Birthday Puja

मुंबई (भारत)

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Birthday Puja Date 21st March 1987 : Place Mumbai Puja Type Speech Language Hindi

आप लोगों ने मुबारक किया आपको भी मुबारक। सारी दुनिया में आज न जाने कहाँ कहाँ आपकी माँ का जन्मदिन मनाया जा रहा है। उसके बारे में ये कहना है कि वो भी आप लोगों में बैठे हुये मुबारक बात देते हैं। इस सत्रह साल के सहजयोग के कार्य में, जब हम नजरअंदाज करते हैं, तो बहुत सी बातें ऐसी ध्यान में आती हैं, कि जो बड़ी चमत्कारपूर्ण हैं। ये तो सोचा ही था शुरू से ही कि इस तरह का अनूठा कार्य करना है। उसके लिये तैय्यारियाँ बहुत की थी। बहुत मेहनत, तपस्या की थी। लेकिन हमारे घर वालों को इसका कोई पता नहीं था। किसी तरह से चोरी-छिपे अकेले में, ध्यान-धारणा की और विचार होते थे कि किस तरह से मनुष्य जाति का उद्धार हो। सामूहिक रूप से हो जायें । जब ये कार्य शुरू हुआ, तब भी इतने जोरों में ये कार्य फैल सकता है ऐसा मुझे एहसास नहीं हुआ। लेकिन ये एक जीवंत क्रिया है और जीवंत क्रिया किस तरह, कहाँ होगी, उसके बारे में कोई भी अंदाज पहले से लगा नहीं सकते। इस तरह से सामूहिकता में ये कार्य अचानक नहीं हुआ। सर्वप्रथम बहुत कम लोग पार ह्ये। लेकिन जब पूरी कार्य का हम सिलसिला ढूँढते हैं और सोचते हैं कि इतने सत्रह साल में सहजयोग में हमने क्या कमी देखी। तो पहली बात ये ध्यान में आती है, कि मनुष्य के स्वभाव को, हमें कल्पना भी नहीं थी और सहजयोग में जब मनुष्य स्वभाव से परिचित हये, तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मनुष्य कोई भी जागृती नहीं दे सकता। वो ध्यान करता है, धारणा करता है, परमात्मा की बात करता है, सब तरह से प्रवचन कर सकता है, बोल सकता है, सब कार्य कर सकता है। अपने को गुरु कहलाता है। उसके हजारो शिष्य हैं। लेकिन उन्हें सत्य की, असल की, रिअॅलिटी की कोई खबर नहीं। और तब आश्चर्य हुआ कि मनुष्य अज्ञान के बहुत बड़े भँवरे में, बवाल में न जाने कहाँ फँसता चला गया। लेकिन दूसरी बात …..का वो ये कि जब मनुष्य को जागृति हो जाती है, जब उसके आत्मा का जागरण हो जाता है, सिर्फ उसी वक्त उसमें परिवर्तन घटित होता है। उससे पहले किसी भी चीज़ से उसमें परिवर्तन नहीं होता। एकाध दुसरा हो गया होगा। लेकिन मेरी नज़र में एक भी नहीं आया। उसके अन्दर परिवर्तन आना सिर्फ कुण्डलिनी के जागरण से ही हुआ है। इसका अर्थ ये है, कि आत्मा के जागृति के बगैर मनुष्य घोर अंध:कार में बैठा हुआ था। सब ये बातें, बातें थीं | सब ये सोचना, सोचना था। सब ये लिखना, लिखना था । लेकिन इसका कोई तात्पर्य, अर्थ उनके जीवन में नहीं आया। और फिर तीसरा अनुभव ये भी आया, कि जो लोग जागृति में पार हो जाते हैं, वे भी किसी न किसी तरह से अपने अपने पुराने स्वभाव में पकड़ा जाते हैं। और उसको कारणीभूत थोड़ी सी चीज़ हो सकती है। जैसे एक साहब सहजयोग में आये, लंडन में और उनके बहुत सुंदर वाइब्रेशन्स आये। उस चैतन्य को देख के मैंने उनसे कहा कि, ‘आप ने कोई बड़ा ….. सुकृत किया हुआ है। और उस सुकृत के कारण ही आप इतने ज्यादा चैतन्य से भरे हुये हैं।’ बस, इतना कहना था, वो सीधी खोपड़ी थी वो एकदम उल्टी हो गयी | जो सीधे चल रहे थे वो उल्टे चलने ন

लगे। मैंने तो सोचा, इस प्रशंसा से ये कोशिश करेंगे कि, हम और आगे जायें । और आगे बढ़े। बजाय इसके उनकी तो खोपड़ी ही उल्टी हो गयी। और उनको देख के अचंभे में रह गये, कि अगर किसी आदमी को आप एक तोला सोना दे दे, तो वो कोशिश करेगा कि वो एक तोले का दो तोला बनाये । ऐसी उम्मीद मुझे थी। जैसे की मछली से आप कुछुआ बन गये। फिर उससे आप कुछ और हो गये। फिर कुछ और। फिर कुछ अनुभव ऐसे आये, कि कोई भी चीज़ उनसे … नहीं। अगर इनको आप कोई जड़ वस्तु दे दे। जो कि जड़ वस्तु है। बिल्कुल जड़ वस्तु। लेकिन आप उन्हें जड़ वस्तु दे दे, तो वही जड़ वस्तु ले कर के वो बड़ा अत्याचार कर देंगे। बहुत सारे अत्याचार कर देंगे। छोटी सी आप उनको पदवी दे दीजिये। …… अगर उनसे आप प्रेम से बात करे, और उनमें आप विश्वास आ जाये, तो वो हमारा ही नाम ले कर के और धृष्टता पे आ जाते हैं। लोगों से बदला देना, उनको तकलीफ़ देना। उसके साथ अत्याचार होना। हमारे साथ इतनी धृष्टता है। परमात्मा प्रेम है और प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम के बाद सब आता है। सर्वप्रथम परमात्मा ने इस संसार को प्रेम ही दिया। अगर वो प्रेम नहीं करते तो ये संसार ही नहीं बनता। सच्चिदानंदादि इनकी बातें करिये। लेकिन प्रेम की जैसे कोई व्याख्या नहीं हो सकती। इसका कोई वर्णन नहीं हो सकता। उसका आनंद बताया नहीं जा सकता। उसी प्रकार परमात्मा के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे महान, शुद्ध प्रेम की बात हम शुरू से ही कर रहे हैं। और सारे जीवनभर आपको प्रेम के सिवाय और क्या दिया। और हमारे पास है ही क्या देने के लिये, जो हम आपको दें। ये तो सिर्फ प्रेम ही के करिश्मे हैं । प्रेम से ही सब चीज़ बनती है। जिसने सहजयोग में आ कर के प्रेम का दाना नहीं चुना उसने अभी तक सहजयोग को समझा नहीं। सब सी बड़ी चीज़ है कि हम कितने ज्यादा लोगों से प्यार करते हैं। दो-चार चमचे इकठ्ठे कर दिये। जैसे आजकल बड़ा शब्द है चमचा। मुझे पता नहीं था चमचा शब्द क्या होता है? सहजयोग में आ कर पहले पता चला कि वो एक-दूसरे को चढ़ा कर करते हैं। फिर एकसूत्रीपन बंद कर के और सत्य …. सकते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना बड़ी भारी अंध:कार चेष्टा है। ये तो शैतानों के काम हैं। आपको जो अधिकार है, वो ये कि हमने आपसे प्यार किया और आप दुनिया से प्यार कर लें। ये आपका अधिकार है । जब ‘मेरा, मेरा’ ही नहीं छूट रहा, ये मेरा, तेरा चल रहा है तो सहजयोग कहाँ घटित हुआ? संसार में देखिये कितनी जीवित घटना है। मनुष्य को छोड़ कर के। कोई ऐसा कहता है कि ये मेरा है? पेड़ है अपने फल दे देते हैं, नदी अपनी पानी दे देती है, मेघ अपने बरसात दे देते हैं। पृथ्वी अपना सारा सौंदर्य आपके सामने प्रगटित कर देती है। कोई रोक के रखता है क्या? जब आप उसी निसर्ग के जीवंत हैं, प्यार के प्रवाह में बह रहे हैं, तब ऐसी छोटी छोटी बातों को याद करने की क्या जरूरत है? हर तरह से करने से अत्याचार इतना होता है। हर तरह से अत्याचारीपना होता है। जैसे की एक साहब आये। कहने लगे, ‘मैं तो चार बजे उठ के ये करता हूँ, ऐसा करता हूँ, वैसा करता हूँ। और ये तो आदमी उठता ही नहीं । छोड़ दो।’ तुम चार बजे उठ के सारे ….. जगाते हो। चार बजे उठ के ध्यान करना सहजयोग में नहीं। चार बजे उठो । सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला कर ध्यान करो, ध्यान करो, ये सब बातें बेकार हैं। आपको जब ध्यान में उठना है, तब आप कुछ कर के ध्यान करो। जब तक आपकी चित्त बुद्धि शिथिल है, जब तक आपका चित्त ही परमात्मा में लीन नहीं हुआ तो उनको जबरदस्ती करने से ये बैल चलने वाला नहीं। जब तक चित्त का ये बैल पूरा नहीं होगा तब तक ये दौड़ने वाला नहीं। ये तो धीमी गती से चलेगा । लेकिन इस बैल को ठीक करने के लिये आपके पास आपके आत्मा का प्रकाश है। उस प्रकाश को आप उपयोग में लायें । उस

प्रकाश को आप दूसरों की ओर फेंक दें। दूसरों को दिखा दे कि हम बड़े प्रकाशमान है। लेकिन अगर आप हैं मे, प्रकाशित तो लोगों को कहना चाहिये कि हाँ, ये एक ….है। अपनी शान में खड़ा होना चाहिये। अपने अपने आनंद में खड़ा होना चाहिये। कोई आपकी बदनामी करे, कोई आपको कुछ भी कहे। जब तक आप जानते हैं कि ये सब झूठ है तो आपको इस पर नाराज़ होने की क्या जरूरत है। आप अगर किसी को ….देते हैं, तो जान लीजिये कि आप सहजयोगी हो ही नहीं सकते। चालना दीजिये। चालना देने से आप स्वयं ही एक निष्ठावान सहजयोगी हैं। सब लोग ये सोचते हैं कि हम तो माँ को सरेंडर है। माँ हम तो बदल गये। माँ को सरेंडर हैं। भाई , सरेंडर की बात मुसलमानों के वक्त में कही गयी थी। इस्लाम मतलब होता है सरेंडर। अब सरेंडरिंग की इतनी जरूरत नहीं है। अब समझ की जरूरत है। अब भक्ति की इतनी जरूरत नहीं, अब विज्डम, सुबुद्धि की जरूरत है। हो गया, सब का ….. हो गया। अब आप स्टेज पे आये। खेलना है। लेकिन ये भी हम लोग अभी तक नहीं समझ पाते, कि सहजयोग में अब हम अब आपको खेल पूरा कहाँ बैठे हैं। पहले आप लेते थे, अब आप देने वाले हो गये। अब देने वाला ही महामूर्ख जैसे लेने वाले की …. और लेने वाले की ही भूमिका चला रहे हो। उसके प्रति कौन आदर करेगा ? और उसके सहजयोग को कौन बाटेगा? सो, देने वाले में जो आनन्द है, एक अपने प्रति मान है, दूसरों के प्रति अनुकंपा है। संसार के प्रति दक्षता है। सृष्टि के प्रति दृष्टि। ये जब तक हमारे चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, तब तक न हमें कोई मानेगा, न आपको मानेगा। और ये सब मिला जुला कर के एक ढ़ाई अक्षर ही बनता है। जिसे प्रेम कहा जाता है। और अब प्रेम कर के देखिये। आपका गुस्सा करने का जो स्वभाव है, वो छूटता नहीं। मैंने तो यहाँ तक सुना की कुछ सहजयोगी गाली-गलोच करते हैं। आप अपशब्द मुँह से निकाल ही नहीं सकते। आपका हर एक अपशब्द अमंत्र हो जायेगा। ये सृष्टि में जितने अपशब्द हैं, उनको पूरी तरह से मिटाने के लिये आपके लिये जागृत मंत्र दिये गये हैं। बजाय इसके उसको आप जागृत करें …, आप मंत्रविद्या दी है उसी को आप नष्ट कर रहे हैं। ऐसे आदमी में मंत्र भी अमंत्र से भी अशुद्ध हो सकते हैं। सहजयोग की सभ्यता बाहरी नहीं अन्दरूनी है। पर इसका मतलब ये नहीं की अन्दरूनी सभ्यता है और बाहर असभ्यता है। बिल्कुल भी नहीं। बहुत से ये लोग कहते हैं कि हमारा दिल तो बिल्कुल साफ़ है, बाकी चाहे जैसा बने। इससे आप सहजयोग का प्रकाश बाहर कैसे पहुँचायेंगे? कोई अन्दर से कितना भी साफ़ हो, जब तक उसका दिल साफ़ न होगा, जब तक उसका प्रकाश लोग नहीं देखेंगे, तब तक ऐसे अन्दर के प्रकाश को भी ले कर क्या करना है? बहक जाना ये बहुत बड़ा अनुभव हमने सहजयोग में देखा कि लोग बहक जाते हैं। पैसे के लिये बहक जायेंगे, सत्ता के लिये बहक जायेंगे| ऐसी ऐसी छोटी बातों के लिये बहक जाते हैं कि मुझे आश्चर्य होता है कि कहाँ इन्होंने आत्मा को पाया है ये बहक कैसे गये! बहकने के लिये मैं जानती हैँ कि शक्तियाँ बहुत जबरदस्त हैं। लेकिन आपके पास सब से बड़ी शक्ति मिली जो कि हजारो वर्ष मेहनत से भी नहीं मिलती। लेकिन इसी में जो आये, वो इतने सुन्दर और अनुपम हैं। सहजयोग में कुछ कुछ लोग कितनी सुन्दरता से परिवर्तित हो गये। उनका जीवन इतना गौरवशाली हो गया है, कि उसे देख कर के बड़ी …. हो जाती है। अनुभव ऐसा तो किसी भी अवतरण में नहीं हुआ है। इतने सारे लोग, इतने सुन्दर लोग, इतने उँचे लोग, इतने पवित्र

लोग, इतने शक्तिशाली लोग, किसी भी अवतरण के नसीब नहीं , जो हमारे नसीब में आये हैं। उसका समाधान बहुत है। लेकिन कभी कभी फूल के साथ काँटे भी चुभ जाते हैं। तो भी उसका शल्य भी चूभता ही रहता है। और फिर लगता है कि बार बार कह दूँ कि तुम परिवर्तित हो जाओ, तुम्हारे काँटे भी फूल समान हो कर के सुगंधित हो जायेंगे। सारी चीज़ समझने की है। ये सारा संसार, ये सारी सृष्टि, ये ग्रह मंडल, ब्रह्मांड , सारे जो कुछ भी बने हैं ये सारे आपके परिवर्तन का इंतजार कर रहे हैं। वो सब देख रहे हैं। कब ये वायूमंडल बदलने वाला है और कब हम इस पर बरसात करें। इन सब का कोई भी अर्थ नहीं रह जायेगा। अगर मनुष्य सहजयोग में आ कर के भी परिवर्तित नहीं होगा। हमारी सत्रह साल की मेहनत में हो सकता है कि किन कारणों से कभी कभी हमने जी भी हो। और चुराया कभी कभी उधर आँखे भी बंद कर ली। कभी कभी काँटों को देखा। एक आशा में, कि सब का परिवर्तन हो सकता है। कोई चीज़ अशक्य नहीं। इसका ये मतलब नहीं की सहजयोग काँटों में पनपता है। या उसका संबंध है या उसको वो सपोर्ट करता है। कभी भी नहीं । ऐसे काँटे हमेशा निकाल कर फेंक दिये जायेंगे और जब तक वो परिवर्तित नहीं होंगे वो इस …. में आ नहीं सकते। ये नियती है। इसे हम नहीं बदल सकते और इसे आप नहीं बदल सकते। ये चक्र ऐसा है, कि इस चक्र में आप सबको अपना परिवर्तन खोजना चाहिये । छोटी छोटी चीज़ों में जब अहंकार आदमी को लगता है, जैसे कोई है, मैं नहीं …. । क्यों? आपको ……करना चाहता है। मैं… हूँ, मैं….हूँ। जहाँ तक ये मैं, मैं, मैं, चलता रहेगा वहाँ तक सहजयोग भी हटता चला जायेगा। कोई भी काम, इच्छा, बुद्धि आपको ‘मैं’ का लक्षण देती है, तो ऐसे कार्य में सहजयोग आने नहीं वाला। ऐसे बुद्धि में सहजयोग का कोई स्थान नहीं। इसका मतलब तो ये है, कि आपकी अपनी भावना में भी सहजयोग नहीं है। आपकी बुद्धि में भी नहीं। इस ‘मैं’ को छोड़ना ही बहत महत्त्वपूर्ण है । किसी किसी में तो सिर्फ मैं को …. और उसी के नशे में, उस ‘मैं’ के नशे में ही इतनी हालत हो जाती है कि जब आप अपने ‘मैं’ में बोलते हैं तब मुझे भी सुनाई नहीं देता और मेरी भी समझ में नहीं आता है कि क्या बोल रहे हैं। जैसे कोई कुत्ता भौंक रहा हो, वैसे मुझे लग रहा है कभी कभी। और कभी कभी ऐसा लगता है कि कोई साँप है, वो फूत्कार छोड़ रहा है। ये कौन सी भाषा बोल रहा है भाई ? ये हमारी तो भाषा नहीं और ना ही ये की भाषा है। इसमें प्रेम की आर्द्रता नहीं, प्रेम का दिलासा नहीं, प्रेम का आभास तक नहीं ऐसे कार्य क्यों करते हैं आप? कार्य करने के लिये तो …… है , कार्य करने के लिये नाद है, ओंकार साक्षात् खड़े हैं। उसको किसी की जरूरत क्या कार्य करने की? लेकिन आपके अन्दर वो निनाद आने के लिये आप स्वयं को वाद्य होना चाहिये, मनुष्य कि इस जिससे ये निनाद पहुँचे। उस अँध:कार में बैठने से भी क्या फायदा है? ये निव्व्याज्य प्यार से आप अंध:कार से आप रूप नहीं है, रंग नहीं है, और जो कुछ भी मैं देखती हूँ, इतने सुन्दर महानुभाव हमारे सहजयोग में सामने खड़े हुये हैं। मैं कहती हूँ, इतने तो किसी भी समय में नहीं हुये हैं। वो दिन दूर नहीं कि जिस दिन सहजयोग चरम सीमा तक पहुँच जायेगा । जिस दिन सारे संसार में सहजयोग की पताका फैलेगी, मुझे बिल्कुल इसमें अब शंका नहीं रही । लेकिन विचार आता है कि जिन पर इतनी मेहनत की, और उन्होंने हमारे प्यार को नहीं समझा, हमको ही नहीं समझा, वो क्या सहजयोग को समझ पायेंगे? आपके प्यार से आँख में आँसू आ जाते हैं। और क्या कहें, क्या न कहें। किसी विचार में गलत रूप लेता है। ये सब कृष्ण की लीला है। जिसने सिवाय माधुरी के और कोई बात ही नहीं करी। उन्होंने होली इसलिये रचायी, कि दुनिया भर के

वितंडवाद के राइट हैण्ड से पायेंगे, लेफ्ट हैण्ड से पायेंगे, इधर में दीप लगा रहा है, उधर में दीप लगा रहा है, ये सारे दुनिया भर के चक्करों से छूट्टी करने के लिये कृष्ण ने कहा कि, तुम रंग खेलो। पर रंग तो खेलो, ना कि मिट्टी, ना कि गंदी चीजें और गोबर आप दूसरों पे उछालो। लेकिन मनुष्य वही करता है । उसके बगैर उसे मजा नहीं आता । पता नहीं, कुछ लोग शायद हो सकता है, कि वास्तव में सहजयोग में इसलिये भी आये होंगे, कि वो अपनी पुरानी आकांक्षायें और इच्छायें पूरी करें। हो सकता है। कभी कभी मुझे ऐसी शंका आती है । लेकिन जो जन्मजन्मांतर की चीज़ आप लोग पूर्ण पायेंगे , कि आप अपने आत्मा को पाईयेगा और उस आत्मा के सारे आनन्द के क्षेत्र आप अपने अन्दर प्रगटित होंगे और एक आप बहुत महान आत्मा बनेंगे। एक महान आदर्श बनेंगे। एक प्रेम के सागर बनेंगे। वो सब जो कुछ भी आपसे वादे किये गये थे, वो सारे पूरे करने के लिये सहजयोग संसार में आया। और अब अगर आप अपनी मूर्खता में इसे खोना चाहते हैं, तो एक बात सिर्फ यही बार बार कहनी है, कि बेटा कुछ समूचा नहीं। जब पानी को पीना होता है तो प्रेम से पिया जाता है। उसको धूत्कार कर आप कैसे पियेंगे ? आपको समझाने में शायद मेरे शब्द पूरे न पड़ते हो। हो सकता है कि मैं अपने हृदय की बात पूरी तरह से नहीं कह सकती हूँ। हो सकता है कि आप मेरे अन्दर के आन्दोलन को नहीं समझ रहे हैं। उसके लिये मुझे कोई शिकायत नहीं। मेरी शिकायत सिर्फ ये कि आप अपने आन्दोलन को देखिये। आप अपनी गंभीरता को देखिये । आप अपनी शान को देखिये । आप अपनी संपत्ती को देखिये। उसका उपभोग उठाईये। उसमें आप बसे हैं। उसमें आज जन्मदिवस का समारोह हुआ। हमारे जन्म से हमारा कोई मतलब ही नहीं। जन्म हुआ सो हो गया, क्या विशेष है? और जन्मदिवस भी आया तो क्या हुआ? ऐसे तो रोज ही किसी न किसी का जन्मदिन होता ही रहता है। रोज ही कोई न कोई पैदा होता है। रोज ही कोई न कोई मरता रहता है। ये तो परिवर्तनशीलता का क्षण है। इसकी विशेषता ऐसी तो कोई नहीं। लेकिन तभी इसकी विशेषता होती है, जब समाज उसी क्षण उसका उसके साथ एकाकार हो जाता है। आज हमारे जन्मदिवस के अवसर पर आपने हमें गिफ्ट दी है। इसमें स्नेह है, प्यार है। वही प्रेम, वही स्नेह, आप सब को दीजिये। आज के दिन यही आप मुझे दीजिये, कि इस क्षण आप ठहर जायेंगे, उस प्रेम के मुकाम पर। वहीं आपकी मंजिल है । वहीं आपका डेस्टिनेशन है कि जहाँ आप सिवाय प्यार के कुछ भी न बन जायें । तभी सोचिये की आपने आपकी मंजिल पायी। और कोई भी चीज़ पाने की नहीं। सब जो कुछ भी कार्य करने है, जो आपने इंतजामात किये हैं, जो खूबसूरती से सजाया है, सब कुछ इतना सुंदर बनाया में है। आज पूजा में वो सब तत्पर है। उस वक्त आप ठहर जाये एक बात पर कि माँ, हम इस प्यार के सागर डूब के पूरी तरह से ……गये। हमारी सीमायें, सब लांघ कर हम तादात्म्य में आ गये। तदाकारिता हमारे अन्दर आ जायें। ये इच्छायें आज इस वक्त, इसी क्षण पूरी होगी। आप तो जानते हैं कि मुझे कोई इच्छा नहीं होती। मेरी कोई इच्छा न होने की वजह से कोई इच्छा पूरी भी नहीं होती। सब आपकी ही इच्छाओं के सहारे चल रही हूँ। इसलिये ये इच्छा आपको प्यार करें। ये इच्छा नहीं, क्योंकि इच्छा अगर कही जायेगी तो वो जैसी और इच्छायें होती उसी तरह, पर ये शुद्ध इच्छा की जागृति, इस शुद्ध इच्छा की जागृति होनी चाहिये, माने आपने उसको क्रिया में लाना चाहिये, अॅक्शन में लाना चाहिये। आज जाने से पहले सब लोग एक दूसरे से प्यार से मिले। सब से बात करें, सब को पहचाने, ये नहीं कि

बम्बई वाले अलग, दिल्ली वाले अलग, मद्रास वाले अलग, पूना वाले अलग ये सब भूल जाईये। ये सब मिथ्या है। झूठ है। ये व्यर्थ की …. है। ये सब भूल कर के आपस में प्रेम से मिले और सब से बात करें । और हमें कोई चीज़ की आशा नहीं है। इसी आशा के सहारे जी रहे हैं। प्रेम खूब बढ़े और ये आत्मा का प्यार, इसका प्रकाश सारे संसार में उछल जायेगा। संसार की जितनी दुर्घटनायें हैं, जितनी विपदायें हैं, और जिस तरह से आज संसार एकदम से, दु:ख और पश्चात्ताप के बीच में डोल रहा है, उसके सामने कोई एक ठोस चीज़ रखी जायें । आप कोई भी अपने को किसी से कम न समझें। सब हमारे लिये वंदनीय, प्यारे हैं। और इसी से हर इंसान को अपने प्रति श्रद्धा, गौरव रखते हये, अपने से प्रेम रखते ही सब को प्रेम करना सीख जाईयेगा। जो अपने स्वयं से प्यार नहीं करता वो किसी से भी प्यार नहीं कर सकता। ….. उसके प्यार में, उसके गौरव में, उसके प्रकाश में, आप विष्णु का सुंदर स्वरूप देखिये और उससे पुलकित हो कर के और इस गहन प्रेम के सागर में डूबते रहे। यही मेरा आप सब को आशीर्वाद है।