The Last Judgement by Yogi Mahajan

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अंतिम निर्णय 

The Last Judgement  Vol.III

माँ (O, Mother)

आपने मेरे ऊपर सबसे पसंदीदा आशीषों की बारिश की है,

किन्तु, कृपया कयामा के दिन (ईश्वरीयनिर्णय) 

भी मुझे याद रखें। 

मैं जानता नहीं कि मैं स्वर्ग जाऊँगा या नर्क, किन्तु जहाँ भी मैं जाऊँ, 

कृपया, सदा मेरे हृदय में निवास करें। 

  • योगी महाजन 

OR

, माँ 

आपने मेरे ऊपर सबसे चुनिंदा आशीषों की वर्षा की है,

किन्तु कृपया, मुझे याद भी रखें  

ईश्वरीयनिर्णय के दिन,

मैं नहीं जानता कि मैं स्वर्ग जाऊँगा या नर्क को,

किन्तु जहाँ भी मैं जाऊँ, कृपया मेरे अंतस में रहें। 

  • योगी महाजन 

“ईसा मसीह और महाविष्णु के विध्वंसक अवतरण श्री कल्कि के बीच मानव को स्वयं को सुधरने व परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करने योग्य बनने हेतु एक समय (मौका) दिया गया है। बाइबल इसे ‘अंतिम निर्णय’ कहती है – वह कि आपको परखा जाएगा। आपके कर्मों का निर्णय इस धरा पर होगा। 

यह अति महत्वपूर्ण है, क्योंकि सहज-योग ‘अंतिम-निर्णय’ भी है। यह वास्तविक है, सत्य है और इसे अपनाना अद्भुत है। आप समझ सकते हो, यद्यपि श्री माताजी का प्यार (वात्सल्य), आपको आपका आत्म-साक्षात्कार बहुत आसानी से प्रदान करता है और ‘अंतिम-निर्णय’ की पूरी कहानी, जो इतनी भयानकता (डरावनी) लिए प्रतीत होती है, वह बहुत सुंदर, नाजुक और उम्दा बना दी गई है और आपको विचलित होने की जरूरत नहीं है।”

प्रस्तावना

सन् 1541 ई में क्रिसमस की पूर्व-संध्या को माइकल-एंजेलो द्वारा सिस्टीन चपेल (चर्च) की दीवारों पर ‘अंतिम-निर्णय’ का चित्रण उजागर होता देख रोम की सांसें उसके आश्चर्य में रुकी रह गईं। उनकी समझ में यह नहीं आया था कि उन्होंने कलियुग के उत्कर्ष को सुलझाया था। यूरोप के कला और साहित्य के विकास-युगीन कलाकारों में से अकेले उनका ही ‘अंतिम-निर्णय’ का परिचय कराने वाला आश्चर्य-जनक स्वप्न था और ईसा की दयालुता के साथ, असंख्य चित्रों द्वारा मानवीय-भावना का सजीव चित्रण, जहाँ सात देवदूत (Angels) अंतिम-निर्णय (ईश्वरीय-निर्णय) की दुंदुभी बजाते हुए, उद्घोषणा करते हुए चित्रित हैं, दो देवदूत  जीवन की पुस्तक को अपने हाथों में पकड़े हुए हैं, सात भयानक पाप (गुनाह) पापात्माओं को नर्क में खींचते हुए, तथा मदर मेरी एक चोगे में  लिपटी हुईं, इस विशाल, महा-विध्वंस की साक्षी बनी हुई हैं। 

इस पेंटिंग (चित्र) का महत्व श्री माताजी के चित्त से नहीं बच पाया, “माइकल एंजेलो, आप कह सकते हैं, वे एक महान व्यक्तित्व हैं!  उन्होंने ईसा का वास्तविक चित्रण किया है ……यदि आप ‘अंतिम-निर्णय’ देखें, तो उन्हे इतने अच्छे से दिखाया गया है, आज क्या घटित हो रहा है!  वहाँ उन्हे एक सशक्त व्यक्ति के रूप में खड़े हुए चित्रित किया गया और एक अस्थि-पंजर के जैसा (अत्यंत कमजोर) नहीं दिखाया, जैसा कि कैथोलिक चर्च में वे दर्शाते हैं।”

श्री माताजी, ने तब रुककर ईसा के चित्र के सामने, जो कि एक सख्त चेहरे से दुष्टों को दंडित करने के लिए मुड़ते हैं, वे बोलीं, “इस अवतरण में मैं किसी का निर्णय करने या दंडित करने नहीं आई हूँ, मैं प्यार फैलाने आई हूँ!”

“सहज-योग में आपको किसी को भी जज करने (न्याय करने) की जरूरत नहीं है, क्योंकि आपकी कुंडलिनी यह कार्य करती है। यह एक टेप-रिकॉर्डर की तरह काम करती है और ‘अंतिम-निर्णय’ के समय आपके समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करेंगी। सहज-योग ‘अंतिम-निर्णय’ है। जो ईश्वर को प्यारे (भक्त) हैं, उन्हे उच्चतम स्थान दिया जायेगा! सबसे महत्वपूर्ण बात है कि परमात्मा की दृष्टि में आपकी क्या स्थिति है ?  वह अंतरंगता (संबंध) आपकी परमात्मा के साथ स्थापित होनी है, स्वयं की परमात्मा के साथ सहज-योग द्वारा एकाकारिता स्थापित करते हुए और तब परमात्मा से संबन्धित होना है। मोहम्मद साहिब ने चेतावनी दी थी कि कयामा के दिन (पुनर्जीविता) आपके हाथ बोलेंगे और आपके पाँव आपके दुष्कृत्यों का साक्ष्य देंगे।” (सुरा 17:12 को कुरान-शरीफ में देखें)

“हरेक व्यक्ति का भाग्य हमने उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द जोड़ा –  है।  कयामा के दिन (पुनर्जीविता) हम उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध करेंगे, यह कहते हुए यहाँ आपकी किताब है, इसे पढ़ो – बहुत हुआ, आज के दिन आपकी आत्मा आपसे हिसाब मांगेगी।”

इस सुरा से यह स्पष्ट है कि हमारी आत्मा हमारे समक्ष (विरोध में) साक्ष्य देगी। यह सत्य है कि कुंडलिनी हमारे जीवन की  विस्तृत योजना (Blue Print) को दिखाती है।  बाइबल कहती है कि, ‘जैसा आप बोएँगे वैसा ही काटेंगे।’ भागवत गीता भी चेतावनी देती है कि कर्म के चक्र से बचना असंभव है, किन्तु श्री माताजी के अवतरण ने कर्म के चक्र में हस्तक्षेप किया है। हम देखते हैं – कैसे ? 

जब हमारी कुंडलिनी का उत्थान होता है, वह हमारी बुद्धि को सामूहिक चेतना से जोड़ देती है और हमारे अहंकार को समाप्त कर देती है।  हमारी बुद्धि जो पहले हमारे अहंकार को तुष्ट करती थी, वह सामूहिक चेतना का उपकरण बन जाती है।  जैसा कि अब यह अहंकार को तुष्ट नहीं करती, यह बुद्धि दोहरेपन कि रिक्तता (Void) (निरर्थकता) हो जाती है और यह हमारे अच्छे या बुरे कर्मों की मध्यस्थता करना बंद कर देती है।  नयी चेतना के प्रकाश में हम अपने कर्मफलों का परित्याग करते हैं  और अकर्मी बन जाते हैं।  इस कारण, अहंकार की अनुपस्थिति में, एक आत्म-साक्षात्कारी कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।  इसके अलावा, जब हमारा अहंकार सामूहिक-चेतना में घुल जाता है हमारे कर्मों को गति देने /संचालित करने वाला उत्प्रेरक समाप्त हो जाता है और कर्म-चक्र अपना संवेग खो देता है।

आत्मसाक्षात्कार के पहले परम सत्य को जानने या इसे सत्यापित करने का हमारे पास कोई उपकरण नहीं था।  श्री माताजी की सहज-योग की अनुपम खोज ने हमारी कुंडलिनी को जागृति प्रदान की है और यह खोज – असत्य से सत्य के आशय को समझने का उपकरण बनी।  इसलिए उन्होंने हमारे चक्रों की देखभाल की और उनके बुरे कर्मों को अवशोषित किया।  किन्तु, प्रतीक्षा करें; उन्होंने हमें उनके विराट –स्वरूप में ले लिया और अपने सहस्रार के घर में हमारी कुंडलिनी को संभाला।  हमें वाममार्ग (Left-side) की  ओर जाने से रोकने हेतु हमारी इड़ा नाड़ी (Left-side) का शुद्धिकरण किया और इस तरह से हमारे भूतकाल के बोझों से हमें  मुक्त किया।  हमारे नकारात्मक चैतन्य को अवशोषित किए बिना हमारे चित्त को वर्तमान में स्थापित करना और अकेले निर्विचार या निर्विकल्प अवस्थाओं को पाना संभव नहीं हो सकता था।  

माइकल एंजेलो द्वारा प्रदर्शित सात मृत्यु –कारक पापों से ऊपर उठने की योग्यता आत्मसाक्षात्कार ने हमें प्रदान की और उनके देवदूतों की  तरह, हमनें आदिशक्ति माँ के दर्शन किए और उनके साम्राज्य का आनंद उठाया।  उन्होने हमें चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की। यह स्वतंत्रता हमें अपने चक्रों को स्वस्थ करने के साथ-साथ रखी गयी थी, या नहीं। निसंदेह हमारी कुंडलिनी की चेतना ने हमें हमारी कमियों को देखने (जानने) की योग्यता प्रदान की और उनपर विजय प्राप्त करने की शक्ति से भी सज्जित किया।  यद्यपि, यदि हमने विद्वेष की अवहेलना का चुनाव किया तब इससे बेहतर कुछ भी नहीं था, जिसे श्री आदिशक्ति कर सकती थीं।  वे प्यासे को पानी दे सकती थीं, किन्तु उसे पिला नहीं सकती थीं। 

नहीं, वे हमें पानी नहीं पिलाएंगी, क्योंकि वे नहीं चाहती थीं – उस  स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना, जिसे उन्होने स्वयं हमें प्रदान की थी। उन्होने हमें वे सभी उपचार दिये, किन्तु यदि हम उन्हें कार्यान्वित करने में असफल हुए, तब वे हमें हमारी आत्मा की विध्वंसात्मक शक्ति से नहीं बचा सकती थीं।  एक बार यह आत्म विध्वंस हमारी ज़िंदगी में शुरू होता है, हम उसे कैसे रोकें, नहीं जान पाएंगे।   

इसी तरह से, सामूहिकता के स्तर पर यदि एक समाज या देश अधर्म को अपनाता है, तब उस का विनाश अवश्यंभावी होना है।  यह स्पष्ट था उन सब सभ्यताओं के प्रारब्ध से, जिन्होने  अधर्म को अपनाया था।  उदाहरणार्थ-अपने गौरव के शिखर पर पहूंच कर रोम ने अपनी आत्मा को पीछे छोड़ दिया था।  धर्म के बिना कोई भी समाज अपने आप को नहीं संभाल सकता है।  

उस व्यक्ति का क्या होगा ?  जो अपनी दुर्भावना के मूल कारण को जानता है और तब भी उसकी उपेक्षा करता है।  

श्री माताजी:  “हमें जानना है कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने से लेकर और परमात्मा के राज्य में प्रवेश प्राप्त करने के  बीच, हम बहुत ज्यादा लड़खड़ा सकते हैं।  इसी को ‘योग-भ्रष्ट-स्थिति’ कहा गया है, जहां लोग योग को अपनाते हैं, किन्तु अभी भी अपनी प्रवृत्तियों से सम्मोहित हो गए होते हैं।  इस सम्मोहन के उदाहरण एक अहंकारी या पैसों को उन्मुख (धन लालची) व्यक्ति, दूसरों को काबू (शासन) करना चाहते हैं, वे लोगों का ग्रुप (एक समूह) बना सकते हैं, जिसे वे अपने विचारों से प्रभावित कर सकते हैं और इसलिए वे पतन की और उन्मुख हो सकते हैं और बाकी के लोग भी उनके साथ गर्त में जाएँगे।  सहज-योग में भी ऐसा होता है।  सहज-योग में यह आपकी समझ की स्वतन्त्रता पर छोड़ दिया गया है कि आपको स्रोत (Mains)  से जुड़े रहना है आपको अपने विकास (वृद्धि) से लगे रहना है आपको उस सम्पूर्ण (ईश्वरत्व) से जुड़े रहना है और यहाँ वहाँ एक व्यक्ति से नहीं, जुड़ना है, जो बाकी के लोगों को अपने अधीन (कब्ज़े) में रखने की कोशिश कर रहा है।” (28-09-1979)      

आतंकवाद से लड़ाई लड़ते हुए राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसी तरह की बात की थी, “यदि आप हमारे साथ नहीं हो, तो आप हमारे विरोधी हो।” वास्तव में इसका कोई पर्याय नहीं है, यदि एक योगी अपनी नकारात्मकता को पता नहीं करता, तब यह नकारात्मकता उसके चक्रों में निश्चय ही संग्रहित हो जाएगी और उसे श्री आदिशक्ति के सुरक्षा ‘कवच’ से बाहर कर देगी।  “यदि आप कुछ गलत काम कर रहे हो और हृदय की गहराई से इसे जानते हो, तब कृपया इसे ना करें, अन्यथा श्री कल्कि आपके जीवन से विलुप्त हो जायेंगे।” (नवम्बर, 1982)

माइकल एंजेलो की शानदार चित्रकारी में ऐसे लोग सात घातक पापों द्वारा नर्क में खींचते हुए दिखाये गए हैं!  

श्री माताजी के ‘अंतिम-निर्णय’ के स्वप्न में उन्होने ऐसे पापियों को नर्क में क्रोधित होकर फेकतें हुए नहीं दर्शाया था, इसके बजाय उन्होने बताया, “आप के सहज-योग में आने के बाद ही आपका न्याय होता है।  इस उद्देश्य से, हालांकि आपको सहज-योग में आने के बाद पूर्णतया समर्पित होना होगा।  सहज-योग को प्राप्त करने के बाद, यानि इसमें सबकुछ, इसमें  रमना पड़ता है, जमना पड़ता है और स्थापित होना पड़ता है। बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं, “श्री माताजी, हम सहज-योग में कब स्थापित होंगें ?”  उत्तर आसान है।  मान लो, आप नाव को खे (चला) रहे हो, तब आप जान जाते हो, नाव कब संतुलन में स्थापित हो गई है।  इसी तरह एक बायसिकल पर सवारी करते हुए आप जान जाते हो कि आप दायें / बाएँ ना जाकर स्थिर हो सवारी करने लगे हो।  इसी प्रकार सहज-योग में भी हमारी ढृढ़ता (स्थायित्व) समझ में आ जाती है।  इस विषय में योगी द्वारा सही निर्णय स्वयं ही लिया जाता है।”   

सन् 2002 में सहज-योग की नैया स्थापित हो गई।  श्री माताजी अपने बच्चों की उन्नति से संतुष्ट थीं और धीरे-धीरे अपने बच्चों की नौकाओं को तूफानी मौसम का सामना कराने हेतु पीछे हटने लगीं। “सहज-योग के पहले युग (कालखंड) में तुम्हें व्यक्ति रूप (मानव रूप) में मेरे दर्शन की जरूरत महसूस हुई, जैसा कि हम संस्कृत भाषा में कहते हैं ‘ध्येय’, जो कुछ प्राप्त करना था, वह ‘ध्येय’ आप अपने सम्मुख रखना चाहते थे।  अतः, अब जब पूरे समय लक्ष्य ‘ध्येय’ को सामने चाहते थे और आपने प्रसन्न, सुरक्षित और आनंदमय महसूस किया, जब आपके समक्ष वह ध्येय व्यक्ति-स्वरूप उपलब्ध थीं।  तब दूसरे युग में (कालखंड) अब आपकी उतनी इच्छा नहीं होगी कि माँ को व्यक्ति-स्वरूप वहाँ होना चाहिए।  आप यह जवाबदारी स्वयं मुझसे ले लेंगे।  यह दैवीय इच्छा है, जिसके बारे में मैं आपको बता रही हूँ और जिस पर आपको आज ही से आगे कार्य करना होगा।  मैं तुम्हारे साथ हूँ।  आपको मालूम है किन्तु इस ‘ध्येय’ को इस मानवीय शरीर में रहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं नहीं जानती कि अगर मैं इस शरीर में वास्तव में हूँ या नहीं।  किन्तु एक बार यह दैवीय-इच्छा  कार्य करना आरंभ कर देती है, आप बहुत विशाल (असाधारण) चमत्कार घटित होते हुए देख पाएंगे।” (05.05.1984)

श्री माताजी हमारी नसों से भी ज्यादा, हमारे समीप हैं (अभिन्न हैं) और तब भी दूर हैं – यही है महामाया की विशेषता !  23 फरवरी सन् 2011 को श्री माताजी ने अपने सांसारिक लक्ष्य (मिशन) को परिपूर्ण किया और विराट स्वरूप को पुनः धारण किया।  किन्तु, अपने विराट स्वरूप को धारण करने से पूर्व उन्होने अपने हरेक बच्चे को विराट के साम्राज्य में प्रवेश करने की कुंजी (Key) प्रदान कर दी थी।  जब योगियों  (बच्चों) ने अपना सहस्रार खोला, वे वात्सल्य से मुस्कराईं और अपने बच्चों को मृदुलता से दुलारा।  

2002

Chapter-1

दक्षिण मुंबई की घूमती हुई समुद्र-तटीय सड़क पर काल्वे की ओर  यात्रा करते हुए, श्री माताजी का काफिला नववर्ष की पूर्व-संध्या पर ट्रेफिक-जाम में फंस गया था।  दो घंटे से ट्रेफिक जाम के कोमल होने का कोई संकेत नहीं दिखाई दिया।  श्री माताजी की सुरक्षा दल के योगियों का धैर्य टूट गया था और उन्होने श्री माताजी से घर वापसी हेतु सलाह दी, परंतु श्री माताजी अपने बच्चों की पुकार से बाध्य थीं ,जो उनके लिए इंतज़ार कर रहे थे और असीम धैर्य के साथ मुंबई नगरवासियों के चैतन्य में वृद्धि हुई, जबतक कि मुंबई का ट्रेफिक जाम नहीं हट गया।  पूजा पर पहुँचने पर, अपने बच्चों को शांतिपूर्वक ध्यान में बैठे देखकर श्री माताजी की पूरी थकान गायब हो गई थी।  उनका हृदय द्रवित हो उठा, यह जानकार कि इतने लंबे इंतज़ार के बावजूद कोई स्थान से उठकर नहीं गया।  

साधकों को मंगलमय-निर्णय लेने की आज्ञा प्रदान करने हेतु समयचक्र नववर्ष की पूर्व संध्या को रुक सा गया था।  श्री माताजी ने अपने बच्चों को प्रभावित करते हुए कहा, “ यदि तुम वास्तव में मुझे प्यार करते हो, तुम्हें दूसरों को प्यार करना होगा- जो सहज-योगी नहीं हैं और उन्हें आत्म-साक्षात्कार देने का प्रयत्न करें।  क्योंकि आप जानते हैं कि मेरी उम्र बड़ी लंबी है और मैं कितनी दूर जा सकती हूँ …… मेरी पूजा में उपस्थित होना, मेरे प्रति कोई उपकार नहीं है या पूजा हेतु कुछ करना, मेरे प्रति कोई एहसान नहीं है।  मेरी महानतम पूजा है, मानव मात्र की पूजा और यदि तुम सहज-योग को प्राप्त कर सकते हो और उतनी जल्दी सहज-योग को फैला सकते हो, मैं तुम्हारा बहुत-बहुत उपकार मानूँगी, कृतज्ञ हूंगी।  मैंने बहुत कड़ी मेहनत की है।  वास्तव में मैंने बहुत ही कड़ी मेहनत की है यह शरीर (तन), यह मन, मेरा पूरा स्वास्थ्य –सब कुछ जो भी मैंने किया है लोगों को बचाने के लिए किया है!”

सहजी बच्चों ने उन्हें वचन दिया।  दो सप्ताह में ही वे साधकों की भारी  संख्या के साथ आए।  श्री माताजी मकर-सक्रांति पूजा पर उनके पुष्पार्पण से प्रसन्न थीं।  

सत्रह मार्च को श्री शिव-पूजा  के लिए बर्फ से ढँकी (आच्छादित) चोटियों के साथ कैलाश-पर्वत भगवान शिव की निवास स्थली के रूप में पुणे-प्रवास पर पूजा मंच पर अवतरित हुआ।  श्री माताजी अपने बच्चों को शिवजी के आनंदमय निवास की ओर ले गईं और वहाँ स्वयं को कैसे संभालना उसकी मातृ-वत सलाह के साथ, उन्हें समझाया कि श्री शिव और शक्ति के व्यवहार में अंतर है।  जब एक बच्चा गलत चीजों में लिप्त हुआ, उन्होंने उसे नष्ट कर दिया, जबकि शक्ति बच्चे कि रक्षा हेतु चिंतित हुई हैं। “मैं तुम सबको आगाह करना चाहती हूँ, हालांकि तुम सब मेरे बच्चे हो-सावधान रहें। अपने द्वारा उठाए गए हरेक कदम का आंकलन करने की कोशिश करें।  निस्संदेह, मैं तुम्हें आश्रय (अवलंबन) देने को तुम्हारे साथ हूँ, तुम्हारी मदद के लिए, तुम्हारी रक्षा के लिए, किन्तु भगवान शिव की सीमा से आगे नहीं।  मैं उनसे आगे नहीं जा सकती हूँ….. उनकी मूलभूत विशेषता है – क्षमाशीलता, क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हो !  किन्तु, यदि वे क्षमा नहीं करते हैं, तब आपका अंत हो गया समझो !  एक बिन्दु तक, हो सकता है वे क्षमा कर सकें, किन्तु उस बिन्दु (सीमा) के बाद, यह बहुत ही कठिन परिस्थिति (दशा) है।”

हाल ही में सहज-योग में आए हुए एक भ्रष्ट राजनेता पर पूजा ने एक गहरी छाप छोड़ी, किन्तु अब भी उसका योग डांवा-डोल था, उसने श्री माताजी के समक्ष रिश्वत से एक बड़ी रकम (राशि) के संग्रह करने  को स्वीकार किया और उनसे क्षमा याचना की। उन्होने पूछा, “आपने रिश्वत क्यों ली?”  

उसने उत्तर दिया, “इस राजनैतिक पद को पाने के लिए मैंने इतने सारे धन का निवेश किया, अब मुझे इसे वसूलना है।”

श्री माताजी : आखिर आपने क्यों धन का निवेश किया?

राजनेता: मेरे पास कोई विकल्प नहीं था!  यदि मैंने इतना सारा धन राजनीति में नहीं निवेश किया होता, तो कोई भी मुझे वोट नहीं देता (नहीं चुनता)।  अतः जबतक कि मैं पैसा खर्च करता हूँ या कोई अवैधानिक समर्थन देता हूँ, लोग मेरे से खुश रहते हैं और वे मुझे अपना वोट देते हैं।  

श्री माताजी:  जैसे ही आप सत्ता से मुक्त हो जाएँगे, कोई भी आपको नहीं पूछेगा या पहचानेगा।  आपने क्या उपलब्धि पाई ? आप यह सब किसके लिए कर रहे हैं?

“श्री माताजी, मैंने यह सब अपने बच्चों के लिए किया।” उसका उत्तर था। 

श्री माताजी: कल को यही बच्चे आपको जूतों से पीटेंगे !  वे क्यों आपका सम्मान करेंगे ? आपका कोई चरित्र नहीं है। कौन आपकी देखभाल करेगा ?  आप को समझना चाहिए कि ये बेकार कि लालसाएँ हैं,ये आपको आत्मा (स्वयं) से दूर ले जाती हैं…… ऐसी सत्ता के पीछे भागते रहने से क्या फायदा है।  आपका अपने पर कोई नियंत्रण नहीं है और पूरी दुनिया को नियंत्रित करना चाहते हो! 

उस राजनेता ने श्री माताजी को अपनी बुद्धि से सुना, किन्तु उन्हें अपने हृदय से नहीं माना।  यद्यपि उस राजनेता ने अपनी अनैतिक तरीकों से हड़पी हुई धनराशि सहज-योग को दान करने की पेशकश की, श्री माताजी ने मना करते हुए कहा, “कितना भी अकूत धन हो, किसी को आत्मसाक्षात्कार नहीं  दे सकता है।”

यद्यपि, अपने कारुण्य में श्री माताजी ने उसे क्षमा कर दिया और उसे खुद को अपराधी महसूस नहीं करने को कहा, किन्तु उसे आगाह किया कि आत्म-साक्षात्कार के बाद उसे अपने तौर-तरीकों को सुधारना होगा और यदि उसने ऐसा नहीं किया तब वे उसे श्री सदाशिव के क्रोध से नहीं बचा पायेंगी, “हरेक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है और जब वे क्षमा करते हैं, तो वे मानते हैं कि उन्होने तुम्हें एक बड़ा कृपांक दिया है।  और उनके अंदर वह प्रतिक्रिया पैदा होती है-एक क्रोध की, उनके विरोध में, जिन्हें उन्होंने क्षमा कर दिया और वे और बड़ी गलतियाँ करने की कोशिश करते हैं।  तुम्हें प्रकाश (ज्ञान) मिल गया है और उस प्रकाश में यदि आप ठगने लगते हैं, तब वे बहुत ही भयानक (क्रोधी) हो उठते हैं।”

श्री माताजी के जन्म-दिवस पूजा (दिल्ली) पर उन्हें उस भ्रष्ट राजनेता की याद दिलाई गई, “आप दूसरों को कैसे धोखा दे सकते हो, अगर आप सहजयोगी हो ?  सहज-योग में भी कुछ लोग हैं, जिन्होंने इसे व्यापार बना दिया था और पैसा बनाया।  इस तरह लालच कुछ ऐसी चीज है, जो आपमें पिंगला नाड़ी से आती है और आप इसे उचित (न्याय-संगत) ठहराने लगते हैं।  रजोगुण में प्यार के लिए कोई स्थान नहीं है।  अब यह लालच इतना विस्तृत हो गया है कि समूचा राष्ट्र बर्बाद हो रहा है।  हम  कभी उन्नत नहीं हो सकते।  किन्तु, यदि आप अपने देश को प्यार करते हो, आप इस तरह का काम नहीं करेंगे।  किन्तु, वह प्यार (देश-प्रेम) दिखाई नहीं देता…… असीम प्रेम-बंधन सम्पूर्ण विश्व को जोड़े रखता है।  यह प्रेम की शक्ति पहले से ही कार्यरत है, सिर्फ आपको उसका एजेंट (अभिकर्ता) बनना, ऐसे लोग बनना जो इस प्रेम को संचारित कर सकें…….यह बहुत आश्चर्यजनक है कि कैसे यह प्रेम, जो परमात्मा के प्रेम से प्रबोधित (अन्तः प्रकाशित) है – वह सम्पूर्ण विश्व को परिवर्तित कर सकता है।  यह विचार कैसे मेरे पास आया था और कैसे यह सफल (समृद्ध) हुआ।  यदि आप सब मुझे इस लक्षय में मदद करें, मुझे पूरा विश्वास है, सहज-योग बहुत से काम कर सकता है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाए हैं।”

श्री माताजी ने आगे कहा, “ये अनैतिक प्रवृतियाँ सहज-योग द्वारा नष्ट होनी चाहिए। केवल तभी हम परमात्मा और स्वयं के बारे में जान सकेंगे।”

तेईस मार्च को श्री माताजी के वैश्विक-परिवार ने उन्हे बधाई दी, वे इससे अभिभूत हो गईं, “सहस्रार में रहते हुए यदि आप प्यार की लहरें बहते हुए देखते हैं, हो सकता है कुछ लोग इसका फायदा उठा सकें, महत्वपूर्ण नहीं है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता……. किन्तु जब प्यार का माहौल होता है, आप देखते हैं-आप परिपूर्ण हैं आप परेशान नहीं होते हैं, क्योंकि आप हरेक को प्यार करते है…….. संभव है-आप बहुत महान हो, बहुत मेधावी हो सकते हो, बहुत सा धन कमाते हो, जो भी है-वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है।  सबसे महत्वपूर्ण क्या चीज है वो है सब आपको प्यार करते हैं……… आनंद केवल निर्वाज्य-प्रेम से ही आता है।  यदि आपके प्यार में शुद्धता (पावित्र्य) नहीं है, आप आनंद नहीं उठा सकते।  

“मैंने यह शब्द सुना है कि श्री माताजी का एक सपना है।  नहीं, नहीं, नहीं; मेरा कोई सपना नहीं है।  मुझे तुम्हें बताना होगा।  मेरी साधारण बात है कि हरेक को प्यार करना चाहिए और एक पवित्र-प्रेम आपकी ज़िंदगियां बदल देगा, यह पूरे विश्व को परिवर्तित कर देगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।  यह नैसर्गिक-रूप से आपके भीतर घटित होना चाहिये, क्योंकि आपके सहस्रार खुल गए हैं…….. मैं समझती हूँ कि कलियुग में जन्म लेकर यह कार्य करना (सहस्रार-खोलना) बहुत कठिन कार्य है, किन्तु मेरे लिए कठिन नहीं था।  जो कुछ भी घटित हुआ, जिन्होंने भी मुझे तकलीफ दी, किसी भी तरीके से मैं इसे कार्यान्वित करती थी-प्यार के इस प्रवाह द्वारा।  मैं हरेक जगह घूमी, जहां भी संभव था, कैसा-भी मेरा स्वास्थ्य रहा था या अन्य कोई हालात-मैं बिलकुल भी चिंतित नहीं थी और मैंने आप सबका बहुत आनंद उठाया।” 

उस भ्रष्ट राजनेता का हृदय द्रवित हो गया।  प्रेम का कुंड (जलाशय) जो उसके हृदय में बंद पड़ा हुआ था, अचानक फूट पड़ा, उसके सहस्रार से प्यार की लहरों की बारिश होने लगी और उसके चित्त को आनंद के महासागर में समावेशित कर दिया। वह श्री माताजी के चरण-कमलों तक पहुंचा और आनंदाश्रुओं से चरणों का प्रक्षालन किया।  वह समय की लीक से अलग हो गया और जब श्री माताजी मंच छोड़ने वाली थीं, ‘जय श्री माताजी’ के उद्घोष से ही उसे समझ आ गई कि उन्हें विदा होना था। 

वह आनंद से घायल (अभिभूत) हो घर पहुंचाऔर एक शिशु की भांति बिना नींद की गोलियां सेवन किए, गहरी नींद सोया।  वह ज़िंदगी के लिए एक नई उमंग के साथ जागा और उसने उन सबको राम-लीला मैदान में श्री माताजी के जन-कार्यक्रम में आमंत्रित करना शुरू कर दिया, जिनसे उसने बलपूर्वक रिश्वत इकट्ठी की थी। 

दिल्ली का रामलीला मैदान उत्सुक-साधकों के सागर से भर गया था।  पंच महाभूत भी उत्साह से उमड़      पड़े।  श्री इंद्रदेव ने श्रद्धा से सम्मानपूर्वक प्रकट हो, श्री माताजी के आगमन के कुछ समय पूर्व रास्ते की धूलि को धो डाला था।  श्री पवनदेव भी पीछे नहीं रहे और आंतरिक गर्मी को अपने भारी झोंकों से शीतलता प्रदान करने पधारे।  श्री माताजी ने जीवन के हर क्षेत्र से (हर जाति, पंथ और संप्रदाय से) आए हुए बच्चों को अपने प्यार (वात्सल्य) के पल्लू से गले लगाते हुए कहा, “यदि हमारे हृदय इस प्यार से आलोकित हो जाएँ, तब सभी विशालकाय समस्याएँ जो हमारे सामने हैं, एकदम समाप्त हो जाएंगी ……. चाहे वह समस्या भारत की हो, या किसी दूसरे देश की हों, केवल एक चीज का अभाव है- वह है प्यार।  

उस राजनेता की कुंडलिनी उठी, किन्तु उसकी बायीं-विशुद्धि की देखभाल करने रुक गई, उसने बलात छीनी हुई रिश्वत की रकम को लौटा दिया था।  

अगले सप्ताह वह श्री माताजी के पालम-विहार निवास पर आया-होली के अवसर पर उनके चरणों में पुष्पार्पण हेतु और (उसमें) पुष्पार्पण के बुके (पुष्प-गुच्च्छ) में अभाव-ग्रस्त महिलाओं के ट्रस्ट हेतु चेक (cheque) था।  पहले श्री माताजी ने उस चेक को वापस करने को कहा।  तब उन्होंने  उस चेक के साथ दी हुई टिप्पणी (नोट) पढ़ी, “माँ ! यह आपके पथ-भ्रष्ट (खोए हुए) बच्चे की मेहनत की कमाई है,  कृपया ‘ना’ नहीं कहिएगा, इससे मेरा दिल टूट जाएगा।”

श्री माताजी की आँखें दयार्द्र हो उठीं। “हमें दूसरों के बारे में सोचना चाहिए।  उनकी समस्याओं के बारे में सोचना चाहिए और सोचना चाहिए –हम कैसे उनकी सहायता कर सकते हैं। हमें उन्हें क्षमा करना होगा, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा…….”

चूका हुआ लक्ष्य प्राप्त हो गया…… वात्सल्य की सर्वव्याप्त शक्ति, जिसने पूरे ब्रह्मांड को एक सूत्र में बांधा, जिसने तारों को चलायमान किया और जिसने सभी पदार्थों को अपनी और आकृष्ट किया, उसने उसी प्यार की शक्ति को श्री माताजी की करुणामयी, दयार्द्र आँखों में देखा।   

यह एक संयोग-मात्र नहीं था।  देवी महात्म्य में एक समानान्तर कथा आती है कि एक वैश्य जिसकी संपत्ति से उसके संबंधियों ने जान-बूझकर उसे बेदखल कर दिया था।  वह मेधा-ऋषि के पास पहुंचा , जिन्होंने उसका चित्त पास ही स्थित एक वृक्ष कीओर आकर्षित करते हुए कहा, “ इन पक्षियों को देखो, यद्यपि ये भूखे हैं, फिर भी ये अपने नवजात बच्चों (चूजों) की चोंच में अन्न के दाने डाल रहे है।  मनुष्य भी अपने नवजात बच्चों के प्रति मोहवश आशान्वित होते हैं, इस उम्मीद से कि ये बच्चे बुढ़ापे में उन्हें उपकृत करेंगे, आप देख रहे हैं, ना ?  मनुष्य भी उनकी तरह भ्रांति-वश खुदगर्जी के चक्रवात (भ्रमर) में पड़ते हैं। 

इस संसार में जीवन की जन्म-मरण की परंपरा को कायम रखते हुए, ममतामय-भ्रमर से युक्त शक्तियों द्वारा मोह के गर्त में गिराए गए हैं। 

आपको इस बात से आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि ब्रह्मांडीय काल-चक्रों के बीच में वही महामाया भगवान विष्णु की योग-निद्रा में प्रवेश करती हैं और उसी की माया से यह सम्पूर्ण जगत भ्रांतिमय हो रहा है।  यह आशीर्वादित देवी महामाया मनुष्यों के ज्ञान को बलपूर्वक पकड़कर भ्रम में डाल देती हैं। उसी समय, वे ही सीमा से परे अनंत ज्ञान (परा-विद्या) की हेतुभूता भी हैं, जो मनुष्य को सांसारिक तुच्छ जीवन के भ्रम से मोक्ष प्रदान करती हैं।”

तीन वर्षों के पछतावे और भक्ति के बाद देवी माँ प्रसन्न हुईं और उसकी सबसे बड़ी इच्छा को प्रदान करने हेतु उसके सामने प्रकट हुईं।  सांसारिक मोह-माया के भ्रम को दृष्टिगत रखते हुए वैश्य ने अहंकार से मुक्ति को चुना। देवी माँ प्रसन्न हुईं और उसे सर्वव्याप्त दैवीय शक्ति से आशीर्वादित किया। 

देवी महात्म्य में वैश्य और राजनेता जिसे आत्म-साक्षात्कार मिला-हमारे संज्ञान में  थे, वे हमारे अपने ही थे।  परमात्मा के प्यार के उच्चतम स्रोत से हमारी एकाकारिता स्थापित होने से पूर्व उपरोक्त दोनों वैश्य और-उस राजनेता द्वारा की गई गलतियां हमारे द्वारा की गई गलतियों से भिन्न नहीं थीं। 

श्री माताजी की करुणा में यह रहस्य उद्घाटित हुआ कि मेडिकल-साइन्सेस के आल इंडिया इंस्टीट्यूट पर चिकित्सा-विज्ञान के विद्वानों को कैसे इस गलती के एहसास से जोड़ा जाए, “गलती यह है कि मेडिकल-साइन्सेस में मनुष्य को व्यक्तिगत (व्यष्टि) माना जाता है और सम्पूर्णता (समष्टि) से जुड़ा हुआ नहीं माना जाता है।  हम सब उस सम्पूर्ण से जुड़े हुए हैं…… क्योंकि हम सब सम्पूर्ण (परमात्मा) से जुड़े हैं,  हमारी सभी समस्याएँ भी परमात्मा से जुड़ी हुई हैं।“

बिना संपूर्णता (परमात्मा) के ज्ञान के, मेडिकल साइंस के ज्ञान ने डॉक्टर्स की बुद्धिमत्ता को विवेकहीन बना दिया है। अहंकार के हाथों में खेले गए, वे यह स्वीकार नहीं कर सके कि इस विश्व का सृजनहार (निर्माता) ईश्वर है। उन्होने विश्व के सृजन के तर्कशील (वैज्ञानिक) प्रमाण खोजे।  किन्तु उनका सीमित-मस्तिष्क उस असीमित-निर्माता को कैसे जान सकता था!  यद्यपि, श्री माताजी की कृपा से, वे अपनी बुद्धि के भ्रम को तोड़ सकने में समर्थ हो सके और प्यार के सम्पूर्ण-स्रोत  (परमात्मा) से जुड़ सके, और उस वैश्य और राजनेता की तरह, डॉक्टर्स भी अपनी गलती को देख सके-“आनंद प्यार से आता है और तथाकथित ज्ञान से नहीं आता-प्यार करना यानि परमात्मा की इच्छा के साथ रहना,  बाकी सभी एक खेल था !”

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2002

अध्याय-2

तेरह अप्रैल को श्री माताजी के पालम-विहार आवास पर शालिवाहन नव संवत्सर के आगमन की उद्घोषणा करने हेतु एक नारंगी रंग के ध्वज पर एक छोटा लोटा (pitcher) स्थापित-कर ध्वजारोहण किया गया। एक छोटी पूजा के अवसर पर श्री माताजी ने यह रहस्योद्घाटन किया, “शालिवाहन शासक देवी माँ के पुजारी थे और वे उन्हें एक शॉल भेंट किया करते थे।  आरंभ में उन्हे सातवाहन कहा जाता था, क्योंकि वे सात चक्रों की पूजा करते थे और यही सातवाहन अंततः शालिवाहन में परिवर्तित हुए, किन्तु शालिवाहनों का निशां (प्रतीक) वही रहा।  वे नारंगी ध्वज (गुड़ी) को लहराते हुए, उसके ऊपर एक लोटा शालिवाहन-शासन के प्रतीक-स्वरूप भवन पर स्थापित करते थे।  यह लोटा (कुंभ) एक विशेष स्वरूप का होता था, जो कुंडलिनी का प्रतिनिधित्व करता है।  इसलिए वे देवी माँ के भक्त थे और उनके अनुगामी थे।”

उत्खनन में सातवाहन शासन काल की ऐतिहासिक वस्तुएँ दिल्ली के राष्ट्रीय-संग्रहालय में प्रदर्शन हेतु उपलब्ध हैं। जब सहज-योगीजन उन वस्तुओं के सामने खड़े गुए, वे चैतन्य से परिपूर्ण लग रहे थे (चैतन्य से भर गए थे)।

इक्कीस अप्रैल को श्री माताजी ने टर्की को ईस्टर-पूजा से आशीर्वादित किया।पूजा का आयोजन ‘किल्योज’ के विलक्षण सागर-तटीय रिज़ॉर्ट पर किया गया था, जो कि इस्तांबुल के बाहर था।  श्री माताजी तुर्की में कट्टरवाद के उत्थान से चिंतित थीं, कैसे ईसा मसीह को इसकी वजह से कष्ट उठाने पड़े थे, “और मेरे साथ भी वही कर रहे हैं, वे मेरी आलोचना कर रहे हैं, किन्तु मैं बहुत ज्यादा शक्तिशाली हूँ, क्योंकि प्यार किसी भी चीज से ज्यादा शक्तिशाली होता है……. ईसा ने इस धरती पर जन्म लिया, सभी धर्मों में एकाकारिता (समन्वय) बनाने हेतु।  सभी देवी-देवता हमारे चक्रों पर स्थित हैं……. सपूर्ण विश्व के पुनर्जीवन हेतु कार्य कर रहे हैं।”

वे प्रसन्न थीं, उनके बच्चों ने उनकी चैतन्य-लहरियों को अवशोषित कर लिया था, “इस दिन मेरे आशीर्वाद आपको हैं कि परमात्मा आपको अपना प्रेम प्रदान करें और आपके अंदर प्यार करने की क्षमता, जो आपके पास होनी चाहिए, जो आपकी ज़िंदगी को पूर्णतया बदल देगी और आप इतने सशक्त-व्यक्तित्व हो जाएँगे, बहुत ही सशक्त सहज-योगी।  आप अद्भुत उदाहरण और चमत्कार कर सकते हैं, यदि आप प्यार की समझ को विकसित कर चुके हैं।”

दूसरे दिन, मूल तत्व-वादियों (Fundamentalists) ने उत्कट निंदा-भाव का शत्रुतापूर्ण प्रचार प्रदर्शित किया।  वस्तुतः योगीजन संध्याकालीन कार्यक्रम की जन-प्रतिक्रिया को लेकर चिंतित थे।  उन्हें स्मरण कराया गया कि श्री माताजी ने उन्हें ईस्टर-पूजा में आशीर्वादित किया था और यह कि प्यार की शक्ति सभी विपत्तियों से ज्यादा शक्तिशाली थी। उन्होंने श्री माताजी से उत्साहपूर्वक प्रार्थना की और परम-चैतन्य कार्यान्वित हो उठा था।  कार्यक्रम स्थल (हाल) सभी की आशा से परे क्षमता से भी ज्यादा भरा हुआ था।  इसके अतिरिक्त हरेक साधक को बिना जूते हटाए ही आत्म-साक्षात्कार मिल गया था।  श्री माताजी का चैतन्य इतना सशक्त था कि उन्होंने कटाक्ष-मात्र से एक बहुत बीमार योगिनी को स्वस्थ कर दिया था।  डॉक्टर्स ने उसे हिलने तक के लिए मना किया था और पूरी रात वह कराहती रही थी,  क्योंकि वह पूजा में सम्मिलित नहीं हो पा रही थी। उसकी इच्छा-शक्ति इतनी तीव्र (शुद्ध)  थी कि योगियों की मदद से वह पूजा-कार्यक्रम में पहुँच पाई।  जैसे ही श्री माताजी ने उस पर अपनी चिर –परिचित मुस्कान डाली, उसकी आँखें आंसुओं से भर आईं ।  वह प्रातः पूर्णतया व्याधिमुक्त (स्वास्थ्य) हो जागी।  उसे सुप्रभात के साथ ज्ञात हुआ कि वह किसी बड़ी व्याधि से मुक्त हो चुकी थी।  वह श्री माताजी के चरण-कमलों में अपनी गहन कृतज्ञता ज्ञापित करने हवाई-अड्डे पर पुष्पार्पण हेतु पहुँची।  आश्चर्यजनक रूप से एक कस्टम-अधिकारी सादर उसके पास पहुँचे, “टेलीविजन कार्योक्रमों की परवाह मत करो, हम जानते हैं कि वे अत्यंत ही आध्यात्मिक व्यक्ति हैं।”

इसी बीच पुलिस-प्रधान, जो कि टेलीविजन के शत्रुतापूर्ण-भावनाओं से प्रभावित था, वह कुछ मुश्किलें पैदा करने लगा।  वह योगिनी उस पुलिस अधिकारी को श्री माताजी के पास आत्म-साक्षात्कार हेतु लेकर गई।  श्री माताजी ने एक हाथ से उसकी कुंडलिनी उठाई और उसे शीतल लहरियों का सशक्त झोंका महसूस हुआ और उसे पता हो गया कि श्री माताजी कौन थीं !

वास्तव में पूजा का आशीर्वाद विश्व-भर के सभी बच्चों के लिए सामूहिक आशीर्वाद था, यद्यपि प्रकट-रूप से वे पूजा में उपस्थित नहीं थे।  इस पूजा आशीर्वाद ने आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के राष्ट्रपति का संरक्षण किया, जो कि एक सहज-योगी थे।  उनके देश में सत्ता का तख्ता-पलट (coup) था, किन्तु वे उससे बच निकले।  उनके विरोधी उन्हें नहीं ढूंढ सके-वे अदृशय हो गए थे, कबेला पहुँचने पर श्री माताजी ने टिप्पणी की, कि यह उनके सहज-योग के प्रति पूर्ण-निष्ठा की वजह से घटित हुआ था, उस पूर्ण-विश्वास ने उन्हें श्री माताजी की सुरक्षा प्रदान की।  श्री माताजी अपने बच्चों के समर्पण से प्रसन्न हुईं और कहा कि आगामी सहस्रार-पूजा-दिवस आध्यात्मिक-इतिहास में अति महत्वपूर्ण दिन था, क्योंकि, उसी दिन से सामूहिक-रूप से आत्म-साक्षात्कार देना संभव हो सका। 

पूजा से पहले, संगीत कार्यक्रम में श्री माताजी ने सामूहिक-पिंगला नाड़ी (collective right side) को नीचे लाने के लिए कड़ी मेहनत की।  यद्यपि कार्यक्रम के दौरान वे पूरे समय हँसती रहीं और संगीत का आनंद लेती रहीं।  उनका चित्त उन अगुआओं के अहंकार पर कार्यान्वित रहा, जिन्होने बहुत सारी जवाबदारी ओढ़ ली थी।  संगीत-संध्या की समाप्ति तक उन लोगों का अहंकार श्री माताजी की वात्सल्य-शक्ति में घुल चुका था और उनकी कुण्डलिनियाँ आनंद में नृत्य करने लगी थीं।  

श्री माताजी ने पुरानी स्मृतियों को ताजा करते हुए कहा, “जब मैं सहस्रार खोलने की सामूहिक घटना को खोज रही थी, यह लोगों का अहंकार था, जो मुझे नीचे की ओर ले जा रहा था, मुझे उनके अहंकार से लड़ना पड़ा था, क्योंकि मैं एक साधारण संस्कारों-वाली महिला हूँ, जिसे कोई घमंड नहीं है, कुछ भी नहीं है। इसलिए लोग मुझे दबाया करते थे, सभी तरह की बातें मुझसे किया करते थे, किन्तु मैं उन्हें समझ गई थी, उन्हें अहंकार की समस्याएँ थीं…….. आपकी पहुँच प्यार और समझदारी से परिपूर्ण होनी चाहिए।  वे अज्ञानान्धकार से बाहर आ रहे हैं……. इसलिए धीरे-धीरे यदि आप करुणा की भावना को विकसित कर सकें, उनके प्रति प्यार विकसित कर सकें।  मुझे विश्वास है, उन्हें उन्नत करने के लिए आप बहुत कुछ कर सकते हैं।” 

श्री माताजी की करुणा ने सामूहिक सहस्रार को विस्तृत कर दिया, उनके कारुण्य की लहरों ने साधकों के भीतर छिपी हुई नकारात्मकता के सूक्ष्मतम कणों को धो डाला। इसके बाद, उनके संदेश का सार स्पष्ट हुआ, “सर्वप्रथम आपको स्वयं को समझना चाहिए।  यदि आप स्वयं को नहीं समझते (जानते), आप दूसरों को कैसे समझ सकते हो ? यदि आप स्वयं को ठीक नहीं कर पाते, आप दूसरों को कैसे ठीक कर सकते हो?  जागरूकता ऐसी हो कि आपको जानना चाहिए कि इस विश्व में क्या घटित हो रहा है और आप उसमें क्या सहायता कर सकते हैं…… जब आप इसे समझने लगते हैं, एक प्रकार की ईश्वरीय-सहायता आपके पास आयेगी, जो समस्या का हल निकाल देगी।”

उनकी सशक्त वाणी ने बच्चों के मस्तिष्क को आश्चर्य में डाल दिया था और बिना अवरोध के उन्होंने श्री  माँ के सहस्रार से रिसते हुए निरानंद का निःसंकोच पान किया।  

यद्यपि धरती का सहस्रार बुरी हालत में था।  इराक और अफगानिस्तान में युद्ध उग्र हो उठा।  किन्तु एक भयावह ताकत ने मानव-जाति को डरा दिया, यह आतंक (डर) बिना चेहरे तथा युद्ध-क्षेत्र के था, यह हर जगह प्रभावशाली हो रहा था- हवाई जहाज़, विमान-पत्तनों, ट्रेनों, रेल्वे-स्टेशनों, जहाज़ों, सरकारी इमारतों, सार्वजनिक चौराहों, विद्यालयों, आणविक प्रतिष्ठानों, बांधों, पुलों और साधारण ग्रामीणों के अहातों तक व्याप्त हो रहा था। यह आतंक आतंकवादी राक्षसों से संबद्ध था। निस्संदेह, श्री माताजी (आदिशक्ति) इस ज़िम्मेदारी का वहन कर रही थीं, किन्तु बहादुर सहज-योगी कहाँ थे?  वे सहज-योग का आनंद उठा रहे थे। 

श्री आदिशक्ति पूजा के अवसर पर, उन्होंने योगियों को स्मरण कराया कि सहज-योग सम्पूर्ण विश्व के रूपान्तरण के लिए है और उनसे गतिशील हो जाने का तथा विश्व-शांति हेतु काम करने का आग्रह किया।  

“आज्ञा चक्र पर मैंने तुम्हें बताया कि तुम्हें क्षमा करना होगा, किन्तु इसका यह मतलब नहीं होता है कि आप लोगों को गलत कार्य करने दें। क्योंकि आप क्षमा करना चाहते हैं, यह बहुत आसान है, लड़ें नहीं, कुछ भी नहीं कहें, मात्र स्वयं को अलग कर लें, मात्र क्षमा करें – नहीं ?  आप जाइये और उस व्यक्ति से बात करें, उसे बताएं- यह गलत कार्य है।  आपको इसका सामना करना है।  यदि आप इसका सामना नहीं कर सकते हैं, तब आप बेकार हैं, आपके आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का क्या उपयोग है ?”

पूजा के दौरान श्री आदिशक्ति ने अपने बच्चों के मध्य-हृदय (चक्र) को प्यार की शक्ति से सशक्त कर दिया। देवी माँ को अपने हृदय में विराजमान करके योगीजनों ने समाज में चल रही अनैतिक गतिविधियों, आक्रामकता पर काबू पाने तथा मानव कष्टों से मुक्ति हेतु करुणा, प्यार और दयालुता से काम करने की ज़िम्मेदारी ली। 

विश्व में जहाँ शांति थी, प्रकृति सामंजस्य में थी; ऋतम्भरा प्रज्ञा अपनी प्रकृति अनुसार चल रही थी, समयानुसार वर्षा धरती माँ का पालन-पोषण कर रही थी और उसे उपजाऊ बना रही थी,  किन्तु हिंसा ने प्रकृति-चक्र को बाधित किया और परिणाम में सूखा पड़ा।  वैश्विक-हिंसा की बाढ़ ने प्रकृति को क्षति पहुंचाई और भारत में मानसून के उचित समय पर आने में देरी हुई। इटली में अल्प-वर्षा की वजह से बुआई समय से चूक गई।  इसके अतिरिक्त, पीने के पानी की कमी हो रही थी।  श्री गुरु पूजा पर योगियों ने श्री माताजी से सुरक्षा की प्रार्थना की।  उन्होंने स्पष्ट किया – मानव के प्रकृति के साथ सामंजस्य के महत्व को, और एक बंधन समस्या को दिया।  पंचतत्वों ने कर्तव्य-परायणता से जवाब दिया और इटली में मौसम की पहली बारिश हुई।  एक सप्ताह बाद मानसून भारत पहुँचा !

तथापि, दुनिया और अधिक भयावह ताकतों की घुड़की (धमकी) से लड़खड़ा रही थी, किन्तु बच्चे इससे अनभिज्ञ थे।  उन्होंने इसकी अविलंब तुरंत जरूरत का जवाब नहीं दिया या जवाबदारी नहीं महसूस की और आत्म-निष्ठ  बने रहे।  श्री माताजी ने इशारा किया, “आपको बाहर जाना होगा, लोगों से चर्चा करनी होगी।  वे तुम्हारा अपमान करेंगे, वे तुम्हें तकलीफ देंगे, वे सभी तरह की कुचेष्टाएँ करेंगे, आप पहले से ही आत्म-साक्षात्कारी हैं…….. आप विनम्र होइये और विनयपूर्वक सहज-योग का प्रसार करने का प्रयत्न कीजिए, उग्रता या आक्रामकता से नहीं……. गुरु का अर्थ यह भी नहीं, कि आप सहज-योग के बारे में भाषण देते रहें- नहीं।  गुरु का अर्थ है- वह व्यक्ति जो दूसरों को आत्म-साक्षात्कार देता है।“

बच्चों ने उन्हें वचन दिया, “जिन्हें भी हम मिलेंगे, हम उन तक प्यार का संदेश प्रसारित करेंगे।“

पूजा के बाद फ्रांसीसी (फ्रेंच) सहज योगी दो दिवसीय सेमिनार के लिए रुक गए।  जैसा कि वास्तविक गुरु-पूर्णिमा दो दिन बाद थी,  योगियों ने हैंगर (विशाल अर्धगोलाकर टेंट) में एक छोटी पूजा की तैयारियाँ कीं और कैसल (किले) में एक संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु श्री माताजी की अनुमति माँगी। योगियों की इच्छा ऋतम्भरा -प्रज्ञा से जुड़ गई थी और श्री माताजी प्रसन्न थीं, “यदि गुरुपूर्णिमा पर (वास्तविक दिवस पर) पूजा आयोजित होने जा रही है,  यह एक मंगलमय अवसर होगा, यदि मैं उपस्थित रही !

पूजा का यह संदेश (SMS) इटली में सब जगह प्रसारित हुआ और यह संदेश जंगल की आग की तरह फैल गया। योगियों ने सब कुछ छोड़ा और अपनी गाड़ियों में खुशी से सवार हो चले।  तीन सौ से ऊपर सहजी बच्चे अपने गुरु की अगवानी करने हेतु उत्साहपूर्वक एकत्रित हुए।  गुरु (श्री माताजी) अपने बच्चों से वात्सल्यपूर्वक बोलीं, हृदय से हृदय तक, पूर्ण अंतरंगता से, एक मित्र की भांति, ना; उससे भी बढ़कर एक वात्सल्यमयी (प्यारी) माँ की भांति।  उन्होंने अपने बच्चों के घट (हृदय) को इतने मातृवत-प्रेम से भर दिया, चंद्रदेव भी उस अमृत का आस्वादन करने हेतु विनम्रता से झुक गए थे।  

यह पूजा ऐसी सहज पूजा थी, ऐसी पूजा पहले कभी नहीं देखी गई।  यह एक जीवन-पर्यन्त का अनुभव था- स्वप्नवत जिसका मात्र एहसास ही लिया जा सकता था, बताया नहीं जा सकता- चार घंटों तक अनंत आनंद ! भजन, कव्वालियों और बांसुरी तथा वॉयलिन पर रागों की प्रस्तुति।  बच्चे नहीं जान पाये कि वे चाँद पर नृत्य कर रहे थे या चाँद ही उनके साथ नृत्य कर रहा था।  अरुणोदय (प्रभात) के पूर्व के समय, स्वर्ग-के-तारों ने आकाशगंगा जैसा एक धवल-मार्ग श्री माताजी के निवास-स्थल कैसल (castle) तक उन्हें सुरक्षापूर्ण ले जाने हेतु  प्रकाशित कर दिया था और सहजी बच्चे अपनी वात्सल्यमयी माँ की प्यार-भरी थपकियों से अपने स्वप्नों में जाग उठे थे।  

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2002

अध्याय-3 

श्री माताजी जुलाई के अंत में न्यू-जर्सी पहुँची।उन्होंने आश्रम से आगे एक सुंदर विला (Villa) बना रखी थी और उसे भारत से लाई हुई पच्चीकारी से सजाया था।VOA टेलीविज़न के एक साक्षात्कार-कर्ता ने अभी-अभी राष्ट्रीय औषधि संस्थान (National Institute of Medicine)  वाशिंगटन डी सी  में हुए सहज-योग के प्रदर्शन के बारे में पूछा। 

श्री माताजी बोलीं, “ओह, वे बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए थे और चालीस डॉक्टर्स आगे आए, किन्तु वे एक लड़की (सहज-योगिनी) को परखना चाहते थे।  एक डॉक्टर ने पूछा, “मुझे क्या समस्या (तकलीफ) है ?”

वह सहज-योगिनी बोली, “हृदय”। 

और उस डॉक्टर की दो महिने पहले हृदय की बाय-पास शल्य-चिकित्सा हुई थी।  वे सब डॉक्टर्स स्तंभित (आश्चर्य-चकित) थे। 

साक्षात्कार-कर्ता ने पूछा, “हमारे दर्शकों के लिए आपका क्या संदेश होगा ?”

श्री माताजी – “संदेश इस तरह से है, अब, क्योंकि यह आखिरी-निर्णय (Last Judgement) है और इस समय यदि आपको आत्म-साक्षात्कार नहीं मिलता है, आप लुप्त हो जाएँगे।  अतः सभी को अपना आत्म-साक्षात्कार लेना चाहिए।  यही ‘अंतिम-निर्णय’ है।”

आगे, उस साक्षात्कार-कर्ता ने सर सी पी के बारे में पूछा कि यद्यपि शुरुआत में उन्होंने सहज-योग में विश्वास नहीं किया था, उनके जीवन में कैसे यह रूपान्तरण घटित हुआ।  

सर सी पी , “यह बिलकुन सत्य है कि जब उन्होंने (श्री माताजी ने) सहज-योग का प्रचार शुरू किया था, मुझे संदेह था।  ठीक इसलिए नहीं, कि मैं उनका पति हूँ, किन्तु मैं एक नौकर-शाह भी हूँ, जिसे इस बात के लिए अभ्यासित किया गया है कि किसी चीज़ को तब तक स्वीकार न किया जाय, जो संदेहों से परे सत्यापित सिद्ध न हो जाय और इसलिए, जब इन्होंने मुझे कहा कि वे लोगों का अंतर-परिवर्तन (आंतरिक परिवर्तन) करने की दृष्टि से सहज-योग में स्वयं को व्यस्त करने जा रहीं थीं, मुझे आश्चर्य था, वास्तव में यह संभव हो सकेगा, क्योंकि मैंने अपने पेशे (नौकरशाही) में बहुत से लोगों के साथ कार्य किया।  मैंने उनके सामने एक अच्छा आदर्श रखा, किन्तु मैं नहीं सोचता कि मैं किसी का रूपान्तरण कभी कर पाया।  शायद, वे थोड़े-से मेहनतकश हो गए, ज़्यादा समर्पित हो गए, किन्तु आंतरिक परिवर्तन होना, ऐसी एक घटना है, जो एक असंभव चमत्कार (कौशल) था……किन्तु वर्ष 1973 में कुछ ऐसा घटित हुआ। (वे बताते हैं कि कैसे श्री माताजी ने लंदन (U.K.) में एक नशेड़ी की अपने घर में सेवा-सुश्रुषा करके उसका उपचार किया और उसे स्वस्थ कर दिया था)

अब यह देखकर, मैं ज़्यादा संदेहवादी नहीं रह सकता था। इस तरह यह एक व्यक्तिगत अनुभव था, जिसने मेरे पूरे नज़रिए को बदल दिया था।  और तब मैंने दूसरों को भी इसी तरह देखना शुरू किया, उस नशेड़ी का ही अकेला मामला नहीं था।  वे उनसे फोन पर संपर्क-कर आए और वहाँ किसी चीज़ से (अनुभव से) आकर्षित होते हुए, उनकी (श्री माताजी की) ओर उन्मुख हुए। 

(चर्चा) बातचीत अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था की ओर मुड़ गई। 

एक अमेरिकी योगी ने शिकायत की, “महान अमेरिकी स्वप्न पूरा हो गया है, किन्तु अभी भी पैसे का स्वाद हमारी स्वाद-कलिकाओं (Taste buds) में बना हुआ है।”

श्री माताजी:, “यह समस्या उनकी नाभि की है, जितनी ज़्यादा धन-दौलत उनके पास है, उन्हें और चाहिए।  किन्तु जो पैसों के पीछे भाग रहे थे, वे गरीब बने रहेंगे, क्योंकि उनके पास अपनी धन-दौलत का मजा उठाने का वक्त कभी नहीं रहा।”

वह योगी निराश था, “श्री माताजी, अमेरिका कभी इस समस्या से मुक्त नहीं हो पायेगा।”

श्री माताजी ने पूछा, “क्यों ?”

वह योगी बोला, “क्योंकि वे (अमेरिकी) गुरुओं के पीछे भागते हैं, जो कि पैसे लेते हैं।”

श्री माताजी ने टिप्पणी की, “यह दुख की बात है कि हमने इन गुरुओं के पीछे पड़े हुए बहुत-से अच्छे साधकों को खो दिया है,  किन्तु आखिरकार, वे लोग मनुष्य हैं।  और मानव की हैसियत से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद उनके विचार बदल जाएंगे।  वे आत्मा की शांति और आनंद को खोजेंगे।”

अमेरिकी-नाभि को स्थिरता प्रदान करने के लिए श्री माताजी ने अठारह तारीख को अमेरिका को श्री कुबेर-पूजा से आशीर्वादित किया।  उन्होंने बच्चों को अपना चित्त उनकी आत्मा पर लगाए रखने हेतु और आत्मा की शक्तियों का आनंद उठाने हेतु सलाह दी, “एक बार वह आनंद आप प्राप्त करते हैं, आप अपने लालच में नहीं पड़ते…… जैसे कि आपको बीमारियाँ है, लालच भी उनमें-से एक है।  उस पर प्रभुत्व पाने का तरीका है-अत्यंत ही उदार बनना….. दूसरी चीज़ है-इस लालच से मुक्त होने का तरीका है, आप सामूहिकता में सामाजिक-कार्य करने का प्रयत्न करें…….यदि आपका नाभि-चक्र संतुष्ट है, आपने श्री कुबेर की स्थिति प्राप्त कर ली है।”

पूजा के दौरान, उन्होंने सामूहिकता की कुंडलिनी को उठाया, किन्तु कुंडलिनी वापस नाभि-चक्र पर आ कर बैठ गई।  उन्होंने महसूस किया कि जब तक वे सामूहिकता के नाभि-चक्र की अति-व्यस्तता (Right sidedness )  की चैतन्य-लहरियों को अवशोषित नहीं कर लेतीं,  सामूहिकता की कुंडलिनियाँ सहस्रार पर नहीं ठहर पाएँगी।

उनकी करुणा ऐसे थी कि उन्होंने कभी अपने शरीर (स्वास्थ्य) की चिंता नहीं की और अपने बच्चों के खातिर, अपनी नाभि की यंत्रणा-दायक व्यथा को सहन किया।  यह एक पहाड़ को उठाने जैसा था,  जिसे वे अकेले ही कर सकीं थीं।  वे रात में सो नहीं पाईं, उनके घुटने सूज गए थे और वे उल्टियाँ करतीं रहीं, उल्टियाँ तभी रुकीं, जब उनके बच्चों से उन्होंने नकारात्मकता को उखाड़ फेंका।  योगी उनके स्वास्थ्य को लेकर बहुत ज़्यादा चिंतित थे और उन्होंने श्री माताजी से क्षमा-याचना की।  उन्होंने उनसे शाम के कार्यक्रम को निरस्त करने हेतु प्रार्थना की, किन्तु श्री माताजी ने कहा कि वे स्वस्थ हो जाएंगी।  अंत में, दोपहर के आसपास  उनके घुटनों की सूजन उतर गई थी।  और कार्यक्रम से पूर्व उन्हें आराम करने दिया।  

वे जागीं, हजारों सूर्य की तरह चमक रहीं थीं।  उनका भौतिक-शरीर चमत्कारपूर्ण पुनर्जीवित हो उठा।  शरीर पंच-तत्वों से बना है और वे सब उनके चक्रों में विद्यमान थे, वे उन्हें नियंत्रित कर सकीं, अवशोषित कर सकीं, उन्हें साफ कर सकीं और निस्संदेह उन्हें श्री कुबेर की शक्ति से सँवार सकीं।  और श्री कुबेर की शक्ति न केवल योगियों के लिए सम्पन्नता लाई, किन्तु न्यूयॉर्क कार्यक्रम में महान साधकों को भी ले आईं!

उन्होंने साधकों को गले लगाया और उनसे शिष्टता और मधुरता से और उनसे बड़े विनोदपूर्वक बात की, कि उन्होंने जब उनके सामने अपने हाथ फैलाए, उन्हें उनके वात्सल्य के प्रवाह की अनुभूति हुई।  वे सहज-योग के उत्तरजीवी (follow-up) कार्यक्रम में दुबारा आए और भी अधिक ज्ञान-पिपासा (जिज्ञासा) लिए!

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2002

अध्याय-4

 श्री माताजी सितंबर में विवाह-उत्सव हेतु कबेला पधारीं।  हमेशा की तरह योगिनियों के सहज-विवाह हेतु प्रार्थना-पत्रों की संख्या योगियों की संख्या से बहुत ज़्यादा रही।  हर देश ने अपने देश के प्रार्थियों की वकालत की।  श्री माताजी यह जानकार निराशा हुईं कि सहज-योगी अभी भी अपने-अपने देशों से चिपके (अभि-निर्धारित) हैं।  श्री गणेश पूजा पर उन्होंने योगियों को याद दिलाई, “हम वैश्विक संप्रदाय हैं।  हम किसी एक देश से नहीं पहचाने जायें, कि हमारे लोगों की शादियाँ हों, कि हमारे लोग वहाँ हों-इस प्रकार की चीजें मैंने देखी हैं और मुझे ये जानकार बहुत दुःख होता है कि आप अभी सहज-योग का व्यवहार नहीं समझे हो। 

योगियों ने श्री माताजी के सबसे पहले पुनर्जन्म-लिए (आत्म-साक्षात्कारी) को उन्हें श्री माताजी के चरण-कमलों की ओर पथ-प्रदर्शित करने की प्रार्थना की।  जैसे ही उन्होंने अपनी अबोधिता को स्पर्श किया, उनकी चेतना शुद्ध हो गई और उन्होंने अपनी पहचान, देश, प्रजाति, पंथ, परिवार और दूसरी हस्ती या अस्तित्व के रूप में समाप्त कर दी थी।  आत्म-साक्षात्कार ने उन्हें बोध प्रदान किया कि वे सब विश्व-व्यापक व्यक्तित्व हैं और विश्व-व्यापकता की हैसियत से, बिना मोह-ग्रसित हुए (बिना चिपके) हरेक चीज़ में श्री माताजी के आशीर्वाद को देख सके। 

अगले दिन, श्री माताजी ने अपने विश्व-व्यापक स्वप्न से दूल्हे और दुल्हनों को अवगत कराया, “सहज-योग में यदि आप अपने गृहस्थ्य -जीवन में प्रवेश कर रहे हैं, आपको अपनी जवाबदारी समझनी होगी।  यह बहुत बड़ी जवाबदारी है।  यह जवाबदारी सम्पूर्ण विश्व के लिए है, क्योंकि हमें सम्पूर्ण विश्व को रूपांतरित करना है।……. यदि आप सहज-योग में विवाह कर रहे हैं,  आपको जानना होगा कि यह एक बहुत बड़ा युद्ध है,  बुराई, अन्याय और सभी प्रकार के कुप्रबंधन के विरोध में।  हम एक सुंदर विश्व बनाना चाहते हैं और एक सुंदर विश्व बनाने के लिए हमें वो लोग चाहिए, जो सुंदर हों।”

दूल्हे/दुल्हिनों के युगलों ने पवित्र अग्नि-हवन कुंड की सात बार परिक्रमा की और श्री माताजी के विश्व-व्यापक स्वप्न को विश्व में प्रसारित करने कि सौगंध ली।  

अगले सप्ताह वे अपने वैश्विक स्वप्न को पूर्ण करने हेतु लॉस एंजिलिस वापस लौट आईं, किन्तु उनके स्वप्न  को अमेरिकी-अहंकार की बेड़ियों ने ग्रहण लगा दिया।  ये बेड़ियाँ (बंधन) केवल समर्पण और भक्ति से दूर हो सकतीं थीं।  दुर्भाग्य से, ये दोनों ही गुण अमेरिकी जीवन-दर्शन से लुप्त थीं।  श्री नवदुर्गा पूजा की पूर्व-संध्या को अफ्रीकी-योगियों द्वारा प्रस्तुत नृत्यों का कुछ योगी मज़ाक उड़ा रहे थे।  श्री माताजी ने कहा, “उनका मज़ाक मत उड़ाओ, इसके बजाय, उनसे सीखो-भक्ति कैसे की जाती है।”

अमेरिकी लोगों के पास भक्ति और समर्पण करने का नुस्खा नहीं है।  सच है, भारत में श्रीमदभगवदगीता ने भक्ति की चर्चा की।  अठारह अध्याय तीन भागों में बाँटे गए हैं और हर भाग में छः अध्याय हैं।पहले के छः  अध्याय ‘कर्म’ को समर्पित हैं। अगले छः अध्यायों में ‘भक्ति-मार्ग’और परमात्मा व गुरु के प्रति समर्पण की महिमा है,  श्री कृष्ण ने ‘अनन्य-भक्ति’ को सर्वोच्च रखा।  ‘अनन्य-भक्ति’ का अर्थ है, जहां परमात्मा के अलावा दूसरा कोई न हो।  किन्तु बिना आत्म-साक्षात्कार के अनन्य-भक्ति में उतरना असम्भव है।  शायद, अनन्य-भक्ति के इस गुण (विशेषता) को मानव-जाति में आत्म-जागृति के द्वारा उत्पन्न करना श्री आदि-शक्ति के अवतरण पर छोड़ दिया गया था।  आत्मा की जागृति न सिर्फ अनन्य-भक्ति विकसित करती है, ……………………………………………….) बल्कि भक्ति का आनंद भी प्रदान करती है।  

अनन्य-भक्ति के प्रवाह में श्री आदि-शक्ति अपने भक्तों को अपने दर्शन से-परिपूर्ण करतीं हैं। 

सत्ताईस अक्तूबर, पीरू झील नवरात्रि पूजा पर अमेरिकी बच्चों ने अनन्य-भक्ति से सुबुद्धि और संरक्षण के आशीर्वाद के  लिए प्रार्थना की।  

पूजा की पूर्व-संध्या पर सामूहिकता ने एक नाट्य-प्रस्तुति दी, जिसमें एक छोटी बच्ची जो सुबुद्धि कि दृष्टि से देख सकती थी।  श्री माताजी उसकी विवेक-बुद्धि से बहुत प्रसन्न हुईं। “यदि आपमें सुबुद्धि है, तो आप तुरंत जान पायेंगे कि यह गलत है…… मुझे तुम्हें एक चीज़ बतानी है, यह है आपकी सुबुद्धि, जो आपकी सुरक्षा करेगी।  आपकी सुबुद्धि आपको अनजाने में मदद करेगी… यदि आपको सुबुद्धि है, आप परमात्मा के सबसे अच्छे उपकरण हैं, (समस्याओं को) हल करने के लिए।”

महान देवी माँ की पूजा-अर्चना को समर्पित प्रमुख पवित्र साहित्य देवी महात्म्य में वर्णित है,  कैसे माँ दुर्गा अपने भक्तों की सुरक्षा (आंतरिक/बाह्य) राक्षसों से करती है।  इस ग्रंथ के रचयिता ऋषि मार्कन्डेय विस्तारपूर्वक बहुत-से आशीर्वादों का वर्णन करते हैं,  जो वे भक्तों पर  न्यौछावर करती हैं।  सर्वप्रथम, वे अपने भक्तों को बहुत प्यार करती हैं  और अपने प्यार (वात्सल्य) को फैलाने हेतु उन्हें अपने उपकरण के रूप में चाहती हैं। अतः वे हमेशा अपनी देख-रेख (सुश्रुषा) करती हैं,  ताकि वे सुरक्षित रहें।  यह सुरक्षा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक ही नहीं, बल्कि उनकी सुरक्षा उनके अहंकार-जनित दिक-परिवर्तन (भटकाव) से भी करतीं हैं।  भक्त-जन देवी माँ से उनके मार्गदर्शन हेतु प्रार्थना करते हैं,  ताकि वे दैवीय-गुणों की ओर विकसित होने के लिए सही कार्य करें। देवी माँ अपने भक्तों का मार्गदर्शन इस तरह से करती हैं कि जब वे गलती करते हैं, उन्हें वापस अपने मार्ग पर लाने के लिए, अपनी माया का उपयोग करतीं हैं।  वे माया और सुबुद्धि (सुज्ञता) दोनों 

 

ही हैं, – माया (भ्रांति), जो पथ से दूर भगाती हैं और सुबुद्धि ऐसी कि सर्व-व्याप्त प्रेम की शक्ति की समझ से भीगी हुई है और साधक को उसके पथ की ओर विकसित करती है और जो साधक (भक्त-जन) माया के द्वारा देखता है, उसे ‘अंतिम-निर्णय’ से मुक्त करतीं हैं। 

पूजा प्रवचन में, उन्होंने बताया- कैसे उनकी ओर  बढ़ना है, “मुझे तुम्हें कुछ बताना है, जो आपको सहज-योग के प्रसार के पहले करना है, वह है – कृपया स्वयं का आकलन करें। केवल देखें कि आप पर्याप्त विवेकशील हैं। यह भी देखें कि आपको श्री माताजी का आशीर्वाद प्राप्त है।  इसके लिए हमारे पास जानने के बहुत-से तरीके हैं।  सर्वप्रथम है ध्यान-धारणा और फोटो के सामने अपने चैतन्य को देखें और स्पष्टतया स्वयं का सामना करें।  यदि आप एक आत्म-साक्षात्कारी हैं,  क्या आप एक अच्छे (वास्तविक) आत्म-साक्षात्कारी हैं या नहीं ?  क्या आपमें गहनता है या नहीं ?  क्या आपकी चैतन्य-लहरियाँ कार्य करती हैं या नहीं ?  यदि आप वो देख सकते हैं, आपकी समझ में आ जाएगा कि एक समर्पित विवेकशील (प्रबुद्ध) व्यक्ति होना, सभी महत्वाकांक्षाओं से ऊपर है।  यही गुण आपको आनंद प्रदान करेगा।  अन्यथा, यह केवल जीवन जी रहे, दूसरे मनुष्यों की तरह होगा……

और विवेकशीलता है-स्वयं को परखने में; आप कितने लोगों को प्यार करते हैं, कैसे प्यार करते हैं, उनसे कैसे बात करते हैं, आपको उनसे क्या चाहिए ….. स्वयं में झांकों अपने अंतर अवलोकन द्वारा, दूसरी चीज़ है ध्यान-धारणा और तीसरी चीज़ है चैतन्य-लहरियाँ ग्रहण करना।”

जैसे ही बच्चों ने स्वयं का आकलन किया, बायीं विशुद्धि पर दबाव बढ़ गया, योगियों की बायीं विशुद्धि को संतुलित करने के लिए श्री माताजी ने उन्हें आश्वस्त किया कि यद्यपि यह समय ‘अंतिम-निर्णय’ का है, किन्तु वे उनका निर्णय देने नहीं आयीं थीं, किन्तु उन्हे सुरक्षा प्रदान करने आईं थीं, उन सब समस्याओं से जिन्हें अमेरिका ने स्वयं धनाभिमुख होने से पैदा कीं थीं।  अंततः, योगियों की कुण्डलिनियाँ उनकी विशुद्धि को पार कर चुकी और उनका पथ-प्रदर्शन श्री माताजी के आनंददायक घर की ओर किया।  योगियों ने ‘अंतिम-निर्णय’ से सुरक्षा प्रदान करने हेतु अपने संरक्षक (ईसा-मसीह) को धन्यवाद दिया।  

श्री माताजी उन्हें अंतिम-निर्णय के लिए तैयार कर रहीं थीं।  जब तक कि उनकी अपनी कुण्डलिनियाँ उन्हें संरक्षण प्रदान कर सकती थीं,  किन्तु श्री माताजी ने उन्हें बार-बार कहा कि वे उन्हें परखने नहीं आयीं थीं, परंतु उनकी अपनी कुण्डलिनियाँ स्वयं उनके विरोध में साक्षी होंगी।  

भौतिक-स्तर पर उनका संरक्षण ज़्यादा बेहतर दिखाई दिया।  हरेक योगी का अपना अनुभव था।  बच्चों ने श्री माताजी के संरक्षण का अनुभव आपस में बताया।  एक योगी ने एक चमत्कार-पूर्ण कहानी बताई, कैसे उन्होंने उसे मौत के अत्यंत नाज़ुक छोर से बचाया था।  दूसरे योगी ने बताया कि उसकी सुरक्षा किस तरह से उसके पास पहुँची, उसे उसका आभास तक नहीं हुआ।  अभी हाल-ही में, वह अपने कार्य-स्थल की ओर नियमित रास्ते से जा रहा था, अचानक उसने दूसरे रास्ते से जाने का निर्णय लिया-उसे मालूम ही नहीं था, क्यों ?   किन्तु जैसे चैतन्य ने ही उसे खींचकर उस रास्ते पर डाल दिया था।  बाद में, उसे ज्ञात हुआ कि उसके नियमित रास्ते पर एक बड़ी दुर्घटना घटित हुई थी, जिस समय वह उस रास्ते की ओर बढ़ रहा था और यदि वह उसी रास्ते से चलता जाता, उसकी बहुत बुरी तरह से टक्कर हुई होती !

पीरू झील के किनारे दिवाली पर जलाई गई मोमबत्तियों की दमक में बच्चों ने अपनी प्यारी वात्सल्यमयी माँ के प्रति ज्वलंत-प्यार को प्रदर्शित किया।  हरेक मोमबत्ती ने श्री माताजी को साधकों की कुण्डलिनियों की याद कराई, जो अपने प्रज्वलन हेतु प्रतीक्षारत थी।  जब विश्व के सभी साधकों की कुण्डलिनियाँ प्रकाशित होंगी-वही वास्तविक-रूप से दिवाली होगी।  

श्री माताजी प्रसन्न थीं कि अमेरिका जैसे धनागम तृष्णा-पीड़ित देश में, योगियों ने पैसों की सुरक्षा के पीछे भागना बंद कर दिया था और उनकी आत्मा की अन्तर्जात -सुरक्षा की अभय-शरण-स्थली को अपना लिया था।  आत्मा के प्रकाश में, वे अपने अंदर अच्छाई और बुराई को साफ़-साफ़ देख सकते थे और सही निर्णय पर आ सकते थे। 

पूजा-प्रवचन में, उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया-कैसे ध्यान में निर्विचार हुआ जाता है, “जब आप ध्यान में होते हो-कोशिश करो कि इसे किसी तरह का उत्सव नहीं बनाएँ-नहीं।  ध्यान का अर्थ है-अपने स्वयं को शांत करना और उस गहन-महासागर में जाना है, जो आपके स्वयं के अंदर स्थित है….. । ध्यान का मतलब है- ईश्वरीय शक्ति की सतत उपलब्धता, जो आपकी सभी चिंताओं /आकांक्षाओं को कम करती है।  वह आपको वास्तविक-बोध प्रदान करेगी और परमात्मा से सम्पूर्ण-योग प्रदान करेगी।  परमात्मा से बिना योग पाए, सहजयोग करने का क्या फ़ायदा है ?”

श्री माताजी के चित्त से बच्चे ध्यानस्थ हो गए।  एक अत्यंत शांत झील की तरह, जब हवा की सब काना-फूसी बंद हो जाती है,  योगियों की आत्मा का अंतर्निहित गुण उनकी

अन्तर्जात-शक्ति परावर्तित हो उठी।  उसकी सर्व व्यापक शांति में मन में बुलबुलाते (फूटने वाले) भूतकाल और भविष्यत काल के विचारों की लहरों का साक्ष्य होना, संभव हो गया था।  अपने अंतर्निहित अमृत के गुणों के सामने योगीजन रूखे और अप्रासंगिक लग रहे थे।  उनके ईश्वरीय-योग की पहुँच ने उन्हें पिछला सब भूलने में मदद की।  धीरे-धीरे ईश्वरीय-योग ने योगी के प्रेम को श्री माँ की गहराई में अवशोषित कर लिया था और उन्हें शांति का आशीर्वाद दिया।  पूजा की आनंददायी चैतन्य-लहरियाँ पूरे विश्व में शांति लाने हेतु फ़ैल गईं।  

2002

अध्याय-5

अहा, गणपतिपुले ! वैश्विक सहज-परिवार सागर तट पर अपनी प्यारी माँ के श्री चरण-कमलों को पखारने हेतु इकट्ठा हुआ।  पंच तत्व अपना सम्मान व्यक्त करने में ज़्यादा पीछे नहीं थे।  सागर की लहरें खुशी से उछल उठीं और आकाश श्री माताजी के आगमन की उद्घोषणा के साथ गुलाबी-वर्ण से रक्ताभ हो उठा।  उनका प्रांगण अति कुशल संगीतकारों से शोभायमान हो उठा और एक सप्ताह-भर तक चलने वाले गीत-संगीत महोत्सव ने चैतन्य-लहरियों को प्रचुरता से भर दिया।  

उत्सव की शुरुआत श्री क्रिसमस पूजा से हुई।  पूजा प्रवचन में श्री माताजी ने स्पष्ट किया, “जब हम ईसा-मसीह का जन्म-दिन मना रहे हैं, हमें उनकी त्याग की क्षमता को मनाना चाहिए, उनके प्यार की शक्ति को भी मनाना चाहिए…….. यदि तुम्हें सम्पूर्ण विश्व को बचाना है, तो हमें श्री ईसा-मसीह की तरह बनना होगा। अपने अंदर उनके जैसा त्याग का स्वभाव विकसित करना होगा।  आपको अपनी कमाई में से कुछ त्यागना होगा,अपने देशों के लिए थोड़ी शान-शौकत को त्यागना होगा, क्योंकि आप सहज-योगी हैं….. ये अति-गरीब लोग मेरे दिल को तकलीफ़ से ऐंठ रहे हैं;  मुझे नहीं मालूम उनकी कैसे मदद की जाये।  किन्तु, यदि आप लोग निश्चय करें, आप अपने आसपास घूमकर देखें और जो अति-दरिद्री हैं, उनकी मदद करने के तरीके ढूंढें।  मैं जानती हूँ, वे सहज योगी नहीं हैं।  उनके सहज-योगी होने की उम्मीद न करें।”

सहजी बच्चे करुणा के महासागर में भीग गए थे।  जो भी थोड़ा-सा पैसा हरेक के पास था, उन्होंने सहज ही अनाथ बच्चों और निराश्रिताओं के लिए एन जी ओ (अशासकीय संगठन/ प्रबंधन) को दान कर दिया।  श्री माताजी ने उनके लिए नोएडा (U.P.) में सुंदर घर (आशियाना) बना दिया था और सहजी बच्चों ने इस जवाबदारी को आगे वहन करने का वचन दिया।  

उनकी करुणा ने गणपतिपुले के महासागर को विस्तारित कर दिया।  सामूहिकता की कार्य-शीलता (गतिज-ऊर्जा) ने काम शुरू कर दिया।   हरेक योगी ने एक भाई/बहिन के लिए, जो गणपतिपुले में खर्च नहीं उठा सकता था, उसे वह सब प्रदान किया, दुल्हिनें जिनके पास साधन अल्प-मात्रा में थे, उसकी देखभाल की, कैम्प्स (Campus) की प्रगति/सुधार का कार्य राजी-मर्जी से किया गया-जिसमें पीने के पानी की सुविधाएँ, स्वच्छता-प्रबंध, शेड्स (Shades) आदि के कार्य थे और गणपतिपुले की आत्मा जाग्रत हो गई, अनायास वहाँ हर वस्तु प्रचुरता में उपलब्ध थी- श्री महालक्ष्मी का आशीर्वाद बरसने लगा था।  

विवाहोत्सव के बाद, श्री माताजी की कुटिया के ऊपर कोहरे की एक विशाल राशि (समहू)प्रकट हुई।  पहिले वह बादलों की तरह लगा, किन्तु आकाश में कहीं भी बादल नहीं थे।  धीरे-धीरे इस कोहरे के समूह ने अपनी धुरी के इर्द-गिर्द घूमना शुरू किया, जैसे कि वह किसी प्रकार का स्वरूप-धारण करना चाहता हो।  हरेक योगी को आनंदित करते हुए इस घनराशि ने श्री गणेश का आकार धारण कर लिया।  उस स्वरूप ने एक मिनट से भी कम समय तक सानंद नृत्य किया और उसके बाद श्री माताजी की कुटिया की परिक्रमा करते हुए, सागर में ओझल हो गया।

दिनांक इकतीस दिसंबर को श्री माताजी ने वैतरणा में संगीत-अकादमी पर आशीषों की वर्षा की।  उन्होंने यह भूखंड पच्चीस वर्ष पूर्व खरीदा था, किन्तु कुछ जटिलताओं की वजह से भूखंड का विकास-कार्य वर्ष दो हजार (In the Year, 2000) में ही शुरू हो सका, जब उन्होंने अकादमी को नागपुर से स्थानांतरित करने का विचार किया।  वे अकादमी को पारंपरिक महाराष्ट्रियन‘वाडा’ शैली में बनाना चाहतीं थीं।  (गांवों के घरों में, जिसमें घर के बाद केंद्रीय (मध्य में) आँगन होता है।)  

परम चैतन्य ने तुरंत ही उत्तर दिया।  एक जन-जाति के प्रमुख जो नागपुर में बस गए थे, अपने दो सौ वर्ष पुराने काष्ठ-निर्मित महल, जिसमें काष्ठ पर जटिल नक्काशी का काम किया गया था, उसे बेचना चाहते थे।  श्री माताजी ने वह महल खरीद लिया और उसे वैतरणा -अकादमी हेतु पुर्जे-पुर्जे करके खुलवा लिया। वे नहीं चाहती थीं कि अकादमी का प्रवेश (चेहरा) प्रभावशाली भव्यता लिए हो, किन्तु एक ऐसी कृति हो जो चैतन्य के प्रवाह को निर्बाध-सुविधा प्रदान करे।  उन्होंने स्वयं प्राकृतिक सहमति से अकादमी का नक़्शा खींचा और जिस में खुले कक्ष, डोरमीटरी (आराम-कक्ष) भोजनशाला और ध्यान-कक्ष का प्रावधान रखा गया था।

जबकि यह श्री आदिशक्ति का एक मनोरंजक खेल था जो भवन को प्रकृति के साथ सहमति प्रदान करता था, किन्तु मानव का एक-दूसरे से मेल कराना, एक अलग ही विषय था।  कुछ संगीतकारों का आपस में व्यर्थ की बात पर झगड़ने के मामले पर उनका ध्यान आकृष्ट किया गया।  सबके सामने (स्पष्टतया) दो संगीतज्ञों के समूह के बीच अकादमी के संचालन के नियंत्रण को लेकर प्रतिस्पर्धा उठ खड़ी हुई।  पहला समूह बाहुबली था और दूसरा समूह धन-सम्पन्न था।  श्री माताजी बहुत ज़्यादा विचलित हो गईं।  वे बोलीं, “मैं नहीं जानती ऐसे झगड़ालू लोगों में कैसे संगीत संभव है।  मैं घबरा गई हूँ –इससे, ……यह शानदार इमारत हमारे शास्त्रीय संगीत के लिए सृजित की गई है।  वे लोग इस पर भी झगड़े और कई बार मैंने महसूस किया, क्यों ? इसे यहाँ महाराष्ट्र में बनाया….. हरेक को सोचना चाहिए कि मैं एक आत्म-साक्षात्कारी हूँ और श्री माताजी ने हमारे लिए इतनी मेहनत की है।  अतः आज, आप न झगड़ने का निश्चय करें और धन के लिए लालच छोड़ दें…… जब भी आप क्रोधित हों, जब भी आपका सर घूमे, जब भी आप शिकायत करें-स्वयं से कहें कि मैं एक सहज-योगी हूँ और कैसे श्री माताजी ने मुझे रूपांतरित किया है।”

यदि उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में प्यार नहीं था, तो कैसे उनकी ज़िंदगी में संगीत बह सकता था।  जब हृदय में प्यार बहता है, तो यह दूसरों के हृदयों में प्रतिक्रिया देता है और इस तरह उनकी भावनाओं को आहत नहीं करता है।  यही रहस्य श्रीमाताजी के हृदय का था, बाकी सब लीला थी, किन्तु उनकी लीला (खेल) निरुद्देश्य नहीं थी।  उद्देश्य उनके बच्चों के हृदय में कोमल-भावनाओं की सुरक्षा करना था।  उन्होंने गुहय-रूप से उसे एक अंकुर की भांति पोषित किया, जब तक कि  वह एक सशक्त वृक्ष में विकसित न हो गया।  

एक वृक्ष का कारुण्य ऐसा है कि वह स्वयं के लिए फल पैदा नहीं करता, किन्तु दूसरों के लिए करता है।  यह एक दया का स्वभाव था,  जो उन्होंने अपने बच्चों में उत्पन्न किया।    

 वे प्यार का सर्वोच्च स्रोत थीं, सूर्य के प्रकाश की तरह, उनका चैतन्य समान-रूप से हर बच्चे पर पड़ा, दूर हों या पास।  संगीतकारों को समझ आ गई थी कि उनकी प्रतिस्पर्धा ने दूसरों के हृदयों की भावनाओं को आहत किया था और इस तरह उन्होंने श्री माताजी की चैतन्य-लहरियों को दूर कर दिया था।  उन्होंने अपने कान पकड़े, क्षमा-याचना की।  थोड़ी देर में उन्होंने प्यार के संगीत के साथ श्री माताजी के चैतन्य को अवशोषित किया।  

अलौकिक संगीत के साथ गंधर्व-गणों ने नव-वर्ष के पथ का स्वागत किया, जैसे ही श्री माताजी ने संगीत-अकादमी का नामकरण अपने पिताश्री के नाम पर करते हुए उद्घाटन किया।  “हरेक देश की अपनी समस्याएँ हैं, किन्तु हमारे पास कुछ महान-चीज़ है, वह है हमारा संगीत, संगीतज्ञ नहीं बल्कि संगीत।  अतः संगीतज्ञों को सहज-योग लेना है, उन्हे ध्यान करना चाहिये।  और यदि एक संगीतज्ञ धन-परस्त है, तब आप कुछ मदद नहीं कर सकते।” 

श्री माताजी ने स्नेहपूर्वक अपने भाई बाबा मामा को याद किया, जो इतने विनम्र निरभिमान थे और कभी प्रति-स्पर्धा में नहीं पड़े।  अश्रुपूरित आँखों से उन्होंने अपने पिताश्री (साल्वे-साहब) को माल्यार्पण किया, जिन्होंने उन्हें यह सीखने में मदद की-कैसे मानव का अहंकार विघटन करने की (तोड़ने की) कोशिश करता है! 

2003

अध्याय-6

अल-सवेरे (भोर में) श्री माताजी उनके मुंबई आवास (फ्लैट) से अरब सागर की ओर उन्मुख बैठी हुईं थीं। सागर की असीमितता ने उन्हें उनके असीमित कार्य की याद दिलाई।  उन्होंने पिछले तीस वर्षों से काफ़ी कार्यकुशलता से कार्य किया, फिर भी साधकों के महा-सागर को बचाना बाकी था, जिन्हें उन्होंने भवसागर से बचाया था, वे उनके शरीर में कोशिकाएँ बन चुके थे।  जैसे-जैसे सहज योग का विस्तार होता गया, वैसे ही इसका संगठन भी फैल गया।  नए ध्यान-केन्द्र स्थापित हुए और कल्याण-कारक संस्थाओं की अर्थ-व्यवस्था हुई।  वित्त के साथ जवाबदारी आई और जवाबदारी के साथ अधिकार भी आए।  अतिवादी कोशिकाएँ महत्वाकांक्षी होने लगीं।  सहज-योग प्रसार के नाम पर उन्होंने अपने प्रभाव-नियंत्रण की कोशिशें की और इस तरह से श्री माताजी के संरक्षण से बाहर चले गए, इससे प्रतिस्पर्धा के गर्त में समा गए।  जब ये कोशिकाएँ आपस में झगड़ने लगीं, श्री माताजी की व्यथा (पीड़ा) चैन से परे हो गई।  इससे उनके सहस्रार पर दबाव पड़ा और उस सिलसिले में सम्पूर्ण-प्रकृति पर दबाव बढ़ने लगा।  जब यह दबाव असह्य हो उठा, प्राकृतिक शक्तियों ने अपने क्रोध को बंधन-मुक्त कर दिया।  श्री माताजी ने इस क्रोध को कम करने का प्रयत्न किया, ताकि ‘अंतिम-निर्णय’ के पूर्व ये कोशिकाएँ आराम-से रह सकें /समझौता  कर सकें।  

सूर्य-देव श्री माताजी के संरक्षण में बने रहने को संतुष्ट थे, उनका स्वर्ण-रथ अपने कर्तव्य-निष्ठ पथ पर उत्तरी-गोलार्ध में नियुक्त-संक्रांति पर्व के दिन उनकी आशीष लेने हेतु प्रवेश कर चुके थे,  उन्होंने श्री माताजी के चरण-कमलों का सम्मानपूर्वक स्पर्श किया और उनके सहस्रार के दबाव को हल्का कर दिया।  

सूर्य-देव के उत्तरी गोलार्ध में गमन करने के साथ,   

 रजोगुण-प्रधान कोशिकाएँ गर्म हो उठीं और कूदने लगीं।  ये इतनी नाराज हो गईं कि उन्होंने क्षमा करने से मना कर दिया। 

श्री माताजी ने एक कोशिका से पूछा, “तुम इतनी नाराज़ क्यों हो ?”

उसने जवाब दिया, “मेरे अग्रज ने मेरे पिता की सारी धन-सम्पत्ति छीन ली और मुझे कुछ नहीं मिला।“

श्री माताजी ने शांत करते हुए उसे कहा, यह देखना तुम्हारे पिता की जवाबदारी थी।  यदि उसने ले ली, तो ले ली है।  तुम क्यों गुस्सा हो रहे हो।”  उसने कहा “उसे स्वयं ही इस संपत्ति को मुझे सौंप देना चाहिये  था।“ 

श्री माताजी जी बोलीं, “यदि तुम उसकी जगह होते, क्या तुम इस धन को उसे सौंप देते।“

“नहीं”, उसका जवाब था। 

“तब आपको किसी से भी यह उम्मीद क्यों लगाना चाहिए थी।  तुम सारी अच्छाइयाँ दूसरों से चाहते हो, किन्तु तुम उनके द्वारा आपके प्रति किए गए ज़्यादतियों को माफ नहीं कर सकते ?  तुम एक सहज-योगी हो और तुम्हें क्षमा करना ही होगा।”

जब एक कोशिका (Cell) क्रोधित होती है, वह दूसरी कोशिकाओं को भी संक्रमित करने लगती है और वह क्रोध सामूहिक हो जाता है।  जब यह क्रोध सामूहिक-क्रोध में रूपांतरित हो जाता है, तब एक देश दूसरे देश से क्रोधित होने लगता है और युद्ध आरंभ हो जाता है।  इस तरह युद्धों ने धरती माँ के चेहरे को कलंकित किया है और श्री आदिशक्ति के सुंदर-सृजन (सृष्टि)को आतंकित किया है।  

मार्च सोलह को सहजी बच्चों ने श्री सदाशिव से श्री आदिशक्ति की इस सुंदर रचना को बचाने हेतु प्रार्थना की। पूजा-प्रवचन में श्री माताजी ने स्पष्ट बताया कि विनाश का मूल कारण ‘क्रोध’ ही था और बच्चों को श्री सदाशिव से क्षमा-शीलता की शक्ति को ग्रहण करने हेतु संकेत दिया।  

बच्चों ने एक सौगंध ली, “हम क्रोधित नहीं होंगे, जो कुछ भी हो जाय, हम क्रोध नहीं करेंगे।”

श्री आदिशक्ति प्रसन्न हो गईं और उनकी पिंगला-नाड़ी के दोषों को आत्म-सात किया।  

मार्च बीस को, श्री माताजी उनके अस्सीवें जन्म-दिवस समारोह को दिल्ली में मनाने को लेकर बच्चों के विशाल हृदय से अभिभूत हो उठीं।  वे विश्व के दूर-दराज के देशों से पधारे बहुत सारे अपने बच्चों को देखकर अत्यंत आनंदित थीं, किन्तु आनंद के उस क्षण में भी, उनका हृदय विश्व की तकलीफ़ों को लेकर दुखित था।  अगले दिन, पूजा प्रवचन में उन्होंने अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए, “मैं आज आप से उस वक्त बात कर रही हूँ, जब ईरान में बहुत बड़े पैमाने पर युद्ध चालू है।  मुझे नहीं मालूम-क्या कहूँ, यह कैसे हल होगा, किन्तु तुम्हारे सभी शांति हेतु प्रयासों से यह समस्या हल होगी।  मुझे दृढ़ विश्वास है-यह प्रयास विश्व में हर जगह शांति लायेगा।  हम युद्ध नहीं चाहते, किन्तु हमें मानव को बदलना पड़ेगा, अन्यथा आप उन पर विश्वास नहीं कर सकते।  आप सबके लिए यह एक बहुत बड़ा आह्वान है।  हरेक व्यक्ति तक इस महान विचार (आत्म-साक्षात्कार) को सुलभ करने के लिए आपको कड़ा परिश्रम करना होगा, अन्यथा आप, लोगों को मात्र-प्रवचन देने से समस्या-मुक्त नहीं कर सकते।”

पूजा ने सहजी-बच्चों को श्री माताजी के विश्व-व्यापक-स्वप्न को साकार करने की योग्यता प्रदान की, जिसमें मानवीय चेतना एक नई-समझ (सद्भावना) में रूपांतरित होती है, जहां वे रंग, जाति और धर्म की बिना परवाह किए, बिना भेदभाव के शांतिपूर्वक मानवीय जीवन जी सकें।  बच्चों ने सहज-योग प्रसार हेतु और घृणा के बदले प्रेम को स्थान देने की प्रार्थना की, “यदि हम इस धरती पर शांति चाहते हैं, तब हमें हमारे अंदर में शांति जाग्रत करनी होगी, जो कि विश्व-व्यापक है-और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।“

वैश्विक व्यक्तित्व के बीच, भारत के उप प्रधान-मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने श्री माताजी के इस सर्व-व्यापक स्वप्न की उनके जन्म-दिवस पर बधाई-समारोह में प्रशंसा करते हुए कहा, “कुछ क्षेत्र जैसे शिक्षा-क्षेत्र, जिसमें समाज का केवल एक वर्ग राष्ट्रीय-सीमा के अंतर्गत सामान्यतया प्रभावित होता है, उससे एकदम भिन्न (हटकर) राष्ट्रीय सीमाओं से परे अध्यात्म के क्षेत्र में इस विश्व-व्यापक स्वप्न का (आध्यात्मिक-जाग्रति का) योगदान प्रशंसनीय रहा है।”

मार्च चौबीस को, इस विश्व-व्यापक स्वप्न की एक झलक पाने को विशाल नेहरू खेल प्रशाल में मानवीय-सागर की भीड़ का ज्वार उमड़ पड़ा।  यह सबसे विशाल जन-समूह श्री माताजी के भारतवर्ष में हुए आखिरी जन-कार्यक्रम के रूप में एक सम्मान-जनक प्रदर्शन था।  

श्री माताजी का हृदय अपने बच्चों को बचाने मे संलग्न हो गया।  उनके शब्दों में, “वर्षों तक मैंने भारत में कड़ी मेहनत की और विदेशों में बहुत कड़ी मेहनत की।  अब आपको मुझसे भी ज़्यादा मेहनत करना है,  तभी संसार से अज्ञान को समाप्त किया जा सकता है।  संसार गहन-अज्ञान में डूबा हुआ है।  आपको इसे ठीक करने के लिए तैयार रहना है……. हमारे देश की सभी समस्याएँ सहज-योग से हल होंगी।“

साधकों के हृदय खुलने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा।  उनके विवेक के मोतियों ने साधकों के अज्ञान के पर्दे हटा दिए, उनके विश्व-व्यापक स्वप्न की स्वीकार्यता का भोर हो चुका था।  उन्होंने अपने खोए हुए बच्चों का सानंद आलिंगन किया और उस पारिवारिक पुनः –मिलन को देवलोक में कृपा के पुष्पों की पंखुड़ियों की वर्षा करके मनाया गया।  

किन्तु बहुत से दुखी बच्चे इस पारिवारिक-मिलन में शामिल होने में इतने भाग्यशाली नहीं थे, पर उन्हें भुलाया नहीं गया था।  श्री माताजी का हृदय निराश्रिताओं और अनाथों के लिए दुख से कातर हो उठा, जो दिल्ली की गलियों में भीख मांगते रहते।  उनके हृदय की पीड़ा शब्दों से दूर नहीं हो सकती थी,  इस बारे में कुछ किया जाना था। “औरतों के प्रति विकसित उदासीन-व्यवहार से मुझे रोना आता है।  इसलिए मैंने इन गरीब औरतों के लिए आवास और भोजन के लिए कुछ करने का निश्चय किया, कुछ किया जाना चाहिए….. जब इसका (भवन का) निर्माण शुरू हुआ, मैंने किसी तरह से इसे पूर्ण करना चाहा।  इस पर काफ़ी कड़ी मेहनत की और इसकी रूप-रेखा तैयार की।“

श्री माताजी ने उन्हें मात्र शरण-स्थली ही नहीं प्रदान की, अपितु उनके आत्म-सम्मान की गरिमा को लौटाते हुए उन्हें एक शानदार घर बनाकर दिया।  उन्होंने उनके लिए व्यावसायिक-ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) देने की सोची, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े होने योग्य हो जाएँ।  उनके घर को सुंदर बनाने हेतु श्री महालक्ष्मी के आशीष की उन पर वर्षा हुई।  श्री माताजी की विशेष तकनीक से तैयार सफ़ेद-रंग (Paint) उनके घरों के मुखड़े (Front elevation) हेतु बचाकर रखा गया था।  आवास के प्रत्येक कक्ष को प्यार से चित्रों (Paintings) द्वारा सजाया गया था और श्री माताजी की पाक-दक्षता के साथ कलाकृति-पूर्ण रसोईघर बनाया गया।  यह आवास श्री आदिशक्ति के बच्चों हेतु तैयार किया गया था,  यह ऐसा-वैसा कैसे हो सकता था! 

यह घर ईंटों के अलावा भी बहुत-सी चीज़ों से बना था।  उनका वात्सल्य उद्घाटन समारोह पर (सत्ताईस मार्च को) बहने लगा, “आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद आपकी सोच दूसरों के प्रति करुणामय  होनी चाहिए।  बिना करुणा के क्या फ़ायदा ?  यदि आप कारुण्य-मय दिखते हैं, आपको यह जानकार चिंता होगी कि किस दयनीय-चक्कर में हमारी माँ और बहिनें उलझी हुई हैं।  

अतःआपसे मेरी यह प्रार्थना है कि आप सब ओर जाएँ और औरतों की स्थिति को सुधारें। मैंने थोड़ी कोशिश की है, किन्तु आप बहुत-कुछ कर सकते हो।  अतः आपको मैं प्रार्थना करती हूँ कि आप सब अपनी माँ और बहिनों को प्यार करें, जैसे कि आप मुझे प्यार करते हैं।”

श्री माताजी और सर सी पी की शादी की छप्पनवीं वर्षगांठ सोफिया कॉलेज ऑडिटोरियम (सभागार) मुंबई में सात अप्रैल को मनाई गई थी।  दिल्ली में सहज-योग कार्यक्रमों की सरगर्मियों के बावजूद श्री माताजी सहस्त्रों सूर्यों की भांति तेजोमय लग रही थीं।  कार्यक्रम में सहजी बच्चे विभिन्न देवी-देवताओं की वेश-भूषा में सुसज्जित थे और देवताओं की शक्तियों के वेश में बच्चों ने श्री माताजी और सर सी पी को एक विशाल केक (Cake) भेंट किया।  

कार्यक्रम में सर सी पी ने बताया, किस तरह से श्री माताजी ने पिछले छप्पन वर्षों में उन्हें प्यार-भरी देखरेख और उत्तम भोजन से बिगाड़ दिया था, “यह उनकी उदारता थी कि मैं ऑफिस में बहुत कठिन श्रम करने योग्य था।  किन्तु घर वापसी पर आश्चर्यजनक वस्तु से मुखातिब होना था!  वे मेरे सभी संबंधियों के प्रति बहुत दयालु रहीं।  आप जानते हैं, जब हमारे परिजन (पारिवारिक सम्बन्धी) घर आते, वे उन्हें उसी तरह से व्यवहार करतीं थीं, जैसे अपनी पुत्रियों की देखभाल करतीं।  वे कभी भी बच्चों में कोई भेदभाव नहीं करतीं थीं।”

श्री माताजी ने बहुत प्यार से अपने सभी बच्चों को शादी की सालगिरह को इतने प्यार से मनाने हेतु धन्यवाद दिया, “मैं आपको धन्यवाद देने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती।  वास्तव में, कैसे आप लोगों ने मेरे विनम्र कार्य को सराहा है।  इसके अलावा यह कार्य, केवल प्यार का है।  प्यार मानव का सबसे बड़ा गुण है, और यदि आपने उसे विकसित कर लिया है, तो आप सभी चीज़ों को भूल जायेंगे, क्योंकि प्यार का अपना एक पुरस्कार है और यह पुरस्कार यहाँ है,  मैं इसे देख सकती हूँ…… मैंने इसका आनंद लिया है और आप सभी ने इसका आनंद लिया है।  अतः मैं कहूँगी, इस कार्य को करना जारी रखें और अपने प्यार को सर्वत्र फैलाएँ।”

उनका हृदय अपने बच्चों के प्यार से इतना अभिभूत हो उठा कि उनके शब्द गले में अवरुद्ध हो गए, किन्तु उनके अनकहे शब्द हरेक हृदय में गूंजने लगे और वैश्विक-हृदय में अनुनादित होते रहे।  इस वैश्विक-हृदय ने संपूर्व विश्व को व्याप्त कर लिया और उनके सर्व-व्याप्त-विराट-स्वरूप में स्थित हरेक कोशिका (Every cell) की विशेष सुश्रुषा की।

2003

अध्याय-7

चार मई को कबेला की पहाड़ियां हंसी के स्वरों से गूंज उठी।  लघु गंगा के किनारे, हरित-घास के मैदानों से गुंजित हो रहे थे और अपनी प्यारी माँ के चरण-कमलों का प्रक्षालन करने हेतु संपूर्ण दुनिया से एकत्रित हुए सहजी बच्चों का लघु-गंगा मैया ने आतिथ्य (मेजबानी) किया।  सहस्रार-पूजा के पूर्व पंच महाभूतों ने पारम्परिक स्वागत-वर्षा करके योगियों का अभिनंदन किया। 

विडियो-स्क्रीन पर श्री माताजी का संदेश उनकी उपस्थिति का स्पष्ट (जोरदार) अनुभव कराए दे रहा था, “बजाय मुझे किसी चीज़ के लिए पूछने के, आप अपने अंदर की गहराई में कुछ भी पूछ सकते हैं।  आपकी कुंडलिनी जाग्रत है।  आप जवाबदार हैं।  आप इसे कर सकते हैं।  आप मेरे उपकरण हैं।”

लेकिन छोटी-छोटी मेहरबानियों और अनुग्रह के लिए क्यों पूछें, जब उनके श्री चरणों में अनंत (ध्रुव सत्य) बसता है।  पूजा के दौरान बच्चों ने उनके चरण-कमलों का पूजन किया।  धीरे-धीरे वे उस बिन्दु पर लौटे, जहाँ उनकी चेतना अनायास सर्व-व्यापक चेतना में विकसित हो गई और उन्होंने महसूस किया कि वे सब जगह थे, कैसल (Castle) में, बाजार के चौक में, लघु-गंगा में।  सर्व-व्यापक चेतना की स्थिति में वे ईश्वरीय तत्व से जुड़े थे, जो कण-कण में पारगम्य (व्याप्त) हैं।  वे सर्व-व्यापक शक्ति से एकाकार हो गए थे-जहाँ श्री आदिशक्ति उनके सहस्रार की हजारों पंखुड़ियों में, अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर  गरुड़ारूढ़ हो, सानंद स्थापित थीं।  हाथ जोड़कर बच्चों ने नमन किया, “हे, देवी माँ ! हमें हमारे अंदर आपके निराकार स्वरूप को नहीं पहचान पाने के लिए क्षमा कर दीजिए।” 

बच्चों के सहस्रार पर निरानंद बूंद-बूंदकर बहने लगा, उन्हें यह आश्वस्त करते हुए कि वे उनसे भिन्न नहीं थीं। 

एक महीने बाद, श्री आदिशक्ति पूजा पर श्री आदिशक्ति माँ अपने बच्चों को सर्व-व्याप्त चेतना के आनंद में भीगे हुए देखकर अति प्रसन्न थीं।  वे बच्चों की प्रार्थना-निवेदन से प्रसन्न हुईं, “मैं बहुत खुश हूँ, आप सभी यहाँ गोंधली गीत गा रहे हैं…… और वे गीत ग्रामीणों द्वारा गाए गए हैं। और वे इस गीत को गा रहे हैं।  हम हमारी माँ के गीत गा रहे हैं, हमारे हृदय में उनके प्रति प्यार लिए हुए।”

कबेला के अबोध ग्रामीणों की तरह, सहजी बच्चों ने भजन की प्रस्तुतियों में प्यार उडेल दिया।  श्री माताजी की आँखों से अपने बच्चों के प्रति वात्सल्य बरस पड़ा और वे आनंद से भर गईं।  बच्चों के हृदय रोमांचित हो उठे और पूजा-रूपी वात्सल्य की नदी चैतन्य के महासागर में समाने को अपने चरम पर उमड़ पड़ी।  

श्री गुरु-पुजा के समीप आते-आते, बच्चों को स्मरण कराया गया कि यद्यपि श्री माताजी विनीत दिखाई दीं, वे उनकी गुरु भी थीं।  निस्संदेह उनके मातृवत प्यार (वात्सल्य) ने बच्चों को उनके सानिध्य का आनंद उठाने की आज़ादी दी,  बिना आरक्षण और व्याकुलता के अपनी समस्याओं के बारे में निःसंकोच बातचीत करने, मनो-विनोद का मजा उठाने, पॉप-कॉर्न या कोक का सेवन करते हुए, क्रिकेट-मैच को देखने और यहाँ तक कि अपनी माँ के सदृश उनसे शिकायत करने आदि की स्वतन्त्रता दी।  वस्तुतः व्यक्तिगत और अनौपचारिक संबंध में उनसे कोई रहस्य नहीं छिपाया गया।  एक माँ की तरह सुस्वादु भोजन बनाते समय वे बच्चों में घुल-मिल जातीं थीं।  बच्चों के संबंधियों, परिजनों से व्यवहार करते समय, अनमोल आतिथ्य करती हुईं, उनके यात्रा खर्च को वहन करती हुईं और उन्हें महंगी भेंट देते हुए-सभी में उनके वात्सल्य की कोई सीमा नहीं थी; एक बच्चा जो भी इच्छा प्रकट करता, वे उसे कुछ भी दे सकतीं थीं।  यहाँ तक की सहजी बच्चों का सफरनामा (यात्री सूची) बनाते समय वे बच्चों की सुविधाओं का ख़्याल रखतीं थीं।  पूजाएँ सप्ताहांत (Week-ends)  पर निश्चित होंगीं, ताकि सहजी बच्चे पूजा में शामिल हो सकें, सेमीनार्स (सहज-योग शिविर) का कार्यक्रम छुट्टियों के साथ ताल-मेल बिठाकर निश्चित किए जाते, यहाँ तक कि खाना उनके स्वाद अनुसार मनपसंद होता था- पास्ता इटालियन के लिए और दाल-चावल निस्संदेह भारतीयों के लिए।  भोजन में हमेशा पकवानों में विभिन्नता होती थी,  किन्तु संतुष्टि केवल श्री माताजी की संवेदनशीलता से आती, जो उनके बच्चों की संतुष्टि से जुड़ी होती।  यदि बच्चे संतुष्ट होते, वे संतुष्ट होतीं थीं।  श्री गुरु पूजा के एक दिन पूर्व रसोइयों की टीम के साथ कुछ गड़बड़ी (mix-up) हो गई और चूंकि देर  हो रही थी, सस्ता भोजन जल्दबाज़ी में रख लिया गया।  लगभग उसी समय के आसपास, श्री माताजी को कैसल (castle) में रात्रि-भोज निवेदित किया गया,  किन्तु अनायास उनकी भूख गायब हो गई और भोजन की थाली (Dinner tray) अनछुई ही रसोईघर में वापस कर दी गई।  

बच्चों के प्यार ने दर्पण की तरह कार्य किया, जिसने उनकी इच्छाओं को प्रतिबिम्बित किया था।  सेराविले (Seraville) में खरीददारी करते वक्त उनका चित्त एक पुल-ओवर पर आकर्षित हो गया और उन्होंने एक योगिनी का नाम लिया, जिसे वे देना चाहती थीं और जब उस योगिनी ने उसे प्राप्त किया, उसे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि श्री माताजी को उसके मनभावन-रंग के बारे में कैसे जानकारी मिली ! 

अतीत में गुरु-जन परम्परागत-रूप से पुरुष-वर्ग से ही हुआ करते थे।  अपने अनुयायियों पर वे कड़ा-अनुशासन लागू करते थे।  इसके फल-स्वरूप अनुयायियों की क्रिया-शक्ति (पिंगला नाड़ी) ज़्यादा विकसित हो जाती थी, किन्तु उसके अंदर करुणा का अंश पीछे छूट जाता था।  इसके अलावा एक अनुयायी वाम-मार्गी (तमोगुणी) हो सकता था या दक्षिण-मार्गी (रजोगुणी) हो सकता था या दोनों का ही संयोजन (मेल) हो सकता था।  उसे एक समान कठोर अनुशासन के अंतर्गत कैसे ठीक किया जा सकता था।  केवल वह व्यक्ति जो बहुत निकट्स्थ हो, हमारी नसों से भी ज़्यादा निकट, वही इसका निदान कर सकता था और हमारी प्यारी माँ से भी ज़्यादा निकट्स्थ कौन हो सकता था।  इस तरह से, अपने बच्चों को ‘अंतिम निर्णय’ (Last Judgement) के पूर्व बचाने हेतु गुरु-स्वरूप निर्णय देने नहीं, किन्तु माँ स्वरूप प्यार करने के लिए, पधारीं।  वे क्रोध का हथियार लिए नहीं थीं,  क्योंकि अपने शिष्यों को बच्चों की तरह उन्होंने झुलाया और बच्चों ने उनके वात्सल्य का प्रत्युत्तर दिया।  बच्चों की सभी त्रुटियों (गलतियों) के सुधार-प्यार (वात्सल्य) में लिपटे हुए, चेहरे पर हँसी की चंचल लहरें लिए, उनकी स्मिता (मुस्कान) में मधुरता लिए, आँखों में करुणा लिए, भरोसे दिलाती हामी भरते हुए या हिम्मत बँधाती हुई एक थपकी मात्र से इस गुरु-स्वरूपा माँ ने सहज ही घटित किए। 

एक इटली-वासी सहज-योगी जो सभी पूजाओं में उपस्थित रहा था, वह फुटबाल खेलने का बड़ा शौकीन था।  जब दूसरे योगी पूजा की तैयारियों में हिस्सा लेते, वह फुटबाल-मैदान पर अपना मनोरंजन करता।  श्री गुरु पूजा पर, श्री माताजी ने स्टेज-सज़्जा की तारीफ़ की और उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, “तुमने इतना विलक्षण कार्य किया है।”

उसने अपने कान खींचे और कहा, “माँ, कृपा करके मुझे क्षमा कर दीजिए।  मैंने किसी भी काम में मदद नहीं की है।”

कुछ समयपूर्व ही, उसने उत्सुकता-पूर्वक पूजा की तैयारियों में भाग लिया था और वह फुटबाल पिच पर दिखाई नहीं दिया। यद्यपि पूजा में शामिल होने का उसका उद्देश्य अपनी पारिवारिक समस्याओं को हल कराने हेतु श्री माताजी का आशीर्वाद प्राप्त करना था, बजाय आंतरिक रूपान्तरण की साधना की तलाश के।  

हालाँकि, यह श्री गुरु पूजा थी, उसने श्री माताजी को अपने हृदय में यह कहते हुए महसूस किया, “हम किसी के लिए भी उत्तरदायी नहीं हैं….। हमारी मुख्य जवाबदेही हमारे स्वयं के लिए है।  यह एक बहुत बड़ी जवाबदारी है।”

कुछ ही शब्दों में उन्होंने सब-कुछ कह दिया।  वह योगी पूजा में अपनी पारिवारिक-चिंताओं से बोझिल-आज्ञा के साथ आया था।  श्री माताजी ने अपने संदेश में उसे चिंताओं के बोझ से हल्का कर दिया।  वह दूसरों के लिए जवाबदार नहीं था, उसे अपनी सभी जिम्मेदारियाँ अपने गुरु के श्री चरण-कमलों में छोडनी थीं, केवल तभी गुरु उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी ले सकते थे।  

किन्तु ‘समर्पण’ एक बहुत बड़ा शब्द था।  हालाँकि उसने बाह्य-रूप से श्री माताजी के चरण-कमलों पर समर्पण किया था,  उसका हृदय अभी समर्पित नहीं हुआ था।  जैसे ही उसके साथ अनुचित हुआ, उसने सहज-योग को बदनाम किया- “मैं सभी पूजाओं में उपस्थित हुआ, मैं नियमित सभी केन्द्रों पर गया, इतना सारा दान किया, मैंने पूजा कार्यक्रम आदि में काम किया और फिर भी मेरे साथ ऐसा हुआ।”

उसने कराहते हुए कहा, “श्री माताजी, मेरे आज्ञा पर समस्याएँ हैं।”

श्री माताजी ने उसे धैर्यपूर्वक सुना, किन्तु, जब तक उसकी समस्या आज्ञा पर अटकी, वो श्री माताजी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका।  उन्होंने पूछा, “तुम्हारा चित्त कहाँ है तुम्हारी इच्छा कहाँ है, तुम इतने चिंतित क्यों हो।  क्या तुम मुझे प्यार करते हो ?”

वह बोला, “हाँ, निस्संदेह श्री माताजी।”

श्री माताजी – “तब यह पर्याप्त है, अब सब-कुछ मेरे पर छोड़ो।”

जैसे ही उसने अपना हृदय समर्पित किया, उसकी आज्ञा खुल गई।  उसकी पारिवारिक-समस्याओं ने सहस्रार पार किया और श्री माताजी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।  जब वह कर्त्ता-पन से मुक्त हुआ, श्री माताजी कर्त्ता बन गईं।  वे ही कलाकार थीं,  जिन्होंने सब कुछ ठीक कर दिया, जिन्होंने उसकी सभी जिम्मेदारियाँ अपने नियंत्रण में ले लीं थीं। 

एक झलक में, उसे समझ आ गई-श्री कृष्ण जी ने गीता में क्या कहा था,  “मैं उन सबकी सुरक्षा (देखभाल) करता हूँ, जो मुझसे जुड़ गया हैं।”

कुछ समय पहले ही, श्री माताजी ने उसकी सभी पारिवारिक समस्याएँ चमत्कारिक-रूप से हल कर दी थी।  उसकी समझ में आ गया था कि श्री माताजी उन्हीं की देखभाल करती हैं, जो उनके भक्तों के प्रिय हैं।  उसे अपने परिवार के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी।

उसके दृढ़-संकल्प की चेतना में यह बहुत स्पष्ट हो गया, कैसे एक आत्म-साक्षात्कारी की उपस्थिति-मात्र से श्री माताजी के रक्षा-कवच ने उसके घर, वाहन, गाँव, शहर और देश को संरक्षण प्रदान किया।  उसके मस्तिष्क में महाराष्ट्र के लातूर शहर में विध्वंसकारी भूकम्प की तस्वीरें कौंध आईं, जहां पूरा गाँव उजड़ चुका था, सिर्फ सहज-योगियों के घरों को छोड़कर।  तुर्किस्तान में भी आए भूकम्प से सहज-योगियों के घर अनछुए (सुरक्षित) थे। भारत में हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला सहज-विद्यालय के आसपास का गाँव धराशायी हो गया था, किन्तु सहज-विद्यालय को एक खरोंच तक न आई थी।

उस योगी ने उनके संरक्षण के आशीर्वाद को महसूस किया और उनसे क्षमा-याचना की, “यह मेरी दुर्दशा है कि मेरी दो आँखें आपके सभी चमत्कारों को देख पाने में समर्थ नहीं हैं।”

उसने ईराक युद्ध में अबोध लोगों की सुरक्षा हेतु श्री माताजी से प्रार्थना की। 

अगले सप्ताह ही, उसकी प्रार्थना का उत्तर मिला, संयुक्त-सेनाओं ने एक बड़ी प्रगति की।

बाईस जुलाई को श्री माताजी वाया मुंबई पेरिस के लिए रवाना हुईं।  फ्रांस की सामूहिकता की प्रबल इच्छा श्री माताजी का स्वागत पेरिस में करने की थी, किन्तु वे उन्हें तंग नहीं करना चाहते थे।  वे उनकी भक्ति से प्रसन्न थीं और उन्हें पुनः आश्वस्त करते हुए बोलीं, “मैं तुम्हारी प्रबल-इच्छा से यहाँ हूँ।”

फ़्रांस में सहज-योग की प्रगति धीमी रही थी।  श्री माताजी की उपस्थिति ने सहज-योग प्रगति के संवेग को प्रज्ज्वलित किया और सामूहिकता को आह्वानों का सामना करने की शक्ति प्रदान की। उन्हें हिल्टन होटल में असहज अहसास हुआ और देखा कि उनके सुइट (होटल के आवास) में हरेक वस्तु बहुत नीचे रखी गई थी।  वे आराम और स्वास्थ्य के महत्व पर बोलीं और कहा कि बहुत स्वच्छ व साफ रहें।  “अपने स्वयं पर अच्छी तरह से ध्यान होना चाहिये, हमारा ध्यान शरीर के हरेक प्र्त्यंग पर होना चाहिये, साथ ही अपने मस्तिष्क पर भी होना चाहिये, अन्यथा हम आराम-देह नहीं महसूस कर सकते।  हमारे शरीर और आत्मा को आराम देने के लिए ठीक-से आत्मावलोकन की जरूरत है।”

यद्यपि श्री कृष्ण पूजा का आयोजन पहले अमेरिका में होना निश्चित था, श्री माताजी ने  अमेरिकी बच्चों को फोन किया कि वे पुणे में थीं, किन्तु वे वहाँ नवरात्रि पर पधारेंगीं।  दस अगस्त को पुणे प्रतिष्ठान में एक छोटी श्री कृष्ण पूजा उनके चरण-कमलों पर समर्पित की गई।  उन्होने परामर्श दिया, “दूसरों के दोषों को मत देखो।  वे दोष, जो हम देखते हैं – हमारे ही दोष हैं……. आज का संदेश है कि हमें अपने अंदर झांकना है-यही है जो श्री कृष्ण ने कहा है।  योगी को यह करना मुश्किल लगता है,, हमारे अहंकार और प्रतिअहंकार का एक पर्दा-हम हमारे और इन चीज़ों के बीच डाल देते है…….दूसरों के दोषों को देखने से, हमारे दोष दूर नहीं होंगे, वही है कुछ चीज, जो कि समझने में आसान है।”

अगस्त माह के अंत में श्री माताजी पेरिस पधारीं, यह चौंकाने वाली बात थी कि कैसे फ़्रांस के सहज-योगी उनके पेरिस-आगमन के सही पल को महसूस कर सके थे, जबकि कई योगियों को यह भी ज्ञात नहीं था कि श्री माताजी का आगमन होने वाला था।  इस्लामिक परंपरा में एक अवतरण को विश्व के आकर्षण का केंद्र माना जाता है।  एक बार बच्चे आधुनिक-काल के अवतरण से जुड़ गए, वे श्री माताजी के गुरुत्वाकर्षण केंद्र (Epi Centre) से जुड़ गए थे।  जिस तरह से जानवर, वृक्ष, पर्वत, नदियाँ, समुद्र, सूर्य और चंद्र उसी मूल-सिद्धांत से जुड़ते हैं,  वे प्रकृति के नियमाचारण (धर्म) से भटकते नहीं हैं।  जिस तरीके से पूर्णिमा को सागर में पूर्ण ज्वार उठता है, उसी तरह से एक आत्म-साक्षात्कारी की कुंडलिनी श्री आदि-शक्ति की उपस्थिती के प्रति प्रतिक्रिया करती है।  जब वे अति समीप या निकट होतीं या शहर में आई होतीं, योगियों की कुंडलिनियाँ सहस्रार पर नृत्य करने लगतीं थीं।  कुंडलिनी श्री आदि-शक्ति को अनुक्रिया (उत्तरदायी होना) देतीं, क्योंकि वह उनका ही प्रतिबिम्ब थीं।  यह धर्म प्यार का धर्म था और प्यार का धर्म  शाश्वत (अनंत) होता है, यह सदा से रहा था, रहता है और रहेगा।  इस अनंत-प्रेम से निकला हुआ (प्रस्रवित) ज्ञान ही वास्तविकता थी- निर्मल-विद्या।  इसके अतिरिक्त शेष सब अविद्या थी – एक भ्रांति।  निर्मल-विद्या मानव-जनित नहीं थी और इसीलिए किसी के द्वारा स्वभाव-परिवर्तन या चतुराई से इसमें हेर-फेर नहीं किया जा सकता।  इसके अलावा, यह एक कसौटी थी, जिसके द्वारा साधक परम-सत्य का सत्यापन कर सकता और श्री आदिशक्ति को जान सकता था और उससे ज़्यादा महत्वपूर्व था – श्री माताजी के सरंक्षण को तलाश सकना।  

श्री माताजी ने अपने फ्रांसीसी बच्चों को अपना आवास पेरिस शहर के बाहर तैयार करने के सुअवसर से आशीर्वादित किया।  मार्टिनीक से न्यू केलाडोनिया और मोनाको से लिले तक, सभी सहज-योगी स्वर्णिम-राजमिस्त्री (Golden builders) में रूपांतरित हो गए।  भवन-निर्माण की सरगर्मी के बावजूद, योगीजन अपने गुरुत्व-केंद्र से नहीं भटके।  हर दिन एकाकारिता और ज़्यादा दृढ़ होती गई और ज़्यादा आदर्श होती गई।  

आखिरकार, उन्होने श्री माताजी को समर्पित कर दिया और कर्त्तापन से मुक्त हो गए।  वे अपने गुरुत्व-केंद्र से एकाकार हो गए थे और श्री आदिशक्ति कर्त्ता बनीं।  इसी क्षण की उन्हें तलाश थी – जब बांसुरियाँ खोखली हो गईं थीं, वे लालित्यपूर्ण हल निकाल सकतीं थीं और नव-निर्माण को सुशोभित (सज्जित) कर सकतीं थीं।  और जैसे ही बच्चों ने अपनी स्थिति को धारण किया, परम-चैतन्य उनकी (बच्चों की) ओर गुरुत्वाकर्षण से आकर्षित हुए और उनकी देहरी पर जो भी उन्हें चाहिए था, उनके मांगने के पूर्व ही उन्हें प्रदान कर दिया।

माज़िद ने उत्साहपूर्ण हो प्रार्थना की, “हे माँ, विश्व निर्मल धर्म के साथ ही सभी धर्मों के झगड़े समाप्त हों , जो सभी धर्मों की जड़ों को मिलाता है।”

श्री माताजी बोलीं, “सभी धर्मों के साथ समस्या है कि उन्होने परमात्मा के दैवीय-दृष्टिकोण को भुला दिया।”

और उसके साथ, वे देवी माँ के कवच (संरक्षण) से वंचित हो गए।

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2003

अध्याय-8

सितंबर माह के आरंभ में श्री माताजी श्री गणेश-पूजा हेतु कबेला लौटीं।  वे बच्चों के लिए कैसल (Castle) में हस्त-निर्मित लकड़ी के खिलौने लाईं।  वे गहन-उत्सुक थीं कि बच्चों को प्राकृतिक सामान से बने खिलौने होने चाहिए, उनमें चैतन्य होता है।  जैसे ही बच्चों ने उन्हें फूल भेंट किए, उन्होंने बच्चों का आलिंगन किया और लंबी यात्रा की थकान, एक आनंदमय पारिवारिक पुनर्मिलन में रूपांतरित हो गई।  

तेरह सितंबर को श्री गणेश-पूजा पर उन्होंने बच्चों को पूजा के लिए पूजा-मंच पर बुलाया।  वे उनके लालन-पालन के लिए गहनता से चिंतित थीं, “यह बुजुर्गों का कर्तव्य है कि बच्चों के मस्तिष्क में स्वयं को ठीक से जानने की समझ-बूझ और आत्म-सम्मान के भाव डालें, वे पावित्र्य नहीं समझते, वे इसके लिए बहुत छोटे हैं।  किन्तु एक गुण है,जिसे वे समझ लेंगे-वह है ईमानदार होना।  मैंने बड़े लोगों को देखा है, उनमें अब भी पवित्रता, ईमानदारी जैसे साधारण गुण नहीं हैं।”

बच्चों ने अपनी प्यारी माँ से प्रार्थना की, उन्हें पहिला-बच्चा (First born) की प्रतिरूपता प्रदान करें।  यद्यपि बच्चों का सूक्ष्म शरीर विकसित हो गया था, किन्तु उनकी इड़ा-नाड़ी दोषी-भाव से बोझिल थी, जिससे उनकी कुंडलिनियाँ उनके सहस्त्राओं पर शांति में नहीं ठहर पा रहीं थीं।  यह उन्हें हमेशा के लिए अच्छे और बुरे गुणों का ईमानदारी से हिसाब लगाने में मदद करता रहता, किन्तु श्री आदिशक्ति की करुणा ऐसी थी कि उन्होंने बच्चों के गुणों को तौला नहीं, किन्तु उनके बोझों को अपने माथे लिया और उनकी आत्माओं को स्वतंत्र भागने दिया। 

कुछ योगियों की आत्माओं ने तुरंत उड़ान भरी, कुछ दूसरे योगीजन थे, जिन्हें थोड़ा वक्त लगा और उन्होंने उड़ान भरी, अंत में वे योगीजन थे, जो कभी उड़ान नहीं भर सके।  हालांकि उन्होंने उनकी आत्माओं को स्वतन्त्रता दे दी थी, किन्तु कुछ के हृदय पूरी तरह खुल गए, कुछ के आधे खुल पाए, जबकि अन्यों के बिलकुल नहीं खुले।  अपने हृदयों को खोलने का अधिकार (चुनाव करना) उनकी स्वतन्त्रता पर निर्भर था, वे (श्री माताजी) इस नियम को तोड़ नहीं सकतीं थीं। 

नव-रात्रि के आरंभ होते, श्री माताजी अपने अमेरिकी बच्चों की आत्माओं को स्वतंत्र करने हेतु न्यूयार्क पधारीं।  

बारह अक्टूबर को नेबेल ग्रांड होटल, इलेनविले में श्री गौरी माँ की जन्म-दिवस पूजा का आयोजन हुआ।

पूजा की पूर्व-संध्या को देवी-महात्म्य से एक नाटक द्वारा श्री गौरी माँ का प्राकट्य प्रदर्शित किया गया।

सबसे पहले एक महा-कांतिमय तेज, अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित श्री विष्णु से प्रकट हुआ, इसी तरह से ब्रह्मा और शिव के मुखों से भी बड़ा भारी तेज निकला।

और देवराज इन्द्र और अन्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला।

वह महा-अग्नि-से जाज्वल्यमान कांतिमय तेज-पुंज एक ठोस –स्वरूप में रूपांतरित हो गया।

 वह आश्चर्यजनक (विलक्षण ) तेजपुंज एक ज्वल्यमान पर्वत सा जान पड़ा।

देवताओं ने देखा की उस तेजपुंज की ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रहीं थी। 

वह अतुलनीय तेज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट हुआ था।

वह ऐश्वर्यशाली  तेजपुंज एकत्रित होकर अपने प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त होता हुआ जान पड़ता था।

और वह एक नारी के रूप मे परिणत हो गया।

पूजा प्रवचन में श्री माताजी ने कहा कि श्री गौरी माँ को उनके सरंक्षण के लिए धन्यवाद देने का यह एक अति महान दिन था।  “वे इस धरा पर कई बार अवतरित हुईं, उन लोगों  का संहार करने के लिए, जो अनैतिक कार्य कर रहे थे और साधु-जनों (सज्जनों) को मारने का प्रयत्न कर रहे थे।”

देवी माँ की स्तुति देवी-महात्म्य से गाई गई।  देवी-महात्म्य के प्रथम अध्याय में ऋषि मार्कन्डेय ने वर्णन किया, कैसे भक्तों के प्यार ने देवी माँ को दो राक्षसों मधु और कैटभ का संहार करने पर विवश किया, जो की काम/क्रोध तथा ईर्ष्या-द्वेष और आत्म-श्लाघा   के पुतले (प्रतीक-स्वरूप) थे।  उसके पश्चात, देवी माँ ने महिषासुर और रक्तबीज, जो कि प्रमाद और लोभ के प्रतीक स्वरूप थे, उनका संहार किया।  रक्तबीज के शरीर से जमीन पर गिरी खून कि बूंदों से वह राक्षस हजारों अपने जैसे राक्षसों में रूपांतरित हो जाता था।  जब एक राक्षस का संहार होता, दूसरा राक्षस प्रकट हो उठता था- ठीक मानव की इच्छाओं की तरह।  जब तक एक इच्छा पूरी होती, दूसरी इच्छा जन्म ले लेती।

“इस रक्तबीज राक्षस के रक्त-कणों से उत्पन्न राक्षसों से पूरा विश्व-व्याप्त हो गया।  यहाँ तक कि देव-गण भी आतंकित हो उठे।

देवताओं की यह दुर्दशा देखकर देवी चंडिका ने अट्टहास करते हुए सिंह-गर्जना की।  उन्होंने देवी काली से अपना मुँह फैलाने को कहा- “आपके इस विस्तृत मुख-से शीघ्र ही मेरे अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से निकली गई रक्तबीज कि रक्त-बूंदों को चट कर जाओ, ताकि रक्तबीज की रक्तबूंदों से उत्पन्न राक्षसों का संहार हो जाय।”

देवी कालिका ने रक्तबीज से गिरे हुए रक्त-कणों को, अपने मुख को सभी दिशाओं में व्याप्त करते हुए पी लिया, और इस तरह उस महा-राक्षस के मारे जाने पर मातृ-गण उन असुरों के रक्त-पान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा।“

किन्तु ‘अंतिम-निर्णय’ के इस संकटकाल में, ये सब दानवीय (आसुरी) प्रवृतियाँ लोगों के मस्तिष्क में धीरे-से प्रवेश कर गईं, जिन दानवों को देवी को मारना था, वे उनके बच्चों के दृष्टिकोण के पहलू बन गए।  श्री गौरी माँ और दानवों के बीच का युद्ध हरेक व्यक्ति में आंतरिक-युद्ध के रूप में बदल गया। श्री गौरी माँ अपने बच्चों पर आयुधों का उपयोग नहीं कर सकीं, इसके बजाय उन्होंने बच्चों के अंदर सुप्तावस्था में पड़ी हुई दैवीय-शक्ति (कुंडलिनी) को जाग्रत करके, उन्हें संपूर्णतया रूपांतरित कर दिया – शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से।  इस शक्ति (कुंडलिनी) की सहायता से बच्चों ने नकारात्मक-चैतन्य से युद्ध किया।  देवी-महात्म्य में, श्री गौरी माँ ने दानवों को हराया और बच्चों ने उनकी विजय का उत्सव मनाया और उन्हें उनके संरक्षण हेतु धन्यवाद दिया।

हरेक आयुध, उसके दाता के प्रतीक-स्वरूप-देवता द्वारा दिया गया था।  उन सब आयुद्धों की शक्तियों को संयुक्त-रूप से मिलाकर एक सर्वोच्च और अविजित देवी स्वरूप का सृजन किया गया था।  वे सब देवी महात्म्य में स्पष्ट वर्णित की गईं थीं – (इस प्रकार से हैं —-)

श्री शंकरजी ने अपने शूल से एक त्रिशूल निकालकर उन्हें दिया।

श्री कृष्ण जी (विष्णु जी ) ने उन्हें अपने चक्र से चक्र उत्पन्न कर उन्हें भेंट किया।  

श्री वरुण देव ने उन्हें एक शंख दिया श्री अग्निदेव ने एक भाला (शक्ति) प्रदान की। 

श्री वायुदेव ने एक धनुष और बाणों से भरे दो तरकश भेंट दिये।  

श्री इंद्रदेव ने अपने वज्र से एक वज्र उत्पन्न कर उन्हें भेंट किया।

सहस्र-नयन (इंद्रदेव) ने अपने हाथी ऐरावत से एक घंटा उतारकर उन्हें भेंट किया। 

मृत्यु के देवता श्री यमराज ने अपने कालदण्ड से निकालकर उन्हें दण्ड प्रदान किया।

इस तरह से, ऋषि मार्कण्डेय ने वर्णन करते हुए बताया कि कैसे देवी माँ ने चंड और मुंड दोनों असुरों को मार गिराया।

“हिमालय के स्वर्णिम उच्च शिखर पर अपने सिंह पर सवार हो, मन्द-मन्द मुस्कराती हुई देवी माँ अंबिका ने असुरों के विरुद्ध भयानक डरावनी गर्जना उच्च-स्वर से की, क्रोध करने के कारण उनका मुख-मण्डल स्याह हो गया था।  देवी माँ अंबिका के लालट में घनी टेढ़ी भौंहों से तुरंत विकराल-मुखी आकृति काली माँ प्रकट हुईं। “

माँ काली उन दोनों राक्षसों चंड-मुंड  पर झपट पड़ीं और उनका भक्षण कर गईं और इन दोनों असुरों को मारने के कारण वे ‘चामुंडा’ नाम से विख्यात हुईं। 

जब युद्ध समाप्ति के निकट हो चला, तब असुर शुम्भ अपने भाई निशुम्भ और उसकी सेना को नष्ट हुए देखता है, तो देवी माँ को दोषी करार देते हुए कहता है कि तुम कायर हो, तुम अपने विभिन्न-रूपों पर निर्भर हो (उनकी उन सात विभूतियों का हवाला देते हुए कहता है, जो चंडिका के ही विभिन्न रूप हैं।)

“ओ, दुर्गे ! तुम मिथ्याभिमान में अपनी आयुधों की शक्ति से घमंड से फूली हुई हो।  तुम अहंकार मत करो! 

यह की तुम दूसरी देवियों की शक्तियों पर आश्रित होते हुए लड़ रही हो।“

महान देवी माँ प्रत्युतर देती हैं, “मैं यहाँ ब्रह्माण्ड में अकेली ही हूँ ।  मेरे सिवाय दूसरा कौन है यहाँ ?  ओ नीच ! देख ये मेरी ही विभूतियाँ हैं,  जिनके पास मेरी ही दैवीय-शक्तियाँ हैं, और ये सब वस्तुतः मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं।“

तदनन्तर , सभी देवियाँ और दैवीय-शक्तियाँ देवी माँ अंबिका के शरीर में लीन हो गईं। 

तब, केवल देवी अंबिका ही अकेली रह गईं और उन्होंने शुम्भ का संहार कर दिया।

इसी तरह से, यह प्रदर्शित होता है – कैसे श्री कल्कि की शक्ति श्री आदि-शक्ति से प्रकटित होती है और जब वे अपनी करुणा की शक्ति अपने बच्चों पर अर्पित करती हैं, वे अपना विराट-स्वरूप-पुनः – ग्रहण कर लेतीं हैं। 

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2003

अध्याय-9

यद्यपि बाईं ओर की (ईड़ा) नाड़ी से नकारात्मकता उखाड़ फेंक दी गई थी, दायीं ओर की उग्रता (आग) ने लॉंस-एंजिलिस शहर को भयाक्रांत कर दिया था।  पिछले सप्ताह से लास-एंजिलिस  में जंगली आग पूरे उन्माद से फैली और लगभग श्री माताजी के आवास को भी निगलने लगी थी।  बच्चों ने श्री माताजी से सुरक्षा की गुहार लगाई, उन्होंने उनकी प्रार्थना पर ध्यान दिया और एक उल्टा बंधन दिया।  उनकी कलाई के हल्के-से झटके से परिणाम प्राप्त हुआ, जो एक सप्ताह लंबी फायर-फाइटर्स की लड़ाई-से नहीं प्राप्त नहीं हो सका था। हालांकि प्रकृति (निसर्ग) ने उनके हल्के-से आदेश का पालन किया, परंतु योगियों की राइट-साइड (पिंगला नाड़ी) में जलती हुई आग को शांत करना मुश्किल था।  दिवाली पूजा पर श्री माताजी ने बच्चों को आपसी-जलन और प्रति-स्पर्धा की अग्नि को शांत करने को प्रवृत किया।  दिवाली की चकाचौंध ने अंधेरे को बाह्य-रूप से भगा दिया था, किन्तु बच्चों के अंदर के अज्ञानान्धकार को नहीं भगा पाई।  “तब वह कौन-सी चीज है-जो गायब है ?  वह है हमारी ईमानदारी, लगन।  हमें स्वयं के प्रति ईमानदार होना होगा, क्योंकि यह केवल उधार में मांगा हुआ प्यार या खुशी नहीं है, किन्तु यह हमारे अंतस में स्थित स्रोत-से है, जो मात्र बह रहा है, बहता जा रहा है।”

बच्चों की ईमानदारी के बहाव ने दिवाली के दीये श्री माताजी के चरण-कमलों में प्रज्ज्वलित कर दिए।  जैसे ही नव-विवाहिता लक्ष्मियों ने पूजा के गहने उन्हें भेंट किए, उन्होंने उन लक्ष्मियों की हथेली पर उनका भविष्य पुनः लिखना शुरू कर दिया था।  उनकी देहरी से (द्वार से) कोई खाली हाथ नहीं लौटा, “हमें जानना चाहिए –हमारा भाग्य भी निर्देशित और सुरक्षित देखभाल में है…… यदि आप थोड़ा-सा इसे अपने गंतव्य पर छोड़ दें, जो बहुत उच्च और महानतम है।  यह आपको दिवाली का वचन है कि आप जीवन के उच्चतम और सबसे उदारतम रास्ते पर पहुँचेंगे। मेरा निकला हुआ हर शब्द सिद्ध करेगा, जो मैं कहती हूँ – वह घटित होता है।“

बच्चों ने उन्हें बारम्बार धन्यवाद दिया।  पंच-तत्व आनंद-मग्न हुए और आकाश से कृपा-वृष्टि की पंखुड़ियाँ बरसने लगीं।  श्री माताजी का चित्त दिवाली के दीयों के प्रकाश को धरती-माता के अंधेरे कोनों तक फैलाने पर स्थिर हो गया, जहाँ पर युद्ध का उन्माद अभी भी व्याप्त था।

श्री माताजी के महान नाती श्री अनंत के जन्म-दिवस के शुभ-अवसर पर उन्होंने सभी अमेरिकी बच्चों को जन्मोत्सव मनाने हेतु आमंत्रित किया था।  हालाँकि अनंत बहुत छोटा था, उसका हृदय बहुत विशाल था।  वह हर जगह अपने दो सौ मेहमानों के साथ गले मिल रहा था और प्यार कर रहा था।  श्री माताजी अपनी कुर्सी पर बैठी हुई बच्चों के आनंद-समारोह का आनंद ले रहीं थीं, जिसमें गीत, नृत्य, जादुई-प्रदर्शन और संगीत कार्यक्रम शामिल थे।  उन्हें अपने बच्चों के बीच आपसी मिलाप (समन्वय) से सबसे ज़्यादा खुशी मिलती थी।  हरेक बच्चे की इच्छा थी कि यह स्वर्गीय (अलौकिक) संध्या कभी समाप्त न हो।  श्री माताजी के भंडार में बहुत-सा अनमोल खज़ाना था – उन्होंने हरेक बच्चे को अपने हाथों से चुने हुए उपहार दिए।  यह उनका दिवाली का वायदा था। 

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2003

अध्याय-10

एक दिसंबर के ब्रह्म-मुहूर्त में, हांगकांग के पार्क लेन होटल के राज्यपाल का स्वीट (नौकर-चाकरों की सुविधाओं से पूर्ण आवास) एक पवित्र तीर्थ-स्थल में रूपांतरित हो गया था।  बीजिंग, शंघाई, गुवांगझू, शेञ्झेन, फिलीपीन्स, आस्ट्रेलिया, ताइवान और हांगकांग के सहजी बच्चों ने श्री माताजी के निरीक्षण की तैयारी पर एक छोटी पूजा सम्पन्न की।  लास-एंजिलिस से सोलह घंटों की यात्रा के बाद श्री माताजी थकी हुई सी लग रहीं थीं, किन्तु जैसे ही उन्होंने अपने बच्चों से फूल (माल्य) प्राप्त किए, बच्चों के प्यार ने आश्चर्यजनक रूप से उन्हें तरोताजा कर दिया और उनकी स्फुरित चमकती हुई मुस्कराहट वापस लौट आई, “इतने सारे लोग आए हैं।“

होटल जाते समय रास्ते में उन्हें अपनी पहली यात्रा (साठ के दशक की, सर सी पी के साथ) का स्मरण हो आया।  जहाँ भी उन्होंने यात्रा की थी, लोग उनका दर्शन  करना चाहते थे और जब उनसे पूछा गया था तो उन्होंने कहा कि वे महात्मा बुद्ध की माँ को देखना चाहते थे।  

सामूहिकता ने उन्हें चीनी पोर्सलेन पेंटिंग्स की एक जोड़ी एक बुजुर्ग कलाकार द्वारा निर्मित, भेंट की थी।  उस कलाकार ने उस पोर्सलेन पेंटिंग्स में चारों ऋतुओं (Seasons) के विभिन्न फूलों, पौधों और चिड़ियों को प्रदर्शित किया था,  श्री माताजी ने उस कलाकार की ऋतम्भरा -प्रज्ञा की सूक्ष्म-दृष्टि को बहुत ज़्यादा सराहा।  

अभी हाल ही में, एक ताईवानी (वास्तुविद) ने जो सहज-योग कार्यक्रम में शामिल होता रहा था, उसने मंदिर के पूरे प्रोजेक्ट (परियोजना) को सहज-योग को भेंट कर दिया।  इस परियोजना में, दक्षिण ताइवान में तेईस एकड़ भूमि पर एक बड़े मंदिर और बड़े मकान की योजना थी।  वह मंदिर को श्री माताजी को समर्पित करना चाहता था, ताकि वहाँ की स्थानीय जन-संख्या श्री माताजी के बारे में बेहतरी से जान सकें और उनके आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।  श्री माताजी बहुत प्रसन्न हुईं और उस परियोजना को आशीर्वादित किया। 

बहुत जल्दी ही उनकी विदाई का दिन आ पहुंचा।  एयर-पोर्ट (विमान-पत्तन) पर निर्गम-बैठक-कक्ष (Departure lounge) में वे वहाँ एकत्रित योगियों की ओर देख मुस्कराईं ।  पहले (भूतकाल में) विदा होते समय वे कहतीं थीं, “ईश्वर तुम्हें आशीर्वादित करें,”कहकर प्रायः विदा होतीं थीं, किन्तु इस बार यह शुभेच्छा अलग (भिन्न) थी।  वे बोलीं, “Best of Luck!” “सौभाग्यमय हों”। बच्चों ने उन्हें धन्यवाद दिया – उन पर श्री लक्ष्मी के आशीर्वाद की वर्षा करने हेतु। संपन्नता के आशीर्वाद के अतिरिक्त उनके दिवाली-आशीर्वचन ने विश्व के सभी देशों के बच्चों को एकाकार कर दिया, उस तरीके को उन्होंने पहले कभी महसूस नहीं किया था !!!  इतने आनंद के साथ उन्होंने गाना शुरू किया, जब तक कि श्री माताजी के हवाई-जहाज ने चार दिसंबर को भारतीय आकाश की सीमा को छू  न लिया था।  

सतत यात्रा से भरे वर्ष के बाद गणपतिपुले के लिए रवाना होने से पहले श्री माताजी ने कुछेक आराम से भरे सप्ताह बिताए।  हालाँकि सागर-तटीय क्षेत्र गणपतिपुले में पीने के पानी की कमी थी और आयोजक-गण चाहते थे कि कैटरिंग-टीम (भोजन-प्रबंधन टीम) पीने के पानी को टैंकर्स के माध्यम से पहुँचाने की जवाबदारी के लिए राजी हो और कार्य आरम्भ करें।  श्री माताजी ने कहा कि भोजन-प्रबंधन टीम बाहर से आई है, वे महाराष्ट्रीयन के मेहमान हुए और इसलिए उन्हें इस जवाबदारी के बोझ से न लादा जाए।  भारतीय मेहमान-नवाज़ी का मज़ा उठाना हमेशा स्थानीय लोगों का अहोभाग्य रहा है,  और किसी भी स्थिति में बाहर से पधारे मेहमानों को विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए। 

इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोग इस स्थिति से निपटने के लिए बेहतर सुसज्जित थे। 

श्री माताजी के उचित अवसर पर चित्त ने दोनों ही टीमों, कार्य-प्रबंधन और भोजन-प्रबंधन की चैतन्य-लहरियों को उन्नत किया।  गणपतिपुले कैम्प का स्वच्छता-प्रबंधन में उपयुक्त सुधार हुआ और भोजन के स्तर (गुणवत्ता) में भी सुधार हुआ।  श्री शंकराचार्य ने उचित बताया था कि देवी माँ का एक कटाक्ष-मात्र भी रूपान्तरण कर देता है! 

यह कृपा-दृष्टि (कटाक्ष) न केवल व्यक्तिगत रूपान्तरण करती है, किन्तु उस व्यक्ति के चैतन्य द्वारा उसके परिवार, समाज, देश और यहाँ तक कि ईराक में युद्ध को (शान्ति में) परिवर्तित करती है, किन्तु उनके बच्चों कि इच्छा सशक्त होनी चाहिए, जो सहस्रार का भेदन कर सके, केवल तभी ईराक-युद्ध समाप्त हो सकता था। 

श्री माताजी के आशीर्वाद से गणपतिपुले ने रूपान्तरण के लिए अद्भुत अवसर प्रदान किया।  यहाँ तक कि धरमशाला स्कूल के बच्चे व्यावसायिक जैसे प्रावीण्यता-प्राप्त कलाकारों में रूपांतरित हो गए थे और उनकी नृत्य-नाटिका ‘भारतीय आज़ादी के छप्पन वर्ष’ की प्रस्तुति से दर्शक-गण चैतन्य में भीग गए थे, किन्तु कुछ सुस्त बच्चे भी थे,  जिनका रूपान्तरण धीमा (मंद) था।  रूपान्तरण एक आंतरिक कार्य है, इसके लिए साहस और धीरज की जरूरत होती है।  उनके लिए, जो इतने सहायता-प्राप्त न थे, श्री माताजी ने उन्हें ईसा-मसीह के जीवन से प्रेरित किया, जिन हालात में उनका जन्म हुआ था, वे उनके प्रतिकूल-थीं और ईश्वरीय शक्ति भी (प्रतिकूल थी), तो भी वे डरे नहीं, विचलित नहीं हुए, “हमारे प्रति कुछ भी घटित होता रहे, हमें डरना नहीं चाहिए….. आप अपनी आध्यात्मिक राह पर चलें और सब चीजें आसान हो जाएंगीं, क्योंकि ईश्वरीय शक्तियाँ तुम्हारे साथ हैं।  वे हरेक चीज़ आपके लिए आसान किए दे रहीं हैं।“

हरेक बच्चे के अनुभव ने परम-चैतन्य की अद्भुत कार्यप्रणाली का प्रमाण प्रस्तुत किया, तो भी श्रीमान मस्तिष्क (मन) में अनेक संदेह अकस्मात फूट पड़े।  पूजा के दौरान श्री माताजी ने बच्चों को इस मन कि कारिस्तानी (चाल, दाँव-पेंच) को साक्षी-रूप से देखने की शक्ति से सज्ज किया।  उनके पास मन के विरोध में खड़े होने का या उसके हाथों खेलने के चुनाव का अधिकार था, किन्तु ईसा के साहस का उदाहरण उनके सामने था, श्रीमान मन ने मौका नहीं लिया! ईसा ने उन्हें बचाने हेतु दुख उठाया था।  इसके अतिरिक्त, उनकी माँ के प्यार की राह में खड़े होने का नकारात्मकता कैसे साहस कर सकती है!  धीरे-धीरे, किन्तु दृढ़तापूर्वक धीमी-गति के डिब्बे भी अपने लक्ष्य की ओर सफल हुए।  श्री माताजी को सबसे ज्यादा प्रसन्नता तब होती है, जब उनके बच्चे सुरक्षित घर पहुँचते हैं। 

अगले दिन, बाँसठ (62) विवाहों की तैयारियाँ शुरू हो गईं।  श्री माताजी ने दुल्हिनों के लिए उनके द्वारा चुनी हुई बनारसी साड़ियाँ खरीदने के लिए प्रबंध किया था, फिर भी कुछ दुल्हिनों ने जो धनाड्य परिवार से थीं, उन्होंने कहीं और से ज़्यादा महंगी दिखने वाली साड़ियाँ खरीद लीं थीं, इससे श्री माताजी प्रसन्न नहीं हुईं और कहा कि धनाड्य लोगों में यह एक प्रतीकात्मक अलग प्रकार की समस्या है,  उन्होंने अपने धन की ताकत से सामूहिकता को खराब करने की कोशिश की, “यदि आपके पास धन है, दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं।  आपको समझने चाहिए, यदि माँ ने सभी दुल्हिनों के लिए साड़ियाँ चुनी हैं, उन्हें श्री माताजी के आशीषों का आनंद लेना चाहिए, किन्तु कुछ विशेष होने के दिखावे का प्रयत्न करने से, वे मेरे शरीर में दूसरी कोशिकाओं के साथ समन्वित नहीं हो पाते।”

एक साधारण संशोधन (सुधार) ने कोशिकाओं को यह रहस्य उद्घाटित कर दिया कि उनके (विराट के) शरीर में कैसे समन्वित होना है! 

इस सुधार कार्य ने बुरी-नज़र को दूर कर दिया था, और पहली बार विवाहोत्सव का हवन बिना अग्नि-तत्व के हुआ।  श्री अग्नि देवता के मानव-स्वरूप (श्री माताजी) ने कृपा करके उनके द्वारा अर्पित भेंट स्वीकार कीं। 

श्री माताजी ने उनके सभी बच्चों पर उपहारों की बारिश कर दी।  उनकी निःसंकोच उदारताएँ अनत थीं।  जैसे एक सागर से नहर निकाली जाती है, तो सागर खाली नहीं हो जाता, इसी तरह-से उनका खज़ाना अनंत था।  उनके विदा होने से पूर्व आयोजकों ने श्री माताजी से अगली क्रिसमस-पूजा गणपतिपुले में आयोजित करने की आज्ञा हेतु प्रार्थना की।  वे अपनी कनखियों से मुस्कराईं, मात्र केवल वे थोड़ा समझ पाए, यह उनकी इस पावन सागर-तट पर आखिरी मुलाक़ात थी! 

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2004

अध्याय-11

चौदह जनवरी को पुणे में श्री माताजी अपने शयन-कक्ष के बाहर अंदर वाले बरामदे में संक्रांति-पर्व के सूर्य की प्रतीक्षा में बैठी हुई थीं।  प्रातःकालीन ओस की बूंदें सूर्योदय की लालिमा में बगीचे की हरित-चादर पर जगमगाती-सी थीं और अंग्रेजी गुलाब की मधुर-सौरभ हवा में भर गई थी।  गौरैयाओं की चहचहाने की ध्वनि से संगीतमय स्वागत-राग बज उठा, किन्तु सूर्यदेव के दर्शन नहीं हुए, वे बच्चों की आज्ञा को खोलने हेतु प्रतीक्षा में थे, अपने सुनहरे रथ में आरूढ़ होने से पूर्व।

श्री माताजी बच्चों के पुष्पार्पण से प्रसन्न थीं।  संक्रांति-पर्व के सूर्यदेव को बधाई देने के लिए श्री माताजी ने बच्चों को क्षमा करने हेतु प्रेरित किया, “क्षमा करने के लिए, किसी को भी क्षमाशील होना चाहिए।  व्यक्ति को सोचना चाहिए कि हरेक को अपने कर्मों का सामना करना होगा।  हमें इस हेतु क्या करना है ?  व्यक्ति जो कहता है, वह लौटकर उसके पास वापस होता है, हमें क्यों इसमे लिप्त होना है ?

ऐसे अलगाव के साथ यदि आप सबको क्षमा करोगे, तब आज्ञा ठीक हो जाएगी।“

सूर्यदेव ने श्री माताजी के चरण-कमलों का पूजन किया और अपने सौर-परिवार के कल्याण हेतु प्रार्थना की।  आज्ञा-चक्र पर अति-क्रिया-शीलता ने उनकी चिंताएँ बढ़ा दीं।  जब तक कि मानव-जाति क्षमा करना न सीख ले, धरती माता गर्म से गर्मतर होती चली जाएगी और जंगलों की आग और झगड़े (कलह) का कारण होगी।  तब कैसे सौर-मंडल की पद्धति (व्यवस्था) में कल्याण संभव हो सकेगा ?

श्री आदिशक्ति ने श्री सूर्यदेव की प्रार्थना पर ध्यान दिया, और श्री महाशिव-रात्रि पूजा ने श्री शिवजी की कल्याण की शक्ति का आवाहन किया, “श्री शिवजी के रूप में, शक्ति गुरु की है।  जब आपको गुरु की शक्ति मिलती है और यह आपके अंदर प्रवाहित होने लगती है, तब आप स्वयं के गुरु बन जाते हो, किन्तु इस शक्ति का कार्य आपका क्षेम (कल्याण) करना है……. किसी को गुरु बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।  यह बहुत अव्यवहारिक है।  यदि आप गुरु बनने की कोशिश करते हैं, आप कभी नहीं बनेंगे।  यह स्थिति (गुरु-पद) आपको स्वतः ही आयेगी, बिना किसी माँग के, बिना किसी प्रयास के।  अतः केवल एक तरीका है, आप इसे ध्यान के द्वारा प्राप्त कर सकते हो।”

श्री माताजी की सलाह का अनुसरण करते हुए, बच्चे गहन ध्यान में चले गए।  धीरे-धीरे उन्हें अपने भीतर आनंद के सतत बहने वाले झरने का एहसास हुआ और ज़्यादा कुछ पूछने को न रहा, क्योंकि श्री माताजी ने उन्हें सब-कुछ प्रदान कर दिया था।  अपने हृदय की गहराई से उन्होंने श्री माताजी को धन्यवाद दिया और सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रार्थना की। 

बसंत के आते ही हालैंड से ट्यूलिप, इंग्लैंड से गुलाब, ऑस्ट्रेलिया से बेगोनीयाज़ और इटली से ऑलिव्ज़ से प्रतिष्ठान जीवंत रंगों के हंगामे में फूट पड़ा।  हरेक फूल ने श्री माताजी को पूरे विश्व के बच्चों की याद दिला दी।  श्री माताजी ने होली के रंगों को चैतन्यित कर दिया, किन्तु सहजी बच्चे पहले से ही उनके रंगों में रंगे हुए थे और उनका रंग इतना पक्का था, उस पर दूजा कौन-सा रंग चढ़ सकता था।

अगले सप्ताह श्री माताजी उनके इक्यासीवें(81) जन्म-दिवस समारोह के लिए दिल्ली प्रस्थान कर गईं।

बीस मार्च को दिल्ली में बच्चों ने एक शानदार जन्म-दिवस उत्सव आयोजित किया।  श्री माताजी ने संकोच- पूर्वक उत्तर दिया, “मुझे नहीं मालूम, आप सब मेरे लिए क्या बधाई-उत्सव मनाने वाले हो, क्योंकि सबके  बावजूद मैं एक माँ हूँ और माँ को अपना काम करना होता है।  इसमें कोई बधाई नहीं है, केवल प्यार है –  बच्चों के लिए प्यार और वही कारण है – मैंने कार्य किया है और यह सफल रहा।”

पिछले तैंतीस वर्षों से निरंतर उन्होंने दुनिया के सभी भागों की यात्रा सहज-योग प्रसार के लिए की, किन्तु उन्होंने कभी  

महसूस नहीं किया, कि वो कुछ कर रहीं थीं; क्योंकि एक माँ के लिए बिना किसी मान्यता /पहचान, इनाम या एहसान की अपेक्षा के लिए यह केवल प्यार की पुकार थी।  इतने शानदार पैमाने के समारोह पर वे एक शिशु-सम विस्मित-सी लगीं, किन्तु किसी भी वस्तु से ज़्यादा खुशी उन्हें अपने बच्चों के बीच प्यार को देखकर हुई।  

जन्म दिन पूजा समारोह के दूसरे दिन, इक्कीस मार्च को उन्होंनेअपने बच्चों को वात्सल्य की सुंदर लहर में लपेट लिया था।  बच्चों ने उनसे प्रार्थना की कि ईराक-युद्ध को भी इस वात्सल्य की लहर में लपेट लें।  वे बहुत प्रसन्न लग रहीं थीं – जिस तरह से बच्चों ने उनके चैतन्य को अवशोषित किया था और वे उपहारों को ग्रहण करते हुए तथा ईराक-युद्ध की समाप्ति के बारे में चर्चा करते हुए बच्चों के साथ बैठीं। 

उनके वात्सल्य की इस लहर ने पुणे को आशीर्वादित किया और बीस मार्च को उन्होंने सभी योगियों को प्रतिष्ठान में कव्वाली और रात्रि-भोज के लिए आमंत्रित किया।  हैदराबाद से पधारे सूफ़ी कव्वालों ने अपनी भक्ति का इज़हार किया, “आपके होकर हम किसी दूसरे के नहीं हो सकते।”……… 

वे श्री माताजी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गए, “परमात्मा हमें आपके सौंदर्य के आकर्षण से बचाएँ।  यहाँ तक कि देवदूत भी इस आकर्षण से मुग्ध (आत्म-विभोर) हो जाते हैं,  तब हम गरीब संसारी इन्सानों कि क्या बिसात।“

श्री माताजी ने उन्हें सुंदर उपहारों से नवाज़ा।

“आपकी उदारता में इतना सारा बहुत अधिक प्रचुरता में है, क्या आप कभी अपने उपहार गिनते या तौलते हैं।”

किन्तु रुको, “जब तक मेरा मौल नहीं होता, मेरी कोई कीमत नहीं; किन्तु, जबसे तुमने मुझे खरीद लिया है। मैं अनमोल हो गया।“

क्या, यह एक पूजा थी या एक संगीतमय (शाम) संध्या!  उनके प्यार कि (वात्स्ल्यमय) सुरा इतनी मदहोश करने वाली थी, किन्तु ओह, इस सुरा को क्या मालुम था – खुद की मदहोश (उन्मत्त) करने की शक्ति के बारे में।

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2004

अध्याय-12

तेईस अप्रैल को जब श्री माताजी लंदन पधारीं, उनके बच्चों की निश्चल-मुस्कानों और मुक्त-हृदयों ने उनकी आँखों में आँसू ला दिये।  उन्होंने महसूस किया – पहले से भी ज़्यादा हृदय खुल गए थे, किन्तु इन हृदयों से प्यार प्रसारित होना होगा, ताकि इस संसार से झगड़े/कलह को दूर किया जा सके।  

सहस्रार पूजा पर उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया कि कलह-मुक्त होने के लिए सहस्रार खुलने चाहिए, “और ज़्यादा बहसबाज़ी नहीं, और ज़्यादा सुझाव नहीं, कुछ भी नहीं, किन्तु अपने सहस्रार खोलें, जिससे आपको मालुम होता है कि सत्य क्या है।”

समस्या तब हुई, जब सहस्रार के खुलने के बावजूद योगियों ने अपनी कुंडलिनी माँ की बात नहीं सुनी, परन्तु अपनी बुद्धि के फैसले के फेर में पड़ गए।  अपनी कुण्डलिनी की विनम्रता के बिना उनकी बुद्धि के ऊँचे घोड़ों ने उनको अहंकारोन्मुखी बनाया।  सहस्रार-सेमिनार (शिविर) पर उनके अहंकार ने मस्तिष्क के तूफानी (आवेशपूर्ण) सत्र का सुझाव दिया। उस शिविर  की कार्यसूची सहज-योग के भविष्य से लेकर उसके संगठन के बीच रही। 

श्री माताजी ने पूछा-वे अपने विचारों में क्यों इतने संलग्न थे, जबकि उनके सहस्रार से सत्य का ज्ञान बरसा जा रहा था।  उन्हें (श्री माताजी को) ऐसा संगठन नहीं चाहिए था, जिसका संगठन पिरामिड की भांति ऊपर से बोझिल हो – जिसमें अगुआ-गण, बोर्ड की बैठकें होना और नियम व शर्तें हों।  जब अंतरात्मा संगठित है, तब बाह्य में भी पूर्णतया सब कुछ संगठित होगा।  मात्र एक बिन्दु, जो वे चाहतीं थीं, वो कि कोशिकाएँ अपनी स्थिति को (आत्मस्वरूपता को )स्वीकार कर लें। जहां कोशिकाओं ने अपनी स्थिति को  स्वीकार कर लिया था, उनकी गुरुता (गुरुत्व) ने परम चैतन्य को ऋतम्भरा-प्रज्ञा के आशीर्वादों को प्रकट करने हेतु विवश कर दिया था।  वहाँ कोशिकाओं के लिए गति को तेज करने या ऋतम्भरा-प्रज्ञा को निर्देशित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।  यह कार्य उन्होंने परम-चैतन्य को विशेषतया से सौंप दिया था।  परम चैतन्य हरेक कोशिका की ज़रूरत को देखते थे और अपनी असीम सुबुद्धि से अद्भुत तरीके  से सही वक़्त में सही कार्य करने की जादूगरी की।

किन्तु, दायें ओर झुकी हुई कोशिकाएँ श्री माताजी के संरक्षण से संतुष्ट नहीं थीं और उन्होंने सहज-योग को संगठित करने के अपने तरीकों को प्र्क्षेपित किया, इसके फलस्वरूप, वे अपने एपी-सेंटर (भूकम्प के सतही बिन्दु) के गुरुत्व से हट गए और वहाँ से आगे उन्होंने परम-चैतन्य को विवश कर देने की शक्ति खो दी। इसके अतिरिक्त, उनके विचार-विमर्श ने श्री माताजी की इच्छा किया और उस कारण से श्री माताजी के आनंद से विलग हो गए।  जब वे उनके निरानन्द को महसूस नहीं कर सके, तब उन्हें समझ में आया कि वे अपनी संरक्षिका मैया की नैया को छोड़ चुके थे। 

फिर भी, श्री माताजी ने उन्हें नहीं छोड़ा और अपने कारुण्य में उन्हें निरानन्द के आनंद में (स्नात) नहला दिया।  किन्तु माँ के निरानन्द के मुक्त-प्रवाह हेतु, उन्हें अपनी मर्यादाओं में सुधार करना था और उसमें कायम रहना था।  माँ के निरानन्द का अनुभव करने पर उन्हें मालुम हुआ कि श्रीमाताजी कौन थीं, उनकी शक्तियाँ क्या थीं, क्या चर्चा करना और क्या नहीं करना है।  उन्होंने निरानन्द का गहनता से पान किया और सभी संगठनात्मक चिंताएँ माँ पर छोड़ दीं।  निरानन्द की दिलचस्प (रुचिकर) लहरों में उन्होंने सूफ़ी क़व्वाल की प्रतिध्वनि को सुना,”खुदा का दीदार कर लिया है, वे खामोश हो जाते हैं, जिन्होंने नहीं किया –वे सिर्फ उनके बरे में ताने-बाने बुनते है।”

कबेला में आयोजित श्री आदिशक्ति पूजा में श्रीमाताजी ने स्पष्ट बताया, “हमें अपनी आत्मा से एकाकार होना होगा और शब्दों के जाल, या वातावरण में या अपने मस्तिष्क की हलचल में नहीं खो जाना है, क्योंकि यही समय है जब मस्तिष्क की हलचल शुरू होती है और जब यह हलचल करता है या नियंत्रण खो देता है।”

आत्म-साक्षात्कार के बाद भी बच्चे अपने विचारों और चैतन्य के बीच उलझ गए थे।  जो भी विचार उन्होंने विकसित किए, वे या तो पुस्तकों से थे या दूसरे लोगों के विचारों से उधार लिए गए थे।  जब श्री आदिशक्ति ने सत्य के ज्ञान के ख़ज़ाने की कुंजी उन्हें दे दी थी, तब सहस्रार के ख़ज़ाने के ताले को क्यों न खोला जाय और मस्तिष्क की हलचल को क्यों न नियंत्रित किया जाय ?

बच्चों ने श्री आदि-शक्ति को उनके साथ एकाकारिता में जुड़े रहने हेतु प्रार्थना की और उनकी सर्व-व्यापकता को फैलाने में सहायक होने हेतु प्रार्थना की। श्री माताजी ने करुणा करके बच्चों के चित्त को साक्षी-अवस्था तक उन्नत किया, जहाँ वे अपने मस्तिष्क की चल-विचल को बिना उसमें खोए साक्षी-भाव से देख सकते थे।  मस्तिष्क की यह चल-विचल एक पेंडुलम (गोलक) की तरह (बाएँ-दाएँ-बाएँ) कारण से परिणाम की ओर थी, हालांकि श्री माताजी ने योगियों को इससे परे (पेंडुलम-गति से परे) एक सुरक्षा कवच में घेर लिया था, जहाँ योगीजन मस्तिष्क की गति को गलत दिशा में जाने से रोक सकते थे।  जैसे ही उन्हें स्वयं पर आधिपत्य (स्थामित्व) प्राप्त हुआ, उनकी आँखें श्री माताजी से मिलीं और उन्होंने हामी भरते हुए (‘हाँ’ कहते हुए) कहा – उन्होंने सर्वव्यापकता के तत्व को जो अनंत था, को छू लिया, जो परिवर्तित नहीं हुआ, जिसने प्रतिक्रिया नहीं की – एकाकारिता अपनी आत्म-शक्ति से, एकाकारिता श्री माताजी से और एकाकारिता आपस में, एक दूसरे के प्रति। (उन्होंने इस अनंत सर्वव्याप्त तत्व को छू लिया था)

 अपने गुरु के साथ एकाकारिता ने उन्हें गुरु को महसूस करना, उन्हें समझना, उनकी सुरक्षा में रहना तथा सर्वोपरि उनसे स्नेह करने योग्य बनाया।  उस एकाकारिता में कोई तर्क-वितर्क (वाद-विवाद) नहीं था।  बताने (समझाने) या संगठित करने की ज़रूरत नहीं थी – यह एक सहज अंतरंगी प्रेम का प्रवाह था।  यह निरपेक्ष था और इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि गुरु ने प्रत्युत्तर दिया हो, किन्तु जब गुरु श्री आदिशक्ति थीं, यह कैसे संभव हो सकता था।  उन्होंने जीवन को अर्थ दिया, समझाया, “मानव होने का क्या अर्थ था।” केवल यही नहीं, उन्होंने नीरस मरुथल को मरू-उद्यान में रूपांतरित कर दिया था।  जहाँ प्यार मर चुका था और बहुत पहले विस्मृत हो चुका था, उन्होंने अपने निरानन्द से उसे पुनर्जीवन प्रदान किया।  उनका निरानन्द ही उनका संगठन था!

किन्तु रुकिए, उनका निरानन्द इतने चमत्कारों से भरपूर था, उन्होंने अपना कबेला  स्थित सुन्दर महल (Castle) तथा हैंगर (अर्ध गोलाकार विशाल टैंट) सहित ज़मीन, उन पर (बच्चों पर) न्यौछावर कर दी थी।  यह गुरु-शिष्य परम्परा  से कुछ हटकर था, जहाँ शिष्य को गुरु-चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करना होता था, किन्तु उसमें एक सतगुरु का रहस्य रहता था – एक रहस्य जो पहले उजागर नहीं हुआ था।

कबेला, श्री गुरु पुजा में यह रहस्य प्रकट हुआ था, “सबसे बड़ा गुरु जो हमारे पास है – वह प्यार है, सहज प्यार। यह सच है – सच्चा गुरु हमारे अंदर है, जो हमें सिखाता है, जो कैसे भी या दूसरे तरीकों से हमारा मार्गदर्शन करता है।  हम उस समझ-सीमा तक मार्ग-दर्शित किए गए हैं, जिसके लिए हमें किसी स्कूल या महा-विद्यालय में शिक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है……. यही है गुरु, जो हमारे अंतस में प्यार स्वरूप है, जो दूसरों में प्यार बांटना चाहता  है,  जो दूसरों को प्यार देना चाहता है।  यही है जो प्यार और आनंद है।”

बच्चों के पास अपने गुरु के प्रति गहन कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्दों की कमी थी – शब्द नहीं थे, और उन्होंने श्री माँ की स्तुति-गान किया, “सात जनम जो पुण्य किए हैं, सफल हुए सारे……..” जिसका अर्थ है, हमें आपके दर्शनों का लाभ पिछले सात जन्मों के किए हुए पुण्यों के कारण प्राप्त हुआ है, नहीं ! बल्कि ऐसे श्री गुरु का कृपा-पात्र होना, सात जन्मों नहीं, नौ जन्मों के पुण्यों का फल था – यह उनका निरानन्द था, जिसने उन्हें अंतिम-निर्णय (Last Judgement) हेतु तैयार किया था।

उनके निरानन्द ने उनके अमेरिकी बच्चों पर श्री कृष्ण – पूजा, लास-एंजिलिस पर श्री कृष्णानंद की बौछार की।  धर्म की रक्षिका महाभारत के (कुरुक्षेत्र) युद्ध भूमि में, अपने वात्सल्य की ढाल लिए अपने अमेरिकी साधकों की, अंतिम-निर्णय से रक्षा हेतु उतर पड़ीं।

नवरात्रि पर बच्चों ने श्री आदिशक्ति के साकार गुणों का वर्णन, अपने पर विभिन्न दैवीय गुणों के आशीर्वाद प्रदान करने हेतु प्रार्थना की – उन्हें सुबुद्धि, धैर्य (शांति), शक्ति, निद्रा, जन्म, विनम्रता, सक्रियता,श्रद्धा, कान्ति, कृपा, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ और सबसे अंत में भ्रांति रुपेण आशीर्वादित करने की   प्रार्थना की। 

जिस तरह से स्कूल्स में अग्नि-शामक (आग-बुझाने) की कवायद व्यावहारिक रूप से बच्चों को प्रदर्शन द्वारा सिखायी जाती है, ठीक उसी तरह से जान-बूझकर श्री माताजी ने स्वयं को भ्रांति (गलती) में ले जाकर, यह बताया की बच्चों को अपनी गलतियों को कैसे ठीक किया जाता है।

अपने को ज़्यादा दोषी महसूस करने के बजाय और अधिक ईडा-नाड़ी की (तमोगुण) अतिशयता में जाने के बजाय, बच्चों ने श्री माताजी से क्षमा-याचना की।  वे क्षमाशीलता की महासागर हैं और उन्होंने तुरंत ही क्षमा कर दिया।  उन्होंने न केवल क्षमा प्रदान की, उन्होंने यह भी रहस्योद्घाटित किया कि  एक गलती को कैसे दुरुस्त किया जाता है।  अंतर-अवलोकन के लिए एक गलती एक उत्प्रेरक हो सकती थी।  उनके अंतर-अवलोकन ने यह स्पष्ट जाहिर किया कि उनका अहंकार ही उनकी गलतियों के पीछे था । यह ज़ाहिर करना ही एक विनम्रतापूर्ण अनुभव था।  इसने उन्हें यह भी सिखाया कि कैसे अपने अहंकार को सर्वोत्कृष्ट बनाना।  समय चक्र अंतिम-निर्णय की ओर घूम गया।  अंतिम-निर्णय के इस संधि (संगम) पर, किसी ने उन्हें परखा (जाँचा) नहीं, वे अभिनिर्णायक के न्यायाधीश बन गए।  अंतिम न्याय का उद्देश्य स्वयं को दन्डित करना नहीं था, किन्तु अपनी आत्मा के पुनर्जागरण के आदेश (फैसले) को लेना था।  उनकी कुंडलिनी के प्रकाश ने उन्हें आत्मावलोकन योग्य बनाया, इस तरह पुनर्जागरण (पुनर्जीवन) करना था।  किन्तु, उनका क्या, जिन्हें कुंडलिनी का प्रकाश नहीं मिल पाया ?  माइकल एंजेलो ने अपने अंतिम-निर्णय (Last Judgement) में बताया –  सात खतरनाक (खूँखार) पाप साधकों की आत्माओं को नर्क की ओर खींच रहे थे, किन्तु श्री आदिशक्ति (Holy Spirit) का चित्रण बिलकुल अलग था।  उनकी करुणा ऐसी थी कि वे हरेक बच्चे (साधक) की रक्षा करना चाहतीं थीं।  वे तब तक चैन-से नहीं बैठेंगीं, जब तक कि कुंडलिनी का प्रकाश दुनिया की चारों दिशाओं से अंधकार को दूर नहीं कर देता।  इसके तुरंत बाद, उन्होंने अमेरिका के हर कोने में प्रकाश का दीप जलाया।

दिवाली पूजा पर श्री माताजी ने तिरेपन (53) नव-विवाहित दीपों को दूसरों को प्रकाश देने हेतु आशीर्वादित किया।  दीप का प्रकाश आसपास के अंधेरे को दूर भगाता है और अमेरिकी साधकों को पुनर्जीवन प्रदान किया।  श्री माताजी प्रसन्न थीं कि अमेरिका ने मुसीबत का वक्त काट दिया था और वे चौबीस (24th) नवम्बर को लंदन के लिए रवाना हुईं।  विमान में उड़ान के दौरान उनकी देखभाल करने वाले एक योगी को उन्होंने बताया, “अब मैंने अपना काम कर दिया है और मैं कुछ ज़्यादा प्रवचन नहीं दूँगी।”

वह योगी हतप्रभ था।  उन्होंने उसे आश्वस्त किया, “यदि मैं बात भी न करूँ, यदि मैं प्रवचन भी नहीं दूँ।  यह ज़्यादा महत्वपूर्व है कि आप कितनी गहनता से मुझसे एकाकार हैं – मेरे साथ हैं।  आपके अंदर शांति, आराम, प्यार की क्षमता है –  यह महत्वपूर्ण है।”

पिछले तीस वर्षों में, अंग्रेज़ सहज-योगी-जनों के समर्पण ने उस क्षमता को शुद्ध किया है।  उन्होंने उनकी हर भावाभिव्यक्ति का अनुसरण किया; उनकी आँखों में करुणा का प्रकाश, उनके तीक्ष्ण कटाक्ष और उनकी चमकती-स्मिता (मुस्कान) ने हरेक बात प्रकट कर दी थी, किन्तु बच्चे भी अपनी कृतज्ञता को ज्ञापित    करना चाहते थे और फूलों से बेहतर इसे कौन जता सकता था।  फूलों के जीवन्त रंगों ने उनके सुंदर हृदयों को प्रतिबिम्बित कर दिया था।  वे उनकी मधुर-सुगंध से अत्याधिक प्रफुल्लित थीं और इस सौरभ को उन्होंने क्रिसमस-पूजा, पुणे के लिए अपने हृदय के खज़ाने में समाए रखा।

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2005-06

अध्याय-13

वर्ष 2005-06 श्री माताजी की चुप्पी की अल्प-काय पारी और अधिक लम्बी होती गई।  कहने को कुछ नहीं था; बच्चों और उनकी माताजी के बीच का बंधन इतना सशक्त विकसित हो गया था कि उनकी वात्सल्य की भाषा ने सब कुछ कह दिया था, किन्तु बच्चे अपनी माँ की ममतामयी वाणी से वंचित थे।  उन्हें यह बात समझ आ गई थी कि श्री माताजी ने उन्हें पहले से ही बता दिया था, जिसे जानना उनके लिए ज़रूरी था, किन्तु उनके बच्चों की तीव्र इच्छा उनके पूजा-प्रवचन को सुनने की हुई।  वे श्री माताजी से निर्देश या सहज-योग का ज्ञान या अन्य कुछ नहीं पाने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु जब श्री माताजी उनसे बातें करतीं, उनके हृदय खुशी –से खिल जाते थे और वात्सल्य की एक धारा प्रवाहित हो उठती थी।

यद्यपि श्री माताजी ने उन्हें अपनी सभी शक्तियाँ प्रदान कर दीं थीं, उन्होंने उन्हें उपयोग नहीं किया था और छोटे-छोटे नवजात शिशुओं की भाँति झूलों में संतुष्ट थे – अपनी माँ के उत्साह-वर्धन, आश्वासन, डांट खाते हुए, फुसलाते (बहलाते) से तथा हँसीं के साथ।  उन्हें हाथ से चुभाये जाने के लिए, शांति की माया (चुप्पी) धारण करने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता (तरीका) नहीं था।  जैसे एक बादल सूर्य को ढाँप लेता है, किन्तु उसे दिखाता भी है, उनकी माया ने बच्चों के चित्त को विकसित करना शुरू किया।  हर समस्या का उन्होंने हल निकाला और तुरंत दर्द के इलाज़ का मशविरा दिया था और हरेक प्रश्न का उन्होंने उत्तर लिखा हुआ था, किन्तु उसके उत्तर को पढ़ने हेतु, उन्हें अपने अंदर-स्थित जनरेटर (विद्युत शक्ति के उत्पादक यंत्र) का आश्रय लेना था।  जैसे ही बच्चों ने अपने अंदर स्थित पावर-हाउस (बिजलीघर) को शुरू किया, वे अपनी आत्मा के आनंद की खुशी मनाने लगे।

निस्संदेह, कुंडलिनी एक सजीव संगठन (व्यक्तित्व) है, उसकी अपनी स्वयं की चेतना है, किन्तु इसे बच्चों  के चेतन-मस्तिष्क का भेदन (पारगमन) करना था।  यद्यपि, चेतना का विस्तारण मस्तिष्क का काम नहीं है, यह काम कुंडलिनी का है और कुंडलिनी का विकास केवल श्री आदिशक्ति की कृपा के द्वारा ही संभव था।  सौभाग्यवश, यह इतना दुष्कर नहीं था, क्योंकि श्री आदिशक्ति ने बच्चों (साधकों) को सहस्रार खोलने की चाबियाँ देने हेतु अवतार लिया था।  एक बार सहस्रार खुलने पर वे उनके संगीत (अनहद नाद) को बंद आँखों और कानों से सुन सकते थे।

उस गहन मनन की शान्ति में, वे उनके साथ तदाकारिता का अहसास कर सके।  एक माँ की तरह जो प्यार से अपनी आँखें अपने बच्चों के विकास पर लगाए रखती है, उन्होंने अपने बच्चों के उत्थान को, प्यार के रिश्तों के जन्म को, और त्याग, सहनशीलता और प्यार को अंकुरित होते हुए का आनन्द उठाया।

पूजाओं के दौरान श्री माताजी का चित्त इतना सशक्त महसूस हुआ कि बच्चों ने कुछ बहुत-विशाल अनुभव किया, अपने सहस्रारों को एक असीम (अनंत) शक्ति  के अंदर आकर्षित होते हुए महसूस किया।  योगीजन (कोशिकाएँ) एक अजेय संगठन श्री कल्कि, के शरीर में समा गए थे।  श्री माताजी सामूहिकता की प्यार की शक्ति से बँधी हुईं थीं, जिसने स्वयं के जीवन और संवेग को प्राप्त किया।  उनके न्याय के तराज़ू को मानव-नियमों के सत्य और असत्य से नहीं तौला जा सकता था, परन्तु जिसने सामूहिक-प्यार में बाधा उत्पन्न की, उसे न्याय दिलाया।  उन्होंने परम-चैतन्य को गति प्रदान की।  सामूहिकता के स्तर पर परम-चैतन्य ने आत्म-साक्षात्कारियों की कुंडलिनियों को प्रति-उत्तर दिया।  उनकी कुंडलिनियों के प्राकट्य ने सामूहिक-चक्रों की संतुष्टि को न्याय प्रदान किया।  जब तक कि सामूहिक-चक्र संतुलन में नहीं लाए जाते, विश्व में शान्ति स्थापना करना असंभव था।  विश्व के सभी देश विभिन्न चक्रों को प्रदर्शित करते थे। 

जब तक कि ये विभिन्न चक्रों को प्रदर्शित करने वाले देश समन्वित नहीं हो जाते, विश्व कैसे सह-स्वर (समन्वय) में रह सकता था।  यद्यपि, अंतिम-निर्णय ने समय के चक्र को साक्षी होने के लिए याद किया (बुलाया), श्री माताजी विश्व को अंतिम-निर्णय के बेरहम कोर्ट-डिक्री (आर्डर) से बचना चाहतीं थीं। 

विश्व की तुरंत रक्षा करने के साथ पूजाएँ ज़्यादा से ज्यादा सशक्त होती गईं।  जैसे ही श्री माताजी ने विश्व-समस्याओं को अवशोषित करना शुरू किया।  बच्चों के सहस्रार भी वैश्विक-समस्याओं के प्रति उत्साहित हो गए।  बच्चों के सहस्रार जाग्रत हो गए, कुंडलिनी के भेदन से नहीं, बल्कि वे श्री माताजी की करुणा से भर गए थे।  उनकी करुणा का ऐसा स्वभाव था की उसने वैश्विक समस्याएँ बच्चों के सहस्रार में अवशोषित करा दी।  बच्चों की विश्व को बचाने की इच्छा-शक्ति ने

 विराट के मस्तिष्क को बाध्य (विवश) कर दिया था। जल्दी ही, विराट ने हल प्रदान करने शुरू कर दिए।  श्री कल्कि की विनाशकारी शक्ति धीमी हुई और घटित होने वाला विनाश (दुर्भाग्य) टाल दिया गया था, किन्तु इसने श्री माताजी के स्वास्थ्य पर बहुत अधिक भार डाल दिया! निस्संदेह , उन्होंने विश्व की तकलीफ़ आत्म-सात कर ली थी, किन्तु वह तकलीफ़ उनके चक्रों में इकट्ठी हो गई।  श्री माताजी से बहने वाली चैतन्य-लहरियाँ इतनी तीव्र थीं, वे बच्चों के द्वारा पूर्णतया अवशोषित नहीं हो सकीं और इसलिए उसने श्री माताजी के अंगों की क्रिया-प्रणाली को क्षति पहुँचाई।  किन्तु, श्री माताजी का विश्व को बचाने का प्यार इतना गहरा था, उन्होंने स्वयं की कभी परवाह नहीं की।  उनके पति श्री  सी पी सर इतने चिंतित थे और उन्होंने उनके  स्वास्थ्य हेतु अच्छे से अच्छे चिकित्सा-सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास किया, किन्तु उनकी पीड़ा मानव-जनित उपचारों से ठीक नहीं हो सकती थी!  यह प्यार की पीड़ा थी। यह इतना गहन प्यार था, जिसे दुनिया नहीं अवशोषित कर सकती थीं।  आह, यदि यह दुनिया उनके प्यार को प्रत्युत्तर कर सकती, तो उनकी तकलीफ़ बहुत पहले ही दूर हो चुकी होती। 

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2005-06

अध्याय-14

सहस्रार पूजा के बाद इटली का सहस्रार जिनोआ में स्थानांतरित हो गया।  श्री माताजी अपनी विला (Villa) में बैठी हुई, जो पहाड़ी के शीर्ष पर बनी हुई थी, उसमें से समुद्र के दर्शनीय नज़ारों का आनन्द ले रहीं थीं।  स्थानीय टी वी नेटवर्क (Local T.V. Network) ने उनका साक्षात्कार लिया, “श्री माताजी, सम्पूर्ण विश्व के विभिन्न स्थानों से आपके चरण-कमलों में प्यार और चाहत से पधारे हुए योगियों के साथ आपको कैसा महसूस होता है ?”

श्री माताजी मुस्कराईं, “बहुत अच्छा।”

शाम को जिनोआ शहर अपने टेलिविजन पर्दे पर उस महान ऐतिहासिक-क्षण का साक्षी बना और अपने संरक्षक के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया।

चौबीस जुलाई (24thJuly) की गुरु-पूजा, ईस्ट-रुदरफोर्ड, न्यू-जर्सी ने उदारता के एक और अलौकिक दृश्य को प्रकट किया।  श्री माताजी ने आडियो और विडियो प्रवचन के अधिकारों को वसीयतनामे द्वारा, अपने बच्चों को, वर्ल्ड-काउंसिल के संरक्षण के अंतर्गत सहजयोग के विकास हेतु हस्तांतरित किया।  और मात्र उतना ही नहीं, उन्होंने अपना न्यू-जर्सी स्थित सुंदर आवास भी अपने बच्चों के लिए दान कर दिया। 

कुछ वर्षों पहले उन्होंने काना-जौहरी आवास तथा अब अमेरिका में उनकी आखिरी संपत्ति भी सहज-योग हेतु प्रदान का दी!  यह बहुत ही ज़्यादा था।

सर सी पी ने कृपा करके आश्वस्त किया, “पूरा परिवार एकमत होकर और दृढ़ता पूर्वक इसका अनुमोदन करते हैं, इसमें दो मत नहीं है।  कुछ और भी (यदि) हम कर सकते हैं, हम अपना प्रथम कर्तव्य मानकर उसका सम्मान करेंगे।”

अट्ठाईस अगस्त को पार्सी पेनी पर श्री कृष्ण जी के चरण-कमलों का पाद-प्रक्षालन करने कृतज्ञता की सभी बूँदें एक होकर लीन हो गईं। 

अमेरिकी योगी शोक-ग्रस्त हो बोले, “श्री माताजी, हमारे देश में एक समस्या है कि साधक-गण अपना आत्म-साक्षात्कार लेते हैं और वे सहज-योग में रुकते नहीं हैं।”

 

श्री माताजी ने कहा, “ यदि उनका आत्म-साक्षात्कार पूर्णतया हुआ है, वे सहज-योग में आएंगे ही (उन्हें आना ही होगा)।  जो पूर्णतया आत्म-साक्षात्कार को नहीं प्राप्त हुए, आधे-अधूरे हैं, (वे आधे रास्ते रह जाएंगे)”

श्री गणेश पूजा पर श्री माताजी ने नए विवाहित जोड़ों को आशीर्वादित किया और सितंबर के अंत में लंदन हेतु रवाना हुईं।  एक सहज-योगिनी अपने नवजात पुत्री, जिसका नाम ‘देवीश्री’ यानि ‘मुख्य-देवी’ हुआ और उसने श्री माताजी से पूछा कि क्या उन्हें उसके इस नाम (देवीश्री) से प्रसन्नता हुई। 

श्री माताजी ने उसकी पुत्री को एक नज़र से देखा, “नहीं”।

श्री माताजी ने योगियों को नाम देना बहुत पहले बंद कर दिया था और उस योगिनी को आश्चर्य हुआ कि शायद वे अप्रसन्न थीं।  पूर्वाभास में उसने अपनी सांसें रोके रखीं ।  सर सी पी ने जानना चाहा, “तब, उस बच्ची का सही नाम क्या है ?”

वे बच्ची की और देख मुस्कराईं, “ श्रीदेवी।”

सामूहिकता की कुंडलिनियाँ चैतन्य से रोमांचित हो उठीं और नन्ही (शिशु) ‘श्री देवी’ कनखियों से मुस्करा दी। 

उसके बाद, श्री माताजी नवरात्रि-पूजा हेतु दिल्ली प्रस्थान कर गईं।  

दस वर्षों के अंतराल के बाद फरवरी के आरम्भिक दिनों में श्री माताजी सिडनी पधारीं।  उनका जन-कार्यक्रम शानदार टाउन – हाल में छह फरवरी को आयोजित हुआ।  उनका कार्यक्रम ‘म्यूजिक ऑफ जॉय’ भजनों से आरम्भ हुआ, उसके बाद योगीजनों द्वारा परिचय-वार्ता हुई।  जैसे ही दो हजार साधकों ने ध्यान किया, अनायास पर्दे खुल गए – श्री माताजी के दर्शन कराने हेतु।  दर्शक-गणों में विद्युत-संचरण हुआ और उन्होंने खड़े होकर उनका जोशीला स्वागत किया। यद्यपि श्री माताजी नहीं बोलीं, उनकी उपस्थिति-मात्र से साधकों की कुंडलिनियाँ उठ खड़ी हुईं। जैसे पूर्णमासी का चंद्रमा समुद्र में ज्वार (Tide) का कारण बनता है, उसी तरह उनकी उपस्थिति-मात्र से साधकों की कुंडलिनी प्रज्ज्वलित हो उठीं क्योंकि वे उनके प्यार का ही प्रतिबिम्ब थीं। 

प्रगतिशील पारस्परिक क्रिया, जो दो हजार साधकों और श्री माताजी के बीच ज़ाहिर हुई, वह उनके ‘कटाक्ष कटाक्ष निरीक्षण’ जैसी स्पष्टतया समझी जा सकती है, उनका ‘कटाक्ष’ एक झलक-मात्र देखना (Glance) वस्तु-प्रतिक्रिया का बोध देता है और वे उस वस्तु/व्यक्ति के बारे में सब-कुछ जान जाती हैं।  वे इस बारे में कुछ नहीं कर सकतीं, इसे नियंत्रित नहीं कर सकती, यह स्वतः ही कार्य करता है और यह चलता रहता है, क्योंकि यह उनकी वात्सल्य (प्यार) की शक्ति से चालित है। यह हरेक व्यक्ति के अंदर पहुँच जाती है और वह व्यक्ति इसे महसूस करता है और सहज ही इसके प्रति अनुक्रिया देता है।  कुंडलिनी उसी प्रतिक्रिया पर उठती है, उसे कोई रोक नहीं सकता है, नियंत्रित नहीं कर सकता है, अपनी चतुराई/दक्षता उसमें नहीं लगा सकता है या उसे आदेश दे सकता है।  किन्तु, कुंडलिनी मात्र बातों या केवल प्रवचनों के प्रति-उत्तर नहीं देती, चाहे वे (साधक) कितने ही वाक-पटु क्यों न हो, वह प्रतिक्रिया नहीं देती।  यह वार्ता-मात्र का विषय नहीं है।  वे केवल उस अधिकारी को प्रतिक्रिया देती हैं,  जिसने उन्हें बनाया – उनका सृजन किया है।  उल्टे, वह सर्वोच्च अधिकारिणी श्री आदिशक्ति उसका पालन-पोषण करती है और उसे अपनी सर्वव्यापक प्रेमशक्ति के आनन्द से आशीर्वादित करती हैं।  मानव कैसे अपने सृष्टा (सृजनहार) को जानेगा ?  इसके विषय में वास्तविकता से अलग धारणाओं /संकल्पनाओं से नहीं जान सकेगा, ईश्वरीय प्यार की सर्व -व्यापक शक्ति का अहसास पाकर ही जान पायेगा। चेतित-मस्तिष्क इसे केवल तभी अनुभव कर सकता है, जब उसकी कुण्डलिनी की चेतना उसके मस्तिष्क का भेदन (पारगमन) – करती है,  और उसे घटित होने के लिए एक सजीव सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए। 

एक सजीव-सम्बन्ध की स्थापना इंटरनेट या ब्लेक-बेरी पर नहीं हो सकती है, यह वास्तविकता में श्री आदिशक्ति के प्यार और उस बच्चे (शिशु) के बीच स्थापित होना चाहिए, जो अपने सहस्रार से उस वात्सल्य का स्तन-पान करता है, ठीक उसी तरह से जैसे प्रकाश-संश्लेषण-प्रक्रिया (Photo synthesis)  सूर्य- के प्रकाश और पौधों की पत्तियों के बीच होती है, जो उस रस का पान करती हैं।  दोनों प्रक्रियाओं में अंतर केवल इतना है कि आत्म-साक्षात्कारी अपनी माँ आदिशक्ति के निरानन्द का पान पूर्ण स्वतंत्रता से कर सकते हैं, किन्तु पौधे और जीव इस स्वतंत्रता का आनन्द नहीं ले सकते हैं।  अपना उत्थान (आत्म-साक्षात्कार) पाने की शुद्ध-इच्छा को पूर्ण करने हेतु यह स्वतंत्रता मात्र ग्रहस्थों को देना आवश्यक था।  अपनी आत्मा के प्रतिबिम्ब पर अपनी माँ आदिशक्ति का प्रतिबिम्ब टंकित करना था। 

वर्ष 1999 में पुणे के एक ज्योतिर्विद ने श्री माताजी की जन्म-कुण्डली बनायी थी, उन्होंने सावधान किया था कि यदि श्री माताजी विश्व की नकारात्मकता को अवशोषित करना जारी रखेंगी, तो उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से तकलीफ़ होंगी और उन्हें लंबे अंतराल तक मौन अवस्था में लौटना होगा, किन्तु उनका शरीर इतना सशक्त होगा कि साधकों को उनकी उपस्थिति-मात्र से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होगा।  इसके अतिरिक्त, साधकों को स्वस्थ करने हेतु उन्हें शारीरिक-रूप से स्पर्श करने की आवश्यकता नहीं होगी, उनका एक कटाक्ष मात्र ही पर्याप्त होगा।  उनके सहजी बच्चे उनके निर्देशों को अपने सहस्रार से ही प्राप्त कर लेंगे।  

टाउन-हाल में दो हजार साधकों ने केवल वही किया – उन्होंने श्री माताजी को सीधा अपने सहस्त्रारों से ही सुना। 

और सर सी पी के सहस्रार ने उत्तर दिया, “पैंतीस वर्षों से वे विश्व का भ्रमण कर रही हैं, एक संदेश का वहन करते हुए – एक संदेश प्यार का, एकत्वता (संगठन) का।  मुझ पर विश्वास करें, उन्होंने हवाई जहाज से, हेलीकाप्टर्स से, कार से, बस से, बैलगाड़ी से और पैदल यात्राएँ की हैं।  वे गांवों में, शहरों में गईं और सभी पाँच महाद्वीपों में अनेकानेक स्थानों पर गईं और ऐसा उन्होंने अपने अंदर बहुत विशाल दृढ़-विश्वास से किया कि इस को एक नए संदेश की ज़रूरत है।”

देवी माँ प्रसन्न हुईं और सिडनी को सत्ताईस फरवरी को श्री शिवरात्रि-पूजा से आशीर्वादित किया।  श्री शिवजी की शांति ने जन्म-दिवस समारोह की खुशियाँ प्रकट कर दीं।  पूर्णतया, बच्चों ने उनकी निःशब्द-भाषा को अवशोषित किया, क्योंकि वहीं उनका प्यार बसता था।  श्री माताजी के सर्वाधिक प्रिय फोटोग्राफ्स जिन्हें उन्होंने अति-स्नेह से ‘रेम्ब्रांत-सिरीज़’ जैसे उल्लेखित किया, वे मंच के पीछे वाले हिस्से में थे।  और जैसा कि होता है – सभी जन्म-दिवस की तरह उपहार उन्हें भेंट किए गए और उपहार स्वीकार किए गए, किन्तु वे बच्चों के हृदयों में सदा रहीं।  ईश्वरीय कलाकार ने उन्हें ‘रेम्ब्रांत-मुस्कान’ प्रदान की, क्योंकि वे स्वयं अपने सृजन पर आश्चर्य में थीं। 

उनके विवाह कि उनसाठवीं (59th) साल-गिरह  के समारोह पर ऑस्ट्रेलियन-योगियों के सहस्रार आनन्द के संगीत में नृत्य करने लगे।  योगियों ने उनके सामूहिकता के स्वप्न  को परिपूर्ण कर दिया, जहाँ लीडरशिप का कोई दबाव नहीं था, केवल अबोध बच्चे अपनी प्यारी माँ के आसपास उनके वात्सल्य के दुलार में खेल रहे थे।  श्री गणेश की  भूमि पर इसके अलावा, किस तरह यह संभव हो सकता था!  

श्री गणेश की भूमि पर तीन महीनों के आनन्द के बाद अलविदा कहने का समय आ गया।  किन्तु ठहरिए, एक विशालकाय ‘ईस्टर-एग’ श्री माताजी के आशीर्वाद पाने को प्रतीक्षारत था।  उन्होंने अपने बच्चों पर श्री हनुमानजी की  आशीषें प्रदान की; क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनके संदेश को सुदूर पूर्ववर्ती देशों और चीन में फैलाने हेतु श्री हनुमानजी के आशीर्वाद की ज़रूरत पड़ेगी।  चौदह अप्रैल को उन्होंने सिडनी एयर-पोर्ट के विदाई-लाउंज (Departure Lounge) से विदाई का संकेत दिया, रेम्ब्रांत ने उनकी चमकती मुस्कराहट को आकाश में बिखेरा और माइकल एंजेलो का ‘अंतिम-न्याय’ सुदूर क्षितिज में धनुषाकार हो प्रकट हुआ।  

कबेला में श्री गुरु-पूजा के लिए विदा होने से पहले श्री माताजी ने इंग्लैंड को श्री सहस्रार पूजा और श्री आदिशक्ति पूजा से आशीर्वादित किया।  थोड़ी देर में उनका चित्त अमेरिका पर गया और रास्ते में (en route to America)  दो अगस्त को उन्होंने पुनः लंदन योगियों को आशीर्वादित किया।  हालाँकि, उनके कमरे में (चेस्विक में) जगह कम थी, फिर भी सभी योगी उनके हृदय में स्थित हो गए थे।  वे सबसे बतियाते हुए, मज़ाक (हास्य-विनोद) करते हुए, सद्य-जातः शिशुओं का नामकरण करते हुए वे आनन्द-दायक मनोस्थिति (Mood) में थीं।  अनायास वे आगे झुकीं और बोलीं “हमें समझना है कि हम सब अभिन्न हैं, हम सभी बहुत घनिष्ठ हैं, यदि यह समझ लिया, तब उद्देश्य (कार्य) पूर्ण हो गया, तब आपको किसी भी चीज़ की चिंता नहीं करनी है।  

कुछ ही शब्दों में उन्होंने सब कुछ कह दिया! 

श्री कृष्ण पूजा और श्री गणेश पूजा लास-एंजिलिस में और श्री दिवाली पूजा और श्री क्रिसमस पूजा (पुणे में), के आशीर्वादों ने सामूहिक-प्यार के संवेग को तेजी से आगे बढ़ाया और इस तरह कोशिकाओं को एक-जुट बांधकर श्री कल्कि के शरीर को विलक्षणता प्रदान की।  और “यदि वह समझ आ गया, तब उद्देश्य पूर्ण हुआ, तब आपको किसी चीज़ की चिंता करने की ज़रूरत नहीं थीं।”

 2007

अध्याय-15

अपने बच्चों की रक्षा हेतु श्री आदिशक्ति के इस धरा पर अवतरित होने हेतु, उन्हें धन्यवाद देने का शुभ-क्षण समय-चक्र ले आया।  वस्तुतः श्री माताजी का जन्म-दिवस उनके बच्चों के पुनर्जीवन के समय की खुशी का, इसके नवीनीकरण का, अंतरअवलोकन का और श्री माताजी के संदेश को आगे प्रसारित करने का भी दिन था।

ईस्टर पूजा, पुणे में श्री माताजी ने बच्चों के प्रयास को अधिकार प्रदान किया, “यदि आपकी इच्छा सशक्त है, मामले हल होते जायेंगे  और तुम्हें लोगों की मदद करने का एक अच्छा अवसर मिलेगा…… यह तुम में से कईयों के साथ घटित हुआ है और दूसरों के साथ भी यह घटित होगा ,यह केवल बातचीत नहीं है,किन्तु  यह सब कुछ घटित हो रहा है।”

और वह ‘कुछ घटित होना’  बहुत अधिक मात्रा में थी!  वह सब-कुछ थी!  बाहर प्रकट रूप में, बच्चे नए साधकों को आत्म-साक्षात्कार देते दिखाई पड़े, किन्तु वास्तविकता में, साधकों की कुंडलिनी, योगियों की कुंडलिनी की अधिकारिणी को प्रतिक्रिया (Responding) दे रही थी,  योगियों की बातचीत को नहीं।  जवाब में, साधकों की कुंडलिनियाँ श्री आदिशक्ति की सत्ता को प्रत्युत्तर (Responding) दे रहीं थी,  क्योंकि कुंडलिनियाँ उनका ही प्रतिबिम्ब थीं।  इसलिए, ये श्री आदिशक्ति थीं, जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया।  किन्तु रुकें; वहाँ एक कड़ी की कमी थी, यह कड़ी थी – योगियों की शुद्ध (निर्मल) इच्छा की।  उनकी शुद्ध-इच्छा सशक्त होनी थी और निर्वाज्य-प्यार जो साधकों तक पहुँचने के लिए होना ज़रूरी था।  इसके अतिरिक्त, उस निर्वाज्य-प्रेम ने उन्हें धैर्य की शिक्षा दी, ताकि वे साधकों के घावों की देखभाल (सुश्रुषा) कर सकें और नम्रतापूर्वक उनके पाँवों को धो सकें, बिना कुछ बदले में पाने की इच्छा किए, ठीक उसी तरह, जैसे प्यारी माँ ने योगियों के पैरों को धोया था, बिना कुछ भी उनसे लिए।

जब साधकों के चक्रों की देखभाल करते समय, उन्होंने स्वयं को थका हुआ (शक्तिहीन) महसूस किया, उन्हें याद दिलाई गई कि “वह जो कुछ घटित हो रहा है” –इसे वे (श्री आदिशक्ति) कर रहीं थी, जिसे “वह जो कुछ……….” कहा जाता है, वे (योगीजन) उसके कर्ता नहीं थे निस्संदेह “वह जो कुछ घटित हो रहा है,   वह परम चैतन्य के द्वारा आरम्भ किया गया था, किन्तु योगियों की सशक्त-इच्छा ने इसे कार्यान्वित होने के लिए शक्ति प्रदान की, बिना उनकी शुद्ध इच्छा के वह “कुछ-कुछ घटित होना…….’ सम्भव नहीं था; क्योंकि श्री आदिशक्ति की अपनी कोई इच्छाएँ नहीं थीं, उन्होंने केवल बच्चों की इच्छाओं को प्रति-बिम्बित किया था।  यदि वे ईराक और अफ़गान लड़ाइयों को समाप्त करना चाहते थे, तब उनकी यह इच्छा भी उतनी ही सशक्त होनी चाहिए!  पिछले कुछ वर्षों से धर्मशाला सहज-स्कूल, हिमालय-क्षेत्र में थोड़ी-सी कम बर्फबारी होने से पानी की अत्यंत कमी का सामना कर रहा था।  श्री माताजी के जन्म-दिवस पूजा पर धर्मशाला स्कूल के बच्चों ने अपने हृदय से हिमालय-पुत्री श्री शैल-पुत्री से बर्फबारी के लिए प्रार्थना की।  आगे देखिए। अगले सप्ताह ही बर्फबारी हुई और तब तक जारी रही, जब तक कि ईस्टर-पूजा पर बच्चों ने श्री माताजी को धन्यवाद दिया।  उसके अलावा, इस बर्फबारी ने सभी पड़ोसी  गावों की दीर्घकालीन जल-समस्या को हल कर दिया, वे समय पर फसलें बो सकें, लहलहाती भरपूर फसलों को काट सकें और सम्पन्न हो सकें।

वास्तव में, श्री आदिशक्ति के आशीर्वाद भरपूर थे, किन्तु उन्हें आकर्षित करने वाला सशक्त इच्छा-शक्ति का चुम्बक होने जरूरी थाऔर उस इच्छा को सशक्त बनाने के लिए निर्वाज्य-प्यार की शक्ति का विकसित होना जरुरी था। ।  उन्होंने अक्सर दुःख प्रकट किया, “मेरे पास देने को बहुत ज़्यादा है, किन्तु लेने वाले पर्याप्त नहीं है।”

शुद्ध इच्छा की मधुर सुगंध भी थी, जिसने स्थानीय लोगों को आकर्षित किया था।  उदाहरण के लिए, जब भी धर्मशाला स्कूल के बच्चे शहर में (Down town) शॉपिंग हेतु गए, वे धर्मशाला स्कूल के बच्चों की सुगंध से प्रभावित हुए और उन्हें पूछते कि वे क्या करते थे।  बच्चों के द्वारा यह बताने पर कि वे सहज-योग का अभ्यास करते थे – स्थानीय लोग सहज-योग केंद्र पर आने लगे।

श्री आदिशक्ति पूजा, कबेला में श्री माताजी ने स्पष्ट बताया कि यह सुगंध कुछ बहुत-ही अन्तर्जात थी, “एक मनुष्य में सुगंध का क्या आशय है – वह है उसका व्यवहार, उसकी प्रकृति , वह कैसा है और दूसरों के प्रति कैसा व्यवहार करता है।  सभी देशों में, सब जगह लोग इससे अनभिज्ञ हैं, कि आपको सुरभित  (सुगंधित) होना है।  यदि वे इसे जान लें, परिचित हो जायें, तब सभी लड़ाइयाँ समाप्त हो जाएंगी।  सभी मतभेद समाप्त हो जाएँगे और वे समझ जाएँगे कि हम सब एक ही हैं…… सारे संसार को एक दूसरे को प्यार करने के लिए ऊपर उठना होगा, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा हल नहीं है, किन्तु मात्र प्यार करना और उसमें कोई लालच (स्वार्थ) नहीं है, किन्तु आनन्द है और उसी आनन्द को आपको महसूस करना है और दूसरों को देना है।”

बच्चे काम में लग गए और स्वयं को उस घृणा से मुक्त किया, जिसने श्री आदिशक्ति के सृजन से आती हुई सुगंध को शुष्क कर दिया था।  उन्होंने श्री माताजी से मानव की लड़ने की प्रवृति को शांति-प्रदान करने हेतु प्रार्थना की, जिस प्रवृति ने धरती माता की सौरभ (सुगंध) को ध्वंस कर दिया था।  श्री आदिशक्ति माँ प्रसन्न हुईं और उनकी मुस्कान इटली की माटी की सुगंध को वापस लौटा लाई और उस सुगंध के साथ प्रेम और आनन्द इटली के बच्चों में वापस आ गया। 

इच्छा का शुद्ध और सुरभित होने के अलावा, इसका परम-चैतन्य को विवश करने हेतु शक्तिशाली और हृदयग्राही होना था। श्री कृष्ण पूजा के तुरंत बाद ऑस्ट्रेलियन बच्चों की प्रबल इच्छा, श्री माताजी की सुगंध को उनकी मातृ-भूमि में ले आई।  श्री माताजी को बच्चों पर तरस /दया आई, क्योंकि वे वैश्विक-समस्याओं के प्रति गहनता से मर्मस्पर्शी और चिंतित थे और श्री माताजी ने उन्हें नवरात्रि-पूजा से आशीर्वादित किया। 

नवरात्रि पर्व की दूसरी रात्रि को श्री माताजी ने उन्हें आंतरिक-शक्ति की ओर प्रवृत्त किया, “आपको शांति (सुकून) को अपनाना होगा और स्वयं को देखना होगा।  आपको क्या चीज़ (समस्या) चिंतित कर रही है, क्या चीज़ तकलीफ़ दे रही है।  जो आपको योजनाएँ और विचार प्रदान करता है, वह स्वाधिष्ठान है।  कुछ लोग बहुत सोच-विचार करते हैं।  कोई समस्या नहीं होने पर भी, वे स्वाधिष्ठान के साथ अपनी समस्या का सृजन करते हैं और केवल भौतिक पदार्थों के बारे में चिंतित (परेशान) रहते हैं….. आप मत सोचिए, मैं आपके लिए चिंता करने को हूँ।”

बच्चों ने अपने अंदर शांति को खोज लिया, किन्तु यह आसान नहीं था, वे विचारों की बौछार से घिर गए थे।  जैसे ही उन्होंने विचारों से संघर्ष किया, श्री माताजी के शब्द उनके कानों में परावर्तित हो रहे थे, “अब विचार आ रहे हैं, यह काम श्रीमान स्वाधिष्ठान का है, वे आपको लक्ष्य से दूर हटा रहे हैं, आपको शांति में चले जाना चाहिए।  एक बार आप शांत हो जायें, तब ये श्रीमान स्वाधिष्ठान दूर चले जायेंगे और आपको तंग नहीं करेंगे।”

 श्री माताजी के शब्दों ने मंत्र की तरह कार्य किया और बच्चों की महत्वाकांक्षा ने ऊपर-नीचे दौड़ना बंद कर दिया।  बच्चों के द्वारा अपनी व्यक्तिगत और वैश्विक समस्याओं को श्री माताजी के चरण-कमलों पर समर्पित करने के बाद उनकी कुंडलिनियों ने कार्य करना शुरू कर दिया था,  क्योंकि श्री माताजी उनकी भक्ति के प्रति उत्तरदायी हो सकती थीं, उनकी बुद्धिमत्ता के प्रति नहीं।  थोड़ा-थोड़ा करके श्री माताजी ने शांति के महासागर में बच्चों के चित्त को आत्म-सात कर लिया था, शांति के महासागर में उन्होंने ब्रह्मांडीय शांति को स्पर्श किया।  यह शांति श्री माताजी के वात्सल्य के महासागर में भीग गई थी।  इसने भुवन के भुवनों को अपने में समा लिया था और श्री आदिशक्ति के सृजन को अर्थ प्रदान किया।  यह शांति फूलों की मधुर सौरभ में, बच्चों की मुस्कान में, सूर्य की चमक में और अपने बच्चों के सहस्रार के आनंद में परावर्तित हो रही थी।  जैसे ही बच्चों ने उन्हें धन्यवाद देने के लिए नमन किया, उनके सचेतन मस्तिष्क में यह बात प्रकाशित हुई कि यदि वे उस महासागर की शांति से एकाकार हुए, तो उन्हें पता चल जायेगा कि यथार्थ में उन्हें क्या करना है।

छठवीं रात्रि को ऑस्ट्रेलियन बच्चे बुरवुड (Burwood) आश्रम में पूजा समर्पित करने एकत्रित हुए।  हालाँकि श्री माताजी ने देखा कि हाल सामूहिकता के लिए बहुत छोटा था और जानना चाहा, “आपको इससे बड़ा स्थान क्यों नहीं मिल सका ?”

सामूहिकता के संवाददाता ने श्री माताजी की क्षमा मांगते हुए कहा, “हमें इससे बड़ा स्थान मिल सकता था, किन्तु हम नहीं चाहते थे कि आपको यहाँ से उस स्थान तक जाने में कष्ट हो।  आपकी सुविधा ही हमारी इच्छा है, अतः जहाँ तक आपको आराम मिल सके, हम योगीजन इस हेतु प्रसन्न हैं, श्री माताजी!”

किन्तु, एक माँ के लिए उनके बच्चों का आराम पहले था।  जब बच्चे आराम में थे, श्री माताजी प्रसन्न थीं, “नहीं, नहीं, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है; मैं पूरा रास्ता पार-करके भारतवर्ष से आई हूँ।  मेरी सुविधाओं हेतु आप लोग इतना ध्यान न दें।  देखो, तुम जहाँ भी हो, जहाँ भी कार्यक्रम रखते हो, मैं वहाँ चली जाऊँगी।  जहाँ तक संभव है, मैं निश्चय ही वहाँ चली जाऊँगी।  आजकल जिंदगी बहुत ज़्यादा आराम-दायक है, किन्तु जब मैं गाँवों में कार्य कर रही थी, मैं बैलगाड़ी पर जाया करती थी, मुझे मालूम था – मुझे वो सब करना था।  यदि मुझे सहज-योगी चाहिए, तो मुझे उस तरीके से कार्य करना है, और मैं पूरी-तरह से तैयार थी।  मुझे अंदर से कभी थकान नहीं महसूस हुई।  इसके विपरीत तुम्हें मिलने के बाद, मैं बहुत प्रसन्न महसूस करती हूँ।”

उनके स्वास्थ्य का रहस्य था – उनके बच्चों का प्यार। जब बच्चों में प्यार प्रवाहित रहता था, वे पूर्णतया स्वस्थ रहीं, किन्तु यदि कोशिकाओं (बच्चों ) में टकराव हुए, भटकाव हुआ, उनके मतभेद (विसंगतियां) श्री माताजी के शरीर में प्रकट हो उठते थे, किन्तु उन्होंने बच्चों की तकलीफ़ों को आत्म-सात किया, क्योंकि वे उनके शरीर से अलग नहीं थे- उनसे विलग नहीं थे।  उनका शरीर करुणामय था और वह बच्चों की तकलीफ़ों को दूर करने से स्वयं को रोक नहीं सकता था।  उनके वात्सल्य की प्रकृति ऐसे थी। 

उनका चित्त ऑस्ट्रेलिया में शराबखोरी की ओर आकृष्ट हुआ।  वे स्पष्टतया बोलीं, “हमारे पास साधन हैं, हमें उन्हें बंधन देने होंगे।  यदि आप सब के सब एक साथ उन्हें बंधन देते हैं, तब वे भाग नहीं सकते हैं।”

वे विस्तारपूर्वक शराबखोरी (नशाखोरी) का हल निकालने हेतु बतातीं गईं, किन्तु वे तब तक आराम से नहीं बैठीं, जब तक कि उनके बच्चों को आराम नहीं मिला।  हालाँकि, बच्चों ने एक छोटे से हाल में खचाखच भरे हुए होने में कोई एतराज़ नहीं किया, इससे उनका चित्त चुपचाप नहीं बैठा होगा।  उनकी चिंता हाल में स्थित हरेक बच्चे ने महसूस की, छोटा हो या बुजुर्ग, महत्वपूर्ण हो या साधारण, (वे कहतीं) – “शीघ्रता करो, यहाँ अंदर जगह है।”

“आगे आओ। इधर, पियानो को उस तरफ़ रख दो, और वे बैठ सकते हैं।“

“मुझे दुःख है, बाहर बहुत-से साधक खड़े हुए हैं।  अंदर आओ, अंदर आओ, क्या आप पियानो पीछे खिसका सकते हो।”

“आप यहाँ आ सकते हैं।  वहाँ जगह है – वहाँ कुछ जगह बनाओ (जगह खाली करो)”

अपने हृदय में असीमित स्थान के साथ, उन्होंने शीघ्र ही इस छोटे-से हाल में सम्पूर्ण सामूहिकता को बैठाने का प्रबंध कर दिया था।  जहाँ प्यार है, थोड़ी-सी जगह भी बहुत से हृदयों को अपने में समा सकती है, किन्तु जहाँ हृदय संकुचित होता है, पूरी दुनिया की जगह भी अपर्याप्त होती है।  जैसे सूर्य की किरणें समान-रूप से हरेक व्यक्ति तक पहुँच जाती है, इसी तरह से उनकी करुणा से एक भी कोशिका नहीं बच पाई।  कारुण्य की सरिता प्रचुरता से बही जा रही थी, यह कोशिकाओं पर निर्भर था कि इसमें से कितना जल उलीचा जा सके।

ऑस्ट्रेलिया के स्वाधिष्ठान-चक्र को स्थायित्व प्रदान करने के बाद, कारुण्य-सागर माँ ने दिल्ली के आज्ञा-चक्र को शीतलता प्रदान की।  जैसे ही दिल्ली में दिवाली पर दीप प्रज्जवलित किए गए श्री महालक्ष्मीजी ने अपने बच्चों के हृदयों में दीपक प्रज्ज्व्लित कर दिए और उनके आज्ञा-चक्र के अज्ञानान्धकार को दूर भगा दिया था, “आज्ञा-चक्र का सबसे बड़ा खेल (नाटक) है कि हम सोचने लगते हैं कि हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं और हम विश्वास करते हैं कि हम दुनिया पर शासन कर सकते हैं, हम दुनिया को सुधार सकते हैं।  जब आप स्वयं ठीक नहीं है, तब-दुनिया को कैसे ठीक कर सकते हैं ? …….जब एक व्यक्ति में अहंकार विकसित होता है, वह कोई-सा भी अपराध कर सकता है, कोई सा-भी पाप-कर्म कर सकता है,  किसी को नुकसान पहुँचा सकता है, अन्यायपूर्वक भ्रष्टाचार से धन कमा सकता है……..और वही कारण है कि सभी राक्षस-गण अपना जन्म क्यों लेते हैं, क्योंकि वे विश्वास करते हैं कि हमारे भीतर कुछ या दूसरे तरह के दोष हैं, जो हमें उन राक्षसों को स्वीकार करने को विवश कर देंगे।”

 एक प्रभावशाली प्रवचन में श्री माताजी ने सामूहिकता की आज्ञा से पैदा हुई बेईमानी, अनैतिकता, झूठेपन, आक्रामकता और ठगी के अंधकार पर समाप्ति की मोहर लगायी।  बच्चों ने शपथ ली, आज के बाद से हम कभी झूठ नहीं बोलेंगे और न ही झूठे लोगों का साथ देंगे।  न ही हम अन्याय करेंगे और न ही बेईमानों की संगति करेंगे और न ही दूसरों को बेईमानी करने देंगे।”

वे बच्चों के आश्वासन पर प्रसन्न हुईं और उन्हें अपने सिपाहियों (पुलिस बल) की तरह मरहम लगाया।  भारत से भ्रष्टाचार उखाड़ने-मात्र पर, वे पूरे विश्व को बचा सकतीं थीं।  उनके सक्रिय पुलिस-बल से भ्रष्ट राजनेताओं का बचना मुमकिन नहीं था।  कुछ समय पूर्व ही उनके चित्त ने सरकार में भीमकाय-भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया था और भ्रष्ट राजनेताओं को एड़ी के बल खड़ा कर दिया था।  बुजुर्ग अनुभवी गांधीवादी नेता श्री अन्ना हज़ारे जिन्हें आत्म-साक्षात्कार मिला था, उन्होंने भारत-सरकार के खिलाफ़ एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आरम्भ किया। 

अहा, निर्मल-प्रेम आश्रम!  श्री माताजी के द्वारा नन्हें-छोटे बच्चों के लिए सावधानी से पोषित किया गया घर, बाईस नवंबर का दिन उनके लिए श्री माताजी के साथ विशेष दिन था।  वे आनन्द में चंचल-से चहकते हुए अपने होम-वर्क्स (Home Works) को प्रदर्शित कर रहे थे – स्क्रेप-बुक्स (समाचार पत्र-पत्रिकाओं से चित्र काटकर लगाने की पुस्तक), पेंटिंग्स और एम्ब्रॉयडरी आदि, दिखा रहे थे।  जैसे ही उन्होंने अपने संगीत और नृत्य की प्र्स्तुति दी, श्री माताजी से उत्साहित करने वाली स्वीकृति ने उनके चेहरों को प्रकाशित कर दिया।  उनकी कोई दूसरी इच्छा (ख्वाईश) नहीं थी, केवल अपनी माँ के प्यार की धूप की उष्मा का आनन्द उठाना।  किन्तु माँ का हृदय अपने बच्चों के लिए अन्तर्जात चिंता की संवेदना से बना हुआ था और उन्होंने पूछा, “आपको आश्रम में सबसे अच्छा क्या लगता है ?” जैसे (यह सुनकर) टीचर्स (अध्यापक-गण) की साँसें रुक गईं, प्यारा-सा उत्तर मिला, “श्री माताजी, खाना।”

श्री माताजी के सामूहिक-शरीर की हरेक कोशिका में सिहरन (रोमांच) दौड़ गई।  एक माँ के लिए अपने बच्चों की नाभि को समाधान मिले, यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।  हरेक बच्चा उनकी मधुर सुगंध में डूब गया था, जो सुगंध धरती माता में बारिश के बाद लौटाती है, उसे परिपूर्ण करती है।

स्कूल के अध्यापकों को श्री माताजी ने सलाह दी, “यदि आप परम-चैतन्य से एक प्रश्न पूछना चाहते हैं, तो सरलता से बच्चों से चैतन्य-लहरियाँ देखने हेतु पूछो।  वे इतने अबोध हैं, किन्तु कभी उन बच्चों पर हाथ मत उठाना;  उन्हें कहिए कि श्री माताजी नाराज़ हो जायेंगी और उससे हरेक चीज़ (समस्या) हल हो जायेगी।”

और यदि अभी भी एक बच्चे ने ध्यान नहीं दिया, उन्होंने कनखियों के कटाक्ष से उसे याद करा दिया कि वे महामाया भी थीं। हालाँकि अध्यापकों ने उनके महामाया स्वरूप को काल्पनिक मानकर गलती की थी।  उन्होंने उन्हें याद दिलाई कि यह काल्पनिकता उनके मस्तिष्क की सोच-विचार थी, जब कि श्री महामाया सहज ही उनके गहन-चिंतन से अपने बच्चों कि रक्षा हेतु जुड़ी थीं।  श्री महामाया ने घटनाओं को इस तरह से चित्रित किया कि भ्रमित बच्चे को अपने अहंकार के नाटक को देखने योग्य बनाया और उस अहंकार से अपनी सुरक्षा ढूँढने लायक बनाया। 

“किन्तु सभी बच्चे परिदृश्य में तेज-तर्रार (स्फूर्त) नहीं दिखाई दिये, सुस्त चलने वाले वाहनों का क्या होगा।” – उन्होंने पूछा।श्री माताजी मुस्कराईं, “चाहे वो तेज हों या सुस्त, एक बार वे मुझे ‘माँ’ पुकारते हैं – मैं उन्हें छोड़ नहीं सकती।”

बशर्ते, उनकी आँखों में अबोधिता थी, श्री माताजी ने उन्हें असीम धैर्य से उत्प्रेरित किया।  वरन, यहाँ तक कि उन्होंने उनकी हथेलियों पर भाग्य की रेखाएँ दुबारा लिखीं।  निर्धन (कंगाल) जिसने उनकी देहरी (ड्यौढ़ी) पर प्रवेश लिया, वे राजकुमार हो लौटे।  जैसे हर दिल खुला, इसने उन्हें और भी निर्मल प्रेम आश्रमों को खोलने को प्रेरित किया और उन्होंने उद्घोषणा की कि अगला आश्रम पुणे में खोला जायेगा।  किन्तु रुकिए, बच्चे उनके पुणे होम के लिए छह नन्हें श्वान (कुत्ते के पिल्ले) ले आए!  

श्री माताजी ने पुणे को श्री क्रिसमस पूजा से आशीर्वादित किया।  लॉर्ड जीसस क्राइस्ट ने अपनी क्षमाशीलता की शक्ति से बच्चों के आज्ञा-चक्र से अंधेरे को दूर भगाया।  औरजैसेहीउन्होंनेक्षमाकिया, बार-बारक्षमाकिया, उनकेअंहकारकीकठोरतापिघलगईऔरउन्हेंअपनीप्यारीभक्तवत्सलामाँकेदरबारमेंप्रवेशकाअधिकारमिलगया।

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2008

अध्याय-16

इक्कीस मार्च वर्ष उन्नीस सौ तेईस को बसन्त-ऋतु के दिन अब रात-दिन समान होते हैं, परमात्मा की कृपा-वृष्टि मानव जाति पर महानतम दया के साथ हुई।  सूर्य देव उसी राशि में थे जैसा कि सृष्टि के सृजन के समय हुआ था।  सभी दैवीय योग श्री आदिशक्ति के अवतरण के लिए अत्यंत ही अनुकूल थे।  उनके जन्म के साथ ही साल्वे परिवार (छिंदवाड़ा) में महान आनन्द और समृद्धि पधारीं।  जब वे मात्र चार वर्ष की थीं, उनके पिताश्री ने अपने सफलता से फलते-फूलते व्यवसाय (वकालत) को बेहतरीन प्रबन्धित करने हेतु अपने परिवार को नागपुर स्थानांतरित करने का निश्चय किया।  शीघ्र ही कुछ ही समय पूर्व उन्होंने नागपुर में एक विशाल मकान बनवाया और अपने छिंदवाड़ा वाले घर को बेच दिया था।  

दिसम्बर अट्ठारह, वर्ष उन्नीस सौ तिरानवे को श्री माताजी ने छिंदवाड़ा को श्री गणेश पूजा से आशीर्वादित किया।  हाथ जोड़कर बच्चों ने प्रार्थना की कि श्री माताजी की जन्म-स्थली उनके लिए अत्यंत पवित्र स्थल है और सहज-योग द्वारा पुनः प्राप्त की जानी चाहिए।

एक डॉक्टर साहब उस मकान में अपना औषधालय चलाते थे।  जब मकान-मालिक को इस हेतु सम्पर्क किया गया, तो उसने सहज योगियों की भावनाओं का फ़ायदा उठाना चाहा और मकान की दुगुनी कीमत माँगी।  श्री माताजी के बंधन देने के साथ, राष्ट्रीय-ट्रस्ट ने आखिर में सन दो हजार पाँच में उस भवन को अपने अधिकार में ले लिया।  दो बरस इस भवन को अपने मूल-स्वरूप में लाने में लगे।  छत की टाइल्स (खपरैल) निकाली गईं तथा अपने मूल-स्वरूप में( रंगत में) लाने हेतु उन्हें कारखाने भेजा गया।  भवन के मूल-फ़र्श को वापस लौटाने हेतु पॉलिश किया गया।  उनके जन्म-स्थल वाले कमरे में पारदर्शी काँच की चौखट लगाई गई , ताकि उनके दर्शन हो सके।  हालाँकि सहजी बच्चे मूल-भवन के पीछे वाले आँगन में एक ध्यान-कक्ष बनाना चाहते थे, किन्तु जन्म-स्थल (मंदिर) के सम्मान को देखते हुए, पीछे के आँगन में बनने वाले ध्यान-कक्ष की ऊँचाई मंदिर की ऊँचाई से (नीचे) कम रखी गई।

करीब इक्यासी वर्ष के बाद श्री माताजी अपने जन्म-स्थल पर इक्कीस मार्च वर्ष दो हजार आठ को वापस पहुँची।  उन्हें वहाँ की हरेक चीज़ की जानकारी थी, जैसे अभी कल ही वे घर छोड़कर गईं थीं।  उन्होंने अपने जन्म-कक्ष की ओर इशारा करते हुए कहा, “मैं इस कक्ष में जन्मी थीं।”  

उन्होंने पास सटे हुए कक्ष का अध्ययन करते हुए लम्बा समय बिताया, “मेरे पिताजी के मित्र-गण नागपुर से आया करते थे, इसलिए उन्होंने यह अतिथि-कक्ष उनके लिए बनाया था।  उस समय केवल एक वे ही मेरे अवतरण को समझ पाए थे।”

उनके लिए यह दर्शन-यात्रा (भ्रमण) उनके पिताश्री के प्रति एक बड़ा सम्मान थी, जिन्हें अति स्नेह से उन्होंने अपना गुरु स्वीकार किया, उन्होंने मुझे सामूहिक-जाग्रति की विधि को आविष्कृत करने को कहा, “मान लो आप दसवीं मंज़िल (दसवें माले) पर हैं और हरेक व्यक्ति भू-तल (Ground floor) पर है, आपको उन्हें कम-से-कम दो माले ऊपर चढ़ाना चाहिए, ताकि उन्हें ज्ञात हो कि इससे ऊपर भी कुछ है, अन्यथा इसके बारे में केवल बात करने का कोई फ़ायदा नहीं है।”

ठंडी हवा का एक झोंका श्री माताजी के माता-पिता के कक्ष से गुज़र गया और उपस्थित सेवक ने खिड़कियाँ बन्द कर दीं, किन्तु उन्होंने खिड़कियों को खुला रखने को कहा, इससे उन्हें छिदवाड़ा की शीतकालीन रात्रियों के दौरान अपनी मातुश्री के वात्सल्य की ऊष्मा में झूले पर झूलते हुए दिनों की स्मृतियाँ ताज़ा हो आईं, “उन्हीं ने – उदात्त मूल्यों को हमारे मस्तिष्क में बिठाया। उनका विश्वास था कि ईमानदार होना, हमें भयमुक्त बनाएगा और हमें पूरे विश्वास के साथ कठोरता का सामना करने योग्य बनाएगा।”

 उनका जन्म-स्थल उनके माता-पिता के द्वारा समर्थित मूल्य-प्रणाली का एक अमर सबूत ओढ़े हुए था और जैसे ही बच्चों ने अपने माता-पिता की ड्योढ़ी पार की, उन्होंने उन मूल्यों को अपनाया। श्री माताजी के पिच्चासीवें जन्म-दिवस पर सबसे सावधानी से पोषित भेंट वे (बच्चे) उनके चरण-कमलों पर समर्पित कर सकते थे।

किन्तु ऋतम्भरा प्रज्ञा पीछे नहीं रही और उसने गुड-फ्राइडे, नवरोज़ (पारसी नव वर्ष), होली और ईद-ए-मिलाद (हज़रत मोहम्मद की जन्म और मृत्यु की साल-गिरह, उसी दिन पड़ती है), इन सब पर्वों की उपहार (भेंट) श्री माताजी के जन्म-दिवस के सम्मान में खोलकर रख दीं थीं। 

तेईस मार्च को प्रातः काल वे नागपुर के लिए विदा हुईं।  पूरे रास्ते वे चित-परिचित प्राकृतिक-दृश्यों को पोषित करतीं गईं और अपने बचपन के खुशी के पलों को याद करतीं गईं।  दोपहर को जब वे प्राइड होटल पहुँची नागपुर सामूहिकता ने ईस्टर-पूजा के आशीर्वाद हेतु प्रार्थना की।

चार घंटों की यात्रा, एक गड्ढेदार सड़क पार करने के बावजूद श्री माताजी का मुख-मण्डल मुस्कराहट के साथ दमक रहा था, “वस्तुतः मैं तुम सबसे मुलाक़ात करना चाहती थी कि आज का दिन ‘क्षमा का दिन’ बहुत महत्वपूर्ण है।  मैं इतनी ज़्यादा खुश हूँ कि आप में से कुछ बच्चे यहाँ हैं और मैं तुमसे बात करने का अवसर नहीं खोना चाहती।”

श्री माताजी ने आराम नहीं किया और जल्दी ही दोपहर के भोजन के बाद प्राइड-होटल के एक छोटे तलघर के हाल में (Basement) पहुँची, जहां डेढ़ सौ से ज़्यादा सहजी बच्चों ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत किया।  यह एक अनौपचारिक दिल से दिल की बात थी, “यदि आप लोगों को क्षमा कर सकते हो, आप अत्यंत ही पवित्र (निर्मल) हो जाते हो, क्योंकि क्रोध की गंदगी जो हमारे अंदर समायी हुई है, वह बाहर निकल जाती है।  क्षमा करें, उस चीज़ के लिए जो नहीं की जानी चाहिए थी – यह ईसा मसीह का सबसे महान गुण था…… हमें यह निश्चित करने के लिए अपनी शक्ति की क्षमता व्यर्थ नहीं खर्चनी चाहिए, कि क्या गलत  है ?”

किन्तु बच्चों का सूक्ष्म-तंत्र बहुत सूक्ष्म (गुह्य -तत्व) नहीं  महसूस कर पा रहा था।  सही-गलत के निर्णायक (मध्यस्थता) ने उनकी पृष्ठ-आज्ञा (Back Agnya)   को पकड़ लिया था, उन्होंने श्री माताजी से प्रार्थना की, “आप ही अंतिम-निर्णय की सर्वोच्च न्यायाधिकारणी हैं, हम हमारे अंदर स्थित मध्यस्थ (जज) को आपके श्री चरणों में समर्पित करते हैं।”

अंतिम-निर्णय के न्याय ने एक मंत्र की तरह काम किया और स्वर्ग के द्वार को पूर्णतया खोलकर रख दिया।

श्री माताजी के पुणे वापसी पर सिटी-कौंसिल ने उन्हें और सर सी पी को उनकी शादी की वर्षगाँठ पर मंगलमय अवसर पर बधाइयाँ दीं। पुणे के मेयर ने उनके जीवन-पर्यन्त-कार्य, विश्व-शांति फैलाने के लिए उनका शानदार सम्मान किया।  उन्होंने श्री माताजी को उच्चतम-इनाम से सम्मानित किया।

कुछ समय पूर्व ही श्री माताजी सहस्रार-पूजा हेतु कबेला पधारीं।

‘मातृ-दिवस’ (Mother’s Day) के अवसर पर विश्व के प्रत्येक कोने से आए बच्चों के द्वारा पुष्पार्पण से वे अत्यंत गहनता से प्रभावित हुईं, “मैं इससे बहुत खुश हूँ, क्योंकि माँ को धन्यवाद अर्पित करना एक बहुत बड़ी चीज़ है।  आप लोग बहुत दयालु रहे हैं।  मैं कुछ नहीं कह सकती हूँ।  मैं प्रेम से परिपूर्ण हूँ और भावनाओं से पूर्ण हूँ, वो मैं बता नहीं सकती, यह मात्र वह चीज़ है, जिसे मैंने कभी नहीं चाहा।”

कोई शब्द या कृति (बच्चों की) उस कृतज्ञता को पर्याप्त-रूप से प्रकट नहीं कर सके, जो कार्य उनके लिए श्री माताजी ने किया था और वे लगातार (निरन्तरता से) करतीं रहीं।  श्री आदि-शक्ति पूजा में बच्चे महसूस कर सकते थे कि श्री माताजी ने उनकी नकारात्मकता को कितना आत्म-सात किया था और पिच्चासी वर्ष की उम्र में श्री माताजी के लिए यह बहुत ही ज़्यादा था, उन्हें आराम की ज़रूरत थी और वे सेवामुक्त होने का विचार कर रहीं थीं। 

श्री देवी महात्म्य के सार-गर्भित भाग में, देवी माँ ने अपने भक्तों के समक्ष एक गुरु के स्वरूप में प्रतिक्रिया  दी।  उन्होंने भविष्य में आने वाले उन अवसरों का ज़िक्र किया, जब वे इस दुनिया को ठीक करने के लिए पुनः उपस्थित (अवतरित) होंगी।  श्री गुरु पूजा पर उन्होंने बच्चों को प्रभावित करते हुए कहा कि उन्हें सहज-योग को प्रसारित करने हेतु गुरुओं कि जवाबदारी को हाथों में लेना होगा।

“पहला बिन्दु, आपको किसी तरह का कोई अहंकार नहीं होना चाहिए।  आपको किसी चक्र में बाधा (पकड़) नहीं होने चाहिए।  आपको हर समय हरदम स्वच्छ (निर्मल) होना चाहिए और आपके हाथों से चैतन्य प्रवाहित होते रहना चाहिए।  यदि चैतन्य का प्रवाह एक हाथ में है, और दूसरे में नहीं, आप गुरु नहीं हो सकते।  अतः आपको पूर्णतया सम्पूर्ण सहज-योगी होना चाहिए, तब आप गुरु हो सकते हो…….. इसका यह कतई  अर्थ नहीं होगा, कि आप मुझे नकार दें  – नहीं, बिलकुल भी नहीं।  मैं तुम्हारे साथ हूँ और हरेक जगह जहाँ आप सहज का कार्य करते हैं, आप वहाँ मेरा फोटोग्राफ लगाइये।”

बच्चों ने उन्हें श्री कृष्ण जी की बांसुरी जैसा खोखलापन प्रदान करने की प्रार्थना की, ताकि उनकी चैतन्य-लहरियों का प्रवाह बच्चों में हो सके।  श्री कृष्ण पूजा के नाटकों की प्रस्तुति में श्री राधा जी को श्री कृष्ण जी की बांसुरी से ईर्ष्या करते हुए चित्रित किया गया था, क्योंकि बांसुरी हमेशा श्री कृष्ण जी के ओंठों पर लगी (विराजित) रहती थी।  (पूछने पर) बांसुरी ने उत्तर दिया कि वह कुछ नहीं करती, क्योंकि वह तो खाली है और वे तो श्री कृष्ण जी थे, जो सुर निकालते थे।  इसी तरह से, बच्चों ने श्री माताजी के फोटोग्राफ को सामने रखते हुए अपने गुरु-तत्व को नम्रतापूर्वक स्वीकार किया, यह समझते हुए कि इस बांसुरी की वादक-मात्र वे ही थीं, जिन्होंने उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया था।

उनके बच्चों का प्यार इतना विवश करने वाला था कि उनके नियंत्रित-स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने आने वाले महीनों में टोग्लिएटी (Togliatti) की यात्रा की, वे बच्चों के लिए जिंदा रहीं, उनके लिए अवतरित हुईं और अपनी अंतिम श्वास तक उनकी रक्षा के लिए संघर्ष करती रहीं!

उन्होंने नोएडा-हाउस में श्री धनतेरस पूजा में अपनी लम्बी चुप्पी को तोड़ा, “आज श्री लक्ष्मी जी का दिन है।  श्री लक्ष्मी का अर्थ धन (पैसा) नहीं होता है, किन्तु वे देवी हैं और देवी हमारी माँ हैं।”

वे दिल्ली के बच्चों की भक्ति और श्रद्धा से प्रसन्न थीं और विस्तार से बोलीं कि दिल्ली ‘स्थल’ था यानि उनका अंतिम-विश्राम ‘स्थल’ (समाधि-स्थल)…….

2008

अध्याय-17

जब वे ईराक-युद्ध को हल कर रहीं थी, आतंकवादियों ने मुंबई पर आक्रमण किया था।  छब्बीस नवम्बर को मुंबई शहर बम-विस्फोट की शृंखला से आहत हुआ था।  किन्तु, एक बार फिर से उनकी सुरक्षा के वरदहस्त ने चमत्कारिक रूप से योगियों की रक्षा की।  श्री प्रधान साहब जो कि एक पैट्रोलियम कम्पनी के लिए कार्य करते थे, उन्हें संसदीय-प्रतिनिधि मण्डल के आतिथ्य का काम सौंपा गया था और वे ताज़-होटल में उनकी मेज़बानी कर रहे थे।  उनकी नाभि की सुरक्षा के लिए श्री माताजी ने उन्हें बाहर का खाना नहीं खाने की सलाह दी थी।  तदनुसार, उन्होंने औपचारिक-डिनर (दोपहर भोज) को छोड़कर वहाँ से प्रस्थान कर दिया था।  पंद्रह मिनट बाद, उन्हें उनके एक सहकर्मी से फ़ोन आया कि ताज़ होटल पर आतंकवादियों का आक्रमण हुआ।  श्री प्रधान ने उन्हें अपने कमरे में बन्द होने की सलाह दी,  किन्तु आतंकियों ने कमरे के दरवाज़े को विस्फोटक से उड़ा दिया और श्री प्रधान के सहकर्मी को एक हथगोले से मार डाला।

इसी बीच श्री प्रधान की भतीजी होटल के रेस्टोरेन्ट में एक दूसरी भावनात्मक तकलीफ़ से गुज़र रही थी।  जैसे कि वे अपनी बेटी के जन्मोत्सव को मना रही थी, आतंकी अनायास उस रेस्टोरेन्ट में दाखिल हुए और उन्होंने गोली चलाना शुरू कर दी।  श्री प्रधान ने उन्हें श्री माताजी का एक लॉकेट दिया था और उनकी भतीजी ने हाथ में उसे पकड़ रखा था और उत्साहपूर्वक उन्होंने श्री माँ से प्रार्थना की।  इस संकट में उनकी कुंडलिनी उन्हें बचाने में सहायक हुई और उनके चित्त में प्रवेश कर गईं, उन्हें किचन ( रसोईघर) के दरवाजे से चैतन्य -लहरियाँआती हुई महसूस हुईं , उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हुईं।  वे अपनी छोटी (नन्ही-सी) बेटी को गोद में पकड़कर किचन (रसोईघर) की ओर रेंगने लगी।  श्री माताजी की माया ऐसे थी कि गोली दागने वाले आतंकी की पीठ उसकी ओर थी और वे किचन की सुरक्षा में, आतंकी को बिना जानकारी लगे पहुँच सकी।  ताज़ होटल के रसोइये (Chef) ने तुरंत उन्हें किचन के पीछे वाले दरवाजे की ओर इशारा किया, जहाँ से कुछ मेहमान भागने की कोशिश कर रहे थे।  चूँकि उनके साथ एक नन्ही बच्ची थी, यह जानकार रसोइये ने उन्हें दूसरों से आगे आने दिया।  श्री माताजी का नाम अपने ओंठों पर लिए और हाथ में श्री माँ का लॉकेट लिए वे अपनी जान बचाकर भागीं।  किन्तु दूसरा मेहमान, जो एक्सिस बैंक मैनेजर था, वह इतना भाग्यशाली नहीं रहा, और क्रॉस-फ़ायरिंग में (मुठभेड़) मारा गया।

अभी एक और नाटक ऊपर वाले किचन में दिखाई दिया, जहाँ एक सहज योगी ट्रेनी-शेफ (नौसिखिया-रसोइया) था, जैसे ही फ़ायरिंग शुरू हुई, वह घबरा गया था।  उसे शीतल चैतन्य लहरियों का एक झोंका महसूस हुआ जिसने उसे यह स्मरण कराया कि मुसीबत के वक़्त आपको घबराना नहीं चाहिए, बल्कि सहस्रार की शांति में लौटना चाहिए।  उसने कुछ बंधन देना शुरू किया – अचानक से, उसे किचन के कप-बोर्ड (बड़ी अलमारी) से चैतन्य लहरियाँ आती महसूस हुईं, जो एक कोने पर स्थित था – जैसे उसे आमंत्रित कर रहा हो।  बिना सोचे-समझे उसने उस कपबोर्ड को खोला और उसमें सिमटकर बैठ गया।  अपने मोबाइल फ़ोन से उसने स्टीवर्ड (सेवक) को SMS भेजकर उसे कपबोर्ड को बाहर से लॉक करने का निर्देश दिया।  पूरी रातभर स्टीवर्ड उसे अपने मोबाइल के द्वारा अनिर्णीत खतरे से सूचित करता रहा।अल-सवेरे फ़ायरिंग (गोलीबारी) रुक गई।  एक घंटे के सन्नाटे के बाद स्टीवर्ड ने उसे बाहर जाने दिया।

श्री प्रधान साहब, उनकी भतीजी और ट्रेनी-शेफ़ ने श्री क्रिसमस पूजा पुणे पर अपनी जान बचाने के लिए श्री माताजी को धन्यवाद दिया।  जैसे ही वे श्री माताजी के चरण-कमलों पर झुके, अपने सहस्रार से उन्होंने श्री माताजी को सुना और उन्होंने जाना कि उन्हें क्या जानने की ज़रूरत थी – एक ऐसा हृदय रखें, जो क्षमा करता हो! 

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2009-10

अध्याय-18

विश्व महिला सम्मेलन, बीजिंग (चीन) सितंबर 1995 को, श्री माताजी ने भारतीय महिला प्रतिनिधि श्रीमती प्रतिभा पाटिल को आत्म-साक्षात्कार दिया।  श्री माताजी के आशीर्वाद से वे पच्चीस जुलाई दो हजार सात को भारत वर्ष की पहली महिला-राष्ट्रपति के पद तक पहुँची।  उन्होंने श्री माताजी को मिलने हेतु और अपनी गहन कृतज्ञता ज्ञापित करने, उन्हें याद किया।  एक आत्म-साक्षात्कारी का भारत के राष्ट्रपति के रूप में आरूढ़ होने से श्री लक्ष्मी जी का आशीर्वाद प्रवाहित होने लगा।  जब विश्व की अर्थ-व्यवस्था लगातार नीचे गिर रही थी,  भारत की अर्थ-व्यवस्था गरज़ने लगी थी!  

किन्तु, माँ के कोष में अपने बच्चों के लिए बहुत सारे आशीर्वाद भरे पड़े थे।  उन्होंने अपने जन्म-दिवस पूजा की पूर्व-संध्या पर अपनी नाती आनन्द का विवाहोत्सव मनाया।  पूजा के बाद विवाह-समारोह के लिए श्री माताजी ने अपने सभी बच्चों को आमंत्रित किया।  अति-विशेष संगीतमय संध्या पर वृन्दावन के तट पर उन्होंने बच्चों को भिजवाया, जहाँ वे उनकी रासलीला में नृत्य करते-करते निरानन्द में लीन हो गए थे।  

इकतीस मार्च को वृन्दावन के तट पर यह आनन्द राष्ट्रपति भवन की ओर चला गया, जहाँ एक औपचारिक सम्मान समारोह में भारत वर्ष की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने सर सी पी को दूसरे उच्चतम नागरिक सम्मान पद्म-विभूषण से विभूषित किया।  सर सी पी ने इस सम्मान को नम्रतापूर्वक श्री माताजी के चरण-कमलों में भेंट करते हुए कहा, कि जो भी उपलब्धियाँ उन्हें जीवन में मिलीं, वे उनकी वजह-से थीं।  श्री माताजी की आँखें उनकी (सर सी पी की) मान्यता (स्वीकारिता) और गहन-प्रेम से आर्द्र हो उठीं और उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिए।  सर सी पी ने उनकी रात-दिन सेवा-सुश्रुषा की, उनके हर भोजन की देखभाल करना, जब वे बीमार होतीं – रात भर जागरण (चौकसी) करना और पूरे हृदय से श्री माताजी की परियोजनाओं को अपनी चतुरता, सुबुद्धि-मता, समय और अर्थ-व्यवस्था के साथ समर्थन प्रदान करना और उनकी सेवा करना।  

उनके विवाह की वर्षगांठ सात अप्रैल को उनके निवास-स्थान पर ईस्टर-पूजा के साथ मनाई गई और वे दुबई होते हुए मिलान के लिए नौ अप्रैल को रवाना हुए।  

मिलान हवाई-अड्डे पर बारह अप्रैल को इटालियन बच्चे श्री माताजी का स्वागत करके अति प्रसन्न थे।  उन्होंने बच्चों के बिना कुछ बोले फूल स्वीकार किए।  जैसे ही वे जाने वाली थीं, दो नए चेहरे उन्हें फूल भेंट करने आगे आए।  श्री माताजी ने तुरंत पूछा, “वे कौन हैं” ? 

उनका परिचय श्री माताजी से हवाई-अड्डे पर कार्य-रत (कस्टम) अधिकारियों की हैसियत से कराया गया।  

बच्चों को समझ आ गया था कि वे श्री माताजी के शरीर में कोशिकाएँ थे, वे उनसे अलग नहीं थे और इसलिए यह आवश्यक नहीं था कि वे बच्चों से बात करें/ बोलें या हरेक व्यक्ति पर ध्यान दें, किन्तु उनका चित्त सहज ही उन पर प्रतिक्रिया देता था, जो अभी तक उनके शरीर में कोशिकाएँ नहीं बने थे।  

उनकी शांति ने बच्चों के अंदर शांति स्थापित करने में सहायता की, उसके बिना बच्चों का चित्त आंतरिक रूप से विकसित करना संभव नहीं था।  इसने बच्चों को अपनी बाधाओं पर गंभीरता से काबू करने के क्रियान्वयन के लिए और अपनी चैतन्य लहरियों को सुनने हेतु प्रेरित किया।  इस प्रक्रिया में वे गहन और परिपक्व होते गए।  उन्हें समझ आ गई थी कि वह महत्वपूर्ण नहीं था कि उन्होंने श्री माताजी के साथ कितना समय बिताया था, किन्तु यह महत्वपूर्ण था कि कितनी तीव्रता (गहनता) से वे उनके साथ रहे।  उनके साथ शारीरिक निकटता हरेक योगी का आशापूर्ण स्वप्न था, किन्तु उन्होंने अपने सहस्रार पर श्री माताजी को महसूस करना शुरू कर दिया था।  उन्होंने उनकी ऋतम्भरा-प्रज्ञा की लय-बद्धता के साथ कदम मिलाया।  इससे श्री माताजी के उत्तम उपहार उन्हें मिले और बच्चों की सभी समस्याएँ हल हुईं।  उनकी जीवन-शैली बदल गई, उनकी समझ बदल गई और वे दूसरों के लिए खुशी, आनन्द और ज्ञान के महान स्रोत बन गए थे।

     वस्तुतः जैसे उनकी शांति ने कोशिकाओं को रूपांतरित करने में कार्य किया, इसने 

कई विभिन्न स्तरों पर भी कार्य किया।  इस शक्ति ने नई पीढ़ी की कोशिकाओं की 

सुरक्षा हेतु चिंता की, जिन्हें नए स्कूल प्रदान किए जाने थे। उन्होंने (श्री माताजी जी ने) 

बहादुर सहज योगियों (Nirmalites) को कबेला के एक स्कूल के लिए स्काउट्स

       (स्वयं-सेवी) भेजे थे – वे खाली हाथ वापस आ गए।  श्री माताजी ने अपनी आँखें बन्द 

कीं और शांत (मौन) अवस्था में चलीं गईं।  पाँच मिनटों के बाद उन्होंने आँखें खोलीं 

और श्री संजय माने को  बुलाया।

      उन्हें केवल सही मकान (आवास) मिल गया और उन्होंने उसके बारे में विस्तारपूर्वक 

संजय माने को बता दिया।  उसकी बुद्धि में आ गया कि यह मकान उसके घर के पास 

ही था।  जब उसने इस मकान की जानकारी ली, उसके मालिक ने राहत की साँस ली, “आपको परमात्मा ने भेजा होगा।  मैं अपने मकान को बेचने हेतु पिछले वर्ष से प्रार्थना    कर रहा था, किन्तु आर्थिक-मंदी की वजह से, कोई इसे  खरीदना नहीं चाहता था।”

हालाँकि, कीमत पर तौल-मोल  के मान से उस तरह के मकान की कीमत बहुत ज़्यादा थी।  श्री माताजी उस मकान कि कीमत चुकाना चाहतीं थीं, किन्तु बच्चों ने महसूस किया कि उनके नाभि-तत्व के लिए सामूहिक-रूप से पूँजी एकत्रित करना महत्वपूर्ण था, किन्तु उसमें एक लम्बा समय लगेगा और सौदा टूट रहा था। 

अंत में श्री सर सी पी ने वर्ल्ड-फाउंन्डेशन को उदारतापूर्वक दान देकर स्थिति संभाली, नवरात्रि-पूजा के एक दिन पूर्व छब्बीस सितंबर सन दो हजार नौ को, श्री माताजी ने स्कूल का उदघाटन किया।

असंभव की प्राप्ति हो चुकी थी और देवी माँ दूसरे दिन नवरात्रि पूजा के लिए विजयी मुद्रा में पधारीं।  बच्चों ने उन्हें सभी प्राणियों में विभिन्न स्वरूपों में संस्थित होने के लिए धन्यवाद दिया, जैसे – माया रुपेण, चेतनारुपेण,

बुद्धिरुपेण, निद्रारुपेण, क्षुधा रुपेण, तुष्टि रुपेण, शांति रुपेण, दया रुपेण, क्षांति (क्षमा) रुपेण और दुर्गा माँ के अजेय रूप में स्थित होने के लिए धन्यवाद दिया।  जैसे ही बच्चों ने पूजा के दौरान उनके चरण-कमलों पर देवी दुर्गा माँ के अस्त्र-शस्त्रों को अर्पित किया, अचानक ही श्री माताजी की आँखें इतनी व्यक्तिशाली हो गईं कि कोई भी उनकी ओर सीधे नज़रें नहीं मिला सकता था, किन्तु अपनी आँखों के कोने से श्री माताजी के घूरने (टकटकी) को देख सकता था।  उनके भेदनकारी कटाक्ष में श्री दुर्गा माँ के सभी अस्त्र-शस्त्र डेरा डाले मौज़ूद थे।  उनकी आँखों की शक्ति (एक कटाक्ष मात्र), एक लेज़र (Laser ray) की तरह भेदन करती थी।  उनके बीच खड़े होने का साहस कोई नहीं कर सकता था।  उनका चैतन्य उनकी आँखों से बच्चों के सूक्ष्म-तंत्र के पार कर जाता था और उनकी छिपी हुई नकारात्मकता को काबू कर लेता था।  यह एक जीवन-पर्यन्त का अनुभव था!  उनका टकटकी लगाकर घूरना बच्चों की आन्तरिक-चेतना को शुद्ध कर देता था।

रोम में क्रिसमस पूजा के बाद कुछ युवा योगीजन पिज़्ज़ा के लिए बाहर गए।  एक छोटा शरणार्थी लड़का जिसकी उम्र सात वर्ष की थी,  पिज़्जारिया (पिज़्जा-केंद्र Pizza-hut) के बाहर शाम की ठंड से काँप रहा था।  वह चिथड़ों में लिपटा था और पाँवों में जूते भी नहीं थे।  युवा-योगियों की करुणा, उसकी पीली (बीमार) नीली आँखों से प्रतीत होती भूख से आकर्षित हुई और उन्होंने अपने पिज़्जा को छोड़ देने का निश्चय किया।  वे उसे एक डिपार्टमेंटल स्टोर्स में ले गए और आत्म-संतोष के लिए अपने पूरे पैसे, उसे नए जूते और गरम कपड़ों का सूट खरीदने में खर्च कर दिए और विदा होने से पहले उसे एक चॉकलेट-बार दिया और उसे क्रिसमस की शुभकामनायें दीं – मेरी क्रिसमस!

उस बच्चे ने उनकी ओर देखते हुए पूछा, “क्या आप देवदूत हैं।” 

वे मुस्कराए, “नहीं बेटे।  हम सहज-योगीजन हैं।”

एक परिचित मुस्कान के साथ छोटे बच्चे ने उत्तर दिया, “मुझे मालूम था कि आप लोगों का देवदूतों से कुछ संबंध होना चाहिये।”

श्री माताजी प्रतीक्षा करतीं रहीं थीं, उनकी करुणा की सुगंध उनके बच्चों में प्रवाहित हो और जब यह घटित हुआ, तो उन्हें अति आनन्द प्राप्त हुआ।  अब, वे बच्चों पर जवाबदारी सौंपकर जा सकतीं थीं।

ईराक-युद्ध समाप्त हो गया और अगस्त दो हजार दस में अमेरिकी लड़ाकों (सिपाहियों) ने ईराक छोड़ दिया।  अफगानिस्तान में तालिबानी लड़ाके-गुरिल्ला-युद्ध तक सिमट गए थे और ओसामा-बिन-लादेन को ‘अंतिम-निर्णय’ के सामने हाज़िर होने का वक्त नज़दीक आ रहा था।  शैतान की धुरी, जिसने विश्व को आतंकित किया हुआ था, वह समाप्त हो गई थी।  श्री माताजी ने अपने मिशन (लक्ष्य) को पूर्ण कर लिया था और वापसी की इच्छा प्रकट की।  वे अक्टूबर वर्ष दो हजार दस को अपने बच्चों से विदाई (अलविदा) कहने हेतु भारत लौट आईं।

ऋतम्भरा प्रज्ञा श्री विराट-पूजा, इक्कीस नवंबर को चालीस हजार बच्चों को उनके चरण-कमलों पर ले आईं।  उन्होंने बच्चों को अपने विराट-स्वरूप की चाबियाँ सौंप दीं।  ये चालीस हजार कोशिकाएँ (योगी-जन)थोड़ा-सा ही जान पाए कि तीन महीनों में, श्री माताजी अपने विराट-स्वरूप को ग्रहण कर लेंगीं।  

श्री माताजी ने दयावन्त हो वर्ष उन्नीस सौ पिच्चानवें में नवी-मुंबई में एक अस्पताल सहज-योग को भेंट कर दिया था।  पीड़ितों के लिए यह अस्पताल मक्का (तीर्थ) बन गया था और जैसे समय बीतता गया, यह अस्पताल अपनी क्षमता से परे चला गया था।  उन्होंने उत्तर-भारत में एक अस्पताल की आवश्यकता अनुभव की ।  बच्चे ऋतम्भरा प्रज्ञा के साथ-साथ (ताल-मेल में) चल रहे थे।  यहाँ तक कि श्री माताजी के ओठों पर कोई इच्छा प्रकट होती, उत्तर मिल जाता था! 

बिना पूछे राजीव और मालिनी खन्ना ने इसे (अस्पताल की आवश्यकता को) विनम्रता से प्रायोजित किया।  एक और योगी श्रीचंद(जी) ने जयपुर में एक स्कूल को प्रायोजित किया।  विराट पूजा के तुरंत बाद श्री माताजी ने दोनों ही परियोजनाओं को उद्घाटित किया था। 

किन्तु रुकिए! श्री माताजी ने उसका भी उत्तर दिया, जिसकी उन्हें (योगियों को) स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। जिनोआ के लिए रवाना होने से पूर्व, श्री माताजी ने इस धरती पर अपने स्वामित्व की अंतिम-वस्तु (कृति) प्रतिष्ठान पुणे को बच्चों को उपहार स्वरूप दे दिया।  एक आलीशान राजसी आवास, जिसे सर सी पी की मेहनत की कमाई से बनाया गया था,  किन्तु वे इसे उपहार – स्वरूप बच्चों को भेंटकर बहुत प्रसन्न थे। 

श्री माताजी और सर सी पी पहले ही कबेला का कैसल, अपना न्यू-जर्सी हाउस, काना जौहारी, गणपती-पुले और महाराष्ट्र में भूखण्ड, वाशी अस्पताल, निर्मल-धाम (दिल्ली), कुतुब आश्रम (सहज मंदिर), रोम आश्रम, कबेला आश्रम, ऑस्ट्रेलिया में आश्रम, आदि सहज-योग को बहुत पहले ही उपहार में दे चुके थे।  वास्तव में, जो भी उन्होंने बनाया, वो बच्चों का ख्याल करते हुए बनाया।  किन्तु, उन्हें अपने बच्चों के परिपक्व होने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी, ताकि वे उन्हें उनकी जवाबदारी सौंप सकें। 

दिल्ली एयर-पोर्ट के रास्ते जाते वक्त, वे निर्मल-धाम पर कुछ मिनटों के लिए, अपने विश्रांति-स्थल को आशीर्वादित करने हेतु रुकीं।  वे अपनी कार से अपने बच्चों से फूलों को स्वीकारने हेतु बाहर आईं और तब करुणार्द्र-नेत्रों से आखिरी अलविदा ली।  

और, जिनोआ में दिवाली-पूजा में और भी अलविदा (goodbyes) कहे जाने थे।

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2011

अध्याय-19

जिनोआ में तीन जनवरी की प्रातःकाल को श्री माताजी ने अपने स्वामित्व की सभी व्यक्तिगत वस्तुएँ शालें, स्कार्फ और साड़ियाँ उन्हें देखरेख करने वाली नर्सों (परिचारिकाओं) और योगिनियों को दे दीं। उन्होंने उनसे पूछा यदि वे कुछ भजन सुनना पसंद करेंगीं।

“नहीं।” उन्होंने कहा, “मैंने कई भजन सुने हैं।  अब मैं बात करना चाहूंगी।”

उनका दीप्तिमान मुखमंडल प्यार, करुणा और मनो-विनोद-प्रियता से प्रसन्न हो उठा।  उन्होंने चुट्कुले सुनाए और बहुत ज़्यादा हँसी।  वे आधे घंटे तक बोलीं, यह पूछते हुए कि वे क्या खाना पसंद करेंगे, कौन सी मिठाई वे पसंद करते हैं ?  “मैं तुम्हारे लिए पुलाव बनाऊँगी।”

वे ऑस्ट्रेलियन योगिनियों की ओर मुड़ी, “वे महान हैं, वे आश्चर्यजनक हैं।”

उनके नाती आनन्द ने कहा, “आप उन सब की माँ हैं।  वे ही हैं, जो पूरे विश्व में सहज-योग फैलाएँगे।  वे विश्व को बदलेंगे…….. आपने उन्हें (सबको) इस लायक बनाया है।”

वे हँसी, “जादू।” (अलौकिक)

आनन्द बोला, “आप ही वह जादू हैं।”

उनकी पुत्री साधना दीदी ने मज़ाक किया, “यह जादू का घर हैं।”

श्री माताजी की हँसी फूट पड़ी।

एक सप्ताह बाद, उन्हें श्वसन-सम्बन्धी समस्या के निदान हेतु अस्पताल में दाखिल कराया गया।  जब डॉक्टर्स उनकी शारीरिक-देखभाल कर रहे थे, श्री कल्कि मिस्र, लीबिया, सीरिया, टूनीसिया और बेहरीन में तानाशाही सत्ता के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे।  तीन सप्ताह बाद वे घर लौट आईं और योगियों द्वारा उनकी आरती पूर्ण होते ही राष्ट्रपति मुबारक (मिस्र) ने अपना पद त्यागने के निर्णय की उद्घोषणा की।  मिस्र देश आज़ाद हो चुका था और हँसी का स्वर ‘जादू के घर’ की ओर लौट आया।

करीब मध्य -फरवरी में श्री माताजी को निमोनिया के दौरे की वज़ह से अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।  उनके सभी बच्चों ने उनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की।  एक इटालियन योगी, डुलिओ जो उनकी सेवा-सुश्रुषा में था, अपने कान खींचे और सहज-सामूहिकता की ओर से उनकी क्षमा माँगी।

ओ होली मदर (हे परम पावनी माँ), हम आपके चरण-कमलों पर नत-मस्तक हैं।

यदि हमारे शरीर या मन में अपने भाई-बहनों के प्रति किंचित-मात्र भी शिकायत हो, हमने आपके शरीर को कष्ट पहुँचाया हो, हम अपने-आपको परिवर्तित करने का वादा करते हैं, हम दूसरों की निंदा न करने का वादा करते हैं। 

यदि हमारे विघटन से आपके शरीर में कोई विघटन आया है, तो कृपया हमें क्षमा कर दीजिए।  हे परम पावनी माँ, हमारी अपरिपक्वता (अधूरेपन) के लिए हमें क्षमा कर दीजिए।

आपने हमारी तकलीफ़ें अपने ऊपर ले ली हैं, किन्तु हम आपकी पीड़ाओं को और ज्याद नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं। 

हम सब आपके शरीर की कोशिकाएँ हैं, हम अपने सम्पूर्ण हृदय से आपको प्यार करते हैं और हम अपनी ज़िंदगी से भी ज़्यादा आपको प्यार करते हैं।  कृपया, हमें क्षमा कर दीजिए। 

बच्चों की सच्ची लगन से की गई प्रार्थना के उत्तर में उन्होंने शांतिपूर्वक नींद ली।  तेईस फरवरी की प्रातःकाल वे पूर्णतया स्वस्थ्य होकर जागीं।  उन्होंने डॉक्टर्स, नर्सों और योगियों को अपने कक्ष से बाहर जाने को कहा, क्योंकि वे अकेले (एकांत में) रहना चाहतीं थीं।  उन्हें इस धरती पर अपने ध्येय (उद्देश्य) को पूर्ण कर लिया था और आगे इससे बड़े कार्य का समय आ चुका था।  वे किसी की भी उपस्थिति नहीं चाहती थीं, क्योंकि योगियों की इच्छा उनकी आत्मा को शांतिपूर्वक नहीं विदा होने देगी।  

कुछेक घंटों बाद, नर्स ने यह पता करने के लिए अंदर झाँका, यदि उन्हें किसी वस्तु की ज़रूरत हो।  जब नर्स ने कक्ष का दरवाज़ा खोला, उसने पाया कि कक्ष में सब ओर गहरी-धुंध (कोहरा) छायी हुई थी।  उसे कक्ष में प्रवेश करने में, हाथी के सिर की आकृति वाले एक शिशु की धुंधली-सी छवि ने रुकावट पैदा की।  नर्स ने तुरंत ही अस्पताल के स्टाफ को बुलाया।  उसी समय  के लगभग श्री आदि-शक्ति ने अपने पार्थिव-शरीर से मुक्ति ले ली थी।

उन्होंने बुधवार को साकार (मानवीय) स्वरूप लिया था और बुधवार को ही निराकार हो गईं। 

इस क्षति को धरती नहीं सहन कर पाई और पंचमहाभूत रो पड़े। उनके बच्चों और परिजनों के लिए यह महान क्षति थी और वे कबेला की ओर समूह में एकत्र हुए।  अस्पताल में एक दिन अनिवार्य रुकने के बाद उनका पार्थिव-शरीर कैसल (Castle) में उनके सर्वाधिक प्रिय कक्ष में वास्तविक स्थिति में रखा गया।  विश्व के हरेक कोने से हजारों की संख्या में उनके बच्चों के समूह अपना सम्मान (श्रद्धांजलि) देने एकत्रित हुए।

उनकी निर्मल शांत मुस्कान मानो कह रही हो;

“आज मैं तुम्हारे आंसू पोंछने आई हूँ।

किन्तु, यदि आप वास्तव में मुझे मिलना चाहते हैं 

तब हरेक साधक के द्वार पर दस्तक देना,

हरेक गली, हरेक शहर, हरेक राष्ट्र में, और 

मैं वह होऊँगी/ उपस्थित होऊँगी।“

सत्ताईस फरवरी को उनका पार्थिव-शरीर निर्मल-धाम, दिल्ली में उनके अंतिम विश्रांति-स्थल पर हवाई-यात्रा से पहुंचा।  दो लाख से ज़्यादा बच्चे उन्हें अपनी अश्रुपूरित –विदाई देने निर्मल-धाम इकट्ठे हुए।  जैसे कि उनके आंसुओं को पोंछने के लिए चैतन्य-लहरियाँ पहले से भी बहुत ज़्यादा सशक्त हो चलीं थीं।  बच्चों के टूटे हृदयों के बीच, आंसुओं की अविरल धाराओं के साथ अट्ठाईस फरवरी को सोमवार को अंतिम-पूजा  श्री माताजी के चरण-कमलों में समर्पित की गई।  पूजा में उन्हें लाल साड़ी भेंट की गई, क्योंकि देवी माँ हमेशा धरती से एक सुहागिन की भाँति विदा होती हैं।  एक सुंदर शॉल उनकी अर्थी पर ओढ़ाई गई और जैसे ही सूर्यदेव की अंतिम किरणों ने उन्हें विदाई का दीर्घकालीन प्रणाम किया, उनका पार्थिव-शरीर धरती माँ को सौंप दिया गया।  

उनकी विदाई में भी उनके वात्सल्य की शक्ति उनके खोए हुए बच्चों को वापस ले आई। बहुत से बच्चे जो सहज-योग छोड़ चुके थे, और उनके विरोध में निंदा-अभियान आरम्भ कर चुके थे, वे भी उनके प्रति सम्मान (श्रद्धांजलि) प्रकट करने लौट आए।

यह उनके प्यार की शक्ति (वात्सल्य) को सबसे बड़ा कृज्ञतापूर्वक सम्मान था। एक माँ का प्यार कभी भुलाया नहीं जा सकता है।  उनके प्यार की मधुर-सौरभ कभी मर नहीं सकती, वो उनके बच्चों कि करुणा में निवास करती है। जहाँ भी उनके बच्चे उनके नाम पर एकत्रित होते हैं, उनकी सुगंध उनकी कल्कि कि शक्ति (सहज सामूहिकता) के द्वारा प्रवाहित होती है। 

अपनी अंतिम साँस तक उन्होंने अपना वचन परिपूर्ण किया और अपने बच्चों को ‘अंतिम-निर्णय’ (Last Judgement) के लिए तैयार किया और अब, वह वचन (वादा) उनके बच्चों के लिए था, कि स्वयं को देखें, अपने आत्म-साक्षात्कार को देखें और श्री माँ की सुंदर कृति (आत्म-साक्षात्कार) को बचाने हेतु अपने वचन को पूरा करने के लिए प्रति-बद्ध रहें।  

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उपसंहार 

“यह मेरी विदाई का समय है,मैं तुम्हें तैयार कर रही हूँ। जब मैं जाऊंगी,कुछ नहीं बदलेगा। केवल आप मुझे अपने ह्रदय मैं रखेंगे ,हरेक व्यक्ति /योगी जिसने मुझे सुना है और मुझमें विश्वास व्यक्त किया है। मैं तुम्हारे अंतस में हूँगी और तुम मेरे में। तुम मुझे पूरे रास्ते ध्यान से देख रहे होंगे और समझ रहे होंगे। मैं नहीं जाऊंगी। (यहाँ वे हंसती हैं !)- क्योंकि मैं अलौकिक व्यक्ति हूँ। मैं कैसे कहीं जा सकती हूँ ?

इसलिए, इस घटना को अपनी जवाबदारी(दायित्व ) से स्वीकार करें ,उस कार्य को पूरा करने के लिए ,जिसे मैंने शुरू किया है। किन्तु इसे बिना अहंकार के करें। “

-श्री माताजी