Shri Raja Lakshmi Puja

New Delhi (भारत)

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Shri Rajlakshmi Puja Date 7th December 1996: Place Delhi Type Puja Speech Language Hindi

दिल्ली शहर में और उसके आसपास सहजयोग बहुत जोर में फैल रहा है। ये एक बड़ी आश्चर्य की बात है। दिल्ली शहर एक राजधानी है और यहाँ अधिकतर लोग सत्ता लोलुप हैं। जो सत्ता पर हैं उनके आगे-पीछे लोग दौड़ते हैं। लेकिन ये सब होते हये भी अपनी आत्मशक्ति को खोजना अपना आत्मबोध कराना और बहुत आश्चर्यजनक है । मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी । क्योंकि ये सूक्ष्म चीज़ है। अत्यंत सूक्ष्म है। ऊपरी तरह से हम इस चीज़ को बहुत मानते हैं। जैसे है, मैंने बहत बार आपके सामने उदाहरण दिया, कि एक सुंदर सा चित्र अगर देख रहे हैं और उस चित्र में बरसात हो रही है। बहुत सुंदर फूल हैं। पक्षी उड़ रहे हैं और आप चित्र को देख कर बहुत खुश हो रहे हैं। लेकिन उस चित्र की जो अनुभूति है वो आपमें नहीं। इसलिये उसकी अनुभूति लेने की आवश्यकता है और अनुभूति लेने के लिये एक बहुत सूक्ष्म विचार चाहिये। आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होना ये इच्छा रखना ही सूक्ष्म विचार आप के अन्दर जागृत हो गया यही कमाल है, कि हमने अभी तक यथार्थ को पाया नहीं। हमने अभी तक असलियत को पाया नहीं। कोई न कोई ऐसी चीज़ है जिसके पीछे हम भागते हैं। उसमें सत्य नहीं है और वो मैं इस प्रकार मनुष्य कहाँ से कहाँ भटक जाता है। बाह्यत: धर्म के अवलंबन में मनुष्य भागता है। मेरा यह धर्म है, बहुत ऊँचा हूँ। दूसरा कहेगा, मेरा यह धर्म है, मैं बड़ा ऊँचा हूँ। तीसरा ये कहेगा, मेरा यह धर्म है, मैं बड़ा ऊँचा हूँ। और बहुत ऐसे भी हैं जो कहते हैं, कि हमको मिलना है, हम ही पा लेंगे। हम क्यों सहजयोग करें ? हम खुद ही इसे पा लेंगे। इस प्रकार दो तरह के लोग देखे गये हैं। तो ये जो अपने अहंभाव में खो गये। और दूसरे जो हैं वो शरणागत हो कर गलत चीज़ों में घूस गये। ये एक दोनों तरह की व्यक्तियाँ सूक्ष्मता में नहीं उतर सकती। उसी में उनको मौज आती है । उसी में आनंद है। एक सोचता | है, कि मैं तो बस इस चीज़ में पड़ा हूँ। अब मैं रात-दिन भजन – कीर्तन, सबेरे चार बजे उठ कर के पठन करते रहता हूँ। एक साहब मुझे मिले थे अभी। जवान थे। मैंने उनसे कहा कि, ‘सहजयोग में आने के लिये तुमको कुछ करना नहीं।’ कहने लगे, ‘कुछ नहीं करने का?’ मैंने कहा, ‘कुछ नहीं करना।’ तो कहने लगे, ‘सबेरे से उठ कर फिर करना क्या? कुछ तो करना ही चाहिये सबेरे से उठ के।’ तो ये जो भावना हमारे अन्दर है, कि हमें अपने को प्राप्त करने के लिये, अपने को जानने के लिये, कुछ करना है। तो ये गलत है। ये तो आप लोग जान गये, कि बगैर कुछ किये ही आप सहज को प्राप्त हो। अब दूसरे अहंकारी है, जो सोचते है कि हमको क्या करना? हम ही इसको खोज लेंगे । हम ही इसको पा लेंगे । तो उनकी तो बात छोड़ ही दीजिये। उनसे भिड़ने से, अपनी खोपड़ी खराब करने में कोई मतलब नहीं । और दुनिया में सभी लोग होंगे ऐसे, ये भी सोचना मेरे ख्याल से गलत बात है। बहुत से लोग, लेकिन इस कलियुग में परिवर्तित | हो जायेंगे। क्योंकि ये परिवर्तन का समय है। इस समय में परिवर्तन होगा ही। आप चाहे या न चाहे। किन्तु चाहने से इस परिवर्तन की जो सूक्ष्मता है वो पकड़ लेंगे। उदाहरण के लिये मैं कहँगी कि रशिया देश जो कि भगवान के बारे में

कुछ नहीं जानता था, जिसने परमात्मा का नाम भी नहीं सुना था और न उनको परमात्मा का नाम कहने की इजाजत थी, न ही कोई वो धर्म की बात जानते थे और बड़ी तारणा में, बड़ी कठिन समस्याओं में वो बेचारे बंद थे, घूट रहे थे। उस घूटन में उनमें कौन सी ऐसी बात हो गयी, जो वो सहज में उतर गये? किस बात के कारण ये लोग एकदम से सहज में आ गये ? वो बात है, जिसे हम कहते हैं, कि अपने को पहचानना। इसको अंग्रेजी में इंट्रोस्पेक्शन कहते हैं। हम अगर ये समझे बैठे, कि हम परिपूर्ण है! तो कार्य नहीं हो सकता। हमको ये देखना चाहिये कि हमारे अन्दर कौन से दोष हैं? और सहजयोगी होने के बाद भी ये देखना अत्यावश्यक है! सहजयोग फैल रहा है, फैल रहा है। फैलती हुई चीज़ फ़ट भी जाती है और जो हमारे अन्दर सूक्ष्म से सूक्ष्म जो ऐसे दोष, वो पकड़ लेते हैं। मैं इस बार आयी तो सुना, कि नोएडा के जो गाने वाले थे, उनमें दो भाग हो गये, फिर सुना, कि नोएडा में भी दो ग्रुप हो गये। फिर और जगह भी ऐसे दो ग्रुप हो गये, कहीं चार ग्रुप हो गये। ये बहुत खतरनाक चीज़ है। अब ग्रुप कैसे बनते हैं? इसको बारिकी से देखना चाहिये। ईसामसीह ने कहा था, बिवेअर ऑफ मरमरींग सोल । कुछ लोगों की आदत होती है, कि वो कुछ न कुछ किसी के दोष देखना शुरू कर देते हैं। उनका ऐसा है, उनका वैसा है, फिर चार इकट्ठे हो जाते हैं। फिर दस और इकट्ठे हो जाते हैं। आप दुसरों का दोष देखने के लिये आये हैं, तो बेहतर है कि आप किसी न्यूजपेपर में चले जाईये। यहाँ तो आप अपने को पूर्णतया एक आत्मसाक्षात्कारी बनाने के लिये आये हैं। तब अपने ही दोष देखना ठीक है, क्योंकि अपने दोष हम ही ठीक कर सकते हैं। दूसरे तो ठीक नहीं कर सकते। दूसरों के दोष देखने से हमारे दोष कैसे ठीक होंगे ये मेरी समझ में नहीं आता। इसलिये इस तरह की जो एक विशेष तरह की हस्ती होती है जिसे मरमरिंग सोल कहा गया, जो दूसरों के बारे में बताते रहते हैं । मेरे सामने भी चलता है। उन्होंने ऐसे किया, उन्होंने वैसे किया, आपने क्या किया? ऐसे चक्कर चल पडते हैं। इसलिये जब सहजयोग बढ़ता है, तो उसके साथ ये भी देखना चाहिये कि वो तितर बितर न हो जायें । उसकी घनिष्ठता बढ़ती है । हमारे अन्दर एक और बड़ी विशेषता है, कि सहजयोग का जो नाटक है, उसमें लोग सोचते हैं कि लीड़र बने, हम लीड़र है, वो लीड़र है, वो लीड़र है। एक मज़ाक है। लीडर वगैरा है क्या ? कुछ नहीं। लेकिन उसके लिये लड़ाई, झगड़ा! दिल्ली शहर में रहते हैं ना, तो यहाँ के लोगों को देख कर के आप को भी यही सूझता है। ये सब नामधारी हैं। इसमें कोई खासियत नहीं। मेरे कान पर बहुत सी बातें आयीं जिससे बड़ा दुःख हुआ, कि ऐसे बेकार चीज़ों में लोग अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। जिस तरह से रशिया में हुआ है, वैसा होना शायद यहाँ सम्भव न हों। क्योंकि हम लोग अमन चैन से हैं, सब कुछ ठीक ठाक है। ऐसा कोई दबाव हमारे ऊपर नहीं। तो जिनके पास कोई कामधंधा नहीं है। वो ऐसे ही धंधे करते बैठते हैं, इधर से उधर बात लगाओ, उधर से इधर बात लगाओ| तो एकदूसरे की स्पर्धा करना या जलना ये सहजयोग में हो ही नहीं सकता। अगर ये सब कुछ आपको हो रहा है तो समझ लो कि अभी आप सहज के दर किनारे भी नहीं। अपनी ओर नज़र कर के देखिये, कि आप क्या क्या गंदगी इकठ्ठी किये हये बैठे हैं। जिसकी सफ़ाई होना नितांत आवश्यक है । अपना देश तो मशहूर है कि हम लोग बहुत झगड़ालू है। आपस में झगड़ते ही रहते हैं । कभी एक दूसरे से पटती नहीं और हम को कहते हैं कि प्रेम की महान शक्ति है। इस महान शक्ति में भी यही कार्य होता होगा , तो आप में सूक्ष्मता कैसे आयेगी और आप उस परमानंद का आनंद कैसे लेंगे? मेरी समझ में नहीं आता । तो ऐसे अगर कोई

बड़बड़ाने लग जाये तो उससे कहना चुप रहिये। हमें सुनना नहीं। एकदूसरे की बुराई अगर कोई सहजयोगी करे, तो वो दोनो ही सहजयोगी नहीं हैं। सुनने वाला भी और सुनाने वाला भी। और इस प्रकार जब हम अपने को स्वच्छ कर लेंगे, तो एक बहुत सुंदर सहजयोग का अभियान हो जायेगा। फिर आप अनेक लोगों को प्यार दे सकते हैं । अनेक लोगों में आत्मदर्शन हो सकता है। अब अपनी जिम्मेदारी को आप समझिये। आज संसार में रोज अखबार पढ़िये, तो रोना ही आता है। कुछ न कुछ गड़बड़ हो रही है। हर तरफ़ से कैसा आतंक हो जाये, ऐसी समय में आप संत हो गये। आप आत्मसाक्षात्कारी हो गये आप इतने ऊँचे स्थान पे चले गये। अब आपकी जिम्मेदारी ये है, कि ये जो कुछ गड़बड़ियाँ हैं, इसको अपने आत्मबल से रोक लो। इसे ठीक करें। आपको लड़ने-झगड़ने की किसी चीज़ की जरूरत नहीं। क्योंकि आपके अन्दर वो आत्मबल है। जिस बलबूते पर आप ये जो तनाव, जो झगड़े, जो आफ़तें आज अपने देश में हैं, उन्हें पूरी तरह से आप ठीक कर सकते हो। दूसरी सहजयोग की महत्ता ये है, कि वो ये, जो लोग अपने को आज तक समझे बैठे हैं, कि हम कुछ भी करें, चोरी करें, चकारी करें, ये करें, वो करें, चल नहीं सकता। अब सब चीज़, जो है प्रकाशित हो गयी । सब चीज़ प्रकाशमय है। जो गड़बड़ करेगा प्रकाश में आयेगा। इसलिये आपको सतर्क रहना चाहिये और ऐसे लोगों के पीछे जाने की कोई जरूरत नहीं। धर्म का मतलब सिर्फ यही नहीं कि धारणा करना और साधु बाबा बन के समाधि लगा के बैठना। ये सहजयोग में मतलब नहीं। और जगह होता होगा। लेकिन धर्म का मतलब ये है कि जो धर्म आपने धारण किया। जिस धर्म के कारण आपके अन्दर इतनी विशेषतायें आ गयी। जिसके कारण आज आप आनंदविभोर हैं। वो धर्म भी दूसरों में बाँटिये। और इस धर्म के अपने माध्यम से दर्शन दें। आपको देख कर लोग कहें कि ये कोई विशेष है। लेकिन आप अगर और लोगों की तरह आपसी लड़ाई और तमासगिरी करे, तो कौन मानेगा कि आप सहजयोगी हैं? आपकी शांति , आपका औदार्य और आपकी सहिष्णुता, सब कुछ एकसाथ देख कर के कोई भी अचंभे में कहने की जरूरत नहीं। पड़ेगा और आपके अन्दर सारी शक्तियाँ हैं। आपको हाथ चलाने की जरूरत नहीं। कुछ करने वाले बहुत बैठे हैं, आप जानते हैं इस बात को। और वो जो करने वाले हैं, वो सब कर के बैठेंगे। सिर्फ आप शांतिपूर्वक, अड़िग देखते मात्र बैठे। सारा नाटक आप देखते रहें, जो आप कर सकते हैं। एक तरफ़ तो अपनी ओर नज़र होनी चाहिये, कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कौन से गर्त में घुसा जा रहा हूँ? ये चार लोग बड़बड़ा रहे हैं। मैं इन्हीं के साथ लग गया हूँ क्या? और दूसरी तरफ़ नज़र बाहर, कि मेरे कारण कुछ लोगों को लाभ हो रहा है कि नहीं। कि मैं अपने स्वार्थ के कारण सहजयोग में आया। अब पहले से हालत बहुत ठीक है। शुरू में तो ऐसी चिठ्ठियाँ आती थी की बस! मेरे माँ, मेरे पिताजी, फलाने के ठिकाने, उसको बीमारी हो गयी माँ। इसे ठीक कर लो । सारे दुनिया के ठेकेदारी और सहजयोगी भी बहत लगे रहते थे । अब वो चीज़ छूट गयी| उतनी खुदगर्जी खत्म हो गयी। ” ी अब दूसरों के बारे में जरूर सोचने का है। पर तो भी ये जिद है, कि आपको तो आना ही पड़ेगा लखनौ या कानपूर आना ही पड़ेगा या बाराबंकी तो आना ही पड़ेगा। लेकिन बाराबंकी से आप लखनऊ तशरीफ़ क्यों नहीं ले आते! मैं तो इसके लिये मारेमारे फिरूँ लेकिन आप दस मील भी नहीं आ सकते हजूर ! ये भी कोई तरीका है? और सोचिये, उस पर बड़े पैमाने पे गदर हो जाता है। चलो भाई जहाँ कहते, जाने को तैय्यार हूँ। पर हर जगह तो मैं नहीं

जा सकती हूँ। तो मैं देखती हूँ, कि इसमें तो कोई अहंकार तो नहीं कहँगी मैं, पर एक चिपका हुआ सिक्का है, कि हम लखनऊ में रहते हैं, तो लखनऊ। बम्बई में रहते हैं, तो बम्बई और दिल्ली में रहते हैं, तो दिल्ली। अगर माँ एक मर्तबा दिल्ली नहीं आयें, तो सब लोगों की हालत खराब हो जाती है। दिल्ली जरूर आयें, फिर लखनौ जरूर आयें, फिर बनारस जरूर आयें, फिर कलकत्ते जरूर आयें। ये मैं जो देखती हूैँ कि आप इतने स्थानिक कैसे ? लोकलाइज्ड जिसको कहते हैं। फिर कहेंगे कि नहीं आप नोएडा आईये। नोएडा नहीं आते तो और भी है गली कुचे वहाँ आईये। दूसरा रोना ये है कि मेरे घर आपको आना है। अब इतनों के घर जाने के लिये कोई नया जन्म लेना पड़ेगा। इस पर भी बड़ी नाराज़ी, कि माँ, आप मेरे घर आयी नहीं। मेरे घर आ के आपको खाना खाना है। फिर ये मेरा बेटा है। फिर ये मेरा पति है। मेरी पत्नी है। मेरा, मेरा, मेरा….। जब तक ये ममत्व नहीं छूटने वाला, तब तक आप सहजयोग में कैसे उतरेंगे? ठीक है, आपकी जिम्मेदारियाँ हैं। उसको निभाओ। पर वो मुझ पर मत लादो। मेरे बेटे को देखना चाहिये । मेरे बेटे को नाम दीजिये। फलाना, ठिकाना। सुबह से शाम तक नाम देते देते मैं तो हार गयी। में सोचती हूँ कि डिक्शनरी बनाऊँ। ऐसा पागलपन चारों तरफ़ छाया हुआ है। अगर मैं कह दूँ कि मैं नहीं आ सकती, तो हो गया। फिर उसके बाद तो समझ लीजिये कि वो कहेंगे कि , ‘माँ, हमारी क्या गलती हो गयी ? हमने कौन सा पाप किया?’ अरे भाई, नहीं आ सकती मैं। इसमें पाप वगैरा नहीं है। तो ये बड़ी सूक्ष्म चीज़ है। ये चिपकी हुई चीज़ है आपके अन्दर। ये मेरा, तेरा । कबीरदासजी ने बड़ी सुन्दर चीज़ कही, कि जब बकरी जिंदा होती है, तो ‘मैं, मैं, मैं’ करती है। जैसे हम लोग भी करते हैं। पर जब मर जाती है, तो उसके दाँत से धुनकनी की दाँत बनाते हैं। और जब धुनकनी चलायी जाती है तो कहती है, ‘तूही, तूही, तूही … । जब तक ये तूही तूही का हमारे अन्दर स्वर नहीं चलेगा, आप मुझे इसके लिये क्षमा कीजिये, कि कोई भी काम आपके नहीं हो सकते। अगर आप कर के सब दिखा सकते हैं, तो कर लीजिये। पर अगर आप उस पर छोड़ने की क्षमता रखें और कहें, तूही, तूही, तूही…., तो वो तो कर के दिखा ही देगा और जिसने इसका अनुभव किया वो तो तूही, तूही भी नहीं कहता है। वो जानता है कि वो है। ऐसे काम बनते हैं कि, मुझे एक साहब बता रहे थे , कि रोज कम से कम बीस-पच्चीस मिरॅकल्स घटित होते हैं हमारे साथ। तो अब सोचने की बात क्या रही? जब आप परमात्मा के साम्राज्य में आ गये, पूरी तरह से आपको ये विश्वास कर लेना चाहिये, कि एक आप बहुत महत्त्वपूर्ण नागरिक हैं उस साम्राज्य के, जहाँ पर सारे देवदूत आपके शरण में हैं। जो कुछ भी कमी हो उसे वो पूरी कर देते हैं। लेकिन उसका देखना भी आना चाहिये। उसकी दृष्टि भी होनी चाहिये। अगर आप के उपर ऐसे हजारों नज़ारें उतारे जायें, और आप देख ही नहीं सकते तो फायदा क्या? अँधों को दिखाने से फायदा क्या? इस प्रकार के आप सब को अनुभव आये हैं। लेकिन सब से बड़ा अनुभव यथार्थ का, यथार्थ माने वास्तविकता। ये अनुभव जितना सूक्ष्म है, उतना ही वो विस्तारपूर्वक है। यथार्थ में जब आप देखते हैं, तो आपको दिखायी देगा कि आप कुछ छोटे नहीं है। और आप बिल्कुल छोटे भी हैं और तो भी आप सारे आकाश में समाये हैं। जैसे कि एक बूँद समुद्र में मिल जायें, तो वो क्या देखती हैं, कि वो समुद्र हो गयी। अब समुद्र जहाँ जायें, जहाँ ले जायें, जो करें उसके साथ, वो घूमती रहती हैं, भटकती रहती हैं, नाचती रहती है। उसको अपना अस्तित्व ही

नहीं रह गया, तो वो झगड़ा किस से करेगी ? और क्यों करेगी? जो हमारी जिंदगी थी उससे हम बेहतर हो गये. तो बात माननी पड़ेगी। इसमें तो कोई शक नहीं! लेकिन अभी थोड़ासा रास्ता और तय करना है। ये पहले तो अपने ममत्व को देखें। इस ममत्व के कारण अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं। विदेश में पहले माँ-बाप बच्चों की कदर नहीं करते थे। बिल्कुल नहीं। यहाँ तक की वो चाहते नहीं थे कि उनको बच्चे हो और हो जायें तो वो चाहते थे कि वो मर जायें। और जब सहज में आ गये तो चिपक गये बच्चों से। फिर उनके लिये बच्चों के सिवाय | कोई सवाल ही नहीं रह गया। बच्चे ही सब कुछ हो गये। अजीब चीज़ है, कि एक तरह से छूटे तो दुसरे को चिपक सोचते हैं कि बच्चों के कर्ता-ध्ता हम हैं। इसको गये। और हमारे देश में तो ये चिपकन जबरदस्त है । हम लोग तो ये समझ लेना चाहिये, कि संसार को चलाने वाले, परमात्मा और उनकी परम शक्ति वो सब आपके बच्चे, परिवार सब को देख रहे हैं। उनसे अच्छा तो आप देख नहीं सकते। तो आप क्यों बेकार में परेशान हैं? बार बार आप पूछेंगे कि भाई, बच्चा कैसे है? बच्चे की हालत कैसे है? बच्चे से कोई बचा रहा तो बीबी, फिर पति, फिर अम्मा, ये ऐसे ऐसे रिश्तेदारी है, उसको निभाना दूसरी बात है, पर उसमें बह जाना दूसरी बात है। इस ममत्व को तोड़े बगैर आप सहज की मर्यादाओं से बाहर नहीं निकल सकते। सहज की जो मर्यादायें हैं वो इस तरह से बँधी हुई हैं, इससे ऊपर उठने के लिये आपको सी बातों की तरफ़ ध्यान देना चाहिये। छोटी छोटी बातों को मनुष्य चिपक जाता है । बहुत अब मैं नहीं कहँगी की आप अस्वाद में उतरे। ऐसे कहने पर तो उत्तर भारतीय लोग परेशान हो जायेंगे , कि माँ, कहती है अस्वाद करो। ना, ना, वो तो में नहीं कहूँगी। लेकिन स्वाद के पीछे भागने की कोई जरूरत नहीं। रात-दिन स्वाद के पीछे भागे रहते हैं। फिर आप सहजयोगी कैसे ? कोई भी बात करने से आपको आत्मानंद की होनी चाहिये । अनुभूति वो कैसे? हर एक चीज़ की ओर आप ऐसे देखें जैसे कोई एक नाटक देख रहे हैं। ये सारा नाटक है और ये | नाटक चल रहा है, देख रहे हैं आप। कभी मज़ाकियाँ बातें हो रही हैं, कभी कुछ और बातें हो रही हैं। आपका कुछ लेना-देना इससे नहीं। आप देखते हुये हँस रहे हैं। देखते हुये रो रहे हैं। बस, लेकिन इसके अन्दर आप का कोई भी समावेश नहीं है। आप बाहर हैं। बाहर से इसे देखें, तो आप आश्चर्य करेंगे कि आप जल्दी से किसी भी चीज़़ को क्षमा करते हैं। कल एक साहब ने बताया कि, ‘माँ, ये सिगरेट पीते हैं।’ उन्होंने सोचा, कि मैं बिगडूँगी । मैंने कहा, ‘नहीं, नहीं ठीक है। सिगरेट आसानी से नहीं छूटती। लेफ्ट विशुद्धि अगर हुयी तो उससे सिगरेट पकड़ी जाती है। उनकी लेफ्ट विशुद्धि तुम ठीक करो। देखो, उनकी सिगरेट छूट आदमी सोचता है, कि इसको किस तरह से सुधारा जायें? क्या ठीक किया जायें? किस तरह से बनाया जायें ? जायेगी।’ तो सारी दृष्टि ही ऐसी बदल जाती है, की जिससे किस तरह से जोड़ा जायें ? एक तरह की जो आज तक बुद्धि हमारी, विश्लेषण, अॅनॅलिसिस को करती थी, वो सिंथससिस, वो सब जोड़ने की क्रिया करती है और उस जोड़ने को जो हम चाहते हैं, पूरी तरह की मदद परमात्मा से मिलती है। अब समझ लीजिये, कोई आ कर मेरे पास किसी की बुराई करता है। एक बात, ये तो हमारी आदत बिल्कुल छूटती नहीं ना ! वो मेरे पास भी आ के बताते हैं कि वो आदमी ऐसा, वैसा । कुछ थोड़ा झूठ ही हो, मैं उससे कहती

हूँ कि, ‘अरे भाई, वो तो तुम्हारी तारीफ़ पे तारीफ़ कर रहा था। वो तो कह रहा था, कि तुमसे अच्छा कोई आदमी ही नहीं ।’ दूसरे दिन देखती हूँ, उसी आदमी के गले में हाथ डाल के घूम रहा है। जो कुछ बुराई देखी थी, पता नहीं कहाँ गायब हो गयी। ये बात समझनी चाहिये, कि हमें एक दूसरों को जोड़ना है। और वो भी ऐसा जोड़ना है, कि एक को शिकायत ह्यी तो सब को पता होना चाहिये । यही कलेक्टिविटी है । एक को तकलीफ़ हुयी तो सारी दुनिया दौड़े। क्योंकि हमारा ये समाज ये जीवित समाज है। मरा हआ समाज नहीं है । और इसके अंग-प्रत्यंग जो है, एक शरीर में बसे हये हैं। अगर एक उँगली को तकलीफ़ होती है तो सारे शरीर को तकलीफ़ होती है। इसी प्रकार हमें भी सोचना चाहिये। अब ये सोचने में ये हुआ, कि हम पुराने दिल्ली वाले अलग हुये और नोएडा वाले अलग हो गये, फलाने वाले अलग हो गये। मैं तो सारे विश्व की बात कर रही हूँ और आप यहाँ गलीकूचे की बात कर रहे हैं। सारे विश्व में ये होना चाहिये, कि एक को जरासी तकलीफ़ हयी, एक देश को जरासी तकलीफ़ हुई, तो सारे देशों में इसकी हलचल होनी चाहिये। हो रही है, ऐसे नहीं की नहीं । अब आपको बताऊँ खुशखबरी, कि बहुत से जम्मन, ऑस्ट्रिया में और जर्मनी में सहजयोगी हैं । बड़े पहुँचे हुये लोग हैं। तो निकले जाने इस्तराइल। मैंने कहा, ‘कहाँ जा रहे हैं तुम लोग?’ ‘माँ, हम तो इस्राइल जा रहे हैं। क्योंकि बात ये है कि हमारे जो बुजुर्गों ने उनको बहुत सताया, मारा-पीटा, तो हम तो इस्राइल जा रहे है।’ मैंने कहा, इनको कौन सुनेगा वहाँ भाई? ये तो जानी दुश्मन उन लोगों के हैं। ये वहाँ गये और खड़ा कर दिया सहजयोग में । इस्राइल देश को अब उससे एक और अच्छी बात बताती हूँ, बड़ी खुशखबरी है। मैं इजिप्त गयी, तो बहुत मुश्किलों से बिचारों को विजाज मिले । माने इस्रायलियों को। क्योंकि इस्रायली जो हैं वो माने हुये दुश्मन हैं मुसलमानों के। पता नहीं क्यों? गलत बात है, लेकिन है। तो बीस इस्रायली वहाँ पर हैं, इजिप्त में। तो मैं देखती क्या हूँ, कि वहाँ के इजिप्शियन सहजयोगी जो हैं, उनके गले मिल रहे हैं। उनसे प्यार की बातें कर रहे हैं। कितने आनंद की बात है! कि इस्राईल से इतनी दूर से इजिप्त में आये और वहाँ के इजिप्त सहजयोगियों से दोस्ती कर ली। फिर सारे वहाँ के गैरों में जहाँ जाना, सब से बात करना, ये करना, वो करना। उनके लिये मिठाईयाँ लाये। ये सूझता कब है? मैंने नहीं कहा। ये अन्दर से ही सूझता है, कि भाई, इजिप्त के लोग हम से दूर हैं, हमारे दुश्मन हैं। छोडो ये। वही प्यार का करिश्मा देखिये। अब पहुँच गये, मैं पहुँची उसके दूसरे दिन। मैंने कहा, ‘आये कैसे ?’ ‘आ गये। विजा भी मिल गया। सब हो गया। हम आ गये।’ ये पहली पहचान है, कि किस तरह से प्यार का दान आप दुसरों को दे सकते हैं। लेकिन ये तो तभी होगा जब आप अपने से हटेंगे। जब अपने ही अन्दर आप कूद रहे हैं, तो बाहर क्या होगा? अब कल मुसलमानों ने जब कव्वाली गायी। आप लोगों ने खूब मज़ा उठाया। मैंने देखा। ये मुसलमान भी कितने दिन बाहर रह सकते हैं। ये भी अपने अन्दर घुस जायेंगे अब, देख लीजिये। पर आपकी वृत्ती जो है, वो ये नहीं होनी चाहिये कि मुसलमान खराब हैं, हिन्दु अच्छे हैं। बिल्कुल गलत बात हैं। यहाँ तो जातीयता इतनी जबरदस्त थी। वो तो हट गयी। अब मेरे काम में देखिये, बहुत बड़ा प्रश्न है, काले और गोरों का। हम लोगों को तो वो ब्राऊन लोग कहते हैं। न इधर के रहे न उधर के। पर काले और गोरे, वहाँ बड़ा अच्छा रहा। लेकिन सहजयोग में आपको समझ में नहीं आयेगा । सब बैठे हैं, कोई काले, कोई गोरे, कोई ब्राऊन हैं। सब सहजयोग में बैठे हैं। और

किसी को खयाल तक नहीं आता है, कि किस की चमड़ी कौन से रंग की है। बिल्कुल नहीं। एक दिन मैंने किसी से कि ‘साहब वो हैं। तो वो गोरे हैं?’ ‘देखा नहीं माँ। पता नहीं।’ फिर सोचने लग गये। ‘देखा नहीं ।’ ‘देखा ही पूछा नहीं तुमने?’ ‘हाँ, हमने देखा नहीं।’ ये तब होता है जब वो सूक्ष्मता अन्दर में प्रकाशित होती है। पर ये सूक्ष्मता प्यार की है। प्रेम से जब आप किसी को देखते हैं। एक माँ है, उसको चाहे गोरा बच्चा हो जायें, चाहे काला बच्चा हो जायें। वो सब को अपने जी से लगाती है। उसको तो नहीं विचार आता, कि मैं गोरी हूँ, मेरा बच्चा काला है । वो तो नहीं ना ऐसा सोचती! ऐसे ही ये प्यार की शक्ति है। इस शक्ति के कारण ही सब एक हो सकते हैं और जब सब हम एक हो जायेंगे, तो ये जो हमें अलग करने वाली उपाधियाँ हैं, ये सब गिर जायेंगी । सब गिर जायेंगी। कुण्डलिनी के जागरण से जब आप अपने ब्रह्मरंध्र को छेद कर इस चारों तरफ़ फैली हुई पवित्र, शुद्ध, निर्मल, प्रेम शक्ति को प्राप्त होते हैं। तो वो शक्ति ही आपको ये प्रदान करती है और आपको इसमें मज़ा आता है। पहले मज़ा आता था किसी को द्वेष करने में, अब मज़ा आता है, प्यार करने में। अब यहाँ से बहुत से लोग परदेस में गये। वहाँ से मुझे खबर भेजते हैं, माँ, यहाँ आओ। यहाँ सहजयोगी बहुत कम है। हम चाहते हैं यहाँ सहजयोग चले। इस प्रकार की ये जो भावना ! नहीं तो ज्यादा तर लोग जब बाहर जाते हैं तो उनको यही लगता है कि अब क्या मौज़ करें, चलो शराब पिये। ये करें, वो करें। इन सहजयोगियों को एक ही बीमारी कि और सहजयोगी कहाँ से आयेंगे ? बगैर सहजयोग के हम कैसे जी सकते हैं? ना क्लब जायेंगे, ना कुछ करेंगे, बस उनको यही एक लत है। तो इस प्रेम शक्ति से एक सूक्ष्म आनंद विचरता है। उसी के कारण हम ऐसे एक साथ, एक स्वर में डोलते हैं। हमारे मेयर साहब इटली में कहने लगे, कि हम चर्च में जाते हैं, तो पंद्रह मिनिट के बाद घड़ी देखने लगते है और जैसे ही आधा घंटा होता है सब लोग भाग खड़े हो जाते हैं। और आप क्या जादू करते हैं कि नौ नौ घंटे लोग बैठे हुये हैं अन्दर? बस प्यार का मज़ा ले रहे हैं, और क्या! आनन्द के सागर में डुबकियाँ लगा रहे हैं। और यही आनन्द का सागर अत्यंत स्वच्छ, अत्यंत निर्मल कर देता है। और वो ऐसी आपको शख्सियत देता है, ऐसा व्यक्तित्व देता है, कि आप तो चमक उठते ही हैं, लेकिन आपको मिलने वाले भी चमक जाते हैं। तो फिर से मैं यही कहूँगी, कि लड़ाई, झगड़ा, इसका नाम भी मैं नहीं सुनना चाहती। कोई जैसा भी है, उसकी ओर नाटक समझ के देखिये। आपका काम सहजयोग में टिकने का है। आप सब को अनन्त आशीर्वाद !