Shri Krishna Puja: Sahaja Culture

Campus, Cabella Ligure (Italy)

Feedback
Share
Upload transcript or translation for this talk

श्री कृष्ण पूजा : सहज संस्कृति 01.09.1996

कबेला, इटली

आज हम श्री कृष्ण की पूजा करने वाले हैं। देखिये 3 बजे के आसपास कितनी ठंडक थी l अब इसका कारण यह है कि श्री कृष्ण ने इंद्र के साथ थोड़ी शरारत की। इंद्र, जो ईश्वर हैं, या आप कह लीजिये अर्ध-परमेश्वर, उन पर वर्षा  का दायित्व है l इसलिए इंद्र अत्यंत क्रोधित हो गए। 

अब आप देखिये कि ऐसे सभी देवता बेहद संवेदनशील होते हैं और छोटी सी बात पर भी क्रोधित या व्यथित हो जाते हैं और इस क्रोध का प्रदर्शन करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करने लगते हैं। इसलिए उन्होंने सभी गोप तथा श्री कृष्ण पर, जो  गायों की  देखभाल कर रहे थे, वर्षा की बौछार कर दी।  

और ये वर्षा  इतनी भीषण थी कि सबने सोचा कि सम्पूर्ण धरती ही जलमग्न हो जाएगी। तो इंद्र, श्री कृष्ण की लीला में विघ्न डाल कर अत्यंत प्रसन्न हो रहे थे और उन्हें लगा कि वह अपने उद्देश्य में अत्यंत सफल हो गए हैं । 

 तब श्री कृष्ण ने अपनी ऊँगली पर एक पहाड़ को उठा लिया, और वो सभी लोग जो डूब रहे थे, उस पहाड़ के नीचे आ गए। 

यह श्री कृष्ण का अंदाज़ है। 

मेरा अंदाज़ भिन्न है।  मैंने इंद्र से कहा कि तुम मेरे साथ कोई अभद्र व्यवहार नहीं कर सकते। अभी तक मैंने तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचाई है, और न तुम्हें परेशान किया है।  

वास्तव में श्री कृष्ण पूजा होने जा रही है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तुम मेरे समक्ष अपनी ताकत का प्रदर्शन करो। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि ये देव, अर्ध-परमेश्वर, आत्मसाक्षात्कारी आत्माएँ भी हैं कि नहीं, क्योंकि वे छोटी-छोटी बातों के लिए ऐसे क्रोधित हो जाते हैं। 

जो कुछ भी हुआ, उन्हें शांत किया गया, अंततः अब यहाँ गर्म हो गया है। 

सहजयोग  से आप बहुत प्रकार के कार्य कर सकते हैं, लेकिन आप को ज्ञात होना चाहिए कि आप कर क्या सकते हैं? इसके लिए, श्री कृष्ण एक उचित उदाहरण हैं।  

उन्होंने सहज-संस्कृति की स्थापना की । ‘संस्कृति’ की बात मैं कह रही हूँ। उन्होंने किसी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दिया, अपितु उन्होंने सहज-संस्कृति का विचार दिया।  

कैसे ?

उनके पूर्व श्री राम आये, जो कि मर्यादा पुरुषोत्तम थे, वह प्रत्येक विषय के बारे में अत्यंत सचेत थे।  

मेरा मतलब है, जैसे उन्होंने अपनी पत्नी का परित्याग किया क्योंकि वह एक राजा थे और राजा पर कोई कलंक नहीं हो सकता, विशेषकर अपनी पत्नी की ओर सेl

इसलिए उन्होंने उनका परित्याग कर दिया – वह समय कलियुग नहीं था, इसलिए। और उनके पिता ने वन जाने का आदेश दिया। उनके पिता से भी अधिक उनकी सौतेली माँ ने उन्हें वनवास जाने का आदेश दिया।  

और वह मान गए, आखिरकार वह मर्यादा पुरुषोत्तम थे। तो उनके पिता ने जो कुछ भी कहा, उन्होंने उसका पालन किया l उनकी माता ने जो कुछ भी कहा, उन्होंने उसका पालन किया और चौदह वर्ष वनवास में रहे।     

यह पिता के प्रति आज्ञाकारिता है। इसकी आवश्यकता नहीं थी, उनके पिता भगवान् नहीं थे,  वह स्वयं परमात्मा थे, लेकिन उन दिनों यह अति आवश्यक था कि लोग न सिर्फ अपने माता-पिता का आदर करें, अपितु उनकी आज्ञा का पालन भी करें, वैसा समय था। 

उनके समय में बहुत से मुनि, संत और हठयोगी भी थे। लोगों को अत्यंत सख्त अनुशासन पालन करने के लिए कहते थे, अगर वे पूर्ण अनुशासन का पालन नहीं करते थे, तो उन्हें कठोर प्रायश्चित करना पड़ता था। 

बहुत से लोग जिन्होंने कोशिश भी की, वे कभी गंतव्य तक नहीं पहुँच पाए, कारण था अध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए अत्यंत कठोर और पूर्ण अनुशासन का पालन। 

अभी हाल ही में मैं एक किताब पढ़ रही थी ‘पीसफुल वारीअर’l उन्होंने उसमें एक सत्य खोजने वाले अमरीकी का विवरण दिया है, और उसका गुरु, वास्तव में उससे ऐसे कठिन कार्य करवाता है, कि मेरी नातिन ने कहा, “मैं ऐसे गुरु से बहुत नाराज़ हूँ” (हँसते हुए), उस से वह सहन नहीं हुआ। 

अंततः उसे मालूम होता है कि वह स्वयं ही अस्तित्व है। 

श्री राम के बाद इसी पद्धति का अनुसरण हुआ। लोग अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़ कर हिमालय पर जा कर ध्यान धारणा करते थे। 

इसका पालन बहुत सख्ती से हुआ, हमें कहना चाहिए, बहुत ही नैतिक समाज – अत्यंत नैतिक. लेकिन यह भय के कारण था, सम्पूर्ण नैतिकता भय के कारण थी, जिस की पुनरावृत्ति अन्य धर्मों में भी हुई।  

मैं कहूँगी कि आज इस्लाम धर्म ने जैसा रूप ले लिया है, वह भय के कारण है। वे अपनी स्वतंत्रता में नहीं कर रहे हैं।  ईसाई भी ऐसा कर रहे हैं, और हिन्दू, – मुझे पता नहीं, आधे इस तरफ, आधे उस तरफl सिक्खों में भी कठोर अनुशासन है। और इतना, कि दंड स्वरूप आप को सब लोगों के जूते साफ़ करने पड़ते हैं। मुझे नहीं पता कि आप को स्वयं को जूते से मारना है अथवा किसी अन्य को। लेकिन वहाँ काफी प्रकार के दंड हैं। 

तब श्री कृष्ण आए और उन्होंने स्थिति को देखा – कि अब किस प्रकार लोग वास्तव में व्रत रख रहे हैं। यदि आप हिन्दू-धर्म के रीति-रिवाजों को देखें, तो एक हफ्ते में, आप कम से कम छह दिन तो उपवास ही कर रहे होंगे। 

और एक दिन शायद आप किसी प्रकार का भोजन लें, तो आपको कई प्रकार की जगह पर जाना होगा।  

अभी हाल ही में उन सबको, जैसे आप जानते हैं, अमरनाथ जाना था, वहाँ कितने ही लोगों की मृत्यु हो गयी।  

तब वे कहने लगे, “हमें निर्वाण प्राप्त हुआ है, हमें तीर्थ यात्रा करते हुए मृत्यु प्राप्त हुई तो हमें मोक्ष मिल गया”। 

इस प्रकार के विचित्र विचार अस्तित्व में थे कि “हमें निर्वाण प्राप्त हुआ है, हमें जो कुछ भी चाहिए था मिल गया है, और अब हम मृत हैं।” कितने ही लोग मर गए, और जो लोग नहीं मरे, बार-बार पश्चाताप कर रहे थे कि वे भी मृत्यु को प्राप्त क्यों नहीं हुए – अधिक अच्छा होता, अगर उनको भी निर्वाण प्राप्त हो गया होता। (श्री माता जी हँसते हुए)   

अतः इस कलियुग में भी ऐसे विचार अस्तित्व में हैंl भारत में भी, बहुत सख्त किस्म के लोग हैं, खासकर दक्षिण में मैंने देखा है, वे प्रायश्चित करने के लिए सभी प्रकार के निरर्थक कार्य करते हैं, या शायद जैसे कुछ और मांग रहे हों।  

ये सब निरर्थकता श्री कृष्ण के लिए असहनीय थी। वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि ये लोग इस प्रकार के थकाने वाले कर्मकांडी प्रयासों से अपना जीवन नष्ट करने वाले हैं, तब  फिर उनमें सहजयोग के लिए क्या बचेगा। 

उन्होंने ही सहज-संस्कृति की नींव रखी।  

उन्होंने कहा – “हमें बस आनंद लेना है, निर्मल आनंद – शुद्ध आनंद”l हम शुद्ध आनंद कैसे प्राप्त करें ?    

उन्होंने ये रक्षा बंधन आरंभ किया जिसके अनुसार, आपकी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक महिला आपकी बहन या माँ समान है।  

मैं अवश्य कहूँगी भारतीयों के लिए यह सत्य है। 

उत्तर भारत में इस्लामिक प्रभाव के कारण इतना नहीं है, परन्तु दक्षिण में ऐसा है। महाराष्ट्र में ऐसा है। 

और फिर उन्होंने होली की शुरुआत की, जो आपको रंगों से खेलनी है, अपने समक्ष सभी वर्ण-भेद को दूर करने के लिए, शायदl 

अमरीका में रंगों से खेलने का यह सुझाव बहुत ही अच्छा है, श्वेत वर्णों को कुछ श्याम लगायें, और श्याम वर्णों को कुछ श्वेत लगायें (हँसते हुए), और वे सब स्वयं ही देख सकेंगे कि वर्ण के नाम पर विवाद कितना मूर्खतापूर्ण है। 

वह उन बच्चों के साथ खेलते थे जो गायों को चराते थे, बिलकुल किसी आम मानव की तरह l उन्होंने कभी अपनी शक्तियों का प्रदर्शन नहीं किया, कभी अलग से  नहीं दिखे, कभी विशेष प्रकार के वस्त्र नहीं पहने, कभी नहीं। एक आम चरवाहे की तरह रहे।     

और उनकी माँ यशोदा के साथ, यशोदा – जो उनकी माँ नहीं थीं – उनका  सम्बन्ध अत्यंत सुन्दर  था।  

उनके बाल्यकाल के बारे में बहुत सी सुन्दर कवितायें लिखी गयी हैं कि एक वो ही हैं जिन पर पूरे ब्रहमांड का दायित्व है – एक छोटे बालक की तरह, वह अपनी ऊँगली अपने मुंह में आश्चर्य में डाल लेते थे। कोई दैविक विराट ऐसे कैसे कर सकता है, उनकी एक बालक के रूप में क्या सोच है ? बालपन के सभी व्यवहार!    

कल जो गीत आपने सुना, वह यही है।  

इन सभी छोटी छोटी बातों का बहुत अच्छे से वर्णन किया गया है, विशेषकर एक और महान कवि, सूरदास के द्वारा, जो नेत्रहीन थे।उनके बाल्यकाल की बहुत ही सुन्दर प्रकार से व्याख्या की है, और उनकी माँ के प्रति रिश्ते का बहुत स्वाभाविक और मधुर विवरण किया है। 

वो इस प्रकार की नहीं थी जैसे आजकल है – एक कालीन ख़राब हो गया, “ओह तुमने कालीन ख़राब कर दिया, मैं तुम्हारी बहुत पिटाई करूंगी, कालीन खराब किया है तुमने’’। इन लोगों को अपने बच्चों से ज्यादा रूचि अपनी वस्तुओं  में हैl लेकिन हमारी संस्कृति के हिसाब से, अगर बच्चे से कुछ टूट जाता है तो हमें कहना है, “ ये बहुत अच्छा हुआ जो तुमने तोड़ दिया, कोई बाधा दूर हो गयी”।  

आपको बच्चों को कभी नहीं डांटना है यदि आपको लगता है कुछ हानिकारक हुआ है, क्योंकि इस प्रकार से वे निश्चित रूप से विनाशक हो जायेंगे।  

एक बालक को समझने के लिए, मैं समझती हूँ आपको वे कविताएं पढ़नी चाहिए, जो सुन्दर कविताएं श्री कृष्ण के बारे में लिखी गयी हैं।  

मुझे नहीं पता कि उनकी कल्पना कैसे उस शुद्ध-आनंद की परम सीमा तक पहुँच गई। 

अतः अपने बच्चों के प्रति भी, हमें अत्यंत मधुर, शिष्ट और क्षमास्वरूप होना चाहिए। 

लेकिन कुछ बच्चे, मैं मिली हूँ, बहुत ही कठिन होते हैं, लेकिन उनको भी सही किया जा सकता है, यदि आप वास्तव में उन पर श्री कृष्ण की पद्धति को अपनाएं। 

अब जब वह कॉलेज गए, या कह लें संदीपनी मुनि गुरु के गुरुकुल। गुरु की पत्नी अत्यंत नम्र थीं, परन्तु गुरु सख्त थे। 

और गुरु पत्नी उनकी देखभाल करती थीं, और जब वे बाहर जाते थे और जंगल से कुछ लकड़ी लाते थे तो वह उनको भोजन देती थीं। ये अत्यंत सूक्ष्म है, आपको ज्ञात हो, सब कुछ सूक्ष्म है। वे जंगल गए, और उनके मित्र अपने साथ भोजन ले गए। उनके मित्र के पास भोजन था और श्री कृष्ण लकड़ी काटने में व्यस्त थे। सोचिये – श्री कृष्ण, माता के लिए लकड़ी काट रहे थे।  

मेरा मतलब है, माता के लिए वे कुछ भी कर सकते थे, वे परमात्मा थे। इसलिए माता के प्रति कोई भी कार्य छोटा या हीन नहीं था, लेकिन उनके साथ दूसरा साथी, उनका मित्र, वह बहुत भूखा था, उसने पूरा भोजन खा लिया और कुछ भी नहीं बचा। फिर जब वे वापस आये, तो उनको बहुत चिंता हुई। वे अपने गुरु के पास गए और बोले, “ मैंने पूरा भोजन समाप्त कर दिया और श्री कृष्ण के साथ सांझा नहीं किया ”. गुरु अत्यंत क्रोधित हो गए, और बोले – “ अब तुम्हें श्राप लगेगा, और तुम सदैव दरिद्र ही रहोगे”। 

पर माता ने कहा, “ नहीं, सदैव नहीं, जब तक तुम पुनः श्री कृष्ण से नहीं मिलोगे”। 

इस प्रकार, जिसे हम ‘उप्श्राप’ कहते हैं, देने की कोशिश की, जिसमें आप एक और श्राप देते हैं जो दूसरे श्राप को कुछ हद तक निष्क्रिय करता है। 

वही मित्र सुदामा थे और वह बहुत गरीब थे। अब आप श्री कृष्ण के सहज तरीके देखिये – वह हमेशा सुदामा को याद करते थे, और उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि “मुझे सही में नहीं पता, वह अभिशप्त हैं, मुझे उसकी स्थिति ज्ञात नहीं, पता नहीं वह कहाँ होंगे।” 

अब मित्रता देखिये – वह राजा थे, और एक मित्र के प्रति इतनी आत्मीयता।  

उन्होंने कहा – “ मैं उसके साथ जाता था, लकड़ी इकठ्ठा करता था”। मेरा मतलब है, सोचिये कि इतनी छोटी छोटी बातें उनके लिए कितनी अधिक महत्वपूर्ण थीं। तो वह सिर्फ इस सृष्टि के बारे में ही नहीं, जैसी कि उनको होना चाहिए था, अपितु सुदामा के बारे में भी चिंतित थे – “ मैं उनसे कब मिलूंगा? .. कब उनको देखूँगा ?” 

“उनका घर कहाँ होगा ? वे कैसे रह रहे होंगे ?”- उनके अन्दर अपने मित्र के प्रति ऐसी कोमल भावनाएं थीं।  

एक सहजयोगी की तरह। सहज प्रकार से, हम सारे विश्व के बारे में चिंतन करते हैं, और साथ ही व्यक्तिगत रूप से भी हम चिंतित हैंl हमें किसी व्यक्ति के बारे में पता चलता है कि वह बीमार है, उसको कोई समस्या है, कुछ गंभीर हैl सभी सहजयोगी उसके बारे में सोचते हैं और चिंता करते हैं। उनके पास सब कुछ हो सकता है, पर वे चिंतित हैं, कि  उस व्यक्ति के साथ क्या हो रहा है। हम में से कितने लोग एक दूसरे के नाम जानते हैं – मेरा मतलब है कि हम सब एक दूसरे के नाम जानते हैं। और कैसे हम सबकी देखभाल करते हैं, आदर करते हैं, कैसे हम सबसे स्नेह करते हैं और हमारे  सबके साथ कैसे पवित्र सम्बन्ध  हैं। 

आज रक्षाबंधन का भी दिन है, जो अत्यंत महान अवस्था है कि हमारे सम्बन्ध पवित्र होने चाहिए। 

मैंने महाराष्ट्र में देखा है कि पुरुष लोग महिलाओं के पास जा कर अधिक बात नहीं करते हैं, और महिलाएं पुरुषों के पास जा कर बात नहीं करती हैं।

और एक बार किसी ने टिप्पणी करी, “आप महिलाएं क्या कर रही हैं, सिर्फ महिलाओं से ही वार्तालाप ?” तब मैंने कहा , “हम लोग आप से क्या बात करें ? आप लोग अपने दफ्तर के बारे में बात करते हैं, हम अपने घरों और परिवार के बारे में। आपके साथ बात करने को है क्या ?” 

लेकिन पाश्चात्य संस्कृति भिन्न है, वे आप पर दबाव डालेंगे। वे देखेंगे कि एक पुरुष यहाँ बैठ जाए और उसके बगल में एक महिला, किसी और की पत्नी, फिर कोई पुरुष, फिर किसी और की पत्नी।   

कैसे आप आत्मीयता प्राप्त करेंगे ? इस प्रकार के विचार अ-सहज हैं, ये अनैतिकता की ओर बढ़ रहे हैं। 

 पुरुषों और महिलाओं को इस प्रकार बैठने की कोई जरूरत नहीं है, क्या आवश्यकता है, मुझे कुछ समझ में नहीं आता है। आपको ज़बरदस्ती बैठना पड़ता है। मुझे ऐसे कठिन समय का सामना करना पड़ा, आपको बता रही हूँ, मेरे पति के कार्यकाल के समय, मुझे कभी पसंद नहीं था।  

इन पुरुषों से आखिरकार, क्या बात करनी है ? मुझे बैंकों के बारे में कुछ नहीं पता, मुझे शेयर आदि नहीं मालूम, मुझे शेयर बाज़ार नहीं पता, या वो क्या होता है। या मुझे लाभ हानि, ये सब, मेरे लिए शून्य है। फिर, मुझे ऑफिस के बारे में नहीं पता, और मुझे बहुत सी और बातों का नहीं पता जिसके बारे में पुरुष लोग बात करते हैं, तो उनसे बात करने का क्या है ? बड़ा ही मुश्किल है।   

और जब भी मैंने कुछ कहा, तो जैसे पत्थर मार दिया हो। एक बार एक पार्टी में, वे सभी लोगों को मदिरा और ये सब दे रहे थे, तो मैंने कहा, “ मैं कुछ शीतल पेय ही लूंगी”। तो सेवाक आये और मुझे शीतल पेय दे दिया। सेवक ने बो लगाया हुआ था, और सफ़ेद शर्ट पहन रखी थी बस। पूर्णतः असहज प्रकार से।  

काला बो, सफ़ेद कमीज, काला कोट, काली पतलून, सब एक जैसा – जैसे कोई राजदूत हो या सेवक। आप नहीं समझ सकते कि कौन कौन है। 

तो मैंने पेय पी लिया और आप हैरान होंगे, जब समाप्त हो गया तो मैंने गिलास एक राजदूत को, काफी जानेमाने राजदूत को दे दिया। 

मेरे लिए कोई फर्क नहीं था, मेरा मतलब, वे सब एक जैसे ही थे, एक ही तरह की चाल, एक ही तरह से बात का ढंग।  सब कुछ कितना अ-सहजl 

और देखिये, वे कहते हैं, उनके इतने दूतावास हैं, किसलिए, मुझे पता नहीं। और वहाँ क्या होता है, मदिरा, पार्टियां, हाथ मिलाना, हाथ मिलाना। आपके  हाथ टूट जायेंगे , मैं  बता रही हूँ।  

सबसे असहज विधि है – “हाथ मिलाना”।  

नमस्ते क्यों नहीं? बेहतर है। और आप मुझे जानते हैं, कभीकभार मुझे इतनी गर्मी लगती थी। जैसे कल आपने दिखाया कि बर्फ पिघल रही है। ऐसे ही मेरे साथ भी होता था। 

ज्यादातर वहाँ अत्यंत उष्म प्रधान लोग होते थे और मुझे पता नहीं होता था कि मैं क्या करूं, मैं एक तरफ खड़ी हो जाती थी, आप समझ सकते हैं, शर्माती हुई। लेकिन हाथ मिलाने का यह तरीका एकदम असहज है। और उस से भी खराब है फ्रेंच चुंबन का तरीका – मेरा मतलब आपको पसंद हो या न हो, आपको चूमा जाता हैl या फिर किसी को गले लगानाl जब पहली बार मैंने किसी अंग्रेज को आत्मसाक्षात्कार दिया था तो उसने मुझे ऐसे हाथों में ऊपर उठा लिया था।  

मैंने कहा, “ठीक है, यह – यह उसने आनंद प्राप्ति के कारण  किया है, यह ठीक है।” लेकिन वहाँ कोई खुलापन नहीं है, हृदय का कोई खुलापन नहीं है। 

आप पार्टी में जाते हैं, आपको एक ही प्रकार से वस्त्र पहनने होते हैं. अगर आप इस प्रकार से वस्त्र नहीं पहने हुए हैं, तो आप किसी काम के नहीं हैं। 

अगर आपको किसी अंतिम संस्कार में भी जाना है, तो भी। किसी मित्र की मृत्यु हुई, अच्छे दोस्त थे, अच्छे इंसान थे। तो मुझे बताया गया बिना बॉर्डर वाली काली साड़ी, काला ब्लाउज, सब कुछ काला पहनने कोl मैंने कहा “ मेरे पास काली साड़ी बिना बॉर्डर वाली नहीं है”। तो उन्होंने कहा, “ आप मत आइये”। मैंने कहा, “बहुत बढ़िया विचार!”.  

क्योंकि मुझे ये असहज तौरतरीके समझ नहीं आते हैं। 

आपको वहाँ रोना या आँसू बहाना नहीं है, आपको बस शांत रहना है। और जब आप वहाँ जाते हैं, और शव वहाँ रखा हुआ है, एक प्रार्थना करने के बाद, आपको शांपेन पीनी होती है।  

मेरा मतलब है, जरा सोचिये, आप कैसे कर सकते हैं? कोई संवेदनशीलता नहीं है, उस मृत शरीर के लिए जो मृत रखा हुआ है। 

और हर कोई बहुत खुश। और यदि अगर कोई उदास हो, तो आप से पूछेंगे “ कुछ गड़बड़ है क्या? आप ठीक तो हैं न?” कोई चेतना नहीं कि हमने एक दोस्त खोया है। 

यह एक असहज तरीका है शोक व्यक्त करने का। जब आनंद की बारी आती है, तो असहज, जब शोक हो तो असहज। 

हमें सहज रहना है, जो कुछ भी करें, तत्क्षण सहज रूप से करें। विवेचना कर के नहीं। 

हमारे यहाँ भारत में भी कुछ बहुत ही अंग्रेजियत सोच वाले लोग हैं। एक घर में एक महिला की मृत्यु हो गयी और मैं उन्हें देखने गयी – और भारत में मृत शरीर को नीचे धरती पर रखा जाता है। तो वो लोग बातचीत कर रहे थे कि क्या करना है, कब अंतिम संस्कार करना है, आदि-आदि।   

वहाँ एक महिला, जो कि भारत में बहुत जानी-मानी हैं, उन्होंने कहा, “ आपको बारह बजे से पहले नहीं करना चाहिए”. मैंने कहाँ, “क्यों?”. तो उन्होंने कहा, “ क्योंकि मुझे सफ़ेद वस्त्र पहनने पड़ेंगे”। “सही में”। “ और फिर मुझे बैंक जाना पड़ेगा सफ़ेद साड़ी से मैच करते हुए हीरे लाने के लिए।”

मैंने कहा, “इन सब का क्या अर्थ है?” – भौतिकतावाद की ऐसी मलिनता।    

यह सब अत्यधिक हो रहा है। हम अपनी भावनाओं से और दूर जा रहे हैं, अपने मनोभावों से, जो कि विशुद्ध हैं, जो हर समय रहते हैं, और आपको उनके बारे में सोचना नहीं है, वे हर समय अस्तित्व में रहते हैं। 

लेकिन आप सोचते हैं, “ अब मैं रोऊँ या नहीं ? मैं हंसू या नहीं ?”

यह कितना सहज है। अगर आपको आनंद है, तो आप सहज हैं। आप अपने आनंद की अभिव्यक्ति सहज ही करते हैं। और हाँ, किसी असभ्य ढंग से नहीं, अपितु बड़े ही शिष्ट प्रकार से। 

अब सहज-संस्कृति का क्या अर्थ है – ये संस्कृति, कुछ इस प्रकार से है, आपको इसमें ढाला जाता है, आपका पालनपोषण बड़े ही स्वाभाविक रूप से होता है, और आप ये संस्कार विकसित करते हैं। बालस्वरूप, सरल एवं अबोध व्यवहार। 

यह श्री कृष्ण द्वारा सुझाया गया शुद्ध आनंद का विचार है – निर्मल आनंद, जो कि भारतीयों के लिए अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ क्योंकि वे लोग श्री रामचंद्र का अनुसरण कर रहे थे।  

लेकिन फिर सन्यास की शुरुआत हुई। समस्या यह है कि अगर आप उन्हें बहुत कठोर बना दें, तो वे मेरे विचार से कलफ किये हुए कपड़े की तरह हो जाते हैं, आप उनको पहन नहीं सकते। और अगर आप उनको  छूट दे दें, – “नहीं नहीं, आपको इसका आनंद लेना ही है, ठीक है, आप उनको करने दें, जो चाहते हैं वो करें।” यदि आप उनको वह करने दें जो वे चाहते हैं, तो वे हर प्रकार के कार्य करने लगते हैं। 

मेरा मतलब है, भारत में, हमारे यहाँ बहुत सी वीभत्स बातें थीं आनंद के नाम पर, जो मैं आपको बताने की हिम्मत नहीं कर सकती हूँ। लेकिन श्री कृष्ण की ही इतनी मिथ्या प्रस्तुति हुई है, कुछ मूर्ख व्यक्तियों द्वारा, जैसे कि विद्यापति। वह एक महान कवि थे, और उन्होंने श्री कृष्ण और राधा को रोमिओ और जूलिएट बना कर पेश किया। 

यह उनके अति पावन रिश्ते का सबसे बड़ा तिरस्कार है। आपने ऐसे बहुत से चित्र देखे होंगे जैसे कि काँगड़ाशैली, ऐसी शैली, वैसी शैली। सब बकवास है  ।     

वे लोग उस रिश्ते की सत्यता का वर्णन नहीं कर पाए, लेकिन एक प्रकार की अत्यंत अभद्र अभिव्यक्ति बन गई। 

क्योंकि मेरे विचार में उस समय इन कवियों और इन चित्रकारों के भीतर कुछ छुपी हुई कुंठित भावनाएं थीं, और उन्होंने श्री कृष्ण का  इसके लिए इस्तेमाल किया। हर प्रकार की रूमानियत उनसे जोड़ दी गयी है। कभी कभी मुझे प्रतीत होता है लोगों ने श्री कृष्ण को समझा ही नहीं है। 

उनके बारे में एक रोचक कहानी है कि एक बार, उनकी पत्नियां – उनकी बहुत सी पत्नियां थीं, यह भी एक विवादास्पद बिंदु है। उनकी बहुत सी पत्नियां थीं, क्योंकि श्री कृष्ण की सोलह हज़ार शक्तियां थीं, जिन्होंने जन्म लिया था और एक राजा द्वारा बंदी बना ली गयी थीं, और कारागार में थीं। उन्होंने उन्हें मुक्त करना था, अतः सब मुक्त हो गईं।  

अब वे सब श्री कृष्ण के साथ कैसे रहें, जो एक युवा पुरुष थे। तो उन्होंने उन सब से विवाह कर लिया। और यही बात मोहम्मद साहब के साथ भी हुई। उन्होंने उन सभी सोलह  से विवाह किया, जो उनकी  शक्तियां थीं।  किसी युवा पुरुष के लिए सोलह हज़ार महिलाओं को एक हरम की तरह रखना, लोग उनके बारे में क्या सोचते। इसलिए उन्होंने सभी से विवाह कर लिया था।  

उनके जीवन के बारे में एक और बात यह है, कि एक बार ये सभी स्त्रियाँ – और उनकी पांच और पत्नियां भी थीं। ये पांच पत्नियां पञ्च तत्व की तन्मात्रा थीं। तो, उनको जाना था, एक बार ये सभी स्त्रियाँ एक महान ऋषि के दर्शन करने जाना चाहती थीं l और जो नदी  वहाँ पर थी, वो पूरे उफान पर थी। तो वे सब श्री कृष्ण के पास आईं और कहा –“हम नदी कैसे पार करें? क्योंकि आप देख रहे हैं, इसमें बाढ़ आयी हुई है।” श्री कृष्ण ने कहा, “बहुत आसान है नदी पार करना।”

वह नदी कहलाती है कुंवारी नदी, नर्मदा, जिसके लिए भारत में आजकल बड़े झगड़े और राजनीति हो रही है। 

“तो आप वहाँ जाएँ, और उनको कहें – कि हे प्रवाहिनी, यदि श्री कृष्ण पूर्णतः ब्रह्मचर्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं, पूर्ण ब्रह्मचारी हैं, यदि यह सत्य है, तो आप शांत हो जाइये”. और नदी शांत हो गयी – और उन्होंने नदी पार कर ली। 

वहाँ जा कर उन्होंने ऋषिवर की पूजा की, और जब वापस नदी के किनारे आयीं तो देखा नदी फिर उफान पर थी। वे वापस ऋषि के पास गईं और उनसे पूछा, “अब हम वापस कैसे जाएँ ?” ऋषिवर बोले, “आप यहाँ आयीं कैसे?”  उन्होंने कहा हमें श्री कृष्ण ने नदी से कहने के लिए, ये कहा था”. 

“ठीक है, आप जाइये और नदी से कहिये कि इस ऋषि ने कुछ भी, कैसा भी भोजन नहीं किया है”, जबकि उन्होंने देखा था कि ऋषिवर ने एक के बाद एक कई थालियों में भोजन किया था। “यदि यह सत्य है, तो आप शांत हो जाइये”। तो वे सब नदी किनारे गईं, और वैसे ही कहा, और नदी शांत हो गयी। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि इन ऋषिवर ने इतना भोजन किया था, और नदी यह सोच कर शांत हो गयी कि यही सत्य है।  

इसका तात्पर्य – उनका चरित्र क्या है ? वे अभोगी हैं.             

अभोगी का अर्थ है कि वे इन बातों में लीन नहीं होते, वे खाते हैं, ठीक है, पर वे इसकी चिंता नहीं करते, उनको खाने का भाव नहीं है, भोजन का आनंद लेने का भाव नहीं है, वे सिर्फ भोजन ग्रहण कर रहे हैं। 

और यह महानुभाव सत्रह, मैं कहूँगी 16005 पत्नियों के साथ, उनको ब्रह्मचारी कहते हैं, क्योंकि वे उसमें लिप्त नहीं हैं।  

वह (श्री कृष्ण) सहज-अवस्था में हैं। 

श्री कृष्ण जैसे इतने महान त्रुटिहीन व्यक्तित्व से, इन लोगों ने ऐसी निरर्थक रासलीला बना दी है।           

अमरीका के लिए, मेरी समझ से उन्हें जो स्वतंत्रता मिली है, वे लोग उसमें बहुत दूर तक चले गए हैं। क्योंकि श्री कृष्ण के आशीर्वाद से लोग सभी नियमों से, व्यवस्थाओं से पूर्ण स्वतंत्र हो गए, और उन्मुक्त हो गए। 

अमरीका बदतर हो चुका है और सिर्फ यही नहीं, उनके सिनेमा भी काफी खतरनाक फिल्में (चलचित्र) बना रहे हैं, जो वास्तव में सम्पूर्ण विश्व का नाश कर रही हैं। 

उनको नहीं पता कि वे क्या पाप कर रहे हैं, जब विश्व भर में कई हज़ार लोगों ने सभी प्रकार के घिनौने विध्वंसक विचारों को ही अपना लिया है। 

फ्रायड, ठीक है उसे निकाल दिया गया, ख़त्म हो गया, उसने पहले ही बहुत हानि कर दी थी। लेकिन इन फिल्मों का क्या? ये सभी फिल्में हमारे भारतीय निर्देशकों को बहुत रिझा रही हैं। मेरी समझ से ये सभी निर्देशक भारतीय जनता को नरक की ओर ले जा रहे हैं। पूर्ण प्रणाली ही इतनी निरर्थक है, इतनी मलिन है।  

एक भारतीय दिमाग के लिए यह सोच पाना भी मुश्किल है। यहाँ तक कि मैंने अमरीका में भी देखा है, लोग इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, यह इतना घृणित हो गया है। 

फिर, हमारे पास जो स्वतंत्रता है, उस से और भी बहुत सी बातें शुरू हो गयी हैं। 

कल्पना कीजिये, यदि श्री कृष्ण इस समय यहाँ होते, वह अपने सर में कभी तेल नहीं लगाते, कभी अपने बाल में कंघी नहीं करते, आप देखिये, उनके घुंघराले बाल हैं। और उन्होंने अमरीका के कुछ आधुनिक वस्त्र पहने होते। अन्यथा, आप समाज में जीवित नहीं रह सकते।

और ये सब कचरा अब पूरे विश्व में फैल चुका है। मास्को में बिक रहा है, सभी प्रगतिशील देशों में मिल रहा है। बस एक बात, जब ये बताया गया कि वहाँ उनको एड्स है – तब जो पुराना माल सैलानियों से खरीद लेते थे, उन्होंने वे सब फेंक दिया। वे सब जगह एड्स रोग और मादक पदार्थ ले जा रहे हैं।        

यह एक विध्वंसक शक्ति है। ये विनाशक शक्ति, इस कलियुग में बहुत सक्रिय है, इसलिए हमें बहुत सारे सहजयोगी चाहियें जिससे कि हम इस विनाशक शक्ति से लड़ सकें। 

और जब वे विध्वंसक होते हैं, तो वे पाखंडी नहीं होते, और वे समझते हैं ये उनकी महान विशेषता है। लेकिन कम से कम पाखण्डता से आप कुछ लोगों को बचा सकते हैं, लेकिन जब सब कुछ बस स्वच्छंद हो, तो हर कोई उसी प्रकार से अनुसरण शुरू कर देता है। 

जब आप सोचते हैं कि उस समय जब श्री कृष्ण रहे होंगे, और कितना मधुर समय उन्हें प्राप्त हुआ होगा, इतने स्वच्छ जीवन का और कैसे उन्होंने इन सभी  राक्षसों का वध किया, इतना सुंदर और इतना ऊर्जावान है। 

लेकिन आजकल इस संसार में कितने राक्षस हैं – क्या एक ही है? या फिर दो? या फिर दस ? एक ख़त्म होता है, दूसरा मशरूम की तरह आ जाता है, वह ख़त्म होता है, तीसरा आ जाता है मशरूम की तरह। और सबसे उपजाऊ धरती है अमरीका की। इसीलिए आप सब को श्री कृष्ण की इस धरती पर चित्त डालना हैl

विशेष रूप से यदि श्री कृष्ण अपना सुदर्शन चक्र इस्तेमाल करना शुरू करें, तो अच्छा विचार रहेगा। अब समय आ गया है। 

इसलिए मैंने आपको एक शंख दिया है। यह घोषित करने के लिए कि इस अमरीका को स्वच्छ करने का समय आ गया है। यही कार्य है जो हमें करना है। 

आज जब हम श्री कृष्ण की पूजा कर रहे हैं, आपको अपने अन्दर यह बोध जागृत करना है, कि अब श्री कृष्ण आप सब के अन्दर हैं। और अपने संचार द्वारा, क्योंकि वे सामूहिक हैं, अपने भाषण, अपने गीतों के द्वारा, अपने उन सभी साधनों द्वारा जो आप संचार के लिए प्रयोग करते हैं, उसे अपने साथ इस शांति के सन्देश, प्रेम, करुणा, सत्य और सबसे ऊपर सहज योग को ले कर चलना है। 

परमात्मा आपको आशीर्वादित करें।