Sixth Day of Navaratri

पुणे (भारत)

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Navaratri Puja – Hamare Jivan Ka Lakshya

Date: October 16th, 1988                      Place: Pune 

Type: Puja Speech                                   Language: Hindi

आज हम लोग यहाँ शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। अभी तक अनेक संत साधुओं ने ऋषि मुनियों ने शक्ति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया है। और जो शक्ति का वर्णन उन्होंने अपने गद्य में नहीं कर पाये, उसे उन्होंने पद्य में किया। और उस पर भी इसके बहुत से अर्थ भी जाने (अष्पष्ट)।  लेकिन एक बात शायद हम लोग नहीं जानते हैं कि हर मनुष्य के अन्दर ये सारी शक्तियाँ सुप्तावस्था में हैं। और ये सारी ही शक्तयाँ मनुष्य अपने अन्दर जागृत कर सकता है। ये सुप्तावस्था की जो शक्तियाँ हैं उनका कोई अंत ही नहीं है, न ही उन का कोई अनुमान कोई दे सकता है। क्योंकि ऐसे ही पैंतीस कोटी तो देवता आपके अन्दर विराजमान हैं उस के अलावा न जाने कितनी ही शक्तियाँ उनको चला रही हैं। लेकिन इतना हम लोग समझ सकते हैं कि जो हमनें आज आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है, तो उसमें जरूर कोई न कोई शक्तियों का कार्य हुआ। उस कार्य के बगैर आप आत्मसाक्षाल्कार को नहीं प्राप्त कर सकते। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते वक्त हम लोग सोचते हैं कि ये सहज में हो गया। पर सहज में दो अर्थ हैं, एक तो सहज का अर्थ ये भी है कि आसानी से हो गया, सरलता से हो गया। और दसरा अर्थ ये होता है कि जिस तरह से एक जीवन्त क्रिया अपने आप घटित हो जाती है उसी प्रकार आपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। लेकिन ये जीवन्त क्रिया जो है इसके बारे में अगर आप सोचने लग जाए तो आप की बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। समझ लीजिए ये आपने एक पेड़ देखा, इस पेड़ की ओर आप नजर करिए तो आप ये सोचेंगे कि भई ये फलाना पेड है। लेकिन इस पेड़ को इसी रूप में, ऐसा ही, इतना ही ऊंचाई पर लाने वाली कौन सी शक्तियाँ हैं? किस शक्ति ने इस को यहाँ पर इस तरह से बनाया है कि जो वो अपनी सीमा में रहकर के और अपने स्वरूप, रूप, उसी के साथ चढ़ता है। 

फिर सबसे जो कमाल की चीज है वो मानव, मनुष्य जो बनाया गया है वो भी एक विशेष रूप से, एक विशेष विचार, से बनाया गया है और वो मनुष्य का जो भविष्य है वो उसे प्राप्त हो सकता है। उस को मिल सकता है पर उसकी पहली सीढ़ी है आत्मसाक्षात्कार। जैसे कि कोई दीप जलाना हो तो सबसे पहले है कि उस के अन्दर ज्योती आनी पड़ती है। उसी प्रकार एक बार आपके अन्दर ज्योति जागृत हो गई तो आप उस को फिर से प्रज्जवलित कर सकते हैं या उस को आप बढ़ा सकते हैं। पर प्रथम कार्य कि है कि ज्योति प्रज्जवलित हो। हैं। और उस के लिए आत्मसाक्षात्कार नितांत आवश्यक है। किन्तु आत्म-साक्षात्कार पाते ही सारी ही शक्तयाँ जागृत नहीं हो सकती। इसीलिए ये साधु संतों ने और ऋषि मूनियों ने व्यवस्था की है कि आप देवी की उपासना करे। लेकिन जो आदमी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, उस को अधिकार नहीं है कि वो देवी की पूजा करे। बहुत से लोगों ने मुझे बताया है कि वो सप्तशति का कभी अगर पाठ करे और उनका हवन करते हैं तो उनपे बड़ी आफते आ जाती हैं। और उन को बड़ी तकलीफ हो जाती है और वो बहुत सफर करते हैं। तो उनसे ये पूछना चाहिए कि आपने किस से करवाया?  तो कहेंगे कि हमने सात ब्राह्मणों को बुलाया था पर वो बराह्मण नहीं। जिन्होंने ब्रह्मा को जाना नहीं वो बराह्मण नहीं और ऐसे ब्राह्मणों से कराने से ही देवी रूष्ट हो गई और आपको तकलीफ हुई। तो आपके अन्दर एक बड़ा अधिकार है कि आप देवी की पूजा कर सकते हैं और साक्षात में भी पूजा कर सकते हैं। ये अधिकार सबको नहीं है। अगर कोई कोशिश करे तो उसका उल्टा परिणाम हो सकता है। उसका विपरीत परिणाम हो सकता है। 

सबसे बड़ी चीज है कि शक्ति जो है वो जितनी ही आपको आरामदेही है, जितनी वो आपके सृजन का व्यवस्था करती है।  जितनी वो आपके प्रति उदार और प्रेममयी है, उतनी ही वो क्रूर और क़ोधमयी है। कोई बीच का मामला नहीं है या तो अति उदार है और या तो अति क्रोधित है। बीच में कोई मामला चलता नहीं। वजह यह है कि जो लोग महा दुष्ट हैं, राक्षस है और जो संसार को नष्ट करने पे आमादा हैं, जो लोगों को भुलभुलैया में लगाये हुए हैं और कलियग में अपने को अलग-अलग बता कर के कोई साधू बना है तो कोई पंडित बना हुआ है, कोई मन्दिरों में बैठा है तो कोई मस्ज़िदों में बैठा है, कोई मुल्ला बना हुआ है, कोई पोप बना हुआ है तो कहीं कोई पोलिटिशियन बना हुआ है, ऐसे अनेक-अनेक कपड़े परिधान कर के जो अपने को छिपा रहा है। जो कि राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है उसका नाश होना आवश्यक है।  लेकिन ये जो नाश की शक्तियाँ हैं इसकी तरफ आपको नहीं जाना चाहिए। आप सिर्फ इच्छा मात्र करे और ये शक्तियाँ अपने ही आप कार्य कर लेगी। तो सारे संसार में जो ये चैतन्य बह रहा है ये उसी महा माया की शक्ति है। और इस महामाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं और ये शक्ति सब चीज सोचती है, जानती है।  सब को पूरी तरह से व्यवस्थित रूप से लाती है जिसे कहते हैं ऑर्गनाइज़ (organize) कर लेती है। और सबसे बड़ी चीज है कि ये आप पर प्रेम करती है और इस का प्रेम निर्वाज्य है। इस प्रेम में कोई भी मांग नहीं सिर्फ देने की इच्छा है। आपको पनपाने की इच्छा है, आपको बढ़ाने की इच्छा है। आपकी भलाई की इच्छा है लेकिन इसी के साथ-साथ जो चीजें कांटे बन कर के आपके मार्ग में रूकावट डालेंगे, आपके धर्म में खलल डालेंगे, या किसी भी तरह से आप को तंग करेंगे ऐसे लोगों का नाश करना अत्यावश्यक है। लेकिन उस के लिए आप अपनी शक्ति न लगाएं। आप को सिर्फ चाहिए कि आप उस शक्ति के लिए सिर्फ आचारण, आहुवान करे देवी का और उनसे कहिए कि ये जो अमानुष लोग हैं इनका आप नाश कर दीजिए। ये तो पहली चीज हो गई। सो आप को छुट्टी मिल गई कि आप कोई भी आप पर अगर अत्याचार करे, कोई भी आप से बुराई से बोले, कोई आप को सताये तो आप में एक और विशेष रूप से एक स्थिति है जिसमें आप आप निर्विचार गए। तो सारी चीज को साक्षी रूप से देखना शरू कर दें, एक नाटक के रूप में। जैसे अजीब पागल आदमी है मेरे पीछे पड़ा हुआ है इसको क्या करने का है। उसका पागलपन देखिए उसका मनस्ताप देखिए उसकी तकलीफें देखिए और आप उस पर हाँसिए कि अजीब बेवकफ है। उस के लिए आप को कोई तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं, उस के लिए सिर्फ आप को आपका जो किला है वो निर्विचारिता उसमें जाना चाहिए। और निर्विचारिता में जाते ही साथ आपकी जो कुछ भी संजोने वाली शक्तियाँ हैं, आनंद देने वाली शक्तियाँ हैं, प्रेम देने वाली शक्तियाँ हैं, वो सब की सब समेट कर के आपके अन्दर आ जाएगी। लेकिन जब तक आप इन चीजों में उलझे रहेंगे और जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि मैं कैसे इसका सर्वनाश कर दूँ, किस तरह से खत्म कर दूँ, इसमें मैं क्या इलाज कर लूं?  और इस तरह से आप षड़यन्त्र बनाते रहेंगे तब तक, आप सच्ची मानिए कि उसका असर आप पे होगा उस पर नहीं।

रामदास स्वामी ने कहा है कि ‘अल्प धारिष्ट पाये’ माने आप का थोड़ा सा जो धीरज है उसको परमात्मा देखता है।  लेकिन आप के अन्दर इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं, इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं कि उनको पहले आप पूरी तरह से प्रफुल्लित करना चाहिए। उसको जगाना चाहिए, उनको जानना चाहिए।  अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए। अब ये शक्तियाँ नष्ट होती हैं सहजयोगियों में भी जागती है फिर नष्ट हो जाती हैं, जागती है फिर नष्ट हो जाती हैं। उस की क्या वजह है?  एक बार जगी हुई शक्ति क्यों नष्ट होती है?  जैसे कि एक मनुष्य में आज शक्ति है कि वो बड़ी भारी कला में निपुण हो गया। सहजयोग में आने से बहुत लोग कला में निपुण हो गये, कला के बारे में जान गये, उनमें एक तरह की बड़ी चेतना आ गई, उनका सृजन बहुत बढ़ गया। लोग देख के कहते हैं कि वाह एक कलाकार ऐसा है कि समझ में ही नहीं आता। पर फिर वो उसी कला में उलझ जाता है। फिर उस की शोहरत हो गई, नाम हो गया, उसी में उलझता जाता है।

जब वो उलझ जाता है इस चीज में तब फिर उस की शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। क्योंकि उस की शक्तियाँ भी उसमें उलझ जाती हैं। जैसे कि मैंने पहले भी बताया था कि किसी पेड़ के अन्दर बहता हुआ उसका जो प्राण रस है वो हर चीज में, हर पत्ते में, हर डाली पर, हर फूल में, हर शै में घम घाम कर के वापस लौट जाता है। उसी प्रकार जो भी आप के अन्दर शक्तियाँ आज प्रवाहित हैं और जिन शक्तियों के कारण आप आज कार्यान्वित हैं ये सारी ही चीजें, आप को जानना चाहिए, कि इस शक्ति का ही प्रादर्भाव है और उस में आप को, उलझने की कोई जरूरत नहीं है। आप उस में एक निमित्तु मात्र, बीच में हैं। और जब आप यह समझ जाएंगे कि हम निमित्त मात्र हैं तो ये आपकी शक्तियाँ कभी भी दर्बल नहीं होंगी और कभी भी नष्ट नहीं होंगी। उसी प्रकार अनेक बार मैंने देखा है कि सहजयोगियों का चित जो है वो ऐसी चीजों में उलझते जाता है। कोई चीज से भी वो बड़प्पन में आ जाये, कोई भी चीज से उन्होंने बहुत प्रगति पा ली। आप जानते हैं कि बहुत से स्टूडेंट्स (students) जो कि क्लास में कछ नहीं कर पाते थे फर्स्ट क्लास में आने लग गए, सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। तो फिर वो कभी सोचने लग जाए वाह हम तो कितने बड़े हो गए। जैसे ही ये सोचना शुरू  हो गया वैसे ही ये शक्तियाँ आपकी खत्म हो जाएंगी और गिरती जाएंगी। अब सोचना ये है कि हमें क्या करना है? 

जैसा समझ लिजिए किसी आदमी का एकदम बिजनैस बढ़ गया या उस को खूब रूपया मिलने लग गया या उस के पास कोई विशेष चीज आ गई तो उसे क्या करना चाहिए?  उसे पूरी  समय सतर्क रहना चाहिए और यही कहना चाहिए कि माँ ये आप ही कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आप ही की शक्ति कार्यान्वित है हम कुछ नहीं कर रहे हैं।  बहुत जरूरी है कि आप सतर्क रहें क्योंकि उस के बाद जब आपकी शक्तियाँ खत्म हो जाएगी तो आप खुद ही कहेंगे कि माँ सब चीज डूब गई, सब खत्म हो गया। ये कैसे? जो भी शक्ति कार्य कर रही है उस को कार्यान्वित होने दें। जैसे एक पेड़ है समझ लीजिए उस पेड़ के पत्ते कैसे गिरते हैं। आपने सोचा है? उस में बीच में एक बुच- के जैसी जिसे कोर्क कहते हैं, बीच में आ जाती है। पत्ते और पेड़ के बीच में एक कोर्क आ जाती है। उस के बाद फिर शक्ति आती ही नहीं। तो बो गिर जाता है पत्ता। इसी प्रकार मनुष्य का भी होता है। कि आज उस की शक्ति एक महान शक्ति से जुड़ी है और वहाँ से वो उसे प्राप्त कर रहा है। लेकिन जैसे ही वो अपने को कछ समझने लग जाए या उसके अहंकार में बैठ जाए या उसकी जो अनेक तरह की गतिविधियां हैं, जिस तरह से कम्पटीशन ये वो उसमें उलझता जाए तो उसके बीच में एक दरार पड़ जाती है।  और उस दरार के कारण वो मनुष्य फिर उसे प्राप्त नहीं कर सकता, जो उसने प्राप्त किया हुआ है। क्योंकि वो तो एक निमित्त मात्र था। लेकिन जो शक्ति अन्दर उसके अन्दर बह रही थी वो शक्ति ही बीच में से कट गई। जैसे के अभी इसकी (माइक) शक्ति कट जाए, तो शायद मेरा लेक्चर न बंद हो, पर ऐसे हो सकता है। इसलिए हमको एक बात को खुब अच्छे से जान लेना चाहिए कि हमारे अन्दर जो शक्तियाँ जागृत हुई हैं और जो कुछ भी हमारें अन्दर की विशेष स्वरूप के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली जो नई आभा हमें दिखाई दे रही है इस शक्ति को हमें रोकना नहीं चाहिए। इस के ऊपर हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कुछ बहुत बड़े हो गए, या हमने कुछ बहुत बड़ा पा लिया। 

दूसरी तरफ से ऐसा भी होता है ‘कि जब यह शक्ति आपके अन्दर जागृत हो जाती है उस वक्त आप में एक तरह का उदासींपन भी आ सकता है। इस तरह का कि अभी दूसरे साहब तो इतने पहुँच गए, हम तो वहाँ पहुँचे नहीं। उन्होंने ये कर लिया, हमने ये किया नहीं। और हर तरह से आदमी उलझते जाता है। और उस में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छोटी-छोटी बातों पर ही अपने को दुखी मानते हैं।  बहुत छोटी बातों पर, जैसे आप सब को बैग मिला मुझ को बैग नहीं मिला। गणपति पूणे में हमें बड़े अजीब-अजीब अनुभव आये कि लोग आये कहने लगे कि माता जी हमको इस चीज का डिब्बा दे दो। मैंने कहा भई ये भी कोई तरीका हुआ? दूसरे ने कहा कि आपने मुझे इतना दिया लेकिन उस को नहीं दिया। ये कोई बात हुई?  उस मौज में और आनन्द में ये सव सोचने की बात ही नहीं है, छोटी-छोटी बात में बो दुखी हो जाते हैं।  फिर ऐसी जिस को बहुत बड़ी बात समझते हैं कि किसी का समझ लीजिए पति ने बिछोह कर दिया या किसी पति का रास्ता ठीक नहीं रहा तो उसकी पत्नी रोते बैठेगी। या किसी की पत्नी ठीक नहीं तो पति रोते बैठेगा। अरे भई आपकी कितनी बार शादियाँ हो चुकी पहले जन्म में और अब इस जन्म में एक शादी हुई है चलो इस को किसी तरह से खत्म करो। उसी के पीछे में आप लोग रात दिन परेशान रहो कि मुझ को ये दुख आ गया, मेरे बच्चे का ऐसा हो गया,  मेरी बच्ची का ऐसा हो गया। उस का ऐसा हो गया, उस का ऐसा हो गया। इस का कोई अन्त है?  इस को कोई पार कर सकता है?  क्योंकि इतनी छोटी सी चीज है कि वो तो पकड़ में ही नहीं आती। इतनी क्षुद्र बात है कि वो मेरी पकड़ ही में नहीं आती। कोई भी आयेगा तो ऐसी छोटी छोटी बातें मुझे बताते हैं, मुझे बड़ी हंसी आती है।  पर मैं चुपचाप सुनती रहती हैं। देखिए मैं कहती हूँ कि आप सहजयोगी हैं।   सागर के जैसे तो आपका हृदय मैंने बना दिया और हिमालय के जैसा आपका मैंने मस्तिष्क बना दिया। और आप ये क्या छुटर-पूटर बातें कर रहे हो कि जिसका कोई मतलब ही नहीं रहता। इसकी बात, उसकी बात, दुनिया भर की फालतु की बातें करना और जो सहज की बात है वो बहुत कम होती है, उस में मौन लगता है। क्यों सहज में तो कुछ हमने ध्यान ही नहीं दिया। सहज में तो मौन हो जाता है। अभी मैंने सुना कि पूना में लोग जरा कम आने लग गए हैं ध्यान में, क्योंकि महाभारत शुरू हो गया है। वैसे मैंने तो अभी तक देखा ही नहीं है महाभारत। जो एक देखा है वो ही काफी हैं। अब देखने की क्या जरूरत है?  अब अपने को दूसरा महाभारत करने का है?  और वो महाभारत देख के बैठे हुए हैं। अब ऐसा हो आपको महाभारत देखने का शौक है तो उसकी वो फिल्म मंगा लेना देख लेना। लेकिन पूजा छोड़ कर के और आपका सेन्टर छोड़ कर के आप महाभारत देखते हैं तो आपकी वो शक्ति कहां दिखेगी?  वो महाभारत में चली गई। महाभारत हुए तो हजारों वर्ष हो गए उसी के साथ वो भी खत्म हो गई। तो ये जो मनोरंजन पर भी लोगों का बड़ा ध्यान रहता है, किस चीज से हमारा मनोरंजन हो। ऐसा ही हर एक चीज में मनुष्य उलझते जाता है। तो कोई भी चीज अति में जाना ही सहज के विरोध में पड़ती है। जैसे अब म्यूजिक (music) का शौक है तो म्यूजिक ही म्यूजिक है। फिर ध्यान भी नहीं करने का, बस म्यूजिक में पड़े हैं, वो मनोरंजन है। फिर कविता में पड़ गए तो कविता में ही उलझ गए। कोई भी चीज में अतिशयता में जाना ही सहज के विरोध में जाना है। ये इस बात को आप गाँठ बांध कर रख लें। और दूसरी चीज कि जो हमारी शक्तियाँ उन को सम्यक होना चाहिए तभी हमें सम्यक् ज्ञान मिलेगा, माने इंटीग्रेटेड नॉलेज (integrated knowledge संघटित ज्ञान)। गर एक ही चीज के पीछे में आप पड़े रहे और एक ही चीज को आप देखते रहे तो आपको इंटीग्रेटेड नॉलेज नहीं हो सकता है। आपको सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है। आपको एक चीज का ज्ञान होगा। 

अब जैसे मैंने देखा है कि बहुत सी लेडीज (Ladies) होती हैं, बड़ी पढ़ी लिखी होती हैं। पर कभी अखबार नहीं पढ़ती उनको दुनिया में पता ही नहीं क्या हो रहा है। वो कौन थे भाई हमें पता नहीं है।  रहे आदमी लोग तो उनका ऐसा है कि उनको सिर्फ ये मालूम है कि कौन सा खाना अच्छा बनता है किस के घर में अच्छा खाना बनता है। किसके घर जाना चाहिए अच्छा खाने के लिए। एक खाने के मामले में तो हिन्दुस्तानी बहुत ही ज्यादा उलझे हुए लोग हैं, बहुत ज्यादा। और औरतें भी ऐसी हैं कि बेवकूफ बनाने के लिए अच्छे-अच्छे खाने खिलाकर के उनको ठिकाने लगाती हैं। इसमें दोनों की शक्तियाँ उलझ जाती हैं, दोनों की। रात-दिन ये खाने के बारे में, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मुझे आज ये खाने को चाहिए।  मैं ये टाइम को खाऊंगा, मैं वो टाइम से खाऊंगा। ये उधर औरतें आदमियों को खुश करने के लिए वोही धन्धे करती रहती हैं। उसमें औरतों की शक्ति भी नष्ट होती है, और आदमियों की भी शक्ति नष्ट होती है। इसलिए, मैंने ये एक तरीका निकाला है कि सहजयोगियों को सबको खुद खाना बनाना आना चाहिए। अगर किसी ने कहा कि मुझे ये खाने को चाहिए तो, आप ही बनाये। हालांकि उस के बाद सबको भूखा ही रहना पड़ेगा, पर कोई हर्ज नहीं। आप को कहना चाहिए अच्छा आपको ये चीज खानी है तो आप ही इसको बना दीजिए, तो बड़ा अच्छा रहेगा।  फिर जब आप बनाना शुरू करेंगे तब आप समझेंगे कि ये चीज क्या है। क्योंकि किसी भी चीज को टीका टिप्पणी करनी तो बहुत आसान चीज है। किसी चीज को अच्छा कहना, बुरा कहना बहुत ही आसान चीज है।  लेकिन वो खुद जब आप करने लगते हैं तो पता चलता है कि ये टीका-टिप्पणी हम जो कर रहे हैं ये बिल्कुल बेवकूफी है। क्योंकि हमें कोई अधिकार ही नहीं है। तो इस कदर की छोटी-छोटी चीजों में भी लोग मुझे आके बताते हैं, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप अब साधु हो गए हैं, आप के अन्दर सबसे बड़ी जो शक्ति आई है वो ये, आप कोशिश करके दीखिए।  और जो मैं बात कहती हूँ उसकी आप प्रचीति आएगी, कोशिश कर के देखिए। आप जमीन पे सो सकते हैं आप रास्ते पर सो सकते हैं। आप दस-दस दिन भी भूखे रह जाए आप को भूख नहीं लगेगी। आप कैसा भी खाना है, उसे खा लेंगे आप कुछ नहीं कहेंगे। इस में आप को हमारे परदेस के सहजयोगियों को देखिए, किस हालत में रहते हैं, किस परेशानी में रहते हैं। हमें कुछ वहाँ पर हिन्दुस्तानी सहजयोगियों ने बताया कि ब्रह्मपूरी में इन्तजाम सब ठीक नहीं रहा। लोगों का दिमाग ही खराब हो गया था। क्योंकि आप नहीं गए।  तो बहुत तकलीफ हुई उनको खाने पीने की और कुछ अच्छा नहीं लगा,ऐसा बताया। तो मैंने उन लोगों से जा कर पूछा कि भई सबसे ज्यादा तुम को कहाँ मजा आया तो उन्होंने कहा ब्रह्मपूरी में सबसे ज्यादा आया। तो मेरी कुछ समझे में नहीं आया कि इतनी शिकायतें हुई, क्योंकि ब्रह्मपूरी में क्या बात है?  तो कहने लगे कि वहाँ कृष्णा बहती है उसके कितारे में बैठो तो लगता है कि माँ जैसे आप की ही धारा बह रही हो। वो सब यही बातें करते रहे, यहाँ ये लोग खाने पीने की सोचते हैं। इसी लिए जब कभी-कभी लोग कहते हैं कि हम लोगों का समर्पण कम है तो उस की बजह यह है कि हम लोग काफी उलझे हुए लोग हैं। 

हमारे अन्दर बहुत पुरानी परंपराए हैं। यहाँ अनेक साधु संत हो गए, बड़े-बड़े लोग हो गए, बड़े-बड़े आदर्श हो गए। और उन आदर्शों की बजह से हमें मालूम है कि अच्छाई क्या है। लेकिन उस के साथ ही साथ हमारे अन्दर एक तरह की ढोंगी वृत्ति आ गई। हम ढोंग भी कर सकते हैं। कोई भी आदमी अपने को राम कह सकता है। कोई भी आदमी अपने को भगवान कह सकता है, कोई भी आदमी अपने को सीता जी कह सकता है।  ये ढोंगीपनें की हमारे यहाँ बड़ी भारी शक्ति है।  एक साहब ने मुझे कहा कि देखिए वो तो भगवान हैं। मैंने कहा कैसे?  वो  कहते हैं वो भगवान हैं। मैंने कहा उस को कहने में क्यां लगता है?   ऐसे कैसे कहेगा कोई कि मैं भगवान हूँ?  मैंने कहा कह रहे हैं वो भगवान है लेकिन उस के कुछ तरीके होते हैं। जो आदमी फूल को नहीं सूख़ सकता वो भगवान कैसे हो सकता है?  हाँ ये तो बात है पर वो ऐसा क्यों कह रहे थे ? वो ऐसा क्यों कह रहे हैं?   मैंने कहा क्योंकि वो आप नहीं हैं।  वो ये ही नहीं समझ सकते कि लोग इतना सफेद झूठ इतने जोर से  कह सकते हैं।  या किसी के लिए कहते हैं कि उस को रूपया ही चाहिए न, ठीक है वो रूपया लेता है हम को तो वो आध्यात्मिकता देगा, तो क्या हर्ज है। हम को तो अध्यात्म लेना है, लेने दो रुपया, रूपये में क्या रखा है? रु पया दे दो उसको, रूपयों में क्या रखा हुआ है। अध्यात्म को पाने की बात है। अध्यात्म अगर वो हम को दे रहा है हम उस को रूपया दे रहे हैं रूपये में तो कोई खास चीज होती नहीं। ये जो उन की तैयारी आज हो गई है। वो हमारे अन्दर तैयारी अभी तक हो नहीं पाई। इस के लिए क्योंकि हमारे सामने आदर्श बहुत अच्छे हैं। महाभारत है, राम है ये है, वो है। और हम उसी कीचड़ में बैठे हुए हैं।  अब अगर कोई कीड़ा कहे कि मैं कमल हो गया तो हो नहीं सकता और अगर उसको कमल बना भी दिया तो भी ढंग बही चलेगा। इसलिए समझ लेना चाहिए कि हमारे अन्दर ये जो इतनी ऊंची-ऊंची बातें हो गई हैं और जिस से हम सारी तरफ से पूरी तरह से हम ढके हुए हैं और जिस के कारण हम लोग बहुत ऊंचे भी हैं, लेकिन जब तक हम अपने को ये न समझे कि हमें वो  ही होना है जो हम देख रहे हैं। इस मामले में हमारे अन्दर आन्तरिक इच्छा हो चाहिए, ऊपरी नहीं। अन्दर से लगना चाहिए, क्या हमने उसे प्राप्त किया?   क्या हमने अपने ध्येय को प्राप्त किया?  क्या हमने इसे पाया है? उसे हमें पाना है इस मामले में ईमानदारी अपने साथ करनी  है। और जब तक ईमानदारी नहीं होगी तब तक शक्ति आपके साथ ईमानदारी नहीं कर सकती। ये आप का और अपना निज़ा सम्बन्ध है। अनेक तरह से आप अपने को पड़तालिये और देखिए कि हमारे अन्दर ये शक्तियाँ क्यों तो नहीं जगृत होती। क्यों नहीं हम इसे पा सकते?  कारण हम खुद ही अपने को, अपने को एक तरह से काटे चले जा रहे हैं। तो किसी भी तरह की ढोंगी वृत्ति का सहजयोग में स्थान ही नहीं है। 

हृदय से आपको महसूस होना चाहिए, हर एक चीज को हृदय से पाना चाहिए। अपने अंतर आत्मा से उसे जानना को जानता चाहिए। उस के लिए कोई भी ऊपरी चीज़ कोई हैं कि मुस्करा कर बैठे रहेंगे, कोई जरूरत है मुस्कराने की?  कोई है कि बड़े गम्भीर हो के बैठे रहेंगे, ये सब नाटक करने की कोई जरूरत नहीं है। जो आपके अन्दर भाव है वो बाहर आ. रहा है उस में कौन सा नाटक चाहिए। उस में कौन सी आफत करने की है? जो हमारे अन्दर जो भाव हैं वो ही हम प्रकटित कर रहे हैं। जो हमारे अन्दर जो भाव है वो इस शक्ति से बहता हुआ बाहर चला आ रहा है, और उसी को हम प्रकटित कर रहे हैं। और जो लोग इस तरह से एक बात समझ लें कि हमें लेकिन हम पूरी तरह से ईमानदारी से सहजयोग करना है तो वो धीरे-धीरे हमें तो इसमें खिसकते जाएंगे। 

जिस तरह से वहाँ पर मैं देखती हूँ आत्मसमर्पण उसमें मैं ये जरूर कहूँगी कि उस आत्मसमर्पण के पीछे में एक बड़ी भारी कमाल है। और वो कमाल ये है कि वो सोचते हैं कि सिर्फ हमारा कल्याण आत्मिक ही होना चाहिए। हमारा आत्मिक कल्याण होना चाहिए, और कोई भी बात वो नहीं सोचते। सहजयोग के लाभ अनेक हैं। आप जानते हैं इस से तन्दरूस्ती अच्छी हो जाएगी, आप को पैसे अच्छे मिल जाएंगे, आप की नौकरी अच्छी हो जाएगी, आप का दिमाग ठीक हो जाएगा, आप के बच्चों का भला हो जाएगा। और दुनिया भर की चीजें जिन्हें अगर कि आप संसारी कहते हैं, हो जाएंगी। और उसपे भी आप का नाम हो जाएगा, शोहरत हो जाएगी। जिनको कोई भी नहीं जानता है वो तक उनका भी नाम हो जाएगा वो तक उन्हें लोग जानेंगे, सब कछ होगा। लेकिन हमें क्या चाहिए?  हमें तो अपनी आत्मिक उत्नति के सिवाए और कुछ नहीं चाहिए। हम सिर्फ आत्मिक उन्नति पा लें। जब वो आत्मिक उन्नति मनुष्य में हो जाती है तब मनुष्य सोचता ही नहीं इन सब चीजों को, उस के लिए सब व्यर्थ पदार्थ है। सारी लक्ष्मी उसके पैर धोए, उस के लिए वो व्यर्थ पदार्थ है। कोई भी उसके लिए चीज ऐसी नहीं है कि जिसके लिए वो ये आप लालायित हो या परेशान हो। इस कदर वो समर्थ हो जाता अगर है तो है नहीं है तो नहीं है। मिले तो मिले, नहीं है तो नहीं है ये जब अपने अन्दर ये स्थिति आ जाए, मनुष्य इस स्थिति पे आ जाए, तब सोचना चाहिए कि सहजयोगियों ने अपने जीवन में कुछ प्राप्त किया। जब तक ये स्थिति प्राप्त नहीं नहीं होती तो आपकी नाव डांबाडोल चलती रहेगी। और आप हमेशा ही कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहेंगे । 

पहली अपने को स्थापित करने की जो महान शक्ति आपके अन्दर है वो है श्रद्धा। उस श्रद्धा को हृदय से जानना चाहिए और उसकी मस्ती में रहना चाहिए उस के मजे में आना चाहिए, उसके आनंद में आना चाहिए। तो जो ये श्रद्धा की आहूलाद दायिनी शक्ति है उस आहलाद को लेते रहना चाहिए उस एक्सटेसी (ecstasy) में रहना चाहिए उस सुख में रहना चाहिए और जब तक मनुष्य उस आहुलाद में पूरी तरह से घुल नहीं जाएगा उसके सारे जो कुछ भी प्रश्न हैं प्रोब्लेम्स (problems) हैं वो बने ही रहेंगे, बने ही रहेंगे। क्योंकि प्रोब्लेम्स वगैरा सब माया है, ये सब चक्कर है। अगर किसी से पूछो कि भई तुम्हें क्या प्रोब्लेम् है?  तो मुझे सौ रुपया मिलना चाहिए, मुझे पचास रूपये मिलते हैं। जब सौ रुपय मिले तो फिर क्या समस्या है?  मुझे दो सौ रूपये मिलने चाहिए तो मुझे सौ ही रुपये मिले। वो तो खत्म ही नहीं हो रहा। फिर दूसरी क्या प्रोब्लेम् है कि मेरी बीबी ऐसी है। फिर तुम दूसरी बीबी कर लो वो भी ऐसी है, तीसरी आई वो भी ऐसी है। तो आपकी प्रोब्लेम्स नहीं खत्म हो रही क्योंकि आप स्वयं इनको खत्म नहीं कर रहे। ये यब को खत्म करने का तरीका यही है कि अपनी श्रद्धा से आप अपने आत्मा में जो आनंद है उस का रस लें और उसी रस के आनन्द में रहे। आखिर सारी चीज है ही हमारे आनन्द के लिए, लेकिन जब तक हम उस रस को लेने की शक्ति ही को नहीं प्राप्त करते हैं तो क्या फायदा होगा?  ये तो ऐसा ही हुआ कि एक मक्खी जा कर के बैठ गई फूल पर और कहेगी कि साहब मुझे तो कुछ मधु नहीं मिला। उस के लिए तो मधुकर होना चाहिए। जब तक आप मधुकर नहीं होंगे तो आपको मधु कैसे मिलेगा?   अगर आप मक्खी ही बने रहे तो आप इधर-उधर ही भिनकते रहेंगे। लेकिन जब आप स्वयं मधुकर बन जाएंगे तो आप कायदे की जगह जा करके जो आप को रस लेना है रस ले कर के मजे में पेट भर कर के और आराम से आनद से रहेंगे। यही सबसे बड़ी चीज सहजयोग में सीखने की है। कि हमारा चित् पूरी तरह से एक चीज में डूबा रहना चाहिए, और वो है आत्मिक हमारी उन्नति होनी चाहिए।  पर उस का मतलब यह नहीं कि पूरी समय अपने को बन्धन देते रहों या पूरी समय आँखें बंद कर के और जिसे मराठी में कहते हैं शिरडी बाँधु, उस की कोई जरूरत नहीं है। 

सर्वसाधारण तरीके से, रोजमर्रा के जीवन को कुछ भी न बदलते हुए जैसे आप हैं वैसे ही उसी दशा में आप को हुए चाहिए कि आप अपने अन्दर जो हृदय में आत्मा है उस के रस को प्राप्त करें। जब उस का रस झरना शुरू हो जाता है तो आप ही में कबीर बैठे हैं और आप ही में नानक बैठे हैं, और आप ही में सारे बड़े-बड़े जितने संत साधु हो गए तुकाराम, नामदेव, एकनाथ, सब आप ही लोगों में बैठे हैं। और उनको इतना बिचारों को, कोई बताने वाला भी नहीं था, उनको संभालने कोई नहीं था उनके संरक्षण के लिए कोई नहीं था। ये सब आप को प्राप्त है आप तो अच्छी छत्रछाया में बैठे हुए हैं।  तो भी आप उस छत्रछाया में बैठ कर के एक अपनी भी छतरी खोल लेते हैं।  और उसके बारे में फिर चर्चा करते हैं तो इस से तो आपकी शक्तियां कम हो ही जाएंगी।  इस बार हमें गौर करना चाहिए कि हमारी कितनी शक्तियाँ हैं।  और हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हमने देखी और वो कैसे कार्यान्वित हो रही हैं। आप जो चाहे सो करें।(अष्पष्ट… मराठी ) जो आप इच्छा करेंगे वो आप को मिलेगा लेकिन आप की इच्छा ही बदल जाएगी। आप के तौर तरीके ही बदल जाएंगे जैसे आज अब कोई महाभारत नहीं देखने को रूकेगा, क्या सोचेगा?   अरे बाप रे, आज माँ का इतना अच्छा समय बंधा हुआ है, माँ स्वयं आ रही हैं, पूजा का मौका है, सारी दुनिया से लोग दौड़े आएंगे। अब बाहर अमेरिका से, अभी मैं जा रही हूँ, उन्होंने कहा एक दिवाली पुजा जरूर करना। उस के लिए मेरे ख्याल से सारे ब्रह्माण्ड से लोग बहाँ पहुँच जाएंगे। लेकिन यहाँ कलकत्ते से भी लोगों को आने में मुश्किल हो जाती है, कलकत्ते से भी। और साक्षात् हम बैठे हुए हैं, ऐसे-ऐसे लोग हैं कि जो बिल्कुल आसानी से आ सकतें हैं। अपने काम के लिए दस मर्तबा दौड़ेंगे, लेकिन इस को नहीं समझते कि कितनी महत्वपूर्ण चीज है।  उस का महत्व नहीं समझ पाते क्योंकि श्रद्धा कम है। वो कहते हैं जब हम रिटायर हो जाएंगे तब आएंगे, सुविधा के साथ। रविवार के दिन करिए पर एक दिन उससे पहले छट्टी होनी चाहिए नहीं तो बाद में छट्टी होनी चाहिए। अब ऐसे रोनी सूरत लोगों के लिए क्या सहजयोग है?  ये घोड़े कहाँ तक जाएंगे?  ये तो खच्चर भी नहीं हैं। जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं वो सहजयोग में कहाँ तक पहँचेंगे ये मेरी समझ में नहीं आता कि सब सविधा होनी चाहिए।  सैटरडे, संडे होना चाहिए और उस में से भी हम जैसे ही प्रोग्राम खत्म होगा भाग जाएंगे, क्योंकि हम को कल दफ्तर में जाना है। तुम जाओगे कल भी सब ठीक हो जाएंगा। लेकिन गर आप ऐसी जल्दबाजी करोगे तो खंडाला के घाट में आप को रोक लेंगे हम। लेकिन ये सब चुहल, ये सब शैतानियाँ हम कितनी भी करें लेकिन आप के अक्ल में जब तक ये चीज घुसेगी नहीं क्या फायदा?   तो चाह रहे हैं कि किसी तरह से आपको रास्ते पर ले आएं। अब रास्ते पे लाने पर गर बार बार आप लोग फिसल पड़े तो कितनी हमें मेहनत करनी पड़ेगी। और आप की जो शक्तियाँ हो सकती हैं, जो जागृत सकती हैं अपने आप पनप सकती हैं, बढ़ सकती हैं,  वो सारी शक्तियाँ कहाँ से कहाँ नष्ट हो जाएँगी?  तो अपने को पहले आप को संवारना है। अपनी शक्तियों के गौरव में उतरना है और ये जानना है कि हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हैं। और हम कितनी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं हैं?  हम कितने ऊंचे उठ सकते हैं? हम कया-क्या लाभ दूसरों को दे सकते हैं। इतना भंडारा हमारे अन्दर पड़ा हुआ है। सारा कुछ खुल गया, चाबी मिल गई अब खुल जाने पर सिर्फ उसमें से निकाल के लोगों को बांटना है और उस का मजा उठाना है। 

आज ये जो शक्ति की पूजा हो रही है बो असल में, मैं चाहती हूँ कि आप जानिए कि आप की ही शक्ति की पूजा होनी चाहिए। जिस से आप एक बड़े ईमानदार और एक सच्चे तरीके से श्रद्धामय हो जाएं। साधु संतों को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वो मार खाएंगे, पीटे जाएंगे, उन को जहर देंगे, चाहे कुछ करिए उन की लगन नहीं छुटती। अब आप लोगों को तो कनेक्शन लगा दिया, लेकिन वो इतना ढीला केनेक्शन है कि बार-बार, बार-बार लगाना पड़ता है। फिर से किसी बात से छूट जाता है। फिर से किसी बात से लगाना पड़ता है तो अब सोचना ये है आप को के हमारे अन्दर की सारी ही शक्तियाँ हमें जागृत करनी हैं, तो फिर कोई कमी नहीं रह जाएगी। कोई आप के सामने प्रश्न ही नहीं रह जाऐंगे। इन शक्तियों का जागृत करना बहुत आसान है। एक ही बात है आप को लगन होनी चाहिए।  जिसको लगन हो जाएगी, जो पूरी तरह से लगन से सहज योग में उतरेगा और जिसका हमेशा जी सहजयोग पे ही खिचा रहेगा, उधर ही ध्यान रहेगा उसका सब तो क्षेम हो ही जाएगा। पर पहले योग घटित होना चाहिए और आधा अधुरा योग किसी काम का नहीं है। न इधर के रहे न उधर के रहे, ऐसी हालत हो जाएगी। 

एक छोटे से बीज में हजारों वृक्ष निर्माण करने की शक्ति है। तो आप तो ऐसे हजारों वृक्षों के मालिक, मनुष्य हैं। और उन में से हजारों लोगों को आप भी शक्तिशाली बनाने की शक्ति आप के अन्दर है। लेकिन अगर इस बीज का अंकुर निकालने के बाद अगर आप रास्ते पे फेंक दीजिए और इसकी परवाह न करें, और इसका अगर पेड़ नहीं हुआ तो इसकी शक्ति कुंठित हो जाएगी। तो अपने लिए पूरी तरह से आप इसका अंदाज करे कि हम क्या हैं और हम क्या कर रहे हैं?  और कहाँ तक हम पहुँच सकते हैं?   इससे आपस के झगड़े, छोटी-छोटी क्षुद्र बातें ऐसी चीजे जो कि रास्ते पर के लोग भी न करे, असभ्यता, ये तो अपने आप से ही ढह जाएगी। वो तो बचने ही नहीं वाली। लेकिन आप का जो स्वयं सुन्दर स्वरूप है वो निखर आएगा। और लोग कहेंगे कि ये है एक शक्तिशाली मनुष्य खड़ा हुआ है। एक विशेष स्वरूप का आदमी खड़ा हुआ है। एक महान कोई व्यक्ति है। जो कि ऐसा अनुठा उसका सारा व्यवहार है। वो किसी से डरता नहीं, निर्भय है। जहाँ कहना है कहता है, जहाँ नहीं कहना, नहीं कहता है। ये आ जाए बाबा भी आ जाए फिर बाबा के नाना भी आ जाए सो नहीं हो सकता। जो आप हैं उस लायक वो लोग नहीं। वो नालायक हैं। जो नालायक हैं उन को छोड़ देना चाहिए। उसे क्यों झगड़ा करना?  नालायक लोगों से झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। नसीब आप के फुटे जो नालायक से शादी कर ली, ऐसा सोचना चाहिए। और नसीब आप के फुटे जो नालायक आप के माँ बाप हैं। जो नालायक हैं उनको काहे को जबरदस्ती सहजयोग में लाना और मेरी खोपड़ी पर लादना। कि साब माँ इसको ठीक करो,क्योंकि वो मेरी बीबी है, क्योंकि वो मेरा बाप है, क्योंकि मेरा बाबा, मेरा दादा। मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं बनता, अगर वो सहजयोग में नहीं हैं।  तो उनको आप नालायकों को बाहर ही रखिए। जो लायक लोग हैं उन से रोज दोस्ती करिए उन के मजे में रहिए। आप को जरूरत क्या है? पर यही बात हम लोग नहीं समझ पाते कि दनियादारी ये रिश्ते ऐसे चलते रहते हैं। इसमें कुछ रखा नहीं, हाँ अगर आपकी जिनके साथ में संगति है वो आप के साथ उठ सके, आप के साथ चल सके, आप के साथ बन सके, तो ठीक हैं। और नहीं तो ऐसे नालायक लोगों को कोई जरूरत नहीं सहजयोग में लाने की।  और मैं देखती हूँ कि बहुत ही नालायक लोग सहजयोग में कभी-कभी इस रिश्ते से आ जाते हैं और मेरा बड़ा सिर दर्द हो जाता है। आप की लियाकत थी इसलिए आप आए और आप सहजयोग को प्राप्त हुए। आप को आशीर्वाद मिला। आप ने बहुत कुछ पा लिया और आगे आप पा सकते हैं। और जो भिखारी भी हैं उन को और देने में कया अर्थ है। और भिखारी भी हैं और उस की झोली में छेद भी है तो उनको और देने से कया फायदा?  लो करेला नीम चढ़ा। ऐसे लोगों से रिश्ता रखने की आप को कोई जरूरत नहीं है। उन से कोई बात करने की जरूरत नहीं, मतलब रखने की जरूरत नहीं है। उनको बकने दीजिए अगर उनका दिमाग ठीक हुआ तो वो आयेंगे और सहजयोग में उतरेंगे। और नहीं हुए तो आप अपना दिमाग क्यों खराब करते हैं?  उस से कोई फायदा नहीं है। ऐसे लोगों के पत्थर के जैसे सर होते हैं। उससे कोई फायदा नहीं होता, वो देख ही नहीं सकते।  तो आज से हम लोगों को सोचना है कि हम एक व्यक्ति हैं, स्वयं।  और इसे हमने प्राप्त किया है अपने-अपने पूर्वजन्म के कर्मों से, क्योंकि हमने बहुत पुण्य किये थे।  और इसलिए हम आज इस स्थान पर बैठे हुए हैं, और इससे भी ऊँचे स्थान पे हम बैठ सकते हैं और जा सकते हैं। तो अपने पीछे में बड़े-बड़े इस तरह के पत्थर लगा कर के आप समुद्र में मत कूदिए। आप को अगर तैरना आता है तो मुक्त हो कर के तैरिए, उसका आनंद उठाईए। और अपनी सारी शक्तियों से आप प्लावित से होईए। आज मेरा अनन्त आशीर्वाद है कि आप के अन्दर की सुप्त सारी ही शक्तियाँ जागृत हों और धीरे-धीरे आप इस को महसूस करें। और उस की जो अन्दर से प्रवाह की विशेष धाराएँ बहें उस के अन्दर आप आनन्द लुटें। यही मेरा आप को सब को अनन्त आशीर्वाद है।