Birthday Puja

New Delhi (भारत)

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जन्म दिवस पूजा दिल्ली मार्च 20, 1995

अपने ही जन्मदिन में क्या कहा जाए? जो उम्मीद नहीं थी वो आप इतने लोग सहजयोग में आज दिल्ली में बैठे हुए हैं, इससे बढ़कर एक माँ के लिए घटित हो गया है। और कौन सा जन्म दिन हो सकता है? आप लोगों ने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है, ये भी आप का जन्मदिन है। एक महान कार्य के लिए आप लोग तैयार हुए हैं। और ये महान कार्य आज तक कभी हुआ नहीं। उसके आप संचालक हैं । इससे बढ़कर और मेरे लिए क्या सुख का साधन हो सकता है? कभी सोचा भी नहीं था कि अपने जीवन में ही इतने आत्मसाक्षात्कारी जीवों के दर्शन होंगे और इतना अगम्य आनन्द उठाने को मिलेगा। एक वातावरण की विशेषता कहें जिसमें कि आज आप देख रहे हैं कि मनुष्य एक भ्रांति में घूम रहा है। एक तरफ विदेश की ओर नज़र करने पर ये समझ में आता है कि ये लोग एकदम ही भटक गए हैं। वहाँ पर नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रहा। अनीति के ही रास्ते पर चलना, अग्रसर होना वो बड़ी बहादुरी की चीज़ समझते हैं और सीधे नरक की ओर उनकी गति है। इस गतिमान प्रवृत्ति को रोकना बहुत ही कठिन काम है, लेकिन वहाँ भी ऐसे अनेक हीरे थे जिन्होनें सोचा कि बाहर आएँ। 6. दूसरी तरफ हम जब देखते हैं तो बुरी तरह से कठिन परिस्थितियाँ बनाई गई हैं, मनुष्य के लिए कि आप अपने जीवन को एक कठिन बंधन में बाँध लें कि हम धार्मिक हैं। और अगर आप धर्म नहीं करेगें तो आपके हाथ काट देंगे, आपकी आखँ निकाल देंगे, आपको जमीन में गाड़ देंगे । ये अतिशयता हो गई और इसके साथ-साथ दूसरी तरफ जैसे मैंने बताया कि बहकाव की भी अतिशयता है। दोनों तरफ अतिशयता है। आपको समाधान करना चाहिए कि आप इस भारतवर्ष में पैदा हुए, इसकी संस्कृति जो है वो संतुलित है। हमें इतना बताया नहीं गया है, धर्म के बारे में। किसी ने खास चर्चा

भी नहीं करी। लेकिन अधिकतर हिन्दुस्तानी अधर्म में नहीं उतरते। ये दूसरी बात है उसके पास अगर पैसा आ जाए, बहुत उसका दिमाग खराब हो जाए या वो राजकारण में चला जाए या और कोई इसी तरह की चीज़ को प्राप्त कर ले तो हो सकता है कि उसको ये बहकाव मिल जाए। पर उसमें भी खुले आम कोई गलत काम करने की हिम्मत नहीं क्योंकि समाज इतना जबरदस्त है कि उसे खींच लेगा । इसलिए जो बात मैं आज आपको बताने वाली हूँ वो ये है कि एक अपने देश की जो संस्कृति इतनी ऊंची, अब भी मानी जाती है और अब भी अपने यहां लोग नैतिकता का स्तर मानते हैं। ऐसे देश में विचार करना चाहिए कि यहां किसने इतना कार्य किया। ये कार्य स्त्रियों ने किया। भारतीय स्त्री की शक्ति, और इस शक्ति के सहारे उसने अपने बाल-बच्चे, अड़ोस-पड़ोस और सारे समाज की भी धर्म पर स्थापना की। हालांकि अब विदेशी संस्कृति का असर आ रहा है और उससे हो सकता है हम लोग भी थोड़े प्लावित बहुत हो सकते हैं। पर अतिशयता में जाना बड़ी कठिन बात है क्योंकि हम लोग जकड़े हुए हैं अपने देश की परम्पराओं में । अपना देश इतना सौभाग्यशाली है कि यहां पर एक से एक महात्मा हो गए, इतने सन्त हो गए, इतने यहाँ पर अवतरण हुए, हिन्दु धर्म में ही नहीं, मुसलमानों में भी और आप जानते हैं सिखों में, बड़े-बड़े धर्मात्मा, इस देश में आए। इस देश की जो विशेषता है कि इस भूमि में ही जैसे कोई आध्यात्म फसा हुआ है। न जाने कैसे लोग आध्यात्म की ओर चलते हैं और मानते हैं। सहजयोग की प्रणाली में हम लोग संतुलन में खड़े हैं। मतलब भारतीय संस्कृति में जो गंदगियां हैं, उसको तो निकाल ही देना पड़ेगा और निकल जाती हैं । सहजयोग में आने के बाद बहुत से लोग इस चीज़ को छोड़ देते हैं। लेकिन अब भी मैं देखती हूं कि कुछ न कुछ चीजों से बंधे हुए सहजयोगी हैं और इसका कारण है कि इतने दिनों से जो चीज़ चली आई है और मान्यता रही, उसके प्रति एकदम उदासीन हो जाना उन्हें कठिन लगता है। विशेषकर, अब हम उत्तर हिन्दुस्तान में बैठे हुए हैं। मैं देखती हूं कि उत्तर हिन्दुस्तान में या तो मुसलमानों के परिणामस्वरूप हो, चाहे जैसा भी हो, औरतों की दशा बहुत खराब है। औरतों को बहुत छला जाता है, सताया जाता है। शाक्तिस्वरूप औरत का कोई मान नहीं है। कहा जाता है, ‘यत्र नार्याः पूज्यंते, तत्र रमन्ते देवता ।

जहां स्त्री पूजनीय हो और उसकी पूजा की जाए वहीं देवता रमण करते हैं । इसका ये मतलब नहीं कि औरतों का भी राज हो या वो भी किसी तरह से आततायी हों। लेकिन इसका मतलब यह है कि स्त्री पहले पूजनीय होनी चाहिए, उसके अन्दर पूजनीय गुण होने चाहिए। वो अगर पति का अपमान करती है, घर में झगड़ा करती है, परेशान करती है और अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देती और भी गलत-सलत काम करती हो तो वो स्त्री तो पूजनीय हो नहीं सकती ओर वही स्त्री पूजनीय होती है जो अत्यन्त प्रेममयी हो। जिस औरत में प्रेम का सागर बसा हो, उसी को लोग पूजते हैं, और जो नहीं है उसके सामने चाहे न कहें कुछ, लेकिन पीठ पीछे उसकी बुराई करते हैं । हमारे यहां स्त्री को शक्ति माना जाता है, पर शक्ति जैसे ये आप इतने यहां पर बिजली का प्रदर्शन देख रहे हैं, ये स्वयं शक्ति नहीं, शक्ति तो कहीं ओर से आ रही है और यहां इसका प्रदर्शन मात्र है। तो इसी तरह स्त्री एक शाक्ति स्वरूप होती है, पर उसका प्रादुर्भाव उसका manifestation जो है वो बाह्य में के रूप में होता है। उसके बच्चे, उसके रिश्तेदारी के लोग, उसके पति, उसके उसके बाप ये सब पुरुष उस स्त्री की शक्ति से प्लावित होते हैं और उस प्रेम की शक्ति से प्लावित होने के बाद उनमें भी एक तरह का, बड़ा अनूठा सा संतुलन बन जाता है। पर जहां पर ये स्थिति नहीं होती, जहां पर घर की माँ और घर की स्त्री और रिश्तेदार, इन औरतों में वो प्रेम का प्रदर्शन नहीं होता है, उल्टे क्रोध, मतसर आदि षडरिपुओं से वो अगर भरी रहती हैं तो ऐसे घरों में कभी भी प्रेम या आनन्द आ ही नहीं सकता। ये स्त्री का ही एक बडा भारी कार्य है। उसमें हम दबे जा रहे हैं । ये क्या जो शक्ति आज कहां से आ रही है वो अपने को सोचती है क्या कि मैं दबे जा रही हूँ। वो तो ये सोचती है, कि ये प्रकाश देना मेरा कर्त्तव्य कार्य है और उसे मैं कर रहीं हूँ । और खुशी-खुशी सारा काम करती है। इस समझ को आना जरूरी है, हालांकि औरतों को इतना दबाया गया है इस समझ के कारण, इतनी उनकी अवहेलना करी है कि एक दूसरी चीज खड़ी हो रही है जो कहती है समाज में कि नहीं, ये औरतों पर दबाव हम चलने नहीं देंगे। हम पुरुषों को ठिकाने लगा देंगे। उनसे हम हर चीज़ में लड़ेंगे। उनको हम बिल्कुल बेकार कर देंगे। ये सब करके देख लिया। ओर देशों में जहाँ-जहाँ ये हो रहा है वहां के बच्चों का हाल देख लीजिए और वहां की सब चीज़ों का हाल देख लीजिए । अब पुरुष संसुर, समझ इसमें क्या है कि मनुष्यों में ये समझ आनी चाहिए। मनुष्य में ये समझ सिर्फ स्त्री में ही नहीं पर पुरुषों में भी आनी चाहिए। ये पुरुषों को सोच लेना चाहिए कि हमारी स्त्री जो है, ये स्वयं साक्षातू लक्ष्मी स्वरूपा है और उसका मान हमें रखना चाहिए। पहले तो स्त्री भी पुरुष का मान रखे और पुरुष भी स्त्री का मान रखे। मैं देखती हूं सहजयोग में अब बहुत कुछ ठीक हो गया लेकिन हम लोग जब शादियां करते हैं सहजयोग में, तो देखते हैं कि ये जिन लोगों की शादियां , समझ लीजिए, जिन लड़कियों की शादियां इंग्लैड-अमेरिका में हुईं तो वो उनके पति उनके इतने गुलाम बन जाते हैं कि उनका दिमाग खराब हो जाता है, सबका नहीं और उल्टी बात ये है कि जिन लड़कियों की शादियां हिन्दुस्तान में होती हैं वो तो कहती हैं कि भगवान बचाए रखे बाबा! सास, ससुर, ये वो, मार झंझट, सब लोग तो मारने को दौड़ते हैं कहने का मतलब ये है कि न संतुलन वहाँ न संतुलन यहाँ। ये सतुंलन स्थापित करने के लिए सहजयोगियों को समझ लेना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि कोई पति को अपने सर पर बैठा ले, या कोई पत्नी को सर पर बैठा ले। इसका मतलब है कि प्रत्येक का एक मूल्यांकन होना चाहिए (evaluation )। सबको Valuation करने के बाद आप समझ सकते हैं कि कहाँ तक आप सतुंलन में हैं। आप दूसरों की बात नहीं सोचिए, अपनी बात सोचिए। जहाँ आपको जो कहना है वो कहना ही होगा और जो आपको सुनना है वो भी सुनना होगा। मैं देखती हूँ, सहज योग में हमने शुरूआत पहले कुटुम्ब से की। कुटुम्ब व्यवस्था से सहज योग को धीरे-ध ीरे बाँधा है और जब कुटुम्ब ठीक हो गए, उसके बाद फिर हमने एक-एक चीज़ पर कुछ कदम रखा है। आज आपको पता है कि ये पच्चीसवां सहस्रार इस बार मनाया जाएगा। 25 साल हो गए जब सहस्रार खुला था, तब से लोगों ने इस चीज़ को प्राप्त किया और प्राप्त करके एक इससे बड़े प्लावित हुए, nourish हुए, आज इस स्थिति में आ गए। अब हमारे लिए आगे क्या कर्तव्य है? कुटुम्ब से शुरूआत करें तो कुटुम्ब में हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। पहली चीज है शांति । जहाँ शांति नहीं होगी वहां कोई भी चीज़ पनप नहीं सकती। समझ लीजिए ये यहाँ जो गमले रखे हैं ये सब हिलने लग जाएं, तो ये बढ़ेंगे? खत्म हो जाएंगे|

तो सबसे पहले हमें शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। इसमें आदमी को भी मान देना चाहिए, लेकिन ओरतों को भी समझ रखनी चाहिए। दोनों जगह ये चीज़़ रखने से पहले घर में शांति होने से अपने बच्चे जो है सुरक्षित रहेंगें और उनके अंदर एक अपने प्रति, स्वयं के प्रति एक जागरुकता आएगी और वे समझ लेंगे कि वो भी एक सहजयोगी हैं, उनके माँ-बाप भी सहजयोगी हैं। और एक उनका परमकर्तव्य होता है कि वो अपने माँ-बाप का नाम और भी उज्जवलित करें। मैं देखती हूं कि सहजयोग बढ़ते-बढ़ते अब एक समाज में तो आ ही गया है किंतु और भी क्षेत्रों में बढ़ रहा है | मानें अब हम लोग, यहां पर जैसे लोग आएं हैं, कोई मद्रास से आए हैं, कोई महाराष्ट्र से आए हैं, कोई कहीं से आए हैं, तो देश और देश इस तरह से विचार करते हुए सहजयोग बढ़ रहा है। अब इसमें भी उसी तरह का प्रकार होता है, जैसे अब दिल्ली वाले आए तो उन्होंने कहा कि माँ आपका Birthday दिल्ली में होना चाहिए। अच्छा भाई कर देंगे। वो ता मानना ही पड़ेगा, दिल्ली वालों को 6. कौन मना कर सकता है? यहाँ Birthday नहीं हो। बाप रे! हो गया फिर मेरा! तो मैंने कहा हा भाई शांतिपूर्वक यह चीज़ ठीक है, दिल्ली मे ही करो वो अच्छा रहेगा, और व्यवस्था भी यहाँ अच्छी होती है। सब लोगो का इन्तजाम भी होता है। सब दृष्टि से मैंने कहा ठीक है। लेकिन उसमें हम दिल्ली वाले हैं या हम बिल्ली वाले हैं, ऐसा लेकर के भी लाग झगड़ा शुरू कर देते हैं। अब यह तो बड़ी ही संकुचित प्रवृत्ति है। मतलब जो सहजयोग का दूसरा सामूहिक स्वरूप है उसे समझने में हमने गलती की| सामूहिकता में अगर आप नहीं उतरेगें तो आपका जो संतुलन है, वो डावाडोल हो जाएगा। अगर हम कहें कि अच्छा इस बार बम्बई में ही हो जाए Birthdayl क्या है, कहीं भी हो, Birthday तो होगा ही हमारी तो उम्र बढ़ने ही वाली है। आप चाहे कहीं भी करिए। लेकिन उसमें फिर उलझन हो जाएगी कि भई इस बार माँ ने ऐसा क्यों किया। या तो लोग यह कहेंगे कि हमसे कोई गलती हो गई और या ये कहेंगे कि माँ ऐसा आपने क्यों किया है, दिल्ली वालों के यहाँ इतनी बार आपने किया था, अब इस बार क्यों नहीं कर रहे दिल्ली वालो के यहाँ। तो ये जो तदात्मय हमारा गलत चीजों से है identification है हम यहाँ के रहने वाले हैं, वहाँ के रहने वाले हैं। पहले तो यहां तक था कि एक गली में रहने वालों मे भी झगड़ा होता था, अब वो खत्म हो गया है। फिर अलग-अलग मोहल्ले में रहनें वालों में बड़ा झगड़ा होता था और हरेक मोहल्ले के लोग अलग-अलग बैठकर, मैं देखा करती थी। अरे बाप रे, अभी भी चल ही रहा है मामला। फिर वो मोहल्ले छूटे, हर जगह। अब भाषा पर भी थोड़ा बहुत आ गए हम। भाषा पर आ गए हैं कि ये फलाना भाषा बोलते है हम ये भाषा बोलते हैं वो दूसरी भाषा बोलते हैं। हमें तो अपनी पहले सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे देश की जो भाषा है वो तो सीख लेनी चाहिए। चाहे आप हिन्दू हों, मुसलमान हों, चाहे मराठी हों, चाहे अंग्रेजी हों, चाहे कुछ हों, पहले आपको हिन्दी भाषा आनी चाहिए। सहजयोग में, अब मैं चौदह आपकी Official (मान्यता प्राप्त) भाषाओं में कैसे बोल सकती हैँ और आप से वार्तालाप कैसे होगा। तो जो भाषा माँ को आती है, हिन्दी मेरे समझ में आती है। मैंने कभी सीखी नहीं, पढ़ी नहीं, पर हिन्दी भाषा का हमेशा, मुझे बड़ा मान रहा और इसलिए हिन्दी भाषा मुझे आती है। इसलिए आप लोग सब अगर हिन्दी भाषा सीख लें तो सहजयोग पर बड़ी मेहरबानी हो जाएगी और इससे आपका भी लाभ हो जाएगा। बहुत से लोग हिन्दी सीख गए, मेरी टेप सुनकर के, बाहर परदेस के लोग जो हैं, वो बड़े जोर से चिपक जाते हैं किसी चीज़ पर। वो लोग हिन्दी बोलने लग गए ओर हमारे यहाँ अब भी ऐसे लोग हैं कहते हैं कि माँ हिन्दी में भाषण मत दो। आपको चाहिए तो तमिल में दो या तेलुगु मे दो। मुझे नहीं आती न तमिल, न तेलुगु। अब मैं क्या करूं, इसलिए ये भी जो हमारे अन्दर भिन्न-भिन्न भेद हैं इनको बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए। जातीयता के भेद तो हैं ही हमारे अन्दर, पहले ही से बसे हुए। एक साहब मुझे कहने लगे हाँगकाँग में कि हिन्दुस्तान में जातीयता बहुत है, अब भी सहजयोगियों में जातीयता है। वो ब्राह्मण हैं शायद । मैंने कहा अच्छा बताइये, क्या आप किसी हरिजन से शादी करेंगे। घबरा गये, हरिजन से! अरे भई हरि के जन है उनसे शादी करने में क्या? हरिजन से नहीं कर सकते । तो पहले बाकी सब लोगों में हो जाये, फिर धीरे – धीरे हरिजन को भी मान लें। लेकिन परदेस में ये झगड़ा ही नहीं । कितनी हरिजन लड़कियों की शादियाँ मैंने बाहर करा दीं ओर लड़कों की भीं। उनको

पता ही नहीं कि ऐसे जाति-पाति करके कोई चीज़ होती है, कोई हरिजन होता है। और कोई अब नहीं कहेंगे कोई क्या। इस प्रकार हमारे अंदर इतनी भिन्नता का स्वभाव है, हम भिन्न हैं, वो भिन्न हैं । अब भिन्नता भी आवश्यक चीज़ है। परमात्मा ने हरेक को भिन्न-भिन्न बनाया| हरेक की शक्ल अगर एक बनाते तो कोई किसी को पहचान नहीं पाता। जैसे कोई आपने फौज (Army) खड़ी कर दी, इसी तरह से सबकी शक्ल हो जाती। तो भगवान ने ऐसी सृष्टि की कि एक पत्ता दूसरे से नहीं मिलता। ऐसे पत्ता बनाया है कि ये पत्ता आप कहीं दुनिया में जाकर ढूंढे तो exactly same नहीं हो सकता, अब बताइये! ये उसकी कमाल है! पर गर ये सोचने लग जाएं कि ये भिन्नता ही हमारी विशेषता है तो फिर आप पत्ते के ही Level पर हैं, उससे आप उठे ही नहीं । उससे उठकर देखिये तो आप समझ जायेंगे कि आप जो हैं वो एक विशेष व्यक्ति, योगीजन, जिनकी कि जात-पात कुछ नहीं होती। शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी की जात-पात कुछ जब सन्यासी हो गये, अब क्या रह गया? अंदर से छूट गये सो सन्यासी हो गये, तो भी नहीं । आपकी जात-पात कैसे रह गई? इसका बड़ा विरोध करना चाहिए। जात-पात का बहुत ही विरोध करना चाहिए और सिर्फ गुण ग्रह्यता होनी चाहिए कि किसमें क्या गुण हैं, उसको पाना चाहिए। और उसको समझना चाहिए। इस एक मर्यादा से जब हम गुज़र जाते हैं तब फिर देश-विदेश से हमारा संबध आता है। अब मैं आपसे क्या बताऊँ कि परदेश में मैंने जो लोग देखे हैं उनमें बहुत ज्यादा यांत्रिक लोग हैं, यांत्रिक, यंत्र में विश्वास रखते हैं और साइंस में विश्वास रखते हैं, पढ़े-लिखे हैं। लेकिन सहज में जब वो उतरे, तो जैसे कोई प्रेम सागर में ही उतर गये हों। उसकी डुबकियाँ लगा रहे ह हैं। अब यहाँ पर आप देखिये कि पाँच सौ आदमी बाहर से आये हैं। इतना नितांत प्यार है उनका मेरे साथ। क्योंकि कहते है जब हम माँ सोचते हैं कि हमें आपसे प्यार है तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ से हमें प्रेम और आनंद के सागर ने घेर लिया। अब कल देखिये उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कव्वाली, पर आनंद की लहरियों से वो भरे हुए थे। उनसे सीखने की बात यह है कि बिल्कुल निर्वाज्य, किसी भी तरह की आशा न रखते हुए वो प्रेम में उतरना चाहते हैं। और क्योंकि हम लोगों को भी प्रेम की इतनी महत्ता मालूम नहीं है।

हो सकता है कि अब भी हम बहुत, जैसे हिन्दुस्तानियों की चिट्ठियाँ आयेंगी तो मेरा बाप बीमार है, मेरे बाप का ससुर बीमार हैं, फलाने का फलाना बीमार है, वगैरह वगैरह। उसको आप दे दीजिये। उसके पास नौकरी नहीं है, मेरी सब Bankruptcy (दीवालिया) हो गयी। मेरा भाई जेल जा रहा है, सब यही बातें। यहाँ तक कि वो सोचते हैं कि एक तरह मेरे ऊपर एक अधिकार है क्योंकि मैं भी एक हिन्दुस्तान में पैदा हुई हूँ और आप लोग भी हिन्दुस्तान में। पर ये बड़ी निम्न चीज़ है, इसको मांगने की जरूरत ही नहीं, अगर आप सहजयोगी हैं। ये अपने आप घटित हो सकता है। ये विश्वास परदेसी लोगों का है । अब आपको मैं एक आश्चर्य की बात बताऊं। एक औरत U. N. ( संयुक्त राष्ट्र) में काम करती थी, सहजयोगिनी। वो Maxico में चली गई U. N. में ही। उसका एक लड़का, उसको ऐसी बीमारी हो गई कि वो बीमारी पुश्तन पुश्त आती रहती है और इस लड़के पर बड़ी जल्दी आघात हुआ और एक महीने के अंदर वो बच्चा मरने वाला था। इस सहजयोगिनी ने मेरे पास तीन चिट्ठियाँ भेजीं। उसमें उसने उस का नाम लिखके भेजा की ये बीमारी है, पता नहीं कौन सी अजीबो-गरीब लम्बी-चौड़ी बीमारी उसको है और ऐसी तीन चिट्ठियाँ मेरे पास आई । मुझे बड़े उसके लिए-मैं कहती हूं, कि क्या कहूँ? मैं अपनी इन्सानियत की भाषा में तो कहा नहीं जाता पर एक तरह से जैसे खिचाव… खिचाव। और चौथी उसकी चिट्ठी आई कि माँ आश्चर्य की बात है मेरे लड़के को, मैं Hospital ले गई थी। तो उन्होंने कहा कि इसको सब Negative है, बिल्कुल Perfect health है । पर हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं एक बार माँ से मुझे मिला दो, अगर माँ मेरे बच्चे को ठीक करेंगी तो वो ठीक होगा। माँ की खोपड़ी पर लादे बगैर वो सोचते ही नहीं कि उनका बच्चा ठीक हो सकता है। कितना बड़ा फर्क है वो मैक्सिको में बैठी हुई, मैं उसका क्या इलाज कर सकती हूँ। मैं बस आपको प्रार्थना कर रही हूँ और आपके पास मैं चिट्ठी भेज रही हूँ। ये उसको बिमारी है बस। अब ये श्रद्धा की जो बात है। प्रेम जब श्रद्धामय हो जाता है, श्रद्धामय अधश्रद्धा से मतलब नहीं, आपको है मेरा, अनुभव आप जानते हैं मुझे, कोई नई बात नहीं। वो अगर श्रद्धामय हो जाये तो कैसे काम

बनते हैं, ये समझने वाली बात है। और अगर श्रद्धा न हो, सिर्फ, हम तो माँ को बहुत मानते हैं। ऐसे मानने वाले, ईसा को मानने वाले बैठे हैं, मोहम्मद साहब को मानने वाले बैठे हैं, उनको मानो। अरे भई तुम क्या हो? तुम्हारे अन्दर कौन सी विशेषता है। तुमने क्या प्राप्त किया है? इसे सोचना होगा। सो, हमने ये देखा कि जो भी इन कुछ लोगों ने इतनी आसानी से प्राप्त किया, उसकी वजह ये कि एक दम प्रेम से शुष्क हो गए। उनके अंदर प्रेम इनको मिला ही नहीं और जब प्रेम नहीं मिला तो जैसे ही उनको प्यार मिला तो एकदम उसकी ओर वो बिलकुल पूरी तरह से आकर्षित हो गए। और उस प्रेम को पाने के लिए उनको दुनिया की कोई चीज़ नहीं चाहिए। कोई चीज़ नहीं । अब आते हैं गणपति पुले में, हिन्दुस्तानियों की शिकायत बहुत मिलती है। खाना अच्छा नहीं। मद्रासी कहेगा कि मुझे खाना पसंद नहीं, तो लखनऊ वाले कहेंगे कि साहब क्या खाना बनाते हैं। सबके खाने के शौक, उनकी बीबियों ने ऐसे बिगाड़ रखे हैं कि उनको कोई खाना ही पसंद नहीं आता । अब इस हिन्दुस्तान में कौन सा एक खाना बताइये जो बनाने से लोग खुश हों। इनको ये पसंद नहीं, उनको वो पसंद नही, तो उनको वो पसंद नहीं। पर ये, (बाहर के लोग) कभी नहीं कहेगे कि खाना अच्छा नहीं, हॉलाकि पहले बहुत खराब खाना होता था। अब ज़रा बहुत अच्छा हो गया। पर कभी इन लोगों ने ये नहीं कहा कि माँ खाना अच्छा नहीं। अब बाथरूम के लिए भी बड़ी अजीब सी बात है कि हिन्दुस्तानियों ने कहा कि माँ ये हमें Bathroom पसंद नहीं, ये Indian style है हमें तो western style चाहिए और western वाले बोलते है कि हमको तो Indian style चाहिए। बड़ी साफ चीज़ है। अब मेरी समझ में नहीं आया कि अब क्या करें। Indian के लिए ये बनाएं और उनके लिए वो बनाएं तो मैंने ये कहा अच्छा ठीक है Indian वालों को foreigners की side में रख दो और foreigners को Indian side में रख दो, काम खत्म। पर हम लोग बड़े demanding हैं, जैसे हर समय, ये चीज़ नहीं ठीक, वो चीज़ नहीं ठीका। ये ठीक कर दो, वो ठीक कर दो। कितनों के घर में attached bathrooms हैं, ये बताइए। लेकिन इसमें हम लोग अपने को सोचते हैं कि हम बड़े ऊँचे हो गये इस तरह की demands करने से, और इन लोगों से पूछो तो कहते कि माँ शरीर का जो आराम है बहुत उठा लिया। उन्होंने जो बहुत उठा लिया शरीर का आराम। अब आत्मा का आराम दो। शरीर का

आराम नहीं चाहिए। जो कि हमने उठाया नहीं, वो ही हम सहजयोग में खोजते हैं कि हमें शरीर का भी आराम मिल जाये। इसमें आपसे कहने से फिर आप वही करेगें, मां ने कहा शरीर का आराम, तो चलो हम ज़मीन पर सोयेंगे। ये नहीं मेरा मतलब। मतलब यह है कि यह सोचना चाहिए कि हमें अब आत्मा का कार्य करना है। आत्मा को संतोष में रखना है। जितना हम शारीरिक चीज़ों के बारे में सोचेंगें उतना ही हमारी आत्मा दुःखी हो जाती है, उसका प्रकाश उतना ही कम होगा। और जितना ही हम बाहर के लोगों के लिये, दूसरे लोगों के लिए वातावरण के लिए हर चीज़ के लिए, जब हम सोचेंगे उतने ही हम बढ़ते जायेंगे। आत्मा का प्रकाश बढ़ता जायेगा। और उसमें आपको हैरानी होगी कि आप अपने को पाइयेगा कि आप बिल्कुल विश्व के एक नागरिक हो गये आपके अंदर विश्व जैसे समा गया| अब बहुत से लोग मुझे कहते हैं कि माँ आप को हरेक चीज़ कैसे याद रहती है। जैसे अब ये देख लिया, इसको देख लिया, हमने, बस हो गया, चित्र सा बन गया । सब चीज़, आप लोग चित्र से मेरे हृदय में हैं। ये कैसे होता है, क्योंकि मैं अपने अंदर हूँ ही नहीं। सब बाहर ही हूँ। मैं सोचती भी नहीं अपने बारे में कुछ, विचार ही नहीं करती। मतलब वो करने की मेरे अंदर वो शक्ति ही नहीं, तरीका ही नहीं कि अपने बारे में सोचती बैठी रहूँ। कभी नहीं, मेरे साथ किसने क्या किया , मेरे साथ किसने क्या ज्यादती की, कभी नहीं, हो गया सो हो गया छोड़ो। लेकिन जो कुछ भी बाह्य में है सब इसमें जब आप अपनी आत्मा का प्रकाश देखेंगे, तब आप में विश्व की पूर्ण कल्पना हो जायेगी। कोई पहाड़ी है वहाँ चले गये, पहाड़ी में भी अपना आत्मा का प्रकाश देख सर्केंगें। हर एक चीज़ में जब वो आत्मा का प्रकाश आप देखते हैं हर एक चीज़ में आपको कोई चीज़ भूलती नहीं, उसका आनंद भूलता नहीं। पर उसके बारे में फिक्र नहीं लगती कि ये किसका carpet है, मार लें, इसको खरीद लें। कुछ ऐसा मन में विचार नहीं। सिर्फ देखना मात्र बनता है। और जब ये देखना मात्र प्रग्लभ होता है, बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है तो आपका व्यक्तितत्व एक विश्व को भर लेता है और यही स्थिति अब आप सब में आनी चाहिए। और भिन्नता तो चाहिए हरेक चीज़ में । इसमें कोई शक नहीं। हर एक आदमी में भिन्नता होनी चाहिए, पर किस चीज़ में । अपना- अपना आनंद व्यक्तित्व करने में।

कल देखिये डांस कर रहे थे एक से एक लोग, जैसा भी आ रहा था, जिस तरह से भी आ रहा था। सब की भिन्नता थी। एक जैसे कोई नहीं नाच रहा था। ये भिन्नता हमारे अंदर अगर रहे तो उससे हम एक अलग अलग तरह के आनंद का अनुभव दूसरों को दे सकते हैं। आनंद अपने लिए नहीं। हम दूसरों को कितना आराम दे सकते हैं। दूसरों को हम कितना आनंद दे सकते हैं दूसरों में हम कितना प्रकाश ला सकते हैं इसका विचार हमेशा रहना चाहिए। कभी- कभी, मैं नहीं कहती, सब, पर कभी-कभी हिन्दुस्तानी भी लिखते हैं कि माँ मेरी प्रगति कराईये। मैं चाहता हूँ कि मै इन चीजज़ों से हटकर के, ऊँचा उठ जाऊँ। क्योंकि जो भी चिट्ठी लिखते हैं अधिकतर वो सब बेकार वैसा है। और कोई-कोई प्यारी है की चीज़ें ये बीमार है वो बीमार है, ऐसा बहुत चिट्ठियाँ लिखते हैं ओर उससे बिल्कुल मैं गदगदू हो जाती हूँ कि इन्होंने अपना मार्ग कहाँ जाना है। अपनी मंजिल को इन्होंने पहचान लिया ढूंढ लिया है इन्होंने देख लिया है है। बस इससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए। ये मैं देखती रहूँ और उसको आत्मसात करती रहूँ। पर चाहत ऐसी नहीं है किसी चीज़ की जो कि आप कह सकते हैं, क्योंकि जो चीज हमेशा बढ़ रही है, क्षितिज के जैसे, Horizon के जैसे, उसके लिए आप कैसे कह सकते हैं कि आपकी क्या चाहत है? आपका जीवन इसी तरह से अत्यंत सुन्दर हो जाए, अत्यंत सुगन्धित और सबको आहाद देने वाला, सबको आनंद देने वाला हो जाये, यही मैं चाहती हूँ। जिस दिन ये विचार आ जाए आप लोग कभी-कभी राजकारण भी करते करते हैं, इसकी कोई जरूरत नहीं । सहजयोग में आपको पैसा कमाना नहीं , कुछ हैं आपको कोई position लेनी नहीं , कुछ नहीं। इसमें आपको अपनी प्रतिष्ठा ही पानी है। जिस प्रतिष्ठा में आप एक विश्व के जानने वाले, विश्व में उतरने वाले, विश्व की परवाह करने वाले, उनकी तकलीफ और परेशानियों को दूर करने वाले और सबको ज्ञान देने वाले, ऐसे महान-महान पुरुष हो सकते हैं और मेरा यही आशीर्वाद है कि सब