Makar Sankranti Puja

(भारत)

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Makar Sankranti Puja 14th January 1987 Date: Place Rahuri Type Puja

[Hindi translation from Marathi talk]

आज का दिन बहुत शुभ है और इस दिन हम लोगों को तिल-गुड़ देकर मीठा-मीठा बोलने को कहते हैं। हम दूसरों को तो कह देते हैं, पर खुद को भी कहें तो अच्छा होगा। क्योंकि दूसरों को कहना बहुत आसान होता है। यह प्रतीत होता है कि – आप तो मीठा बोलें और हम कड़वा – इस तरह की प्रवृत्ति से कोई भी मीठा नहीं बोलता। कहीं भी जाओ , वहाँ चिल्लाने का कोई कारण न होने पर भी, चिल्लाने के अलावा लोगों को बात करना आता ही नहीं है। उसका कारण यह है कि हमने खुद के बारे में कुछ कल्पना की हुई है। हमें परमात्मा के आशीर्वाद की तनिक भी कल्पना नहीं है। इस देश में परमात्मा ने हमें कितना बडा आशीर्वाद दिया है। देखो, इस देश में स्वच्छता का कोई विचार ही नहीं है। इस देश में तरह-तरह के कीटाणु, तरह पैरासाइटस् अपने देश में हैं। जो कही भी नहीं मिलेगा वह अपने देश में हैं। दूसरे देशों में यहाँ के कुछ पैरासाइटस् जाएं तो वे मर जाते हैं। वहाँ की ठंड में वो रह ही नहीं सकते। सूर्य की कृपा से इतने पैरासाइटस् इस देश में है और उनको मात देकर हम कैसे जिंदा हैं । एक वैज्ञानिक ने मुझसे पूछा कि, ‘अपने इंडिया में लोग जीवित कैसे रहते हैं? मैंने कहा, जीवित ही नहीं रहते, हँसते- खेलते भी रहते हैं, आनंद में रहते हैं, सुख में रहते हैं । उसका कारण सूर्य है । तरह के पैरासाइटस् हैं। में तो कहती हूँ कि सारे विश्व के इस सूर्य ने हमें अपने घर को खुला रखना सिखाया है। हमारा हृदय खोलना सिखाया है। इग्लैण्ड में अगर आपको कहीं बाहर जाना हो तो १५ मिनट आपको कपड़े बदलने के लिए लगते हैं। कुछ पहनकर बाहर निकलना पड़ता है नहीं तो वहाँ की ठंड आपके सिर में घुस कर आपका सर ही खाएगी। ऐसी स्थिति वहाँ है। आज आप यहाँ जैसे खुले में बैठे हो इग्लैण्ड में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकते। कहीं पर भी सब देशों में, अपने देश में भी ऐसे स्थान हैं, प्रांत हैं। कह सकते हैं कि मोहाली या नैनीताल या दूसरी तरफ आप गए- देहरादून से भी आगे, हिमालय के उस ओर गए तो जैसी उस जगह पर है वैसी ही ठंड इन जगहों पर भी है । जैसे इग्लैण्ड या अमेरिका में है – वैसी ही ठंड यहाँ भी है । पर वहाँ कोई परिंदा तक नहीं दिखता। वहाँ पर बड़े – बड़े वन है और उस जगह में सुंदर फूल हैं। ‘वैली आफ फ्लॉवर’ के नाम से लोग बताते हैं कि वहाँ बहुत सुन्दर-सुन्दर फूल हैं। वहाँ जैसे नंदनवन लगता हो। पर यह सब कुछ क्षणिक ही है। वहाँ इतनी ठंड होती है कि उसे देखने के लिए आँखे खोलना भी एक प्रश्न है । आँखो पर चश्मा लगाना पडता है अन्यथा आँखो को तकलीफ होती है। वहाँ इतनी ठंड है। वैसे ही दसरे देशों में भी इतनी ठंड होते हुए भी उन्होंने वहाँ पर प्रगति की हुई है। सारे वातावपण से संघर्ष कर, लड कर उन्होंने अपने देश खड़े किए हैं। हमें तो इतना बड़ा वरदान होते हुए भी हम उसकी तरफ ध्यान नहीं देते कि सूर्य का हमें कितना बड़ा वरदान है। अपने देश में सबसे मुख्य सूर्य की उर्जा बहुत बड़ी है। उसे अगर हम काम में लेना शुरू करें तो हमें उर्जा की कमी रहेगी नहीं : मोटर भी उस उर्जा से चल सकती है। पर अपने यहाँ जो सत्ताधीश हैं या अपने यहाँ के जो लोग हैं उनका ध्यान दूसरी तरफ होने की वजह से सूर्य की जो देनगी है, वह व्यर्थ हो रही है। उसकी तकलीफ हो रही है।

हमें अति हो रही हैं। यह पढ़ कर हम बहुत कार्य कर सकते हैं। सूर्य से जो सीखने लायक चीज़ है, वह है उसकी देने की शक्ति । सूर्य यह देता ही रहता है, लेता कुछ भी नही। देता ही रहता और देने की उसकी इतनी शक्ति है कि उसी शक्ति से बारिश होती है। उसी शक्ति से खेती होती है। उसी शक्ति पर उपज होती है । अगर सूर्य न होता तो यहाँ कोई भी नहीं रहता। उसकी इस प्रेम की शक्ति की वजह से ही आज हम इस स्थिति तक पहुँच चुके हैं। पर उससे सीखना यह है कि हममें भी देने की शक्ति आनी चाहिए । पर नीचे से उपर तक आप देखें, तो लोगों को ऐसा लगता है कि कैसे पैसे बचाएं। कैसे खुद के लिए पैसे रखें? हमने अगर किसी कार्यक्रम के लिए पैसे दिए तो उसमें भी लोग कहते हैं कि इसमें से पैसे बचाएं तो अच्छा है। अरे, आपको किसने कहा बचाने के लिए ? बचा कर रखो, पर किसलिए ? अरे, आपको खर्च करने दिए, तो बचाते क्यों हो ? अर्थात कैसे भी करके, कुछ भी सह कर लेना चाहिए। कुछ तो अपना बचा कर रखना चाहिए-यह प्रवृत्ति सब जगह है। किसी बाजार गए तो उन्होंने भाव बढ़ा दिया, किसलिए? ‘उन्होंने बढाया इसलिए हमने बढाया।’ अरे भाव अगर वहीं हो तो बढाया क्यों? कैसे भी करके वह शोषण की शक्ति। अब कोई छोटा सा कार्य शुरू किया तो लोग कहते है, ” “क्यों? क्योंकि वो पैसा खाते हैं। मतलब हम तो खाना खाते हैं और वो पैसा खातें हैं। हमारा कुछ जमेगा नहीं माताजी देखिए, आपको वह नहीं जमेगा।” पूछा क्या! मतलब ऐसी क्या अजीब बात है। देश का जो हित करने वाले हैं, देश को जो चलाने वाले हैं उन्हें सारी सत्ता भगवान नें दी है। उन्होंने भी यह नहीं समझा कि हमें देना चाहिए। इस सूरज से हमें सीखना चाहिए कि हम कुछ देने के लिए आएं हैं। जब तक पूर्णतया यह स्थििति मानव की बदलती नहीं है कि हम देने के लिए आएं हैं, लेने नहीं , यही उसका शौक होना चाहिए। जैसे आपकी माँ को कैसे लगता है कि मेरा बेटा आज आने वाला है उसके लिए मैं क्या करँ? क्या खाने के लिए बनाऊँ? आज यह करूं कि वह करू? खाने के लिए क्या बनाऊँ ? उसे कैसे शौक होता है एक माँ को कैसे शौक होता है कि वो दो चार पैसे इधर उधर से इकठ्ठा करके आसपास से पड़ोसियों से कुछ भी लाकर कुछ मीठा बनाकर आपको खिलाती है। उसे ऐसा लगता है कि कैसे दं और कैसे क्या नहीं। वैसा ही शौक अंदर से आए बगैर, वैसा सामूहिक शौक अंदर आए बगैर, अन्य लोगों के लिए वैसी भावना अपने अंदर जागृत बगैर अपने देश का क्या, किसी भी देश का कल्याण नहीं हो सकता। पर किससे क्या लूट सकते हैं, कि किससे क्या ले सकते हैं- इसी विचार में हम होते हैं। किससे क्या मांग सकते हैं और इस चिंतन से हमारे बच्चों को तकलीफ होती हैं। हमें ही तकलीफ होती है। कुछ भी कहा तो भी। अब हमारे ससुराल में उन्होंने कुछ शुरू किया है कि हम बड़ा तालाब खोद रहे हैं…। सब कुछ खुद ही खाओगे तो हमें खाने को क्या मिलेगा! आज जो संक्रांत हम मना रहे हैं उसमें यह जो संक्रांति हैं, संक्रांत अर्थात एक ऐसी शुभ क्रांति जिससे हमारे अन्दर देने की प्रवृत्ति आ जाए। अब ये सब कहते हैं कि देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए । यदि तुम पंडित के पास तो दान करना चाहिए। दान क्या उस पंडित को करने का है ? वैसा दान नहीं। … या कोई कहेगा गए….तो कुछ दान करना चाहिए-मतलब खुद का पेट भरने के लिए ! … दान करते रहो इसलिए ये लोग ऐसे भाषण वरगैरेह देते रहते हैं-इसका कोई मतलब नहीं हैं। दान दें परंतु आपको ही क्यों? तो दान किसे किया जाए ऐसा भी प्रश्न खड़ा होता है। यह देखना चाहिए कि हम मुक्त मन से अपने देश के लिए, अपने बंधुओं के लिए, अपने पड़ोसियों के लिए क्या कर रहे हैं? मन रोक कर नहीं रखना चाहिए मन खोल कर पूरी तरह से लूटाना चाहिए। उसका एक विशेष आनंद होता है जो हम सदैव से भोग रहे हैं। जी-जान से देने का इसमें जो आनंद है वो किसी में भी नहीं । वो आनंद

किसी में भी नहीं है। और अगर वो आनंद प्राप्त करना है तो आज का यह त्योहार मनाना चाहिए । यानि उस सूर्य के जैसे अपना स्वभाव होना चाहिए। वह क्या करता है इसका उसे कुछ आभास ही नहीं। उसे कुछ भी पता नहीं। परंतु सतत् अकर्म में खड़ा है सदैव प्रज्वलित रहता है और आपको नित्य प्रकाश देकर, आनंद देकर संपूर्ण जीवन त्व देकर आपका पालन-पोषण करता है। हम प्रतिदिन उसे देखते है। बहुत लोग उसे नमस्कार भी करते हैं किंतु मात्र नमस्कार तक। उसमें से कुछ भी हमारे अन्दर आता नहीं है। उसकी देने की शक्ति उसकी क्षमता हमारे अन्दर आनी चाहिए। मैंने एक छोटी सी बात बताई थी कि सब सहजयोगी सड़क के किनारे बरगद के पेड़ लगाएं। इसके लिए सरकार से क्यों पैसे लेना? एक तो उसमें बाडा लगाने में लगता ही क्या है। चलो, इस साल यही एक पेड लगाऊँ, उसमें एक बाडा लगाऊँ। इसमें कितने पैसे लगते हैं? अरे बीडियाँ फूँकने में भी ज्यादा लगेंगे। एक यही कार्य करके देखो। कहने का मतलब हैं कि यह दिखना चाहिए कि हम कुछ कर रहे हैं। बजाए इसके (हम सोचते हैं) कि कैसे किसी को लूटें? कैसे किसी से पैसे लें? कैसे पैसे बचाकर रखें? इस प्रवृत्ति से अपने देश की बिलकुल भी प्रगति नहीं होगी। अच्छा, हमारे यहाँ पहले ऐसे लोग नहीं थे। मैं आपको बताती हूँ कि जब हम छोटे थे तब देने वाले ही लोग थे हमने देने वाले ही लोग देखे हैं लेने वाले लोग तो देखे ही नहीं। कुछ भी लिया तो उन्हें पसन्द नहीं आता था, माँ-बाप को भी नहीं ; किसी बच्चे ने कुछ लिया तो वे कहते थे कि वापस करके आ ओ | क्यों दुसरे का लिया ? सिर्फ देना है। मुझे याद है कि हमारे पिताजी ने चाँदी की कुर्सियाँ बनवाई और छत्र-चांबर बनवाए। तो सबने कहा कि किसलिए बनवाए? इसकी क्या जरूरत है? अरे शादी ब्याह तो होते रहते हैं…. सब किराए से लाते हैं । उससे अच्छा है कि अपने घर का हो तो बढ़िया है। …. जाने दो। अब कहीं कुछ कार्यक्रम हुआ तो उन्होंने पूछा कि वो छत्र-चांबर चाहिए। अरे पिछली बार वो शादी हुई थी ना वहाँ से ले लो। .. .फिर यहाँ से वहाँ करते करते वो न जाने कहाँ गायब हो गये भगवान ही जाने! मेरे कहने का मतलब है कि उनके विचार ही ऐसे थे। अब सवाल यह है कि अपने पास पैसे हैं तो क्या करना चाहिए? तो उसका कुछ सामूहिक सार्वजनिक ही करना। अगर बेडमिंटन का कोर्ट आप बनायें तो उसमें सब खेलें, यह नहीं कि सिर्फ हमारे ही बच्चे खेलें-ऐसा नहीं कि सब कुछ मेरे बच्चे के लिए ही । अगर उन्होंने मोटर ली तो उसमें सभी बच्चे स्कूल जाने चाहिए। बड़ी मोटर लेनी चाहिए ताकि उसमें सभी लोग जा सकें, यह सामूहिकता है। यह जो एक सार्वजनिक तबियत है वह बनानी होगी। वह इस सूर्य से सीखना चाहिए। और आज का यह विशेष दिवस है और इस दिन हमने यह तत्त्व लेना चाहिए कि आज से हम कुछ सार्वजनिक कार्य करेंगे। कैसे लोगों के पेट में अन्न जाता है, पता नहीं! अरे, क्या आप अपने आसपास देखते नहीं! आपने ऐसा कुछ भी सार्वजनिक कार्य नहीं किया है । मैं एक छोटी सी बात बताती हूँ कि आप एक- दो पेड़ लगाना शुरू कीजिए । अपने महाराष्ट्र में कितने सारे सहजयोगी हैं और हर एक सहजयोगी ने अगर एक-एक पेड़ लगाकर उसकी देखभाल की तो इन लोगों पर कितने उपकार होंगे। मेरी सबसे यह विनती है कि कुछ न कुछ सार्वजनिक कार्य शुरू करना चाहिए । परंतु उसके लिए हमें पैसे इकट्ठे करने हैं। ये करना है-ऐसे धंधे करने की क्या जरूरत हैं? पंडित को पैसे देने जैसी प्रवृत्ति हमें नहीं चाहिए । बिलकुल हृदय खोल कर, प्रेम से लोगों के लिए कुछ करना और उसका आनंद उठाना है। इसका मतलब यह नहीं कि आप फोकट में यह सब करें। मैंने ऐसा कभी भी नहीं कहा कि ये सहजयोगी वहाँ ( परदेश) से आये हैं और उन्हें

कुछ मुफ्त दो, बिलकुल भी नहीं। पर इन लोगों में वो बात है और आते समय वो कितने तोहफे लेकर आयें। उसमें मेरा भी बहुत हाथ होता है तो भी वे स्वयं आपको देने के लिए कितनी चीज़े लाये हैं । वे खुद अपने मन से में इतनी चीज़े लायें हैं। मुझे पहले लगा कि जो मैंने रोम से सामान लिया था वही सामान ये साथ लाये हैं। तो उन्होंने कहा, ‘नहीं माताजी, हम आपका (सामान) नहीं लाये हैं। हमने आपके जैसा (सामान) खरीदा था।’ उन्हें आनंद हो रहा था कि हम ये लाए-वो लाए, ये दिया। अच्छा वहाँ पर किसे क्या दिया ये किसी को पता भी नहीं । यहाँ मैं बैठ कर (कहती हूँ) इसे दो, उसे दो, इसका नाम लो, उसका नाम लो। वहाँ इंडियन लोग बैठ कर (कहते हैं) ‘अरे मेरे बेटे को अभी तक कुछ नहीं मिला, मेरी माँ को भी नहीं मिला।’ वो माँ लंगडाते आगे आई। मैंने कहा, ‘अब हुए लीजिए अपनी माँ के लिए।’ ‘उन्हें लुगडं (मराठी साडी) नहीं मिली।’ अब मेरे पास लुगडी नहीं हैं तो साडी ही ले लो। ऐसे बातें होती हैं। इन लोगों (परदेसी) का उलटा है । ये लोग जहाँ से आये वहाँ से कितना सामान लेकर आये। ये लोग दो टन सामान लायें। वो दो टन देते-देते मेरे हाथ दुखने लग गये। ऐसा दो टन (सामान) उन सबको बाँटा। मेरा कहना हैं कि तुम भी कुछ दो। ऐसी बात नहीं कि इन्हें कुछ देना है। पर उनके सामने हमें अपना एक महान चरित्र दर्शाना होगा कि हम लोग भी कुछ कम नहीं। आप आयें, तो हम आपके सेवा के लिए खडे हैं। आपकी देख रेख के लिए हम उपस्थित हैं। हमसे जो बन पड़े उसे करने में क्या हर्ज है। उसके लिए कुछ पैसे लगते नहीं। उसमें | कोई दिक्कत नहीं है । सिर्फ अपने मन की प्रवृत्ति बदलनी चाहिए और अगर सहजयोग से हमने वह नहीं बदली तो मुझे नहीं लगता कि सहजयोग से मन-परिवर्तन होगा। दूसरे को देने का जो सबसे महत्त्वपूर्ण स्वभाव है वह होना चाहिए। सहजयोग में कुण्डलिनी जागृत होती है और आप आत्मस्वरूप होते हैं। और आत्मा का तत्त्व यानि सूर्य जैसा देने वाला। आपने मेरा फोटो देखा है। उसमें मेरे हृदय के उपर इतना बडा सूर्य आया था। संचमुच मेरे हृदय सूर्य है। और उसी सूर्य से मुझे कभी लगता नहीं कि मैं किसी से कुछ छीन लँ। मुझे पता नहीं कि दिमाग के किस भाग से यह विचार आता है कि इनसे यह लूट लँ। कैसी अजीब बात है। वह तो सहजयोग में आनी ही नहीं चाहिए। पर दिमाग लगाना चाहिए कि हम हर दिन क्या दे सकते हैं। इसके लिए अब हम क्या कर सकते हैं। आपके राहरी में भी हमने एक संस्था शुरू की है। उसका नाम हमने ‘सहज स्त्री सुधार, समाज सुधार’ रखा है। यह संस्था इसलिए बनाई क्योंकि हमारी संस्था लाइफ एटर्नल ट्रस्ट की ओर से ऐसे कार्य नहीं हो सकते। यहाँ से यह रजिस्टर्ड कराई है । सब कुछ हो गया है। केन्नडा के वे लोग पैसे देने के लिए बैठे हैं। वहाँ से लोग पैसा देने के लिए बैठे हैं। परंतु स्त्री सुधार के लिए यहाँ कोई मिलता ही नहीं है। यहाँ की औरतों ने यह कार्य अपने हाथ में लिया तो यह कार्य हो सकता है। यहाँ जगह है, सब कुछ है। फिर हमें वक्त ही नहीं मिलता, हम कैसे जाएं ? अरे, आपको देने के लिए ये लोग वहाँ से पैसे लेकर आ रहे हैं। यहाँ के स्त्री समाज में सुधार करो । आपके लिए चौदह मशीनें भेजी हैं। वहाँ की औरतों को सिखाओ । आपको दिखता नहीं है कि वो भूखी- प्यासी घूमती रहती हैं। उन्हें बिठाओ, कुछ कार्य सिखाओ। उनके हाथ में दो-चार पैसे आएंगे तो उनका भला होगा। थोड़ा तो हमें ऐसा सोचना चाहिए। क्या सिर्फ अपना ही सोचते रहना है? तो सहजयोग में इस चीज़ के लिए कोई स्थान नहीं है। केवल अपने बारे में ही सोचने वालों के लिए हमारे यहाँ कोई जगह नहीं है । विश्व कल्याण के लिए हमें आगे आना चाहिए। और मैं हमेशा कहती हूँ कि ‘जगाच्या कल्याणा संतांच्या विभूती’ विश्व कल्याण के लिए संतों की भभूत। अगर ऐसा हो तो भी

संतों की विभुति के कल्याण के लिए विश्व है। ऐसी परिस्थिति से उन संतों का कल्याण ही तो होगा। इसलिए अब जो आप संत हो गये हो तो आपको संतों की दृष्टि से आचरण करना चाहिए। और संतों का पहला लक्षण होता है- देना, देते रहना। किसी भी संत ने किसी से कुछ लूटा ऐसा तो हमने आज तक नहीं सुना। ऐसा किया भी तो फिर वह संत ही नहीं रहता। यह उसके दिमाग में आता ही नहीं। तो इस ओर ध्यान देना चाहिए कि हम अपने से क्या दे सकते हैं, कितना प्रेम दे सकते हैं, कितने लोगों का भला कर सकते हैं और आजकल जो सार्वजनिक कार्य होते हैं- इलेक्शन वरगैरेह के लिए वैसा कुछ नहीं करते हुए – निस्वार्थ भाव से जैसे हम माँ के प्रेम को निव्व्याज्य कहते हैं, जिसके उपर कोई ब्याज नहीं होता, ऐसा जो अटूट बहने वाला, अनंत तक जाने वाला-ऐसा जो प्रेम है वो देते वक्त आपको अपने आप सूझेगा कि मैंने क्या-क्या किया। वो सुधार धीरे-धीरे होना चाहिए। सब सहजयोगियों की ओर से कुछ न कुछ तो घटित होना चाहिए। और इस चीज़ के लिए हमें थोडा वक्त देना चाहिए | समय देकर उसमें उतरना चाहिए। मेहनत करनी चाहिए। ‘माताजी आईं एक लेक्चर हो गया और बस ऐसा नहीं होना चाहिए।’ इन लोगों ने बहत काम किए हैं। पाठशाला शुरू की है और बहुत समाज सुधार का खत्म- काम कर रहे हैं हमें ऐसी शुरूआत करनी चाहिए । नहीं तो सहजयेग यानि केवल आत्मसाक्षात्कार लेकर आनंद के सागर में तैरने वाले सब आलसेश्वर जैसे नहीं होने चाहिए। हमने दूसरों की कितनी मदद की, चारो ओर आँखें घुमाकर इधर-उधर देखो। उनकी ओर हमें प्रेम की दृष्टि ड्ालनी चाहिए। अच्छी तरह देखो कि अपने हाथ से क्या कार्य हो रहा है। अभी तक मेरा हिंदुस्तान में आना नहीं हुआ है। आने के बाद आप देखोगे कि मैं सबको काम पर लगाऊँगी। तो पहले ही शुरूआत करना अच्छा है। मैंने सहजयोग सिर्फ ध्यान- धारणा करने के लिए नहीं शुरू किया है । सिर्फ ध्यान-धारणा करने लिए क्यों सहजयोग चाहिए। फिर हिमालय जाओ। यहाँ रहकर गर सहजयोग करना है तो उस | सहजयोग से लोगों का भला होना चाहिए। और आजकल का जो सार्वजनिक कार्य है-वैसा बिलकुल भी नहीं करना। सचमुच कार्य सिद्ध करना होगा तभी कहना चाहिए कि हमने सहजयोग स्थापित किया है। अब मेरी बहुत स्तुति हो गई मैंने बहुत स्तुति सुन ली, भजन सुन लिए, बहुत अच्छा लगा। बहुत संतोष हुआ। लोगों ने पहचाना वरगैरेह-वगैरेह , पर एक चीज़ पहचाननी होगी कि आप क्या हो? यह जानने के लिए कार्य करना चाहिए। नहीं तो आप स्वयं को शीशे में देख नहीं सकते। अआपको क्या दिया वह आपको दिखाना चाहिए। जैसे पहले आप खाना पकाते थे, बच्चे को देखते थे अगर वैसी आपकी स्थिति होगी और उसमें बिलकुल सार्वजनिक या सामूहिक स्वरूप नहीं आया तो सहजयोग में आकर भी आपने क्या पाया-मुझे पता नहीं। जैसे थे वैसे ही हैं। प्रथम बात यह है कि अगले साल आने पर सबको बताना होगा कि किसने कितने बरगद के पेड़ लगाए। दूसरी बात यह कि आपने कौन सा सामूहिक कार्य किया वह मुझे सुनने को मिले । आपकी नजर में कोई भी सामूहिक कार्य आए तो देखो कि आप वह कर सकते हैं और अच्छे से कर सकते हैं। उसमें कुछ भी पैसों की जरूरत नहीं पड़ती सिर्फ मन की तैयारी चाहिए । मैंने बगैर एक पैसे के तथा बगैर घर वालों के सपोर्ट के एक स्त्री को पार करके यह सहजयोग खडा किया था । परंतु उस कार्य की निष्ठा और सत्यता की वजह से ही तो आज इतना फैल गया है। अब यह एक बड़ी जिम्मेदारी आप सभी पर हर आदमी, हर औरत पर है कि हमें लोगों को सहजयोग बताते

समय कुछ न कुछ उसका प्रमाण देना है। उसके लिए कोई नियम नहीं बनाने है। उसके लिए कोई गैर जिम्मेदार काम नहीं करना। कुछ भी गलत-सलत नहीं करना। सीधे सरल मार्ग से आप सिर्फ आँख खोल कर देखो कि हम क्या कर सकते हैं। लोगों का हम कहाँ क्या हित कर सकते हैं। हम आपको शक्ति देने के लिए बैठे हैं। आप इस कार्य में कूद पड़ो। और इस कार्य में हमें कोई वोट नहीं चाहिए हमें पैसे नहीं चाहिए, कुछ नहीं चाहिए। एक वचन दो कि हम कुछ तो ऐसा काम शुरू करेंगे । दूसरी बात उसमें कठिनाई यह है कि लोग गर शुरू करते हैं तो चार जगह पैसे माँगने चले जाते हैं-पहले पैसे इकठ्ठा करना। पैसे बिलकुल भी मत माँगो। पहले वह काम शुरू करो जो पैसे के बगैर हो सकता है। सबसे पहले पैसे इकठ्ठे करना-सबको ऐसा लगता है कि पैसे के बगैर काम होता ही नहीं है। आपके पास शक्ति है। आपको पैसे किसलिए चाहिए? आसपास जाकर देखो कोई बीमार होगा। वहाँ देखो उनके यहाँ कोई बीमार हैं। उन्हें कोई परेशानी होगी। कोई बीमार होता है तो मैं ही देखती हूँ। ….उस दिन कोई गृहस्थ बीमार था…उसका हाथ ऐसा हो गया था। अरे, दो मिनट का ही काम था। कोई भी सहजयोग से ठीक कर सकता था, तो उसे मेरे पास ले आए, वो भी प्रोग्राम के बीचोबीच-‘इसका हाथ ठीक करो।’ अब आप इतने सहजयोगी होते हुए भी आपके हाथ से शक्ति बह रही है फिर भी.. ये लोग कभी नहीं… इतना भी आप ठीक कर सकते तो आपके सहजयोगी होने का क्या फायदा? तो मेरी माँ बहुत बीमार है, मेरा बाप ऐसा है, उसके पैर टूट गये हैं। ‘अरे, आप ठीक कीजिए।’ आपमें शक्ति हैं ना! करके तो देखो। तो लोगों की मदद करनी होगी बिना किसी अपेक्षा के, आनंद में, उस भावना से जिसमें सचमुच अत्यंत आनंद मिलता है। परमात्मा का एक साधन मात्र होकर विश्व में इस देश में इस परिवार में विशेष दे रहे हैं-यह कितनी बड़ी धारणा है। कितनी गौरव की बात है। गर ऐसा समझ कर कुछ आप सबने निश्चय किया तो कुछ न कुछ तो आपके हाथ से घटित होगा। और फिर लोगों की समझ में आएगा कि सहजयोग क्या है। अब सहजयोग क्या है। . – ध्यान में ही हैं हो गया। ‘अब हमारी बीबी खाना नहीं बनाती।’ पूछा ‘क्यों?’ ‘वो ध्यान ही करती रहती है।’ ऐसा क्यों ? किसने …सब लोग ध्यान में बैठे हैं। हमारे देश में कुछ गडबड हुई तो बताया उसे। खाना पहलें बनाना है। ध्यान के लिए पाँच मिनट बहुत हैं। आपको शक्ति दी है तो आप अच्छा खाना बनाओगे। तो एक तरह का विश्वास होना चाहिए और कार्य की क्षमता भी होनी चाहिए | मैं जो शक्ति देती हूँ उसे ग्रहण करो। रोज सिर्फ ध्यान-धारणा करके कोई फायदा नहीं। यह भी देखना चाहिए कि आपने लोगों का क्या भला किया। आपका भला हुआ, हमारा भला होना चाहिए। … मेरे बेटे के लिए करो, मेरी नौकरी के लिए करो, मेरी माँ को ठीक करो, बाप को ठीक करो, फलाने को ठीक करो। मेरे घर आओ। ये करो , वो करो। .. सबके उपर ही अधिकार और आप क्या करोगे? हमें भी कुछ करना चाहिए ऐसा मन से निश्चय करें कि माताजी को हम कुछ विशेष करके दिखायेंगे। और मेरे सामने सचमुच ऐसा चित्र खड़ा है जो वर्णन ज्ञानेश्वर जी ने किया है ‘बोल ते पियुषांचे सागर’ वह पीयुष का जो सागर है… हमें देखना है, वह कहाँ यह है। तो सबको इस सुदिवस पर मीठा- मीठा आशीर्वाद। सबका अच्छा करो और सबका भला करो। सबसे प्रेम से ब्ताव करो और प्रेम से बोलो।