Guru Puja, Four Obstacles

Campus, Cabella Ligure (Italy)

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Shri Adi Guru Puja. Cabella Ligure (Italy), July 28th, 1991.

आज आप सब यहाँ उपस्थित हैं, अपने गुरु की पूजा करने के लिए   Iयह एक प्रचलित प्रथा है, विशेष रूप से भारतवर्ष में, की आप अवश्य अपने गुरु की पूजा करें, और गुरु का भी अपने शिष्यों पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए I गुरु के सिद्धांत बहुत कठोर हैं और इस कठोरता के कIरण बहुत से लोग एक शिष्य के आदर्शों के अनुसार स्वयं तो नहीं ढाल सकेI  उन दिनों गुरु को, पूर्ण रूप से, आधिकारिक बनना पड़ता था। और वह गुरु ही थे जो निश्चय करते थे कि कौन उनके शिष्य होंगे। और उनको कठिन तपस्या में लीन होना पड़ता था, बड़ी तपस्या में, मात्र एक शिष्य बनने के लिए। और यह कष्ट ही एक माध्यम था जिससे गुरु आकलन करते थे।

गुरु हमेशा जंगलों में रहा करते थे। और वे अपने शिष्यों का चयन किया करते थे- बहुत कम, बिलकुल, बिलकुल थोड़े से। और उनको जाना पड़ता था, और भिक्षा मांगने, भोजन के लिए, आसपास के गावों से, और भोजन पकाते थे, अपने गुरु के लिए, स्वयं अपने हाथों से, और गुरु को खिलाते थे।  

इस प्रकार की गुरु-प्रणाली सहजयोग में नहीं है। यह मूल रूप से हमें समझना पड़ेगा – कि जो अंतर उन शैलीयों के गुरु-पद में, और जो अब हमारे यहाँ है, वह यह है, कि बहुत कम व्यक्तियों को गुरु बनने का अवसर दिया जाता था, बहुत कम। 

और इन गिने-चुनों का चुनाव भी अनेकों लोगों में से होता था, और उन्हें लगता था कि वे वास्तव में कुछ विशेष हैं, कि उन्हें चुना जा रहा है, छाँटे हुए। और यह कि….जो कुछ भी उन्हें भुगतना होगा, सब स्वीकार्य है। इस विचार के साथ, वे शिष्य बने थे। लेकिन सहज योग एक बहुत अलग चीज़ है। मैं कहूँगी, बिलकुल इसके विपरीत है। सबसे पहले, आपकी गुरु एक माँ है, और जो सान्द्रकरुणा से ग्रस्त है। आपके साथ होने वाली छोटी-छोटी बातों पर, मेरी आँखें आँसुओं से भर जाती हैं।

तो एक माँ के रूप में, गुरु बनना बहुत कठिन बात है। साथ ही, आपके लिए ऊंचाईयाँ प्राप्त करना भी कठिन है। क्योंकि आप खो जाते हैं, जब मैं आपसे इतना प्यार करती हूँ। और उस प्रेम में, आप कभी-कभी भूल जाते हैं, कि आपकी अवस्था में प्रगति बहुत धीमी है। यह महत्वपूर्ण है, कि सहज योग में आपको ही स्वयं के साथ कठोर होना पड़ेगा।

इसलिए मैंने कहा था, कि आपको स्वयं का गुरु बनना पड़ेगा, जिसे लोग नहीं समझते, कि इसका क्या अर्थ है। आपको स्वयं का गुरु बनना पड़ेगा, अर्थात् आपको स्वयं का मार्गदर्शन करना पड़ेगा। आपको स्वयं से अपने शिष्य जैसा बर्ताव करना पड़ेगा, और आपको अपनी काँट-छाँट करनी होगा।  

 यदि आप नहीं समझते, इस उत्तरदायित्व को, सहज योगी रूप में- सब कुछ स्वयं ही कार्यान्वित करना, तो आप बहुत शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ सकते। क्योंकि यह एक अलग प्रकार का सम्बन्ध है, गुरु और शिष्यों के बीच में।   

तो  प्रारम्भ में, मैंने सदैव कहा है कि – “आप स्वयं के गुरु बन जाइए,आज, आप सभी यहाँ पर हैं, अपने गुरु की पूजा करने के लिए। यह एक आम प्रथा है, विशेष रूप से भारतवर्ष में, कि आपको अपने गुरु की पूजा करना अनिवार्य है, और गुरु का पूर्ण रूप से अपने शिष्यों पर नियंत्रण होना चाहिए। गुरु तत्व अत्यधिक कठोर होता है। और यह कठोरता, बहुत से लोगों से, शिष्य के आदर्शों का, अनुसरण नहीं करा पाई। 

एक तो आपको बहुत अधिक आत्मनिरीक्षण करना होगा, और अपने आदर्शों को सुनिश्चित करना होगा। आपके सामने मैं बैठी हूँ। आपने देखा है कि मैं कैसी हूँ।  मैं कुछ भी खा सकती हूँ। मुझे कुछ भी खाने की आवश्यकता ही न हो, कई दिनों तक। मैं कहीं भी सो सकती हूँ। मैं हो सकता है बिल्कुल ना सोऊँ। मैं एक साथ मीलों की यात्रा कर सकती हूँ, बिना थके। मुझमें यह ऊर्जा है क्योंकि, मैं स्वयं की गुरु भी हूँ।

तो, पहली बात यह है कि, इसमें बहुत अधिक आत्मनिरीक्षण होना चाहिए, “मुझमें क्या ग़लत है?” न कि ग़लती दूसरों में। “मुझ में क्या ग़लत है? क्या मैं अपने शरीर की सुविधा की खोज में हूँ। यह चित्… क्या यह मेरे शरीर पर है, या मेरी आत्मा पर है। यदि ऐसा है तो, मैं क्या कर रहा हूँ?” 

मुझे लगता है, कि उत्तम बात होगी कि आप इसे लिख कर रख लें। “क्या मैं घास पर सो सकता हूँ? क्या मैं पत्थर पर बैठ सकता हूँ?” आपको इस शरीर से काम लेना होगा।

“क्या मैं सो सकता हूँ, किसी भी समय जब मैं चाहूँ? और क्या मैं जागकर रह सकता हूँ, जब भी मैं चाहूँ?”

मैंने देखा है कि, लोगों को नींद की झपकी आती है। कारण यह है कि…ऐसा नहीं कि वे बुरे लोग हैं, या किसी भी प्रकार से अनुशासनहीन लोग हैं, अपितु इसलिए कि वे भीतर से थके हुए हैं। यदि आप भीतर से थके हुए हैं, तो आप हर समय थकान का अनुभव करेंगे। आप देखेंगे, टेलीविज़न पर…यदि आप देखें पाश्चात्य लोगों को, तो वे हर समय इस प्रकार बैठे रहते हैं। क्योंकि, वे बहुत थके हुए होते हैं। वे इतने थके हुए क्यों हैं? वे इतनी कड़ी मेहनत तो नहीं करते।

तो आत्मनिरीक्षण कीजिए, कि – आप कैसा व्यवहार करते हैं? जिस समय आप स्वयं का आत्मनिरीक्षण शुरू करते हैं, तब आप साथ ही अपने वातावरण का भी आत्मनिरीक्षण शुरू कर देते हैं; और आपकी शैलियों का, और आपकी पद्धतियों का। और कि आप स्वयं के साथ क्या करते हैं, इस बाह्य के जड़त्व के कारण।

अब, बाह्य के जड़त्व, पश्चिम में, कुछ मनोवैज्ञानिक रूप के हैं। भारतीयों के अलग प्रकार के जड़त्व हैं, (और) वे भी बहुत आश्चर्यजनक हैं। या हमें कहना चाहिए कि, पाश्चिमात्य लोग- उनके लिए दस बार हाथ धोना आवश्यक है। फिर चाहे उनकी चमड़ी निकल आए, वे अपने हाथ धोते जाएंगे, पागल जैसे। उनके लिए एक उनसे संलग्न-स्नानघर आवश्यक है, हर समय।

उनके लिए उनका स्नान आवश्यक है। यदि वे स्नान नहीं करते, तो उन्हें असुविधाजनक लगता

है। उनमें और भी जड़त्व हैं। सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण जड़त्व उन में हैं। लेकिन, जो जड़त्व हमारे यहाँ पश्चिम में है, वे अधिकतर मनोवैज्ञानिक हैं। और इसी कारणवश आप पता नहीं लगा सकते, कि आप में क्या ग़लत है। 

शारीरिक जड़त्व इतने हानिकारक नहीं हैं। आप उन से पार हो सकते हैं ,या उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। परंतु जब आप में मनोवैज्ञानिक जड़त्व होता है, तो आप समझ नहीं पाते कि आप में क्या दोष हैं।

अब, यदि आप देखें, यदि आप आत्मनिरीक्षण करें आस पास का, तो आप क्या पाऐंगे कि, एक बड़ी सूक्ष्म चीज़ है। पहला, कि हो सकता है युद्धों के कारण, मुझे पता नहीं क्यों, लेकिन हर कोई एक दूसरे से डरता है।  विशेषकर मुझे लगता है, फ्रॉयड… फ्रॉयड के कारण, यहाँ तक कि माँ भी अपने बच्चे से डरती है। और यह सब बातें भारतीयों के लिए एकदम…वे इसे समझ नहीं सकते। लेकिन आप लोग वह भली-भाँति जानते हैं। वे किसी को छुएंगे नहीं। वे किसी को गले नहीं लगाएंगे। पहले पहल, जब वे फुटबॉल खेला करते थे, तब वे गले मिलते थे। लेकिन अब मैं देखती हूँ, कि वे गले नहीं मिलते हैं। वे केवल इस प्रकार हाथ छूते हैं। कुछ समय के बाद, मुझे लगता है कि वे केवल कुछ उस प्रकार या कुछ वैसा ही करेंगे। इतने डरे हुए कि कोई भी, यहाँ तक कि बच्चे भी, मैंने देखा है, डरते हैं अपने माता-पिता से गले मिलने में।

तो, इसमें प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं है। और जब कोई अभिव्यक्ति न हो, तो भीतर कोई प्रेम नहीं होता। और यही कारण है कि यह चलता जाता है, आपको रूखा बनाता जाता है, और आपको रूखा बनाता जाता है, और रूखा बनाता जाता है।

एक छोटी सी लड़की थी, सहज योग में। और मेरे पास कुछ उपहार था उस बच्चे के लिए। वह बहुत छोटी थी, होगी कोई दस साल की आयु की। तो मैंने वह एक सहजयोगी को दे दिया, पश्चिमी सहज योगी को, कि “आप जाइए और उसे दे दीजिए, और कहिए कि मैंने दिया है।” 

“नहीं माँ, मैं नहीं दे सकता।” 

मैंने कहा, “क्यों?” 

“वह मुझे ग़लत समझेगी।”

 मैंने कहा, “क्या ग़लत समझेगी?” 

यह इतना अधिक लोगों के मस्तिष्क में जा चुका है। और इसने वास्तव में मनोवैज्ञानिक असुरक्षा को उत्पन्न कर दिया है, आपके भीतर। बिलकुल बचपन से ही यह असुरक्षा कार्यरत है। और इस कारण आप एक दूसरे से डरते हैं, यहाँ तक कि अपने माता-पिता से, अपने भाईयों से, अपनी बहनों से। मनोवैज्ञानिक रूप से आप पीड़ित हैं।

 और जब मैं पहली बार इंग्लैंड आई तो, वे कहते थे, “यह असुरक्षा के कारण है।” 

मैंने कहा, “कैसी असुरक्षा?” 

पूरा विश्व पाश्चात्य-लोक से भयभीत है। और वे किस असुरक्षा से पीड़ित हैं? उन्होंने सभी को असुरक्षित बना रखा है,  विश्व भर में। और क्यों, किससे असुरक्षा है उन्हें? वे असुरक्षित हो गए हैं, अपने आप में, अपने ही समाज में, अपने ही परिवार में, अपने ही समूहों में। वे इतने अधिक भयभीत हैं एक दूसरे से।

तो, पहली बात, आपको निडर होना पड़ेगा। आप एक सहजयोगी हैं। अब आप अनैतिक नहीं रहे। अनैतिक नहीं हो सकते। यदि हर समय आप यह सोचना शुरू कर दें, कि आप अनैतिक हैं, और यदि आप कुछ करेंगे तो वह अनैतिक होगा, और….यह कि आपको जाना पड़ेगा और कुछ पाप-स्वीकार करना होगा, कहीं पर। तो फिर आपका क्या होगा? किस प्रकार का व्यक्तित्व होगा आपका? हमें इसे बदलना होगा, स्वयं को बदल कर।  

तो सहजयोगियों के बीच कोई असुरक्षा नहीं होनी चाहिए- पर मर्यादाएँ होनी चाहिए। आपको पता होना आवश्यक है कि एक दूसरे की गोपनीयता का कैसे मान रखें।

दूसरी बात है कि, यदि आप देखें तो, पाश्चिमात्य मन में, जैसे कि बहुत आम बात है, उनमें आलोचनाओं से आक्रमण होता है। वहाँ इतने आलोचक हैं कि अब वहाँ कलाकार ही नहीं रह गए हैं। केवल आलोचक ही आलोचकों की आलोचना कर रहे हैं। सभी कलाकार ख़त्म हो गए हैं। उनकी हर समय आलोचना होती है। कोई आ जाएगा… एक प्रशिक्षण होता है आलोचना पर। वे शायद जानते न हों कि कोई वाद्य कैसे बजाया जाता है। उन्हें शायद पता न हो कि गाना कैसे गाया जाता है।  परन्तु! वे ठीक से आलोचना करना जानते हैं।  

तो हर समय, आपके मन में, एक प्रकार से, आपको सदैव लगता रहता है कि, कोई आलोचना करेगा, यदि आप ऐसा करेंगे तो। हर समय यह डर रहता है, कि कोई आलोचना कर देगा। इसलिए, “मुझे कहना चाहिए या नहीं?” सहजयोगी होने के नाते, आपको चिंता नहीं करनी चाहिए, इन मूर्ख लोगों के बारे में, क्योंकि वे अंधे हैं। और यदि वे आपकी आलोचना करना चाहते हैं, तो उन्हें करने दीजिए। क्या महत्व है इसका? कोई अन्तर नहीं पड़ता। परन्तु इसे आपको स्वयं के भीतर विकसित करना होगा।

अब तीसरा इससे और भी बुरा है, जिस पर मुझे पता नहीं आपने ध्यान दिया है कि नहीं। मुझे पता नहीं कि कैसे यह मस्तिष्क में चला गया है, पाश्चिमात्य मन के, कि आपको सदैव दूसरे किनारे की ओर देखना पड़ेगा, चाहे आप इस ओर क्यों न खड़े हों। निष्पक्ष होने लिए। और कभी भी कुछ ऐसा न कहें, जैसे कि आपको पूर्ण विश्वास हो। जैसे आप किसी से पूछें कि “आप कैसे हैं?” वे कहेंगे …हमेशा …। 

कोई, उदाहरण के लिए, नहीं कहेगा कि “मैं बिल्कुल ठीक हूँ। मुझे कोई कष्ट नहीं है। क्या समस्या है? बिलकुल ठीक हूँ। बहुत – बहुत धन्यवाद।” 

लेकिन ऐसा नहीं होता। वे अपने बारे में आश्वस्त नहीं होते, हर समय। डगमगाते हैं। और ऐसे भीतर से डगमगाना, आपको एक प्रकार का व्यक्तित्व प्रदान करता है, जो कभी प्रगति नहीं कर सकता। 

प्रगति होती है, जब आप अपना क़दम आगे बढ़ाते हैं। आप अपना क़दम दृढ़ता से उस स्थान पर रखते हैं, और फिर दूसरा क़दम आगे की ओर रखते हैं। जैसे कि आप एक पर्वत पर चढ़ते हैं। परंतु पहले स्थान पर ही यदि आप सोचें कि यह आधा रास्ता तय हुआ है, तो आप आगे कैसे बढ़ेंगे? आप केवल दो ही क़दम आगे बढ़ा सकेंगे- ऐसा या वैसा अथवा ऐसा या वैसा।  यह एक और बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक अवरोध है, मुझे कहना चाहिए, अथवा हानिकारक बात है, आप की प्रगति के लिए।

अब, तीसरी बात जो आपने सीखी है, वह भी, शायद तीसरी या चौथी है, कि आपको स्वयं से वाद-विवाद करके जीतना पड़ेगा। जैसे कि आपकी एक समस्या है। आप मेरे पास आएंगे और बताएंगे कि “माँ, यह समस्या है मेरे पास।” यह आम बात है, सभी के साथ। “मुझे यह समस्या है।” 

मैं कहूँगी, “ठीक है, तो समाधान यह है।”

 फिर आप बोल पड़ेंगे, “नहीं, नहीं, नहीं। पर इसमें, ऐसा हो जाएगा।” 

तब आप एक और उपाय बताएँगे। “नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, माँ, यह इस प्रकार से नहीं हो सकता।” 

ठीक है। आप तीसरा उपाय बताते हैं।  “नहीं, माँ, इसमें ऐसा हो सकता है।” 

चौथा बताइए। “ऐसा हो सकता है। ” 

आप अपने ही विरोध में खड़े हैं, हर समय। तब मुझे कहना पड़ता है, “यह आपकी समस्या है, मेरी नहीं। और मैं आपको उपाय बता रही हूँ, और यदि आप अपनी समस्या सुलझाना चाहते हैं, तो अच्छा होगा कि एक सकारात्मक मनोभाव अपनाएँ।”

मस्तिष्क इस प्रकार से है। हमारी हिंदी भाषा में इसे “उल्टी खोपड़ी” कहते हैं। आप हर समय अपने ही विरोध में वाद-विवाद करते हैं। तो आप कैसे प्रगति कर सकते हैं? यह एक और बहुत बड़ी समस्या है पाश्चात्य मन की,कि यह किसी समस्या को अपना समझ कर सामना नहीं करता। पर वाद-विवाद करता चला जाता है, स्वयं से, एक वकील के समान। आप देखिए, इसमें दो वकील हैं- एक आप स्वयं, (और) दूसरा कोई वकील। (दोनों) वाद-विवाद करते जाएंगे। तो यह दोहरा व्यक्तित्व है, शरीर में, अस्तित्व में। यह अकेला व्यक्तित्व नहीं है। जैसे कि मैंने कहा, यह बहुत अधिक मनोवैज्ञानिक है, कि लोगों को, इस प्रकार का घुमाव अचानक से लेना पड़ता है, बिना समझे, कि यह कितना भयानक हो सकता है। मस्तिष्क की प्रबुद्धता से यह समाप्त हो जाना चाहिए।   

इसके विपरीत सहजयोग में, यह बहुत भयानक है। क्योंकि आप कुछ कहते हैं। आप सब सहजयोगी हैं।  आप सभी परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति से जुड़ गए हैं। जो कुछ भी आप कहते हैं, वह सम्बन्ध स्थापित करता है, और कार्य करता है। बहुत संकटकारी है, आप लोगों का यह नहीं समझना, कि आप आत्मसाक्षात्कारी हैं, और अपनी स्वयं की शक्तियों को धारण नहीं करते । जैसे कि आप देखिए, मुझे कुछ गोपनीय कहना है, तो मुझे अपना हाथ यहाँ (माइक पर) रखना पड़ेगा और फिर कहूँगी, क्योंकि यह स्तोत्र से जुड़ा है। 

परंतु मान लीजिए कि मैं इसे इस प्रकार खुला रखती हूँ और कुछ कहती हूँ। (तो) यह सभी एक तक पहुँच जाएगा। उसी प्रकार, जो कुछ भी सहजयोगी कहते हैं, या इच्छा करते हैं, या चाहते हैं…वहाँ लोग बिलकुल बैठे होते हैं, देखिए इधर और इधर। आपने उनको स्थापित किया है। वे आपको सुन रहे हैं, हर समय। वे इतने तत्पर हैं, आपका प्रत्येक कार्य करने के लिए।  “ठीक है, आपने ऐसा कहा, तो हो गया।” 

इसलिए जो कुछ भी आप सोचें, जो कुछ भी आप इच्छा करें, अथवा जो कुछ भी आप कहें, आपको अत्यंत सावधान रहना चाहिए। 

और जब, इस समय, मेरा मतलब है, वृद्ध लोग, ठीक है, मैं कह सकती हूँ, बहुत जड़त्व वाले होते हैं, उनकी समस्याएं आदि होती हैं। लेकिन जो पीढ़ी यहाँ पर है, उनमें से अधिकतर, सभी, समर्थ हैं, अपने आप को सुधारने में और अपने मस्तिष्क को सीधा करने में, इसे पीछे से आगे की ओर घुमाकर। इसे आप मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं कह सकते। 

एक और मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसका आपको पता नहीं है, जो बहुत ही आश्चर्यजनक है, कि जो कुछ भी उद्योगपतियों की कल्पनाएं है, आपको उस पर कार्य करना पड़ेगा। क्योंकि पाश्चात्य-जीवन का समूचे आधार हैं- देखना और दिखावा करना।

इसलिए… “ओह, वैसा फ़ैशन है, तो हमें वैसा करना चाहिए। ऐसा फ़ैशन है, तो हम यह करेंगे।” जैसे कि उस  दिन, लगभग एक साल पहले, मैं इंग्लैंड गई। और मैंने देखा कि सभी सहज-योगिनियों ने अपने बाल इधर (माथे पर) बना लिए थे। मैंने कहा, “यह क्या है?” तो, मैंने एक भारतीय लड़की से पूछा। मैंने कहा, “इसका क्या मतलब है?” 

“यह एक नया फ़ैशन है।” 

मैंने कहा, “कैसा नया फ़ैशन?” “ज़िपर्या” कहा जाता है मराठी में, आप जानते हैं।  हम इसे “ज़िपर्या” फ़ैशन कहते हैं। केवल मराठी लोग ही समझ सकते हैं। और उन सभी ने अपने बाल इधर कर लिए थे, आप जानते हैं, इस प्रकार से, सभी ने। 

मैंने कहा, “हे भगवान, यह आज्ञा है। इसे वे ढक रहे हैं, उनकी आँखें विद्रूप हो जाएंगी।”

परंतु, फ़ैशन यदि आ जाता है…और सारा फ़ैशन केवल बालों से होता है। बाल, मुझे नहीं पता क्या….बालों में इतनी अधिक रुचि है। और उनके बाल इतनी शीघ्रता से झड़ने लगते हैं, इन देशों में, तेल न लगाकर, जिसका उन्हें उपयोग करना चाहिए। वे अपने बाल बड़ी जल्दी खो देते हैं।  शुरुआत होती है सहस्त्रार के बालों से। उसके बाद, फ़ैशन मतलब…क्या है यह? वे उद्योगपति, वे मूर्ख लोग कल्पनाएं उत्पन्न करते हैं और उसमें हम क्यों पीछे-पीछे जाएं? 

मैं नहीं कहती कि सहजयोगियों को एक जैसा दिखना चाहिए, बिल्कुल भी नहीं। आप अपनी पसंद के अनुसार कपड़े पहन सकते हैं; आप अपनी पसंद के अनुसार रह सकते हैं। लेकिन आप को स्वयं को अधीन बनने नहीं देना चाहिए, किसी भी उद्योगपतियों द्वारा। अब आप स्वतंत्र लोग हैं – यह भली-भांति जान लीजिए। यह जान लीजिए कि आप बिल्कुल स्वतंत्र हैं! और आपकी स्वतंत्रता पूर्णतया आपकी प्रबुद्धता के प्रकाश में है। आप कभी भी ग़लत नहीं कर सकते। लेकिन सबसे पहले, वह आत्मविश्वास प्राप्त करें, अपने भीतर, कि आपको जो भी करना हो, आप स्वयं को दास बनने नहीं देंगे उद्योगपतियों के प्रति। “लोगों का क्या कहना है? आप कैसे दिखेंगे? आप कैसे दिखेंगे समक्ष …?”

यह एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है, कि आधे समय हम मेहनत करते हैं, केवल अधिकांश लोगों जैसा दिखने के लिए। यह बहुत ही आश्चर्यजनक है कि कैसे इन उद्योगपतियों ने मूर्ख बना रखा है, पश्चिमी लोगों को।

भारत में ऐसा नहीं चल सकता, नहीं चल सकता, विशेषकर भारतीय महिलाएं! इस बीच एक “छोटी-साड़ी” आई। मुंबई तक आई, लगभग चार-पांच दिनों के लिए, मुझे लगता है, (और) ग़ायब हो गई। कोई भी भारतीय नारी कोई आधी-साड़ी नहीं पहनेगी, समाप्त। कुछ नहीं करना पड़ा। किसी भी प्रकार का फ़ैशन अब भारत में आता है, तो टिकता नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कपड़े अब हमारे पास भारत में हैं, वे पारम्परिक रूप से, यहाँ पर हैं, उनका परीक्षण किया गया है, और त्रुटि और परीक्षण, त्रुटि और परीक्षण, और अब हम जानते हैं, कि यही उत्तम है। अब रुक जाइए। एक निश्चित आयु पर आप रुक जाते हैं। यही शैली है जो हम पर सबसे अधिक अनुकूल लगती है।

परन्तु कुछ भी होता रहे और शैली बदलती चली जाए। और यही है जिसके बारे में आपको बहुत सावधानी से देखना होगा, कि आप मूर्खतापूर्ण चीज़ों को न अपनाएं, जिसका उद्योगपतियों द्वारा निर्माण हो रहा है, पर व्यावहारिक वस्तुओं को (अपनाएं), जिसकी आपको आवश्यकता है।

इसलिए, एक प्रकार का दासत्व है, मुझे लगता है, यह कि, आपको उद्योगपतियों के हाथों का खिलौना बनाना पड़ता है। लेकिन यह दासत्व बहुत गहरा होता है, और इतना मनोवैज्ञानिक होता है। कई प्रकार से यह अत्यंत गुप्त होता है। और इतना सूक्ष्म होता है कि आप इसे पहचान नहीं सकते।

तो, आत्मनिरीक्षण में आप पता कीजिए है कि आप में क्या ग़लत चल रहा है। आप इस प्रकार के कैसे बन गए हैं? “मेरे अपने व्यक्तित्व में क्या ग़लत है?” 

यह आए हैं – आसपास के सभी वातावरणों से, और जिस प्रकार मेरे मस्तिष्क में लोगों द्वारा विचार डाले गए हैं।” आपके अपने विचार होने चाहिए। आपको यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि प्लेटो ने क्या कहा, और सॉक्रेटिस ने क्या कहा, और क्या इस चीज़ ने कहा है। आप क्या सोचते हैं? अन्ततः, आप प्रबुद्ध लोग हैं।

पर इसके बाद एक और मनोवैज्ञानिक बात है, जो इससे भी बुरी है। और वह है कि “माँ, यदि हम बहुत दृढ़ हैं, तो हम अपने अहंकार को बढ़ावा दे रहे हैं।” 

वे इतना डरते हैं अपने अहंकार से, जैसे कि कुछ समय बाद वे उड़ान भरने लगेंगे। “अहंकार इतना फूल जायेगा, कि हम उड़ान भरने लगेंगे।” 

यह एक और डर है लोगों में, कि यदि हम बल-पूर्वक व्यक्त कर देंगे कि, “ठीक है, यही है जो मुझे चाहिए। यही कार्य करना सही है।”  

तब फिर, “मैं पीछे हट जाता हूँ। तो मैं ऐसी बात नहीं कहना चाहता। मुझे में यह अहंकार है।”

तो, सहजयोग के साथ भी, कुछ चिन्ताएं घर कर रही हैं। उनमें से एक यह है कि “माँ, मुझे कोई अहंकार नहीं होना चाहिए।”

अब, क्या है यह अहंकार की समस्या? वह भी आश्चर्यजनक है, सारी चिंताओं और सब कुछ के होते हुए। इस पर प्रतिक्रिया के रूप में, लोगों ने विकसित कर लिया है- एक प्रकार का, एक विरोधात्मक व्यक्तित्व। लेकिन फिर से इन उद्योगपतियों ने आपके अहंकार को सर चढ़ा दिया है। जैसे कि, सुबह आप बच्चे से पूछते हैं, “आप क्या खाएँगे?” तो बच्चा कहेगा, “मैं यह खाऊंगा।” उस माँ को दौड़ना और वह लेकर आना पड़ता है। अथवा उसे सब कुछ फ़्रिज में रखना पड़ता है। 

भारत में ऐसी स्थिति नहीं होती। “जो भी घर में पकाया है, अच्छा होगा आप खा लें! यदि नमक नहीं है, तो ठीक है, बिना नमक के, जल्दी करो। नहीं तो मत खाओ, कोई बात नहीं।” 

किसी भी अवस्था में आप खाएंगे। इसलिए, जब अनुशासित होना आपके भीतर से आता है, और आप इसे समझते हैं, तब आप यह नहीं कहते हैं कि, “मुझे केवल यही चाहिए, मुझे केवल यही चाहिए।” आप क्या चाहते हैं, आप स्वयं को बताते हैं, “ठीक है, आप एक महीने तक इसे नहीं खाएंगे। अब हम देखते हैं।”

एक बार, मुझे आपको बताना पड़ेगा, अपने बारे में, कि मुझ पर थोड़ी आराम की आदत चढ़ गयी थी, किसी समय… मुझे लगता है। तो हमारा कोई स्थानांतरण हुआ था, और मेरा परिवार मेरे साथ नहीं था, उस समय। हमें एक छोटा सा बिस्तर दिया था, जिस पर मेरे पति सोते थे। और मैं सोती थी बिलकुल ख़ाली सीमेंट पर, भूमि पर। और अगले दिन मुझे दर्द होना शुरू हो गया, शरीर में। मैंने कहा, “ठीक है।” मैं सीमेंट पर सोई, एक महीने तक। “सीमेंट पर आपको दर्द होता है? ठीक है। अब सो जाओ।” 

“एक महीना,” मैंने कहा, “मैं सीमेंट पर सोने वाली हूँ।” तब सीमेंट ने अपनी शक्ति खो दी, मुझ पर। फिर हो सकता है उस सीमेंट को दर्द का अनुभव हो रहा हो।

तो, ऐसा ही है, जो आपको करना है- कि अपने मन पर प्रभुत्व जमाएँ। अब समस्या केवल यह आएगी कि – सूझबूझ कैसी है?

“यह अहंकार बढ़ जायेगा, माँ!” 

क्योंकि, आपका अहंकार, जैसा कि मैंने कहा था, प्रतिक्रियाओं द्वारा विकसित हुआ है, चीज़ों के विरुद्ध आपत्ति करने से, और साथ ही उद्योगपतियों के द्वारा सिर चढ़ाने से। ठीक है, चाहे जो भी कारण हो, हम अपना मनोविश्लेषण नहीं करने वाले हैं। 

परन्तु तथ्य यह है कि, हमें अहंकार की भी एक समस्या है। क्यों? मैंने आपको पहले ही बताया था कि,यदि एक गुब्बारे को कई बार फुलाया जाए, तो वह आसानी से फूलने लगता। हल्की सी हवा से, वह फूल जाता है। और इसलिए आप डरते है, कि, “अकस्मात् ही, मेरा अहंकार इतना फूल सकता है। कि कहीं मैं आसमान में गुब्बारे जैसा बन सकता हूँ, इधर उधर उड़ने लगूँ।” लेकिन, कैसे इससे छुटकारा पाया जाए?  इसके लिए जानना होगा कि, आप एक प्रबुद्ध आत्मा हैं। स्वयं का सम्मान करें।

एक बार जब आप स्वयं का सम्मान करना शुरू कर देते हैं, तो आप अहंकार के किसी भी झाँसे में नहीं पड़ते। बहुत सरल है। स्वयं का सम्मान करें। आपको कहना होगा, “मैं एक सहजयोगी हूँ। मैं ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता हूँ? आख़िरकार, मैं एक सहजयोगी हूँ।” 

एक प्रकार की गरिमा यह विकसित करता है। और तब आप शुरू करते हैं संकोच का अनुभव करना, कुछ ऐसा करने में जो मूर्खतापूर्ण हो। क्योंकि अहंकार आपको मूर्ख बनाता है। यही बात है, बिल्कुल। 

तो अब, यदि आप यह सम्मान विकसित कर लें स्वयं के लिए कि,“मैं एक सहजयोगी हूँ। इसलिए मैं इस प्रकार का व्यवहार नहीं कर सकता। मैं सहजयोगी हूँ।” यदि आप ऐसा कहें स्वयं से, तो आप आश्चर्यचकित हो जाएँगे, कि वह सहजयोगी की गरिमा आपको निश्चित रूप से विनम्र बनाए रखेगी। आप अपने अहंकार के झांसे में नहीं फंसेंगे।  

तो एक ओर है जड़त्व। दूसरी ओर है यह अहंकार। साधारण सी चीज़ है अहंकार। उस गरिमा को विकसित करना होगा। आप आश्चर्यचकित होंगे – जानवरों के बीच में मर्यादाएं होती हैं। जैसे कि एक बाघ कभी एक साँप के जैसा व्यवहार नहीं करेगा और साँप कभी एक बाघ जैसा व्यवहार नहीं करेगा। तो, हम अब सहजयोगी हैं।

हम बाघ हैं मनुष्यों के बीच में। हम शेर हैं मनुष्यों के बीच में- सबसे ऊँचे। हम सबसे ऊंचे मनुष्य हैं। यह आवश्यक नहीं है कि दस हों…क्या कहते हैं आप…पदक, आपके शरीर पर, दिखाने के लिए कि आप कोई महान हैं। परन्तु आप सहजयोगी हैं, आप महायोगी हैं। इसलिए, विकसित करें वह… सम्मान, और आपको आश्चर्य होगा कि विनम्रता तुरंत आपके भीतर आ जाएगी। मेरा मतलब है कि आप में चली आएगी, विनम्रता।

मैंने देखा है कुछ सहजयोगियों को…ऐसे बैठे होते हैं, कभी-कभी ऐसे बैठे होते हैं। कभी-कभी वे…एक… अगर बाईं विशुद्धि हो, तो इस प्रकार, दाईं विशुद्धि हो, तो इस प्रकार। लेकिन उस समय आप स्वयं को देखिए। जैसे कि एक दूल्हे को तैयार होना पड़ता है, और वह याद रखता है, “मैं दूल्हा हूँ। मैं अन्य छोटी आयु के लड़कों जैसा व्यवहार नहीं कर सकता, जो वहाँ पर होंगे। मेरा अपना व्यक्तित्व होना चाहिए। मैं दूल्हा हूँ। मैं अपनी शादी के लिए जा रहा हूँ। मैं अपने सभी अन्य मित्रों जैसा बर्ताव नहीं कर सकता, जो वहाँ पर होंगे।” 

आपको एक विशेष प्रकार से व्यवहार करना पड़ता है। तो, इस (व्यवहार) को धारण कीजिए। अभी तक हमें नहीं पता है कि हम सहजयोगी हैं। एक बार जब हम जान जाते हैं कि हम सहजयोगी हैं, वह गरिमा हमारे भीतर विकसित हो जाएगी। और उस गरिमा द्वारा, आप अचंभित हो जाएंगे, कि आप यह भी देखेंगे कि आपके अपने देश में क्या ग़लत है, क्या गरिमा-हीन है।

अब जो कुछ भी हुआ है फ़्राँस में उससे, आप पता लगा सकते हैं कि क्या ग़लत है फ़्राँसीसी क़ानूनों में। परन्तु फ़्रेंच अधिक रुचि रखते हैं, पीने और खाने और अन्य चीज़ों में। इसलिए, उन्होंने कभी ध्यान नहीं… “ओह, इसे रहने दो। क्या चिंता करें हम क़ानूनों की? जैसा है वैसा रहने दो इसे। कोई बात नहीं। कौन चिंता करना चाहेगा इन बातों पर। बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं है। अंततः, यदि आपको पीने के लिए कुछ मिल जाए तो…” 

आप किसी भी फ़्राँसीसी गांव में जाइए, सात बजे, आप किसी से भी मिल नहीं सकते, यहाँ तक ​​कि एक शराबी से भी नहीं। वे भीतर बैठे होते हैं, और पीते हैं, पीते हैं…। मेरा तात्पर्य है कि, वही मूल धर्म है, मुख्य मनोरंजन है। अगले दिन शराब के शेष लक्षणों के साथ वे आते हैं। इसलिए उन्हें सब कुछ विपरीत ढंग से दिखाई देता है। जैसे कि यह व्यक्ति…वे पत्रकार जो भारत में गए थे, उन्होंने एक लोहे का दरवाज़ा देखा और उन्होंने सोचा कि यही हिटलर का लोहे का पर्दा है। सब कुछ बढ़ा-चढ़ा कर, आप जानते हैं, इतना बड़ा, विकृत। क्योंकि शराब के प्रभाव शेष थे, आप जानते हैं।

तो, सम्पूर्ण जीवन पश्चिम में – एक शराब के शेष प्रभावों जैसा। या तो वे चीज़ों को अत्यधिक बड़ा या बिल्कुल ही छोटा सा देखते हैं। वे चीजों को जैसा है वैसा नहीं देखते हैं। अब अधिकतर वे बातें जो लिखी गई हैं, जिन्हें आप पढ़ेंगे – मनोविज्ञान और वे सभी चीज़ें और किताबें…अधिकतर वे शराबी होते हैं। यदि आप उनका जीवन देखें, तो वे शराबी रहे हैं। इसलिए, जो कुछ भी उन्होंने लिखा है, उसे हम इतनी गंभीरता से क्यों लें? अतिरिक्त कुछ गिने-चुनों के जो आत्मसाक्षात्कारी थे, उनमें से अधिकतर शराबी थे। 

जैसे कि वे, जिन्होंने ग्रीक त्रासदियों के बारे में लिखा था, अवश्य ही बिलकुल शराबी लोग होंगे। इसमें…वे अवश्य ही बहुत से पदार्थों को (अपने) भीतर लेते होंगे। और फिर लिखा होगा, कुछ उस प्रकार का। क्योंकि अधिकांश शराबी, जब वे लिखते हैं, तो वे कहते हैं कि “क्यों, क्यों मैं जीवित रहूँ। मुझे मरना पड़ेगा।” और ऐसे ही हमारे यहाँ भी, भारत में भी कई लोग हैं, जिन्होंने ग़ज़लें लिखी हैं, जो सदैव कहते हैं कि “हम क्यों जीवित रहें? हमें मर जाना चाहिए।” तो, यदि…. एक कवि हैं जिन्होंने कहा था, “अब आप मरने की बात कर रहे हैं, तो आप मरते क्यों नहीं, एक बार सभी के लिए?” 

तो, आपको अनुभूति होगी कि, आप जो लिखेंगे, आप जो कहेंगे, वह उच्चतर है, इन सभी लोगों की तुलना में। लेकिन सहजयोग ने आप में इतनी सुगमता से कार्य किया है, कि आप जानते ही नहीं कि आप क्या हैं।

आज, गुरु पूजा पर, आप अपने गुरु की पूजा कर रहे हैं। उसी समय, मैं नमन करती हूँ आपके भीतर के अपने गुरु को। अपने गुरु को उभरने दीजिए, और इसे प्रकट होने दीजिए। विशेष रूप से, जिस प्रकार की एक गुरु आपकी हैं – मैं आपके साथ कठोर नहीं हूँ, मैं बहुत सौम्य हूँ। क्योंकि, जैसे कि मैंने आपको बताया है, मूलभूत रूप से एक अलग बात है, कि यह एक व्यक्ति-विशेष के लिए नहीं है, अपितु सामूहिकता के लिए है। और यदि कुछ सामूहिक रूप से प्रसारित करना है, तो आपको यह समझना होगा, कि यह केवल शुद्ध प्रेम ही है, जो इसे कार्यान्वित करेगा। कोई भी दूसरा मार्ग नहीं है, जिससे हम सहजयोग फ़ैला सकेंगे। क्योंकि हम हिटलर जैसे नहीं बन सकते- घृणा के ग़लत विचार फैलाते हुए। इसमें कोई एक ही हो सकता है- घृणा अथवा प्रेम।  

आप लोगों को सिखाइए कि “हम इससे घृणा करते हैं।” रूढ़िवादिता, ऐसा, वैसा- आपको हज़ारों मिल जाएँगे, लड़ने को तैयार। आप बुलंद कर सकते हैं, उनके नीच व्यक्तित्व को, और कह सकते हैं, “ठीक है, चलो साथ में, हम सब लड़ेंगे।” प्रजातिवाद, ऐसा, वैसा, कुछ भी, यहाँ तक ​​कि राष्ट्रवाद भी। ठीक है, वे इंसान हैं। 

लेकिन जब मैं कहती हूँ कि प्रेम, तो बहुत अलग है। समझने की कोशिश कीजिए। और हमारे सामूहिक कार्य के कारण, हमें पता होना चाहिए, कि प्रेम एक स्रोत है, ऊर्जा का, जो चीज़ों को विकसित करता है, जीवंत रूप से। यह ऐसी ऊर्जा है, जो एक जीवंत ऊर्जा है। समझने की कोशिश कीजिए अभी। यही है, जो लोग समझते नहीं हैं। प्रेम का अर्थ नहीं, कि आप किसी को गले लगाएँ, या कुछ करें। परन्तु जीवंत ऊर्जा है, जो समझती है, जो आपका विकास करती है।

मुझे आशा है कि आपने मेरी पुस्तकें देखी हैं, और मैं आशा करती हूँ कि आपने उसे पढ़ा होगा। उसमें मैंने समझाया है आपको, बहुत स्पष्ट रूप से… कि क्या है यह जीवंत ऊर्जा, हमारे भीतर जो कार्य करती है। और किसी भी वस्तु में, जो कार्य करती है। उदाहरण के लिए, इस फूल को देखिए। अब, मैं इसे आदेश नहीं दे सकती कि, सीधा  बढ़े। यह बढ़ रहा है, अपनी शैली से – इसे रहने दो। यह अच्छा दिख रहा है, क्योंकि कोई भी फूल दूसरे फूल जैसा नहीं दिखना चाहिए। जीवंत ऊर्जा कभी भी एक समान वस्तु नहीं बनाती, बिलकुल दूसरे (वस्तु) जैसा। केवल प्लास्टिक का बनता है। अब, जब यह बढ़ रहा है, यह अपनी पद्धति से बढ़ रहा है। तो, जो भी आपके भीतर निर्मित है, जो एक जीवंत ऊर्जा है, अन्तर्निहित, पर जीवित ऊर्जा, और एक जीवित वस्तु जो काम करती है – वह अपने आप खिल जाती है।

शुद्ध प्रेम का जल देना होगा। शुद्ध प्रेम में, आप क्या देखते हैं, किसी अन्य व्यक्ति में, एक गुरु के रूप में कि,  “क्या बात है मुझ में, जहाँ यह मुझे रोक रहा है, आगे जाने में?” 

एक अन्य व्यक्ति में, एक गुरु के रूप में, आप क्या देखते हैं कि, “कैसे इस व्यक्ति से व्यवहार करें, प्रेम से, कि वह वास्तविकता के समीप आ जाए?” एक बहुत ही कोमल प्रक्रिया है, बहुत ही प्रेममयी प्रक्रिया है। और अपने प्रेम का आनंद लेने से बढ़ कर और कुछ भी नहीं है। बस यह जानना कि, मैं बहुत सारे लोगों से प्रेम करती हूँ, यही इतना उत्कृष्ट है। और आप भी देखते हैं, अनुभव करते हैं कि “मैं प्रेम करती हूँ, बहुतों से।”

लेकिन यह सम-दृष्टि से होना चाहिए – अर्थात्, एक समान दृष्टि से आपको देखना चाहिए सभी को। आपको हर किसी को समान दृष्टि से देखना चाहिए, है कि नहीं? केवल दो आँखें हैं। लेकिन, आप सभी को समान दृष्टि से देखते हैं – कि वे भिन्न-भिन्न हैं। ठीक है? आप उन्हें भिन्न-भिन्न देखते हैं। लेकिन आप नहीं करते… आपकी आँखें भेदभाव नहीं करतीं। आपकी आँखों को नहीं दिखता कि, कोई काला, कोई सफ़ेद, कोई नीला है। वे देखतीं हैं, जैसे वे हैं। जब आप सम-दृष्टि द्वारा देखना शुरू करते हैं, अर्थात्, एक ही दृष्टि से, एक नज़र से, अपने विचारों को न बदलते हुए … क्योंकि, क्या होता है कि, आपका स्वयं का मन, इसे विकृत बना देता है। और आप देखना शुरू कर देते हैं, किसी को अलग रूप से, किसी को अलग रूप से। अब, आँखों से, मैं वह पँखा देख रही हूँ। लेकिन मान लीजिए मेरा मन काम नहीं करता, तो मैं शायद (इसे) एक इंसान जैसा देखूँ।

इसलिए यदि आप एक सन्तुलित व्यक्ति हैं, तो आप सभी को वैसा ही देखेंगे जैसे वे हैं। यही सम-दृष्टि है, कि आपकी सभी के लिए समान दृष्टि है। विकृत मत बन जाइए, ताकि ऐसा न हो कि, आपका कोई विशेष मित्र बन जाए, कोई दूसरे नंबर का दोस्त हो, कोई दसवें नंबर दोस्त जैसा और कोई आपके दुश्मन जैसा। एक बार जब आप इस प्रकार से चीज़ों को देखना शुरू कर देंगे, तो सब कुछ उचित आकार में आ जाएगा। नहीं तो कोई पागल हो सकता है। साथ ही, यह ‘सम्यक्’ होना चाहिए। सम्यक् का अर्थ है एकीकृत। इसमें एक एकीकृत ज्ञान होना चाहिए। जैसे कि आंखें… जब वे देखती हैं, तो वे देखती हैं कि – आप कहाँ बैठे हैं? आप कहाँ हैं? यह व्यक्ति कहाँ है? वह व्यक्ति कहाँ है? क्या आपसी संबंध है?

तो, वह जानकारी, दूसरों के बारे में, एक दूसरे के साथ संबंधों में होती है। अब मान लीजिए, एक सज्जन हैं, जिनका एक बच्चा है, और उस सज्जन और बच्चे के बीच कुछ समस्या है। उस व्यक्ति से संपर्क करने के लिए, आपको जानना आवश्यक है कि, उनका एक बच्चा है; न  कि उन्हें बस दूसरों से अलग करके, अकेले करना। 

आप किसी को ले लीजिए, मान लीजिए…वे हैं मान लीजिए इंग्लैंड से, या वे इटली से हैं। तो उन्हें समझने का  प्रयत्न कीजिए, कि वे उस विशेष पृष्ठभूमि से हैं। और वह पृष्ठभूमि उनके आसपास है। इसलिए वे ऐसे हैं।

यदि आप इस प्रकार का एक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लें, तो कोई भी समस्याएँ नहीं होंगी, कोई झगड़ा नहीं, कुछ भी नहीं। नहीं तो एक संघर्ष बना रहता है हर समय, और इस प्रकार व्यक्ति बहुत थकान का अनुभव करता है।

आँखें प्रतिक्रिया नहीं करतीं। आँखें केवल देखती हैं। जो भी वहाँ है, वे केवल देखती हैं। आँखें कभी भी प्रतिक्रिया नहीं करतीं। परन्तु मस्तिष्क प्रतिक्रिया करता है। और यह प्रतिक्रिया ही है जो उत्तरदायी है, दूषित करने के लिए, आपका लोगों के प्रति मनोभाव ।

तो अब, आपको एक साक्षी भाव में रहना चाहिए। जैसा कि ज्ञानेश्वर ने कहा था, “निरंजन पाहणे, निरंजन पाहणे!”  

किसी को देखना, बिना प्रतिक्रिया के। केवल देखना मात्र, और आप उस व्यक्ति के बारे में सब कुछ जान जाएंगे, उस व्यक्ति को देखते ही। निरंजन पाहणे! क्योंकि जब तक आपका मस्तिष्क इसमें है, आप उस व्यक्ति को देख नहीं सकते, जैसा वह है। पर जैसे ही आप उस व्यक्ति को देखेंगे, आप बस समझ जाएंगे वह क्या है। और फिर, तुरंत आप जान जाएंगे, उनके चक्रों को, उनकी कुण्डलिनी को, सभी के भीतर आप चले जाएंगे। लेकिन आपका मस्तिष्क, जो भरा हुआ है निरर्थकता से, आपको उस स्तर तक पहुंचने नहीं देगा।

इसलिए, निरंजन पाहणे- एक ऐसा है, जिसमें आप केवल देखते मात्र हैं। उस प्रकार की आँखें हमें विकसित करनी होंगी। तो इसके द्वारा एक निर्लिप्तता आती है, स्वतः ही, आप किसी की आलोचना नहीं करते, क्योंकि आपका मन इस प्रकार का है उसके प्रति। आप किसी से प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि आपका मन इस प्रकार से सोचता है। आप गुट भी नहीं बना सकते। आपके कुछ ऐसे लोग नहीं हो सकते, जो अधिक प्रिय हैं, और कुछ जो (प्रिय) नहीं हैं। 

कभी-कभी, यदि मैं कुछ लोगों से मुस्कुराती नहीं, तो वे बड़बड़ाते हैं और कहते हैं, “इस बार माँ मुझ से मुस्कुराईं नहीं।” मेरा मतलब है कि मैं हर समय मुस्कुराहट लिए नहीं रह सकती, आप देखिए। आपको मेरी माँसपेशियों के बारे में भी सोचना पड़ेगा। हर समय मैं कैसे मुस्कुराहट बनाए रख सकती हूँ? आप जानते हैं।  लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो बहुत बुरा मानते हैं कि, “आप देखिए, इस बार माँ नहीं मुस्कुराईं।” 

तो मुझे मुस्कुराते ही रहना चाहिए, हर समय, हर किसी से। मैं प्रयास करती हूँ। तो वह मनोभाव, दूसरों के प्रति, होना चाहिए, निरंजन मनोभाव से। क्योंकि यह सामूहिक कार्य है! यह कठोर नहीं है। यह किसी प्रकार से किसी चीज़ को जकड़ता नहीं है। क्योंकि यह जीवंत कार्य है। पूर्णतया यह जीवंत है। हम नहीं कर सकते…पर यह निश्चित रूप से ऐसा कार्य है जो उत्पन्न करता है – सामंजस्य, प्रेम, प्रीति, और एकजुटता की भावना।

कल्पना कीजिए, कि सोचना हो किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में, जो आप से दयालु नहीं है अथवा वे हैं….यह भयंकर बात है! अच्छा होगा आप सोचें, कि कैसे अच्छा बर्ताव आप उस व्यक्ति से कर सकते हैं। तो, मनोभाव ऐसा होना चाहिए कि, “कैसे भला बर्ताव मैं कर सकता हूँ उस व्यक्ति से।” आप जानते हैं। देखिए, कोई  गुस्सा है आपसे। तो आसान है लड़ाई करना, “तो चलो! आप गुस्सा हैं। मैं गुस्सा हूँ।”  

नहीं, जाइए और थोड़ा गुदगुदाइए। सरल काम, इस प्रकार का, और आनंद लीजिए। क्योंकि आप आनंद नहीं ले सकते, घृणा का। आप आनंद नहीं ले सकते, प्रतिस्पर्धा का। आप आनंद नहीं ले सकते, अलग-अलग रहने का। जैसे इस हाथ को इस हाथ का आनंद लेना पड़ेगा। उस प्रकार आप को एक दूसरे का आनंद लेना  पड़ेगा। अगर आप आनंद नहीं ले सकते, तो आप बात समझ नहीं पाए। बात समझने से चूक गए। 

तो, सामूहिक प्रगति में हमें पता होना चाहिए कि, हम प्रगति नहीं कर सकते, यदि हमारे भीतर कोई सामूहिकता की भावना नहीं है। कि हम एक व्यक्ति के अंग-प्रत्यंग हैं। अगर मैं अपना एक कान खींचूँ, तो ऐसा नहीं है कि मेरा कान बाहर निकल आएगा। पर यह पूरे शरीर को दर्द देगा। इसलिए मैं कहती हूँ कि दोनों को खींचना अधिक अच्छा होगा।

और जब आप शुरू करते हैं, आप देखिए, इस प्रकार स्वयं को देखना, तब आप अचंभित होंगे, कि एक प्रकार का मधुर विनोद स्वयं के लिए विकसित करेंगे। और आप वास्तव में बन जाएंगे – बहुत रोचक, आकर्षक-व्यक्तित्व वाले और एक बहुत आनंददायक व्यक्ति, अत्यधिक आनंददायी।  

सभी आपकी संगति की इच्छा करेंगे। यही है वह लक्षण कि आपका गुरु-तत्व प्रबुद्ध हो रहा है। नि:संदेह, उन्होंने कहा है कि आपको निर्लिप्त रहना चाहिए। आप में कोई लगाव नहीं होना चाहिए- इसके और उसके प्रति, और उसमें, और उसमें। यह सब केवल बातें हैं। लेकिन वास्तव में, केवल आत्मनिरीक्षण और (अपनी स्थिति को) धारण करना या, हम कह सकते हैं, अपनी गहराई का ज्ञान ही, स्वयं, आपको वह अनुभव देगा। यदि आपमें वह ज्ञान है कि मैं सहजयोगी हूँ, और मेरी गहराई दैवत्व में इतनी अधिक है, केवल इतना ही, पर्याप्त से अधिक होगा, आपके सर्वोच्च गुरु के रूप में  स्थित होने के लिए।

वास्तव में, अब मैं कोई गुरु नहीं रही। मैं कभी  गुरु थी ही नहीं। मैं एक माँ हूँ। मैं उचित गुरु नहीं हूँ। क्योंकि, एक गुरु जो कठोर नहीं हो सकता, वह बेकार है। और मुझे स्वयं को तैयार करना पड़ता है, बातें बोलने के लिए, आप जानते हैं। यदि दो लोगों के बीच समस्या है, और यदि तब कुछ समय का अंतराल हो, जब मुझे उनसे कहना पड़े, तो मैं आरम्भ करती हूँ कि, “ओह, कठोर कैसे बनें?” मैं स्वयं को बताती हूँ। हाँ, अनायास ही अगर कुछ हो जाता है, तो मैं कहती हूँ, “ऐसा क्यों कर रहे हो?” अधिक से अधिक, स्वाभाविक रूप से। तो, आपको इस विशेष शैली का गुरुपद विकसित करना होगा, अपने भीतर, जो सामूहिक कार्य करने के लिए हो। फिर से, याद रखिए, कि यह सामूहिक कार्य के लिए है।

तो आज, आप अपने गुरु तत्व की पूजा करेंगे, स्वयं के भीतर, जब आप मेरी पूजा करेंगे। मैं नहीं कहूँगी कि आपको मेरा अनुसरण करने का प्रयत्न  करना चाहिए । क्योंकि मैं कई विषयों में उपयोगी नहीं हूँ। जैसे कि, बैंक के काम, मैं नहीं जानती।  पैसा, मैं नहीं समझती। मेरा मतलब है, कि बहुत सी चीज़ें हैं, जो मैं नहीं जानती, वास्तव में, मैं उपयोगी नहीं हूँ। कानून, मैं नहीं समझती। मेरा मतलब है, कि आपको मेरे जैसा नहीं होना चाहिए। आप सहमत हैं? लेकिन! आपको बोलने में सक्षम होना चाहिए, जैसे मैं कहती हूँ, “देखिए, मुझमें ऐसी कठिनाइयाँ हैं।”    

लेकिन एक बात अवश्य हो कि, आपको सहजयोग का पूरा ज्ञान होना चाहिए, या इच्छा हो सब कुछ सहजयोग के बारे में जानने की। यदि वह कार्यान्वित हो जाए, इसके बाद आप ज्ञान के इस महासागर के भीतर तैरेंगे, एक तेज़ विमान के सामान। और जो कुछ आप चाहते हैं, जो कुछ आप जानना चाहते हैं, आप जान जाएंगे। लेकिन इसमें एक इच्छा होनी चाहिए- जानने की। कभी भी संतुष्ट न हों, कि मुझे सहजयोग के बारे में पर्याप्त रूप से पता है, नहीं, कभी नहीं। अन्य सभी चीज़ों में आप संतुष्ट हो सकते हैं, पर एक बात के अतिरिक्त- वह है सहजयोग। “अभी भी, मुझे जानना है, अपने मस्तिष्क के माध्यम से, और मेरे हृदय में वह ज्ञान होना चाहिए। यह मेरे हृदय में होना चाहिए। न कि केवल मेरे मस्तिष्क में। मुझे अपने मस्तिष्क के माध्यम से जानना चाहिए। यह मेरे हृदय में होना चाहिए।”

 जैसे कि जब आप एक फिल्म देखते हैं- आप किंग-काँग को देखते हैं। तब आप जानते हैं कि यह किंग-कांग है। “ठीक है, यह एक फिल्म है, कोई बात नहीं।” साधारणतया, हमारा ज्ञान इस प्रकार का होता है। लेकिन अगर आप मिस्टर किंग-काँग को यहाँ खड़ा देखते हैं, “हे भगवान, वे तो यहीं पर हैं।”

इस प्रकार से ही, जब हमारा ज्ञान मस्तिष्क में होता है, यह बिल्कुल एक फ़िल्म जैसा होता है, दूर होता है… यह हमारे हृदय में नहीं होता है। पर जब यह हृदय में होता है, तो यह कार्य करता है, यह काम करता है। यह मस्तिष्क के माध्यम से काम नहीं करता है। मस्तिष्क में यह केवल रहता है, लेकिन हृदय में यह कार्य करता है। और हृदय में आत्मा का वास है। बहुत सरल है, कि हम ऐसे लोग हैं जो अपने मस्तिष्क के साथ अधिक रहते हैं, न कि अपने हृदय के साथ। लेकिन जान लीजिए कि हम वास्तविकता में हैं। आप देखिए, किंग-काँग हमारे सामने खड़ा है। आप एक फिल्म नहीं देख रहे हैं; यह वास्तविकता में है। और वास्तविकता में, हृदय को काम करना पड़ता है, मस्तिष्क को नहीं। क्योंकि वास्तविकता केवल हृदय के माध्यम से होती है, मस्तिष्क के माध्यम से नहीं।

एक बार जब आप इसे समझेंगे, तो आप अपना हृदय खोलेंगे, इसे विशाल बनाएंगे, “अब यह मेरे हृदय में है।” तो, सारी बात बिलकुल स्पष्ट हो जाएगी आपके मस्तिष्क में। आप सब कुछ स्पष्ट रूप से जान जाएंगे। क्या करना होगा? कैसे प्रतिक्रिया करें? कैसे कार्यान्वित करें? यदि आप सहजयोग के इस सम्पूर्ण ज्ञान को अपने हृदय में समा लें तो ….सबसे पहले आपको अपना हृदय विशाल करना पड़ेगा, अन्यथा आप इस महासागर को नहीं रख सकते हैं। और उसके बाद आप देखेंगे कि, “यह सहजयोग है।” 

मेरे लिए सब कुछ सहजयोग प्रतीत होता है- यह घर ख़रीदना, इस स्थान पर आना, यह सब सहजयोग है। मैं स्पष्ट रूप से देख सकती हूँ । जो कुछ भी मैं देखती हूँ, उसे मैं सहजयोग से जोड़ती हूँ, तुरंत। “यह सहजयोग है। यह ऐसा क्यों है? यह सहजयोग के कारण है। यह सहजयोग है।” 

तो हर कहीं आप को सहजयोग दिखना शुरू हो जाता हैं, जब आपका हृदय जानता है, वही जो आपका मस्तिष्क जानता है। मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जो सभी मंत्र भली-भाँति जानते हैं, सब कुछ बहुत भली-भाँति से, और सब कुछ, लेकिन हृदय में नहीं होता। तो, इसे दिल में बसाइए।

सहजयोग में गुरु मस्तिष्क के माध्यम से नहीं, अपितु अपने हृदय के माध्यम से है।

आप सभी को अनंत आशीर्वाद।