श्री बुद्ध पूजा : 23 जुलाई,1988
आज हमने बुद्ध जयंती मनाने का निश्चय किया है। यह बुद्ध का जन्म दिन है। सम्पूर्ण काल चक्र में बुद्ध का इस धरती पर आगमन, एक ऐसे समय में हुआ जो उनके आगमन के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। उस समय, विशेष रूप से भारत में, हमारे यहाँ दो प्रकार के लोग थे।एक जो बहुत ही कर्मकांडी थे, अत्यंत कड़क तथा अनुशासित होने हेतु प्रयासरत थे । और दूसरे वे लोग थे जो, बहुत अधिक बंधन ग्रस्त थे एवं परमात्मा के प्रति तथाकथित भक्तिभाव से परिपूर्ण थे। इस तरह साधकों के क्षेत्र में ये दो प्रकार के लोग विद्यमान थे ।अतः यह आवश्यक था कि साधना की इन दोनो शैली का अंत किया जाए। बुद्ध एवं महावीर को ,तात्त्विक रूप में, हनुमान तथा भैरव का दैवीय सहयोग प्राप्त है ,जो कि, जैसा कि आप जानते हैं, गेब्रियल एवं संत माइकल हैं । जिस तत्व ने जन्म लिया था वह एक शिष्य का तत्व है । और इस तत्व का जन्म ,बहुत पहले श्री राम के दो पुत्रों के रूप में हो चुका था। यह तत्व इस धरती पर लाया गया तथा अवतरित हुआ। पहला , मानव के अहंकार पर विजय पाने के लिए। दूसरा मानव के प्रति- अहंकार को जीतने के लिए।
बुद्ध, जब उनका जन्म हुआ, उन्होंने पाया कि सभी जगह दुख -क्लेश व्याप्त था। और उनके अनुसार यह दुख- क्लेश हमारी इच्छाओं के कारण था। इसलिए इच्छा-रहित होना ही निर्वाण प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है। वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचे। लेकिन इच्छा-रहित कैसे हों ? आप रेत पर बैठे हैं तथा यदि आप देखें तो रेत किसी भी चीज़ से चिपकती नहीं है। आप इस पर कुछ भी डालें , यह कुछ भी नहीं ख़राब करता । आप पानी डालें , यह चिपक जाएगा। और जैसे ही आप इसे दूर फेंकने की कोशिश करेंगे तो सारा कुछ, सूक्ष्म वायु में विलीन हो जाएगा । अत: उस तरह की अनासक्ति भाव विकसित करना, अथवा एक ऐसा जीवन विकसित करना जो इच्छा रहित हो, उनका लक्ष्य था। और इसीलिए मैं कहती हूँ कि वे एक शिष्य तत्व थे।
इस प्रकार शिष्य-तत्व को मार्ग एवं विधि को खोजना होता है, जबकि गुरु-तत्व, वे लोग हैं जिन्होंने पहले से ही पा लिया है। कारण कि उन्हें एक मार्ग तथा पथ का निर्माण करना है। इसलिए, उन्होंने सभी प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन किया। कई स्थानों पर गए। उन्होंने उपनिषदों का पठन किया ।तब उन्होंने उन लोगों को देखा जो वेदों में व्यस्त हैं तथा सभी प्रकार के कर्मकांड कर रहे थे। कर्मकांड से उन्हें कभी आत्म साक्षात्कार प्राप्त नहीं हुआ जो वास्तव में वेद का पहला श्लोक है।जो यह है कि वेदों को पढ़ने से एवं वेदों के सभी कर्मकांडों को करने से अगर आप, विद्, अर्थात आत्म साक्षात्कारी नहीं बनते हैं। विद शब्द का अर्थ है “ज्ञाता”। यदि आपको ज्ञान नहीं है परम तत्व का , अपने मध्य नाड़ी तंत्र पर ,तो आप निश्चित ही मूल बात से चूक गए हैं। आपके लिए वेद पठन बिल्कुल ही निरर्थक है।
इसलिए वे खोज संबंधी विभिन्न क्षेत्रों में गए। जैसा कि आजकल हम देखतें हैं कि बहुत से साधक सत्य की खोज में कई लोगों के पास जा रहे हैं। और वे थक गये थे।बहुत ही थके हुए थे। उन्होंने सोचा कि उनकी सारी साधना, उनका अथक परिश्रम, उनका सारा प्रयास, इन सब ने बस, उन्हें थका दिया। और उन्होंने सोचा कि यह सब निष्फल रहा । इस तरह से वे एक बरगद के पेड़ के नीचे लेटे हुए थे ।और वहीं पर आदिशक्ति ने उन्हें आत्म साक्षात्कार दिया। जब आपकी सभी खोज सम्पन्न हो जाती हैं । लोग खोजतें हैं पैसे में, सत्ता में, प्रेम में एवं सभी प्रकार की चीज़ों में। अंतत: लोग विभिन्न समूहों, पंथों, गुरुओं, सभी प्रकार की चीज़ों में खोजना शुरू कर देते हैं। नशीले पदार्थ, शराब, जो भी संभव मार्ग हैं, वे खोजने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब मनुष्य कुछ खोजने की कोशिश करता है, तो अपने अभियान में वे चले जातें हैं या तो , बाईं ओर या दाईं ओर। और वे ( बुद्ध) एक अत्यंत घोर साधक होने एवं नितान्त सच्चे साधक होने के कारण , वे बहुत स्पष्ट रूप से देख सके , कि बाएं या दाएं जाना निरर्थक है। पर कुछ उत्थान तो होना ही चाहिए । लेकिन इसे कैसे प्राप्त किया जाए? उन्हें आत्म साक्षात्कार देने वाला कौन है? उस सारी थकान में वह स्वयं पेड़ के नीचे लेट गए एवं सहसा ही उन्हें अपना आत्म साक्षात्कार प्राप्त हो गया ।
जब उन्हें अपना आत्म साक्षात्कार मिल गया , तब वे समझने लग गए कि बंधन तथा अहंकार की यह समस्या क्यों है। एक बात वे समझ गए कि लोग जब बहुत अधिक पढ़ते हैं तथा समझने का प्रयास करतें है, परमात्मा को कर्मकांड के माध्यम से तब उनका अहंकार विकसित हो जाता है। दूसरी तरफ उन्होंने समझ लिया कि जब लोग परमात्मा से बस अपनी कुछ कामनाओं के लिए प्रार्थना करते रहते हैं कि मुझे यह दे दो , मुझे वह दे दो । वे पागल हो जातें हैं। और जब उन्हें इसका बोध हुआ ।तभी उसी क्षण जब वह थके हुए थे, उन्हें अपना आत्म साक्षात्कार मिल गया ।
आज के आधुनिक समय में वास्तव में यही घटित हो रहा है। कि जो साधक थे, वे परम तत्व को बाएं तथा दाएं पक्ष में खोज रहे हैं। आजकल वे दौड़ रहे हैं। मुझे नहीं पता कि वे दौड़कर क्या प्राप्त करने वाले हैं। वे पागलों की तरह दौड़ रहें हैं। फिर कट्टर ईसाई हैं। कट्टर मुसलमान हैं। अपने धर्म के लिए पूरे संसार से लड़ रहे हैं ।अपने परमात्मा के लिए।मोहम्मद साहब के नाम पर। कृष्ण के नाम पर। हर चीज़ के नाम पर।फिर वे समझतें हैं कि उनका धर्म ख़तरे में है। मेरी समझ से ऐसा नहीं है । न तो पैगम्बर और न ही अवतरण, कोई भी ख़तरे में नहीं है।क़तई नहीं। कैसे वे हो सकते हैं? और कोई भी धर्म, अगर यह सच्चा धर्म है, ख़तरे में नहीं पड़ सकता है। लेकिन इसकी अनुभूति उन्हें अपने आत्म साक्षात्कार के बाद ही हुई । परंतु उनके जो अनुयायी हुए इस बात को नहीं समझ पाए कि अंततः यह आत्म साक्षात्कार ही है ,जिसकी वे बात कर रहें हैं । वास्तव में उन्होंने पूरी तरह ध्यान रखा यह सुनिश्चित करने के लिए कि पहले लोगों को अपना आत्म साक्षात्कार मिले । तब कुछ और ।
सबसे पहले उन्होंने कहा, “आप मेरी पूजा नहीं करने वालें हैं।” जैसा कि आप जानते हैं कि हम अपनी पूजा में लोगों को तभी भाग लेने देते हैं जब वे पूरी तरह से , सहज योग में स्थापित हो जातें हैं। इसीलिए उन्होंने पहले यह कहा कि आपको अपने आत्म साक्षात्कार में पूर्णतः स्थापित होना चाहिए। बस इतना ही । वे परमात्मा के बारे में बात नहीं करते थे । कारण कि एक बार जब आप परमात्मा के बारे में बताना शुरू करतें हैं तो उन्होंने देखा, परमात्मा के नाम पर इन सभी भयानक धर्मों को पनपते हुए।
जब मैं पहली बार अमरीका आयी, आप आश्चर्यचकित होंगे , मैंने परमात्मा की बात नहीं की।मैंने भूतों की बात नहीं की। मैंने किसी धर्म की बात नहीं की। मैंने केवल आत्म साक्षात्कार की बात की। कारण यह था कि मैंने सोचा यदि आप अपना आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं तब आप समझ जाएँगे, इसकी शेष बातें ।पर आपसे बात करने का कोई औचित्य नहीं है , परमात्मा के बारे में या परम तत्व के बारे में। कारण कि पहली बात यह है कि आपके पास अपनी आँखें होनी चाहिए। आपके पास प्रकाश होना चाहिए। अन्यथा इन चीज़ों के बारे में बात करने का क्या प्रयोजन । पर ऐसा हुआ कि बुद्ध ने किसी को भी आत्म साक्षात्कार नहीं दिया। इसलिए उनके यह सर्वथा उचित था कि वे आत्मा के बारे में बात करतें और न कि परमात्मा अथवा किसी भी धर्म के विषय में। इस सीमा तक कि लोगों का कहना है कि बुद्ध एक नास्तिक थे ,वे परमात्मा को नहीं मानते थे। नहीं। यह उनका नीतिगत मामला था कि वे परमात्मा के बारे में नहीं बताना चाहते थे ।
लेकिन जब मैं अमरीका आयी तो मैंने क्या देखा कि इस संसार में हर प्रकार की चीज़ें विद्यमान है। सबसे पहले कि उनमें अत्यधिक अहंकार है। और दूसरी बात यह है कि वे अति बंधन ग्रस्त हैं। वहाँ बहुत सारी जादू-टोना एवं काली विद्याएं व्याप्त थीं । मेरा तात्पर्य है कि वे खुलेआम कह रहे हैं, “यह एक जादू – टोने का विद्यालय है।” खुलेआम । अथवा, “यह एक शैतानी शक्तियों का गुरूकुल है।” मैं आश्चर्यचकित थी कि सभी बातें खुलेआम इस तरह कह रहे थे।
और जब मैं पहली बार सैन डिएगो आयी । चूँकि मैं स्वयं अपने आप आयी थी। और जिन लोगों ने मुझे आमंत्रित किया था ,उनकी परामनोविज्ञान नामक एक संस्था थी ।सब भूत हैं। तो वे मुझे घूमते- घुमाते एक बहुत विशाल सभागार में ले गए तथा वहां बहुत सारे लोग बैठे थे। और मैंने सभी भूतों को देखा।मैंने सोचा , “अब मुझे क्या करना चाहिए? मुझे सच कहना चाहिए या नहीं? वे शायद मुझसे कुपित होने लगते ।” लेकिन मैंने सोचा , “बेहतर होगा कि उन्हें बता दिया जाए ,क्योंकि एक बार जब वे भूतों के बीच खो जाएंगे, तो मैं उनका क्या करुँगी?” इसलिए मैंने उन्हें बताया, “यह सब गलत है।यह सब भूतबाधा है। यह सब निरर्थक है। क़तई आप इन सब बातों में न फँसे ।यह सही नहीं है।बेहतर होगा कि आप अपना आत्म साक्षात्कार ले लें !” और देखिये, कुछ लोगों ने तो अवश्य आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर लिया । और कुछ लोगों ने तो उस संस्था को ही छोड़ दिया।
अभी , जब पिछली बार मैं आयी तो ’83 में मुझे पता चला कि वह महिला जो एक प्रकार की प्रभारी व्यक्ति थी, पागल हो गई है ।और वे सज्जन, जो यह सब आयोजन कर रहे थे, दिवालिया हो गये हैं ।और ऑस्ट्रेलिया चले गये एवं वह इमारत ढह गई है। अवश्य ही भूतों ने यह कार्य किया होगा। उन दिनों इस तरह की निरर्थक बातों के विरोध में बताना मेरे लिए एक बड़ी समस्या थी।
बाद में उनके आमंत्रण पर मैं कुछ गिरजाघरों में गयी। अब, गिरजाघर में मैंने सहसा पाया कि आठ या दस भूतबाधित लोग उठे तथा नाचना शुरू कर दिये । मैंने सोचा , “अभी मैं कहाँ आ गईं हूँ?यहाँ मैं उन्हें आत्मा के बारे में बताने के लिए हूँ । और यहाँ की हालात देखिये। मैं उन्हें क्या बताऊं।” और उनमें घोर विश्वास था कि मैं परमात्मा की एक प्रतिनिधि हूँ। नि:संदेह ! पर परमात्मा से अभिप्राय था भूत। यह समझना असंभव था कि लोग कितने दूर तक निकल गए हैं। उसी समय वहां के उस समय के सभी कुगुरुओं पर ज़बर्दस्त हमला हुआ था । तब मैंने कहा, “आप इसके बदले पैसे नहीं दे सकतें हैं ।” उन्होंने कहा, ” बेहतर होगा कि आप वापस चले जाईये। हमें आपकी आवश्यकता नहीं हैं ।” इसलिए मैं छोड़कर चली गयी। और फिर नौ साल बाद वापस आयी ।
इस प्रकार बुद्ध ने केवल आत्म साक्षात्कार के बारे में बताने का प्रयास किया । और परमात्मा के बारे में बिल्कुल भी नहीं। लेकिन उनके अनुयायियों ने ,जैसा कि हमेशा वे एक दूसरे से बढ़कर होते हैं, एक बौद्ध धर्म बनाने की कोशिश की, उनकी अपनी शैली में ।और इस बौद्ध धर्म में, उन्होंने ( बुद्ध ने ) जो कुछ भी बताया था, उन्होंने( अनुयायियों ने) उसे नहीं अपनाया । सबसे पहले उन्होंने सोचा कि अगर आत्म साक्षात्कार प्राप्त करने से पहले ही कर्मकाण्ड एवं पूजा आदि होता है, उन्हें कहाँ ठिकाना मिलेगा ? इसीलिए उन्होंने कहा, “ठीक है, आप मेरी कोई पूजा न करें । मेरे नाम पर किसी भी स्मारक का निर्माण न करें ।आपको किसी की भी पूजा नहीं करनी चाहिए।” तो उन्होंने क्या किया? वे उनके दाँतों की पूजा कर रहे हैं।वे उनके नाखूनों की पूजा कर रहे हैं। वे उनके बालों की पूजा कर रहे हैं। अब उदाहरण के लिए मान लीजिए कि यदि आपको मेरे बाल मिल जातें हैं तथा आप एक आत्म साक्षात्कारी नहीं हैं। तो क्या अंतर है मेरे बालों में या किसी अन्य के बालों के मध्य ? बिलकुल एक जैसा । आत्म साक्षात्कार के बिना इन सारी पूजाओं ने उन्हें बहुत ही भूतग्रस्त क्षेत्र में पहुँचा दिया। इस प्रकार हमें ऐसे बौद्ध मिलतें हैं जो बुद्ध के क़तई आस पास नहीं हैं। जैसे कि यदि आप जापान जाते हैं, तो आप विश्वास नहीं कर सकते कि वे बौद्ध हो सकतें हैं। उन्हें बौद्ध माना जाता है ।बुद्ध जो कि करुणामय हैं। फिर हम चीनी लोग को देखतें हैं जिन्होंने बौद्ध धर्म का अनुसरण किया। वे भी बौद्ध धर्म को नहीं समझ सके। और हमारे यहाँ तिब्बती हैं जहाँ हम इन भयानक लामा को पातें हैं । और हमारे यहाँ लद्दाख वग़ैरह में अन्य लोग थे । वे सिवाय भूत-विद्या, प्रेत -विद्या, शमशान विद्या के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहें हैं ।इसलिए उनके अवतरण का भी हश्र वही हुआ जो अन्य का हुआ ।
अब बुद्ध ने तीन बातें बताईं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं ,जो बहुत ही उपयोगीं हैं सहज योगियों द्वारा, अनुसरण करने के लिए ।उन्होंने कहा, “बुदधम शरणम गच्छामि।” मैं एक प्रबुद्ध के प्रति आत्म समर्पण करता हूं। इसका अर्थ क्या है? मैं स्वयं को उनके प्रति समर्पित करता हूं जो आत्म साक्षात्कारी हैं ।इस संदर्भ में हम कह सकते हैं कि वे बुद्ध ही थे। आपके संदर्भ में यह आपकी आत्मा है। आप स्वयं को अपनी आत्मा के प्रति समर्पित कर दें। “बुदधम शरणम गच्छामि।” बुद्ध का अर्थ है कि जो ज्ञानी है। फिर वे एक और बात कहते हैं, “धममं शरणं गच्छामि” अर्थात् स्वयं को धर्म के प्रति समर्पण कर दें, जो कि सच्चा धर्म है। जो कि संतुलन है। अभी जैसा कि आप देखते हैं, ये सभी मानव-निर्मित धर्म बहुत ही विचित्र हैं तथा आप इनसे बहुत कुछ प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह नहीं समझा सकते कि ये धर्म हैं अथवा ये माफिया हैं। कारण यह है कि बुद्ध ने कहा, “आप स्वयं को धर्म के प्रति समर्पण कर दें।” तो बौद्धों ने समझा कि धर्म के प्रति समर्पण का अर्थ है कि आपसे अपेक्षित है कि आप , बौद्ध जैसे बने । अर्थात बौद्ध जैसी वेशभूषा पहनें । जैसे बुद्ध पहना करते थे। उस पोशाक को पहनकर आप बुद्ध नहीं बन जाते। क्या आप बन जातें हैं ? या तब उन्होंने सोचा कि हमें कुछ और करना चाहिए। इसलिए कुछ बौद्ध ने एक पहिए को हाथ में धारण कर लिया , क्योंकि उन्होंने जीवन चक्र आदि की बात की थी।
मुझे कहना चाहिए कि बुद्ध को समझने का नितांत ही बहुत मूर्खतापूर्ण तरीका। और आप देखें कि वे उस पहिये को एक पागल की तरह घुमाते रहेंगे। आप उनसे बात नहीं कर सकते। आप कहें, “अब, वह सड़क कहाँ है?” “ बुद्ध ” । “हम वहाँ कैसे जाएँ ?” प्रत्येक बात का एक ही उत्तर है। तो मैंने कहा, “कृपया मुझे उत्तर दीजिए ।” यह उत्तर है। तो यह किस प्रकार का उत्तर दिया जा रहा है ? तब इन लोगों ने सोचा कि हमें नए पद्धति लाना चाहिए। अतः उनमें से कुछ पुनः उपनिषदों का पठन करने लगे ।और वहाँ से भी उपयोग करना शुरू कर दिया, जातक कथाएँ बनाने के लिए , उस तरह की कहानियां जो बहुत ही बेतुकी हैं।हास्यास्पद कहानियाँ । रहस्यमयी कहानियाँ। यह कहानी। वह कहानी ।
उसी काल में हिंदूत्व ने एक अन्य विचित्र भूमिका निभाई । और तांत्रिकों ने उन पर ज़ोरदार धावा बोल दिया ।और जब तांत्रिकों का प्रादुर्भाव हुआ तो वे सभी प्रकार की फूहड़ , भयानक चीजों को ले आये । कह सकते हैं कि यह लगभग छठी शताब्दी में शुरू हुआ। और कलकत्ता से सुदूर क्षेत्र से शुरू हो कर द्वारका की ओर जाने वाला एक पूरा भूभाग । पूरा भूभाग ग्रसित हो गया, तांत्रिकवाद से । तो बाद में वही बौद्ध , उन्हीं तांत्रिक क्रियाओं का पालन किया ।अतः उन्होंने हर चीज़ इस स्थान से , उस स्थान से तथा मिश्रण लाने का प्रयास किया ।तो अभी अगर आप पूछें, “अब आपका धर्म क्या है?” वे कहते हैं, “मैं बौद्ध हूँ।” “कौन से बौद्ध?” “दीनायन, हिनायन । मैं ज़ेन हूँ, इत्यादि ।” यहाँ सभी प्रकार के बौद्ध धर्म है। वास्तव में यह समझना असंभव है कि बौद्ध धर्म कहाँ है। तो ये क्या करते हैं? कोई अपने बाल मुड़वा लेंगे ।कोई अपनी मूँछ मूँड़वा लेगें। दूसरे इस तरह की पोशाक पहनेंगे ।एक दूसरे के मध्य केवल यही एक अंतर है । परंतु सबमें एक बात सामान्य यह है कि वे सभी धोखेबाज हैं। वे सभी आपको छल सकते हैं । वे बेशर्मी से झूठ बोल सकते हैं। वे बहुत ही धूर्त, बहुत ही कुटिल एवं आत्मघाती हैं। वे बहुत हिंसक हो सकतें हैं ।और उनकी एकमात्र इच्छा होती है कि जो भी मिले उसे मार दो । यही बुद्ध के बौद्ध धर्म की परिणति है।
तो अब हम बुद्ध के आमने- सामने हैं। लेकिन जिस बारे में उन्होंने बात की वह एक तत्क्षण घटना थी आत्म साक्षात्कार की । और उन्होंने कहा, “आप स्वयं को तैयार करो ।” उन्होंने हमेशा कहा , “आप स्वयं को आत्म साक्षात्कार के लिए तैयार करें एवं हर चीज़ देखने का प्रयास करें, इच्छा रहित होकर ।” यह बस सहज योग की तैयारी थी जिसके विषय में वे बात कर रहे थे। पर जैसा कि आप देखतें हैं कि आज सभी बौद्ध , अगर आप उन्हें देखें तो आप हैरान होंगे कि ,वे न तो यहाँ हैं और न ही वहाँ हैं। आपको बिल्कुल नहीं मालूम कि उन्हें कैसे जाना जाए, उन्हें कैसे समझा जाए, उन्हें यह कैसे अनुभव करवाया जाए कि , बुद्ध ने क्या शिक्षा दी या ज़ेन ने क्या शिक्षा दी । वे कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं हैं। आप देखिए कि यह एक व्यक्ति के मस्तिष्क जैसा है जिसमें सभी प्रकार के विचार भरे हुए हैं । जैसे कि एक छोटे से बर्तन में तमाम कंकड़ खड़खड़ाने की आवाज़ करते हुए ।परमात्मा ही जानता है कि कौन सी आवाज़ किससे आ रही है।
और यही कारण है कि आज आप देखतें हैं कि यहाँ एक लामा हैं, जो हिटलर के गुरु थे ।कल्पना कीजिए ! हिटलर के गुरु लामा थे । अब यह श्रीमान लामा पूरी दुनिया के चक्कर लगा रहें हैं , जिनकी झुर्रियों को गिना जा सकता है, एक – एक करके । और वे पैसे माँगते घूम रहें हैं। वे पैसा क्यों चाहते हैं ? ये वहीं हैं जो तिब्बत से, ल्हासा से भाग गये थे । और भागते समय उन्होंने अपने साथ इतना अधिक सोना रख लिया कि वे ढो ही नहीं सके। इसलिए इसका आधा हिस्सा उन्होंने नदी में गिरा दिया तथा इसके आधे हिस्से के साथ वे भारत पहुँच गये ।इसके आधे हिस्से से पहले से ही उन्होंने एक बहुत विशाल सोने का बुद्ध बनाया है। उन्होंने बहुत ही अधिक , सोना अपने पास रखा है। और शेष सोना जो बच गया था, उसे चीन ले जाया गया, जहां मैंने इसे स्वयं देखा है। अचंभित ! उनके पास सोने का बीयर मग, जिसे आप क्या कहते हैं, एक बहुत बड़ी चीज़। उस तरह ।असली सोना। और खाना खाने के लिए असली सोने की इतनी बड़ी-बड़ी थालियाँ। कल्पना कीजिए! बुद्ध ने निर्लिप्ता की बात की । और उनके पास हर एक वस्तु सोने या चांदी की, बड़ी ही महँगे क़िस्म की थी । यदि आप उनके चोग़े, वेशभूषा आदि देखें तो आप चकित रह जाएँगे । यद्यपि उन्होंने यह सभी चीज़ें संन्यासी वाले पोशाक के रूप में धारण किया , लेकिन जब भी वे बैठते थे, अपने आंतरिक परिसर – दरबार में तथा ऐसी जगहों में । वे अंदर सब चीज़ें पहने रहते ।अंदर पहने हुए , उन सभी परिधानों पर असली सोना , मोती आदि चीज़ें भारी तरह से जड़े रहते थे ।कारण कि मैंने अपनी आँखों से देखा है। मैं तो हैरान रह गयी ।
अतः यह ऐसा ही है कि जैसे कोई व्यक्ति कहे , “ओह, मुझे निर्लिप्त हो जाना है। अब मैं समुद् तट पर जा रहा हूं। मैं वहीं बैठकर ध्यान करने जा रहा हूं।” वहाँ वह जाता है।और अपने चारों ओर एक परिसर बना लेता है । तो मैं उससे पूछतीं हूँ , “आपने परिसर क्यों बनाया है?” “आप को बताएँ । हो सकता है कि चोर अंदर आ जाए ।” “मेरा मतलब है कि आप तो वैरागी हैं । तो क्या अंतर पड़ता है अगर कोई चोर आ जाता है। वह आपको ले जाएगा। तो क्या हुआ ? आप तो हैं ही । कोई बात नहीं। आप चोर के साथ जा सकतें हैं। आप किसी के भी साथ जा सकते हैं। आप चोर के बारे में क्यों चिंतित हैं? आप तो निर्लिप्त हैं।” “ओह ! आप देखिये, मैं इसलिए भी चिंतित हूं कि हो सकता है कि जेब कतरें आ जाए ।” “तो आप जेब कतरों के बारे में क्यों चिंतित हैं?” “क्योंकि शायद मेरे पास यहां कुछ धन हो सकता है।और मेरे पास मेरा बैंक में खाता है। और मेरे पास मेरी अन्य दूसरी चीजें हैं ।इसीलिए मैं वाक़ई चिंतित हूँ । देखिये कि हो सकता है एक चोर आ जाए ।” तो आप निर्लिप्त भाव की बात क्यों करते हैं? आप संन्यास की बात क्यों करते हैं?
तो बुद्ध के निर्वाण के बाद इस प्रकार के विवेकहीन संन्यास की शुरुआत हुई।जो बहुत ही स्तब्ध करने वाली बात थी । इससे लोग यह सोचने लगे कि आप कभी भी भगवा रंग की पोशाक पहन सकते हैं ।और फिर आप एक संन्यासी बन जातें हैं। यदि आप एक भगवा पोशाक पहनते हैं आप बुद्ध बन जाते हैं। और आप एक निर्लिप्त व्यक्तित्व बन जाते हैं। अब आप पूरी दुनिया के लिए घोषणा कर सकते हैं कि, “मैं एक निर्लिप्त व्यक्तित्व हूँ।” और आपकी पृष्ठभूमि क्या है? “कुछ नहीं। मैं बस इस धरती माता से पैदा हुआ । और मैं यहाँ बुद्ध की तरह अच्छे से बैठा हूँ।” इसलिए लोग मूर्खतापूर्ण ढंग से उन्हें पैसे देने लगते हैं। इस प्रकार उन्हें पैसे मिलते हैं। लेकिन वास्तव में, पहले का सच यह है कि वह व्यक्ति भारत की एक कारागार से छूट कर आया है, चोरी या ऐसे ही कुछ की सजा काटकर ।और अब बुद्ध के रूप में यहां बैठा हुआ है। आप कैसे पहचानेंगे ? “बुद्धम शरणम गच्छामि।”
इसलिए हमें यह करना है कि स्वयं को बुद्ध में स्थापित कर लें । अर्थात् अपनी आत्मा में स्वयं को स्थापित कर लें ।जब तक हम अपनी आत्मा में स्थापित नहीं हैं, हम नहीं समझ सकतें हैं पेचीदगियाँ , उन सारी अज्ञानता की जो हमारे चारों ओर व्याप्त हैं । इसीलिए सहज योग को समझने का सबसे अच्छा उपाय है कि स्वयं को आत्मा में स्थित कर लें । परंतु जो बुद्धिमान नहीं हैं। जो मूर्ख हैं। जो स्वार्थी एवं लालची हैं। वे इस बात पर गौर नहीं करतें हैं। वे इसे पसंद नहीं करते हैं यदि कोई अगुवा उनसे कहता है कि आपको सहज योग में स्थापित होना चाहिए, कि आपको अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। वे इसे सुनना नहीं चाहते हैं । वे सहज योगियों के समूह में रहना चाहते हैं क्योंकि वे अकेले नहीं रहना चाहते हैं। वे सहज योग में भजन गाना, संगीत, हर एक चीज़ करना चाहेंगे ।कारण कि वे कहीं न कहीं भलीभाँति जम जाना चाहते हैं ।चूँकि वे एक पहचान चाहते हैं, वे स्वयं को सहज योगी कहतें हैं। लेकिन यह पहचान एक मिथ्या पहचान है। आपकी पहचान अपनी आत्मा से होनी चाहिए । यह भाग ही बुद्धम शरणम गच्छामि है ।
दूसरा है, “धम्म शरणम गच्छामि।” धम्म क्या है, धर्म है। हमारा धर्म क्या है, विश्व निर्मल धर्म है। इसका अर्थ है कि अब हम एक वैश्विक प्राणी बन गए हैं। हम अब भारतीय नहीं रहे, अफ़्रीकावासी नहीं रहे, अंग्रेज नहीं रहे, फ्रांसीसी नहीं रहे। हम सभी अब सहज योगी बन गए हैं जो परमात्मा के साम्राज्य के नागरिक हैं। हमारी अन्य कोई पहचान नहीं है। यही हमारा धर्म है। अब हम एक वैश्विक जीवन में अग्रसर हैं। लेकिन सहज योगी ऐसे नहीं हैं। अभी भी, उनमें से बहुत सारे लोग अभी भी अपनी पहचान कुछ स्थान विशेष चीज़ों से बनाते हैं। अब जब हम वैश्विकता के बारे में सोचते हैं तो हमें समझना होगा कि यह केवल धर्म, या एक देश ही नहीं है जो हमें अलग करता है, बल्कि एक प्रकार का गुण भी है। उदाहरण के लिए, अगर ऐसे लोग हैं जो रजोगुणी हैं, जो बहुत सक्रिय, दाएँ -पक्षीय लोग हैं, तो वे आपस में गठबंधन करेंगे। वे बाद में लड़ सकते हैं लेकिन आपस में गठजोड़ करतें हैं। फिर जो लोग वाम-पक्षीय हैं, वे आपस में जुड़ेंगे। लेकिन इन दोनों को जुड़ना चाहिए , उन लोगों से जो उत्थान के लिए प्रयासरत हैं, जो मध्य में हैं। और वहीं पर हम बहुत विफल हो जातें हैं। हमारे संबंध एवं हमारी आपसी समझ हमारी अज्ञानता से भ्रमित हो गई है । और हम यह नहीं समझ पातें हैं कि कौन हमारे उत्थान के लिए है तथा कौन हमारे हित के लिए है। ऐसा हमारे साथ कई तरह से घटित होता है।
हम वैश्विक प्राणी हैं एवं हमारी संस्कृति सहज संस्कृति है। हमने अपनी सभी निरर्थक संस्कृतियों को त्याग दिया है। प्रत्येक धर्म में, प्रत्येक देश में हमने अपनी संस्कृति की तुच्छता देखी है। इसलिए हम विश्वास करते हैं, सहज योग की स्वभाविक संस्कृति में । इसलिए हम वैश्विक प्राणी हैं। और वैश्विक प्राणी होने की इस स्थिति में आपको अपनी सामूहिक चेतना विकसित करनी होगी। जैसा कि पहली बात व्यक्ति विशेष के लिए है, बुद्धम शरणम गच्छामि – मैं स्वयं को बुद्ध के प्रति समर्पण करता हूं। दूसरी बात वह है कि मैं स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पण करता हूं। इस आशय से कि, धर्म के प्रति – सामूहिकता का सार। अब हमारे सामूहिकता का सार क्या है? जो हमें एक साथ जोड़े रखता है, वह है विश्व निर्मल धर्म। इस विश्व का पावन धर्म। इसलिए एक बार जब आप समझ जाते हैं कि यही वह चीज़ है जो आपको एक-दूसरे से जोड़ती है, तो आपको अवश्य समझना लेना चाहिए कि, विश्व निर्मल धर्म को धारण किए रहना कितना महत्वपूर्ण है। इतनी सारी तरह से मैंने आपको बताया है कि यह विश्व निर्मल धर्म क्या है। इसलिए हमें उस धर्म के संपूर्ण विषय वस्तु को समझना होगा जिसका हम अनुसरण कर रहे हैं ।और साथ ही इसे प्रतिबिंबित करना है यह जानने के लिए कि क्या हम वास्तव में इस धर्म का पालन कर रहे हैं?
लेकिन मैंने मिथ्याचार देखा है ।जैसे कि कोई ईसाई है। प्रत्येक रविवार वह उठेगा। सज धज कर तैयार होगा। गिरजाघर जाएगा। तीन बार -चार बार उठेगा । स्तुति गीत इत्यादि गाएगा। सब कुछ करेगा। पादरी को पैसे देगा। गिरजाघर को देगा। उसे देगा । और फिर वह समझता है कि काम संपन्न हो गया है । बहुत निष्ठा पूर्वक वह जाकर अपना अपराध स्वीकार करेगा । मुसलमान बहुत निष्ठापूर्वक कुछ ऐसी चीजें करेंगे जो हम वास्तव में नहीं समझ सकते हैं। जैसे कि स्पेन में मुझे बताया गया कि लोग स्वयं को सूली पर लटकाने की कोशिश करते हैं। बेशक एक नाटक के रूप में । लेकिन मुझे लगता है वे ऐसा केवल ईसाई धर्म की रक्षा करने के लिए करते हैं।और परमात्मा ही जानते है कि सूली पर किसे लटकाने ।फिर भारत में हिंदू धर्म के अनुयायी हैं। और पहला सिद्धांत। हिंदू धर्म का मूल सिद्धांत है, कि हर प्राणी में आत्मा है। तो कैसे आप जाति एवं उपजाति वग़ैरह बना सकतें हैं ? यदि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा है तो आप जाति एवं उपजाति नहीं बना सकते। आप इस तरह का विभाजन नहीं कर सकते।
इस तरह हम प्रत्येक धर्म में क्या पाते हैं कि उनमें समस्याजनक बातें होतीं हैं ।परंतु एक बार जब आप धारण कर लेतें हैं, इस निर्मल धर्म को तो आप इसका सार देखते हैं। और इसका सार यह है कि, हम सभी आत्मा हैं तथा हम सभी एक दूसरे से जुड़ें हैं। हम सम्पूर्ण के अंग प्रत्यंग हैं। इसलिए आप सामूहिकता में जाइए। अतः अंत में उन्होंने कहा, “संघम शरणम गच्छामि।” यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संघम शरणम गच्छामि। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं कि आप स्वयं को सामूहिकता के प्रति समर्पण कर दें। इसका क्या अर्थ है? इसके लिए क्या आवश्यक है ? जैसे कि मैं यहां आपके अगुवा लोगों से बात कर रही थी। मैंने कहा, “आप सभी को एक सामूहिक इकाई बनाना चाहिए। संघम । सभी अगुवा को यह मालूम होना चाहिए कि वे माँ को अपने हृदय से प्रेम करते हैं। और उन्हें कभी भी नहीं , एक-दूसरे को काटने की कोशिश करनी चाहिए मात्र इस कारण कि कोई उनसे एक दूसरे की चुग़ली कर रहा है। उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम होना चाहिए। उदाहरण के लिए एक श्रीमान अमुक हैं जो कि एक अगुवा हैं । अब एक नकारात्मक शक्ति अवतरित होती है।और अगुवा से आकर कहती है कि, ” देखिए दूसरा अगुवा मेरा समर्थक है।” इस प्रकार इस व्यक्ति को बुरा लगता है ।दूसरे अगुवा को दूसरी बात बुरी लगती है। यह संघ के विरोध में जा रहा है। सबसे पहले अगुवा लोगों की सामूहिकता के इस संघ को पूरी तरह से स्वीकार किया जाना होगा । मुझे आनंद मिलता है जब ये सभी अगुवा लोग आपस में अच्छी तरह से मिलते तथा धौल जमातें हैं। और परस्पर हास-परिहास करतें हैं ।एक-दूसरे का उपहास करतें हैं ।और एक-दूसरे को प्यार करते हैं। एवं छोटों को संरक्षण देते हैं तथा देखभाल करते हैं। यही संघ की शुरुआत है। यदि अगुवा संघ में नहीं हैं, तो हम कौन से दूसरे संघ का गठन कर सकते हैं? तो पहला संघ अगुवा लोगों का है। वे सभी लोग जो संघ को भंग करने की कोशिश करते हैं , उन्हें अवश्य मालूम होना चाहिए कि वे नकारात्मक लोग हैं ।और वे हमें क्षति पहुँचाने जा रहे हैं। कोई भी ऐसा करने का प्रयास करता है,तो आपको बहुत सावधान रहना चाहिए।
दूसरा संघ, सामूहिकता, सहज योगियों के मध्य है।जैसा कि मैंने आपको बताया था, अब हम भारतीय नहीं हैं। या हम अंग्रेज या अमरीकी या कुछ भी नहीं हैं।इसलिए हमें गुट नहीं बनाने चाहिए। आप हमेशा क्या देखते हैं कि यदि पाँच अमरीकी हैं, तो वे एक-दूसरे के साथ हरदम चिपके रहेंगे ।जैसे कि उन्हें गोंद से चिपका दिया गया है एवं वे एक-दूसरे से विछड़ कर नहीं जा सकते। ये सभी एक साथ घूमेंगे ।अगर वहां भारतीय हैं, तो वे सदैव एक साथ ही बने रहेंगे। यदि वहां अन्य प्रकार के लोग हैं, तो वे सभी सदा एक साथ ही बने रहेंगे। अब हम वे नहीं रहे। यह समाप्त हो गया है । तो ऐसा क्या है कि एक-दूसरे से हरदम चिपके रहें ? लेकिन ऐसा होता है। हम हमेशा एक-दूसरे के साथ चिपके रहते हैं। मुझे नहीं पता क्यों। ऐसा करने की क्या ज़रूरत है? और आमतौर पर हम देखते हैं कि भारत में लोग बहुत ही विचित्र ढंग से व्यवहार कर रहे हैं। पिछले साल मुझे नहीं पता था। पर लोगों ने मुझे बताया कि कोई समूह आया था ।और वे लोग हर समय बोल रहे थे, “हम एक महान राष्ट्र हैं। हम एक महान राष्ट्र हैं।” वे सहज योगी नहीं हैं।
परमात्मा का साम्राज्य ही हमारा राष्ट्र है ।और सर्वशक्तिमान परमात्मा ही हमारे सम्राट हैं ।और हमारा कोई अन्य सम्राट नहीं है एवं कोई अन्य राष्ट्र नहीं है। यदि आप मूर्खतापूर्ण सीमाओं की इन अवरोधों से परे नहीं जा सकतें हैं तो आप सहज योगी नहीं बन सकते। पर यह एक बहुत स्थूल तरीक़ा है। लेकिन बहुत ही सूक्ष्म तरीके से, मैं देखती हूँ कि एक महिला जिसके चक्र पकड़े हुए हैं या जो बाधा ग्रस्त है वह झट से , किसी तरह दूसरे के समीप चली जाएगी । वह चाहे किसी भी देश से हो, कोई अंतर नहीं पड़ता। आप देखिए, एक भूत बाधित महिला, मान लीजिये, भारत से आयी है। वह आस्ट्रेलिया मे किसी दूसरे के निकट चली जाएगी। सीधे आगे बढ़ते हुए। बस गौर से देखने लगिए कि वह कहाँ जा रही है? हे भगवान ! तो यह बात है!
इस तरह भूत बहुत सामूहिक होतें हैं। एक बड़ा भाईचारा। महान भाईचारा। यदि वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखतें हैं जो बाधा ग्रस्त है, तो यह भूत बाधित व्यक्ति तुरंत उसके पास चला जाएगा। यह बहुत ही विस्मयकारी है कि भूत इतने सामूहिक होतें हैं। इसके अतिरिक्त, वे मुझे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। वे मुझे अच्छी तरह समझते हैं।यहाँ तक कि एक छोटा बालक भी अगर वह बाधा पीड़ित है तो मेरे सामने रोना शुरू कर देगा। मेरे सामने काँपने लगेगा। मेरे सामने नहीं आएगा। लेकिन जब उन्हें आत्म साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है, वे नहीं समझतें हैं ।और यही नहीं वे नहीं समझतें हैं, एक सामान्य सिद्धांत कि, अब हम स्वयं अपनी आत्मा के आधीन हैं एवं हम सब एक हैं। इसलिए उन्हें उस व्यक्ति से अधिक जुड़े रहना चाहिए जो एक आध्यात्मिक रूप से विकसित व्यक्तित्व है। लेकिन इसकी अपेक्षा , उनके लिए कोई निम्न कोटि का व्यक्ति ही बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, अपेक्षाकृत उस व्यक्ति के जो अत्यंत ही उन्नत अवस्था प्राप्त व्यक्ति है।
यहीं पर ही हम अपनी सामूहिकता में विफल हो जातें हैं। इन नकारात्मक लोगों की एक बहुत ही सूक्ष्म पद्धति है कि, बस प्रयासरत रहना कि कैसे धावा करने हेतु एक अति सुदृढ़ गुट बनाया जाए। इससे आप अपना चैतन्य खो देते हैं। एक बार जब आप अपना चैतन्य खो देते हैं तो आप कहते हैं, “ओह, यह तो अति हो गयी। हमारे अंदर करुणा होनी चाहिए। हमारे अंदर प्रेम होना चाहिए। आख़िरकार हम सभी सहज योगी हैं।” तो यह भूतों की पारस्परिक करुणा एवं प्रेम है। वे एक-दूसरे के प्रति करुणा की बात कर रहे हैं। यहाँ तक उन्होंने मुझसे भी कहा, “माँ, आपको दयालु होना चाहिए ।” मैंने कहा, “क्या आप मुझसे अधिक करुणामय हैं कि आप मुझे शिक्षा दे रहें हैं?” अगर मैं इस महिला को उस पर अपनी पूरी एकाग्रता एवं ऊर्जा सहित कुछ कह रही हूं, तो मैं यह उसके कल्याण के लिए कर रही हूं। और यह मेरी करुणा है जो कार्यान्वित है। लेकिन आप जो कर रहे हैं वह हितकारी नहीं है अपितु उसके लिए विनाशकारी है।
इसलिए उसका साथ देने का कोई औचित्य नहीं है जो नकारात्मक
है।कभी-कभी बहुत से नकारात्मक व्यक्ति जिन्हें सहज योग से बाहर निकल जाने के लिए कहा गया है, वापिस आने के लिए यह झंझट करते हैं, “ओह माँ, आप जानती हैं कि मैं कितना अच्छा हूँ। लेकिन उन्होंने मुझे प्रताड़ित किया ।उन्होंने मुझे बहुत परेशान किया।” अभी मुझे उस व्यक्ति में एक भूत दिखाई दे रहा है। मैं स्पष्ट रूप से देख सकतीं हूँ ।मैं नकारात्मकता को देख सकती हूं। लेकिन यदि आप नहीं देखतें हैं, तो आप तुरंत पक्ष लेना शुरू कर देंगे, “हे भगवान। इसे देखिए। बेचारे पर अत्याचार हुआ है।” आप अपनी चैतन्य लहरी खो देते हैं। आप इसको प्राप्त नहीं कर पाएंगे । इसलिए जैसा कि ईसा मसीह पुकारतें हैं, इन बुड़बुड़ाने वाली आत्माओं के प्रभाव में मत आओ। उन्होंने कहा,”बुदबुदाने वाली आत्माएं महानतम ख़तरा है।” इसे मैंने सहज योग में देखा है। जो बड़बड़ करते हैं,पीठ-पीछे बातें करते हैं, शिकायत करते घूमते हैं, वे महानतम ख़तरा हैं ,सहज योग के लिए तथा अंततोगत्वा उनके स्वयं के लिए। कारण कि उनका पता लग जाएगा। तो यह एक अन्य दशा है, जिसमें हम सामूहिक नहीं हैं । और जब हम सामूहिक होते है , तो हम किसी ऐसी चीज़ के लिए सामूहिक होतें हैं जो उत्थानकारी शक्ति नहीं है। यह थोड़ा आश्चर्य की बात है कि हम इस संसार में लोगों को देखतें हैं कि कैसे वे अपने विनाश को आमंत्रित कर रहें हैं। और हम भी, एक तरह से जब हम यह नहीं समझते कि सामूहिकता क्या है, विध्वंस करने का प्रयास करते हैं अपने ,सहज योग के संगठन को ।
आज मैं आपको इसलिए यह बता रही हूं कि ये सभी चीज़ों का अब अंत हो जाना चाहिए, बुद्ध के जन्मदिवस पर । बुद्ध वे हैं जो आपके अहंकार के नियंता हैं। यदि आप बुद्ध से परे चले जाते हैं एवं बहुत अधिक दिखावा करने लगते हैं, तो वह आपके अहंकार को धकेल देते है , आपकी बाईं विशुद्धि में । इस तरह आपकी बायीं विशुद्धि पकड़ जाती है। और जब आपकी अपनी बायीं विशुद्धि पकड़ जाती है , तब क्या होता है? यह कि आपमें दोष भाव आने लगता है। अर्थात् आप स्थिति का सामना बिल्कुल नहीं करना चाहतें हैं । बल्कि कहने लगतें हैं, “ओह, मैं बहुत दोषी हूं। मैंने आपको मार दिया है। सही है । मैंने आपको मार दिया है । मैं दोषी महसूस करता हूं।” हम कभी भी स्थिति का सामना नहीं करते हैं। यह वही अहंकार है जो बांये पक्ष में चला जाता है एवं यह बायीं विशुद्धि की पकड़ देता है। किसी भी तरह से यह चीज़ों के सहने की आपकी शैली नहीं है।अथवा न ही आपका दमन हो रहा है । बल्कि नहीं । आप दूसरों पर अत्याचार करते रहें हैं । आप अहंकारी रहें हैं । और यह इतना अधिक रहा है , कि यह बायीं विशुद्धि में चला गया है। इसलिए आप न्यायसंगत ठहराने का प्रयास कर रहें हैं।
अब मेरा सुझाव है कि यदि आप वास्तव में सहज योग को समझना चाहते हैं, तो सबसे पहले स्वयं को समझने का प्रयास करें। तत्पश्चात् आप देखिये कि मेरा मन अब कहाँ जा रहा है? कुछ महिलाएँ जिन्हें आदत होती है, जैसे कि गपशप की ,वे सहज योग में आ जातीं हैं। वे सब ठीक हैं। पर कभी-कभी यह बात आ जाती है, “आइए चलकर इस महिला के बारे में गपशप करें।” वे बस उठेंगीं । दूसरी महिला के पास जाएंगीं जो हो सकता है कि पिछले जीवन में गपशप की होंगी। तो जातीं हैं तथा उस व्यक्ति से बातचीत करतीं हैं एवं अन्य व्यक्ति की निंदा करतीं हैं । फिर वे एक अन्य गपोड़ी का पता लगातीं हैं या उन्हें एक अन्य गपोड़ी मिल जाती है।
अभी मैं क्या देखती हूँ कि तीन महान सहज योगिनियाँ वहाँ बैठकर गप्पें हाँक रहीं हैं। मैं कहती हूं, “आप क्या बातें कर रही हैं?” ” अरे ! नहीं माँ । हम सहज योग की चर्चा कर रहे थे।” मैंने कहा, “सच में?” सहज योगियों के बारे में चर्चा कभी भी सहज योग की चर्चा नहीं है। यदि लोगों के बारे में आप चर्चा कर रहें हैं, आप सहज योग की चर्चा नहीं कर रहें हैं। सहज योग की चर्चा का मनुष्यों से या आत्म साक्षात्कारियों से कोई संबंध नहीं है। भगवान का शुक्र है, आप मेरे बारे में चर्चा नहीं करतीं हैं , क्योंकि मैं भी अवश्य ही बहुत सारी गलतियाँ करतीं हूँगीं, आपकी संस्कृति के संबंध में,आपके तौर तरीक़े के विषय में , मानवीय रंग- ढंग के बारे में। उदाहरण के लिए, आपको दस बार धन्यवाद कहना होता है । हो सकता है कि मैं इसे केवल तीन बार या चार बार ही कहूँ ।या आपको कहना पड़ता हो “ अफ़सोस ! अफ़सोस ! अफ़सोस ! अफ़सोस!” यहाँ तक कि आज भी टेलीफोन पर, मैं कभी भी “अफ़सोस है” नहीं कहती हूँ । मैं कहती हूं,”मैं आपसे क्षमा चाहती हूं?” परंतु आप देखिए कि लोग कहेंगे, ” अफ़सोस ! अफ़सोस! अफ़सोस!” मैं सोचने लगती हूँ, “क्या मैं गलत हूं या वे गलत हैं?”
इसलिए जब हम दूसरों के बारे में वार्तालाप शुरू करते हैं तो हम सच में किसी से भिड़ जातें हैं या किसी का मुक़ाबला करते हैं, अपनी सीमित क्षमता के सहारे । और हम सोचने लग जातें हैं, “उसे ऐसा करना चाहिए था ।उसे चाहिए था …” और अपने बारे में क्या ? तो सबसे उत्तम है कि स्वयं की चर्चा आप अपने साथ करें। और सहजयोग की चर्चा आप दूसरों के साथ करें। सामूहिकता के महानतम शत्रु गपशप से मुक्ति पाने का यह सबसे अच्छा उपाय है। मेरी समझ से आप जानिए कि गपशप करना एक मानव स्वभाव है ।
एक अन्य भयानक चीज़ जो हमारे अंदर है, जिसे बुद्ध ने नियंत्रित करने की प्रयास किया, वह है एक बहुत ही सूक्ष्म प्रकार की आक्रामकता। यह कि मैं किसी को अगुवा बनाने का एक नाटक खेलतीं हूँ । यह एक लीला है ।कृपया याद रखें। भले ही मैं आपको बताती हूँ “मैं महामाया हूँ।” आप इसे भूल जाते हैं। भले ही मैं आपको बताती हूँ ,”मैं एक नाटक खेल रही हूँ ।” तब भी आप इसे भूल जाते हैं। आप इतनी गंभीरता से अगुवा बन जाते हैं। अगुवा का भान होने जैसा कुछ भी नहीं हैं ।अगुवा जैसा कुछ भी नहीं है। सहज योग में इस तरह का कुछ भी नहीं है। परंतु फिर मैं कुछ लोगों की प्रशंसा करती हूँ। अब मेरा मन कल के कार्यक्रम के लिए आज लोगों की प्रशंसा करने का हुआ । जिस प्रकार इसकी व्यवस्था की गई ।जिस ख़ूबसूरती से इसका संचालन किया गया था। इतने सारे लोग आए। उल्लेखनीय है। पर तब मैं सोच रही थी, “मुझे कहना चाहिए अथवा नहीं?” यदि मैं कहती हूँ तो परमात्मा ही जानते हैं कि अगली बार मुझे क्या देखने को मिलेगा । अतः इस प्रकार प्रोत्साहित करने से भला होगा या नहीं? इसलिए मैं अभी भी इसके बारे में विवेकशील हूँ । नि:संकोच मुझे कहना होगा कि कल का कार्यक्रम बहुत ही उल्लेखनीय था। और हमें सच में अवश्य ही , देव एवं हमारे अगुवा करन की करतल ध्वनि से सराहना करनी चाहिए।
सभी मूर्खतापूर्ण विरोध एवं विवेकहीनता के बावजूद , उन्होंने दिखा दिया कि कैसे वे ले आए हैं , इतने अधिक लोगों को सहज योग में । और कैसे पूरी एकाग्रता के साथ वे सफल हुए स्थापित करने में, इतने लोगों को सहज योग में। इसीलिए आपको इससे सीखना है कि आप सभी समस्याओं तथा कुछ भी होने पर , इसका बुरा माने बिना , बस यही देखें कि आप एक विशाल हाथी की तरह आगे बढ़ते हैं दूसरों को आत्म साक्षात्कार देने , अमरीका में अधिक से अधिक सहज योगी तैयार करने की दिशा में । जिन लोगों का जीवन में यह उद्देश्य है कि हमें लोगों को आत्म साक्षात्कार देना है, हमें सहज योग को स्थापित करना हैं, उन्हें कभी किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं होगी। इसलिए कभी भी स्वयं इस स्तर पर न उतरें कि जहां आपको लगे कि, “देखिए ! भोजन अच्छा नहीं था ।वह अच्छा नहीं था । यह अच्छा नहीं था ।यह व्यक्ति सता रहा था। वह व्यक्ति यह कर रहा था।” कुछ भी नहीं। इससे आपका या किसी का भला नहीं होने वाला है । आपको कोई अंक नहीं मिलने वाला है , जैसा कि वे कहते हैं। आख़िरकार , यदि आपको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना है, तो आपको यह जानना होगा कि आपको अनिवार्य रूप से , एक निश्चित अंक प्राप्त होने ही चाहिए। अन्यथा परमात्मा कहेंगे कि आप चूक गए । और आपको आश्चर्य होगा कि क्यों प्रवेश की अनुमति नहीं है। आप समझ रहे हैं कि आप इतने बुद्धिमान हैं, इतने महान हैं। आप देखिए ।आपने कितनी गप्पें गढ़ीं हैं। आपने कितनी समस्याएं उत्पन्न की हैं। आपने कितने अगुवा का पतन किया है। आपने माँ के साथ कितनी चालबाज़ी की है । वग़ैरह । और वहाँ सहसा आप पाते है कि मैं तो चूक गया । क्या हो गया ? इसलिए स्वयं को धोखा मत दीजिए । स्वयं ही आत्मा हैं ।अपने साथ विश्वासघात न करें। यदि आप स्वयं को धोखा देते हैं, तो अंततः आप धोखा खा जाएँगे । और भले ही, आप सहज योगी रहे हैं, आपने मेरी पूजा में भाग लिया , आप यहां आए हैं तथा आप एक प्रमाणित सहज योगी के रूप में हैं , आपके सिर पर प्रकाश है। तब भी वे कहेंगे , “एक दूसरा जन्म लीजिए और फिर वापस आइए । एक दूसरा लीजिए ।चूँकि आप देखिए कि आप असफल रहे ।आपको एक और वर्ष व्यतीत करना होगा। एक और प्रयास करें। “
इसलिए एक अच्छा सहज योगी बनने का सबसे आसान तरीका है कि अपने आप को धोखा मत दीजिए । अपने ओर दृष्टि रखें ।यह मन कहाँ जा रहा है? मैं क्या सोच रहा हूँ? मेरा मन क्या कर रहा है? क्या मैं ? यह मनुष्य जो आ रहा है, क्या मैं उसे आत्म साक्षात्कार दे सकता हूं? क्या मुझे उससे सहज योग के बारे में बातचीत शुरू करनी चाहिए? रेलगाड़ी में बैठे हुए आप एक व्यक्ति को गौर से देखते हैं।हाँ! यह ठीक है! चलो इस व्यक्ति को कुशल ढंग से राज़ी करतें हैं। हर पल आपको मनुष्यों को मछलियों की भाँति पकड़ना पड़ता है। मैंने आपको सिखाया है कि इसे कैसे करना है। एक-एक करके उन्हें पकड़ते जाइए। और पहले से बृहद सामूहिकता बनाइए। अगर आपका चित्त इस पर है तब मैं कहूँगी कि आपने बुद्ध की तरह ही कार्य किया है। कारण कि बुद्ध ने बस वही किया था। सभी जगह से उन्होंने लोगों को एकत्रित किया। उन्हें वैराग्य के मार्ग पर चलने के लिए बताया। और उन्होंने उन सबको वैराग्य वाले परिधान एवं चीजें पहनने के लिए कहा। और उन्होंने कहा कि आपको स्वयं को अपने परिवार से , हर चीज़ से निर्लिप्त हो जाना चाहिए।
उन्होंने ये सब एक बात के लिए किया कि उन्हें वर्तमान जीवन के लिए तैयार होना चाहिए । यह कि उन्होंने ये सब कर लिया है ।परंतु हम नही चाहते कि आप भगवा रंग की पोशाक पहने । हम नही चाहते कि आप ये सब गलत काम करें, जिनकी आज आवश्यकता नहीं है। उन दिनों में ये सब सही था । लेकिन आज वे गलत हैं क्योंकि उनकी आवश्यकता नहीं है। जब इसकी आवश्यकता नहीं है, तो क्यों आप अपने सिर पर ढोएँ ।जैसे एक दिन मैंने किसी व्यक्ति को अपने सिर पर एक बड़ी नाव रखकर ले जाते देखा। मैंने कहा, “आप क्या कर रहे हैं?” उसने कहा, “मैं नाव ले जा रहा हूँ।” “किस लिए? आप क्यों नाव ढोकर ले जा रहे हैं? ” बोला, “आप देखिये कि मैं जानता हूँ कि यहां नाव ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि कोई समुद्र नहीं है ।पानी नहीं है। कुछ भी नहीं है। पर मैं बस यूँ ही ले जा रहा हूं।” “लेकिन आप इस बोझ को अपने सिर पर क्यों ढो रहें हैं?” “ चूँकि मैं ले जा रहा हूँ । आप समझ लीजिए ।”
तो हम बस ऐसे ही हैं। हम उन चीजों को ढो रहें हैं जिनकी आवश्यकता नहीं है। जैसे कि “माँ ! अभी तक मैं हठ योग करता रहा हूँ । क्या मैं थोड़ा हठ योग कर लूँ ?” “लेकिन आप इसे क्यों करना चाहते हैं? आपको इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।” “नहीं, नहीं , माँ ! लेकिन मैं यह करता रहा हूँ।” ” तो अभी भी इसे करो ।” क्या किया जाए ? यह अपने सिर पर एक नाव ढोने के समान ही मूर्खता है कि जिसकी आवश्यकता नहीं है, अनावश्यक रूप से आप समय नष्ट कर रहे हैं। “माँ ! मुझे इसकी आदत है। मैं ऐसा ही करता था । इसलिए मुझे यह करना ही चाहिए।”
आपके लिए सहज योग में हर चीज़ बहुत ही आसान बना दी गई है। बहुत ही आसान ।आपको भूखा नहीं रहना है ।आपको उपवास नहीं करना है। ज़रूरी नहीं कि आप शाकाहारी ही रहें । आपको जाकर धूप में नहीं बैठना है या हिमालय पर जाकर ध्यान नहीं करना है। ऐसा कुछ नहीं। जहां चाहें आप आराम से बैठ सकते हैं एवं ध्यान कर सकते हैं। हर चीज़ आसान कर दी गई है। एक बार जब आप आत्मा में स्थित हो जातें हैं, तो आप प्रत्येक सुंदर वस्तु का आनंद ले सकते हैं। समग्रता में ,हो सकता कुछ लोगों के लिए यह सच में अति की दशा हो । आप सहारा रेगिस्तान में बैठे हुए हैं। सब कुछ आपके सिर पर उड़ रहा है। यह क्या है? हम यहां कैसे रह सकतें हैं? इतना रूखा जीवन ! आपको ऐसी अनुभूति नहीं होती है क्योंकि आप के अंदर आत्मा का चैन है। यह आत्मा का सुकून है ।और आत्मा के सुकून के लिए आपको कुछ नहीं चाहिए। यही आपमें है।
तो अर्थहीन चीजों को ढोते मत घूमिए ।कारण कि बुद्ध गोल-गोल घूमते रहे। जैसा कि हम आज इस कार्यक्रम में आए है।मैं बस बुद्ध की ही तरह सोच रही थी। इस छोर से जाकर । वापस इसी छोर से आकर। फिर मैं इसे नहीं ढूँढ़ सकी। फिर वह छोर ।फिर इस रास्ते से आना। अंततः हम यहाँ पहुँच गए। यह बंद पाया गया ।मैंने कहा, “उन्हें एक बंधन दे दो ।” समाप्त ! खुल गया!
तो यह बंद था ।वह बंद था । इस रास्ते से , उस रास्ते से जाइए ।ठीक है। यह उनके लिए बंद किया गया था। इसलिए वे गोल गोल घूमते रहे। परंतु यह आपके लिए बंद नहीं किया गया है। क्यों पुनः आप गोल गोल घूमना चाहते हैं। परंतु ऐसा ही आज भी है ।प्रत्येक व्यक्ति उसी तरह करना चाहता है। हमें त्याग करना ही चाहिए।हमें इसे छोड़ देना ही चाहिए। हमें ऐसा ही करना चाहिए। आप क्या त्याग करने जा रहे हैं? त्यागने योग्य यहाँ क्या है? मैं सहज योग में यह जानना चाहूंगी। बेशक, मुझे लगता है कि अधिकांश लोग अपने मस्तिष्क का ही त्याग करते हैं ।जब कुछ भी नहीं त्यागना है , तो आप बलि का बकरा क्यों बनना चाहते हैं?
अतः बुद्ध के जीवन से, आपको यह शिक्षा नहीं ग्रहण करना है कि वे जंगलों में गए तथा उन्होंने जाकर यह किया ।और उन्होंने सन्यास भी लिया। उन्होंने अपनी पत्नी को त्याग दिया। नहीं! अब इसकी आवश्यकता नहीं है।वह बस हो गया । यही है जहां हम विफल हो जातें हैं ।और हम लोगों को यह नहीं समझा सकते हैं कि जो लोग कहते हैं, “लेकिन हमें सन्यास लेना ही चाहिए।” सन्यास हमारे अंदर निहित है , रेत की तरह। जैसा कि मैंने आपको बताया था ।
निर्लिप्ता हमारे अंदर निहित है। परंतु यह करुणा है। शुद्ध करुणा ही अत्यंत निर्लिप्त चीज़ है। सबसे निर्लिप्त चीज़ शुद्ध करुणा ही है।या कोई भी पावन चीज़ इसलिए पवित्र है क्योंकि यह निर्लिप्त है। यह एक उचित गणित है। जो कुछ भी निर्मल है वह निर्लिप्त ही होगी ।यदि इसमें आसक्ति है, तो यह दूषित होगी। तर्क देखिए ।यहाँ निरपेक्ष गणित है ।यदि आप में निर्वाज्य प्रेम है, तो आप निर्लिप्त हैं।
अब मान लीजिये आप माँ से प्रेम करते हैं । ठीक है। मान लीजिए ।अब जैसे कि, आपका मेरे प्रति निर्वाज्य प्रेम है, तो फिर आप कुपित नहीं होंगे यदि मैं आपके घर नहीं आती हूँ ।आप निराश नहीं होंगे यदि मैं आपकी कार में नहीं बैठ सकती । आप दुखी नहीं होंगे क्योंकि मैं आपकी साड़ी नहीं छू सकी। चूँकि मैं माँ से बस प्रेम करता हूँ। बस हो गया । यह यहीं ख़त्म । केवल निर्मल प्रेम। निःसंदेह , मैं इन दुर्बलताओं को जानती हूं।इसलिए मैं आपको प्रसन्न करने का प्रयास करती हूँ। ठीक है। सब ठीक है। पर वास्तव में, यदि आप मुझे सच में प्रेम करते हैं, बस ठीक है ।मैं उन्हें प्यार करता हूँ और वे मुझे प्यार करतीं है ।बस हो गया । चाहे वे मेरे घर आतीं हैं या नहीं। चाहे वे मुझे कोई भेंट देतीं हैं या नहीं । चाहे वह मेरी पीठ थपथपातीं हैं या नहीं । चाहे मैं उन्हें देख सकता हूँ या नहीं । चाहे मैं उनसे मिल सकता हूँ या नहीं ।इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं उनसे प्रेम करता हूँ ।यही प्रेम की निर्वाज्यता है। जहां किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं है, सिवाय इसके कि मैं प्रेम करता हूँ । और यह प्रेम आनंद का सागर है। एवं निरानंद का सागर है। बस हो गया ।
सबसे सरल चीज़ है प्रेम करना । मात्र प्रेम। कैसे आपके हृदय का विस्तार एक सागर की तरह हो जाता है ।मैं बस प्रेम करता हूं। समुद्र किसी भी तट से बंधा नहीं है। जब इसे आना होता है, तो वह बाहर आ जाता है।जब उसे वापस जाना होता है, तो वह वापस चला जाता है। जब इसे वर्षा के लिए पानी देना होता है, यह देता है।बादल बनाने के लिए पानी ऊपर जाता है ।फिर पानी वर्षा के रूप में गिरता है ।पुनः यह समुद्र में वापस आ जाता है ।यह कहीं भी नहीं ठहरता है। ठीक इसी तरह यदि हम बस सोचें कि क्या मेरे अंदर यह अनुभूति है कि मैं माँ से प्रेम करता हूँ। कैसी अनुभूति है यह ।यही हर चीज़ की परिणति होनी चाहिए । पूर्णरूपेण । मैं इसी प्रकार अनुभव करतीं हूँ ।अन्यथा प्रतिदिन मैं दोषी महसूस करुँगी ।ओह, मैं उसे देख कर मुस्कुराई नहीं ।मैंने इसे कोई भेंट नहीं दिया। मुझे उस व्यक्ति के लिए कुछ विशेष लाना चाहिए था। मुझे कार्यक्रम के लिए देरी हो गई। परंतु मुझमें दोष भाव नहीं आता क्योंकि यह सब सुनियोजित है। यदि मैं पहले ही आ गई होती तो हमें सताने के लिए ये विघ्नकारी तत्व विद्यमान रहते । इसलिए सभी भयानक लोग विलुप्त हो गए ।और हमारे साथ उपयुक्त लोग हैं। फिर मैं पूरे समय जमीं हुई हूँ ।मैंने नहीं कहा कि मैं वापस जा रही हूँ।घबड़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि माँ को विलंब हो रहा है, तो अवश्य ही कोई प्रयोजन होगा। यदि वे समय से पहले हैं , तो अवश्य ही कोई प्रयोजन होगा। यदि वे इस विमान से जा रही है एवं दूसरे से नहीं, तो कोई मंतव्य अवश्य होगा ।इसमें संदेह नहीं करना है। यदि वे कुछ कर रहीं हैं , तो अवश्य ही कोई योजना होगी। आप जानते हैं कि माँ की अपनी योजनाएँ होतीं हैं। इस तरह सोचना एक बढ़िया विचार है। उनकी अपनी योजनाएँ हैं, आप जान लीजिए । एक बार जब आपमें इस प्रकार की अनुभूति आना शुरू हो जाती है , तो आपके अस्तित्व में अत्यधिक सुरक्षा एवं अत्यंत परम शांति व्याप्त हो जाएगी ।और आप बिल्कुल संतुष्ट हो जाएँगे ।
अब, हर कोई मेरे लिए भोजन ले आता है । उधर निगाह डालिए ।मेरा अभिप्राय है ,जब मैं उसे देखती हूँ मैं डर जाती हूँ ,बाबा। मेरा मतलब है इसे ध्यान से देखिए ।मुझसे अपेक्षा की जाती है मैं इसका स्वाद चखूँ ।परंतु स्वाद चख़ना भी बहुत अधिक हो जाएगा । लेकिन आपको मालूम है कि मुझे खाना पड़ता है । क्योंकि यदि मैं उनमे से किसी एक को भी नहीं छूती हूँ तो फिर, वे सोचेंगे कि माँ ने क्यों हाथ भी नहीं लगाया । अवश्य ही कुछ ख़राबी रही होगी । यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी समस्या है कि आपको प्रसन्नचित एवं निश्चिंत रखूँ । लेकिन मैं आप सबको विश्वास दिलाती हूँ कि मैं आप सभी से बहुत ही प्रेम करती हूं। भले ही आप मेरे लिए भोजन लाएं, या मेरे लिए फूल या कुछ भी। यह महत्वपूर्ण नहीं है।
जब मैं बोगोटा से जा रही हूं, तो मुझे हार्दिक कष्ट हो रहा है। मैंने अपने हृदय की पीड़ा को देखा है। मैंने देखा है। कारण कि यहाँ मैं सभी नए साधकों को छोड़ कर जा रही हूं ।बस। तो मैं बिल्कुल सामना नहीं करना चाहती, मेरा अभिप्राय है, उस बात को जो मैं महसूस करतीं हूँ कि परमात्मा, ज़रा देखिये मैं उनसे बिछुड़ रही हूँ।परंतु चूँकि मैं उनसे प्रेम करती हूँ ,इसलिए मैं देखती हूं।चूँकि मैं उनसे प्रेम करती हूं,मैं इसे अनुभव करती हूँ ।इसलिए यह दर्द भी ठीक है, क्योंकि मैं उनसे प्रेम करती हूं। मैं उस वियोग का आनंद लेती हूं क्योंकि मैं उनसे प्रेम करती हूँ। और फिर मैं यहां आती हूँ और आप सभी को हवाई अड्डे पर खड़े हुए देखती हूँ। सभी कुछ पुन: परिपूर्ण हो जाता है। केवल इसलिए नहीं कि आप आए हैं ।अपितु मैं आई हूँ आपको प्रेम करने । यह सब अति मधुर संबंध है एवं बहुत ही सुखद अनुभूति है। मैं चाहती हूं कि आप सभी इसका मज़ा लें और न कि उन क्षुद्र बातों का एवं तुच्छ चीज़ों का जो आपके आनंद को दूषित करती हैं। ये सभी आनंद के संहारक हैं। और यही कारण है कि आनंद का सबसे बड़ा संहारकर्ता यही नासमझ अहंकार है, जो आपको बताता है कि ओह ! क्यों नहीं माँ ने ऐसा किया या वैसा किया? यह अहंकार पक्ष है। इसीलिए हमें बुद्ध का स्मरण करना होगा । और उनकी जयंती का उत्सव अपने अंदर मनाना होगा । ताकि वे स्थापित हो सकें यह कहने के लिए कि यह अहंकार हमारे आनंद को छीन नहीं सकता है। कहीं भी इस तरह का विचार जब आपके मस्तिष्क में आता है तो उसे बताएं कि श्रीमान अहंकार अब मैं आपको बहुत अच्छी तरह से जानता हूं । बुद्ध के प्रकाश में आप अपने अहंकार को बहुत स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। और वे ही आपके अहंकार के संहारक हैं ।वे ही हैं जो आपके अहंकार का समूल अंत करते हैं ।
इसलिए आज हमें प्रार्थना करनी होगी पूरे अमरीका के लिए जो सच में पीड़ित है, इस निरर्थक एवं मिथ्या अहंकार से जिसे हर एक उपयोग में ला रहा है। लोग उन्हें मूर्ख बना रहे हैं। प्रचारतंत्र मूर्ख बना रहा है । सभी चिकित्सक मूर्ख बना रहें हैं ।सभी मनोवैज्ञानिक मूर्ख बना रहें हैं । सभी सरकारें मूर्ख बना रहीं हैं। मेरा अभिप्राय है, मैं नहीं जानती, प्रत्येक व्यक्ति को ठगा जा रहा है क्योंकि उनमे अहंकार है ।अगर उनमे कोई अहंकार नहीं होता, तो उन्हें ठगा नहीं जा सकता था। ये सभी विज्ञापन तथा ये सब धोखा धड़ी जो चल रही है, इसका कारण है कि मनुष्य में , अहंकार है एवं वे इसे नहीं देख सकते।
अतः हमें प्रार्थना करनी होगी , “माँ ! कृपया अमरीकावासियों को एवं अमरीका को अहंकार के इस अभिशाप से मुक्त कर दीजिए ।” इसीलिए आज अत्यंत उपयुक्त है कि हम यह बुद्ध पूजा कर रहे हैं।
परमात्मा आप सबको आशीर्वादित करें !