Shri Saraswati Puja

कोलकाता (भारत)

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Shri Saraswati Puja 3rd February 1992 Date : Place Kolkata Type Puja Speech Language Hindi

Type: Puja Speech Language: Hindi

आप लोगों के प्रेम की गहराई देख कर दिल जी भर आता है। इस कलियुग में माँ को पहचानना बहुत कठिन है। क्योंकि हम अपनी माँ को ही नहीं पहचानते, तो फिर हमें पहचानना तो और भी कठिन हो जाता है। लेकिन इस योग भूमि की गहराई आप लोगों में काम कर रही है।  इसलिए मैं देखती हूँ कि जो भी यहाँ से सहजयोगी आता है वो बड़ा गहरा बैठता है। बड़ी गहराई में उतरता है और बड़ा आश्चर्य होता है कि जहाँ मैंने बहुत कुछ दिन बिताये, बहुत कार्य किया, वहाँ लोग तो बहुत हैं, लेकिन इतनी गहराई नहीं है। और आपस का मेल भी इतना सुन्दर नहीं है, जैसे यहाँ पर है।   ये भी एक योग इस भूमि की मैं कहती हूँ बड़ी विशेशता है। कि आपसी मेल और आपसी प्यार, बिल्कुल निरवाज्य, निस्वार्थ इस तरह से देखा जाता है। ये सब देख कर के अब आप को पता नहीं मुझे इतना आनंद क्यों आता है। और अब चाहती हूँ कि आप लोगों का कार्य और बड़े, और जन-जन में ये जागृत हो। क्योंकि ये भूमि आप जानते हैं कि माँ को बहुत प्यारी है।

आज आपने कहा था कि सरस्वती का पूजन होगा, ये बहुत नितांत आवशयक है। कि बंग देश में सरस्वती का पूजन हो क्योकि यहाँ देवी की कृपा रही। और देवी के प्यार की वजह से ही आप ये आज सश्य श्यामलाम भूमि आप देख रहे हैं, इतनी हरी भरी है। लेकिन यहाँ की जो दरिद्रता है, यहाँ पर जो लोगों को परेशानियाँ हैं। उसकी वजह ये है कि सरस्वती की वंदना जो भी की गयी वो बहुत ही सिमित स्तर पर करते हैं।  महा सरस्वती में नहीं उठते, सिर्फ सरस्वती की वंदना हुई। जिसमें हम कला को बढ़ाए या हम बहुत विद्वान बने। यहाँ से एक से एक विद्वान लोग हुए हैं, बड़े-बड़े साइंटिस्ट (scientist) हो गए हैं। बहुत कुछ लोगों ने अपने शेक्षर्णिक स्तर में बहुत प्रगति की है। और देशों में जहाँ पे लोग बहुत ज्यादा बुद्धिमान हैं, प्रगल्भ हैं।  ये सब होते हुए भी यहाँ गरीबी क्यों है? उसका हमें, उसका एक सूत्र निकालना चाहिए कि हम लोग यहाँ पर गरीबी में क्यों हैं। और किस वजह से हमारे अंदर ये एक तरह से घृणा पनप गयी  है कि जिसके पास थोड़ा सा पैसा आया उसके प्रति घृणा दिखाने से  या झंडे दिखाने से गरीबी कभी जा नहीं सकती।  उसके लिए समझना चाहिए कि क्या सूत्र हमारे अंदर नहीं है जो हमें पाना चाहिए।

सरस्वती आप जानते हैं कि सहजयोग के हिसाब से महासरस्वती का कार्य राइट साइड (right side) पे है। तो जब वो स्वाधिष्ठान चक्र पे कार्य करती है और जब ये स्वाधिष्ठान चक्र लेफ्ट साइड में जाता है तब ये कलाएं आदि का प्रादुर्भाव होता है।  संगीत के बारे में क्या कहना, और कोई सा भी कला का क्षेत्र है जो कि अभी तक बंगाल में नहीं आया(..अष्पष्ट..) ऐसी बात नहीं है। हर इसमेंयहाँ तक कि फिल्मों में तक, नाटकों में, हर तरह के कला में, नाट्य कला में, संगीत कला में, शिल्प कला में हर कला में बंग देश प्रसिध है। और इनसे बढ़कर कही कलाकार हैं नहीं। छोटी सी भी चीज़ बता दीजिये फौरन उसको करेंगे।  यहाँ पे जो सुवर्ण कार हैं वो भी बड़े महशूर लोग हैं। उसका कारण यह है कि उस सूक्ष्मता तक पहुँचे हुए हैं जैसे एक कला है। वो सूक्ष्म कला क्या होती है कि जो सब दुनिया में मानी जाती है कि एक कला है। वो एक तरह से ऐसी गन्दगी है कि जिससे बहुत ही जयादा दिव्य ऐसा प्रकाश आता है। अब ये दिव्य प्रकाश सृष्टि में दिखाई नहीं देता, क्योंकि ये चैतैन्य स्वरुप होता है। कोई सी भी चीज़ जो बहुत ही सुन्दर बनती है और जिसको दुनिया में लोग बहुत ही जयादा मानते हैं कि ये बहुत सौंदर्य पूर्ण है ऐस्थेटिकली (aesthetically )बहुत फिट है। वो देखते हैं कि उस जगह आप हाथ उसकी ओर करके देखिये तो कि उसमें से परम चैतैन्य आ रहा है। उसमें से चैतैन्य है। अगर कोई रियलाइज़्ड ( realized) सोल हो तो वो अगर कोई भी मूर्ति बनाये या  कोई भी कला का कार्य करता है तो उसमें से आप देखते हैं कि चैतैन्य आता है। तो वजह ये हे कि जो लोग यहाँ रहते हैं ये बड़े भक्तिमय हैं। अंदर से गहरे लोग हैं और यहाँ पर जो भी कला हुई कोई सी भी कला हुई यहाँ की। वो ऐसा नहीं कि विश्व के, दुनियाँ के कोई लोग उसे समझ नहीं सकते या उस को पसंद नहीं करते थे या अपरीसीएट (appreciate) नहीं करते थे ।  ऐसी कोई भी बंगाल की कला नहीं, चाहे यहाँ की वो चित्त्र कला हो यहाँ कि सिनेमा तक, नाट्य तक।  बंगाल का सब एक दम लोग कहते हैं कि एक दम परफेक्शनिस्ट (perfectionist) हैं, बिलकुल पूर्णतया स्वच्छ (..अष्पष्ट..) हैं। जब इतनी हमारे अंदर एक तरफ प्रगति हो गयी तो दूसरे तरफ का स्वाधिष्ठान हम नहीं चला रहे हैं। और वो भी ये स्वाधिष्ठान जो हम इस्तेमाल कर रहे हैं। वो भी हम सोचते हैं कि जैसे कि पढ़ना, लिखना, ये सब चीज़ों में हमने प्रगति करनी चाहिए।  पर इससे आगे की कोई स्थिति है और इस ओर  हमारा  ध्यान नहीं है, और इसी वजह  से आज ये असंतुलन है।  देखने में इतना समृद्ध देश है, इतनी कलाकारी है, सब कुछ है। और तो भी यहाँ परेशानी है और लोग कहते हैं कि सरस्वती का और लक्ष्मी का मेल होता है।  ये बात ठीक है कि सरस्वती और लक्ष्मी की स्थिति में नहीं होता होगा,  पर महासरस्वती में इसका मेल होता है। महासरस्वती में मेल होने का मतलब ये है कि उस जगह आप जहाँ जो सब चीज़ कर रहे हैं।  उसके गहराई  में उतर के आप सोचते हैं कि आखिर क्या बात है कि हम इसका लक्ष्मी से मेल नहीं होता है, महालक्ष्मी का मेल जरूरी है। 

सहजयोग में आज्ञा चक्र पे  दोनों का मेल  होना चाहिए। (..अष्पष्ट..) इसकी अगर आप कार्य शक्ति देखें तो जबरदस्त है। किन्तु उसका परिणाम वो नहीं होता जो हम लोग चाहते हैं । इस पर अगर आप आज्ञा चक्र पे आए तो फिर आप विचार करने लगते हैं कि क्यों हमें आज तक वो स्थिति प्राप्त नहीं हुयी जो कि इतने कलाकारों को मिली है या इतने संपन्न, समृद्ध लोगो को मिली है। और क्यों हम लोग गरीबी में रहते हैं।   इसमें सोचने की बात है ये है कि जब तक हम उस स्थिति में नहीं पहुँचते जहाँ हम सम्यक दृष्टि से दोनों चीज़ों को देखें तब तक हम प्रगति नहीं कर सकते।  कला जो है उसका लक्ष्मी से मेल करने के लिए हमें सम्यक दृष्टि से देखना चाहिए। सो एक जो हमारे अंदर बड़ी कमजोरी है, बंगालियों के लिए कहा जाता है कि जिद्द बहुत है, जिद्दी लोग हैं। कोई चीज़ कला को उन्होंने पसंद कर लिया (..अष्पष्ट..) तो अगर हाथी बनाने लगे तो हाथी ही बनाते चले जायेगे। घोड़ा बनाने लगे तो घोड़ा ही बनाते चले जायेगे। एक तरह का संगीत गाएंगे तो वैसा ही गाएंगे । मतलब कलाकार अब उनको अगर कहिये भी कि आप इसको बदल दीजिये तो मानने को तैयार नहीं, एकदम गुस्सा आ जायेगा उनको।   क्योकि वो सोचते हैं कि उनकी कला का आदर ही नहीं है।  तो अगर आज्ञा चक्र पे आदमी विचार करे तो जिद्द जो है वो आज्ञा चक्र को पार कर जाती है। ये अब जिद्द है हम बंगाली हैं।   (..अष्पष्ट..)  हमारे यहाँ वो हो गए। हमारे यहाँ  बड़े-बड़े आर्टिस्ट (artist) हो गए। सब के नाम से हम अपने को सोचतेहैं कि हम भी वही हो गए, तो वो बात नहीं है, समझ लेना चाहिए कि हम वो नहीं है। अगर उनकी ओर नजर करिये तो उनमें जिद्द बिल्कुल नहीं है। और ये जो जिद्द लेकर के हम बैठे हुए हैं हम ही बड़े महान हैं। क्योंकि हमारे बंग देश में एक से एक लोग हुए हैं।  तो आप उनके स्तर पे पहुँच नहीं सकते। हाँ उनकी जो कुछ भी महिमा है उस छत्र छाया में पनपो।  लेकिन उससे अगर ऊपर उठना है तो इस जिद्द को छोड़ देना चाहिए। कि हम तो ऐसे ही हैं हम तो ये ही करेंगे।  इससे जयादा हम नहीं करने वाले और कोई हम इसमें कोम्प्रोमाईज़ (compromise) नहीं करेंगे। (..अष्पष्ट..)   अब कोम्प्रोमाईज़ की बात आई तो मैं तो नहीं कहती कि कला का विनाश करो। किसी तरह से भी कला का विनाश नहीं करना है। लेकिन कला के बारे में एक सम्यक स्वरुप से विचार करना चाहिए। 

ये इसलिए प्रैक्टिकल (Practical) बात बता रही हूँ। कि एक तो जो हमारे अंदर आलस्य है उस आलस्य से भी जिद्द चढ़ जाती है। जब आदमी आलसी होने लगता है तो वो बड़ा जिद्दी हो जाता है।  फिर वो ये नहीं सोचता कि मैं आलस्य की वजह से ही ये जिद्द कर रहा हूँ। क्योंकि कोई नई चीज़ करने में मुझे श्रम तो करने पड़ेंगे।  अब जहा मेरा हाथ चलता है वो तो आसानी से मैं बैठे-बैठे कर दूंगा।  और माताजी कह रहे हैं कि थोड़ा बेटे इसे बदल डालो, तो ठीक हो जायेगा।  ये तो मैं नहीं कर सकता। इसमें एक तो जिद्द है और जिद्द के पीछे में आलस्य।  कोई सी भी नई चीज़ सीखने के प्रति जरा सी वृत्ति हमारी धीमी है।   और ये धीमी वृत्ति की वजह से हम लोग उस नई चीज़ तो नहीं सीख सकते जिससे कि लक्ष्मी का जरूर हमें मिलाप हो सकता है। (..अष्पष्ट..)   जैसे हमने तो वहाँ मैंने बताया कि बंगालियों से कहो जैसे हमने देखा अनेक लोगों में  तुम ये जो करतूत बनाते हो इसमें इतना ज्यादा मत बनाओ इसकी बस एक लाइन में अच्छे से बना दो वही चीज़ बहुत लोग पसंद करेंगे। ये नहीं कर सकते हम तो बीच में बनाएंगे, उसको तो हम बनाएंगे ही जैसा भी हो। वो जैसा आप कहेंगे वैसा हम नहीं कर सकते हम  इसमें वो चीज़ कर ही नहीं सकते। कोई सजेसन (suggestion) आप दे ही नहीं सकते। जो वो कहेंगे उसी को रखेंगे, उसमे उसके पचीसों चीज़ बना के रख दीजिये आप।   वो कोई बिकेगा नहीं तो कहेंगे क्यों हमारे पास स्टॉक है। नहीं बिका तो नहीं बिका, हमारे पास स्टॉक है। उस पर सूझ-बूझ होनी चाहिए, अब सहज योग में क्या है कि मनुष्य की बुद्धि ही खुल जाती है। उसकी बुद्धि ही खुल जाती है। उस का आज्ञा चक्र खुल जाता है। उसकी जिद्द(..अष्पष्ट..)  कि मैं इसकी जिद्द करूंगा कि यही ठीक है और इसके अलावा कोई चीज़ ठीक ही नहीं है। जो हम करते हैं वो ही ठीक है। उस जिद्द के खुलने से बड़े लाभ हो सकते हैं। जैसे कि हमने देखा बहुत लोगों में अनेक तरह के रोग होते हैं। और उस जिद्द में वो इस तरह से मारा जाता है कि उसके सारे ही जीवन पर ही उसका परिणाम पढता है।  कि हम ऐसे हैं और हम ऐसे ही रहेंगे, नहीं हमें परिवर्तन करना है। और वो परिवर्तन आप सहज से बिल्कुल, बहुत ही सहजता पूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। जब सहजता पूर्वक आपने उसको प्राप्त किया तब आप को आश्चर्य होगा कि सहजता पूर्वक ही लक्ष्मी का  मेल भी आ जाता है।

मैं तो ये आर्टिस्ट लोगों के खास  चीज़ देखती हूँ कि इतने जिद्दी लोग हैं। कि उनसे अगर कह दीजिये कि भई जरा सा इसे अगर बदल दो नहीं हम तो यही करेंगे, ये ही हमें सूट करता है। इसी को हम (..अष्पष्ट..)  फिर चाहे वो सुनने वाले उठ कर चले जाये उस पर कोई हर्जा नहीं और हम तो यही गायेंगे और हम तो ऐसे ही रहेंगे या ऐसे ही बनाएंगे।  तो आज्ञा चक्र को ठीक करने के लिए पहले तो जो हमारे अंदर ये विचित्र तरह का अहंकार आ गया है। कि हम जो करते आये हैं और जो हमने किया है वो ही ठीक है। और जिस तरह आये हैं वो ही ठीक है।  ये ढर्रा जो हमने बना लिया है इस ढर्रे को बदलना चाहिए।  अब इसमें बहुत सारी बातें आ गयी। जैसे कि हमने अगर हम किसी धर्म में समझ लीजिये हम ब्रह्म समाजी हैं।  या हम हिन्दू हैं या मुसलमान हैं, क्रिस्चन हैं, फ़लाने हैं, ढिकाने हैं। आप कुछ हैं ही नहीं आप सिर्फ इंसान हैं। आप पैदा ही इंसान हुए हैं, ये तो आपने अपने ऊपर एक ब्रैंड लगा लिया है मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ।  आप बंगाली भी नहीं हैं और मराठी भी नहीं हैं।  सब कुछ जो हैं सब कुछ आप इंसान हैं। ये ब्रैंड लगाने से और भी प्रॉब्लम होती है कि मैं बंगाली हूँ तो मैं मराठी हूँ, मैं फलाना हूँ, मैं ढिकाना हूँ,  मैं ईसाई हूँ, मैं मुसलमान हूँ, मैं जैन हूँ ये सब ब्रैंड लग गए।  और वो ब्रैंड ही इतने महत्त्वपूर्ण हो गए कि  उसके आगे पीछे में कुछ दिखाई नहीं देता।  वो ही महत्त्वपूर्ण चीज़ हो गयी उससे आगे कोई और चीज़ है ही नहीं। ये और एक आज्ञा की पकढ़ है और ये पकढ़ छूटना बड़ी मुश्किल है। जब तक ये पकढ़ नहीं छूटेगी, आपका अंधापन नहीं जा सकता।  क्योकि आप उसी एक माहौल में देखते हैं हर एक चीज़ को कि ऐसी हो तो ढीक है। ये बात आप लोगों में इस देश में मैंने देखा है परदेश पर में भी बहुत है। परदेश में तो  इससे भी अधिक है क्योंकि वहाँ तो जो कुछ भी उनके दिमाग में भर दीजिये कि ये चीज़  अच्छी है, बस हो गया। वहाँ तो ऐसे बैठे हुए लोग हैं कि वो कह देंगे (…अष्पष्ट) कि ये कला ये ठीक है वो कह देंगे ये ठीक है,बस हो गया। (…अष्पष्ट)  फिर उसकी मान्यता में दूसरे क्रिटिकस (critics) आएंगे वो कहेंगे ये बेकार है वो अच्छी है, तो उसको लेंगें।  माने अपने दिमाग को, अपने स्व को कोई सी भी चीज़ तय नहीं होती है। जो कुछ भी दूसरों ने आपके दिमाग में भर दी वो ही चीज़ है। और ये ही बात है, कि हमारे दिमाग में भर दिया कि हम जो हैं इस ब्रैंड के हैं, उस ब्रैंड के हैं। बचपन से ब्रैंड लगा दी एक के बाद एक के बाद एक। अंत में एक गली के आप हो गए, एक फॅमिली के हो गए। एक माँ बाप के बच्चे हो गए वो भी नहीं रह जाते।  इस तरह से मनुष्य अपने पे ब्रैंड लगाते हैं, उस ब्रैंड से उसमें सबसे बड़ा जो दोष होता है कि वो सोचता है कि मैं बड़ा भारी व्यक्ति अलग से एक व्यष्टि में बैठा हुआ हूँ। एक अलग व्यक्तिगत व्यष्टि में बैठा हुआ हूँ एक इंडीविसुअल होना चाहे मुझे जो ब्रैंड लगा है उससे मुझे इंडीविसुअल बना दिया। और यही जो है ये सत्य का जो तत्त्व है कि हम सब एक हैं, होल (whole) हैं, टोटैलिटी(totality) हैं। संपूर्ण सारे कुछ हम एक हैं इसके विरोध में पढ़ जाते हैं। और जब ये तत्त्व उसके विरोध में पढ़ जाते हैं कि मैं फैलाने, मैं ढिकाने ये देखिये इससे आप अलग-अलग तो हो रहे हैं। जैसे आपने कह दिया कि मैं हिन्दू, तू मुसलमान फिर दो भाग फिर मुसलमान में भी चार भाग।  फिर मुसलमान के भी चार भाग फिर मुसलमान के भी चार भाग में दस भाग। ऐसे करते-करते आप हो गए अलग।  छूटते गए उस एक सम्पूर्णता से जो कि जीवन का एक लक्ष्य है जिसे प्राप्त करना चाहिए।  सो पहली चीज़ ये है कि सारे तरह के वैचित्रय जिसे वैरायटी (variety) बनी है।  ये तो जरूरी भगवान ने बनाई है एक पत्ता दूसरे से नहीं मिलता।  पर सब एक ही पेड़ पर अगर हैं, सब एक ही विराट के अंग प्रत्यंग हैं। और अगर सब हम एक ही व्यक्ति के ही सारे उस समष्टि में ही हमारे जो व्यष्टि जुटी हुई है तो अपने को अलग करने से हम अपनी मृत्यु ही कर लेते हैं। और इस तरह से सरस्वती का जो तत्व महासरस्वती तत्व में बदलना चाहिए, वो नहीं है। महासरस्वती में आदमी के जो विचार हैं, उसके जो दृष्टिकोण हैं वो बदल जाता है। रोजमर्रा के जीवन में भी वो बदल जाता है। कि वो देखने लगता है कि हम अब होल हो गए हैं, अब हम सब एक हैं। तब फिर वो जो कुछ भी बनता है जो कुछ भी करता है। वो ऐसा कुछ सुन्दर बनाता है, या ऐसा कुछ कार्य सुन्दर करता है जो हृदय से ही इंसान उसको मान लेता है।  हृदय से ही उसे ये कहता है कि ये बड़ी सुन्दर चीज़ है। लेकिन तो भी ये जान लेना चाहिए के हमारे जो कुछ भी सरस्वती के कार्य हैं। कि जिसे हम सोचते हैं कि हम सरस्वती पूजा कर रहे हैं वो समर्पित होने चाहिए। अगर वो सरस्वती के कार्य परमात्मा के लिए समर्पित हों तो वो अमर हो जाता है।

अब आप देखेंगे कि जो काव्य संसार में अमर गए हैं वो सारे भगवान पर लिखे हुए हैं।  जो कविताये हैं, जो गाने हैं, अब देखिये आजकल नए गाने चल पड़े हैं।  सिनेमा में नए-नए गाने आते हैं। आते ही ख़तम हो जाते हैं हम लोग तो वही गानों को सुनते हैं, वही चीज़ें दोहराते हैं, जो कबीर ने लिखे थे, ज्ञानेश्वर ने लिखे थे। और विलायत में भी मैं देखती हूँ कि जो विलियम ब्लैक ने लिखा था उसे ही लोग मानते हैं। शेक्सपीर ने जो लिखा था उसे ही लोग मानते हैं, ये सब आत्मसाक्षात्कारी लोग हैं। (…अष्पष्ट) आत्मसाक्षात्कारी लोग हैं ।  उनके जो आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त महासरस्वती की शक्ति थी उस शक्ति से उन्होंने जो भी लिखा था उसका प्रकाश और ही तरीके का है। उस में कोई भी तरीके की ऐसी बात नहीं थी जहाँ आप कह सकते थे कि इंडियन कुछ ऐसे कुसंस्कार मुझे दिखाई देते हैं ऐसे संस्कार थे कि जो विश्व को एक कर देते हैं।

तो जब आप सहजयोग में उतरते हैं तो महासरस्वती के तत्व में उतरना चाहिए। सरस्वती के तत्व से नहीं चलने वाला। (…अष्पष्ट) क्योंकि सरस्वती का  तत्व जो है सिमित कर देता है आपको। जो आपकी कल्पना ऐसी है पर सरस्वती का तत्व जो अगर बीज रूप है तो उसका जो वृक्ष है वो महासरस्वती है। जब तक इस बीज को आप महासरस्वती नहीं बनाएँगे तब तक आपका मिलन हो ही नहीं सकता, महालक्ष्मी से। और महालक्ष्मी का जो वरदान है आपके अंदर वो ये है कि आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें। और दूसरी चीज़ जिसे कि आपने काफी प्राप्त किया हुआ है जिसे कि कह सकते हैं महाकाली का स्वरुप।  इन तीनों का मिलन आपके आज्ञा पे होता है और इस आज्ञा को आपको लांघना चाहिए।  हर तरह का सूक्ष्म में एक तरह का ईगो चढ़ा है।  अपने ओर दृष्टि करें कि आखिर में इस चीज़ को क्यों मानता हूँ?  मेरे बाप दादाओं ने भी इसको माना, उनके बाप दादाओं ने भी इसको माना।  और मैं इसी एक सिमित चीज़ में बैठा हुआ हूँ और सारे संसार को मैं कैसे प्रकाशित करूँ?   मैं तो अभी सबसे कहती हूँ कि देखिये आप अपने ऊपर उन्मुख होइए, अपने ओर देखिये। ऊपर (…अष्पष्ट)।  मुझे तो बहुत से लोग मानते ही हैं (…अष्पष्ट)देवी स्वरुप मानते हैं सब कुछ है। ह्रदय से मानते हैं।  पर इससे मुझे क्या लाभ हुआ?  मैं जो हूँ सो हूँ ही।  इसमें क्या विशेष है? जो हूँ सो हूँ मैंने कुछ किया थोड़ी, आप लोगों की विशेषता है जो आप ऊँचे स्तर पे उतर आये। सरस्वती तत्व से आप महासरस्वती तत्व में उतर आये। तो ये आपकी विशेषता है।  और ये आपने कुछ पाया हुआ है। मैंने तो कुछ पाया भी नहीं और कुछ किया भी नहीं।  मैं सीधी बात आपसे बताती हूँ कि जब मैं देखती हूँ कि आप मुझि पर अभिभूत हैं तो मुझे लगताहै कि ये इसी में कही समाधान न कर लें कि भई हम माँ को बहुत मानते हैं।  आपको अपने को मानना होगा, अपने को मानना होगा और अपने को ऊँचा करना होगा। ये नया जमाना आया है एक, उसी तरह का जैसे मैं कहती हूँ कि जैसे अभी मैंने बम्बई में भी बताया कि बोधि सत्य का है। इसमें जो आप बुद्ध हो गए आपको बोध हो गया, आपको पता हो गया कि क्या है सब। 

अब इस  सत्य के लिए आपको एक दीप जैसे प्रज्वलित कर दिया गया है। अब उस दीप को आपको हजारों दीपों को जलना है ये बोधि सत्य है।  अगर ये कार्य आप नहीं कर सकते हैं तो आपके लिए हमारे लिए तो बेकार ही सारी मेहनत की।  क्योकि हम जो हैं सो हमको प्यार करने से क्या विशेषता है?  अच्छा लगता होगा हम माँ को प्यार करते हैं हमें भी अच्छा लगता है ठीक है। किन्तु मैं(…अष्पष्ट) माँ को प्यार मेरा एकदम जी भर आएगा।   बोलना चाहती थी तो बोल ही नहीं पायी।  लेकिन इससे आगे जो स्थिति है वो ये है कि प्रसन्नता  से भी आगे एक चीज़ होती है कि जिसे हम कहते हैं कि बिलकुल निरानंद।  और वो निरानंद तभी होगा आपकी माँ को जब वो देखेंगी कि मेरे बच्चों ने मुझसे भी ज्यादा काम, मुझसे भी ज्यादा उनको शक्ति मिल जाये। माँ को तो यही चाहती है कि बच्चे हमसे भी ज्यादा शक्तिशाली हो जायें।  पर ये ऐसे छोटी-छोटी चीज़ों में जो अटके हुए हम ये लोग हैं उसको छोड़ना चाहिए। और ये बहुत जरूरी है ऐसा नहीं है महाराष्ट्रियन से तो बहुत जयादा है। और भी लोगों में ये मैं देखती हूँ कि इसी प्रकार के छोटी-छोटी चीज़ों में उन चीज़ों मैं हम लोग अटके हुए हैं।  इनको तो मैं कुसंस्कारी कहती हूँ, अच्छे संस्कार होते हैं जिस आदमी के वो एक दम दिल खोल देते हैं और फूल की तरह महकने लग जाते हैं।  अब दूसरी बात जो है महासरस्वती की ये है कि कार्यान्वित होना चाहिए।  महासरस्वती के कार्य में आप कार्यान्वित हों।  महाकाली तत्व में आप अब्सॉर्ब करते हैं, लेते हैं, उसको अपनाते हैं।  लेकिन महासरस्वती में आप जो हैं कार्यान्वित करते हैं। महाकाली में आप इच्छा करते हैं उसपे सृजन भी कर सकते हैं।  इच्छा करने के लिए ये होना चाहिए मैं ये चाहता हूँ, मैं वो चाहता हूँ, मुझे ये पसंद है, मुझे वो पसंद है।  किन्तु उसको कार्यान्वित करने का कार्य जो है वो महासरस्वती कार्य करती है। आप कहेंगे कि माँ मैं चाहता हूँ कि सहजयोग चारों ओर फैल जाये, बहुत अच्छी बात है। चाहत बहुत ऊंची है आपकी, लेकिन इस मामले में आपने क्या किया?  उस मामले में आपने कौन से कार्य किये, आप अपने  ही बारे में तो सोच रहे हो। कि भाई ऐसे होने चाहिए, वैसे होने चाहिए और अपने बारे वही प्रश्न कि मेरा  बाप ऐसा, मेरा भाई वैसा, उसके तो भाई ठीक नहीं। फिर उसका फलाना नहीं ठीक हुआ, ढिकाना नहीं ठीक हुआ।  तो आपने कौन से ऐसे कार्य किये हैं जिससे महासरस्वती का तत्व आप के अंदर में पूरी तरह से प्रष्फुटित हों।  ये आपको अपने को सोचना चाहिए, हमने कितने लोगों को जाग्रति दी।   हमने कितने लोगों को सहज योग के बारे में बताया।  मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि जब उन्होंने बताया कि यहाँ के जो बहुत से युवा शक्ति के लोग हैं उन्होंने बड़े पोस्टर्स लगाए, रात-रात भर मेहनत की।  सुन के बहुत और अभी एक साहब आये थे, बड़े भारी जर्नलिस्ट।  वो कहने लगे साहब मुझे तो इसका बड़ा प्रभाव पड़ा मेरे ऊपर कि मैंने देखा कि बहुत से जवान लड़के ट्रैन में रात को डेढ़ बजे मेरे साथ सफर कर रहे थे। और हर स्टेशन पर कुछ लोग उतर जाते थे और फिर अगले स्टेशन पर कुछ लोग उतर जाते थे और बड़े शांत।   मैंने कहा तुम लोग कर क्या रहे हो, कहने लगे हम माँ के पोस्टर्स लगा रहे हैं।  कहने लगे मैंने ऐसे लड़के देखे ही नहीं आज तक।    इतने अच्छे जवान पड़े लिखे लड़के, इतने शांति पूर्वक कार्य कर रहे थे।   और उनके साथ कुछ लड़कियां भी थी, बड़े ही पवित्र भाव से सब बैठे हुए थे। तो मैंने फिर पूछा सहजयोग के बारे में, और मैं तो बहुत ही उनसे प्रभावित हुआ।  तो कार्यान्वित होना चाहिए सहजयोग में।  इसका मतलब है कि जो हमारी इच्छाएँ हैं उसके लिए हमें कार्य करना चाहिए।  जो हम सोचते हैं उसको हम अपने कार्यक्रम में जोड़ लें।  कि ये हमें कर के दिखाना है नहीं तो सिर्फ हवाई बात रहेगी। हवा में ही सब चीज़ रहेगी कि मैं ही ये करना चाहता था, मैं वो करना चाहता था।  ऐसा करना चाहता था, चाहत ख़तम हो जाएगी, जब आप कार्य में पड़ेंगे।  तब आप जानेंगे कि वही चाहना चाहिए जो हो सकता है।   और जो नहीं हो सकता है उसकी चाहत करने से (…अष्पष्ट) और वही बात है कि हमारे यहाँ आजकल आप देखते हैं कि हमारे यहाँ बहुत ज्यादा बेकारी है। अब यहाँ रहीस लोग भी बहुत हैं और गरीब भी।  

अब रहीस लोगो के प्रोब्लेम्स जब मैं सुनती हूँ तो मुझे लगता है कि इनका भी वही प्रॉब्लम है जो गरीबों का है। कि वो कहते हैं कि देखिये माँ यहाँ पर बड़ा लेबर प्रॉब्लम है। और इसीलिए हमारी फंक्ट्रियां बन्द पड़ी हैं। अब रहीसों को ये सोचना चाइये कि ये लेबर जो है तुम्हारा अंग-प्रत्यंग है। लेबर के बगैर आप कर तो नहीं सकते कुछ।  आप तो हाथ भी नहीं चालाना चाहते, बस कुर्सी पर बैठे रहते हैं। मोटर से जायेंगे और कुर्सी पर बैठे रहेंगे। आपने लेबर के लिए किया क्या?  सिर्फ पैसे से नहीं होता। उन लोगों ने भी झंडा उठाया फिर आपने पैसा दे दिया। फिर वो झंडा उठाते हैं फिर आप पैसा देते हैं। उसका कोई अंत नहीं है। उनके समाधान के प्रति आप कार्यरत हुए क्या?   पहले पता लगाइये (…अष्पष्ट) जैसे अभी बम्बई में था एक साब ने आके कहा,  मैंने कहा अगर तुम मराठियों से काम लेना है तो पहले गढ़पति का मंदिर बनाओ।  दिवाली में सबके घर में जाकर के उनको कुछ दो(…अष्पष्ट) ।  पहले उनकी संस्कृति सीखो। अब यहाँ पर बड़े-बड़े इंडस्ट्रिलिस्ट होंगे उनको नहीं  मालूम कि इनकी संस्कृति क्या है? इनकी संस्कृति में लोग किस चीज़ को मानते हैं। और किस चीज़ को समझना चाहिए। तो अगर यहाँ के रहीस लोग हैं, वो लोग बढ़ी-बढ़ी फैक्ट्रीज चलाते हैं वो अगर बंगालियों की मनस्थिति को समझें।  मैं तो एक मिनट में पहचान गई थी और इतने ह्रदय वाले लोग हैं कि आप इनके साथ चाय पी लीजिये तो आप इनके जन्म-जन्म के दोश्त हो जायेंगे।  पर अगर आप अकड़ दिखाइयेगा तो आप बड़े दुश्मन हैं। ये बंगालियों की खूबी है। आप क्यों अकड़  दिखाते हैं?  उनके साथ रहिये उनसे बोलिये, उनसे प्रश्न पूछिए,  उनको जानिए। इसको मैं  एनलाईटेण्ड  इंट्राप्रन्यूअर  कहती हूँ, अब आप एनलाईटेण्ड हो गए।  अब आप सहजयोग में आ गए। अब आप लोगों को चाहिए कि इनके घरों में जाके देखिये कि इनको क्या प्रश्न हैं?  इनको क्या आप जरा सी मदद कर दीजिए और वो आपके लिए जिंदगी भर के लिए ऋणी हों जाएंगे। क्योंकि मैंने अपने स्वयं में अनुभव देखा कि हमारे पति जो आर्गेनाइजेशन चला रहे थे, उसमें बड़े पहले प्रश्न थे। मैंने उनसे कहा कि इसकी पहले एक फैमिली बनाओ। और पहले उनकी स्टडी करो और कोई भी आये कलकत्ते से भी यूनियन वाले आते थे तो घर में उनको ब्रेकफास्ट खिलाते थे। उनसे बात करना, उनसे पूछना भाई तुम्हें क्या प्रश्न हैं क्या है?  घर में प्रश्न फिर ये सॉल्व हो सकते हैं आप अपने दफ्तर की तरफ से कुछ ऐसा इंतजाम कर दीजिये कि घर मिल जाये ये हो जाये।  फिर उनके आप बच्चों के पड़ने का इंतजाम कर दीजिये। जरूरी नहीं कि (…अष्पष्ट) क्योकि इन लोनों को पैसा मिल जाये तो सीधे चले जायेंगे शराब के बूथ में, या दो चार औरतें रखेंगे।  उससे कोई फायदा होने वाला नहीं। पर उनकी अगर आप वाकई गहराई से उनकी मदद करें और उनके ह्रदय को समझें और सोचें कि ये हमारा अंग-प्रत्यंग हैं आपकी उसमें कोई (…अष्पष्ट) उसमें कोई झूट बात नहीं होना चाहिए।  पर ह्रदय से आप ही सारा कार्य करें और उनकों ह्रदय को जीत लीजिये और सारे आपके प्रश्न जो हैं छूट जायेंगे। ये देश इतना सुजलाम सुखलाम है कि यहाँ तो वर्षा होनी चाहिए लक्ष्मी की।  लेकिन यही बड़ा भारी प्रश्न है कि यहाँ के लोग महासरस्वती पर नहीं उतरते सिर्फ सरस्वती तक ही  सिमित  हैं।   महासरस्वती का तत्त्व जब आपने अपना लिया तो आप इस मामले में कार्यरत रहें।  इसके लिए जरूरी नहीं कि कोई आप चार सॉ बीसी करिये, ढोंग करिये, कुछ करिये।  अपने आप सब चीज़ें ढीक हो जाएँगी क्योकि ऐसे भी आप सहज योगी हैं। सहजयोगियों के सारे कार्य ऐसे ही सरल सहज हो जाते हैं। पर  सहज योग के जो नियम हैं उसको जरूरी अपनाना पढता है।  और उसमें से यही है कि अपनी शूद्रता या अपनी जो एक (…अष्पष्ट) उसको छोड़ कर के और फैलना और सब ओर उसका प्रसार करना। जब तक आप अंदर से उठेंगे नहीं आप बाह्य में जितना फैलना चाहें फैल लीजिये।  

इसीलिए सहज योग में ध्यान धारणा बहुत जरूरी चीज़ है। ध्यान करना चाहिए, सबेरे पांच बजे आप उठिये ऐसा मैं नहीं कहती। पर सबेरे पांच मिनट आप ध्यान करिये शाम को आप दस मिनट ध्यान करिये। उसमे ये नहीं कि एक दिन आप चूक गए तो कोई बढ़ी गलती हो गई। पर इससे सफाई होती रहेगी और आपको अनेक आशीर्वाद उसमें से मैं ये कहती हूँ कि  आपका पूरी समय रक्षण होता है। पूरी समय आपका रक्षण होता है। आपको पूरी समय मार्ग दर्शन होता है। और आपको पूरी समय मनोरंजन होता है। कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसमें मनोरंजन नहीं होता है। कल मैं देख रही थी कि सब सहजयोगी बैठे थे आपस में उनकी ठीठोलियाँ चल रही थी। आपस में  जिसको कहते हैं लेग पुलिंग (leg pulling) चल रही थी, आपस में हस रहे थे, खेल रहे थे। मेरी तबियत खुश हो रही थी देख कर के। कुछ उसमें किसी को दुःख देने की बात नहीं थी।  और सब विनोद हास्य में, आनंद में, पूरी तरह से मनोरंजन में(…अष्पष्ट)    तो जिसमें मनोरंजन हो और जिसमें आपकी प्रगति हो, आध्यत्मिक प्रगति हो, जिससे सारे समाज का, देश का और विश्व का कल्याण हो, ऐसा ये महान कार्य सहजयोग का है। तो इसमें आपको कार्यरत होना चाहिए।  

ऐसे तो कहने को सहजयोग फिफ्टी फाइव (55) कन्ट्रीज (countries) में है।  पर अभी भी जो तत्त्व है वो महासरस्वती के तत्त्व पर नहीं है। सब लोग जो हैं अधिकतर वो अब भी सोचते हैं कि माँ को प्यार करो, माँ की सेवा करो, हो गया।  माँ की पूजा में लगे रहो हो गया।   ये तो ठीक है  पर उससे थोड़ा बहुत तो लाभ होता ही है उसमें शंका नहीं है, लेकिन उससे असली लाभ नहीं होने वाला है।  उसमें आपके अंदर आपकी कितनी (…अष्पष्ट)   वो देखना चाहिए। अब गहराई बहुत है, समझ लीजिये आप बहुत गहरे भी हो गए।  तो मान गए, ये भी मान गए कि जाओ हो गयी गहराई।  तो गहराई का फायदा क्या जिसमें ऐसे ऐसे गहरे घड़े का क्या फायदा, जिसमें कोई पानी नहीं भरा हो, वो बेकार ही है।   चाहे गहराई हो चाहे नहीं हो, उसका फायदा क्या?  कोई फायदा नहीं, तो जिस चीज़ के लिए आपने गहराई बनाई है उस गहराई का फायदा अगर उठाना है तो उसमें कार्यरत होना  है।  नहीं तो अपने गहराई के ये जो सर्टिफिकेट्स (certificates) हैं, इससे क्या फायदा होने वाला है? इससे ये तो हो सकता है कि ठीक है अध्यात्म में लोग आपको लोग बड़ा साधु बाबा मानेंगे।   हाँ भाई आप बड़े आदमी हैं, आपसे बहुत चैतन्य की लहरियाँ बहती हैं।  जैसे हम बैठे हैं लेकिन हम तो कुछ करते नहीं निष्क्रिय हैं, बेकार है। आपको तो कुछ करना चाहिए अगर हम निष्क्रिय हैं तो क्या फायदा ऐसे जीवन का जो  सिर्फ निष्क्रिय बना दे। तो इसलिए कोई न कोई कार्य में लगना चाहिए।  अब सोचना चाहिए आज्ञा चक्र पे कि अच्छा माँ ने कहा था तो कौन सी चीज़ हमें करनी चाहिए। अगर आप निर्विचार में जाएं तो आपको अंदर से ही प्रेरणा आएगी कि भाई ये तुम कर सकते हो।  ये करो, ये हो सकता है इसको करो।   इसी तरह से सहजयोग फैलने वाला है। तो यहाँ जो बहुत गहरे लोग हैं और मुझे इसको देखके बहुत आनंद भी हुआ।  कि सब बड़े गहरे लोग हैं पर इस गहरेपन को अब हमें बाटना है। ये तो फायदा नहीं कि कुछ लोग तो हो जाएं जैसे रबिन्द्र बाबू जैसे।  तो बाकी के सब लोग वहीं रह जायेंगे जैसे कि एक तालाब में कुछ कमल के फूल आ गए। और उसमें कुछ कीड़े भी हो गए क्योंकि देखो हमारे तालाब में इतने फूल आए हैं। (…अष्पष्ट)    तो अगर आप लोग हो भी गए इतने फूल आ भी गए तो कमल हो भी गए तो भी दूसरों को इसका क्या फायदा होगा। ये जो  हमारे महासरस्वती का तत्व जो आज तक हम लोगों ने इतना ध्यान नहीं दिया था।  

इसलिए मैंने अब शुरू किया है कि महासरस्वती का भी पूजन होना चाहिए।  महासरस्वती तत्व में अपने देश में वेदों की रचना (…अष्पष्ट) उसमें भी कहा गया है कि अगर आपको विद नहीं हुआ तो वेद(…अष्पष्ट) वेदों की रचना हुई और उन्होंने कहा कि ये जो पांच महाभूत हैं इस पर ये कार्य करना चाहिए ।  देखना चाहिए (…अष्पष्ट) उनको जागृत करना चाहिए और उनकी जाग्रुति के बाद पहली बार फिर हम उसको इस्तेमाल कर सकें। उसी वजह से साइंस वगैरा अपने देश में आये थे अपने देश में बहुत पहले साइंटिफिक रिसर्च हुआ था। और सब जिसे हम साइंस कहते हैं (…अष्पष्ट)    और इससे कही अधिक अपने देश में साइंस था।  इन वेदों की वजह से इन्होंने ये  इतना भी(…अष्पष्ट) प्रभुत्व पा लिया और आप भी पा सकते हैं।   सहजयोग से आप उस पर भी प्रभुत्व पा सकते हैं।  पर आप हाथ तो हिलाये, आप उधर ध्यान तो दें।  नहीं तो माँ ये कि आप देखिये, हमारी माँ बीमार है।  अरे भाई तो तुम सहजयोगी हो, तुम इसको ठीक कर सकते हो।  हाथ तो लगाओ पहले देखो तो सही तुम ठीक कर सकते हो कि नही।  अगर तुम ठीक नही कर सकते तो मेरे पास ले आओ।  ऐसी बात नहीं, सब चीज़ माँ करेगी, कोई अगर बीमार हो गया तो  माँ करेगी।  कुछ तकलीफ हो गई तो माँ को फ़ोन कर लो।  आप देख लीजिये आप स्वयं उसको ठीक कर सकते हैं।  आप उस पर हाथ रखिये और सिख लें, कार्यरत रहें आप स्वयं शक्तिशाली हैं।  आप में अनंत शक्तियाँ हैं। आप इन शक्तियों को इस्तेमाल करें, जो आपको दी गयी हैं। उसको आप अपने हाथों से लोगों को बाटें। तो आपको आश्चर्य होगा कि आपके पास कितनी शक्तियाँ स्वयं आपकी ही शक्तियाँ पूरी तरह से प्रस्फुटित हो सकती हैं।  यही मैं बार-बार सबसे कहती हूँ कि आप लोग कुछ करो।  जो देखो सो मेरे ही ऊपर में डाल देंगे, इससे कोई फायदा नहीं है।  अच्छा मैं तो ठीक कर दूंगी लेकिन तुम मुझसे अच्छा कर सकते हो, तो क्यूँ नहीं करते।  (…अष्पष्ट) एक दूसरे की भी मदद करना चाहिए। सहजयोगियों  में एक अगर बीमार बीमार है और अगर अगर ठीक है, तो उसको जा करके  उनकी मदद करनी चाहिए फौरन दौड़ कर जाइये, देखिये आप कार्यान्वित होते हैं कि नहीं। अगर नहीं हुए तो  फिर मुझे दे दें।   पर मैं आप से कहती हूँ कि बिलकुल हर वक्त आप के पास ये शक्ति है और उसका जितना आप उपयोग करेंगे और उतनी ही वो बहेगी, उतनी ही वो कार्यान्वित होगी। और उतनी ही वो कार्यरत होगी और उतने ही आप यशश्वी होंगे। लेकिन आप अपने ऊपर विश्वाश रखें कि हमें माँ ने कहा है वाकई में ही हमारे अंदर ये चीज़ है,  हमें बढ़ाना चाहिए। 

आप सब के लिए कहना है कि गहराई तो बढ़ी चीज़ है। (…अष्पष्ट) लेकिन अभी देने का जो है कुछ काम कम है। तो आप लोग क्योंकि बहुत गहरे हैं जो कि मैं मानती हूँ।  बंग देश के सहजयोगी बहुत गहरे हैं तो अब आपको देना शुरू करना है। लोगों को बांटना शुरू करना है। और समझाना शुरू करना है।   और सहजयोग में और लोगों को लाना है।  आप बीमारियाँ ठीक कर सकते हैं और लोगों को संतुलन में ला सकते हैं।  जब आप कार्यरत होंगे तब महासरस्वती का तत्व जागृत होगा तो एकदम आप आश्चर्य चकित होंगे कि ये देश कहाँ से कहाँ पहुँच  गया।  पर वहीं हम लोग सारे हिंदुस्तान में बीमारी निठल्लूपना की है। कोई यहीं है ऐसी बात नहीं है कि सभी लोग अलसी हैं। और उसके  अलसीपना के बहुत से बहाने भी हैं कि क्यों नहीं हम करते।  इस वजह से नहीं करते, उस वजह से नहीं करते, सहजयोग में भी लोग बड़े बहाने बनाते हैं।  अब अगर बहाने बगैर बनाये आप कार्यरत हों।  जैसे कोई कहेगा कि भई माँ हम गए थे तो वहाँ चादर ही नहीं साफ़ थी तो आप साफ़ कर लो। कोई न कोई बहाने लगाना कि ऐसा था तो इसलिए नहीं हुआ।  या फिर दूसरी बात कि हमें तो बहुत डर लगता है समाज का।  या हमारे भाई से हमें डर लगता है।  ऐसे डरपोक लोगों से तो सहजयोग हो नहीं सकता।  और उनका भी भला नहीं हो सकता। 

सहजयोग डरपोक लोगों के लिए नहीं है, वीरों  के लिए है।  और इसमें हाथ डालना चाहिए।  …(…अष्पष्ट).. सबको चैलेंज देना चाहिए कि आएये सामने देखिये, तब ये चीज़ होगी।   क्योंकि आज आप देख रहे हैं कि कितनी ज्यादा काली विद्या इस बंगाल में फैली हुई है। मैं आई बाप रे यहाँ की काली विद्या कितनी है। कल से इसको रोज इसकी सफाई कर रही हूँ सफाई कर रही हूँ जिसको देखो वो इसको  कहते हैं मैं दिखित हूँ, वो दिखित है,ये दिखित है। जब सब दुखित ही हैं दिखित हैं। जो देखो उसे मेरा पैर टूट गया, मैं दिखित हूँ।  मेरे सर में दर्द मैं दिखित हूँ।  ये जो काली विद्या है इससे भी गरीबी आती है। इस काली विद्या से छुटकारा पाना चाहिए। है।  और इसके लिए आप लोगों को कुछ विशेष  …(…अष्पष्ट)..  ।  अगर आप भी मैं  इधर का हूँ मैं उधर का हूँ।   मैं इस गुरु का शिष्य हूँ मैं उस गुरु का शिष्य हूँ।  मेरे ये गुरु हैं। सबका एक गुरु का फोटो रखे हुए हैं। और ये सब आपको कोई अच्छा अनुभव नहीं आएगा।  उसको अपने देखा नहीं, सुना नहीं, जाना नहीं।  ऐसे लोगों के पीछे भागने से फायदा क्या?  जो आपके सामने हैं उसे लें और उसमें कार्यरत हों।

तो हमरी जो आज की पूजा है ये मेरे विचार से सारे हिंदुस्तान के लिए आज होनी चाहिए।  कि मुझे लगता है कि सारे हिंदुस्तान में ये बीमारी है। कि हम कार्यरत  रहें।बिलकुल कार्यरत नहीं हैं। हम लोग जो हैं वो इच्छा बहुत जबरदस्त है हमारी।  बहुत इच्छा हमको है। कि जैसे पॉलिटिशन जैसे ये करूंगा वो करूंगा।  पर जैसे ही सीट पर बैठ  गए तो वो  भूल ही जाते हैं उनको कोई इच्छा ही नहीं रह जाती, सिवाय पैसा कमाना।  इसी प्रकार सहजयोग में नहीं होना चाहिए।  सहजयोग में हमें कार्यरत होना है।  और कार्यरत के लिए क्या-क्या करना है? इस पर विचार करना चाहिए, इसके लिए आप लोग मिलें आपस में बातचीत करें। हमें क्या करना है?  हम क्या चीज़ कर सकते हैं?  किस चीज़ से हम इसको बढ़ावा दे सकते हैं। कोई चीज़ सहजयोग में ऐसी नहीं…(…अष्पष्ट).. ये जमीन दे दी एक्सपेरिमेंट्स के लिए।(…अष्पष्ट) ये जमीन दे दी उसके लिए वो सड़ रही है।  जब तक मैं नहीं हिंदुस्तान में आऊँगी तब तक एक छोटा सा रास्ता भी नहीं बन सकता।  एक छोटी सी झोपड़ी तक भी नहीं बन सकती। मेरी समझ में नहीं आता कि इतने लोग होते हुए भी  कार्य कुछ होता ही नहीं। और जब मैं चली जाती हूँ फिर उसके बाद आप लोग विघटित हो जाते हैं, अलग-अलग हो जाते हैं। (…अष्पष्ट) दो ही चार लोग काम करते हैं ।  

सहजयोग संघटित कार्य है, सिर्फ दो ही चार लोगों का कार्य नहीं है।  कि  एक दो आदमी ही उसे करें। ये भी समझना जरूरी है कि एक आदमी सब कर रहा  है एक ही आदमी सब दौड़ रहा  है ऐसा नहीं होना चाहिए। सबको संघटित होना है एक शरीर के जैसे  अनेक अंग होते हैं।   उसी प्रकार आप में अनेक सहजयोगी एक सहजयोग का अंग हैं।  और जो इस शरीर का अंग है वो अगर समझ लीजिये इतनी अगर ऊँगली गड़बड़ हो जाये तो सारे शरीर में पीड़ा तो होगी ही।  किन्तु इस ऊँगली का कार्य ही समाप्त हो जाने से अब दूसरी कहाँ से ऊँगली लाएंगे।   तो जब आप सहजयोग में आए वैसे तो सब सहज है  इसमें कोई  शक नहीं।   पर जो सबसे सहज चीज़ है वो मनुष्य से छूटती नहीं है। और वो है यही संकीर्ण और यही अज्ञान कि हम कोई तो भी विशेष हैं।  और हमें कोई  (…अष्पष्ट) तो आप लोगों के लिए मेरा यही बड़ा भारी समझ लीजिये कि प्यार का कहना है कि आप लोग इस प्रकार सहजयोग में उतरे हैं, गहराई में उतरे हैं, इतना  पाया  है।  अब वो देना चाहिए, जब तक दीप में प्रकाश नहीं होता है तो हम उसमें प्रकाश देते हैं और कहते हैं कि चलो अब लाइट आ गई फिर उसके बाद भी अगर वो प्रकाश मांगे तो उसे क्या कहना चाहिए। फिर तो उसको  चाहिए कि वो दूसरों को प्रकाश दे।  आज आप मेरी बात सुन रहे हैं, कल आप मेरी जगह में बैठ कर के मेरा कार्य कर सकते हैं। यही होगा तभी सहजयोग फैल सकता  है।  और जिस-जिस देश में ये हुआ है वहीं सहजयोग फैल रहा है। ऐसे बहुत से लोग ऐसे निकले हैं आज की पूजा के बाद और ये कार्य करें। यही मैं आपको अनन्त आशीर्वाद देती हूँ।