कोई कह नहीं सकता ,उनके तरफ कोई निर्देश नहीं कर सकता की इन्होने कोई गलत काम किया हो या इन्होने कोई गलत धारणासे इस चीज़ को शुरू किया हो। ऐसी बात नहीं लेकिन आखिर आगे जाकर के वो चीज ऐसी क्यों हुई ?हिरा जो था वो जा कर के कीचड़ में कैसे मिल गया? हिरा तो जहाँ है हिरा ही रहना चाहिए लेकिन ये तो हिरा तो जैसे आया जैसे कुछ करके और उसको बिल्कुलही तोड़ करके मरोड़ करके और उसको कीचड़ ही बना दिया और सभी दूर ये चीज़े देख करके बड़ा आश्चर्य होने लगता हें की इस तरह की जितनी भी उदात्त चीजे आई अब साइंस आया संसार में लोगो ने कहा अब साइंस आया अब हम लोग के सारे प्रश्न हल हो गये और उस सब प्रश्न हल होने के बाद में और अब हमे कोई चीज़ की चिंता नही करनी चाहिए और सब चीज़ ठीक हो जाएगी। सो तो बात नही हमने एक राक्षस बना के रख दिया हें। एटम बम, हायड्रोजन बम खोपड़ी पर खड़े कर दिये । इधर उससे ही बनी हुई ये प्लास्टिक और ये नायलोन और ये सब इसके पहाड़ के पहाड़ खड़े कर दिए ये सब चीज़े जो सुविधा के लिए बनाई थी ये असुविधाजनक हो गयी हें।इनसे दुनियाभरकी बिमारियाँ आ गयी ,आफते आ गयी आखिर क्या,क्यों इस तरह से हो गया?ये सब जो चीज़े ये सब हितप्रणित,हित को लेकर थी,हितकारी बनाई थी। उसीसे मनुष्य की नविन उमंगें आई,उसीसे उसने सोचा की मानव के उध्हार के लिए चीज़ बनाई जाये।वही उसके उध्हार के जगह उसको पूर्णतया नष्ट कर रही इसका कारण क्या हो सकता हे?कारण ये हे की जैसे श्री कृष्ण ने कहा हुआ है की मनुष्य की जो धारणा है या मनुष्य का जो विचार है,मानव की जो चेतना है वह नीचे की ओर है और धीरे धीरे वो धूलि में मिल जाती हें। ये उन्होंने कहा नही ये मै कह रहीं हूँ । क्योंकि आज वो साक्षात हें।कृष्ण ने जो धारणाये रखी वो भी धूलि में मिल गयी । राम ने जो रखी वो भी धूलि में मिल गयी । उसके बाद जिन्होंने भी कोई धारणा रखी ज्योकी सत्य स्वरुप थी ,सत्य का ही अंग प्रत्यंग थी वो सब धूलि में मिल गयी। इसका कारण ये की जब ये मनुष्य के दिमाग के घड़े में पडती हे तो उसमे कोई विषारु वस्तू हे की जिससे ये सब चीज़ विष में मिल जाती हे । ये विषारी वस्तु क्या हे जिससे इस तरह का कार्य होता हे ?वो है इसकी सीमाएं।हर चीज़ की सीमा होती है और इसीलिए इस सीमा में बन्ध करके वो चीज़ घुट करके और नष्ट हो जाती है। जैसे के अंगूर का सुन्दर स्वादवाला रस भी गर एक घड़े में बंद कर दिया जाएँ तो उसमें उसकी शराब बनके उसका नशा चढ़ जाता हें। उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में जो की सिमित हें ,लिमिटेड हें,उसमें ये अनलिमिटेड चीज़े डाल देने से एकदम नष्ट हो जाती हें। इसका मतलब ये नही की मनुष्य का मस्तिष्क ही कुछ ख़राब हें। इसका मतलब ये की ये जो मस्तिष्क हें इसकी सीमाएं तोडनी होएंगी। इसकी सीमाएं बढ़ानी होएंगी। मनुष्य की चेतना जो हें वो व्यापक करनी पड़ेगी । इतनी व्यापक होनी चाहिए की उसके अंदर सत्य समा सके और वो खुली होनी चाहियें। इसका लक्ष्य क्या हें उधर ध्यान हमारा (अस्पष्ट)जब चीज सिमित होती जाती हें तो इसका लक्ष्य क्या हें उधर हमारा ध्यान नही जाता । हर चीज़ का लक्ष्य था की मनुष्य का हित हो और हित क्या चीज़ हें इसमें श्री कृष्ण ने ही बताया हें की हित वो हें जो आत्मा का कल्याण करें। अब आत्मा स्वयं ही कल्याणमय है लेकिन कल्याण करे माने आत्मा से कल्याण करे लेकिन जब आत्मा ही खोया हुआ है तो हमारा कल्याण कैसे हो सकता है ?आज का जो नवीं वर्ष है ये विशेष बात है क्योंकि आज की जो बात हम कर रहें है,आज का जो हम सहजयोग का कार्य कर रहे है ये हम अपने मस्तिष्क को विस्तीर्ण कर रहें हैं,महान कर रहें हैं। जिसको की श्री कृष्ण ने कहाँ है की विराट का स्थान जो है वो इस मस्तिष्क में हैं। इसके अन्दर उसके जड़े हैं। उन जड़ों को हम जागृत कर रहें हैं। वो जड़े जागृत होने से ही सत्य को पूरी तरह से अन्दर शोषित कर सकते हैं ,अब्सोर्ब कर सकते हैं। मनुष्य की जो सिमित
प्रकृति है वह खुल जाती है। लैक्चर देना तो बहुत आसान है। यह कहना आसान है कि आप मनुष्य के हित के लिए यह करो, हित के लिए वह करो लेकिन होता नहीं है । अन्त में मनुष्य अपना हित नहीं करता उल्टे अपना भी अहित कर सकता है और सारे समाज का भी अहित कर सकता है । इस मस्तिष्क को बढ़ाने के लिए, सिर्फ एक ही तरीका है वो है कि हमारे अन्दर, हमारे हृदय में बसे श्री आत्मा-राम को हुए जागृत करना और उनके प्रकाश से हमारी बुद्धि को जागृत करना। हमारे मस्तिष्क को जागृत करना। सो कैसे होता है कि हमारे हृदय के अन्दर जो आत्मा है वो साक्षी स्वरूप बैठा हुआ सब चीज़ देख रहा है ।जिस वक्त कुण्डलिनी, जिसे आप गौरी माता कहते हैं, जब जागृत हो जाती है तो वो मस्तिष्क में भेद कर के यहाँ पर ब्रह्मरन्ध्र को छेदने के बाद यहाँ पर जो परमात्मा का वास है उसे आलोकित करता है। परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब हमारे हृदय में आत्मा स्वरूप है। जैसे ही हमारा आत्मा जागृत हो जाता है, तो इस आत्मा के चारों तरफ यह सात चक्रों के आलोक, सात चक्र के मंडल वो भी जागृत हो जाते हैं और ये सात चक्रों के जो पीठ हैं वो हमारे मस्तिष्क में है। क्योंकि वो भी जागृत हो जाते हैं। इसलिए यह सात मंडल भी हमारे हृदय में जागृत हो जाते हैं । यह मंडल जागृत हो जाने से ही हमारी जो नसें है, या हमारी जो ब्रेन है वो एक तरह से अति सूक्ष्म तरीके से खुल जाता है और उसके अन्दर शोषण करने की जो शक्ति है वह बढ़ जाती है । सत्य को शोषण करने की शक्ति बढ़ने से ही मनुष्य सत्य पे खड़ा हो सकता है। आज तक मनुष्य सत्य पे खड़ा नहीं हो पाया। सत्य को सुनता है, जानता है, देखता है पर उस पर खड़ा नहीं हो सकता है। सत्य को आत्मसात करने के लिए आत्मा की जागृती होनी चाहिए और वो आज सहजयोग में हो गई। सहज में ही हो गयी कहना चाहिए । जो इतने लोग आत्मा को प्राप्त हुए हैं। आत्मा को प्राप्त होने से वो शक्ति आपके अन्दर जागृत होती है। आपके अन्दर, जिससे आप सत्य को आत्मसात कर सकते हैं । जो आज डेमोक्रेसी का सत्य है वो सत्य आपके अन्दर जागृत हो सकता है माने की कौन है, दूसरा दूसरा कौन है? सब तो हम ही हैं। हमारे ही अन्दर सब कुछ है। अब आपको सामूहिक चेतना आ गई है। तो उसमें कम्युनिज्म का भी सत्य आ गया। जब आप के अन्दर ही आके वो सत्य आपही के अंदर प्रगट हो रहा आप उसको देखकर के जानकर के कह सकते है की “इस आदमी में कोनसे दोष हैं?” और आप जब अपने को जानने लग गयें,जब आप अपने को देखने लग गयें,आप जब अपनीही स्वतंत्रता को प्राप्त हो गये तो आपमें डेमोक्रेसी का भी जो सत्य है वो जागृत होगा।तो स्वतन्त्रता भी आ गई और एक तरह से पर का तन्त्र भी आप के हाथ में आ गया। दूसरों का जो तन्त्र है वो भी आप के हाथ में आ गया और आपकी स्वतन्त्रता भी आप (अस्पष्ट) क्योंकि अपना भी ‘स्व’ का तंत्र आपने जान लिया शिवाजी कहते थे कि ‘स्वधर्म’ ओलखावा। ‘स्व’का धर्म जानो स्व का धर्म जानो । ‘स्व’ का माने अपनी आत्मा का धर्म आप जानो और आत्मा का धर्म जो है कहने को तो स्व है लेकिन ये जागतिक है, विश्व का आत्मा है जो विश्व का आत्मा है, वही हमारे हृदय में बसा हुआ है। इसके जागते ही जो विश्व की भावना जिसको की हम एक बड़ा भारी उदात्त उदाहरण और उसको बहुत बडी फिलोसोफी समजते थे ,एक तत्त्वज्ञान के रूप में जिसे जानते थे, वो साक्षात हमारे अन्दर विराजमान है ।वो हमारे अन्दर चमक गया। हमें उसके लिए कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं, देखते ही साथ जान जाते है,ये कहाँ है,इनका क्या चल रहा है,उनका क्या मामला हैं । यहाँ बैठे -बैठे आप सारी दुनिया को जान सकते हैं । इसमें कोई बड़े भारी आश्चर्य की बात नहीं है । कोई विशेष बात नहीं अगर आप मेरे लिए कहेंगे तो मैं कहँगी कि मैंने तो कुछ किया नहीं क्योंकि मैं तो जैसी हूँ वो तो मैं हूँ ही, वो तो अनादि से ऐसे ही हूँ ।तो मेरी कोई विशेषता ही नहीं।विशेषता आप लोगों में है जो आपने इसे जाना, माना और पाया । लोकिन सहजयोग का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसका अन्त नहीं होता। ज्ञान तो हो गया, ज्ञान होना माने आपके नर्वस सिस्टम पे उसे जाना। ये तो हो गया।नर्वस सिस्टम पे आप जानते हैं की दूसरों को क्या शिकायत हैं और आपको क्या शिकायत हैं।ये तो ज्ञान प्राप्त हुआ। जो लोग उल्टे तरीके से चलते हैं वो सोचते हैं कि ज्ञान करना माने ये कि हमें बुद्धि से जानना है। बुद्धि से हमें जानना है बुद्धि से जानना माने क्या की हम किताबें पढ़ कर जान लेंगे या हम किसी गुरू के पास बैठकर जान लेंगे या किसी के उपदेश वुपदेश सुनने से हम जान लेंगे। वो नहीं जान सकते ज्ञान का मतलब है कि आपके नर्वस सिस्टम में इसे जानना।यहीं ‘ज्ञ’ शब्द हैं।ये ही ‘वेद’ हैं।यहीं ‘विद’ हैं बोध है। यही बुद्ध है।यानी आज आप बुद्ध हैं क्योंकि आपको बोध हो गया है।बोध होने का मतलब ये नही के किसीने बोध पिला दिया आपको हा भाई ऐसा करो ये करो वो करो और उससे पहले जो कुछ भी आपको बताया गया वो सब व्यर्थ ही हो गया।किसीने बताया हा साहब आप सबेरे खाना मत खाइए।श्यामको खाना खाइए।किसीने कहाये सबेरे खाइए श्यामको मत खाइए।कुछ ऐसी वैसी सब बाते चलते चलते लोग पहुंचे की साहब समझ में नहीं आता।कोई कहते सबेरे खाओं,कोई कहते रात को खाओं,कोई कहते ये करों,कोई कहते वो करों और कुछ बनता ही नहीं लेकिन जो बोलता हैं उसके तो कोई चरित्र में विशेषता नही आई।उसका तो कोई स्वभाव नहीं बदला।सो महावीरजी के इसमें अभी कल ही मुझे ये चीज मिली महावीर जी ने ये कहा हैं की पहले ज्ञान को प्राप्त करो तो सब जितने भी जैन लोग थे उन्होंने सोचा ज्ञान को प्राप्त करना मने किताबें पढो।ये पढ़ों,वो पढों,सम्यक ज्ञान,फलाना ढिकाना…सम्यक ज्ञान कहने से क्या सम्यक ज्ञान आना चाहिए क्या?वो तो अन्दर जाग्रति से आएगा ना! सम्यक माने इंटीग्रेटेड।जबतक आपके सारे इंटीग्रेट नहीं होंगे तबतक सम्यक ज्ञान नहीं आ सकता। तो उनका भी विचार जो था वो खतम कर दिया।पहले उन्होंने कहा ज्ञान आना चाहिए। अब ज्ञान में चल पडे।हमारे यहाँ एक से एक पंडित।मराठी में कहते हैं ‘पढ़त मुर्ख’।पढ़ पढ़ के मुरख बन गये। ‘पढ़ी पढ़ी पंडित मुरख भये’।सो वो निकलता ही नहीं खोपड़ी में से।जो सिखा हुआ तो इतना होता हैं की कभी कभी कोई पढे लिखे लोग आते हैं तो उनसे कहे आप ऐसा करिए आप दो दिन तक आप बोलते ही रहिये।जो कुछ भी आपकी खोपड़ी में हैं पहले आप मुझे बता दीजिये।खोपड़ी से निकल जायेगा तब फिर बात करें क्योंकि दुसरे ही सब घुसे हैं इनके सर में तो इनको कैसे घुसाया जाएँ?ये इस प्रकार हमारी जो बुद्धि हैं उसके चक्कर ऐसे चल पड़ते हैं की जो चीज बताई,जो लक्ष्य है उससे हट के,पहली चीज़ उन्होंने बताई वो है ‘ज्ञान’।ज्ञान प्राप्त होना।ज्ञान प्राप्त करने का मतलब क्या है? ज्ञान प्राप्त करने का मतलब होता है बोध। सो कैसे होगा? किसी ने ये नहीं पूछा कि ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? श्री कृष्ण ने भी साफ तरीके से नहीं कहा कि कुण्डलिनी का जागरण होना चाहिएवो जमाना नही था।सिर्फ अर्जुन से उन्होंने बात करी क्या दुनिया के लिए नही कही थी की अब लोग बैठकर के सबको गीता सुनाते सिर्फ अर्जुन के लिए कहा था। अर्जुन एक रीयलाइसड़ सोल था।उससे बात करी और नॉन रीयलाइसड़ से तो उन्होंने बात नहीं करी। एक अर्जुन से बात करी और वो सारे आप दुनियाभर को आप जिन्होंने कोई,जिनका रीयलाइज़ेशन नहीं हुआ जो अंधे है उनसे आप बताये की हाथ में आपके सांप है छोड़ दीजिये।आप छोड़ दीजिये।कभी नहीं छोड़ सकते।तो शुरुवात ही नही हुई।किसी चीज की अभी शुरुवात ही नही हुई जब शुरुवात हुई तब आपने देखा की हा ठीक है आँख खुलते ही बापरे हाथ में सांप है आपने छोड़ दिया।उलटे लोग सांप ही को पकड़े रहे,जब तक अन्धापन है, अन्धेपन का मतलब है कि बोध नहीं है आपकी नसों में, अभी तक वो सामूहिक चेतना का बोध नहीं आया, जब तक ये बोध एक नया आयाम ,एक नया डायमेंशन है ,ये जबतक आपके अन्दर जागृत नहीं हुआ कोइसा भी सत्य सुनने के लिए बड़ा अच्छा लगता है।एंटरटेनिंग जिसको कहते है।बड़ा मनोरंजक होता है । लेकिन वो घुसता नही अन्दर।वो बहता नही अन्दर।सुनने के लिए लेक्चर सुन लेंगे और जाकर के जब वो ख़त्म हो जाएगा फिर जहाँ थे जैसे थे!अब पहिली चीज जो बोध की थी तोबोध के बाद ही आपका चरित्र अपने आप बनता है । उसमें भी इन्होंने गड़बड़ कर दी की । चरित्र बनाओ, चरित्र बनाओ चरित्र बनाने में भाई उनका भी चरित्र बनाओ। किसी ने कहा अच्छा पगड़ी बाँधो, किसी ने कहा काशाय वस्त्रपहनो, किसी ने कहा की बोदी रखो। किसी ने इसाइयों ने कहा की वो इस तरह से हैट पहन के घुमो । पता नहीं क्या-क्या? अब वो सब कर रहे हैं। सारे कर्मकाण्ड कर ड़ाले और देखा कि नर्क की ओर घुसे चले जा रहे हैं । सब कर्मकांड करके।सब नरक की ओर रास्ता बना चला जा रहा है।कोई,कोइसा भी ऐसा धर्म मैंने आज तक नहीं देखा की जो स्वर्ग की ओर आरोहन हो रहा हो।सभी नरक की ओर सीधे चले जा रहे है ।ईसाईयों से कहा “भाई तुम लोग शराब क्यों पिते हो?” तो कहने लगे “क्यों साहब शराब में क्या खराबी है?ईसामसीह ने शराब बना कर के और लोगों को पिलाई थी।”मैंने कहा कब बनाई थी।कहने लगे, “एक शादी में गये थे वहाँ लोगों को उन्होंने वाइन पिलाई थी” । अब हिब्रू भाषा में वाइन कहते है –अ इसके रस को अपने-द्राक्ष के रस को –अंगूर के रस को कहते है वाइन।हिब्रू भाषा में ।अब सोचिये ,ये अकल लगाने की बात है सोचिये एक क्षण में अगर कोई चीज बन जायें वो कैसे अल्कोहोल हो सकती है ?वो शराब कैसे हो सकती है?अल्कोहोल को तो सडाना पड़ता है ।बगैर सडी –सड़ी हुई चीज होती है ना अल्कोहोल।सडाहुआ अंगूर ही बना सकते है ना।सड़ने के लिए तो टाइम चाहिए।उन्होंने तो ऐसे हाथ रखा और दे दिया।जैसे आपके माँ के साथ भी हुआ अभी हम रोम गये थे। तो वहाँ जिस गव्हरमेंट ने काफी मदत की और उन्होंने कहा के आप इनका ब्रोडकास्ट करिए तो जो डायरेक्टर साहब थे उन्होंने कहा की, “पहले आप हमे रेअलायजेशन दीजिये।तब हम भी आपका सब करेंगे।” मैंने कहा अच्छा चलो।तो हमने कहा पहले पानी मंगाओ।हमने पानी में हाथ फेरा।तो उन्होंने पिया तो कहने लगे “ये पानी है क्या ?” मैंने कहा “हाँ,क्यों?” “नहीं ये तो वाइन जैसे लग रहा है।”बार बार पूछे ये पानी तो नही ये वाइन तो नहीं (अस्पष्ट) मैंने तो पानी ही दिया।फिर पिये। फिर वो कहें बार बार।फिर उन्होंने अन्नौंस भी किया।उसके बाद उनके टीवी में भी उन्होंने कहा की,“साहब उन्होंने मुझे पानी में हाथ डालके दिया तो वो वाइन के जैसे टेस्ट लगने लगा पर वाइन माने शराब के जैसे नहीं।अंगूर के रस जैसे।तो बना लिया।अब वो जब क्राइस्ट के बारे में बात करेंगे तो ऐसा लगता है की वो कोई शराबखाने के इन्चार्ग थे की क्या।उसी प्रकार हरएक धर्म में है।अब सिख धर्म में बताया गया की आप अपनी रक्षा के लिए किरपान रखिये।इसलिए की उस वक्त उनपे हर तरह के अघात होते थे तो अब वो बन्दुखे और तोफगोले और दुनियाभर की जितनी भी हिंसाकारी चीजे है याने हिटलर को वो आजकल पूजा कर रहे है।नानक साहब नहीं कहते थे।हालाँकि नानक साहब ने ये भी नही कहा था,लेकिन पूरा भी देखा जाये तो कही नहीं कहा गया था की आप तोफखाने रखिये।ऐसी कोनसी आफते आप पर आई।जिस वक्त आफत थी तो उन्होंने कहा था की सिर्फ किरपान रखलो भगवान के नाम पर काफी है।और किसीने चलाया नही किरपान।किसीने चलाया नही था।रक्षा के लिए सिर्फ एक प्रतिक रूप से उन्होंने कहा था। पहले तो जब हम छोटे थे तो सिख लोग इतना सा छोटा सा रखते थे किरपान।इतना छोटा सा।अब देखती हूँ साइझ बढ़ते बढ़ते।जैसे जैसे दिन दिन बढ़त सवायो आजकल ये हालात है की तोफखाने रखे हुए है।ये इतनी हमारी तो जितनी उमर हुई है इस उमर में हम भी देख देख के हैरान है की ये इसका साइझ इतने बढ़ते बढ़ते इतना बढ़ा कब हो गया।अब उन्होंने कहा था की कंगा रखो।कंगी तो छोटी होती होती इतनी हो गयी है।दिखाई भी नही देती।और ये तोफखाने जो हैं इतने लंबे लंबे हो गये।तो ये बुद्धि के चक्कर जो है हमेशा गलत चीज में क्यों जाते हैं क्योंकि मनुष्य की चेतना हमेशा निचे की ओर जाती है।लेकिन सहजयोग के बाद आपको चरित्र अपना बनाना ही पड़ता है ।अब कोई कहेगा नहीं साहब हम तो नही बनायेंगे।चल नही सकता। अपनेआप बनते जायेगा।आपकी कुण्डलिनी आपको बनाते जाएगी।धीरे धीरे धीरे धीरे आपको वैसे बनना ही पड़ेगा।वो कहेगी की अच्छा नही बनते हो इस तरह से।वो टेढ़ी ऊँगली घी भी निकाल लेंगी और आपको इस तरह से बनाके रख देंगी की आप कहेंगे की, “हर गये बाबा !जो कहो सो” एक साहब थे तो वो उनका दुसरे दिन ही शराब वराब सब छुट गया तो उसके बाद वो गये जर्मनी।उन्होंने कहा थोड़ी सी चख तो ले।यहाँकी मुझे बड़ी पसंद थी वाइन।क्या लगती है।वो कहते है की “मैंने जो पिया तो माँ इतनी मुझे उल्टियाँ आई।” मैंने कहा,“क्यों?”कहने ऐसे लगे की, “मैंने जैसे कोई सडा हुआ बुच खा लिया।” “तुमने सडा हुआ बुच कभी खाया था क्या ?” तो कहने लगे, “नहीं,हमलोग डॉक्टर है ना,तो कभी बुच खोलते है तो उसकी स्मेल जो आती है मैंने सोचा वो सारा मैंने खा लिया और उलटी पे उलटी उलटी पे उलटी कहने मेरे तो खून निकल आई इतनी उल्टियाँ आई।”मैंने कहा, “कान पकड़े।आज से कभी नही छुऊंगा ये शराब।” मैं तो कुछ नही कहती,ना मैंने उलटी करवाई।आप ही स्वयं साक्षात् सत्य पे खड़े है।उसे मै क्या करू?गर आप स्वच्छ हो जाये तो उसके बाद कोई गन्दगी आपको अच्छी नहीं लगती।अपनेआप ही चीज घटित होने लगती है।शुरू में भुत तकलीफें होती हैं।कुछ कुछ लोगों को तो बहुत ही परेशानी होती हैं।इसमें आने में किसीमें इगो आ जाता हैं तो वो अजीब सा कूदने लग जाता हैं।मै देखती रहती हूँ क्योंकि अभी तो अच्छे बैठे थे और अभी बन्दर के जैसे कूदने लग गये।फिर किसीमें देखती हूँ की एक तरह की बड़ी दुष्टता आ जाती है,किसीमें बड़ा गुस्सा आ जाता है पर धीरे धीरे धीरे धीरे वो मुलायम होते जाते है और चीज संभलती जाती है।वो कैसे बनती है,क्या बनती है,मैं आपको नहीं बताऊँगी । लेकिन वो बनती है क्योंकि बताने पर आप लोग घबरा जाएंगे। उसके तौर तरीके जो हैं बहत नाजूक हैं । लेकिन हैं बड़े कठिन । जैसे कि हम लोग कभी नहीं सोचते हैं कि किस तरह फूल खिलते हैं?किस तरह से उसके साथ काँटे आ जाते हैं? किस तरह से पेड़ बनते हैं? कैसे सुन्दर सुन्दर पत्तियों के आकार विकार बनते जाते है? ये हम कभी नहीं सोचते । जब होता है तो देखते हैं “आहा कितना निसर्ग सुन्दर है!इतने निसर्गरम्य स्थान में हम आ गये!’सब ये सोचते रहते है लेकिन ये नहीं सोचते की ये कैसे बने होंगे?कोनसी शक्ति ने ये बनाया होगा?किस सुन्दरता से ये बनाया होगा?और उसके पिछे कितनी स्फोटक,कितनी भयंकर शक्ति भी हो सकती हैं।उसमें कुछ ऐसी भी चीज हो सकती हैं जो इस चीज को बनने को रोके तो उसको घात करनेवाली भी होनी चाहिए।ऐसी कोई न कोई शक्ति और भी उसके साथ जुटी हुई है जो हर समय उसकी सुरक्षा के लिए और रक्षण के लिए खड़ी है।अनेक स्थल पे आपको इस तरह के अनुभव आपको आते रहेंगे।आपके चरित्र में (अस्पष्ट) एक साहब थे उन्होंने सहजयोग के बाद सब कुछ छोड़ दिया लेकिन सिगरेट छुटी नहीं।तो एक दिन वो मोटर में जा रहे थे कुछ और लोगों के साथ।वो सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट पीते पीते उनका मोटर में अक्सिडेंट हो गया । किसी को कुछ नहीं हुआ। उनका कुछ नहीं हुआ। उनकी सिर्फ ये अंगुली जो विशुद्धि की थी थोड़ी सी काट दी। तब वो समझ गए बात क्या है। इस प्रकार धीरे धीरे चीजों से,शिक्षाओं से आप सिखते है कि ये हमारा चरित्र जो है जरा इधर उधर जा रहा है, मोटर जो है वो जरा सी सीधे रास्ते पर नहीं है, जरा कुछ इधर उधर फिसल रही है। फिर आप ठीक कर लेते हैं। करते-करते ऐसी दिशा में आ जाते हैं कि आप दोनों ही चीज ,अक्सलेटर और उसका ब्रेक दोनों ही चीज के माहिर हो जातें है ।मास्टर हो जाते हैं । वो मास्टरी जब आ गई तब समझ लेना चाहिए कि आप ड्रायवर हो गए। अभी सिर्फ मास्टर होने के लिए आपको निर्विकल्प में उतरना चाहिए।जब आप निर्विकल्प में उतर जाते हैं तब आप गुरू महाराज हैं। मैं आप सबको खुद नमस्कार करती हूँ। सब आप लोग गुरू हो जाएंगे अपने ही गुरुत्व करके अपने ही को सिखाकर अपने ही को समझाकर। आप गुरु ऐसे वेसेही नही हुए है।दूसरों को सिखाना बहुत आसान है। लेकिन जिस तरह से हमारे कॉलेजेस में पहेले टीचर्स के पास हम पढ़ते है, फिर प्रोफेसर्स से पढ़ते है,मेहनत करते है फिर हम गुरु होते है तो इसी प्रकार सहजयोग में भी पहले अपनेही ऊपर उसका सब अनुभव करके,उसका पूरा प्रयोग,एक्सपेरीमेंट करके फिर हम गुरु होते है और जब हम गुरूत्व को आ जाते हैं तब फिर हम जानते हैं सबका कि हाँ हम भी ऐसे ही थे तुमको हम जानते हैं । हाँ, हाँ ऐसे ही हमारा था, ऐसा ही था । यही मामला था । हम सब जानते हैं। तब फिर बहुत आसान हो जाता है।फिर आप गुरू हो जाते हैं और इसको कहना चाहिए कि सहज का जो चरित्र बनना और सहज में ज्ञान को प्राप्त होकर के उसमें(अस्पष्ट)। ये चीज़ जब तक नहीं आती है तब तक मनुष्य में उसकी विशेषता नहीं आती। लेकिन अब आप देखते है जिस वक्त आप गुरू हो जाते हैं तब आपको पता होता है कि अभी हम में कमियाँ है और तब आपको कोई न कोई तपश्चर्या करनी पड़ती है और वो तपश्चर्या का मतलब ये नहीं कि आप कुछ,उस में भूखे मरिये, ये तो माँ कभी नहीं चाहेगी, क्योंकि माँ को दुःख देना है तो आप भूखे रहिए। भूखे रहने कि कोई जरूरत नहीं। भूखे रहना बिलकुल जरूरी नहीं है।हाँ, अगर आपको नहीं खाना हो तो नहीं खाइए,वह दूसरी बात है पर परमात्मा के नाम पर आपको कोनसा तप करना चाहिए?कोनसे तप से आपको चलना चाहिए?परमात्मा के नाम पर एक ही तप करना चाहिए माने ये कि आपको अपनी स्थिति निर्विचारिता में बनानी चाहिए । ध्यान धारणा से आपको अपनी सफाई करके अपनी स्थििति आपको निर्विचारमय बनानी चाहिए। निर्विचार में जब आप आ जाते हैं तभी आपका ये जो ये पौधा है, वह बढ़ता है । इसलिय बहुत से लोग कहते हैं,’माँ हमसे ध्यान नहीं होता ।’ तो भैया आधे ही रह जाओगे । ध्यान रोज करना होएगा। जब तक ये तपश्चर्या नहीं की जाएगी, तब तक आप पूरी तरह से प्रकाशमय नहीं हो सकते । तब तक आप दर्शन जो उन्होंने कहा हुआ है उस दर्शन को प्राप्त नही कर सकते। तब तक आप हमें भी नहीं समझ सकेंगे। तब तक आप बिल्कुल नहीं हमें समझेंगे क्योंकि जब तक आप में त्रुटियाँ रहेंगी तब तक आप उन त्रुटियों के झरोखे से देखेंगे। जैसे कि अगर कोई नीले रंग का आप अपने आँख पर परदा बांधले तो हम आपको नीले ही दिखाई देंगे , पीले रंग का बांधे तो पीले ही दिखाई देंगे। और इसी प्रकार कोई भी विकृति आपके अन्दर होएगी तो उसी तरह हम आपको नजर आएंगे। हम आपको जो असलियत में नजर आएंगे ही नहीं ।वो एक हमारा तरीका ही है । तो इसलिए ये चार चीज़ों को आपको इस नवीन वर्ष में सोच लेना है कि अब हमारे पास ज्ञान प्राप्त हो गया है। हमें अब इसे अपना चरित्र बनाना है। और चरित्र बनाने के लिए हमें ज्यो तप और ध्यान करना है। वो हमें करना है किसी भी हालत में । लोग कहेंगे कि साहब हमारे पास समय नहीं है, लेकिन ये बात नहीं। इंग्लैंड जैसे शहर में जहाँ इतनी ठण्ड रहती है, लोग चार बजे उठके, नहा करके ध्यान करते हैं । लेकिन हिन्दुस्तान में लोग कहते हैं, ‘अच्छा, अगले साल करेंगे, अगले साल करेंगे।’ और जैसे-जैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते है तो सोचते है ‘अरे क्या जरूरत है? हम तो कैलाश की तरफ बैठे हुए है। हमको क्या जरूरत है? दक्षिण वाले करते रहें मेहनत , हम तो उत्तर में बैठे हैं ।’ उत्तर प्रादेशिक क्षेत्र जो है तो जितने भी लोग उत्तर में बैठे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि हालांकि कैलाश उत्तर में है, लेकिन दृष्टि उनकी दक्षिण में है । इसलिए उनको दक्षिण-मूर्ति कहते हैं। इसलिए चाहिए कि आप लोग भी अपनी ओर उनकी दृष्टि लायें । उनकी दृष्टि आपकी ओर लाने के लिए थोड़ी सी योग्यता होनी चाहिए और उस योग्यता में शुद्ध इच्छा होनी चाहिए।यही गौरी स्वरूपा कुण्डलिनी, आपके अन्दर जो शुद्ध हुए इच्छा है, उसको आपको जागृत करना है।जो चीज मिसिंग है हमारे यहाँ। जिसके बारे में हमें सतर्क होना है । उसे कहते है डिसिप्लिन। दुनिया भर के कायदे कानून हमें आते हैं। आदबज कैसे कहना और ‘आप आइये हमारे गरीबखाने’ जैसे कहेना। लेकिन ये चीज हमें नही आती है की अन्दर का जो डिसिप्लिन है वो हमें लाना है। अंदर का डिसिप्लिन।वो इसलिए नहीं आया है की गंगा यहाँ बहती है।गंगाजी के किनारे रहते है तो हमको कोन छु सकता है?जिस देश में गंगा बहती है,हम उसके बासी है।अब हमको कोन छु सकता है?इस तरह की अहंकार की भावनाओं से मनुष्य का जो डिसिप्लिन का पार्ट है वो चला गया। वो बहुत जरुरी है हमारे यहाँ बहेना। और दूसरी चीज यहाँ राजकीय आंदोलनों की वजह से -जो की आजकल बहुत ज्यादा बढ़ गये है-नजाने कितनी पार्टियां हो गयी है,रोज ही ये देखती हूँ।आज ये एक पार्टी आ गयी है।जब मै आती हूँ तब पूछती हूँ के “भाई कितनी पार्टी हो गयी ?सब बतादो मुझे तो कुछ समझ में नही आता।” परसों एक साहब मिले तो वो पूछने लगे की, “आप कोनसी पार्टी में है?”मैंने कहा, “भाई मै तो किसी पार्टी में नही हूँ।तो कहने लगे, “मैं फलानी में हूँ।” तो मैंने कहा, “अच्छा ये किसकी पार्टी है मुझे बता दीजिये मुझे तो।मैंने तो कान पे भी नही सुना की किसकी पार्टी है।” तो उन्होंने कहा, “पहले वो पार्टी थी,फिर उसकी ये पार्टी हुई,फिर उसकी इतनी पार्टीयाँ हुई।करते करते सोलह पार्टी पे आया,फिर उसमें से एक वो है।” मैं कहा, “नमस्कार! मुझे ये ज्ञान नहीं था सब चीज का।” तो ये सब चीज होने से हम भी पार्टीबाज होते है और आज जो दूसरा दिन है वो बड़ाही सुन्दर है।आपसे पहले ही मैंने बताया था की हमें हमें अब भाई बहन का रिश्ता तो समझ में आ जाता हैं लेकिन भाईचारा का नहीं।भाईचारे का रिश्ता कम है।बहनचारा और भाईचारा ये चीजे कम हैं।लोग कहते हैं कि अगर दो औरतें कहीं रहे , वो चाहे बहनें हो, रह ही नहीं सकती लेकिन मैं तो मर्दों को देखती हूँ वो भी कुछ कम नहीं है । अब इनकी लड़ाइयाँ और तरह की होती हैं, औरतों की दूसरी तरह की होती है। आदमियों की लड़ाईयाँ जब शुरू होती है तो कुछ समझ ही में नहीं आता है कि इसका स्वरूप कहाँ से पैदा हुआ है कुछ अजीब सा ही है।जैसे की ये अब एक साहब आये और कहने लगे की, “माताजी अब ये मुझे बड़ा प्रश्न हो रहा है की ये जो साहब आये है ये साहब सहजयोग में तो आये लेकिन ये तो थोड़े दिन हुए आये।अब आये तो ये कैसे इतना बोलने लग गये सहजयोग का ?” भैय्या अब उनको ज्यादा समझता है तो बोलने लग गये तो उसमे क्या हर्जा है?आपको क्या ऑब्जेक्शन है?आप भी बोलिए।आप बोलते क्यों नहीं?अब वो सब ऑर्गनाइस करने लग गये और हमें तो कोई चांस ही नहीं मिला।आप करिए ना।आप भी करिए।सब कर सकते है।ये आदमी का तरीका है।औरत का और है;की देखिये वो गाना गा रहीं थी और हमको गाने को चांस ही नही दिया । दोनों पशोपेश में है मेरे लिए । तो मैं ये सोचती हूँ अरे भाई , हम बात कर रहे हैं आसमान की और आप बात क्या कर रहे हो। हम कर रहे हैं कि जाके आपको सितारे बना कर आकाश मैं चमकाएं और आप लोग मिट्टी के दिएँ के बराबर भी बात नहीं बात करोगे तो फिर मै क्या आगे बोलू?मै तो अवाक रह जाती हूँ जब मैं ये बातें सुनती हूँ, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है की ये मेरी गर्दन खिंच रहे है,वो मेरे दबा रहे है,वो वहाँ जा रहे है,वो ऐसा कर रहे है। सबसे पहली बात है माँ को खुश करने के लिए कि सबसे पहले आपस में आप भाईचारे से और बहनचारे से रहें । ये सबसे प्रथम चीज आपको मेरी कहने की है की मेरे लिए आपको अगर वाकई आनन्द देना है तो पहले भाईचारे से। अब सहज योग का भाईचारा जैसे तो चलता है? वो इस प्रकार कोई आया आते ही साथ,तेरे भूत लग गया तू जा। वो मेरे पास आया, माँ, मेरे को भूत लग गया।’ मैं कहती हूँ तुमको किसने बताया ? ‘वो गया था मै, उन्होंने बताया कि तुमको भूत लग गया है। माँ, मेरा भूत निकालो।’ मैंने कहा तुम उन्हीं को कह दो तेरे भूत लग गया। तुम्हे कोई भूतवूत नहीं लगा । काहे मेरे पीछे पड़ा है ? ‘नहीं, उन्होंने बता दिया मुझे भुत लगा है।’ दूसरा आएगा तो कहेगा कि माँ, जो देखो वो ही मुझे कहता है की तेरा ये चक्र पकड़ रहा है।माँ मेरा ये चक्र पकड़ रहा है? अरे, मैंने कहा भाई, तुम क्यों उसको कहते हो?तुम ऐसा करो,की उसे बताओ की भाई तुम्हारी जागृति करलो, धीरे धीरे सेंसिटिविटी आ जाएगी तो तुमको खुद ही पता हो जाएगा।तुम क्यों उसके पीछे पडे हो की तेरे ये भुत लगा,तुम्हारे वो भुत लगा,तुमको ये चक्र पकड़ा,तुमको वो चक्र पकड़ा।दुसरे ये की आप लोग सहजयोगी हो के नजाकत के नमूने!की अगर एक गर भुत आ गया तो सरे के सरे सहजयोगी भाग खड़े हो गये।अरे पूछा कहा भाग रहे हो तो कहने लगे की भुत आ गया।साहब मै तो भुत की बात ही नही करनेवाली थी।शुरू से मैंने तय किया था की मै भुत के बारे में कहूँगी नहीं लेकिन जब अमेरिका गयी तो एक देवीजी ऐसी थी की जब वो मेरे पास आई तो उनसे मैंने कहा की, “देखो तुम्हारे गुरु बड़े ऐसे दुष्ट थे और तुमको कुछ न कुछ सिद्धि देंगे तो उनसे बचके रहेना” ।जब लौट के आई तो देखती हु की देवीजी के यहाँ तिन तिन हजार-चार चार हजार आदमी आते है।उनके यहाँ चांदी के बड़े बड़े घड़े बने हुए है उससे उन्होंने मेरे पैर धोये।उनके घर ले गयी और सब दूर देखती हूँ भुत बैठे हुए है।तो मैंने कहा भाई ये क्या कर रही हो तो लोगोंने बताया की, “ये तो घोड़े का नम्बर बताती है और ये पैसा किसीका गया तो वो बताती है और मरती है लोगोंको हाथ में चाबुक लेके लोगोंको।” मैंने कहा, “माई तुम घर पे आओ।”उसको घर पे बुलाया।तो मैंने कहा, “अछा बताओ इनके बारे में बताओ,उनके बारे में बताओ।” जो बताया सो झूठ।तो घबडा गयी।कहने लगी, “माँ आपने मेरे सब क्या शक्तियाँ ले ली?” मैंने कहा , “तुम्हारी अपनी शक्तियाँ तो सर आँखों पर लेकिन ये तो किसी और की शक्ति थी जो भाग खड़ी हुई मेरे सामने।” लेकिन, “मुझे तो परम चाहिए।” मैंने कहा, “अच्छा ठीक है! तिन बार बोलो।परम चाहिए !परम चाहिए !” लेकिन वो पोपुल्यारिटी क जो भुत चढ़ा हुआ था उनपर तो फिर जाके वो ही बन गयी।अब पागल खाने में बैठी है।तो कहने का मतलब ये है की आपलोग अपने को इतने शक्तिशाली बनाइये कि भूत बाहर भागते फिरे । आपने देखा कि एक सहजयोगी आ रहा तो सारे भूत दिल्ली से उठके भाग खड़े हुए। हजारों की तादाद में भाग जाएंगे। लेकिन आप तो शक्तिशाली होईये । आप तो भूतों से डरते हैं तो और आप के खोपड़ी पे बैठेंगे नहीं तो क्या होगा। एक भूत वाला आदमी आ गया की सारे के सारे दबक के चले गये।(अस्पष्ट)वो भूत वाला अन्दर आ गया।तो ये भाईचारे की बात है। अब इसका कारण क्या है ?हम अशक्त क्यों है? क्योंकि हमारे अन्दर संघशक्ति है। इसलिए बुद्ध ने कहा है ‘संघम् शरणं गच्छामि । ‘ संघ की शक्ति हमारे अन्दर आनी चाहिए। हम सब जैसे भी हैं वो सब मिलकर के (अस्पष्ट)। आपने तो कितने किस्से सुने होंगे की संघ से कितन लोगों ने कार्य करके दिखाएँ।एक चिड़ियाँ के बारे में आपने सुना होगा की बहुत सी चिड़ियाँ थी और वो एक जाल में फँस गयी।उन्होंने सोचा की हम लोग अगर सब मिलकर के पंख पसारे तो इस जाल से हम विमुक्त हो सकते है।इसको उड़ के हम ले जायेंगे।और इस तरह से उड़ के चली गयी और फिर उन्होंने चूहों से कहा की भाई तुम हमारी अगर मदत करो तो हम इस जाल से छुट जायेंगे।तब सब चूहों ने मिलके उनको काट दिया और इससे वो छुट गयी।इसीप्रकार हमको भी सोचना चाहिए की गर हम अपनी संघ शक्ति को बढ़ा लें तो कोई भूत यहाँ आएगा ही क्यों ? वो तो पहले ही भाग जाएगा । एक नहीं हजारों उठके उनके कारवाँ के कारवाँ यहाँ से उठ जायेंगे लेकिन हमारी संघ शक्ति कम है । इसलिए हम कमजोर हैं । हम यह नहीं सोचते की सहजयोग बढ़ रहा है¡।तो दो हाथ लगायें।सहजयोग बढ़ रहा है,वो बढ़ा रहे है।चलो उनको काँटों।वो फलाना है,उनके खिलाफ चिट्ठी लिखो।माँ को तुम,माँ का सर इसीमें निकल जाता है गर आप चिट्ठियाँ पढ़े तो हैरान हो जाये।सात सात सफे की चिट्ठियाँ आती है ये बताने के लिए की वो जो काम कर रहे है वो भुत है।अब मुझे कुछ समझ में आता है की नही की कोन भुत है और कोन नहीं।लेकिन इस तरह की ये जो हमारी बाते हो रही है सहजयो में के इनके वायब्रेशन अच्छे नही,उनका ये नहीं।मैंने कहती हूँ की हजारों ऐसे लोग यहाँ आ जाये तो भी आपको डरने की कोंसी जरुरत नही।हमारे यहाँ महाराष्ट्र में एक धुमाल नाम के साहब है तो मुझसे कहने लगे, “तुम लोगोंको भुत कहांसे पकड़ते हैं?तुम भुत को पकड़ो।तुमको भुत कैसे पकड़ते है?”तो एक बार हमारे यहाँ वहाँ पे राहुरी में एक आदमी आया।उसके पछाड़ा हुआ था।तो वो जब उसमें आया तो बोलने लगा ये, “ये तिन तिन सहजयोगी उस रस्ते से जाते हैं।वोही हम लोग रहते है तो इनसे कहिये की वहाँ से न जाएँ,नहीं तो हम लोग जाकर रहें कहाँ?”ये तिन सहजयोगी वहाँ से जाते है उनके ऊपर उन्होंने कहा की वोही उस पेड़ पे रहते हैं गर ये लोग वहाँ से जाएँगे हमलोग कहाँ रहे?तिन सहजयोगियों की ये कमाल है तो आप इतने सहजयोगी है और अगर हैं तो किसकी मजाल है किसी सहजयोगी के पास भटक जाएँ।अपनी जो संघ शक्ति है वो बढाइयें। अन्दर जो भी डर है उसको हटाईए। डर से आप लोग लेफ्ट साइड में चले जाते हैं भूत से बाधित हो जाते हैं।डरना किससे है?डरने की कौन सी बात है। बहुत सा हमारा झगड़ा खत्म हो जाए अगर हम किसी से डरे नहीं। आपस का झगड़ा अगर खत्म हो जाए अगर हम उस आदमी से न लड़े।आपस में ये डर लगा रहता है कि हमारी पोज़िशन खराब हो जाएगी । यहाँ कोई पॉलिटिक्स तो है नही यहाँ कोई पोजीशन है नहीं आज की कोई प्राइम मिनिस्टर बननेवाला है , की कोई डिप्टी प्राइम मिनिस्टर बनने वाला है की कोई मिनिस्टर बदलनेवाला है की जो सब हालत अपनी अपनी कुर्सी संभाले बैठे हैं । यहाँ तो सबकी कुर्सी जमाने का काम है । जिसजिसको आसन दिया है,वो आपका आसन जमाने का कार्य होनेवाला है । तो भाईचारे से जब जमनेवाली हैं तो क्यों भाईचारे में रहे? पिछली मर्तबा मैं सबसे मजाक कर रही थी। मैंने कहा था कि आप किसको भाई बना रहे हैं बताओ। अब छोड़ो बहाने तो बहुत बन गयी अब भाई बनाओं और बहनों को चाहियें की अपनी भी सहेलियां बनाओं। पहले बड़ी सहेली का बड़ा महत्त्व होता था। आजकल सहेली तो शब्द रहा ही नहीं गया। कोई भी स्त्री से पूछो, “भाई तुम्हारी कोई सहेली है?” “मेरी कोई सहेली वहेली नही।”मैंने कहा, “क्यों?क्यों सहेली नही है?” “बात ये है आजकल के जमाने में कौन सहेली को पाल सकता है?” और इसलिए औरतों में पटना माने असंभव बात है। दो औरतें अगर हों गयीं तो मेरा तो सर गया। मुश्किल ये हो जाती हैं न जाने कहाँ से इनको सब खराब बातें मिलती हैं फिर दूसरी बात ये भी होती है की पुरुष का तरीका जो होता है वो बड़ा खुला होता है लेकिन कभी कभी बड़ा ही स्फोटक होता है।उनके तौर तरीके से कभी कभी बड़े ही नुकसान हो सकते है ।लेकिन स्त्री का तरीका बडा अन्दर से घुसता है।जैसे अभी एक आई तो हमें कहने लगी की, “एक सहजयोगिनी आई थी।तो वो हमसे बता रही थी की ऑस्ट्रेलिया में एक लड़की की जिसकी शादी हुई थी,उसने अपने हसबंड को छोड़ दिया।” मैंने कहा, “ये,और जो इक्कावन शादियाँ हुई थी,जो अच्छेसे हुई वो कोई खबरबात नहीं है।” माने वो न्यूज़पेपर का जो तरीका है ना जो कुछ खराब है वो बिलकुल पहले लाइन में बड़े बड़े अक्षरों में लिखें।फिर वो इधर जाएंगी, ‘देखा तुमने सुना,वो जो फलानी उसकी शादी हुई थी वो शादी टूट गयी।’ अरे भाई इक्कावन शादी हुई थी वो ठीक हो गयी।तुमने कहाँ से सुना?फिर वो जाएगी दूसरी जगह , ‘तुमने सुना?ऐसा हुआ’कोई ये नही कहता ‘भाई कोई कहियो रहिये प्रभु आवन की’ कोई प्रभु के आने की बात भी करो ।वो नहीं।ये सब बाते है की ये गलत हो गया।”तुमको पता है की उनका उनके साथ हो गया।अरे मैं तो दंग होकर रह गयी ये कैसे हो गया ?”इस वजह से आपस में स्त्रियों को बड़ा भय है।डरती है की कैसे इनसे कहा जाएँ?गर घरमें कोई चीज बनायें तो छुपाके रख देंगी।ये देख ले तो इनकी नजर न लग जाएँ।आपस में डर शुरू हो जाता है और ये जो है इस डर से इतनी ज्यादा स्त्रियाँ जिसको कहना चाहिए की जिसको कहना चाहिए की विपदग्रस्त है।विपदग्रस्त है।हर समय परेशान रहती हैं।उसको आप छोड़ दीजिए । एक दूसरे पर भरोसा रखियें।एक दुसरे को ट्रस्ट करियें।एकदुसरे को ट्रस्ट करना सहजयोग का नियम है। अब देखिए कि इतना रूपया इकठ्ठा होता है सहजयोग में । हम लोग भी बहुत सा रूपया देते हैं उसके ट्रस्ट है। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने कभी भी ट्रस्ट का हिसाब नहीं देखा। आज तक मुझे ये भी नहीं मालूम कि कितना पैसा है।मैं बहरहाल हमारे भाईसाहब आजकाल चार्टर्ड अर्कौंटंट है। मैं उनसे कहती हूँ तुम देख लो तुम्हें क्या करना है। वो मुझे आ कर के कहता है, “अरे क्या कर रहे हो । इतने कंजूस लोग हैं कि एक भी पैसा नहीं खर्चा करते और तुम्हारे सहजयोगी इतने कंजूस क्यों हैं? इनके ऊपर में इनकम टैक्स आ जाएगा ।”मैंने कहा, “इनकम टैक्स को भी हम सहजयोग में लेके आयेंगे।” तो सहजयोगी कहते हैं कि खर्चा कहाँ करें कोई बन ही नहीं रहा खर्चे का तो । मैंने कहा, “कुछ इन्तजाम करो ।कुछ खर्चा करो जिससे ठीक हो जाए।“ लेकिन आपसे कह रहीं हूँ के भरोसा। लोग मुझे कहते थे कि, “देखिए माँ आपको देखना चाहिए हिसाब।“ मैंने कहा मेरे कभी मैंने हिसाब किताब आता ही नहीं। मैंने देखा ही नहीं। जो होना है होने दो लेकिन कभी एक पैसा इधर से उधर नहीं हुआ। कोई गड़बड़ नहीं होती ।इस हिन्दुस्थान में यहाँ पर आप किसीको पूछो की, “ भाई जमीन मिल जाएगी?” “नहीं,वो पैसा खता हैं।” वहाँ गये, “वो हो जायेगा काम?नल मिल जायेगा?”तो कहने लगे, “वो पैसा खता है।”जो सो पैसा खाता है।मैंने कहा, “कुछ खानावाना खता है की पैसा ही खता है?” सभी लोग पैसा खाते रहते हैं।तो ऐसी हालत में भी सहजयोग का एक पैसा भी इधर से उधर नहीं होता।एक छदाम इधर से उधर नहीं।हमारे भाई खुद हैरान है की ‘हमने तो ऐसे कई भी चार्तंड अकाउणटन्सी इतनी करते है हजार जगह। ना कोई गोलमाल है,ना कुछ है।सब कायादेकी चीज चलती है।’ये कहाँ से आया?इतनी ईमानदारी कहाँ से आई?ये कहाँ से आया?ये एक अपनेआप चरित्र अंदर बन रहा है और दूसरा ये माँ का भरोसा है। माँ का विश्वास है । इसी तरह आप एक दूसरे पर विश्वास करिये। एक दूसरे की गलतियों को मत देखिये।उसको बढ़ा चढ़ा कर मत बताइये । दूसरों की आप अच्छाइ बताइये । ये सोचिए सुबह से श्याम तक की उस औरत में या इस हमारे मित्र में कौनसी अच्छाई है? कौनसे अच्छे गुण है? इसका मतलब यह नहीं कि आप अपने को दोष दे। बहुत से लोगों कि यह भी आदत है कि मैं ही खराब हूँ। बिल्कुल भी नहीं। आप तो बहुत ही बढ़िया है। पहली चीज़ यह है कि आप अपना दोष मत देखिए लेकिन ये देखिये की दुसरे आदमी में अच्छाई क्या है? उसके अच्छे गुण क्या है। उससे आप प्लावित हो जायेंगे ।उससे आप नरिश हो जाएँगे लेकिन अगर आप दूसरों के दोष रोज गिनते रहेंगे तो सारे दोष आपके अन्दर नजर आ जाएंगे । इसलिए दूसरों से दोस्ती करने में,दूसरों से प्यार करने में, दूसरों से वार्तालाप करने में, एक मधुरता लेकर के एक प्रेम की भावना लेकर के अगर आप करे तो सहजयोग बहुत आसानी से फैल सकता है। बहुत आसानी से आप इसे पा सकते है और सारे संसार में सहजयोग बढ़ सकता है। सारी दारोमदार मेरी आपके उपर h¡।मै क्या कर सकती हूँ?अगर मैं कुछ कर सकती तो आपके हाथ पैर क्यों जोड़ती?लेकिन मै इसलिए आपसे कहती हूँ की आज इस शुभ अवसर पे,इतना सुंदर अवसर है की आज नवीं वर्ष भी है और आज ही ये भाई बहन की बात है।अब ये तो हिन्दुस्थान में ज्यादा बताने की जरूरत नही एक दो होते है ऐसे वैसे जो की बेकार लोग होते है।उनको भाई बहन समझ में ही नहीं आती।उनको छोड़ दो।उनको आज नही समझ में आएँगी।हिन्दुस्थान में नहीं समझ में आएंगी तो कभीभी समझ में नही आएंगी लेकिन जो आप लोगोंको समझना है वो ये किये जो भाई बहन आप जो बना रहे है आज के दिन,आज की जो भैय्या द्विज जो आप कर रहे है उसमें आपको ये सोचना चाहिए की ये भाईचारे की बात है।इस देश में भाईचारे पर अनेक गाथाएँ लिखी है।किस तरह से लोगों ने मिलजुलकर के काम किया।सारा गांधीजी का आन्दोलन,सारे फौर्टी टू का मोवमेंट।सोचिये कितना त्याग लोगोंने किया।हम तो हमारे फादर तो खुद ही इसमें पड़े हुए थे आपसे मैंने पहले भी बताया।तो ये हालत थी की महलों में रहते रहते फिर जाके झोपडी में रहो लेकिन सारा शहर हमे साथ देता था।सारा शहर।किसी दुकान में जाओं, ‘अरे आप क्या पैसे दे रहे ?पैसे देना बाद में आपके बाप आयेंगे तब।कोई साडी खरीदने जाओ, ‘अरे साड़ी ले जाओ बहन क्या बात है।आपके बाप जब आयेंगे तब दे देना।’कही कुछ कमी उन लोगोने पड़ने ही नही दी।सब हाथो हाथ उठा लेते थे।यानी सरकारी नोकर,पुलिसवाले सब साथ में। पहले ही खबर कर देंगे की आज आपके यहाँ आज आनेवाले है।तो हम लोगोंको ऑर्डर आ गया है की आपको पकड़ने आनेवाले है या आपके यहाँ हम सर्च पे आनेवाले है तो पहले ही हटा दो।पहले ही।चोबीस घंटे पहले ही उसकी खबर आ जाती थी भाई यहाँ से सभी चीजे हटा दो।वो खुद ही लेट थे अपनी गाडी।पुलिसवाले खुद उसी गाडी में उठा कर (अस्पष्ट) ।वो कहाँ गये?वो हिंदुस्थानी आज कहाँ गये?अगर उस स्वतंत्रता के लिए आपने ये सब किया तो सरे संसार के स्वतंत्रता के लिए भी तप करने की जरूरत है और सबसे बड़ा तप ये है की आपसी प्रेम।आपसी समझदारी।आपसी एक तरह एकता।आत्मियता।कोई बीमार पड़ गया,दौड़े जाओ उसके लिए।कोई किसीको आफत आई,सब दौड़े जाओ।कोई भी चीज का शेयरिंग हो।याद आना चाहिए।जैसे मुझे जब आपलोग कभी कभी मिठाई देते है या कुछ देते है तो मुझे कुछ ख्याल अत है की, ‘मै तो खा रही हु लेकिन सहज्योगियोंको सब जगह मिठाई शायद नही मिल रही होगी’ और मुझे कभी फिर ख्याल अत है की, ‘लंडण के सहजयोगियोंको येवाले लड्डू बहुत पसंद आते है तो आज नही खायेंगे।छोड़ दीजिये।’ऐसा भी मन करता है की ‘क्या है सारे लंदन के सहजयोगी ये लड्डू बहोत शौंक से खाते है।अब जायेंगे तो बनाके उनको खिलाएंगे तभी खायेंगे।’तो खा नहीं पाते इस तरह की एक आत्मीयता एक अन्तरंग में इतनी समाधानकारी,इतनी आनंद्मय होती है।अपने लिए जीने का जो एक तरीका है वो छुट करके सबके लिए जीने का जब तरीका आ जाता है तभी मनुष्य विशाल हो जाता है और ये विशालता आप प्राप्त कर सकते हैं सहजयोग से। और आज इस नवीन दिवस पर ये विशेषता का एक संदेश अपने हृदय में रखना चाहिए कि आज से हम बस विशाल हो जाएँगे और ये विशालता हमारे हृदय में बसे और इससे हम सारे जितने सहजयोगी है उन्हें देखें । हम सब भाई-बहन एक माँ के बेटे हैं । एक सूत्र में बँधे हुए हैं। अत्यन्त सुन्दरता से संजोयें जुड़े हुए, प्यारे-प्यारे सब फूल है। जब हम अपने प्रति ऐसी सुन्दर भावना कर लेंगे। और दूसरों के प्रति भी, तभी जाकर के एक सुन्दर सा हार तैयार हो सकता है।कोईसे भी एक भी फुल उसमें ख़राब हो जाने से गडबड हो जाएंगी।सब लोगोंको इसी धारणा से चलना चाहिए और हमारा अनन्त आशीर्वाद है कि आप सब लोग इस विशेष रूप को प्राप्त करेंगे ।