श्री कृष्ण पूजा (साक्षी भाव की स्तिथि )
इटली , 6 अगस्त 1988.
आज हम यहाँ एकत्रित हुए हैं, श्री कृष्ण की पूजा करने के लिए।
हमें, विशुद्धि चक्र पर श्री कृष्ण के अवतरन के महत्व को समझना चाहिए। जैसा कि आप अच्छी तरह से जानते हैं, सिवाय एक या दो बार,श्री ब्रह्मदेव ने अपना अवतार लिया है। और एक बार श्री गणेश ने जन्म लिया, भगवान येशु मसीह के रूप में । लेकिन विष्णु तत्व, विष्णु के तत्व ने इस धरती पर कई बार जन्म लिया है, जैसे कि देवी को कई बार अपना जन्म लेना पड़ा।
उन्हें कई बार एक साथ काम करना पड़ा और विष्णु तत्व के साथ महालक्ष्मी तत्व ने कार्यान्वित होकर लोगों के उत्थान में मदद की है ।
तो विष्णु का तत्व आपके उत्थान के लिए है, मनुष्य के उतक्रान्ति की प्रक्रिया के लिए है। इस अवतार के माध्यम से और महालक्ष्मी की शक्ति के माध्यम से, हम अमीबा के स्तर से मनुष्य बन गए हैं।
ये हमारे लिए एक स्वाभाविक क्रिया है। लेकिन विष्णु के तत्व के लिए उन्हें, विभिन्न अवतारों से गुजरना पड़ा, उत्थान के लिए।
जैसा कि आप जानते हैं कि श्री विष्णु के कई अवतार हुए, शुरुआत में मछली के रूप में और ऐसा चलता रहा श्री कृष्ण की स्थिति तक, जहाँ कहा जाता हैं कि वे सम्पूर्ण बन गए ।
लेकिन हमे समझना होगा कि वे हमारे मध्य नाड़ी तंत्र पर काम करते है, वे हमारे मध्य नाड़ी तंत्र का निर्माण करते है।
हमारी उत्क्रांति की प्रक्रिया के माध्यम से हमारे मध्य नाड़ी तंत्र का निर्माण हुआ है।
और इस सेंट्रल नर्वस सिस्टम ने हमें सभी मानवीय जागरूकता दी है, जो हमारे अंदर है।
नहीं तो हम बिलकुल पत्थर की तरह होते। लेकिन इस जागरूकता के रचना के माध्यम से, एक के बाद एक, हमारे भीतर विभिन्न चक्रों के निर्माण से, इस विष्णु तत्व ने हमें यह समझ दी कि है, हमें सत्य की खोज करनी होगी और अंततः हमें सहज योगी बनना होगा।
तो श्री कृष्ण का यह तत्व इतना महत्वपूर्ण है कि इस स्थिति में, जिसे आप विशुद्धि चक्र कहते हैं, हम पूर्ण हो जाते हैं। इस अर्थ में कि जब आपके लिए सहस्रार खोला जाता है और आप चैतन्य महसूस करना शुरू करते हैं, तब आप पूरी तरह से सम्पूर्ण नहीं होते। यदि आप बिल्कुल सम्पूर्ण होते, तो ये आपकी उत्क्रांति का अंत होता। क्योंकि उस स्तर पर, यदि आप इसे पूरा कर लेते, तो सहज योग की कोई आवश्यकता नहीं होती।
लेकिन वास्तव में इसका ये मतलब है कि एक बार जब सहस्रार खोला जाता है तो, आपको इसके नीचे अपनी विशुद्धि चक्र पर आना होता है, जिसका अर्थ है आपकी सामूहिकता । यदि यह आपके विशुद्धि चक्र पर काम नहीं कर रहा है, विशुद्धि चक्र की जागृति, तो आप चैतन्य महसूस नहीं कर सकते।
जैसे कि आपने कल देखा, कलाकारों ने एक नए ही आयाम से बजाना शुरू कर दिया। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उन्हें कुंडलिनी की जागृति मिली थी। कुंडलिनी की जागृति तो हुई थी, निःसंदेह। लेकिन इसे उनके विशुद्धि चक्र तक उतरना था।
अगर मैं इसे उनके विशुद्ध चक्र तक वापिस नहीं लाती, तो उनके हाथ उस तेज़ी से नहीं चलते, उन्हें कभी उस मिठास, श्री कृष्ण का माधुर्य का एहसास नहीं होता, और उनसे इसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती।
तो वो सब जो आपकी उंगलियों और हाथों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, एक नई जागरूकता को प्राप्त करता है, उस माधुर्य का सृजन करता है, उस मधुरता का । आपकी कला में, आपके संगीत में, आपके हावभाव में, हर तरह से, आपके हाथ बहुत महत्वपूर्ण हैं।
लेकिन विशुद्धि चक्र भी भूमिका निभाता है, जैसा कि आप जानते हैं,सोलह चक्रों पर या उप-नाड़ी जाल पर जो हमारे चेहरे, हमारे कान, नाक, आंख, गर्दन की देखरेख करते हैं, इन सभी चीज़ों की विशुद्धि चक्र द्वारा देखभाल की जाती है।
परिणामस्वरूप, आप महान अभिनेता बन सकते हैं, आपको ऐसी आंखें मिल सकती है जो अबोध हो। आपको ऐसी त्वचा मिल सकती है जिसमें चमक हो, आपके कान ऐसे हो सकते हैं, जो दैवीय संगीत को सुन सकते हैं, आपकी नाक ऐसी हो सकती है जो आपकी गरिमा को दर्शाते हो । इसी तरह से आपके पूरे चेहरे की अभिव्यक्ति बदल जाती है।
यदि आप बहुत कठोर व्यक्ति हैं और गर्म स्वभाव वाले व्यक्ति हैं और आपके चेहरे पर कठोरता है, या फिर आप हर समय भिखारी की तरह रहते हैं, या आप हर समय रोते रहते हैं, रोना धोना, तो आपका चेहरा बिल्कुल दीन लगता है। सब कुछ बदलता है और मध्य में आ जाता है, जहां आप सुंदर दिखते हो। आप आकर्षक दिखते हो, दैवीय प्रकार से, और साथ ही आपको एक बहुत मधुर मुखाकृति प्राप्त होती है।
और दांतों और जीभ की भी देखभाल विशुद्धि चक्र द्वारा होती हैं। तो आपके दाँत जो परेशानी में हैं वे ठीक हो जाते हैं, आप कभी जैसा कि मैंने आपको बताया था, मैं पूरे जीवन में कभी भी दन्त चिकित्सक के पास नहीं गई।
तो आप कल्पना कर सकते हैं कि आपको दंत चिकित्सक के पास जाना नहीं पड़ेगा, यदि आप अपने विशुद्ध चक्र को ठीक रखें । और आपकी जीभ में भी सुधार होता है।
उदाहरण के लिए कुछ लोग बहुत निंदापूर्ण स्वभाव के होते हैं। वे कुछ मीठा नहीं बोल सकते। हर समय वे कटुतापूर्ण होते हैं, ताने देकर बात करते है। कुछ लोगों में गाली देने की आदत होती है। कुछ लोग बिलकुल ही भिखारीपन वाले होते हैं, हर समय बिलकुल भिखारीपन में बात करते हुए । कोई गरिमा नहीं होती, कोई मिठास नहीं होता । और कुछ लोगों में कोई आत्मविश्वास नहीं होता।
कुछ लोग हकलाते भी हैं। कुछ लोग मंच पर खड़े होकर भाषण नहीं दे सकते। ये सभी चीजें समाप्त हो जाती हैं जैसे ही आपकी विशुद्धि चक्र में सुधारता होती है।
यह केवल बाहरी है। ये बाहरी अभिव्यक्ति है विशुद्धि चक्र के सुधार की, जो आपके अंदर श्री कृष्ण की जागृति से विशुद्धि चक्र पर हुई। लेकिन वास्तव में क्या होता है कि, अपने भीतर से, आप एक साक्षी बन जाते हो। आप साक्षी बन जाते हो, मतलब ये है कि, जो कुछ भी परेशान कर रहा है, सभी कुछ जो कष्ट दे रहा है, सभी कुछ जो एक समस्या है, आप बस उसे देखना शुरू कर देते हो। आप उसके साक्षी बन जाते हो, आप उसे देखना शुरू कर देते हो, और आप परेशान नहीं होते।
उसे देखने में, उस साक्षी भाव में बहुत शक्ति है। कुछ भी जब आप बिना सोचे देखते हो, आपकी समस्याएं हल हो जाती हैं। आपकी कोई भी समस्या हो, एक बार जब आप इस साक्षी भाव को प्राप्त कर लेते हैं, जिसे आप तटस्थ कहते हैं, इसका मतलब है कि आप तट पर खड़े हो और लहरों को हिलते देख रहे हो, तो आप जान जाते हो कि समस्याओं को कैसे हल करना है।
तो आपके साक्षी भाव को विकसित करना होगा। और कभी-कभी मैंने देखा है कि लोगों को उस साक्षी भाव को विकसित करने के लिए कुछ कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। ये बहुत ज़रूरी होता है कि, एक बार जब कुंडलिनी आपके सहस्त्रार से नीचे की तरफ़ आपकी आपूर्ति करना शुरू कर देती है, आपके चक्रों पर होते हुए, और चक्रों को समृद्ध करते हुए, जब उन्हें विशुद्धि चक्र पर रुकना होता है, तो यह वास्तव में आपको थोड़ी सी अशांति में ले जाने की कोशिश करती़ं है।
और आप सोचने लगते हैं कि “अब देखो, मेरा जीवन कितना आनंदमय था, मेरे पास बहुत सारे आशीर्वाद थे, और अब क्या हो गया?”
लेकिन यही वो समय है, जब आपको तटस्त होना चाहिए। मतलब आपको साक्षी बनना चाहिए। अगर आप साक्षी बन जाते हैं, तो सब कुछ सुधर जाता है।
उदाहरण के लिए कहें तो, आप एक व्यक्ति हैं जो किसी स्थान पर काम कर रहें हैं। जैसे ही आप साक्षी बन जाते हैं, आप देखेंगे कि, आपका चित्त अंदर जाता है और आप चीजों को अंदर से बाहर की ओर देखना शुरू कर देते हैं।
परिणामस्वरूप आप साफ तौर से देख सकते हैं कि निश्चित रूप से, कहां पर क्या गलत है, और जैसे कि आपको साक्षी भाव की शक्ति मिली है, तो उस शक्ति से आप उन समस्याओं को पार कर लेते हैं, जो आप पर हैं। समस्याएं बड़ी आसानी से हल हो जाती है, यदि आप जानते हो कि पूरी स्थिति में कैसे साक्षी भाव में रहना है, न कि इसमें शामिल होना है।
और ये सबसे अच्छी स्तिथि है, जिसे आप साक्क्षिस्वरूपत्व कहते हैं, जिसे आप प्राप्त करते हैं, जब कुंडलिनी ऊपर आती हैं, और संबंध स्थापित हो जाता है, और ईश्वरीय कृपा इसके बीच से बहने लगती है और आपके विशुद्धि चक्र को समृद्ध करती हैं।
अब श्री कृष्ण का नाम कृषि शब्द से आया है, जिसका अर्थ है जुताई। मिट्टी की जुताई ,फसल को बोने के लिए ।
अब वे ही हैं, जिन्होंने हमारे लिए जुताई की, इस अर्थ में कि, उन्होने हमें इस तरह से बनाया है कि जब अंकुरित करना हो तो आप पहले से ही तैयार हों। लेकिन जैसा कि होता है, हम इंसान कई गलत चीजों से अपने विशुद्धि चक्र को खराब कर देते हैं। जैसा कि आपने देखा होगा कि हम धूम्रपान करते हैं या हम ड्रग्स लेते हैं, या हम तम्बाकू और आदि लेते हैं, तो हमारा विशुद्ध चक्र खराब हो जाता है।
ऊपर से, यदि आप एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो बिल्कुल भी बात नहीं करते है या जो बहुत अधिक बात करते है, या जो चीखते और चिल्लाते है, और जो गुस्सा दिखाते है, अपनी आवाज ऊंची करते हैं, तो वे अपनी विशुद्ध चक्र भी खराब कर लेते हैं।
तो पहली बात यह है कि, जब विशुद्धि चक्र का उपयोग करें, तो आपको ये याद रखना होगा कि, इसका उपयोग किया जाना चाहिए, मधुरता के लिए, माधुर्य के लिए। अगर आप किसी से कुछ कहना चाहते हो, तो कोशिश करें कि कुछ ऐसा कहे जो मीठा और अच्छा हो। इसका अभ्यास कीजिए।
कुछ जगहों पर मैंने देखा है कि लोगों को आदत होती है एक तरह से बात करने की, और कभी-कभी वे इस तरीके से बात नहीं कर सकते हैं, जो की मीठा हो। उनके लिए तो जैसे अधर्म हो, किसी से मीठी बात करना।
वे केवल यह सोचते हैं कि इस तरीके से बात करनी चाहिए जिससे दूसरों को दुख पहुंचे । तो, किसी को दुख पहुंचाना, श्री कृष्ण के धर्म में नहीं है। वे या तो किसी को मार देते थे या वे मीठे थे। बीच में कुछ भी नहीं है। या तो आपको लोगों से मीठा होना होगा या आपको किसी को मारना होगा। अब मारने का काम, आप छोड़ दीजिए।
तो आप केवल मीठा हो सकते है। आप सब को एक-दूसरे के प्रति मधुर होना होगा। विशेष रूप से सहज योगियों के बीच। आपको एक-दूसरे के प्रति बहुत ही मीठा होना पड़ेगा।
और दूसरों के साथ व्यवहार करते हुए भी, मीठे तरीके से ही आपको उन्हें बताना होगा, यदि आपको उनका कुछ गलत लगता है। कि “देखिये, यह अच्छा नहीं है। अब आप सहज योग में आ गए हैं। अब आपको केवल इस तरह से व्यवहार करना चाहिए या उस तरह से व्यवहार करना चाहिए।
अब श्री कृष्ण के जीवन का एक और महत्वपूर्ण योगदान है। वो ये की वे इस धरती पर श्री राम के अवतार के बाद थे, और वे भी श्री विष्णु ही थे।
जब श्री राम आए, तो लोग बहुत अंजान थे। उन्हें धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
तो एक राजा के रूप में वे उन्हें धर्म सिखाना चाहते थे, और इसलिए उन्हें बहुत गंभीर बनना पड़ा।
इसलिए उनका अवतार, एक प्रकार से, बहुत ही गंभीर पिता के स्वरूप का था। जो सभी प्रकार की उथल-पुथल और चीज़ों में से बहुत गंभीरता से गुजरे, एक उदार राजा की छवि बनाने के लिए।
परिणामस्वरूप जब वह, उनका अवतार समाप्त हुआ, तो लोग बहुत गंभीर हो गए। और धर्म में सारी गंभीरता शुरू हो गई, सभी कर्मकांड शुरू हो गए। लोग बेहद कठोर हो गए। और उस कठोरता ने जीवन के सभी आनंद को समाप्त कर दिया। और फिर सभी प्रकार की अन्य चीजें भी शुरु हो गई, उस कट्टरता के साथ। जो कि ब्राह्मणवाद की शुरुआत है। भारत में ब्राह्मणवाद की शुरुआत तब हुई, जब लोगों ने ब्राह्मणवाद को जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जबकि ब्राह्मण होना, किसी का भी जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है बल्कि आपको ब्राह्मण बनना पड़ता है।
आत्म साक्षात्कार के बाद आप ब्राह्मण बन जाते हैं।
यह तथ्य न केवल श्री कृष्ण के समय में स्थापित किया गया था बल्कि श्री राम के समय में भी। क्योंकि श्री राम स्वयं भी ब्राह्मण नहीं थेI
उन्होंने एक व्यक्ति से अपनी रामायण लिखवाई, जो कि वाल्मीकि थे, जो एक अनुसूचित जाति के थे और एक मछुआरे थे। बहुत आश्चर्य की बात है, उन्होंने इस मछुआरे को अपनी रामायण लिखने के लिए कहा, जब वे ब्राह्मण नहीं थे। और उन्होंने उन्हें ब्राह्मण बना दिया। इस तरह से जैसे कि आप ब्राह्मण बने हैं, अर्थात ब्रह्म को जानने वाला । जो ब्रह्म को जानते हैं वे ब्राह्मण हैं, और जो ब्राह्मण जाति में पैदा हुए है वे ब्राह्मण नहीं हैं।
और इसीलिए लोग कभी-कभी बहुत परेशान हो जाते हैं कि ये ब्राह्मण कैसे हो सकते हैं, अगर वे इतने विकृत हैं, और सभी प्रकार के पाप कर सकते हैं।
तो ऐसे किसी भी धर्म या ऐसे किसी भी कट्टर विचारों का पालन करके, आप बेहतर नहीं हो सकते।
यदि आप अपने आप को ईसाई कहते हैं, तो इसाईयो में एक चीज़ दिखनी चाहिए कि आपमें व्यभिचारी आँखें नही होनी चाहिए। अब मैं जानना चाहूंगी कि कितने ईसाई ऐसा दावा कर सकते हैं। यदि उनकी व्यभिचारी आंखें नहीं हैं, उदाहरण के लिए, महिलाओं के प्रति, तो भी वस्तुओं के बारे में उनकी आंखें व्यभिचारी होंगी।
इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि ईसाई बनकर, हम वास्तव में ईसाई बन गए हैं। इसी तरीके से हम हिंदुओं के बारे में कह सकते हैं। हिंदू धर्म में, कृष्ण ने कहा है कि सभी में आत्मा का वास होता है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि जन्म आपकी जाति, आपका ‘संप्रदाय’ निर्धारित करता है।
लेकिन हिंदुओं में हम मानते हैं कि हर किसी की एक जाति है और हर कोई कुछ अलग चीज़ है; कुछ लोगों से नीचा व्यवहार करना चाहिए , और कुछ लोगो से ऊंचा। ये बिलकुल, श्री कृष्ण के उपदेश के विपरीत है, क्योंकि उन्होंने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा है। और अब सहज योग में हमने सिद्ध किया है कि आप किसी भी धर्म का पालन करते हो, किसी भी चीज का अनुसरण करते हो, विचार या दर्शन, चाहे जिसका भी आप अनुसरण करते हो, आप सभी आत्म- साक्षात्कारी बन सकते हो।
इसलिए कोई भी ऊंचा नहीं है, कोई भी नीचा नहीं है । तो बड़ी अच्छी चीज़ है, ये मानना कि अन्य सभी गलत हैं और हम सही हैं। लेकिन ऐसा विश्वास रखने वाले सभी लोगों को शायद सीधे नरक जाना पड़ सकता है । क्योंकि वे सच्चाई तक नहीं पहुंचे हैं। सच्चाई यह है कि आपको एक आत्मा साक्षात्कारी बनना होगा। और यदि आप एक आत्मा साक्षात्कारी नहीं हैं, तो आप कहीं भी भगवान के समीप नहीं हैं।
आपको परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना होगा । स्वयं इसा मसीह ने कहा था कि, आपको परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना होगा । आपको फिर से जन्म लेना होगा । और “जब आप मुझे ईसा , ईसा , कह कर पुकारेंगे तो मैं आपको नहीं पहचानूंगा ।”खुले तौर पर उन्होंने कहा है।
उन्होंने आपको चेतावनी दी है। ऐसा ही मोहम्मद साहब ने खुद कहा था कि “जब क़ियामा का समय, जो कि पुनरुत्थान है, आयेगा, आपके हाथ बोलेंगे । “और उन्होंने भी बहुत स्पष्ट रूप से कहा है, कि क़ियामा तक आप ये सब करते रहिए, जैसे, आप देखते हैं, रोज़ा और इत्यादि।
लेकिन जब कियामा आ जाएगा, जब आपको अपना पुनरुत्थान मिल जाएगा, तब आपको ये सब नहीं करना पड़ेगा । स्पष्ट रूप से उन्होंने यह कहा । लेकिन कोई भी कियामा का पता लगाने की कोशिश नहीं कर रहा है। वे केवल इसमें या उसमें गलती ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, और एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं।
अब इस पुनरुत्थान के समय के बारे में वे पहले ही बता चुके है, की जब आपके हाथ बोलेंगे, जो कि सहज योग में होगा । तो इसके बाद आपको और कुछ नहीं करना है । अब आप एक पीर बन गए हैं, उनके अनुसार। एक बार जब आप वली बन जाते हो, तो आपको ये सब चीज़े करने की ज़रूरत नहीं होती, और आप धर्मातीत बन जाते हो ।
ऐसा भारतीय दर्शन में श्री कृष्ण द्वारा भी कहा गया है, कि आप धर्मात्मातीत बन जाते हो । आप धर्म के परे हो जाते हो । मतलब धर्म आपका अंग प्रत्य-अंग बन जाता है। आपको बाहरी धर्मो की ज़रूरत नहीं होती, जो कि किसी काम के नहीं है। ऐसा साफ तौर पर कहा गया है।
और श्री कृष्ण ने कहा है, जितने भी स्पष्ट तरीके से हो सके, बिलकुल ही स्पष्ट तरीके से कि, आपको अपने गुणों के परे, धर्म के परे, जाना होगा । इसका मतलब है कि आपको एक ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा, जो आंतरिक तौर पर धार्मिक है। ना कि ऐसा व्यक्ति बने जो सिर्फ बाहरी तौर पर कुछ है, जैसे ईसाई, हिन्दू, मुस्लिम। नहीं । नहीं, अंदर से, अंदर से आपको बनना है।
अब उसके परिणामस्वरूप आप देख सकते हैं कि श्री कृष्ण ने क्या कहा, कि “एक बार जब आप अंदर से हो जाते हो, फिर मुझे आप से बोलना नहीं पड़ता कि, ‘शराब मत पियो, ऐसा मत करो, वैसा मत करो, कुछ भी नहीं। ” बस आप करते ही नहीं। आप ऐसा करते ही नहीं हैं, और आप इसे इतनी अच्छी तरह से समझते हैं कि ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए। धर्म के सभी प्रकार की निरर्थकता को दूर करने के लिए श्री कृष्ण का अवतार हुआ ।
ये बहुत महत्वपूर्ण अवतार है, लेकिन मैं नहीं जानती कि कितने लोग इसे समझते हैं। वे यह दिखाने के लिए आए थे कि यह सब लीला है। सब ईश्वर का नाटक है। गंभीर होने की क्या ज़रूरत है? कर्मकांडी होने की क्या ज़रूरत है? आप ईश्वर को किसी भी कर्मकांड में नहीं बांध सकते। इसलिए वे धरती पर आए, आपको बताने के लिए कि, आपको, अपने आप को ऐसे कर्मकांडों में नहीं बांधना चाहिए, जो कि निरर्थक हैं।
ये उनका उपदेश था कई सालों पहले। उन्होंने ये 6000 साल पहले सिखाया। फिर भी अगर आप देखें तो, हर धर्म में बहुत से कर्मकांड चल रहे है। तो जब अवतारों की मृत्यु हुई, तो लोगों ने शुरू कर दिए, कर्मकांड, विचित्र चीज़े।
जब श्री कृष्ण की मृत्यु भी हुई, तो उन्हें पता नहीं था कि अब क्या करें। क्योंकि उन्होंने कहा, “अब कोई कर्मकांड नहीं, बस होली खेलो, खुश रहो, आनंदित रहो, नाचो और गाओ । “ऐसा ही उन्होंने कहा था। तो अब क्या करें अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो।
तो उन्होंने एक नया प्रसंग शुरू कर दिया, “चलो हम इसे एक रोमांटिक वस्तु बना देते हैं । “इंसान जानते है, हर चीज को विकृत कैसे बनाना है । इस मामले में उन्हें कोई नहीं हरा सकता । तो उन्होंने उनको एक बड़े रोमांटिक व्यक्तित्व वाले की तरह दर्शाया, राधा से रोमांस करते हुए।
रा-धा, रा-ऊर्जा है, धा, वह है जो ऊर्जा को धारण करतीं है। तो, उनके साथ रोमांस दिखाना, पर वो तो साक्षात महालक्ष्मी थी!
महालक्ष्मी के साथ उनके रिश्ते को ऐसे दिखाना जैसे कि वे पति और पत्नी हों। और कुछ ऐसे कवि भी थे, जिन्होंने उन्हें पति-पत्नी और हर तरह के निरर्थक रूप में वर्णित करना शुरू कर दिया।
ईश्वरीय रिश्ते में पति-पत्नी जैसा कुछ भी नहीं है। वह निष्क्रिय शक्ति होती है और सक्रिय शक्ति होती है। ऐसा कोई भी संबंध नहीं होता है, जैसा मनुष्य इसे बनाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि मनुष्य कि आदत है, सभी दिव्या अवतारों को अपने स्तर पर ले आने की ।
जैसा कि आपने देखा है । यदि आप देखें तो, इसमें सबसे महिर यूनानी हैं, जो सभी महान अवतारों को अपने स्तर पर ले आए थे । इसी तरह, वे श्री कृष्ण के साथ ज्यादा कुछ नहीं कर सके । तो उन्होंने कहा, तो ठीक है, इन्हे रोमांटिक व्यक्तित्व बना दो, ऐसा हमारे लिए सही रहेगा ।” और ये कई दुष्ट लोगो के अनुकूल था ।
हमारे यहां एक नवाब थे, लखनऊ के, जिसकी 365 पत्नियाँ थी। और वो कभी श्री कृष्ण की तरह कपड़े पहन लेते थे, कभी राधा की तरह और नृत्य करते थे। और उन्होंने कहा, “अब मैं श्री कृष्ण बन गया हूँ।”
और, बहुत से, आप जानते हैं, गुरु आ गए, श्री कृष्ण बनकर, बांसुरी बजाते हुए, बनते हुए, बाकि सभी को अपनी गोपियां और ये और वो कहते हुए। सभी निरर्थक बातें । और अब हमारे यहां बहुत से समुदाय हैं, जो इस तरह काम रहे हैं, जैसे ब्रह्मकुमारियाँ, इत्यादि, जिसमें एक कृष्ण हैं और बाकी सभी गोपी और गोपा हैं। और वे विवाह नहीं करते हैं और हर तरह की निरर्थकता। यह बिल्कुल बेतुकी और विकृत बात है और श्री कृष्ण का नाम खराब करती है। श्री कृष्ण योगेश्वर थे ! वे योगेश्वर थे।
वह इतने अनासक्त थे कि एक बार उनकी पत्नियां, जो उनकी शक्तियां थीं, उन्होंने कहा कि हम उधर जाकर एक विशेष संत की पूजा करना चाहते हैं। उन्होंने कहा,”ठीक है, तो आप लोग क्यों नहीं जातीं? “उन्होंने कहा, “नहीं, नदी तूफ़ान पर है और हमें नहीं पता नदी को कैसे पार करें।” उन्होंने कहा, “ठीक है, आप जाइए और नदी से कहिए कि हम ऐसे एक संत के दर्शन करना चाहतीं हैं। और श्री कृष्ण ने कहा है कि आप नीचे आ जाइए। यदि श्री कृष्ण योगेश्वरा हैं, और यदि उनकी कोई पत्नी नहीं है, तो आप नीचे आ जाइए।”
तो वे नदी के पास गईं और कहा कि “यदि श्री कृष्ण की कोई पत्नियां नहीं हैं और वे योगेश्वर हैं, तो कृपया नीचे आ जाइए ।”नदी नीचे आ गईं। तो वे आश्चर्यचकित थे कि, “वे हमारे पति ठहरे और फिर भी वे योगेश्वर है।” वे इतने अनासक्त थे।
वे पार गए और उन्होंने जाकर संत की पूजा की। तो संत ने कहा, “अब आप वापिस जा सकतें हो।” जब वे वापिस आ रहीं थी तो उन्होंने पाया कि नदी फिर तूफ़ान पर है।
तो वे फिर से संत के पास गईं और उन्होंने कहा, “अब हम कैसे वापिस जाएँ?”। उन्होंने कहा, “आप आई कैसे ?” उन्होंने कहा, “श्री कृष्ण ने कहा था कि आप जाइए और नदी से कहिए कि अगर मैं योगेश्वर था, तो आप नीचे आ जाइए।”
“ठीक है, तो आप जाइए और नदी से कहिए की, “संत ने कुछ भी नहीं खाया, जो कुछ भी था । और वे इसके बारे में बिल्कुल अनासक्त थे । तो नदी नीचे चली जाएंगी।”
तो वे आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन्होंने तो उन्हे ( संत को ) खिलाया था। उन्होंने सब कुछ खाया था, उन्होंने सब कुछ किया था। तो वे नदी पर गए और कहा, “हे नदी, संत ने कभी कुछ नहीं खाया, वे भोजन के बारे में बिल्कुल अनासक्त थे, उन्होंने भोजन को नही छुआ” और नदी नीचे आ गईं।
तो वे आश्चर्यचकित थीं कि यह कैसे हो सकता है कि संत ने सब कुछ खाया और कुछ भी नहीं खाया? इसका मतलब है कि वे अस्वाद में थे। वे भोजन में लिप्त नहीं थे, वे अनासक्त थे। और वे आश्चर्यचकित थीं।
ये देखने में एक झूठ जैसा लगता है, देखिए, एक मानवीय दृष्टिकोण से। ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है। ये एक तथ्य है।
वे एक योगेश्वरा है और वे इतने अनासक्त है।
तो लोग दिव्यता को नहीं समझते और वे सोचते हैं कि ये कैसे ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति जिसकी 16,000 पत्नियां है और पांच अन्य पत्नियां हैं, वह ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है, जिसकी अभी तक शादी नही हुई है। क्योंकि वे योगेश्वर थे।
और ऐसा ही आप सब को भी होना होगा, योगेश्वर। आप शादीशुदा हैं, आपके बच्चे हैं। मुझे खुशी है कि आप शादीशुदा हैं। क्योंकि ऐसा करना एक शुभ कार्य है, शादी के साथ शुरुआत करना।
लेकिन आपको अपने परिवार में लिप्त नहीं होना चाहिए, “मेरे बच्चे, मेरा परिवार”। बहुत से लोग, मैंने देखा है, वे सहज योग में आते हैं, शादी करते हैं और गुम हो जाते हैं। उनका सोचना है कि शादीशुदा हूं, अब मैं अपने परिवार का आनंद ले रहा हूं, अपने परिवार की देखभाल कर रहा हूं।
हमारा परिवार पूरा ब्रह्मांड है। ये नहीं कि, सिर्फ मेरी पत्नी और मेरे बच्चे, बल्कि पूरा ब्रह्मांड हमारा परिवार है। और यही श्री कृष्ण ने अपने जीवन में यह दिखाने की कोशिश की, कि पूरा ब्रह्मांड, आपका परिवार है। आप एक सर्वलौकिक प्राणी हैं।
उन्होंने निरंतर यही उपदेश दिया था, कि आप एक सर्वलौकिक प्राणी हैं और आपको सम्पूर्ण का अंग-प्रत्यंग बनना होगा। आप सम्पूर्ण के अंग-प्रत्यंग हो । सूक्ष्म-जगत, स्थूल-जगत बनता है।
और यह कोई भाषण नहीं है, बल्कि इसे आपके भीतर घटित होना होगा, कि आपको अपनी सामूहिक चेतना का विकास करना होगा है। और यही श्री कृष्ण का उपहार है, क्योंकि मस्तिष्क में वे विराट बन जाते है।
तो अब हमारे भीतर तीन स्वरूप हैं। हृदय पर शिव हैं, मस्तिष्क में श्री कृष्ण, जो विराट हैं, और लिवर में ब्रह्मदेव ।
तो हम तीन अस्तित्व हैं। और पेट में, जिसे आप भवसागर कहते हैं, इसमें सभी गुरु तत्व है। इसमें सभी महान गुरु है, आदिनाथ से लेकर, मोहम्मद साहब और अन्य सभी, हम कह सकते हैं, शिरडी साईंनाथ तक । वे सभी गुरु तत्व हैं जिनकी हमने पिछली बार पूजा की थी, जब हम एंडोरा में थे।
तो, वे सभी एक-दूसरे के साथ कैसे संबंधित हैं, कैसे उन्होंने एक साथ काम किया, और कैसे आपको इस साक्षी भाव की स्थिति में ले आए, ये बहुत महत्वपूर्ण है।
अब आपके विशुद्ध चक्र को सुधारना होगा । पहले तो, इस दोषी भाव की समस्या कल इतनी थी, कि मैं आपको बता रही हूं, इससे बाहर निकालना, असंभव हो गया था। दोषी महसूस करने के लिए कुछ भी नहीं है। यह एक फैशन है, बस एक फैशन है, “मुझे खेद है” सुबह से शाम तक “मुझे खेद है, मुझे खेद है।” आपको किस बात का खेद है? एक इंसान होने पर या एक सहज योगी होने पर? तो हमे खुद के प्रति भी बहुत प्रसन्नचित्त रहना चाहिए।
हर समय, “मुझे खेद है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था, “हर समय गलत महसूस करने से और दोषी महसूस करने , आपकी बाईं विशुद्धि खराब हो जाती है। जब बाईं विशुद्धी खराब होने लगती है, तो क्या होता है कि आपका श्री कृष्ण तत्व चला जाता है।
तब आप सामूहिकता को महसूस नहीं कर सकते। फिर आप समझ नहीं पाते कि आपके साथ क्या गलत हुआ है।
तो आपको सॉरी ही बोलना है, तो सॉरी भगवान से कहें और उसके बाद फिर और सॉरी ना कहें।
आप उसका सामना कीजिए। आपने जो भी गलत किया है, तो ठीक है, उसका सामना कीजिए। “यह गलत था, तो ठीक है, ऐसा नहीं किया जाएगा”। इसमें बहस न करें, इसमे लगे ना रहे। बस इसका सामना करें और कहें, “यह गलत था और यह गलती मैं फिर से नहीं करूंगा।” और बात खत्म ।
क्योंकि, आप सब लोग अब संत हैं। अब आप सब वली बन गए हो। अब आप आत्म साक्षात्कारी बन गए हो। आप अब आत्मज बन गए हो । आपको ब्रह्म चैतन्य मिल गया है। आपने अपने सिर पर प्रकाश देखा होगा। आपने इसका प्रमाण देखा होगा । इसलिए मुझे आपको दूसरा प्रमाण पत्र देने की आवशयकता नहीं है। केवल एक चीज, की आप आपनी पद को बेहतर ढंग से समझिए और जागरुक रहिए।
जैसा कि श्री कृष्ण ने कहा था, “आपको अपने बारे में जागरूक होना होगा । “पहले आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना और फिर अपनी पद से अवगत होना ।
तब आपको आश्चर्य होगा कि कैसे आप सही चित्त और सही समझ को विकसित कर लेते हैं । यह बिल्कुल ही आसान बात हो जाती है, जैसे ही आप उस साक्षी अवस्था को प्राप्त कर लेते है।
इसलिए कृपया खुद को साक्षी भाव में रखने की कोशिश करें। जब आप कुछ देखें, तो निर्विचार अवस्था में जाएं। यही आपका किला है।
कुछ मत सोचिए । उस सुंदरता को देखिए जो वह है, जो बह रही है । ज़रा देखियें , कैसे ये पेड़ स्थिर खड़े है, आप सब को देखते हुए।
देखिए, बिलकुल स्थिर हैं। कुछ भी नहीं हिल रहा। वे एक भी पत्ते को हिलने नहीं दे रहे ।
“ऐसे ही रहने दो, जब तक मंद हवा शुरू नहीं हो जाती। माँ मंद हवा शुरू करती हैं। तब तक हम बस शांत रहेंगे और देखेंगे।”
इन पहाड़ों की तरह । वे कैसे स्थिर होकर सब कुछ देख रहे हैं और आनंद और सुंदरता का उत्सर्जन कर रहे हैं। उसी तरह हमें भी साक्षी बनना होगा । हमें बहुत ज्यादा बातें करने की ज़रूरत नहीं है। हमें चुप रहने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन मध्य में हमें साक्षी भाव में सब कुछ लीला की तरह देखना चाहिए।
यही कारण है कि उन्हें लीलाधार कहा जाता है, जिसका अर्थ है वह, जो लोगों की लीला का पालन करता है
यह आपको पागल नहीं बनाता है, यह आपको मजाकिया नहीं बनाता है, लेकिन यह आपको आनंदित करता है। जो कुछ भी आपको आनंदित करता है, वह श्री कृष्ण का विष्णु तत्व है।
मुझे आशा है कि अब से हम सभी अपने विष्णु तत्व का आनंद लेंगे, जैसा कि हमने पहले आनंद लिया था, ध्यान के द्वारा। क्योंकि जब हम ध्यान करते हैं तो हम निर्विचार अवस्था में चले जाते हैं।
जब हम निर्विचारिता में होते हैं, तो ही हमारा विकास होता हैं। अन्यथा हम विकसित नहीं हो सकते। हम जो भी कोशिश कर ले पर, हम बढ़ नहीं सकते हैं । जब तक हम ध्यान नहीं करेंगे, तब तक हम निर्विचार नहीं हो सकते।
वे सभी जो जीवन के किसी भी क्षेत्र मे कुछ पाना चाहते हैं, किसी भी आयाम में, जैसे कि, जो महान कलाकार, महान वैज्ञानिक, किसी में भी महान बनना चाहते है , सहज योग में आपका ध्यान करना आवश्यक है, अन्यथा कुंडलिनी नीचे आ जाएगी और आप अपनी सभी प्रतिभाओं को खो देंगे। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे लोगों को बताना होगा और आपने देखा होगा कि लोग कैसे परिवर्तित हो गए।
लेकिन कभी-कभी यह बहुत अस्थायी हो सकता है और अगर लोग इसे उचित तरीके से नहीं करते है तो ये नीचे जा सकता है।
मैं आप सभी को साक्षी भाव की स्थिति के लिए बहुत सी शुभकामनाएं देती हूं।
साक्षी अवस्था में, हम किसी भी तरह से अपने आप को मजाकिया ढंग में व्यक्त नहीं करते हैं, बल्कि केवल खुद को देखते हैं। क्योंकि केवल हमने ही सभी समस्याओं का निर्माण किया है, और यह हम ही हैं, जो स्वयं को स्वयं से अलग करते हुए, इन समस्याओं को देख सकते हैं और उनका समाधान कर सकते हैं।
मैं जानती हूं, परमात्मा की कृपा से आप सभी बहुत प्रगति करने वाले हैं। और इस स्थिति को प्राप्त करना होगा।
हर स्थिति में, चाहे वह आशीर्वाद का हो, चाहे वह प्रगति का हो या चाहे अशांति का हो, आपको समुद्र के योग्य बनना होगा।
कोई भी जहाज जो एक समुद्र के योग्य है, वो सभी प्रकार की सुंदर यात्राएं या उथल-पुथल भी और समुद्र के तूफान का भी सामना कर सकता है।
परमात्मा आपको आशीर्वादीत करें ।