The Tenth Incarnation by Yogi Mahajan

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दशम अवतरण

(The Tenth Incarnation) Volume I 

परम् पूजनीय श्री आदिशक्ति माताजी निर्मला देवी

के चरण कमल में सादर

समर्पित

जहाँ मरकत सी झील परमात्मा के चरण कमलों का अभिषेक करती है।

जहाँ देवी माँ की कृपा से जंगल की भूमि हरित लबादा बिछाए लेती है।

और असंख्य पुष्पों से लदी ये भूमि मानों शर्म से लाल सी हुई जा रही है।

जहां देवी माँ की ऐश्वर्य की दासता से संभ्रांत-सी अवस्था में काल(समय) खड़ा है।

जहाँ आत्मा की शीतल लहरियां मधुर-गीति-काव्य आदि गुरु के सम्मान में गुनगुनाती है।

जहाँ लोहा-जैसा शुष्क हृदय भी प्रेमास्पद हो खुल रहा है,

विश्व का गुरु तत्व खुल रहा है।

जहाँ गुरुओं की गुरु, आदि माँ सहस्र सहस्र तीर्थ यात्राओं को फलित करने पावित्र्य प्रदान करती हैं।

हे देवी माँ, हम कृतज्ञतापूर्वक अपने हृदय की गहराई से आपको बारम्बार समर्पण करते हैं। 

आपने हमारे हृदय खोल दिए,

किन्तु हमारे बीच प्रेम तत्व को प्रगाढ़ बनाये रखने के लिए हमें लौह तत्व (सुनिश्चय) प्रदान कर

हमारी सुबुद्धि बनाये रखने के लिए हमें,

विन्यान्वित रखें।

आपने अपने सबसे पसंदीदा उपहार (आशीर्वाद) हम पर बरसाए।

कृपया, हमें इन आशीर्वादों को मिल बाँटने का ज्ञान (सुज्ञता) दीजिये।

कृपा करके ,हमें भी इस मरकत -वर्णी (निर्मल) झील की तरह,

हमेशा के लिए आपके चरण कमलों में आनंदपूर्वक ‘चहकते हुए ‘

आशीर्वादित रखें।

कथानक की टिप्पणी

एक तीर्थ यात्रा की समाप्ति हुई और दूसरी की शुरुआत हो गई।गंतव्य पर पहुँचने पर लगा, मैं अभी इससे दूर हूँ।उनके दरवाजे की देहरी पार करके मैं चकित हो उठा ,यह मेरी हजारों तीर्थ यात्राओं की पूर्णता थी , वे एक दिव्य अवतरण थीं,परम पूजनीय श्री माताजी निर्मला देवी!

सं 1976 से मुझे उनकी सेवा में रहने का आशीर्वाद मिला। पैगंबर के सन्देश का अर्थ समझ आया, “माँ के चरणों में स्वर्ग बसता है”, मैंने उन्हें बाह्य में खोजा, समझने में असफल रहा ,किन्तु जैसे ही अपने अन्तस(ह्रदय) में उन्हें खोजा, अन्तरद्वार खोले, उन्हें अपने ह्रदय मंदिर में पाया । ह्रदय की एक मुलाकात ने मुझे आंतरिक रूप से बिना मानसिक वाद विवाद के परिवर्तित कर दिया था। उनके वात्सल्य की मदिरा की उन्मत्तता का सेवन कर मैं पुनः शांत, उद्वेग रहित हो गया। अपने को खोकर मैंने उन्हें (माँ को) पाया।

यह ऐसी दैवी सम्पदा थी, जिसे यह संसार नहीं पा सकता। हर दिन या यों कहिये हर पल उनके आनंदमय खेल में समाता गया, उनकी हँसी, ख़ुशी और मनोविनोद से परिपूर्ण छलकता हुआ-सा। इस आनंदमय समां ने हम जैसे हताश साधकों को अपने अहंकार की मरीचिका से मुक्त कर आत्मा के आशीर्वाद की परिधि में उन्नत कर दिया। उन्होंने न तो हमारे अहंकार को पुचकारा और न ही तोड़ा, किन्तु हमें अपने अहंकार को साक्षी भाव से देखने दिया। उन्होंने हमें उस मातृवत वात्सल्य से सराबोर कर दिया, जैसे माँ ने अपनों बच्चों को अपने कोमल हाथों से सुगन्धित गुलाब-जल से नहला- धुला दिया हो। 

मैंने उनकी जीवन कथा में उन अमर क्षणों को टंकित करने की उनकी अनुमति माँगी। श्री माताजी की कृपा से उनकी जीवन-कथा ‘Face of God’ सन1994 में प्रकाशित हो चुकी थी। तब से सहजयोग ने बड़ी उछाल ली और मानव उन्नति के सारांश को निरूपित कर समुद्र के ज्वार के समान आगे बढ़ाया। एक नई चेतना का विकास हुआ और वैश्विक स्तर पर सहज परिवार व्यष्टि रूप में (एक रूपाकार हो) संगठित हुआ। एक बार पुनः मैंने इस महान मानवीय – विकास प्रक्रिया के चरणों को लिपिबद्ध करने हेतु ‘The Tenth Incarnation’ ‘दसवाँ अवतरण’ नामक पुस्तक के लिए अनुज्ञा माँगी।

‘दसवाँ अवतरण’ हृदय की परिधि में स्थित उन आशीषपूर्ण क्षणों की कहानी बयाँ करता है। पहला भाग माँ के अवतरण की भविष्यवाणी से लेकर सन 1990 तक तथा द्वितीय भाग ‘श्री कल्कि’ में श्रीमाताजी ने अपनी कल्कि-रूप शक्ति को उजागर किया जो सन 1991 से 2001 तक, श्री कल्कि की शक्ति इस धरा पर सब नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करने आयी हैं तथा सत्ययुग के लिए सभी सकारात्मकता को बचाने आयी हैं। इसका तृतीय भाग ‘The Last Judgement’ ‘(अंतिम न्याय)’ सन 2002 से तेईस(23) फरवरी 2011 तक घटी सभी घटनाओं को जाहिर करता हैं । फरवरी तेईस (23) सन 2011, जब श्री माताजी ने अपना मिशन इस धरा पर पूर्ण कर अपने विराट स्वरुप में लीन हो गईं । ये सब अंक ‘The Life Eternal Trust’ (LET) के प्रारम्भिक सदस्यों की सहायता से ही पूर्ण हुए, जिनमें सर सी. पी. श्रीवास्तव, राउल बा, संजय माने, संदीप गड़करे, माइकल फॉरगेटी,एडुआर्डो और सभी भाई बहिन जिन्होंने सहयोग के बीजों को सभी देशों की पावन भूमि में फैलाकर पालन पोषण किया।

फिर भी इस कथानक को एक बहुत ही छोटी-झलक के रूप में लिया जाना चाहिए – हमारी प्यारी माताजी के अनंत-करुणामय विस्तार के रूप में। जहाँ यदि मुझे उनके पवित्र साम्राज्य का वर्णन करना, मेरे इस अकिंचन से विराट का वर्णन करना, मेरी सीमित क्षमता से परे होता, शायद एक जन्म और लेना पड़ता। मैं नम्रतापूर्वक मेरे इस सीमित ज्ञान द्वारा यह वर्णन करने के लिए उनसे क्षमा याचना करता हूँ।

पर एक बात जरूर है जिसे मैं सत्य-अनुभव से कहूँगा कि उनके द्वार से कोई खाली-हाथ नहीं लौटा और जिन्होंने उन्हें अपने ह्रदय में ससम्मान स्थान दिया,उन्हें श्री माताजी ने कभी नहीं त्यागा।

योगी महाजन 

अन्तः परिचय

इस सुंदर विश्व को बनाने के बाद परमात्मा ने इसे खाली नहीं छोड़ा। इसे प्रकृति माँ आदिशक्ति की कृपा से परमात्मा ने बचाए रखा और पोषित किया। जैसे ही आदिशक्ति ने आध्यात्मिक उन्नति के पथ को ज्ञान से प्रकाशित किया, परमात्मा आदिशक्ति के इस प्रसन्नतादायक नाटक की कृति के, पालन पोषण और परिवर्तन के प्रति साक्षी बने रहे। परमात्मा की कृति (विश्व) के पालन पोषण के लिए उन्होंने धर्म की स्थापना की। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा जब भी धर्म की ग्लानि हुई, धर्म-स्थापना हेतु और अधर्मियों के विनाश के लिए उन्होंने अवतार लिए। इसी प्रकार, आधुनिक समय में श्री आदिशक्ति ने अपनी कृति की रक्षा के लिए अवतार लिया। 

श्री आदिशक्ति विश्व-जननी इस विश्व में अनेक बार दुर्गा, भवानी, जगदम्बा और अथेना के रूप में अवतरित हुईं। सबसे पहले वे श्री विष्णुजी की पत्नी/सहचारिणी के रूप में श्री लक्ष्मीजी के रूप में अवतरित हुईं। बाद में श्री राम की पत्नी श्री सीताजी तथा बाद में श्री कृष्ण की शक्ति श्री राधा जी के रूप में अवतरित हुईं।

हालाँकि, मनुष्य के सीमित मस्तिष्क के लिए असीमित ईश्वरीय अवतरण को बुद्धि से समझना सम्भव नहीं है किन्तु जब एक साधक की भक्ति अनंत (असीम) हो जाती है, असीम (ईश्वरत्व) इसके द्वारा प्रकटित होता है, जैसे श्रीकृष्णजी ने विराट स्वरुप धारण करके श्री अर्जुन को स्वरुप-दर्शन (बोध)प्रदान किया। 

आज, कलियुग में हम अर्जुन की तरह भाग्यशाली तो नहीं हो सकते कि विराट-स्वरुप का दर्शन कर सकें, किन्तु श्री आदिशक्ति माताजी निर्मला देवी के अवतरण से हमें अपने सहस्रार पर विराट के आनंद का अनुभव करना संभव हो सका है। उनके अवतरण से मानवीय चेतना में ब्रह्मांडीय चेतना का आभास होना, एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि श्री माताजी के निर्देश में मानवीय चेतना का विकास सामूहिक चेतना की परिधि में होना शुरू हुआ, जो कि ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति है।

इसके अलावा, आधुनिक समय में माँ की दयालुता से, श्री कल्कि अवतरण सामूहिक -स्वरुप में प्रगटित हुआ है, जो परमात्मा से आशीर्वादित सभी आत्म-साक्षात्कारी आत्माओं का ही स्वरुप है।

अध्याय-1

“जब मेरा जन्म इस धरा पर हुआ, चारों ओर अज्ञानान्धकार था। मैंने विचार किया, लोगों से कैसे बात की जाये, कैसे उन्हें आत्म-साक्षात्कार दिया जाय। मैंने अपने अंतस में अनुभव किया कि उन्हें सामूहिक-जाग्रति दी जाय।”

उपरोक्त कथन श्री माताजी निर्मला देवी का है। वे इस धरा पर आदिशक्ति के अवतरण स्वरूप आईं। सृष्टि के आरम्भ से, सृजन के बाद से एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना थी। उनका जन्म लेना कलियुग कि समाप्ति और कृतयुग (चैतन्यमय युग) की साहसिक यात्रा का संकेत था। परम-चैतन्य दसवें अवतरण के प्रगटीकरण के पथ प्रशस्त करने को चैतन्य में संलग्न था। परम-चैतन्य परम पूजनीय श्री माताजी के आत्म-साक्षात्कार मिशन की सुरक्षा को नुकसान पहुँचाने वाले सभी कारकों को मिटाने के लिए शक्ति-संपन्न हो सुसज्जित था। उनका मिशन परमात्मा की प्रेम-शक्ति को विश्व में प्रसारित करना था और इस तरह से ‘सत्य-युग’ नामक स्वर्ण युग का मार्ग-दर्शक बना। 

यह संसार अभी विश्व-युद्ध (प्रथम) की भयानक विभीषिका से लड़खड़ाता हुआ-सा था और द्वितीय विश्व युद्ध के धूसरित बादल क्षितिज में भयानक दिखाई पड़ रहे थे। भारत-माता ब्रितानी-शासन के अत्याचार से उत्पीड़ित थी। किन्तु, ठीक दिन के मध्य बारह बजे बसंत-ऋतु में 21 मार्च 1923 को परमात्मा का हस्तक्षेप हुआ और आकाश में उन बादलों के बीच आशा की रौप्य-मयी किरण चमकती हुई दिखाई दी, यह नए युग की आशा का सुप्रभात था, माँ श्री आदिशक्ति का अवतरण एक नन्हीं सी बालिका (पुत्री) रूप में श्री प्रसादराव साल्वे ओर श्रीमती कॉर्नीलिया दम्पत्ति के यहाँ हुआ। उस मुस्कराती हुई निष्कलंका बच्ची की ओर आदरयुक्त (भय-मिश्रित) यकायक दादी माँ ख़ुशी के मारे चिल्लायी, “ये तो निष्कलंक है, बेदाग है।” निष्कलंक शब्द पुल्लिंग होने से, बच्ची का नाम ‘निर्मला’ अर्थात स्वच्छ (त्रुटि- रहित) रखा गया। 

ईस्टर सोमवार को इस अद्भुत बालिका का बपतिस्मा हर्षोल्लास-पूर्वक किया गया। 

महाराष्ट्र के महान संत श्री गगनगढ़ महाराज, जिन्हें पंच-तत्वों पर स्वामित्व था, जो उस समय अपने आश्रम गगन-बोआरा (कोल्हापुर के पास) में ध्यानस्थ थे, उन्होंने अचानक आकाश से धरती पर अवतरित होते हुए सम्पूर्ण श्री चक्र को देखा। उनकी दृष्टि में यह श्री आदिशक्ति का अवतरण था। उन्होंने अपने सिंह पर आरूढ़ हो श्री चक्र का अनुसरण किया, श्री आदिशक्ति का आशीष पाने की इच्छा से। श्री चक्र छिंदवाड़ा स्थित साल्वे-निवास के बाहर रुका। श्री आदिशक्ति माताजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया, परन्तु अपना परिचय किसी को भी नहीं देने के लिए कहा। जब समय आएगा वे स्वयं उनके आश्रम पधारेंगी और उन्हें अपने (अवतार -कार्य से) अवगत करायेंगी। 

नन्ही निर्मला अपनी दैवीय-शक्ति के बारे में किसी को भी नहीं बताना चाहती थीं। उन्होंने अपनी सब शक्तियाँ अपने में ही अंतर्निहित रखीं। सहजयोग का ज्ञान उन्हें जन्म से ही था, इस बारे में उन्हें किसी ने नहीं बताया। उन्होंने कोई पुस्तकें नहीं पढ़ीं, सारा आध्यात्मिक ज्ञान उनके अंदर ही निहित था। 

माँ कहती हैं- “जब मैं नन्हीं बालिका थी, पूरा संसार सत्य की खोज से अनभिज्ञ था, चाहे वे लोग हिन्दू, मुस्लिम या ईसाई हों, वे सब के सब तथाकथित धर्मों और कर्मकांडों में खोए हुए थे। सभी साधक गलत गुरुओं (गलत लोगों) को पहुँचे और गलत दिशाओं में चले गए वे वास्तव में सत्य के साधक थे,जो हृदयपूर्वक सत्य को खोज रहे थे। वे सब लक्ष्य (सत्य) से परे ऐसे भयंकर -क्षेत्र में धकेल दिए गए, जहाँ वे अपना विवेक खो बैठे। उन्हें पता नहीं चला,उनका लक्ष्य क्या था और क्या पाना चाहिए था?

यह एक अद्वितीय बोध था, जिसके साथ वो जन्मीं थीं। इसे प्रकट करना इतना आसान नहीं था। अपने मिशन (उद्देश्य) की पूर्ति हेतु उन्हें इसका तरीका ढूँढना था। ऐसा करने के लिए उन्हें मानव-स्वभाव को समझना जरुरी था। इसीलिए उन्होंने पूर्णरूपेण मनुष्य के रूप में जन्म लिया, इस कारण मनुष्य की तरह जीवन के अनुभव लेने और मनुष्य की तरह ही प्रतिक्रिया करने को चुना। वे मानव-जीवन के सभी जीवन-वृत्तों बचपन, जवानी, विवाह, मातृत्व, और स्नेहपूर्ण नानी का अनुभव लेना चाहतीं थीं। अपना पूरा जीवन साधारण मानव की भाँति शॉपिंग पर जाना, सुंदर घर बनाना, मनोरंजन, फ़िल्में देखना और भी अनेक साहस-पूर्ण कार्यों की शुरुआत की। 

“मैं एक बहुत ही साधारण मानव-जीवन जीने की इच्छुक थी। किसी साधु सन्यासी हिमालयवासी या किसी और तपस्वी की तरह मैं नहीं दिखना चाहती थी, एक सामान्य मनुष्य की तरह रहना चाहती थी।”

निर्मला का बचपन छिंदवाड़ा में मजे में बीता। उनके जन्म के बाद साल्वे परिवार में सम्पन्नता और खूब दौलत आयी। वे परिवार में सबकी चहेती थीं। जब निर्मला चार वर्ष की थीं, उनका परिवार छिंदवाड़ा से नागपुर चला गया, जहाँ उनके पिताजी की वकालत ने खूब उन्नति की। उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था। उनके पिताजी श्री साल्वे साहब जो कि भारतीय ईसाई थे, वे महात्मा -गाँधी के साथ हो लिए, इसके परिणाम-स्वरूप ईसाई-समाज ने उनसे नाराज होकर उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया, किन्तु वे निराश नहीं हुए और देश की स्वतंत्रता के लिए सबकुछ दाँव पर लगा दिया और अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई ‘राव-साहब’ की पदवी को छोड़ दिया। विदेशी कपड़ों सूट आदि की होली जलाते हुए, स्वदेशी वस्त्रों (खादी) को अपनाया। अंग्रेज-सरकार ने उन्हें कई बार जेल-यातनाएँ दीं। राजसी महलनुमा घरों (ठाट-बाट) को छोड़ ,साल्वे परिवार छोटे घरों (साधारण घरों) में रहने लगा। परिवार के सदस्यों के पास केवल दो जोड़ी कपड़े होते तथा सोने के लिए जमीन पर पतली चटाइयाँ, बिना तकियों के- यही उनकी जीवनचर्या थी। श्री माताजी के पास केवल एक कोट था- लाहौर की कड़कड़ाती ठंढ के मुकाबले, अपनी पढ़ाई पूरी करते हुए। श्री माताजी ने यह सब इच्छापूर्वक, बिना झुँझलाहट के किया। श्री माताजी बहुत खुश होतीं थीं, कि ये सब त्याग देशहित में हुआ, वस्तुतः यह सब करने का उन्हें बहुत गर्व था। 

न ही उनके पिताजी ने महसूस किया कि वे देश के लिए कोई बलिदान (त्याग) कर रहे हैं। उन्होंने सोचा- मातृभूमि की सेवा का अवसर एक महान सौभाग्य है। वे ऐसे विरले व्यक्तित्व थे, जो औदार्य के मूल्यों से संयुक्त थे, मूल्यों को उन्होंने कभी नहीं त्यागा। पेशे से एक वकील होते हुए, वे ग्यारह भाषाओं के विद्वान थे। शब्द -कोष उन्हें मुखाग्र था। उन्होंने ‘कुरआन शरीफ’ का अरबी भाषा से हिंदी में अनुवाद किया। कला-विज्ञ होते हुए, वे क्रिकेट और तैराकी के शौक़ीन थे। रोज तीन मील तैरते थे। 

जब श्री माताजी सात वर्ष की थीं, उस समय क्रिश्चियन-मिशनरी स्कूल ने उनके पिताजी के अंग्रेज-विरोधी आंदोलन की वजह से उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया था। उनके पिताजी उस समय जेल में थे। महात्मा गाँधी ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। नन्हीं निर्मला अपने दूसरे साथियों के साथ आश्रम के कार्यों में संलग्न रहती थीं।

गांधीजी ने उन्हें पहचाना और वे उन्हें बहुत चाहते थे, वे प्रायः उन्हें ‘नेपाली’ कहकर बुलाया करते थे, उनके नाक-नक्श भारतीय और मंगोलियन दोनों से मिलते-जुलते थे। श्री माताजी आश्रम के क्रिया-कलापों में मजे से भाग लेतीं, उनकी अबोधिता से गाँधीजी को सुकून मिलता तथा उनसे प्रसारित होती चैतन्य -लहरियाँ गांधीजी को पोषित करतीं। उन्होंने गाँधी जी को ईश्वरीय-चेतना पर आधारित भजनों की पुस्तक ‘भजनावली’ लिखने को प्रेरित किया। भजनों में उन्होंने ‘स्वर्गीय दृष्टि’ (ईश्वरीय कल्पना) को प्रकट किया, “तुम्हें सबका भला करना है, यह कितनी सुंदर जवाबदारी है।” उनके दृष्टिकोण में मानव-जीवन का उद्देश्य परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश करना है, आत्मा बनना है, परमात्मा की उदारता का कृपा-पात्र होना है और शांति, समन्वय और प्रेम प्राप्त करना है। 

श्री माताजी ने उन्हें अपने मिशन (अवतार कार्य) के बारे में बताया। उन्होंने सलाह दी, “अभी समय नहीं है। यह समय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से संघर्ष करने का है। हमें देश को साम्राज्य-वादियों के चंगुल से मुक्त कराना है।”

सं 1942 में उन्होंने विद्यार्थियों के स्वातंत्र्य आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके शब्दों में, “मैंने हिटलर (जर्मन तानाशाह) को ऊपर उठते हुए देखा, हमारा देश भी अंग्रेजी-दासता में था। तो प्रथम तो हमें देश को इस गुलामी से मुक्त कराना था। यह बहुत ही जरूरी था और यही वजह थी कि मैंने स्वातंत्र्य आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया, यह देश की स्वतंत्रता का प्रश्न था, मेरे माता-पिता का भी यही लक्ष्य था।”

उनका हृदय भावनाओं की पीड़ा से व्याकुल हो उठा, जैसे ही उन्होंने ब्रितानी-साम्राज्य की क्रूरता को असहाय हो देखा, उनका जी शहीदों के लिए द्रवित हो उठा और व्याकुल-हृदय से यह व्यथा सरल गीतों में उमड़ पड़ी :-

माँ तेरी जय हो,

(तेरा ही) तेरी ही विजय हो।

तेरे गीत से आज, जग ये जीवित हो,

माँ! तेरी जय हो।…..

यह पूरा विश्व तुम्हारे नाम से ही गूंज रहा है।

तेरे गांव के खेत भी गा रहे हैं,

तेरे आज नगरों में जय- जय की धुन है।

तुम्हें देख के जगी ये दीन-दुनियां

और वो गा रही है कि माँ तेरी जय हो।…….

जब आँखों में आँसू, जुबान पे थे छाले,

ये दिल गा रहा था कि माँ तेरी जय हो।

चिताएँ हमारी गगन से भिड़ी थीं,

वहां लिख रहीं थीं कि माँ तेरी जय हो।

माँ तेरी जय हो, तेरी ही विजय हो ,

तेरी ही विजय हो! ….

अनुभवी स्वातंत्र्य सेनानी विनोबा भावे ने उन्हें स्वातंत्र्य आंदोलन में भाग लेने से उनका चित्त हटाने की कोशिश की, किन्तु उनके पिताजी ने ‘विनोबा जी की राय’ पर ध्यान न देने की हिदायत दी। बहुत से युवाओं ने स्वातंत्र्य-आंदोलन में भाग लेने के लिए निर्मला के साथ अपनी पढ़ाई छोड़ दी। जीवन के हर क्षेत्र से भारत-वासियों ने दिन-रात कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। यह इतना आसान नहीं था, यह एक बहुत ही मुश्किल और लम्बा चलने वाला आंदोलन था। हजारों देश -भक्तों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। निर्मला को कई बार जेल जाना पड़ा, उन्हें बर्फ की शिलाओं पर लिटाया गया, नृशंस यातनाएँ दी गईं किन्तु ये सब कृत्य उनके दुर्जेय आत्म-निश्चय को नहीं तोड़ सके। उन्होंने अपने जीवन की परवाह नहीं की और मातृभूमि के लिए स्वाभिमान -पूर्वक त्याग किये। 

जैसे ही निर्मला जेल से बाहर आयीं, उन्होंने डायरेक्टर ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शंस DPI (शिक्षा विभाग) के बेटे को चूड़ियां भेंट कीं, जिसने उनके स्वातंत्र्य-मोर्चे का विरोध किया था। उनके कॉलेज के अधिकारी ने उन्हें कॉलेज से बहिष्कृत कर दिया, फिर भी वहाँ के प्रधानाचार्य ने, जो कि साल्वे साहब का बड़ा सम्मान करते थे, उन्हें सलाह दी कि निर्मला को स्वयं ही अपने कॉलेज से अपना नाम वापस ले लेना चाहिए। यद्यपि इससे उनकी विद्यार्थी-प्रगति(career) संकट में पड़ गयी, किन्तु वे झुकीं नहीं। जब ये खबर उनके पिता को जेल में मिली, तो उन्होंने एक बधाई-पत्र उनके कोट की जेब में छिपाकर निर्मला को (घर पर) भेजा।

अब निर्मला के लिए महाराष्ट्र से बाहर ही पढ़ाई के लिए एडमिशन लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने लुधियाना के मेडिकल कॉलेज (चिकित्सा-महाविद्यालय) में दाखिला लिया, क्योंकि वे डॉक्टर्स से बात करना चाहती थीं। श्री माताजी के शब्दों में, “मेडिकल साइंस में व्याप्त अंधता ने मुझे मेडिकल-साइंस की ओर आकृष्ट किया। मैंने सोचा- मुझे डॉक्टर्स से बात करना होगी, इसके लिए मुझे डॉक्टरी-भाषा, मेडिकल-साइंस में प्रयुक्त होनेवाले पारिभाषिक शब्द, मेडिकल कायदे तथा उनकी समस्याएं जानना थीं।”

अपनी मेडिकल पढ़ाई समाप्त करने के पहले ही उनकी शादी निश्चित हो गई। सात (7) अप्रैल सन 1947 को उनका विवाह श्री चन्द्रिका प्रसाद श्रीवास्तव (सर सी. पी.) से हुआ। सर सी. पी. का चयन भारतीय विदेश-सेवा में हो गया था। श्री माताजी ने उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) हेतु अनुरोध किया, साथ ही सतर्क विश्वास दिलाया, “अभी-अभी हमें स्वतन्त्रता मिली है। यह समय हमारे देश के निर्माण के लिए है।”

यद्यपि भारतीय विदेश सेवा में भविष्य बेहतर था, उन्होंने स्वीकार किया, “मैं कोशिश करूँगा कि मेरा चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा IAS में हो जाय।”

और संयोग से उनका चयन (IAS) में हो गया। सी. पी. सर एक कुलीन परिवार के इकलौते पुत्र थे, जिनके पास कुछ सौ एकड़ जमीन उत्तर प्रदेश में थीं,किन्तु लैंड -सीलिंग एक्ट के बाद उनकी और उनके चचेरे-भाइयों की काफी जमीन इस एक्ट के तहत हाथ से निकल गई, इसलिए काफी निर्धनता आ गई, किन्तु उनकी शादी के बाद धन और सम्पन्नता श्रीवास्तव परिवार में प्रचुरता में आई। 

श्री माताजी जल्दी ही सी. पी. सर के बड़े परिवार की चहेती बन गईं । उन्होंने सहज ही हर तरह के आराम, परिवार-जनों को देने में कोई कमी नहीं छोड़ी। थोड़े समय में ही सी. पी. सर का घर श्रीवास्तव परिवार के बीस चचेरे भाइयों (बच्चों) के लिए शरण-स्थली बन गया। श्री माताजी ने उनकी शिक्षा में सहयोग दिया, उनके रोजगार का प्रबंध किया और यहाँ तक कि उनके लिए उचित विवाह/रिश्ते तय किए। उन सबमें श्री माताजी के वात्सल्य को पाने की होड़ -सी लगी रहती। एक दिन, जब सी. पी. सर अपने ऑफिस से घर लौटे उन्होंने उन सबको श्री माताजी के इर्द-गिर्द मँडराते देख पूछा, “तुम्हारी क्या समस्याएं हैं? तुम सब हमेशा क्यों अपनी चाची से लिपटे (चिपके) रहते हो?”

यह श्री माताजी का असली संबंध था। एक भतीजी ने बताया कि कैसे वो अपनी माँ से ज्यादा श्री माताजी के सन्निकट थी। माँ के प्यार की गर्म-जोशी ने सभी को पोषित रखा, उनकी छोटी से छोटी जरुरतों का ख्याल रखा और उनका पालन-पोषण किया। श्री माताजी के सभी संबंधी चाहे नजदीकी हों या दूर के, बड़े या छोटे हों, किसी को भी उन्होंने बिना भोजन और अच्छी भेंट (उपहार) के नहीं जाने दिया। 

श्री माताजी ने स्वयं के आराम के बारे में कभी नहीं ध्यान दिया, किन्तु अपना चित्त हमेशा दूसरों के बारे में रखा। श्रीवास्तव साहब ने कहा, “तुम हमेशा दूसरों के सुख में अपना सुख देखती हो, तुम एक सच्ची साम्यवादी हो, तुम बहुत ही सामूहिक हो।”

श्री माताजी मुस्कराईं, “आपको यह समझना है कि हम सब सामूहिक हैं, शायद यह हमें आभास नहीं होता, किन्तु कहीं भी हमारा अस्तित्व अकेलेपन में नहीं है। एक बार यदि तुम यह जान लो, तो आश्चर्य होगा की तुम सब परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हो।”

अध्याय-2

चौदह (14) अगस्त सन 1947 को ब्रितानी (British) अत्याचारी-बंधन अंततः उठ चुका था। श्री माताजी के मुख -मंडल पर ख़ुशी के आँसू बह रहे थे,वह क्षण उनके जीवन में अहम था। उनके शब्दों में, “मैंने ब्रिटिश साम्राज्य का ध्वज (यूनियन जैक) नीचे उतरते हुए और साथ ही तिरंगे ध्वज को ऊपर जाते देखा। वह क्षण मेरे लिए अवर्णनीय था। उस क्षण का अनुभव बयाँ नहीं कर सकती, जिस भावना ने मुझे ओत-प्रोत किया हुआ था। ऐसा एहसास,जहाँ सत्य की असत्य पर विजय हुई! न्याय का प्रकाश अन्याय के अँधेरे को दूर कर चुका था। अभी भी वह अहसास मेरी स्मृति-पटल पर इतना-सारा है, मैं तिरंगा पूरी तरह देख भी नहीं सकती! अब तिरंगे को देख मुझे पूरी स्मृति इतिहास की हो उठी है कि कितने देश-वासियों ने अपना बलिदान दिया! कितने लोग शहीद हो गए थे! इस तिरंगे के खातिर कितनों ने लड़ाई लड़ी। यह तिरंगा -ध्वज इसकी याद दिलाता है। “

किन्तु,ब्रिटिश वसीयत अपने पीछे कुछ छोड़ गयी।

“जब हमें स्वतंत्रता मिली, किसी तरह कुछ समय के लिए हम खो गए थे। लोगों ने आधुनिकता को अपनाना शुरू कर दिया, जो कि गलत थीं, जिसे मनोरंजक कहा गया! मुझे उनकी पार्टियाँ काफी मन बहलाने वाली लगतीं, जिस तरह से विभिन्न चीजों के बारे में वे बातें करते और मैं केवल चुप रहती। अतः वे लोग सोचते मैं अंग्रेजी नहीं समझती या यह सोचते कि मैं इतनी शाँत हूँ, और किसी काम की नहीं हूँ।”

श्री सी. पी. सर श्री माताजी का सम्मान करते थे और उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभाओं को सराहते। कोई भी समस्या हो, वे कभी शिकायत नहीं करतीं, हर परिस्थिति का सकारात्मक हल इनकी कर्म-कुशलता में था। उनके कई स्थानान्तर बार -बार होते रहे और बीस से ज्यादा आवास बदलने पड़े। यदि स्थानान्तर के दौरान उनका फर्नीचर नहीं पहुँच पाया, वे जमीन पर सोने का आनंद लेतीं, लकड़ी की पेटी (wooden crates) को टेबल कुर्सी की तरह ठीक करके, छोटी-सी रसोई (किचन) में सुस्वादु भोजन बनातीं। वे साक्षात् श्री गृह -लक्ष्मी का मानवीय-स्वरुप थीं, अपने प्रिय पति श्री सी. पी. सर के पसंद का उन्हें ख्याल था। श्री सी. पी. सर को उनका बनाया भोजन बहुत पसंद था और वे अक्सर अपने कार्यालयीन सांध्य भोजन (official Dinner) को छोड़, घर के भोजन का आनंद लेते। यदि श्री माताजी काम में व्यस्त होतीं, वे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते, जब तक उनकी पत्नी साथ न आ पाती, भोजन नहीं करते। 

उन्हें आवंटित किए गए सरकारी विशालकाय बंगलों में लम्बे चौड़े लॉन (हरित भूखंड) होते थे। श्री माताजी को बागवानी का बड़ा शौक था, उन्होंने सरकारी आवास के पीछे वाले हिस्से (Backyards) को सब्जी-उद्यान में परिवर्तित कर दिया तथा बोए गए (सब्जी/फल) के बीजों को चैतन्यित कर उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ायी। सब्जियों के असाधारण आकार के कारण उन्हें कई इनाम भी मिले। इस घरेलू बगीचे की अच्छी उपज (सब्जियों) को पड़ोसियों और जरुरत -मंदों को बाँट दिया जाता। इस प्रकार उनके पति (एक सरकारी कर्मचारी) की सीमित आय के होते हुए भी,उन्होंने अपनी रसोई को आत्म-निर्भर बनाया। यही नहीं, महीने के आखिर में हमेशा, अतिरिक्त बचत दिखाई देती।

श्री माताजी अपने सभी गृह-कार्य मजे से करतीं, किन्तु जैसे ही उनके विभागीय आवभगत (आमोद-प्रमोद) का दबाव बढ़ा- उनके पति की पदोन्नति के साथ, उन्होंने घरेलू मदद का आश्रय लिया। श्री सी. पी. सर के विभागीय लोगों का घर के सदस्यों की तरह ख्याल रखा तथा उन लोगों ने भी उन्हें श्रीमती श्रीवास्तव से भी ज्यादा माँ की तरह प्यार किया। श्री माताजी की व्यक्तिगत आवश्यकताएँ और खर्च न के बराबर थे। उनका पहनावा साधारण था, तो भी उसमें सौंदर्य और पावित्र्यपूर्ण राजकीय वैभव होता था। श्री माताजी की दो अद्भुत बेटियां कल्पना और साधना थीं। दोनों प्रेम और विवेक की मूर्ति थीं,वे दोनों अपने माता-पिता के लिए आनंद और आश्रय का स्रोत थीं। श्री माँ के शब्दों में, “दोनों बेटियों ने मुझे वास्तव में बहुत साथ दिया और मैंने भी उन्हें सब प्रकार से साथ दिया,जिसकी उन्हें जरुरत रही।” 

श्री सी. पी. सर के सभी सहायक माँ की प्रशंसा करते थे। श्री माताजी पर उन सभी की पत्नियों की बड़ी प्रीति थी। श्री सी. पी. सर स्वयं बहुत मेहनती और ईमानदार होने के साथ ही, अपने अधीनस्थ लापरवाह अधिकारियों की लगाम खींचते, तब श्री माताजी उन्हें आरामदायक चाय व सुस्वादु नाश्ते पर सांत्वना प्रदान करतीं थीं।

यदि कोई श्री सी. पी. सर के ऑफिस में बीमार होता, तो डॉक्टरी इलाज के बजाय श्री माताजी की आरोग्य-प्रदायिनी स्पर्शात्मकता का सहारा ढूंढता। मुंबई के एक अपार्टमेंट के छह माले नीचे रहने वाली पड़ोसन श्रीमती बत्रा ने संस्मरण सुनाया, “जब भी मेरे बच्चे बीमार पड़ते, मैं उन्हें फ़ोन करती और वे तुरंत ही आ पहुँचतीं। हमारी बिल्डिंग में लिफ्ट (lift) स्थायी-रूप से बंद रहती, किन्तु वे इतनी शक्ति से परिपूर्ण थीं कि बच्चों को ठीक करने के लिए छह माले दौड़ आतीं। उनकी स्पर्श-चिकित्सा कमाल की, चमत्कारपूर्ण थी। मुझे उनसे ज्यादा अद्भुत और करुणामय कभी कोई नहीं मिला। बहुत लोग उनकी आरोग्य-प्रदायिनी शक्तियों से परिचित थे, किन्तु उन्होंने इस बारे में कभी चर्चा नहीं की, उन्होंने अभी सहज योग प्रारम्भ भी नहीं किया था।”

श्री माताजी सहजयोग आरम्भ करना चाहती थीं और अपने पिताजी जिन्हें स्नेहासक्त हो वे अपना गुरु उल्लेखित करतीं, उनमें विश्वास करती थीं, “मेरी इच्छा है कि इस धरा पर बहुत से लोग सितारों की भाँति चमकें और परमात्मा का प्रकाश (सत्य) संसार में फैलाएँ।”

उनके पिताजी एक आत्म-साक्षात्कारी थे और श्री माताजी के अवतरण को उन्होंने मान्यता दी। उन्होंने उन्हें सलाह दी, “मान लो आप दसवें माले पर खड़े हैं और अन्य सभी लोग भूतल पर हैं, यदि तुम उन्हें कम से कम दो माले ऊपर चढ़ने में मदद करो, ताकि वे वहाँ महसूस कर सकें कि इसके ऊपर भी कुछ चीज है, अन्यथा केवल बात-चीत से इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।”

“यह संभव है, तुम सामूहिक-जागृति की प्रणाली का आविष्कार करो। किन्तु, जब तक तुम आत्म-साक्षात्कार की सामूहिक प्रणाली को नहीं पता कर लेतीं, किसी यथार्थता के बारे में बात मत करो। ज्यादातर अवतरणों ने सोचा, जिस तरीके से उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिला, वही तरीका दूसरों को आत्म-साक्षात्कार देने में अपनाया जाये, किन्तु यह ठीक नहीं था। उदाहरण के लिए बुद्ध ने आत्म-साक्षात्कार आत्मा-ताड़ना से प्राप्त किया, इसलिए उन्होंने इसी रास्ते का प्रचार किया। तुम्हें वही गलती नहीं करनी चाहिए। सर्वप्रथम मानव का अध्ययन करो, उनके द्वारा की गई गलतियों के क्रमचय-संचय की जानकारी लो और समझो क्यों, वे इस प्रकार का व्यव्हार करते है। पूर्ववर्ती अवतरण मनुष्य के मस्तिष्क की जटिलताओं के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। वे केवल सत्य के उपदेश की सीख देते थे, किन्तु उन उपदेशों को अमल में लाने-वाले अवरोधों के बारे में अनभिज्ञ थे, इसलिए उनके सन्देश का तत्व (सार) खो जाता था। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ भी वही घटित हो। इसलिए आत्म-साक्षात्कार की सामूहिक-जाग्रति के तरीके को इज़ाद किए बिना,एक शब्द भी न कहो, भाषण भी मत दो, कुछ मत लिखो अथवा यह दूसरी कोई और कुरआन या बाइबल बन जायेगी और एक वाद-विवाद (लड़ाई) की वस्तु बन जायेगी।”

श्री माताजी कहती हैं, “इसलिए पहला काम जो मैंने किया, सैंतालीस वर्ष मानव-मात्र का अध्ययन करने में लगाए।”

सभी धर्मों की हालात पर श्री माताजी को डर था, “प्रारम्भ में सभी धर्म लोगों को संतुलन बिंदु तक लाए। तब कुछ लोगों ने इस हेतु जिम्मेदारी ली और लोगों पर नैतिकता थोपने का प्रयास किया, किन्तु वे असफल रहे, क्योंकि बल-प्रयोग से नैतिकता को स्थापित नहीं किया जा सकता। तथा-कथित धर्म सतही स्तर पर थे, वे केवल परमात्मा की बातें करते, किन्तु परमात्मा से कोई संबंध नहीं था, बिना योग के लोगों ने विभिन्न-धर्म की नाम-पट्टिका तले अनुसरण शुरू किया और धर्म की आत्मा (सत्व) को पीछे छोड़ दिया। लोगों को समझ नहीं आया कि कैसे उनके निश्चित विचारों से मुक्त हुआ जाय और भगवान के नाम पर लड़ने लगे। इस तरह से धर्म अपने उद्देश्य से पथ-भ्रष्ट होकर बाहुबल या धनबल की परिस्थिति के अनुकूल हो गए। वे छोटे-छोटे पोखरों में परिवर्तित हो गए। अतः आप सबको आवश्यकता महसूस हुई, इस जीवन-सरिता की, जो वास्तव में इन सब पोखरों को भरती (पोषित करती)हुई, उन्हें एक सूत्र में पिरोए।”

श्री माताजी ने अपने पिताजी से कहा, “साधक कैसे अपने सीमित से असीमित (परमात्मा) को प्राप्त कर सकता है? साधक जब अपने उत्थान का प्रयत्न करते, बाएँ या दाएँ अनुकम्पी तंत्रिका-तंत्र से उठते, वे या तो प्रतिअहंकार या अहंकार पर समाप्त होते है -क्रमशः। यही वजह है, लोगों को पहले आत्म-साक्षात्कार देने के तरीके का आविष्कार आवश्यक है।”

अध्याय-3

सन 1964 में भारत के प्रधान-मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने सी. पी. सर को ज्वाइंट-सेक्रेटरी (संयुक्त-सचिव) के रूप में आमंत्रित किया। श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय इतिहास के निर्णायक-क्षण में प्रधानमंत्री का पद-भार सँभाला। श्री जवाहर लाल नेहरू, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री अचानक दिवंगत हो गए थे। उनकी मृत्यु से भारत के नेतृत्व में एक शून्यता आ गई, क्योंकि उनकी समकक्षता का कोई भी कद्दावर व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं था। विनीत शास्त्रीजी के ऊपर वह जवाबदारी आ पड़ी। पहिले ही दिन से उन पर दानवीय समस्याओं का घेरा आ पड़ा। मामले और भी बदतर हुए, जब पाकिस्तान ने देश के द्वार पर आघात करना शुरू कर दिया।

“निस्संदेह, मैं कुछ नहीं कर सकती थी, क्योंकि मेरे पति शासकीय-सेवा में थे, किन्तु उनके माध्यम से मैं जान सकी, हम बहुत सी बातों पर कार्य कर सके और यह इतना रुचिकर था, किस तरह मामले उनके द्वारा हल हुए और वे कैसे अपने कार्य में लीन हो गए। उन्होंने कभी छुट्टी नहीं ली। जहाँ तक मैं सोचती हूँ जब तक हम वहाँ रहे- एक भी दिन उन्होंने छुट्टी नहीं ली। यह बहुत आश्चर्यजनक है और शास्त्रीजी ने हमेशा अनुभव किया कि श्री सी. पी. सर अपने पारिवारिक जीवन का त्याग कर रहे हैं और बहुत -कुछ! कभी भी नहीं! मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा। 

मैंने महसूस किया कि भारतीय होने के नाते हमारा कर्तव्य है- इस देश का निर्माणकर इसे अति उत्तम संपन्न राष्ट्र बनाना- हम बना सकते हैं, हम बहुत ही होशियार लोग हैं।”

श्री माताजी ने शास्त्रीजी से अपनी पहली भेंट का स्मरण करते हुए कहा, “मैंने पहली बार उन्हें देखा, मुझे मालूम हो गया कि वे एक उच्च आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। एक ऐसे उच्च अवस्था वाले व्यक्ति को राजनीति में आना मेरे लिए एक बड़ा स्वप्न था।”

श्री शास्त्री जी भी श्री माताजी को पहचान गए। जब श्री माताजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया, उन्होंने उनका सविनय चरण-स्पर्श किया। जब भी वे कार्य की अधिकता से थक जाते, श्री माताजी उन्हें चैतन्य से राहत प्रदान करतीं। वे हमेशा किसी भी महत्वपूर्ण साहसिक कार्य शुरू करने से पहले हमेशा श्री माताजी का आशीर्वाद लेते थे।

वे उनसे पूछते, “हमें क्या करना चाहिए?”

श्री माताजी कहतीं, “पहिली प्राथमिकता है कि मेरे बच्चों को भोजन और पीने को स्वच्छ पानी मिलना चाहिये। दूसरी प्राथमिकता, उन्हें उनका घर (आवास) मिलना चाहिये और तीसरी प्राथमिकता में शिक्षा। किन्तु सबसे पहले उनमें नैतिकता व सदाचार होना चाहिये।”

श्री माताजी ने शास्त्रीजी को सभी असंभव परिस्थितियों में बहुत ही शांतिपूर्ण सामना करने की शक्ति प्रदान की। वे इतने नम्र व्यक्ति थे कि सभी विरोधियों को भी मित्रों में परिवर्तित कर दिया और सभी को संगठित करने में सफल हुए। 

“विभिन्न स्थानों, धर्मों और विचार-धाराओं के बीच सौहार्द्र निर्मित करने में वे सफल हुए। उनकी शैली इतनी सामूहिक थी कि उन्होंने देश में सुधर लाने हेतु कठिन परिश्रम किया। जो भी वे कर सकते थे, उन्होंने प्रयत्न किया। वे प्रेम और देश-भक्ति से परिपूर्ण थे।”

किन्तु, आवश्यकता पड़ने पर वे सिंह की तरह दहाड़े और सफलतापूर्वक पाकिस्तानी आक्रमण को रोका। उसके बाद ताशकंद (रूस) में पाकिस्तान के साथ शांति-समझौते पर हस्ताक्षर किये। उसी शाम दुर्भाग्य से उनका प्राणांत हृदयाघात (heart attack) से हो गया। 

यद्यपि श्री सी. पी. सर स्वयं इतने टूट गए थे, वे शोकातुर परिवार के समर्थन में स्तम्भ की तरह खड़े रहे। श्री माताजी ने शास्त्री-परिवार को सांत्वना दी और कभी-भी श्रीमती शास्त्री का पक्ष (साथ) नहीं छोड़ा। उन्होंने सी. पी. सर को श्री शास्त्री के समर्पण और सत्य-निष्ठ जीवन पर एक पुस्तक लिखने को प्रेरित किया, ताकि यह पुस्तक देशवासियों के लिए एक प्रेरणा-स्रोत बन सके। 

सन 1966 में श्री सी. पी. सर का स्थानांतर शिपिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया S.C.I. Ltd भारतीय जहाज रानी निगम के अध्यक्ष (chairman) पद पर मुंबई हुआ। श्री माताजी ने निगम के जहाजों को नैतिक-आचार शास्त्र-परम्परानुसार सुसज्जित करने में रूचि ली और उन्हें चैतन्य से भर दिया। उन्होंने सी.पी. सर के मातहत अधिकारियों के लिए भोजन बनाया और अपने मातृ-सुलभ वात्सल्य से जहाज-रानी निगम S.C.I. ltd को एक अखंड पारिवारिक ताने-बाने में गढ़ा। वे कहतीं, मेरे पति के साथ सैकड़ों लोग काम करते हैं और उन्होंने मुझे बताया कि तुम्हें मेरे सह-कर्मियों का ख्याल रखना है -सैकड़ों का,सैकड़ों का ही नहीं,बल्कि उनके संबंधियों का भी……..। मैं हर संभव उनके सहयोग का प्रयत्न करती। यह सब इतना संतोषप्रद होता था, जैसे आपने अपना ही कुटुंब बना दिया हो।”

उन वर्षों में श्री सी. पी. सर घाटे में जा रहे शिपिंग कारपोरेशन को मुनाफे कमाने वाली निगम में बदलने के लिए बहुत व्यस्त थे। अतः श्री माताजी को अक्सर अकेले ही रहना होता, किन्तु उन्होंने कभी इस विषय में शिकायत नहीं की, यह कहते हुए कि, “यह आवश्यक नहीं है कि लम्बे समय तक साथ रहा जाय, बल्कि उनके सामीप्य के कुछ आनंदमय-क्षण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।”

श्री सी. पी. सर के शब्दों में, “जब से हम सतत साथ-साथ रहे, निर्मलाजी एक समर्पित गृहिणी रहीं तथा मुश्किलों और विषम (क्रांति-वेला)/परिस्थितियों में हमेशा सुदृढ़ चट्टान की भांति अडिग खड़ी रहीं, जो कि प्रायः हर गृहस्थी में, हरेक जिंदगी में होता है। उनके अनेक सद्गुण हैं, किन्तु मैं कुछेक के बारे में बताना चाहूंगा। सर्वप्रथम तो उनकी वाणी की मुखरता और अबोधिता (भोलापन)। कभी कभी वे दूसरों के चक्करदार (यातनामय) तरीकों को नहीं समझ सकती हैं। उनका हृदय हमेशा गरीबों, जरूरतमंदों और पीड़ितों के लिए असल में कारुण्यमय है। वे भूखे-प्यासे बच्चों के दृश्य को सहन नहीं कर सकती,उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगती, वे दयार्द्रता की चरम-सीमा थी और अपनी निजी वस्तुओं को निष्कपटता से प्रसन्नतापूर्वक दूसरों को दे देती हैं। उन्हें सांसारिक (भौतिक) वस्तुओं का जरा भी मोह नहीं है। उनकी निजी आवश्कताएँ सीमित हैं और स्वयं पर होनेवाले खर्चे भी नगण्य हैं।”

जहाज -रानी निगम के कर्मचारियों ने कहा, “वे हमारी जन्म-दात्री माँ की तरह प्रिय हैं, उनकी वजह से ही हमनें आपस में हमेशा पारिवारिक-संबंध का अनुभव किया है।”

वे हमेशा अपने अनंत धैर्य के साथ दूसरों की समस्याओं को समझने को राजी रहतीं तथा किसी भी उदार कारण के निमित्त स्वयं को तैयार रखतीं। कई कल्याणकारी संगठनों में उनकी सकारात्मक रूचि रहती। अंधे लोगों के स्कूल (blind school) की अध्यक्षा बनने पर उन्होंने महसूस किया कि यद्यपि लोग सामाजिक कार्य करते थे, किन्तु उनके हृदय बंद थे और संकीर्णताओं से पूर्ण थे। इसलिए उनके ह्रदय खोलना बहुत आवश्यक था। इस प्रकार उन्होंने उन लोगों की कुण्डलिनी को प्रज्ज्वलित करना शुरू किया। जैसे ही उनकी कुंडलिनियों का जागरण हुआ, ये संकीर्ण समस्याएँ हल हुईं और ऐसे संगठन दैवीय आशीर्वाद से परिपूर्ण हो गए। 

उनके गौरवपूर्ण-स्थान पर रहते उनका सामाजिक-जीवन सरगर्मियों से भरा था और समाज के एक बड़े धड़े से सामना हुआ। उनके पिताजी की सलाह जो उनके जेहन में थी, उन्होंने मानव के व्यवहार को समझने के लिए इस अवसर का उपयोग किया, मनुष्य के व्यवहार और उसके क्रम-चय और समुच्चय का अध्ययन किया। वे कहतीं, “मैं एक दृष्टा की भाँति (साक्षी) रहती और मनुष्य को समझना शुरू किया, उसकी क्या समस्याएँ हैं, उसमें क्या दोष हैं, वह इस प्रकार क्यों सोचता है और तब मैं एक निर्णय पर पहुँची कि मनुष्य को या तो अति अहंकार है या अति प्रति-अहंकार। इसी वजह से मनुष्य में संतुलन नहीं है। कुण्डलिनी कैसे उठेगी- यह एक बड़ी समस्या थी। 

उनकी पुत्रियाँ कल्पना और साधना की शैक्षणिक शिक्षा पूरी होने पर उनके विवाह सम्पन्न कराए। दोनों बेटियों के सुखपूर्वक ग्राहस्थ्य बसने पर श्री माताजी ने अपने लक्ष्य प्राप्ति के तरीके पर काम करने का विचार किया। 

वे बहुत विचलित थीं,जिस तरह धर्म (मजहब )और झूठे गुरु सत्य के साधकों को ठगा करते थे।

सन 1970 में वे अपने भाई से मिलने जबलपुर गईं। उनके भाई ने उन्हें फिलोसोफी के प्राध्यापक रजनीश नाम के व्यक्ति से परिचित कराया। उसने उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आदि शक्ति नाम से सम्बोधित किया। अभी तक श्री माताजी ने अपना दैवीय परिचय नहीं बताना चाहा। किन्तु, उसने उन्हें अपना काम देखने का आग्रह किया, यह उन्हें यह विश्वास दिलाते हुए कि इस से उसके काम को अनुमोदन प्राप्त हो जायेगा। उसने सी. पी. सर को उन्हें नारगोल (गुजरात) उसके सेमिनार में भेजने हेतु आग्रह किया। सन 1970 चार (4) मई को सी. पी. सर ने श्री माताजी के ठहरने का प्रबंध एक पारसी मित्र के बंगले पर कर दिया और अपने दो भतीजों को उन्हें नारगोल तक उनकी सुरक्षा में भेजा, जो कि मुंबई से 150 KMs भारत के पश्चिमी सागर-तट पर स्थित है। 

श्री माताजी एक पेड़ की छाया में बैठीं और उन्होंने उसे साधकों को कृत्रिम निद्रा से बेहोश करते देखा। श्री माताजी के शब्दों में, “मैं दुविधा में थी कि क्या किया जाय। तब मैंने समझा यदि मैं सहस्रार नहीं खोलती हूँ, तो परमात्मा के सच्चे साधक पता नहीं कहाँ चले जायेंगे, भगवान जाने कहाँ?”

“मैं समझ चुकी थी, मैं भाव-विह्वल थी क्योंकि यही एक वजह थी, यही केवल एक रूकावट थी जो मनुष्यों में है- इसका कारण है कि साधकों के सहस्रार नहीं खुले हैं, इसीलिए वे अंधकार में भटक रहे हैं, यही वजह है कि वे आपस में लड़े जा रहे हैं और सभी तरह कि समस्याओं का कारण भी यही है। किन्तु,यदि उनके सहस्रार खुल जाते है और उन्हें परमात्मा से एकाकारिता (योग) मिल जाती है, तो उनकी सब समस्याएँ हल हो जायेंगी और वे बहुत सुखी लोग होंगे। बिना आत्म-साक्षात्कार दिए, कोई भी अन्तः-परिवर्तन नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति घंटों बातें कर सकता है, कुछ भी नहीं होने वाला, जब तक कि आपका अन्तः-परिवर्तन (Inner Transformation) न हो।”

सन 1970, पांच (5) मई को (मंगलवार) श्रीमाताजी पूरी रात एक चीड़ के वृक्ष के नीचे बैठीं- सागर तट पर, पूरी तरह से स्वयं को ईश्वरत्व में समाये हुए। प्रातः काल (उषा काल में) परमात्मा की कृपा से सत्य और पथ के क्षणिक-प्रकाश ने उन्हें आलोकित किया। यह कुंडलिनी जागरण के ‘स्पर्श-प्रणाली’के रहस्य का प्राकट्य था। 

श्री माँ के शब्दों में, “जैसे ही मेरी इच्छा हुई कि ब्रह्म-रंध्र खुलना चाहिये, मैंने अपने अन्तस् में कुंडलिनी को देखा। कुण्डलिनी एक दूरबीन की तरह (टेलिस्कोपिकली) ‘खट-खट’ आवाज के साथ हर चक्र पर होती हुई उठी। उसमें कई रंग मिश्रित थे। जैसे जब लोहा तपती हुई भट्टी से निकलता है, तो उसकी लौ में से कई रंग विखरते हुए दिखाई देते हैं- आभासित होते दिखाई देते हैं।”

“पूरा वातावरण असाधारण चैतन्य से भर उठा और आकाश में बहुत ज्यादा प्रकाश फ़ैल उठा और पूरी की पूरी यह चीज धरती पर आ गयी जैसे कि कोई मूसलाधार बारिश या पानी के झरने-सी होती हुई, बड़े वेग से प्रवाहित होती हुई, जैसे मुझे इसका आभास ही नहीं था, (वेखबर थी) और बुद्धि से मैं जड़वत हो गई। यह घटना इतनी विशाल और इतनी अविश्वसनीय थी कि मैं आश्चर्य-चकित थी और पूर्णरूपेण इसके सौंदर्य पर शांत थी। मैंने आदि-कुंडलिनी को एक बड़ी तपती-हुई भट्टी की तरह देखा…..और देव-गण आए और अपने-अपने स्वर्णासनों पर बैठ गए। उन्होंने मेरे पूरे सिर को एक गुंबद(Dome) की तरह उठाया और इसे खोल दिया और तब मूसलाधार बारिश (चैतन्य) से मैं सराबोर (पूर्णतया भीग गई) हो गई। मैं यह सब देखती रही और आनंद में खो गई। यह सब ऐसा लग रहा था, जैसे कोई कलाकार अपनी कला-कृति को देख रहा हो। और मैंने लक्ष्य-पूर्णता (कार्य-सम्पन्न) के आनंद को महसूस किया।”

“तब कुंडलिनी उठी और ब्रह्मरंध्र के पार हो गई। मैं समझ गई, अब मैं अपना कार्य शुरू कर सकूँगी, क्योंकि समस्या समाप्त हो गई है। मैं पूर्णतया चिंता-मुक्त हो चुकी थी। अब चिंता की कोई बात नहीं है। मुझे यह कार्य करना है, क्योंकि मैं इस संसार में इसी कार्य हेतु आई हूँ, क्योंकि मुझे सामूहिक-चेतना को जाग्रत करना था।”

पाँच (5) मई, सन 1970 सहज-योग के आरम्भ का दिन था, एक उद्देश्य (लक्ष्य) जिसे प. पू. श्री माताजी को पूरा करना था, जिसे वे आदिशक्ति रूपेण पूरा कर सकीं।

अध्याय-4

गुप्त रहस्य के प्रकट होने पर उन्होंने दया का लक्ष्य और सच्ची सेवा को मानवता के प्रति आरम्भ की। उनके वात्सल्य की गंगा मानव-सेवा हेतु अवतरित हो उठी, बिना किसी शर्त या लाभ की अपेक्षा के- निरपेक्ष। उन्होंने कभी उनके नाम, सम्प्रदाय, जाति, धर्म, वंश, नस्ल, रंग, लिंग, राष्ट्रीयता, धनवान/गरीब,प्रबुद्ध/मंदबुद्धि, साक्षर/निरक्षर कुछ भी नहीं पूछा। पापी अपने पाप पवित्र गंगा में धोने के लिए स्वतंत्र थे, फिर भी गंगा उनके पापों से मैली नहीं हुई। केवल गंगा का जल भरने के लिए अपना घट खाली होना चाहिए था।

गंगा बहकर औरंगाबाद आई, जहाँ एक युवा ने इस गंगा से अपनी गागर भरनी चाही, किन्तु उसके घट में संदेह-रूपी हवा भरी हुई थी। उसने पढ़ा था कि परम् चैतन्य अनुभव और बिना-अनुभव से परे था। श्री माताजी ने जान लिया कि बौद्धिक-स्तर पर उसे परम्-चैतन्य के बारे में समझाने से उसके घट में पानी नहीं भरने वाला, परम् चैतन्य का उसे अनुभव कराना होगा, जब तक कि वह परम चैतन्य की शक्ति से नहीं जुड़ जाता, उनका कार्य सम्भव नहीं होगा। श्री माताजी ने उसकी अनुक्रिया प्रकट करते हुए कहा, “मेरी उत्कंठा (व्यग्रता) से उसे उसके घट को भरने में मदद नहीं मिलने वाली,जब तक कि वह स्वयं उसके लिए उत्सुक न हो।”

अपनी असीम करुणा में उन्होंने उसके घट को अपने वात्सल्य से भरने में मदद करना शुरू की और कहा, “यही सत्य है, कुंडलिनी के बारे में जो भी तुमने पढ़ा है, उसे तुम्हें भूलना होगा और केवल इसे (चैतन्य को) अनुभव करने का प्रयत्न करो। उन्होंने कविता या अलंकार आदि में कुण्डलिनी का वर्णन किया,किसी ने भी कुंडलिनी के विषय में सरलता से नहीं लिखा। शायद उन्होंने समझा कि अभी सही वक्त (परिपक्वता) नहीं आया था। उदाहरण के लिए नाथ-सम्प्रदाय ने अपने परिश्रम से इस ज्ञान को संचित रखा और गुरु-शिष्य परम्परा की पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे आगे बढ़ाया। ज्ञानदेव किसी को भी आत्म-साक्षात्कार नहीं दे सके, यही बात और संतों तक भी रही, जैसे- कबीरदास, तुलसीदास, रमन ऋषि, सूफी और अन्य कई संत। निस्संदेह वे महान संत थे। जो भी काव्य-रचना उन्होंने की लोग उसे गाते रहे, परन्तु यही सब कुछ था, उन्होंने स्वयं को नहीं जाना। यह एक बहुत ही कठिन स्थिति थी, क्योंकि आधुनिक युग में तुम्हारी तरह ही लोगों ने वही स्वीकार किया जो केवल किताबी था।”

उस साधक ने बहस करते हुए कहा, “क्या आप मुझे एक ऐसी किताब दे सकेंगी, जिसके द्वारा मैं स्वयं को जान सकूँ।”

श्री माताजी ने उसके सहस्रार को प्यार से सहलाया, “मैं तुम्हें ऐसी पुस्तक नहीं दे सकती, जिसे तुम बैठ के पढ़ो और कहो कि, “हाँ! मैं स्वयं को जानता हूँ,मैंने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, मैं आत्मा बन गया हूँ।” आत्मा को जानने हेतु/खुद को जानना, कर्मकांड या पुस्तकों के पढ़ने से नहीं आने वाला, इसका अनुभव आपके मध्य-मज्जा-तंतु पर करना होगा। आत्म-साक्षात्कार वास्तव में एक बनने, परिपक्व होने, प्रौढ़ता (समझदारी) की जीवंत प्रक्रिया है। निस्संदेह, किताबें एक आत्म-साक्षात्कारी का वर्णन प्रदान करती हैं, कैसा उसका व्यवहार है, कैसी जीवन-शैली है, परन्तु उनमें से किसी में भी आत्म-बोध को कैसे प्राप्त हुआ जाय, नहीं समझाया गया। शायद, उनमें से बहुत से लोगों को कुंडलिनी के बारे में पता नहीं था, इसलिए यह कार्य मेरे दायित्व में आया।”

पहिले परम-चैतन्य का प्रकटीकरण नहीं होता था। वे स्वयं स्पष्टतया नहीं प्रकट हुए। जिन्होनें परम-चैतन्य तक पहुँचते की व्यवस्था की, उनकी मानवीय चेतना लुप्त हो गई, जैसे बूँद सागर में लुप्त हो गई। इस घटना को शब्दों में नहीं वर्णित किया जा सकता, केवल महसूस ही किया जा सकता था। बहुत थोड़े से लोग ही इसे अनुभव कर पाते थे। अभी तक कोई भी इस अनुभव की वास्तविकता को अपनी अँगुलियों के सिरों पर/अपनी चेतना में या उनके सेंट्रल नर्वस सिस्टम (केंद्रीय तंत्रिका तंत्र) पर अनुभव नहीं कर पाया था। यही कारण है कि कोई भी अवतरण पवित्र-स्पंदनों के बारे में इतनी स्पष्टतया बता पाया हो। वे इसे केवल नीति-कथा और अलंकार (उपमा आदि) के द्वारा ही वर्णित कर पाये। उन्होंने ‘निराकार’ का ही वर्णन किया, जिसका आनन्द लिया जा सके। इस असार (तुच्छ) संसार में इसका कोई प्रकटीकरण नहीं हुआ था।

अभी तक किसी ने भी सामूहिक आत्म-साक्षात्कार नहीं दिया था। श्री माताजी को ज्ञात था कि उन्हें अकेले ही यह कार्य करना था, क्योंकि वे आदिशक्ति थीं और इस दुनियां में जाग्रति देने हेतु आयी थीं। वे सामूहिक-रूप से जागृति देकर मानवता को परिवर्तित करने के लक्ष्य-पूर्ति हेतु आईं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण था, महासागर से बादल बनना और बारिश करके उस वर्षा-जल से सबको सराबोर (प्लावित) करना। इस प्रकार सत्य के साधकों को परमात्मा का आशीर्वाद बिना मानवीय-चेतना खोए मिल सका और इस तरह से वे दूसरों को इसे वितरित कर सके।

बादलों के लिए मानवता को उनके वर्षा-जल से तर-बतर करने का समय आ पहुँचा था। आदिशक्ति स्वयं सम्पूर्ण परम् चैतन्य स्वरुप अवतरित हुई। परम् चैतन्य ने आच्छादित हो साधकों की कुंडलिनी को जाग्रत करने के लिए उनकी-कृपा से अभिवर्षित किया।

श्री माताजी को अपने वचन का स्मरण हो आया, जिसे उन्होंने गगनगढ़ महाराज को उनके (श्री माँ के) मिशन (आत्म-साक्षात्कार) के बारे में बताना था और उन्होंने उनके कोल्हापुर आश्रम में दर्शन हेतु निश्चय किया। उनका आश्रम गगन-बोआरा एक पहाड़ के शिखर पर स्थित था और सीधी चढ़ाई थी। श्री माताजी के सेवकों ने पूछा, “आप इस व्यक्ति से भेंट करने हेतु क्यों इतनी चढ़ाई चढ़ना चाहती हैं?”

श्री माताजी ने उन्हें चैतन्य महसूस करने को कहा। पहाड़ी के शिखर से शीतल-लहरियाँ बरस रहीं थीं, जो बता रहीं थीं- वे एक अवधूत हैं, जैसे ही उन्होंने पहाड़ी पर चढ़ाई शुरू की, मूसलाधार बारिश होने लगी और वे पूर्णतया भीग गए। वे गगनगिरि महाराज की उन्मत्त भावाभिव्यक्ति से परेशानी को देख सकीं, जो उस बारिश को रोकने का प्रयास कर रहे थे।

जब गगनगढ़ महाराज ने श्री माताजी को देखा तो दुखी होते हुए बोले, “यह बेचारी वर्षा हमेशा मेरी आज्ञा मानती थी, किन्तु इस बार मैं इसे नहीं रोक पाया। माँ, आपने क्यों मेरी शक्तियाँ ले लीं।”

श्री माताजी मुस्करायीं, “तुमने मेरे लिए एक साड़ी खरीदी हुई है, अब मुझे उसे पहननी ही पड़ेगी।”

श्री माँ की करुणा से संत द्रवित हो गए। उन्होंने यह भी समझ लिया कि उनकी साड़ी से टपकता हुआ जल आश्रम को चैतन्यित कर रहा था। 

उन्होंने अपने शिष्यों को उद्घोषित किया की वे आदिशक्ति हैं और सामूहिक आत्म-साक्षात्कार देने हेतु अवतरित हुई हैं। श्री माताजी के अवतरण की खबर फैली और जब वे मुंबई लौटीं, तो एक गुजराती महिला राउलबाई (राउल बा), जो साधना की धुन में खोज रही थी, उन्होंने श्री माताजी को आत्म-साक्षात्कार हेतु प्रार्थना की। 

“मुझे नहीं सोचना था कि यह कार्य करूँ या नहीं। मैंने स्वयं इसे शुरू किया, इसे पूरा किया, क्योंकि मुझे परम पर पूरा विश्वास था। मुझे सहजयोग पर इतना विश्वास था, (कोई संदेह नहीं था), वह सफल रहा। मैंने उनके प्रत्येक चक्र पर एक-एक करके स्पर्श करते हुए उन पर कार्य किया और तब उनका सहस्रार खोला।”

राउल-बाई की कुण्डलिनी सहस्रार तक उठी, आत्म-साक्षात्कार का प्रयोग सफल रहा!

श्री माताजी ने बहुत हल्कापन महसूस किया, “राउल बाई में जब कुंडलिनी जाग्रत हुई, मैंने देखा उनमें एक सूक्ष्म शक्ति आ गई और उस सूक्ष्म-शक्ति के सहारे उन्होंने मुझे समझना शुरू कर दिया।”

राउल बाई ने स्मरण किया, “जब मेरी कुंडलिनी जाग्रत हुई, मेरे अंदर चैतन्य की सतर्कता (अनुभव जन्य ज्ञान) विस्तारित होने लगी। मुझे चेतना की नई अवस्था महसूस हुई। इस नई चेतना द्वारा मेरे हाथों पर शीतल-लहरियाँ अनुभव हुई, मेरे सिर के ऊपर भी महसूस हुई। मेरी आँखों में चमकीले प्रकाश की चिंगारी-सी लगी और मुझे यह अभिज्ञान हुआ कि इन चैतन्य लहरियों का स्रोत श्री माताजी ही हैं। मैंने स्वयं को श्री माताजी से आत्मा द्वारा ही संबंधित महसूस किया। शारीरिक रूप से मैं बहुत ही हल्की और प्रसन्न थी। मैंने उनके चरण-स्पर्श किये और उन्हें इस आशीर्वाद के लिए धन्यवाद दिया।”

श्री माताजी को बहुत प्रसन्नता हुई, जब राऊल बाई की आत्मा ने उनके व्यक्तित्व को अंदर तक भेद दिया। वे चाहती थीं कि सारी मानवता को आत्मा की पारगम्यता प्राप्त हो, उन्हें मालूम था कि यदि एक व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार मिला है, तो दूसरों को भी यह मिलेगा। उनके मिशन (लक्ष्य) को शुरू करने का सही वक्त आ पहुँचा था! बोर्डी में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें उन्होंने एक गुजराती महाशय चंदूभाई झवेरी को आत्म-साक्षात्कार दिया। 

श्री चंदूभाई झवेरी श्री अडारकर को आत्म-साक्षात्कार हेतु लाए और धीरे-धीरे उनके कुछ और मित्र श्री माताजी के ‘जीवन-ज्योत’ निवास (मुंबई) पर मिलने लगे। वे इसके एवज में उनके मित्रों और संबंधियों को ले आये। जल्दी ही उनके ग्रुप में संख्या बारह हो गई। श्री माताजी ने उनके चक्रों के क्रमचय/संचय (Permutations and Combinations) को देखा और महसूस किया कि इन बारह लोगों के व्यवहार (आदतें) भिन्न-भिन्न थीं। “यदि एक साधक को एक तरह की समस्या थी, दूसरे को भिन्न समस्या और तीसरे को तीसरी प्रकार की समस्या थी। यदि एक साधक को सामूहिक कार्य करना होता, तब केवल आत्म -साक्षात्कार के एक सत्र द्वारा ही सबको लाभान्वित होना चाहिए।”

श्री चंदूभाई ने प्रस्ताव दिया, “हमारे चक्रों के अपचय-संचय विभिन्न हैं, क्योंकि शायद इसलिए कि वे परमात्मा के विभिन्न प्रति-बिम्ब हैं। 

श्री माताजी मुस्कराईं, “नहीं, आत्मा, एक ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब है और जन्म-जात (स्वाभाविक रूप से) सभी प्रतिबिम्ब एक ही जैसे होने चाहिए। इसलिए आत्म-साक्षात्कार का प्रभाव हरेक साधक पर एक जैसा ही है। यही कारण है कि पहले वह अपने हाथों में शीतल-लहरियाँ महसूस करता है और तब उसके सहस्रार से महसूस करता है। सभी सामूहिक-चेतना को उसी तरह अनुभव करते है, क्योंकि सभी आत्मा हैं। जो भी तुम्हें तुम्हारे मानवीय विकास में मिला है तुम्हारे केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र पर जाना जाता है,इसलिए तुम उनकी शारीरिक, मानसिक स्थिति जान सकते हो।”

श्री चंदू भाई ने पूछा, “यह ज्ञान आपको कब मिला?”

श्री माताजी बोलीं, “अपने जन्म से ही मैं इस बारे में जानती थी। मैं स्वयं के बारे में जानती थी। यदि मैंने कुछ किया है तो वह मानव-मात्र को समझना। उनकी क्या समस्याएं हैं? वे ईसा को मानते हैं, मोहम्मद साहब का अनुसरण करते हैं, श्री राम का अनुसरण करते हैं, श्री कृष्ण का अनुसरण करते हैं, और सब कुछ अनुसरण करते (मानते) है, किन्तु उनमें अंदर कुछ भी नहीं। क्या कारण (मामला) हो सकता है? कारण है कि उनमें कुछ भी प्रवेश नहीं करता। मैंने सोचा वे परमात्मा से विलग थे। उनका संबंध (योग) परमात्मा से होना है। केवल मैंने उनके क्रमचय-अपचय पर कार्य किया है। यह कार्य कठिन नहीं है, क्योंकि प्रमुख रूप से सात-चक्रों पर कार्य करना है और सहस्रार के भेदन के लिए आप कुंडलिनी को कैसे उठा सकते हैं।”

उन्होंने अपना चित्त उन बारह साधकों के भिन्न-भिन्न व्यवहारों को सुलझाने में लगाया कि कैसे उन्हें एक सूत्र में बाँधा जाय, “उन्हें थोड़ा सा प्रकाश (चैतन्य) मिलने दो, तब उनमें परिवर्तन आएगा। उदाहरण के लिए, मैं ज़िद्दी हूँ, मेरे हाथ में सांप है और अँधेरे में खड़ी हूँ, मैं तुम्हारी बात सुनना नहीं चाहती। आप मुझे कहते रहो कि मैंने सांप पकड़ा हुआ है। मैं इसे तब तक नहीं छोड़ने वाली, जब तक कि ये मुझे काट न ले। किन्तु यदि थोड़ी-सी भी रोशनी होती है, मैं तुरंत इसे फेंक दूँगी। मानव को यदि थोड़ा-सा प्रकाश (चेतना) मिल जाय, तो वे तुरंत परिवर्तित हो जायेंगे।”

श्री माताजी ने उन्हें उनकी (माँ की) कुंडलिनी पर ध्यान करने का तरीका बताया। जैसे ही वे निर्विचार हुए, उन्होंने श्री माताजी के साथ गहन सानिध्य प्राप्त किया। वे कहती हैं, “आत्म साक्षात्कार के बाद मुझे आश्चर्य हुआ कि उनकी आँखे चमकने लगीं और उन्होंने हरेक चीज को समझना शुरू कर दिया। एक अजीब/अद्भुत सा अनुभव उन्हें हुआ, जिसे वे महसूस कर पाये।”

उनकी नींव को सशक्त करने हेतु श्री माताजी ने दो वर्षों तक उनके चक्रों पर बहुत कड़ी मेहनत की। उन्होंने उन्हें सतत ध्यान करने के लिए कहा, ताकि उनकी कुंडलिनी ठीक से स्थापित हो जाए। 

श्री माताजी को पता लगा कि यद्यपि उन साधकों की कुण्डलिनी जाग्रत हो चुकी थी, सहस्रार खुल चुके थे, वे सभी इसी में खो गए और इसे (आत्म-जागृति को) दूसरों को बताने में समर्थ न थे। पूरा का पूरा आत्म-जागृति का अनुभव सामूहिक होने के बजाय व्यक्ति हो सीमित रह गया। “जो भी आत्म-साक्षात्कार की विधि एक व्यक्ति के लिए खोजी गई थी, वही सामूहिकता के लिए भी होनी थी। अन्यथा, व्यक्तिगत आत्मानुभव की विधि दूसरों के लिए स्वीकार्य नहीं होगी। यही वजह रही होगी कि उन्होंने ईसा को क्रूसारोपित किया और पूर्ववर्ती अवतरणों को जहर पिलाया। उनकी मृत्यु के बाद उनके नाम पर मंदिर बनाये गए, किन्तु उनके जीते-जी किसी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। इन अवतरणों की मृत्यु के पश्चात जो भी धर्म बने, वे सब असफल रहे, क्योंकि उनके शिष्यों को आत्म-साक्षात्कार नहीं मिला, वे आत्मा को प्राप्त नहीं हो सके। बिना आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हुए आत्मा-तत्व को आत्म-सात करना सम्भव नहीं था। 

इसके अतिरिक्त ज्यादातर अवतरणों ने गलती की। जिस भी तरीके से उन्होंने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया, उसी का उन्होंने प्रचार किया। उदाहरण के लिए महात्मा बुद्ध को कष्ट और त्याग से मिला, इसलिए उन्होंने उसी तरीके को आदर्श माना, किन्तु ऐसी बात नहीं थी। जिन्होंने इस प्रकार आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त किया, उनकी मानवीय चेतना खो गई। महात्मा बुद्ध आत्मानंद में अदृश्य हो गए, पर उसके बाद आत्म- साक्षात्कार की कोई चर्चा तक नहीं हुई। पूरा का पूरा, सम्पूर्ण -अनुभव व्यक्तिगत हो गया, सामूहिक नहीं हो पाया। आधुनिक युग में श्री माताजी चाहती थीं कि यह आधुनिक समय के साधकों के प्रति नहीं घटित हो। श्री माताजी ने महसूस किया कि यह कोई नई चीज नहीं थी, सागर से विकसित होकर पुनः उसी में विलीन हो जाना, पूर्व में भी साधकों ने इसे प्राप्त किया था।

मानवता का परिवर्तन घटित होना, केवल यही चीज कार्यान्वित होगी। एक बार मानव का परिवर्तन होते ही सहज ही समस्याएँ हल होंगी और वे ईश्वरीय-आशीर्वाद का आनंद ले पायेंगे। 

आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद लार्ड जीसस (ईसा मसीह), हजरत मोहम्मद, भगवान कृष्ण, श्री बुद्धदेव को जानना सम्भव हो गया और अन्य सभी अवतरणों को केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र पर समझना सम्भव हो गया, क्योंकि वे आत्म-साक्षात्कार से अलग नहीं थे। 

अपने लक्ष्य के विस्तार (प्रसार) के लिए श्री माताजी सामूहिक कुंडलिनी-जागृति हेतु एक विधि की खोज करना चाहतीं थीं। उनके शब्दों में, “एक बार कोई खोज (अन्वेषण) घटित हो तथा वह केवल व्यक्तिगत हो के रह जाय, उसका कोई मतलब नहीं होता,इसे सामूहिक होना चाहिये।”

वे रात्रि में सामूहिक-जाग्रति की विधि की खोज में गहन-ध्यान में समाधिस्थ हो गईं, “मैंने अपनी कुंडलिनी ध्यानावस्था में सभी दिशाओं में घुमायी। मैंने अपनी कुंडलिनी का चैतन्य दूसरों पर डाला और किसी को भी इस बारे में पता नहीं चला। किसी को भी पता नहीं था कि मेरे अंदर क्या-क्या शक्तियाँ हैं,मैं कौन हूँ, मेरे अपने परिवार को भी नहीं। मैंने कभी किसी को इस विषय में नहीं बताया, क्योंकि मानव-मस्तिष्क के लिए यह सब समझ लेना (अवशोषित करना) बहुत मुश्किल है। हरेक व्यक्ति अपने ही अहंकार में बैठा है, उन्हें कौन समझा सकता है? जैसे कबीर ने कह है, “कैसे समझाऊँ,सब जग अँधा…..।”

श्री माताजी समझ चुकी थीं की यह दुनिया अंधी नहीं थी, किन्तु अनभिज्ञ थी। उन्हें कुछ जानना था, वह अज्ञात था, किन्तु वो क्या है और कैसे प्राप्त होगा, नहीं जानते थे। वे स्वयं से अनभिज्ञ थे। अपने आसपास के माहौल से और अपने जीवन के लक्ष्य से भी अनभिज्ञ थे। 

“मेरे लिए लोगों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के औचित्य (हेतु) को बताना, उन्हें विश्वास में लेना बहुत मुश्किल लग रहा था, क्योंकि लोग सोचते थे कि यह कार्य काल्पनिक और दूरगामी परिणाम वाला था। वे केवल गुरुओं में विश्वास करते थे, जिन्होंने उन्हें पूजा-पाठ और कर्म-काण्डों की शिक्षा दी थी,किन्तु उन्हें मालूम नहीं था कि जीवन का उद्देश्य खुद को जानना था। इसके अलावा, यह एक बहुत धीमी विधि थी, वे नहीं समझ पाए कि उन्हें स्वयं को जानना क्यों जरूरी था। मैं बहुत निराश हो गई थी, क्योंकि कोई भी मुझे नहीं समझ पाया।”

अंततः, वे अपने सहस्रार में लौट आईं और वह विधि खोजी, जहाँ पर वे सामूहिकता में लोगों की कुंडलिनियाँ एक सूत्र में बाँध सकीं। 

“मैंने यह कार्य 1970 में शुरू किया, इस वजह से नहीं कि मैं इसे पहले शुरू नहीं कर सकती थी, किन्तु मैं स्वयं सभी प्रकार की कुंडलिनियों के वितरण में चातुर्य की प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे सभी कुंडलिनियों के चय-अपचय का अध्ययन करना था और तब मैंने सोचा यदि मैं ऐसी विधि प्राप्त कर सकूँ,जिसके द्वारा ये सभी संयोजन हल हो सकें- एक ही कतार में, तभी कुंडलिनी का उत्थान होगा और यह सफल हुआ, कार्यान्वित हुआ।”

थोड़ी-थोड़ी करके, सामूहिकता की संख्या “जीवन-ज्योत” पर बढ़कर पैंतीस हो गई, किन्तु सामूहिकता की नकारात्मकता भी ऊपर प्रकट होने लगी और लोगों ने अलग-अलग समूह बना लिए। एक समूह ने दूसरे ग्रुप पर श्री माताजी के झुकाव (तरफदारी) की शिकायत की। इस पर श्री माताजी दुखी हुईं और उन पर बरस पड़ीं, “सहजयोग में आने के बाद निंदा में रत नहीं रहना चाहिए, दिमागी संकीर्णताएँ और एक दूसरे पर नाराज होना आदि नहीं होना चाहिये, किन्तु इसके बजाय सतर्कता और समझदारी होनी चाहिये। किसी को भी ग्रुप नहीं बनाना चाहिये, यह सब राजनीति से आते हैं।” 

नकारात्मकता भाग गई। चौदह लोगों को आत्म-साक्षात्कार मिला। 

उनके उत्साह की पहली उत्तेजना में, उनकी हठ-धर्मिता और अहंकार द्वारा निरंतर आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के उनके प्रयास को जारी रखने की प्रेरणा मिली। किन्तु, एक बार आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद उन्होंने सोचा- यही सब कुछ है और पहले से थोड़ा पिछड़ गए और आलस्य में खो गए और पुराने लीक (दरारों) में और रहने और सोचने के ढर्रों में, बेकार में इधर-उधर घूमने, जीवन की पिटी हुई लकीर पर खो गए थे, बिल्कुल इससे वेखबर कि उन्होंने ‘आत्मा’ में क्या पाया था। 

श्री माताजी ने समझ लिया कि सामूहिक आत्म-साक्षात्कार के लिए उन्हें लम्बी छलाँग लगानी पड़ेगी। उन्होंने इस बारे में चंदूभाई झवेरी से परामर्श किया और उन्होंने सहजयोग जन-कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए स्वयं-सेवा दी। यद्यपि, उन्हें इस कार्य हेतु एक हॉल बुक करने के लिए मुश्किल लगा,क्योंकि तब तक इस संगठन का कोई नामकरण नहीं हुआ था। श्री माताजी ने ऑंखें बंद कर अपने दैवत्व में लौटते हुए, उद्घोषणा की, “सहज-योग,सह+ज याने आपके साथ जन्मा योग का अधिकार, जो भी आपको जन्म-जात मिला है, बिना-प्रयास कार्यान्वित होता है, यह सहज है।”

“सहज शब्द ही मेरे मष्तिस्क में आया, जब मैंने सहस्रार पर कार्य करना शुरू किया, वही आसानी से हरेक की समझ में अब तक आ पाया। किन्तु तुम्हारी समझ में आ गया कि आज यह अलग तरह का योग है, जहाँ पहले जागृति (आत्म-बोध) दिया जाता है और तब तुम्हें स्वयं की देखभाल करने की आज्ञा दी जाती है।” श्री माताजी की उद्घोषणा पर चंदूभाई झवेरी चैतन्य लहरियों में भीग गए। उन्होंने श्री माताजी से पूछा, “मैंने महसूस किया कि अचानक एक बीज अंकुरित हो गया था और निसर्ग आनंद में गुनगुना रही है। मैंने उनसे पूछा, सहज-योग के क्या मान, सिद्धांत, नियमन/अधिनियम होने चाहिए।”

श्री माताजी ने उत्तर दिया “कुछ भी नहीं”, एक बार आप आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हो गए, आप देखते हैं कि आप एक बड़ा-सा सांप हाथ में पकड़े हुए हैं, और आप स्वयं ही उसे फेंक देते हैं। मुझे तुम्हें कुछ भी नहीं बताना पड़ता- मुझे कुछ भी नहीं करना होता, मैं केवल एक उत्प्रेरक हूँ।”

श्री माताजी कोई भी सख्त नियम और अनुशासन नहीं लागू करना चाहती थीं, वे चाहती थीं कि उनके शिष्यों को पूरी स्वतन्त्रता मिले, चुनाव की स्वतन्त्रता या तो वे शुभ परिवर्तन चाहते हैं अथवा नहीं। उन्होंने महसूस किया कि उनकी स्वतंत्रता आवश्यक थी, यदि वे अपनी अंतिम-स्वतंत्रता चाहते थे। वे चाहती थीं कि प्रत्येक साधक सम्पूर्ण स्वतंत्रता का मजा ले, क्योंकि उनका विश्वास था कि अनुभव ही वह तरीका था, जिसके द्वारा मानव इसे समझ सकता था।

चंदू भाई झवेरी ने सुझाव दिया कि इस संगठन को एक वैधानिक स्वरूप प्रदान किया जाय, ताकि बड़े स्तर पर सहज-योग कार्यक्रम आयोजित किये जा सकें। उन्होंने श्री माताजी को सहज-योग ट्रस्ट को एक वैधानिक नाम देने के लिए पूछा। 

श्री माताजी ने सहज ही “अनंत-जीवन” उच्चारित किया, जिसका अंग्रेजी रूपांतरण Life Eternal Trust लाइफ-इटरनल-ट्रस्ट हुआ।

श्री बी. जी. प्रधान एक वकील और माँ के भक्त इस ट्रस्ट को बनाने कि औपचारिक रचना हेतु राजी हुए। वे नहीं चाहतीं थीं कि कोई सहज-योग को आयोजित करने या इसे किसी दूसरे साँचे में ढालने का कार्य करे, जो इसे इसके आध्यात्मिक-विकास से दिग-परिवर्तित कर दे। 

वे चाहतीं थीं कि सहज-योग स्वाभाविक रूप से ईश्वरीय शक्ति के जन्म-जात (मूल) आशीर्वाद के सहारे बढ़े। उन्होंने इस बारे में चेताया कि बहुत ज्यादा औपचारिक-संगठन इसे व्यापार में संकुचित कर देगा। 

वे इस बारे में सजग थीं कि कोई भी व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार देने के लिए पैसा न ले। 

सहज-योग ट्रस्ट Life Iternal Trust (LET) अनंत जीवन न्यास आठ(8) मार्च सन 1972 को पंजीकृत किया गया। 

कार्यक्रम के लिए हॉल की जरूरत ने एक और समस्या पैदा की- मुंबई के मंहगे किराये चुकाने हेतु पर्याप्त पैसा (धन) नहीं था। चंदू भाई झवेरी ने सुझाव दिया, “प्रवेश-शुल्क के रूप में पैसा उगाहकर क्यों न आर्थिक स्थिति ठीक की जाय।”

श्री माताजी ने उन्हें स्मरण कराया, “परमात्मा की प्राप्ति के लिए आप कैसे पैसे ले सकते हो? परमात्मा को पैसों से कोई सरोकार नहीं। अपने विकास हेतु आप पैसा नहीं दे सकते? क्या आपने अपनी टाँगों पर खड़े होने के लिए पैसा दिया? मुझे पैसों की जरूरत नहीं। मैं पैसे नहीं स्वीकार करती हूँ। 

श्री माताजी ने आयोजकों को अपनी सब बचत पूंजी दे दी और अंततः वे जहाँगीर कॉवसजी हॉल (मुंबई) को किराये पर लेने में सफल हो गए।

सहज-योगी अख़बारों में इश्तिहार देने में असमर्थ थे और कार्यक्रम की खबर मुँह-जबानी ही फैली। कार्यक्रम में एक सौ पचास से ज्यादा साधक आए। श्री माताजी ने अपने सम्बोधन में झूठे गुरुओं की खुलेआम आलोचना की और उनके चक्करदार (भटकाव-पूर्ण) कार्यों की पोल खोल दी। चंदूभाई श्री माताजी की सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। श्री माताजी ने उन्हें आश्वासन दिया, “प्रेम पूरे संसार की घृणा से भी ज्यादा शक्तिशाली है। चिंता न करो। इस जीवन में कोई क्रूसारोपण नहीं होगा। इस बार नाटक कुछ और ही भिन्नता लिए है। तुम डरे हुए क्यों हो? क्या तुमने देखा नहीं, बुरे लोग मेरे सामने कैसे कांपते हैं?”

तब उन्होंने अपनी कुंडलिनी उठाई और अपनी कुण्डलिनी में ही सभी साधकों की कुंडलिनियाँ उठा दीं और इस प्रक्रिया में उनकी समस्याओं को स्वयं आत्म-सात कर लिया। उनकी पकड़/बाधाओं को स्वयं में अवशोषित करना थोड़ी देर के लिए कष्ट-प्रद था, किन्तु उन्होंने साधकों को अपने (विराट) शरीर में धारण कर लिया था। तत्पश्चात उन्होंने प्रत्येक साधक के ऊपर कार्य किया, जब तक की उनके सहस्रार से शीतल-लहरियाँ न बहने लगीं। 

और इससे लोगों को आश्चर्य हुआ। यह कोई जादू नहीं था। यह कोई कथा नहीं थी, बल्कि यह सत्य था। वे लोग अपनी अँगुलियों के अग्र-भाग और सहस्रार पर महसूस कर सकते थे। 

उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिलने के बाद भी उनके चक्रों में कई समस्याएँ थीं। कई दिनों तक उन्होंने विभिन्न नाड़ियों और चक्रों की सफाई करने हेतु कार्य किया। श्री माताजी ने लोगों का इलाज करना शुरू किया, क्योंकि इससे उन्हें बड़ी राहत मिली थी। श्री माताजी ने दयावन्त होकर उनकी पीड़ा स्वयं आत्म-सात की।

श्री बी. जी. प्रधान का सहज-योग जन कार्यक्रम के दिन एक कोर्ट-केस था, तो भी वे कार्यक्रम के आयोजन में इतने व्यस्त थे कि कोर्ट-केस की बात उनके चित्त से लुप्त हो गई। अगले दिन उनका मुव्वकिल उन्हें उसके कोर्ट-केस जीतने हेतु धन्यवाद देने आया। किन्तु प्रधान साहब ने कहा कि उन्होंने कोर्ट में केस को अटेंड नहीं किया। मुवक्किल ने सोचा कि प्रधान साहब मजाक कर रहे हैं, क्योंकि उसने स्वयं प्रधान साहब को मेधावी-तर्क करते हुए देखा था। तब प्रधान साहब के मस्तिष्क में उजाला हुआ कि ये श्री माताजी की कृपा का ही फल था कि एक ही समय वे दोनों स्थानों में उपस्थित रहे!

झूठे गुरुओं, जिनका व्यापार परमात्मा के नाम फलता-फूलता था, चिंतित हो गए और श्री माताजी की बदनामी करने हेतु अख़बार-वालों को पैसों से खरीदने लगे, किन्तु श्री माताजी निर्भय और उत्साहित थीं और उन्होंने असत्य के प्रति अपनी लड़ाई जारी रखी। उन्होंने अकेले ही उनके छल-कपट को जग-जाहिर करने के लिए लड़ाई लड़ी। वे क्या थे, कैसे झूठ-छद्म की वकालत की, कैसे अपने शिष्यों का प्रबंधन किया, अंततः -उनके साथ क्या घटित हुआ, हरेक प्रसंग का पर्दाफाश किया। 

उनका ह्रदय सत्य-साधकों की दुर्दशा पर पीड़ित हो उठा, जिनकी कुंडलिनियाँ इन झूठे गुरुओं द्वारा ख़राब कर दी गई थीं, चक्रों को नष्ट किया गया था। अपने बच्चों को बचाने के लिए इन झूठे गुरुओं की पोल खोलने के आलावा उनके पास कोई और रास्ता नहीं था। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, और रात-दिन साधकों को बचाने के लिए उनके नाड़ी-चक्रों पर कार्य किया। ज्यादातर झूठे गुरु-लोग अपनी दुकानों को बंद करके, गायब हो गए।

इस प्रासंगिक-कथा ने भी विभिन्न शिष्यों को श्री माताजी की आध्यात्मिक शक्ति का प्रकट अनुभव प्रदान किया। उन्होंने श्री माताजी से चैतन्य लेकर अपने शिथिल हुए प्रति-रक्षा-पद्धति (संक्राम्यता-रोधी) Weak Immune System को पुनर्जीवन और शक्ति-वर्धन करना शुरू कर दिया। उनका परिवर्तन आश्चर्य चकित कर देने वाला था। सहज-योग जन कार्यक्रम से आनेवाले नए साधकों की भारी संख्या को संभालने की उन्हें प्रेरणा मिली। ‘जीवन-ज्योत’ अब बड़ी संख्या में आने वाले साधकों के लिए छोटी पड़ने लगी और साप्ताहिक ध्यान-सभाएँ भारतीय विद्या-भवन (चौपाटी मुंबई)स्थानांतरित करना पड़ीं।

श्री माताजी को पता चल गया कि नए साधकों का चित्त बॉलीवुड (मुंबई फ़िल्मी दुनिया) की चमक-दमक और आकर्षण में अभी भी खोया हुआ था, “यह एक बहुत ही खेद-जनक कृत्य था, पूरे देश के लिए, क्योंकि लोग मुंबई का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं, जबकि मुंबई की जनता परमात्मा के बजाय बॉलीवुड के फ़िल्मी-नायक या नायिकाओं का अनुसरण करते है।” यही कारण है कि उनका जज्बा (स्वभाव/प्रकृति) सतही है- गहराई नहीं है। 

पहला कदम था, उनके चित्त को बॉलीवुड की चमक-दमक (माया) से दूर करना और उस चित्त को अपनी आत्मा पर केंद्रित करना था। जब श्री माताजी उपस्थित नहीं होतीं, आत्म-साक्षात्कार उनके फोटोग्राफ (छवि) द्वारा दिया जाता था। नए साधकों ने पूछा, उनके फोटोग्राफ से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना कैसे सम्भव है। चंदूभाई झवेरी ने उनसे कहा कि वे स्वयं पता करें, श्री माताजी के फोटो के सामने दोनों हाथों को रखकर अपने आत्म-साक्षात्कार हेतु प्रार्थना करना। उन्हें शीतल लहरियाँ अनुभव हुईं। यद्यपि बुद्धिवादी लोग अभी इस बात से संतुष्ट नहीं थे और यह बात श्री माताजी तक पहुँची।

वे बोलीं, “यह चैतन्य मैं ही हूँ। मेरे फोटोग्राफ में मेरी शुद्ध इच्छा है। तुम्हारी उच्चतम अवस्था (आत्मा) ही तुम्हारी माँ के रूप में आयी है। यह बहुत आवश्यक है कि आप मुझे पहचानें /मान्यता दें। मेरे अवतरण में यह शर्त स्थायी है, इसे मैं नहीं बदल सकती। जब साधकों को चैतन्य महसूस होगा, वे जान सकेंगे कि मैं कौन हूँ, मुझे इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा सामूहिक-तत्व होने के बावजूद सम्पूर्ण भी है। यदि आप किसी आत्म-साक्षात्कारी के फोटोग्राफ के सामने तुम्हारे हाथ करोगे, तत्क्षण तुम्हें चैतन्य-लहरियाँ मिलनी शुरू हो जायेंगीं।”

उसके बाद श्री माताजी का फोटोग्राफ आत्म-साक्षात्कार देने के लिए रखा गया और हजारों साधकों ने फोटो के सामने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। गगनगढ़ महाराज ने घोषणा की कि श्री आदिशक्ति मुंबई में हैं और सत्य के साधकों को उनके पास जाना चाहिये, मेरे पास नहीं। श्री माताजी से आने वाले शक्तिशाली चैतन्य-लहरियों से यह मालूम करना सम्भव हो सका कि वे ही आदिशक्ति हैं। 

एक सुपरिचित सज्जन बड़ौदा के दीवान साहब, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार मिला, उन्होंने श्री माताजी से बड़ौदा में एक कार्यक्रम के लिए विनती की। कार्यक्रम बहुत सफल रहा और कई साधकों को आत्म-साक्षात्कार मिला।

एक दूसरे नए साधक श्री विष्णु महतानी जो कैंसर से मरे जा रहे थे। जब श्री माताजी अस्पताल पहुंचीं, उनका हृदय (धड़कनें) रुक चुका था। डॉ. ने उन्हें मृत-घोषित कर दिया और उनके मृत-शरीर को अस्पताल से ले जाने हेतु ‘डिस्चार्ज-पेपर्स’ तैयार कर रहे थे। श्री माताजी ने उन्हें चैतन्य-लहरियों का प्रसाद प्रदान किया उन्होंने ऑंखें खोली। डॉक्टर्स आश्चर्य चकित थे। 

श्री माताजी ने सरलता में कहा, “मैं कुछ नहीं करती। मेरी उपस्थिति में बहुत से लोग स्वस्थ हो जाते हैं। यह बताना बहुत कठिन है कि यह शक्ति कैसे कार्य करती है। मैं कोई प्रश्न नहीं पूछती, पता करने का प्रयत्न नहीं करती और न ही विश्लेषण करती। यह स्वतः कार्यान्वित होता है। जब मैं किसी को देखती हूँ, जान जाती हूँ कि उसे क्या तकलीफ है। परमात्मा से मेरी एकाकारिता होते ही, तुरंत ही यह चैतन्य-शक्ति मुझे बता देती है कि इस व्यक्ति को क्या तकलीफ है और क्या किया जाना चाहिये। और उसे स्वस्थ होने में समय ही नहीं लगता।”

सहजयोगियों ने श्री माताजी से प्रार्थना कर समुद्र-तट पर दुर्गा-पूजा समर्पित करने की आज्ञा माँगी।

पूजा की समाप्ति पर सहज-योगियों ने चरण-स्पर्श करने हेतु सादर प्रणाम करते हुए झुके, किन्तु उनके चरण-कमलों से चैतन्य की ऐसी तेज धाराएँ बहीं,कि सहजयोगी उन चैतन्य धाराओं को आत्म-सात नहीं कर पाए। यद्यपि, सागर ने उन चैतन्य-धाराओं को अपने में आत्म-सात कर लिया था और ख़ुशी में झूमने लगा, किन्तु यह सब (नजारा) योगियों की समझ से परे था। 

श्री माताजी के जन्म-दिवस पर सहज-योगीजन उनके निवास-स्थान पर एक छोटी पूजा हेतु एकत्रित हुए। एक घरेलू काम करने वाली बाई (घाटन) जो कि प्रेताविष्ट थी, उसने सौंदर्य-लहरी (माँ की स्तुति) का धाराप्रवाह गायन शुरू किया और उन्हें जगदम्बा कहा। इस प्रकार सहज-योगियों को मालूम हुआ कि वे कौन थीं और उनकी आदिशक्ति स्वरुप में स्तुति की। अब से आगे (भविष्य में) वे उन्हें “श्री माताजी” कह कर सम्बोधित करना चाहते थे। उनकी विनम्र शर्माहट में संकोच कर रहीं थीं, किन्तु अनुनय-पूर्वक समझाने से उन्होंने स्वीकृति प्रदान कर दी। 

किन्तु उनके पतिदेव सी. पी. सर के कार्यालयीन-सर्कल के लिए वे एक विनीत श्रीमती श्रीवास्तव बनी रहीं। “मैं बहुत सरल, साधारण, सांसारिक भारतीय-गृहणी हूँ। आप मेरी स्थिति को कैसे जान पाओगे।”

श्री माताजी अपने पतिदेव के साथ दिल्ली पधारीं और उनके मित्र-वर्ग को आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया। एक पारिवारिक मित्र श्री मडप्पा जो भारत के राष्ट्रपति के सचिव थे, उन्होंने सरकारी कर्मचारियों के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया। मंडी के राजा और एक इनकम टैक्स कमिश्नर श्री वेणुगोपालन ने कार्यक्रम में शीतल-लहरियों का अनुभव किया और श्रीमाताजी को पहचाना। श्री वेणुगोपालन में इतना गहन परिवर्तन आया कि वे सब कुछ त्यागकर, अपना जीवन श्री माताजी को समर्पित करना चाहते थे। श्री माताजी ने उन्हें समझाया कि उनका विश्वास सन्यास में नहीं है और कहा कि ग्राहस्थ्य-जीवन का अनुसरण करते हुए, सहज-योग अपने व्यवहार में लाना चाहिये। यद्यपि उनकी धर्म-पत्नी को उतना विश्वास नहीं हो पाया था और उन्होंने उनके गुरु से विचार विमर्श किया।

उनके गुरूजी थरथराने लगे और बोले, “क्या तुम नहीं जानती हो कि वो आदिशक्ति हैं और मेरे जैसे सभी झूठे गुरुओं को समाप्त करने हेतु अवतरित हुई हैं।”

इस घटना के बाद यह गुरु आराम से गायब हो गए और वेणुगोपालन-परिवार ने उनके बारे में कभी नहीं सुना। 

सहायक कलेक्टर दिल्ली म्युनिसिपेलिटी, श्री एफ. सी. वर्मा श्री माताजी की शरण में आए। श्री माताजी ने उन्हें आगाह किया, ”तुम्हें शराब का सेवन छोड़ना पड़ेगा, यदि आप सहज-योग के आध्यात्मिक-कवच (सुरक्षा) में प्रवेश करने के इच्छुक हैं।”

वे भौंचक्का रह गए, “श्री माताजी ने उनके गुप्त रहस्य के बारे में कैसे जाना और उन्होंने शराब छोड़ दी। श्री वर्मा जी की पत्नी जो कई वर्षों से ‘स्पाइनल-कॉर्ड’ की तकलीफ से बिस्तर से जकड़ी हुई थी, आश्चर्यजनक-रूप से स्वस्थ हो उठीं।

श्री माताजी के मुंबई लौटने पर श्री राजवाड़े जिन्हें कुछ समय पूर्व ही आत्म-साक्षात्कार मिला था, उन्होंने पुणे में एक सहज-योग कार्यक्रम के लिए प्रार्थना की। वे इस जन-कार्यक्रम के लिए एक बड़ा-सा हॉल किराए पर लेना चाहते, परन्तु उस हॉल का मालिक एक ब्राह्मण था। श्री माताजी ब्राह्मण नहीं है,यह ज्ञात होने पर उसने हॉल किराए पर देना मना कर दिया। श्री राजवाड़े ने इस भेद-भाव पूर्ण व्यवहार को प्रेस (मीडिया) को सूचित करने का भय दिखाया, तो वह अंततः तैयार हो गया। उस कार्यक्रम को बहुत सकारात्मक उत्तर मिला। श्री माताजी को महसूस हुआ कि उनकी कुंडलिनियाँ उठाना पहाड़ उठाने जैसा था, क्योंकि झूठे गुरुओं ने उनके चक्रों को क्षत-विक्षत कर रखा था। उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिलने के बाद वे श्री माताजी को तब तक नहीं जाने देते, जब तक कि वे उन्हें सहज-योग के बारे में सब कुछ विस्तारपूर्वक नहीं बता देतीं। श्री राजवाड़े के बाड़े में (अहाते में) सहज-योग शुरू करने के वादे के बाद ही उन्होंने उन्हें जाने दिया।

उनके पति के सामाजिक कार्यों में अपनी उपस्थिति देने के आलावा श्री माताजी कई सामाजिक कल्याण योजनाओं में पहले से ही संलग्न रहीं। एक सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती वीरेंद्र शाह को संयोगवश पता चला कि श्रीमती श्रीवास्तव और श्री माताजी दोनों एक और वही व्यक्ति हैं। श्रीमती शाह का आध्यात्मिक-झुकाव श्री माताजी की ओर था और उनकी करुणा ने उसे आकर्षित किया। अगले दिन वे अपने बेटे राजेश शाह को श्रीमाताजी के आशीर्वाद हेतु ले आईं। उन्होंने अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया और उनके एक उत्साही भक्त बन गए। वे कैलिफ़ोर्निया में पढाई कर रहे थे और अपने मित्रों को सहज-योग से परिचित कराने लगे।

श्री माताजी ने चंदूभाई को बताया, “अमेरिका में सत्य की खोज में बहुत बड़े साधक हैं। मैं उन्हें आत्म-साक्षात्कार देना चाहती हूँ, जिसे वे अनेक जन्मों से खोज रहे हैं।”

श्री माताजी का हृदय अपने बच्चों को झूठे गुरुओं से बचाने हेतु बेचैन हो उठा, जो कि साधकों की कुंडलिनियों को क्षत-विक्षत कर रहे थे। सन 1972 में श्री माताजी ने अपने सोने के कंगन बेच दिए और उस पैसे से उन्होंने अमेरिका की यात्रा शुरू की। उस यात्रा में जहाज के फ्रीजर-कक्ष (freezer room) में एक नाविक (sailor) बंद हो गया और निमोनिया का शिकार हो गया। जहाज के स्टाफ ने हेलीकॉप्टर से डॉक्टर बुलाने की कोशिश की, किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। श्री माताजी ने जहाज के कप्तान को आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया और उसे अपना हाथ मरीज के हृदय पर रखते हुए,चैतन्य देने को कहा। कप्तान ने श्रीमाताजी के आदेश अनुसार अनुपालन किया और मरीज पूर्ण स्वस्थ हो चुका था। इस घटना के बाद जहाज पर हर व्यक्ति ने श्री माताजी से आत्म-साक्षात्कार प्रदान करने हेतु प्रार्थना की।

श्री माताजी ने अमेरिका की दुर्दशा पर बड़ी वेदना महसूस की, किन्तु अमेरिका आत्म-साक्षात्कार के लिए तैयार नहीं था। “मुझे सदमा लगा कि वहाँ क्या हो रहा था। किन्तु मैं इस बारे में कुछ नहीं मदद कर सकती थी, क्योंकि अमेरिकी लोग बौद्धिक-स्तर पर बीमार थे (कमजोर थे) वे समझ नहीं सके कि उन्हें क्या प्राप्त करना है और आप सत्य की प्राप्ति के लिए कुछ दाम नहीं दे सकते। मैंने अनेकों को आत्म-साक्षात्कार दिया, किन्तु उन्होंने गहन-बातों पर ध्यान नहीं दिया। अतः हमने इस तरह कई सहज-योगियों को खो दिया। तब कुछ ऐसे बीमार लोग भी थे, वे अपना इलाज कराना चाहते थे, सब यहीं तक सीमित था। कुछ ऐसे साधक भी आए, जो बढ़ी-चढ़ी बातों से युक्त कपटी-गुरुओं द्वारा छले गए थे, और उन्हें बहुत सी कहानियों में उलझाए रखा था। यद्यपि ये लोग वास्तव में साधक थे, बड़ी अशांति में थे, किन्तु सहज-योग के लिए तैयार न थे। उन्हें नहीं मालूम था कि उन्हें क्या जानना है, क्या प्राप्त करना है, इस प्रसंग (बात) पर मैं बहुत ही उदास थी।”

अमेरिकन योगियों ने सुझाया, “अमेरिका एक उपभोक्ता-समाज है। जब तक आप मूल्य (पैसा) नहीं लेते, वे अपने आत्म-साक्षात्कार की कीमत नहीं जानेंगे। यदि वे इसकी कीमत चुकाते हैं, वे इसमें जमे रहेंगे। 

श्री माताजी ने उत्तर दिया, “यह समझ से परे है, मुझमें मानवता के प्रति बहुत सम्मान है।”

उन्होंने कहा, “तब आप सफल नहीं होंगे। सभी गुरु लोग पैसे लेते हैं और यही कारण है कि अमेरिकी लोगों का अहंकार इन गुरुओं से जुड़ा है।”

श्री माताजी ने कहा, “आपने अपना जन्म लेने के लिए क्या मूल्य चुकाया था। आप परमात्मा को कैसे मूल्य चुका सकते हैं? मैं परमात्मा का मंदिर झूठी नींव पर नहीं खड़ा कर सकती। इस दसवें अवतरण के समय सहज-योग अमेरिका में स्थापित होनेवाला है। यदि जहाज में दस साधक भी हैं, तो भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता, केवल मेरी यह एक चिंता है एक माँ की हैसियत से, मैं चाहती हूँ कि इस जहाज में अनेक लोग आएं, किन्तु बेईमानी से नहीं!”

अमेरिका से भारत की वापसी यात्रा पर श्री माताजी का हृदय अपने भटके हुए बच्चों को बचाने की वेदना से द्रवित था, उन्होंने लिखा:

(उनके हृदय से करुणार्द्र निर्झरिणी बह चली) –

ओ ! मेरे पुष्प-सम बच्चों,

आप जीवन से नाराज हैं;

नन्हें शिशुओं की तरह,

‘माँ’ जिनकी अँधेरे में खो गई।

यात्रा के निष्फल अंत की निराशाभिव्यक्ति के कारण

रुष्ट हो तुम!

सौंदर्य की खोज में,

असौंदर्य ओढ़े हो तुम!

सत्य के नाम पर असत्य का नाम लेते हो तुम!

प्रेम प्याला भरने के खातिर, भावनाएं बहाते हो तुम!

मेरे मधुर मधुर बच्चों!

स्वयं से अपने अस्तित्व से 

और साक्षात् आनंद से युद्धरत हो,

किस प्रकार शांति प्राप्त कर सकते हो तुम?

शांति के बनावटी नकाब और 

त्याग के प्रयत्न काफी हुए,

अपनी गरिमामयी ‘माँ’ की गोद में,

कमल की पंखुड़ियों पर 

अब करो विश्राम। 

सुंदर पुष्पों से

सजाऊंगी जीवन तुम्हारा,

आनंद सुगंध से 

भर दूँगी हर पल तुम्हारा,

दिव्य प्रेम से करुँगी,

तुम्हारे मस्तक का अभिषेक। 

कष्ट तुम्हारे अब,

मुझसे सहन होते नहीं। 

आओ! डुबो दूँ तुम्हें

आनंद-सागर में।

डुबो दो अपने अस्तित्व को,

एक महान अस्तित्व में;

जो आत्मा के बाह्य दलपुंज में,

मुस्करा रहा,

सदा तुम्हें छेड़ने के लिए,

रहस्यमय ढंग से छुपा हुआ,

चेतन होकर देखो उसे,

दिव्य आनंद से तुम्हारे रोम रोम को,

चैतन्यित करता हुआ,

पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाश से भरता हुआ।

अध्याय-5

श्री माताजी के अमेरिका से वापस आने पर राऊल बाई ने उनसे धुलिया में सहज योग कार्यक्रम करने की प्रार्थना की। तुरंत यह खबर फैल गई कि श्री माताजी राऊल बाई के साथ रुकी हुईं थीं। सुबह-सुबह उनके निवास पर किसी ने दस्तक दी, राऊल बाई ने उत्तर दिया। 

एक नौजवान ने जानकारी चाही, “क्या आदिशक्ति यहाँ ठहरी हैं?”

“हाँ”, जवाब था।

“क्या यह सच है, वो कुंडलिनी जाग्रत करती हैं।”

“निस्संदेह!”,

“मेरे गुरु उन्हें उनके अमरनाथ आश्रम में पधारने हेतु आमंत्रित करना चाहेंगे।”

“मुझे नहीं मालूम। मैं श्री माताजी से पूछूँगी। “

एक सप्ताह बाद गुरूजी श्री माताजी के सहज-योग कार्यक्रम में आए और उन्हें एक साधारण गृहणी के रूप में देखकर भ्रम-मुक्त हो गए। गुरूजी ने सोचा की ये वो माताजी (आदिशक्ति) नहीं हो सकती। तथापि जब श्री माताजी ने आत्म-साक्षात्कार दिया, तो उन्होंने देखा की हरेक साधक की कुंडलिनी जाग्रत हो गई और उन्होंने श्री माताजी को साष्टांग-दंडवत प्रणाम किया। 

श्री माताजी ने उनके आश्रम आकर उन्हें आशीर्वाद देने की स्वीकृति प्रदान की। श्री माताजी उनके आश्रम में खुली जमीन पर बैठीं। जैसे ही आश्रम के सेवकों ने विरोध किया, श्री माताजी ने मुस्कान के साथ पूछा, “मैं जमीन पर क्यों नहीं बैठ सकती? मैं एक महाराजा के महल में हूँ।“

इनके, एक शिष्य ने श्री माताजी से अपने आज्ञा चक्र को शुद्ध करने की प्रार्थना की। श्री माताजी ने गुरूजी से पूछा कि उन्होंने क्यों नहीं शिष्य की आज्ञा को ठीक किया। 

उन्होंने उत्तर दिया, “मेरी आज्ञा को किसने ठीक किया। मैंने स्वयं इस पर मेहनत की। उसे भी अपने आज्ञा-चक्र पर कार्य करने दो, अन्यथा वह एक अयोग्य शिष्य होगा। आप माँ हैं, इसलिए आप ठीक करती हैं, आप केवल प्रेम हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं और इसीलिए आप यह कार्य दूसरों के लिए कर रही हैं, किन्तु मैं नहीं करूँगा! कोई भी गुरु अपने शिष्य की आज्ञा ठीक नहीं करेगा।”

श्री माताजी ने पूछा, “तब आप किसलिए गुरु बने हो?”

गुरूजी बोले, “क्योंकि मेरा कार्य उन्हें मार्ग-दर्शन प्रदान करना है। मैं एक गुरु हूँ। मैं उन्हें आगे बढ़ने के लिए सीढ़ी दे सकता हूँ। यह कार्य उनका है कि वे अपने उत्थान के लिए कठिन मेहनत करें। यदि आप उन्हें सब-कुछ आसानी से देंगे, तो वे कभी अपने आत्म-साक्षात्कार की कद्र नहीं करेंगे।”

श्री माताजी ने समझाया, “ऐसा नहीं है।आपको उन्हें एक मौका देना चाहिए। उन्हें ऊपर उठने के लिए और कुछ बनने के लिए (धरती माता की तरह)आज्ञा देनी पड़ेगी। धरती-माँ क्या करती है? वह बीज अंकुरित करती है और तब वह वृक्ष बनता है।”

गुरूजी ने तर्क करते हुए कहा, “किन्तु वे वृक्ष नहीं हैं, आप जानती हैं वे मानव हैं और उन्हें शैतान बनने की भी स्वतंत्रता है।”

श्री माताजी मुस्कराईं, “ठीक है, यदि वे शैतान हैं, आप बस देखते जाइये, मैं कैसे उन्हें संभालती हूँ।”

कुछ वर्षों बाद, गुरूजी कुछ सहज-योगियों से मिले और पूछा, “क्या आप जानते हैं, श्री माताजी ने आपको क्या प्रदान किया है।”

उन्होंने हामी भरते हुए कहा, “हाँ, हम जानते हैं।”

तब उन्होंने कहा, “तुम में से कितने लोग श्री माताजी के लिए अपना जीवन समर्पित करने को तैयार हो।”

जब इस प्रसंग की चर्चा हो रही थी, श्री माताजी ने हँसते हुए कहा, “मेरे लिए तुम्हें अपना जीवन देने की कोई आवश्यकता नहीं और न ही मुझे कुछ और चाहिए! शायद गुरूजी अपने शिष्यों से इस तरह से प्रश्न पूछते रहे होंगे। इस बार तुम स्वयं को जान लो, तुम मुझे भी समझ लोगे।”

अट्ठाइस (28) अगस्त 1973 को मुंबई में श्री कृष्ण पूजा का आयोजन हुआ। सहज-योगियों ने पूजा में प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग किया। प्लास्टिक से आने वाली चैतन्य-लहरियाँ भयंकर थीं। श्री माताजी बहुत ज्यादा परेशान थीं, किन्तु उन्होंने अपनी वाणी को नियंत्रण में रखते हुए, वो कुछ भी नहीं कहा, जिससे उनके नव-जात अज्ञानी बच्चों को बुरा लगे।

बाद में, उन्होंने पूजा में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के तत्वों के महत्व को समझाया कि चाँदी की चैतन्य-लहरियाँ बहुत अच्छी हैं। उन्होंने बताया, “प्रारम्भ में, इस पूजा से तुम्हें अपनी माँ का संरक्षण मिलता है और जब मेरे चक्र चलने शुरू होते हैं, वे तुम्हें प्यार की विशेष शक्ति प्रदान करते हैं और तुम्हारे चक्रों को आशीर्वादित करते हैं और उन्हें पूर्णतया परिपूर्ण करते हैं।”

अध्याय 6

सन 1974 में, श्री सी. पी. सर इंटरनेशनल मेरिटाइम ऑर्गनाईजेशन के सेक्रेटरी जनरल नियुक्त हुए और परिवार लंदन में शिफ्ट हो गया। श्री माताजी ने एक राजनयिक की पत्नी की हैसियत से नए रोल का अभिनय किया, जिसमें स्वागत और आवभगत मनोरंजनादि शामिल थे। श्री माताजी इन सबके तौर-तरीकों से वस्तुतः कष्टमय थी, “वे लोग हमेशा शराब की महफिलों में संलग्न रहते और हाथ मिलाते, हाथ मिलाते-मिलाते आपके हाथ टूट जाएंगे। इन सबसे मुझे ऐसी गर्मी (असहजता) लगती। प्रायः वे लोग गर्म-मिजाज होते थे और मुझे समझ नहीं आती कि क्या करें। ऐसे अवसरों पर मैं एक तरफ खड़ी होती और शर्म महसूस करती, किन्तु उन सबसे बदतर फ्रेंच (फ्रांसीसी) तरीका होता, जिसमें एक दूसरे को चूमना या किसी को गले लगाना था, आप चाहें या न चाहें।”

इन सब तौर -तरीकों के बावजूद वे एक अच्छी मेहमान-नवाज थीं और राजनयिक-सर्कल (राजनयिक परिवार) में प्रशंसनीय थीं। एक सायंकालीन भोज (dinner) में फ्रेंच राजदूत जो कि श्री माताजी कि बगल में बैठे थे, उन्होंने टिप्पणी की, “तुम औरतें केवल आपस में बातें करती हुई क्या करती रहती हो?”

श्री माताजी ने नम्रतापूर्वक जबाव दिया, “हमलोग तुमसे क्या बात करें। हमलोग शेयर्स, बैंकिंग, स्टॉक एक्सचेंज के बारे में कुछ नहीं जानतीं।”

“पश्चिमी रिवाज के तहत एक पत्नी का किसी और के पति के साथ बैठे रहना, यह चलन श्री माताजी को बहुत भद्दा लगा। एक मर्द और औरत के इस तरह (मर्यादा-विहीन) बैठे रहने की कोई आवश्यकता नहीं। आप इस तरह से घनिष्टता कैसे रख सकते हैं! यह बहुत आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि समाज के सर्वोत्तम लोग-परिष्कृत समझे जाने वाले लोग इस प्रकार की बहुत सतही और संकीर्ण मानसिकता वाले है।”

श्री माताजी ने एक मजेदार घटना का जिक्र किया, “एक बार एक समारोह में ड्रिंक्स (पेय) परोसी जा रही थी और मैंने एक शीतल-पेय (soft drink) ली। वहाँ सेवक काली पैंट, सफ़ेद शर्ट और बो-टाई पहने था- राजदूत की तरह ही। मैं नहीं बता सकती थी कि कौन क्या था। जैसे ही मैंने सॉफ्ट -ड्रिंक्स समाप्त की और खाली ग्लास राजदूत को दे दिया!”

सतत सरगर्मी से भरी सामाजिक जिन्दगी के बीच श्री माताजी ने हमेशा अपने मिशन के लिए समय निकाला। जब श्री सी. पी. सर विदेश यात्रा पर होते,श्री माताजी पब्लिक-मीटिंग्स को सम्बोधित करने का मौका निकाल लेती। इसी बीच हरेक वर्ष तीन महीनों के लिए वे भारत-प्रवास पर पधारतीं थीं। 

इंग्लैंड में एक दिन जब वे शॉपिंग के लिए गईं थीं,उन्हें एक यंग (जवान) लड़का फुट-पाथ (सड़क की पगडंडी) पर लेटा हुआ मिला। वह बहुत बीमार था और पेट भरने के पैसे भी उसके पास नहीं थे। वे उसे घर ले आईं और उसकी देखभाल की। कई दिनों से वह नहाया नहीं था, अतः उन्होंने उसे स्नान के लिए कहा और पहनने के लिए अपने पति के कपड़े दिए। जब श्री सी. पी. सर अपनी यात्रा से लौटे तो अपने कपड़े पहने हुए एक अजनबी को अपने सोफे पर बैठे देखकर आश्चर्य में पड़ गए। उस युवक ने श्री सी. पी. सर की ओर देखकर पूछा, “आप कौन हैं”?

श्रीवास्तव साहब ने चकित होते हुए प्रत्युत्तर में पूछा, “तुम कौन हो”?

श्री माताजी बहुत प्रसन्न थीं और उनका परिचय करवाया। उन्होंने उस बीमार युवक की कई सप्ताह सेवा की। उस युवा ने अपने दूसरे हिप्पी मित्रों को भी श्री माताजी से मिलवाया। वे सहज ही श्री माताजी की करुणा से आकर्षित हुए, उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिलने पर उन्होंने ड्रग्स वगैरह (नशीले पदार्थ) का सेवन करना छोड़ दिया। श्री माताजी ने अपने मातृ-वत प्रेम (वात्सल्य) से उनके चक्रों को पोषित किया, उनके लिए खाना पकाया, उन्हें पैसे दिए और उनके लिए लंदन में एक आश्रम में जगह ढूँढी। उन्होंने आश्रम के लिए पैसे जमा किए, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं थे। श्री माताजी का घर उनके लिए हमेशा खुला था और वे अपनी खुद की मदद के लिए स्वतंत्र थे, श्री माताजी का फ्रिज उनके लिए खुला था। श्री सी. पी. सर ने माँ की सुरक्षा में व देखरेख में, उन सातों हिप्पियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा और उनके कार्य को पूरी तरह समर्थन दिया, क्योंकि वे जानते थे कि श्री माताजी ईश्वर के लिए कार्य कर रहीं थीं। उनका हृदय और कोष (पर्स) श्री माताजी के मिशन के लिए (आत्म-साक्षात्कार प्रदान करने हेतु) खुला था। 

श्री माताजी ने समझ लिया कि ये सातों हिप्पी अपने-आप को कुछ ऐसी तरह प्रक्षेपित करने का प्रयास कर रहे थे, जो कि वे नहीं थे, क्योंकि उनका कोई परिचय या आत्म-सम्मान नहीं था। श्री माताजी ने उन्हें अपने हृदय से आत्म-साक्षात्कार पाने की शुद्ध इच्छा व्यक्त करने को कहा। उनके सहस्रार खुलने पर उन्हें आत्मा का आनन्द महसूस हुआ। परम् चैतन्य की अनुभूति ने उनकी आत्मा में विश्वास पुनः स्थापित किया।

श्री माताजी ने सांकेतिक रूप से हरेक शिष्य के चरणों का प्रक्षालन किया, ताकि वे भी अपने साधकों के प्रति विनम्र हों। 

“मैं एक प्रकार से आधार बनी कि उन्होंने ड्रग्स का सेवन छोड़ दिया, क्योंकि उन्होंने सहज-योग अपनाया। ड्रग्स के व्यसन में लिप्त लोगों को ठीक करना आसान नहीं था। एक तरह से यह अच्छा ही था क्योंकि मैंने उनके ऊपर कड़ी मेहनत की, जिससे मुझे एक अनुभव हुआ कि जटिलता से भरे लोग भी जब आत्म-साक्षात्कार की शुद्ध इच्छा व्यक्त करते हैं तब उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल ही जाता है।”

तीन वर्षों तक श्री माताजी ने उनके चक्रों पर बहुत कार्य किया, जो कि ड्रग्स के सेवन से ख़राब हो गए थे। श्री आदिशक्ति की शक्ति चमत्कारपूर्ण थी और वे लोग आलस्य (जड़त्व) से मुक्त हो चुके थे। कुछ समय बाद ही उन्हें नौकरियाँ मिल गईं । ‘फिंचली’ Finchley के एक अच्छे स्थान में रहने लगे। श्री माताजी को कैंब्रिज स्थित ‘क्रिस्चियन ओल्ड पीपुल्स होम’ संस्था ने साक्षात्कार के लिए बुलाया। श्री माताजी ने अपने शिष्यों (हिप्पियों) को दूसरे लोगों पर कार्य करने हेतु प्रोत्साहित किया और धीरे-धीरे वे लोग सहज-योग के स्तम्भ के रूप में परिवर्तित हो गये।

वे सदस्यता-शुरू करना चाहते थे और अंश-दान भी इकठ्ठा करना चाहते थे। श्री माताजी ने जबाव दिया, “सहज योग में कोई अंशदान नहीं है, कोई बाध्यता नहीं है, कोई सदस्यता नहीं है। तुम्हें सहज-योग में बने रहने के लिए कोई तरीका नहीं है। नहीं, कुछ नहीं! यह आपकी स्वतंत्रता है -सम्पूर्ण स्वतंत्रता!”

श्री माताजी के दिसंबर में भारत लौटने पर श्री वेणुगोपालन ने दिल्ली के कंस्टीट्यूशन-हॉल में कई सहज-योग कार्यक्रम आयोजित करवाये। उनकी शिकायत थी कि कुंडलिनी जागरण के अलावा उन्हें कोई सिद्धियाँ नहीं प्राप्त हुईं, जबकि धार्मिक-पुस्तकों के अनुसार कुण्डलिनी-जागरण से सिद्धियाँ प्राप्त होती थीं।

श्री माताजी मुस्कराईं, “तुम्हें अपना उत्थान चाहिए या सिद्धियाँ? तुम जो चाहो,प्राप्त कर सकते हो।”

अगले छः दिनों से ज्यादा समय श्री माताजी ने सहजयोग विषय का सीढ़ी-दर-सीढ़ी परिचय कराया- कुंडलिनी हमारे अंदर स्थित शुद्ध इच्छा है और जब तक कोई (साधक) सांसारिक इच्छाओं (अशुद्ध इच्छाओं) से मुक्त नहीं होता, उसका चित्त इन सांसारिक-इच्छाओं के चंगुल फँस जाता है। श्री माताजी ने साधकों का चित्त शुद्ध किया और उन्हें पैसा और (शक्ति) सत्ता की लालसा से ऊपर उठने योग्य बनाया। सातवें दिन उन्होंने साधकों को आत्म-साक्षात्कार दिया।

“दिल्ली का वातावरण (माहौल) ऐसा था कि लोग सत्ता और पैसों के पीछे भागते थे। मैं स्वयं से एक प्रश्न पूछती रहती थी कि ये लोग कब अपनी आध्यात्मिक-शक्ति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करेंगे। मुझे यह बहुत मुश्किल लगा। शुरुआत में निश्चित तौर पर समय लगा। उन्हें आत्म-साक्षात्कार देने के प्रयास में मेरे हाथ टूटने लगते थे। किसी की कुंडलिनी उठाना, किसी पहाड़ को उठाने के प्रयास जैसा था और उठाने के बाद कुंडलिनी पुनः नीचे गिर जाती थी। साधक लोग अजीब और मूर्खतापूर्ण प्रश्न करते थे। जब मैं उन्हें उत्तर देती, वे आश्चर्य में होते कि श्री माताजी ये सब कैसे जानती हैं? वे मेरी हमेशा परीक्षा लेते, क्योंकि वहाँ अहंकार बहुत ज्यादा भयंकर रूप से फैला हुआ है।”

श्री माताजी ने नौ फरवरी 1975 को मुंबई को पूजा का आशीर्वाद दिया। श्री माताजी ने बताया कि निर्विचार कैसे हुआ जाता है, “यदि आप निर्विचार नहीं हो पाते, तो ईश्वर से प्रार्थना करें,हे परमात्मा! मैंने जो भी अपराध किए हैं, कृपया मुझे क्षमा करें और उन्हें भी क्षमा करें, जिन्होंने मुझे तकलीफ दी है।”

जैसे-जैसे योगियों की संवेदनशीलता बढ़ी, उन्हें नए साधकों से बाधाओं की पकड़ आने लगी। श्री माताजी ने समझाया, “अभी तुम लोग इसका लेखा (हिसाब) रख रहे हो, किन्तु जब तुम साक्षी अवस्था में होते हो तुम बाधाओं को नहीं पकड़ते (बाधाएँ नहीं ठहरेंगी)।”

श्री माताजी के जन्म-दिवस के बाद वे लंदन के लिए रवाना हो गईं। राजेश शाह ने अमेरिका से फ़ोन किया कि उनके स्विस मित्र ग्रेगोर-दे-कलबरमैटेन आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए बहुत उत्सुक थे। श्री माताजी ने उन्हें लंदन आने के लिए कहा और उन्हें आशीर्वाद दिया। उसके बाद, उन्होंने स्विट्ज़रलैंड में सहज-योग का प्रसार किया और इस तरह सहज-योग प्यार के पंखों पर यूरोप में फैला।

रोम में पहले सहज-योग कार्यक्रम में सहज-योगियों ने किसी को आयोजन का प्रबंध करने के लिए कहा। जब श्री माताजी आयीं, तो उन्होंने पाया कि कार्यक्रम के पोस्टर नहीं लगाए गए थे। श्री माताजी ने इसे खेल की तरह आसानी से लेते हुए स्वयं दीवालों पर पोस्टर्स चिपकाने लगीं यद्यपि, काफी देर हो गई थी, कार्यक्रम में कोई भी नहीं आया। किन्तु उन्होंने इस अनुभव का मजा लिया और कहा कि शीघ्र ही वे अपने दिग-भ्रमित (खोये हुए) बच्चों को बचाने आयेंगी।

मार्च 1976 में दिल्ली में सहज-योग कार्यक्रम “कुंडलिनी-जागरण” पोस्टरिंग करते हुए विज्ञापित किए गए। एक शंकालु साधक जिसने विज्ञापन पढ़ा था, उसने सोचा कि श्री माताजी लोगों को बेवकूफ बना रहीं थीं और वह कार्यक्रम में श्री माताजी का मजाक बनाने आ गया। किन्तु उसकी कुंडलिनी जाग्रत हुई। उसने शीतल लहरियों को अनुभव किया और शांत हो गया। वह बहुत शर्मिंदा हुआ और रोया, मेरे संदेहास्पद विचारों के बावजूद अपने मुझे आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया। कृपया, मुझे क्षमा कर दीजिये।”

श्री माताजी ने उसे एक प्यार भरी थपकी दी और अनुग्रहपूर्वक उसे गुड़ी-पड़वा पूजा में तीस मार्च को शामिल होने कि अनुमति प्रदान की। 

श्री माताजी ने जाहिर किया कि पूजा, प्रार्थना, मन्त्र आदि चैतन्य-लहरियों को प्रसारित करने के लिए बनाए गए हैं। “मेरे शरीर को चैतन्य-प्रसारित करने के लिए, इससे सार-तत्व उद्धृत करने के लिए, परम्-चैतन्य इस सीमित-व्यक्तित्व के द्वारा असीम (चैतन्य-लहरियाँ) प्रसारित करते हैं। अतः पूजा के समय आपका पूरा चित्त (ध्यान) चैतन्य को प्राप्त करने में (अवशोषित करने में) होना चाहिए।”

अध्याय-7

सहज-योग कार्यक्रम की एक श्रृंखला में कई कार्यक्रम दिल्ली में फरवरी मध्य 1977 में आयोजित किए गए। वेदांत के एक शिष्य ने तर्क दिया कि आत्म-साक्षात्कार की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि वह पहले से ही तुर्यावस्था में था। 

श्री माताजी ने जवाब दिया, “यदि तुम तुर्यावस्था में हो, तो दूसरे व्यक्ति की कुंडलिनी को महसूस करना चाहिये।”

उसने अपना दोष स्वीकार करते हुए कहा कि वह यह महसूस करने में असमर्थ है। श्री माताजी ने उसे आत्म-साक्षात्कार का आशीर्वाद दिया और उसने चैतन्य-लहरियां महसूस कीं । यह एक विनम्र अनुभव था और वह उनके चरणों में समर्पित हो गया। 

इक्कीस (21) मार्च को श्री माताजी का जन्म-दिवस भक्तिपूर्वक मनाया गया। वे अपने बच्चों के प्यार से इतनी अभिभूत हो गईं, “मेरा चैतन्य मेरी आँखों से बहते आँसुओं के रूप प्रवाहित हो रहा है। यह सतत कार्यान्वित रहता है। मेरे लिए तुम्हारे प्रति बहते हुए प्यार को नियंत्रित करना सम्भव नहीं है।”

लंदन वापस आने पर श्री माताजी ने जान लिया कि सहज-योगियों में एक तरह का ठहराव (जड़त्व) आ गया है। यद्यपि उन्हें चैतन्य की अनुभूति हो गई थी, उन्होंने आत्म-साक्षात्कार को अपना हक समझ लिया था, किन्तु चैतन्य बहुत सूक्ष्म था और जिन्होंने चैतन्य पर ध्यान नहीं दिया या उसका उपयोग नहीं किया, उनके चैतन्य खो गए। 

वे अपने अहंकार की वजह से श्री माताजी को पहचानने में सफल नहीं हुए और जिन्होंने माँ को पहचान लेने का अधिकार जताया, “वे हमारे लिए बहुत महान हैं। हम बहुत दीन हैं, हमें अपने पापों से मुक्त होना है।”

श्री माताजी ने प्रति उत्तर दिया, “मुझे बहुत धीरे-से, आराम से, सही समय और सही बिंदु पर कार्य करना है।”

श्री माताजी बहुत ही धैर्यशील थीं और उन्होंने नवजात सहजी बच्चों का मार्ग-दर्शन किया, जितनी दूर वे घुटनों के बल रेंगकर आगे बढ़ सकते थे, “किन्तु तुम्हारी सफाई कौन करेगा? तुम्हारी देख-भाल कौन करने वाला है? ईश्वरीय प्रेम की कला कौन जानता है? तुम्हें अपना कठिन कार्य और जवाबदारी निभाना है। स्मरण रहे, यह समय सामूहिक चैतन्य का है, जहाँ तुम्हारे सभी मार्ग (धाराएँ) एक होकर, परमात्मा की कृपा में चैतन्य-स्वरुप बह रही हैं।”

श्री माताजी ने बड़ी कोमलता से उन्हें जाग्रत किया कि उन्होंने एक नन्हें पौधे से लेकर वृक्ष तक बढ़ने के संघर्ष को महसूस तक नहीं किया। उन्होंने सामूहिक नींव (आधार) को जब महसूस किया तब सहज-योग की ईमारत के स्तम्भों को बनाना शुरू किया। तब इन स्तम्भों पर सहज-योग ईमारत की छत ढाली गई, ताकि दुनिया-भर के हजारों सत्य-साधकों को शरण प्रदान की जा सके। कुछ ऑस्ट्रेलियन साधकों को उनका आत्म-साक्षात्कार मिला। ऑस्ट्रेलिया पहुंचने पर उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में सहज-योग का प्रसार शुरू किया। 

श्री माताजी और साधकों के बीच एक अद्वितीय रिश्ता विकसित हुआ। यह संबंध एक गुरु और शिष्य का नहीं, बल्कि एक प्यारी माँ और उसके नव जात शिशुओं का था, कितनी नाजुकता से वे अपने बच्चों का पालन-पोषण करती हैं। अभी तक सहजी लोगों की एक छोटी-सी टोली थी, जो अपनी माँ के साथ विभिन्न घरों तक जाया करती थी। सहज-योग के ये नए स्तम्भ चौबीस (24) अक्टूबर को कैक्स्टन-हॉल (Caxton Hall) में सहज-योग कार्यक्रम के लिए तैयार थे। दो सौ से भी अधिक साधकों को श्री माताजी की प्रेम-शक्ति ने आकर्षित किया और उसके प्रकाश और ऊष्मा को महसूस किया। श्री माताजी ने व्यग्तिगत रूप से उनके ऊपर कार्य किया। शाम तक, सहज-योग एक नए आयाम में प्रवेश कर गया।

ये सब साधक उनके शरीर के सेल्स (कोशिकाएँ) बन गए, श्री माताजी ने उन पर कार्य किया, उनकी नींव मजबूत करते हुए, उनके चक्रों की देखभाल करते हुए, उनके चित्त को स्थिर किया। उनके शरीर में स्थित इन सेल्स ने प्रकृति के चक्र का अनुसरण किया, सर्वप्रथम बीज बोया गया, तब वह अंकुरित हुआ, अपनी जड़ें मजबूत करता हुआ, अंत में पौधे के रूप में प्रकट हुआ। उन्होंने इन नन्हें पौधों को अपनी साड़ी की तहों में (वात्सल्य-मय) शरण प्रदान की। इन्हें जन्म देने में श्री माताजी को प्रसव-पीड़ा सहन करनी पड़ी, किन्तु उन्होंने अपना दर्द किसी पर जाहिर नहीं किया। वे महामाया थीं और यह सब उन्होंने अपने ऊपर लेने का निर्णय लियाl

श्री माताजी को ज्ञात था कि एक बार कुण्डलिनी सहस्रार पर स्थापित होने पर, तब वह उन्हें नई चेतना प्रदान करेगी, जिसके माध्यम से साधक लोग अपनी जटिलताओं को समझ पायेंगे और उनसे ऊपर उठ पायेंगे। उनकी कुंडलिनियों का प्यार उन्हें सही कार्यों को करने की शक्ति प्रदान करेगा। 

“किसी के चक्रों में बाधाएँ हैं, इसलिए मैं अपने चक्र को कार्य में लगा देती हूँ और इस तरह यह कार्यान्वित हो जाता है, किन्तु तुम्हें पता है मुझे कितना कठिन प्रयास करना पड़ता है? कितना भारी कार्य करना पड़ता है? यह एक कठिन कार्य है- आत्म साक्षात्कार प्रदान करना। मेरी कुंडलिनी को किसी चीज की जरुरत नहीं है, किन्तु फिर भी इसे तुम्हारी भारी कुंडलिनी को वहन करना पड़ता है और उसे उठाना पड़ता है। यह बहुत भारी चीज है, केवल वही इसे कर सकता है, जो तुम्हें असल में प्रेम करता है। वही एक कसौटी है, जो निष्ठुर हृदय प्रेम-विहीन है, इसे नहीं कर सकता। यह कार्य करना बहुत ज्यादा (दुष्कर) है। यह पूरा शरीर…..यदि मैं हरेक चक्र को जबरदस्ती सेंध लगाती हूँ, यह आसान नहीं है। किन्तु यह केवल (माँ का) प्यार व करुणा है, जो तुम्हारे और मेरे बीच है।

एक मराठी पत्र में श्री माताजी ने लिखा, “मैंने सामूहिकता की ईड़ा नाड़ी की सफाई करते हुए तीन दिनों तक कार्य किया। प्रत्येक दिन करीब पचास बार उल्टियाँ कीं और यह अच्छा हुआ कि यह शुद्धिकरण का कार्य सम्भव हो पाया।”

यह शारीरिक संरचना इस उद्देश्य को प्राप्त करने में उपयोग होना है, जिसके लिए यह शरीर धारण किया है और इसीलिए इसकी बीमारी और दूसरी तकलीफों के बारे में मुझे चिंता नहीं है। इसके विपरीत इस प्रकार के विभिन्न प्रयोग इस अवतरण में करने पड़ेंगे ही।

आप इतने उत्सुक और व्यग्र क्यों हैं- इस शरीर को लेकर? इस शरीर का और क्या उपयोग है? मुझे कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। मैं यही सब चाहती हूँ कि इस शरीर की प्रयोगशाला में कुछ तो कुछ कार्य (प्रयोग) चलते रहना चाहिए। समय कम है, जबकि जो कार्य होनेवाला है, बहुत बड़ा है। 

तुम इड़ा नाड़ी का शुद्धिकरण आत्म-साक्षात्कार के बल पर नहीं कर सकते। मुझे ज्ञात था, यह इसकी सफाई अंदर से होनी थी। 

पुरातन काल में सभी साधकों को यह क्रिया लगातार करनी पड़ती थी, ठीक अपने बाल्यावस्था से लेकर गुरु-आश्रम में एकांत में करनी पड़ती थी। क्योंकि अब तुमने सहज-सामूहिकता प्राप्त कर ली है, मैंने इसे सामूहिक-चेतना में कर दिया है।

ईड़ा नाड़ी की सफाई के बाद, मैं पिंगला नाड़ी को जाग्रत कर रही हूँ…..सामूहिकता की जाग्रति के साथ, तुम्हारे कार्य की सहभागिता में आपका साथ बहुत-लोग देंगे।”

जब श्री माताजी से सहजयोग में “Dos” and “Donots” “करें और न करें” के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने मुस्कराते हुए बताया, “करें और न करें” सहज में बहुत सामान्य हैं, (सरल हैं)। पहले तो, यदि कोई साधक नहीं जुड़ पाया, तो उसे जुड़ना चाहिए। और यदि कोई साधक नहीं जुड़ा है, तो उसे सहजयोगी होने का उपक्रम (नाटक) नहीं करना चाहिए। यदि आप मेन्स (Mains) से नहीं जुड़े हैं और एक निष्क्रिय (Dead) फोन से किसी को कॉल लगा रहे हैं, तो वह कार्यान्वित नहीं हो पायेगा।”

कुछ सहज-योगियों ने नए मन्त्र और नए तरीके (कायदे) शुरू कर दिए थे। उन्होंने चेताया (आगाह किया), “सहज योग में नयी चीजें बनाने की कोशिश मत करो। ‘कुछ नया शुरू होना चाहिए’ यह मान्यता आधुनिक-मस्तिष्क की उपज है। सहज योग सनातन और परम्परागत है। अब तुम्हें फल की प्राप्ति हो गई, फल के बारे में कुछ नया क्यों होना चाहिए। मैंने तुम्हें ठीक वही बताया है- क्या करना है और कैसे करना है।”

अध्याय-8

सन 1977 के नवम्बर के अंत में श्री माताजी के मुंबई वापस पहुँचने पर, उन्हें पता चला कि श्रीमती महतानी अभी-अभी हिप-बोन-फ्रैक्चर (कूल्हे की हड्डी के टूटने) के ऑपरेशन से गुजरी हैं। डॉक्टर्स ने उन्हें कहा कि वे अपने पैरो पर नहीं चल पायेंगी। श्री माताजी ने अपने चरण-कमलों का स्पर्श उनके चोटिल-कूल्हे से किया और उन्होंने चलना शुरू कर दिया…..जय श्री माताजी!

अभी तक श्री माताजी ने सामूहिक आत्म-साक्षात्कार के कार्यक्रम स्वयं किए थे। सहज-योगी जनों को आत्म-साक्षात्कार देने का आत्म-विश्वास नहीं था। जब वे एक कार्यक्रम के लिए नासिक जा रहीं थीं, तब उनकी कार खराब हो गई। कार्यक्रम स्थल पर बहुत बड़ा जन-समुदाय इकठ्ठा हो चुका था और बड़ी व्यग्रता होने लगी। सहज-योगियों को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय, अतः उन्होंने आत्म-साक्षात्कार देना शुरू कर दिया। इस तरह उनकी समझ में आ गया कि वे भी आत्म-साक्षात्कार दे सकते हैं। श्री माताजी बड़ी प्रसन्न थीं कि आखिरकार उनके बच्चों ने अपनी कुण्डलिनी की शक्तियों को समझ लिया था।

समय आ गया था कि बच्चों को अगले सोपान (पायदान) पर चढ़ाया जाय। सन 1978 मार्च में श्री माताजी भारतीय और विदेशी सहज-योगियों “40”के एक समूह को हरिद्वार ले गईं । वे गंगा तट पर स्थित एक धर्मशाला में रुके। सुबह/शाम श्री माताजी ने उन्हें गहन ध्यान करवाया। उन्होंने कहा कि, “कुंडलिनी भी ठीक गंगाजी कि तरह बह रहीं हैं, जैसे आप इसके साथ अपने आप को बहने हेतु तैयार करते हैं, तुम अपने इर्द-गिर्द स्थित प्रकृति की हर कृति का आनंद लेने लगते हो और निर्विचारिता में उतर जाते हो। तुम निर्विचारिता से ध्यान की परिपक्वता में उतरते हो। सहज-योग केवल निर्विचार चेतना में कार्य करता है और वर्तमान निर्विचारिता का संज्ञान है।”

और सहज-योगियों ने स्वयं को निर्विचारिता के साथ बहना स्वीकार कर लिया। यह अनुभव भोजन बनाने, भोजन करने और चलने-फिरने में सतत बना रहा, किन्तु उनका चित्त हमेशा श्री माताजी पर सतर्कता से बना रहा। 

श्री माताजी मुस्कराईं, “तुम लोग ताओ की सरिता में प्रवेश कर चुके हो। इसकी निर्विचार-अवस्था का बोध तुम्हें शांति प्रदान करेगा और जीवन के नाटक का साक्षी-अवस्था में मजा उठाओगे। 

धीरे-धीरे, श्री माताजी ने गंगाजी के किनारे हर की पौड़ी पर पदार्पण किया और अपने बच्चों को उनके चरण-कमलों के प्रक्षालन की अनुमति प्रदान की। अचानक (मारे ख़ुशी के) गंगाजी का जल-स्तर बढ़ गया और श्री माताजी के चरण-कमलों के चारों ओर फ़ैल गया। 

इसी तरह का चमत्कार सन 1983 की सहस्रार पूजा पर मुंबई के नजदीक गोरिया-क्रीक (गोरिया का समुद्री किनारा) पर हुआ था। पूजा की समाप्ति पर ज्यादातर योगी जा चुके थे और सूर्यास्त का समय था। श्री माताजी गढ़वाली-साड़ी पहने समुद्र तट पर दिखीं। वे कुछ कदम समुद्र की ओर बढ़ीं और समुद्र पर गहन दृष्टि डाली। योगियों ने पूजा की सामग्री हार और नारियल समुद्र को अर्पित किया। श्री माताजी ने समुद्र में प्रवेश किया और विनोदपूर्वक रेत से श्री गणेश-मूर्ति बनाना शुरू किया। तब उन्होंने बड़े चाव से उन पर कुंकुम चढ़ाया और आशीर्वाद दिया। वेनिस के तारे ने श्रीमाताजी का अनुसरण किया और आकाश की गुलाबी रंग की प्रच्छाया सागर की गहराई में समा गई। उन्होंने सागर को अभिप्राय-पूर्वक गुप्त (सूक्ष्म) संचार-माध्यम से सम्बोधित किया। सागर की तुरंत प्रतिक्रिया हुई और दूर से ही लहरों ने उठकर श्री माताजी के चरण-कमलों को चूम लिया और तब सागर की लहरें बड़े मजे से केवल वापस उछलने के लिए पीछे हटीं। श्री माताजी ने कुछ कदम पीछे लिये, किन्तु सागर उनके चरण-कमलों को छूने हेतु आगे बढ़ा। समुद्र ने श्रीमाताजी का पूजन इस प्रकार से सात बार किया। लहरें उठतीं, उमड़ती हुई आतीं, किन्तु उनके चरण-कमलों को धोती हुई, पूर्णतया शरणागत हो,शांत हो जातीं। सातवीं बार, जैसे ही उनके द्वारा बनाये गए श्री गणेश की मूर्ति को सादर अपनी गोद में बिठाकर ले गईं, श्री माताजी के मुख-मंडल पर एक दैवीय मुस्कराहट चमकी, जैसे वे अपने बेटे श्री गणेश को उनके नानाजी की गोद में डालकर प्रसन्न थीं।

सन 1978 अट्ठारह (18) दिसंबर को श्रीमाताजी ने क्रिसमस-पूजा, लंदन में अंग्रेजों का सामूहिक-आज्ञा चक्र खोला। उसके तुरंत बाद श्री माताजी दिल्ली के लिये रवाना हुईं। सन 1979 जनवरी में उनके कार्यक्रम दिल्ली में हुए। वहां वे अपनी बेटी साधना और अपने दामाद श्री रोमेल वर्मा के निवास ‘सर्वप्रिय विहार’ पर ठहरीं। उनके दामाद ने उन्हें देवी-स्वरूप में मान्यता दी और सादर सभी प्रबंधों की देखरेख की। 

परन्तु, दिल्ली के सहज-योग प्राप्त करने की शुद्ध-इच्छा रूपी बीज अभी भी अहंकार के आवरण (खोल) में बंद था और वे इसे तोड़ना चाहतीं थीं। “वास्तव में यह मेरी शुद्ध इच्छा थी कि वहाँ के लोगों में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के प्रति झुकाव होना चाहिए- केवल किंचित मात्र। यदि उन्होंने मुझे एक छोटा मौका दिया होता, तो यह परमात्मा का प्यार इतना सूक्ष्म है, उनके हृदयों तक प्रवेश कर गया होता, किन्तु उन्होंने ऐसी कोई रूचि नहीं दिखाई। वे पत्थर की तरह शुष्क-हृदय थे, आप उनसे बातचीत भी नहीं कर सकते थे। आप उन्हें कुछ भी नहीं कह सकते थे और वे सोचते कि उनको पार पाना आसान नहीं था- यह विषय का अत्यंत निम्नतम हिस्सा था।

श्री माताजी ने दयालुतापूर्वक उनके हृदयों को खोलने का निश्चय एक पूजा से किया। पूजा वर्मा-दंपत्ति के निवास की (दर्शक दीर्घा) (terrace) खुली छत पर हुई। एक जर्मन लेडी जो विपश्यना करती थी, पूजा में शरीक होना चाहती थी। श्री माताजी ने कृपा करके अनुमति प्रदान की और कहा कि उसे पहले आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना चाहिये। सहज योगियों ने उसके ऊपर एक घंटे से ज्यादा मेहनत की और अंततः प्रयास छोड़ दिया। वह पूजा नहीं अटेंड कर पायी, बाद में ज्ञात हुआ कि उसकी मौत कैंसर से हो गई।

श्री माताजी ने पूजा के प्रोटोकॉल (शिष्ट-नियम) समझाये। करीब पच्चीस (25) सहज-योगी थे और यह उनकी पहली पूजा थी। दोपहर का समय था,पता नहीं कहाँ से बादल छा गए और धूप से सबको राहत प्रदान की। उनका मुख-मंडल तेजोमय था। अचानक उनकी ऑंखें फ़ैल गईं (eyes dilated) और हरेक आत्मा को भेद गईं । ऐसा लगा कि अनेक जन्मों की गहन- निद्रा से सभी आत्माएँ जाग्रत हो उठी हों।

पूजा के दौरान श्रीमाताजी ने प्रत्येक सहजी को (आत्मा को) उनके चरण-कमलों का अभिषेक दूध, दही, घी, शहद ,शक़्कर और जल से कराते हुए आशीर्वादित किया। सहज-योगियों ने उन्हें फूल और जेवरों से श्रृंगारित किया। सभी सहजियों ने उन्हें साड़ी भेंटकर धन्यवाद दिया। आरती के बाद श्री माताजी खड़ी हुईं और सामूहिकता को आशीर्वादित किया, उनकी एक हथेली सामूहिकता की ओर और दूसरी हथेली से अभय (संरक्षण) प्रदान किया। वे बहुत प्रसन्न थीं और हरेक को कुछ माँगने हेतु इच्छा प्रकट करने के लिए कहा और अनुग्रहपूर्वक वरदान दिए। सामूहिकता का हरेक परमाणु अपने स्रोत (विराट) के साथ प्रतिध्वनित (गुंजायमान) हो उठा। 

इसके बाद वे यू. के. (इंग्लैंड) के लिए रवाना हो गईं। सहज- योगियों को अपने घर पर उनके माता-पिता के क्रोध का पात्र बनना पड़ा और आश्रम को पड़ोसियों ने उत्पीड़ित किया। श्री माताजी ने गुप्त तरीका बताया कि जो लोग जिद्दी हैं, हठी हैं, उनका हृदय -परिवर्तन कैसे किया जाय। लंदन में एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, “सर्व-प्रथम तुम्हें अपने हृदय में अति विनम्र होना है और वहीं से तुम दूसरों के हृदय पर कार्य कर सकते हो। केवल इस प्रेम-शक्ति का एक बंधन डालिये और आप देखेंगे कि व्यक्ति कैसे पिघल जाता है। हमें अपनी कुशाग्रता अहंकार हरेक चीज़ यहाँ तक कि संस्कार-जनित बन्धनों को अपने हृदय में गला देना चाहिए। अतः यह बहुत आसान चीज़ है, यदि तुम्हें पता हो कि किस प्रकार उनके हृदय के द्वारा उन तक पहुंचा जाता है और यह तभी सम्भव है, यदि आप स्वयं सच्चे (असली) हैं, क्योंकि असलियत ही वह वस्तु है (तत्व है), जिसे हृदय मानता है, समझता है।”

अक्टूबर में श्री माताजी मुंबई नवरात्रि के लिए वापस लौट आईं। तेईस (23) अक्टूबर को एक कार्यक्रम में उन्होंने कुंडलिनी और श्री कल्कि (श्री विष्णु के दसवें अवतरण) के संबंध में समझाया। उन्होंने ग्यारह-विध्वंसक-शक्तियों (एकादश रूद्र की शक्तियों) के बारे में रहस्योद्घाटन किया, जो कि साधक के कपाल पर विद्यमान हैं। “यदि कल्कि के चक्र में पकड़ हैं, पूरा सिर ही नाकाबंदी करता (गति अवरोध प्रकट करता) है और कुंडलिनी के उत्थान को बाधित करता है, ऐसा व्यक्ति प्राकृतिक आपदा, कैंसर जैसी बीमारी से समाप्त होने वाला है- यदि आप कुछ बुरा/अनैतिक कर रहे हो और तुम इसे अपने हृदयों के हृदय में जानते हो कि मैं कुछ गलत/बुरा कर रहा हूँ, कृपया, इसे मत करो, अन्यथा तुम्हारी कल्कि की शक्ति लुप्त हो जायेगी।”

अध्याय-9

सन 1980 के दिसंबर में पाश्चात्य सहज- योगियों के प्रथम भारत-यात्रा (भ्रमण) के दौरान उनके रहवासी टेंट्स (तम्बू) राहुरी के श्री धूमाल साहब के गन्ने के खेतों में खड़े किये गए थे। श्री माताजी के पूर्वजों ने राहुरी में शासन किया था। उन्होंने बताया कि नाथ-पंथी वहाँ योग-साधना करते थे। 

श्री धूमाल ने पूछा कि नाथ-पंथी कौन थे ?

श्री माताजी ने स्पष्ट किया, “अभी तक मैंने तुम्हें बताया था कि मनुष्य का विकास श्री विष्णु के द्वारा कैसे किया गया था। इसके आलावा आदि-गुरु के अद्वितीय अवतरण भवसागर में हुए। आदि-गुरु के कई अवतरण कई बार मानवता के मार्ग-दर्शन हेतु तथा भवसागर से पार उतारने हेतु हुए। इन गुरुओं ने नए व्यक्तित्वों का विकास किया, जो शिष्यत्व के मूल-सिद्धांत के साथ सहायता के वास्ते स्थायी प्रबंध से जुड़े थे, जो आदि-गुरु के महान शिष्यों के रूप में प्रकट हुए। आदि- गुरु के द्वारा बनाए गए शिष्य मनुष्यों में से ही थे, किन्तु उन्होंने अपने गुरुओं की सहायता से निर्वाण प्राप्त किया था या अपने स्वयं के प्रयासों से भी निर्वाण प्राप्त किया था। ये लोग ईश्वरीय अवतरण नहीं थे और इन्हें अवधूत के नाम से जाना जाता था।” 

“वे इस धरती पर दूसरे व्यक्तित्व के रूप में प्रकट हुए, सोलोमन, डेविड, गुरु वसिष्ठ, जॉन बपतिस्मा, दूसरे और तीसरे जोरास्टर, मार्कण्डेय, गगनगढ़ महाराज और नव-नाथ। नव-नाथ को पता था कि कुंडलिनी जागरण ही वह तरीका है, जिसके द्वारा आप अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। उनका चित्त प्रकाशित था और वे अपना चित्त किसी भी पदार्थ या वस्तु पर डाल सकते थे और वह कार्यान्वित होती थी। उदाहरण के लिए चांग-देव(अवधूत) अपना ध्यान अग्नि-तत्व पर रखते और भोजन पका लेते। उन्हें कुंडलिनी का सही ज्ञान था और वे सुदूरवर्ती देश बोलीविया और यूक्रेन कुंडलिनी जागरण प्रदान करने हेतु गए थे।”

श्री धूमाल :- क्या उनकी पूजा होनी चाहिए?

श्री माताजी :- केवल देवी/देवताओं की पूजा होनी चाहिये।

श्री धूमाल :- क्या भारतवर्ष में कोई अवधूत जन्मे थे?

श्री माताजी :- अब सहज-योग ने वह माहौल बना दिया है, क्योंकि बहुत-सी महान आत्माएँ जन्म लेंगीं।

श्री धूमाल श्री माताजी को हर शाम पास के गाँव में सहज-कार्यक्रम हेतु ले जाते थे। गाँव के ठीक पहले उन्होंने एक बहुत गरीब विधवा की टूटी-फूटी झोंपड़ी में रुकने को कहा और उन्होंने उस महिला द्वारा अर्पित भोजन मिटटी के बर्तन में ग्रहण किया।

कार में वापस बैठने पर श्री धूमाल ने जानना चाहा कि उन्होंने उस भिखारिन के साथ इतना 

समय क्यों बिताया।

श्री माताजी ने अपनी दुःख भरी वाणी में कहा, ”मेरे बच्चे ऐसा मत कहो, वो मेरे एक अति प्यारे बच्चे की विधवा पत्नी है।”

उनके गाँव पहुँचने पर श्री धूमाल को गाँव-वालों से पता चला कि उसके दिवगंत पति देवी माँ के एक समर्पित भक्त थे। 

उनकी पुरानी डीजल एम्बेसडर धूल-भरी गढ्ढेदार सड़क पर धक्का-धुक्की करती हुई 30 कि. मी./घंटे की गति से अगले गाँव पहुँची। गाँव की सड़क की हालत से बेखबर श्री माताजी का चित्त कहीं और था, “इन सैर -सपाटे हेतु बनी पहाड़ियों की सुंदरता तो देखो।”

श्री धूमाल ने पूछा, “सुंदरता कहाँ है? ये पहाड़ियाँ इतनी रूखी-सूखी हैं, वहाँ कोई पेड़ भी नहीं हैं।”

श्री माताजी ने कहा, “वही तो सौंदर्य है, केवल उनके नमूने तो देखो।”

जहाँ-जहाँ सड़कें नहीं थीं, उन्होंने बैलगाड़ी की यात्रा का लुत्फ़ उठाया- सुदूर गाँवों तक। यदि वहाँ संडास (प्रसाधन) नहीं थे, उन्होंने बाहर जंगल में जाने में गुरेज नहीं किया। 

“मुझे कहीं भी सोने में परेशानी नहीं, कुछ भी खाने की चिंता नहीं। मैं इन सब चीजों की परवाह नहीं करती। यह एक सत्य (वास्तविकता) है, क्योंकि यह सब इतना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा सोचती हूँ। किन्तु बिना सोचे विचारे मैं ऐसी ही हूँ, किन्तु सहज-योगी भी ऐसे ही बन गए हैं, यह एक चमत्कार है कि मानव ने अपना चित्त अपनी आत्मा पर घुमा दिया है।”

एक जन-कार्यक्रम से लौटते वक्त नए वर्ष की पूर्व-संध्या को आकाश में प्रकाश की एक किरण ने उनकी कार का अनुसरण किया। मध्य-रात्रि के लगभग यह बहुत चमकीली हो गई। आकाश को ढँकती हुई गुलाबी रंग की वर्णावली की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अवलोकन करते हुए टिप्पणी की, “आज आकाश चैतन्य से भरपूर है, कलियुग की वेदना विदा हो रही है और सत्ययुग पदार्पण करने का यत्न कर रहा है। परम् चैतन्य सत्य-युग की प्रभात वेला से उत्साहित हो रहा है और आकाश को चैतन्य से भरते हुए यह गुलाबी-वर्ण की आभा बिखेर रहा है। परम् चैतन्य पहले कभी इतना क्रियाशील नहीं रहा था,किन्तु कृत-युग में यह बहुत प्रभावशाली बन गया है और यह सब सुंदरता भरी रचनाएँ अपने प्यार को प्रकट कर रही हैं। अब सहज-योग दूर-दूर तक फैलेगा।”

एक सुबह श्री धूमाल के कहा कि रात में दो चोरों ने उनके फार्म-हाउस के ताले तोड़े। उन्हें तब आश्चर्य हुआ, जब वे दोनों चोर सुबह श्री धूमाल से माफ़ी माँगने लगे। उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि उनके दो हट्टे-कट्टे, भारी-भरकम वाचमैनों ने उनकी अच्छी धुलाई की, जैसे ही उन्होंने सेंध लगायी थी। किन्तु श्री धूमाल ने कभी कोई वाचमैन नहीं रखा था। इस प्रसंग को सुनकर श्री माताजी बार-बार हँसती रहीं, “तुम्हें चिंता करने की कोई जरुरत नहीं,किन्तु तुम्हें मुझे मानना होगा कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। मेरे गण तुम सबकी रक्षा कर रहे हैं।”

हाथ जोड़े श्री धूमाल ने श्रीमाताजी को उनके वात्सल्य के बंधन में रखे रहने के लिए धन्यवाद दिया।

इस प्रसंग के बाद दूसरे योगियों ने भी उनके साथ घटी चमत्कारी कहानियों का वर्णन किया। एक बस, यात्रा के दौरान पलटी खा गई और पहाड़ी के नीचे गुलाटी मारती हुई गिरी ,तो भी कोई हताहत नहीं हुआ। ड्राइवर ने कहा इस बस में ऐसा कोई व्यक्ति बैठा होना चाहिए, जिसकी वजह से दूसरे सभी लोग बच गए। तब उन्होंने ध्यान दिया कि एक सहज योगी श्री माताजी का लॉकेट पहिने हुए था। उन्होंने श्री माताजी को धन्यवाद दिया और अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया।

डॉ निगम ने मजाक किया, “मेरी लकवे की बीमारी को धन्यवाद, जिसकी वजह से मुझे सहजयोग मिला। मैंने सहज-योग अंगीकार किया!” उन्होंने कहना शुरू किया, कि कैसे अपने पैरेलैटिक अटैक (लकवे के दौरे) के बाद वो हिल भी नहीं पाते थे। कई महीनों की तकलीफ के बाद, कुछ मित्रों ने उन्हें सहजयोग में कोशिश करने की सलाह दी। उन्हें आत्म- साक्षात्कार मिलने के बाद, वे अपने बारे में सब कुछ जानते थे। 

श्री प्राण महाजन एक फ्लाइट इंजीनियर ने इंडियन एयर-लाइन्स के हवाई जहाज का अपना अनुभव सुनाते हुए कहा,जब आतंकवादियों ने उनके जहाज को लाहौर के लिए अपहृत (अपहरण) किया। वे कॉकपिट के अंदर थे और अंदर से दरवाजा लॉक कर चुके थे। आतंकवादियों ने दरवाजे को तोड़ने के लिए कई गोलियाँ दागीं। गोलियाँ उनके शरीर के पास से गुजर गयी, किन्तु उन्हें कई गोली नहीं लगी।

वे श्री माताजी से प्रार्थना करते रहे। संयोगवश वे दरवाजे को तोड़कर-खोलने में सफल हो गए। वे इतने गुस्से में थे कि उन्होंने उन पर चाकुओं से कई वार किए, चमत्कारिक-रूप से चाकुओं की धार उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पायी। अंततः ग्राउंड-सिक्योरिटी-फ़ोर्स ने आतंक-वादियों को काबू में कर लिया और महाजन जी को अस्पताल में भर्ती करवाया। अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वे श्री माताजी को अपने जीवन की रक्षा के लिए धन्यवाद देने के लिए हवाई-जहाज से पहुँचे। श्री माताजी मुस्कराईं, “वास्तव में मैं कुछ भी नहीं करती, वस्तुतः मैं निष्क्रिया हूँ, किन्तु प्रतिवर्त-क्रिया (सहज-प्रतिक्षेप) होती है। जो भी घटित हो रहा है, यह सहज -प्रतिक्षेप है। मेरे तुम्हें आत्म-साक्षात्कार देने के बाद यह चीज कंप्यूटर की तरह से प्रबंधित होती जाती है। मेरे लिए एक सम्पूर्ण-संस्थान (परम चैतन्य) कार्यान्वित रहता है, अतः मुझे चिंता करने की जरुरत नहीं होती। किन्तु, एक चीज वहाँ है, वह है मेरा साक्षी-भाव (दृष्टा-भाव) जो भी मैं साक्षी भाव से देखती हूँ, वह परम-चैतन्य की शक्ति को सूचित होता है और कंप्यूटर की तरह वह सहज-प्रतिक्षेप पर कार्यान्वित होता है।”

एक सहज-योगिनी ने श्री माताजी से ‘मियां की टाकली’ गाँव के सहज-कार्यक्रम में लिए गए चमत्कारी फोटोग्राफ के बारे में पूछा।

श्री माताजी ने स्पष्ट किया कि फोटो में प्रकाश आता दिख रहा था, क्योंकि सूफी संत अपनी कृपा बरसा रहे थे। वहाँ सूफी संत की समाधि है (उन्हें वहाँ दफनाया गया था)। वे प्रकाशमय हो गए थे। जब श्री माताजी ने आत्म-साक्षात्कार दिया, तो प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने श्री माताजी पर प्रकाश डालना शुरू कर दिया। यह प्रकाश (पुंज) क्रम-वार खींचे गए छः फोटोग्राफ्स में स्पष्ट दिख रहा है, किन्तु सातवें फोटोग्राफ में श्री माताजी ने अपना हाथ ऊपर उठाते हुए प्रकाश को रोक दिया और सातवें फोटोग्राफ में प्रकाश (पुंज) गायब हो गया। 

श्री माताजी मार्च 1981 में लंदन वापस चलीं गईं। लंदन में चेलशम रोड पर एक कार्यक्रम में उन्होंने योगियों को स्मरण कराया, “किसी को भी यह नहीं सोचना चाहिए कि वे मुझे किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा प्यार करते हैं। कुछ लोग कर्म-कांड के बारे में ज्यादा जानते हैं, दूसरे प्रोटोकॉल के बारे में ज्यादा जानकारी रखते हैं, किन्तु इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं उसे जानती हूँ, जो मुझे प्यार करता है। जो दूसरों को प्यार करते हैं, वे ही मुझे बहुत प्यार करते हैं।”

गुरु -पूर्णिमा पर, एक पूजा आयोजित की गई थी, गुरु के (विधि) कानून को आरम्भ करने के लिए। श्री माताजी अपने बच्चों के समर्पण से प्रसन्न थीं और उन्होंने बच्चों के द्वारा भेंट की गई साड़ी पहनी। उन्होंने बच्चों को सलाह दी कि उन्हें अपना भवसागर शुद्ध करने के लिए उन्हें अपने हृदयों में स्थापित करना होगा और उन्हें आगाह किया कि श्री माताजी के साथ किसी प्रकार की स्वतंत्रता (छूट) न लें। “मैं अति अधिक मायामयी हूँ। एक क्षण तुम्हें हँसाती हूँ और उसके बारे मेँ भूल जाती हूँ, क्योंकि मैं तुम्हारी स्वतंत्रता की परीक्षा ले रही हूँ- ऐसा करके, मैं तुम्हारे साथ इस तरह से खेल (लीला) करती हूँ कि तुम हर क्षण भूलते रहोगे कि मैं तुम्हारी गुरु हूँ ……..मैं निरीच्छ हूँ और पूर्णतया निष्पाप हूँ। मैं नहीं जानती कि लालच (प्रलोभन) क्या है, किन्तु इसके बावजूद यह कि मैंने स्वयं को बहुत सामान्य बना लिया है, क्योंकि मुझे तुम्हारे सामने इस तरह से दिखना है कि तुम समझ लो कि विधि (नियम) क्या हैं।”

पतझड़ के मौसम मेँ श्रीमाताजी वैन्कोवर (कनाडा) और अमेरिका की एक छोटी यात्रा पर गईं । 

तेईस (23) दिसंबर सन 1981 को लंदन मेँ क्रिसमस पूजा आयोजित की गई। श्री माताजी ने सहज- योगियों से भावनात्मक बंधनों से परे जाने के लिए प्रवृत्त होने को कहा और अपना उत्थान ध्यान -धारणा से प्राप्त करने को कहा, “केवल भावनात्मक-बंधन करुणा होनी चाहिए। सहज मन्त्रों पर प्रभुत्व प्राप्त करो। देवी-देवताओं को प्रसन्न करो, तब तुम्हारे दिमागी बंधन छूट जायेंगे।”

इसके कुछ समय बाद श्री माताजी भारत के लिए रवाना हुईं । सत्रह (17) जनवरी 1982 को अंतर्राष्ट्रीय रोटेरियन क्लब ने श्री माताजी को उनके ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ़ हारमनी’, को सम्बोधित करने के लिए अशोका होटल, नई दिल्ली में आमंत्रित किया गया। कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता लार्ड टेम्पलेटन, ग्रेट ब्रिटेन के मुख्य न्यायाधीश ने की। रोटरी क्लब पुणे के अध्यक्ष को उनका आत्म-साक्षात्कार मिला। अगले दिन, श्री माताजी पुणे की यात्रा पर जा रही थीं और रोटरी क्लब अध्यक्ष अपने ह्रदय को स्वस्थ कराने के लिए वे श्री माताजी के पीछे चल दिए, जैसा कि वे अपनी ह्रदय की शल्य चिकित्सा हेतु ह्युस्टन जा रहे थे।

श्री माताजी ने उनके हृदय को चैतन्यित किया और मात्र पंद्रह मिनटों में उन्हें निरोग कर दिया, किन्तु उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी आसानी से वे रोग-मुक्त हो सकते थे। अपने ह्रदय की बाय-पास सर्जरी हेतु वे ह्युस्टन चले गए।

जब शल्य-चिकित्सक (सर्जन) ने उनकी एक्स-रे रिपोर्ट देखी, वे बोले, “तुम किसलिए आए हो। “वे बोले, “स्पष्टतया (बेशक) मैं अपने ह्रदय की बाय -पास सर्जरी के लिए आया हूँ।”

सर्जन आश्चर्यचकित हो बोले, “आप पूर्णतया स्वस्थ हैं, इस सर्जरी की कोई जरुरत नहीं है।”

केवल तभी उन्होंने स्वीकारा कि श्री माताजी ने उनके ह्रदय को स्वस्थ कर दिया था। जैसे कि स्वस्थ होने पर उन्होंने सहज-योग को स्वीकार कर लिया था,उन्होंने सोचा सहज-योग बीमारियों से मुक्त होने के लिए है और उन्होंने श्री माताजी के पास रोगियों की भीड़ को भेजना शुरू किया। श्री माताजी ने कहा कि उनके पास रोगियों को भेजने की कोई जरुरत नहीं थी। उन्हें सहज-योग केंद्र पर जाकर आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना चाहिए। वे श्री माताजी के फोटोग्राफ के समक्ष स्वस्थ हो जायेंगे। यद्यपि, वे श्री माताजी के फोटोग्राफ के समक्ष समर्पण नहीं कर सके। श्री माताजी ने उनका अहंकार गिरते देखा और उन्हें लोनावाला की श्री महाकाली पूजा के लिए पच्चीस (25) जनवरी 1982 को नम्रतापूर्वक आमंत्रित किया, जहाँ उन्होंने उन्हें प्यार से समझाया, “मैं तुम लोगों से कुछ नहीं चाहती, सिर्फ यही कि तुम मेरे प्यार (वात्सल्य) को स्वीकार करो। समर्पण का ठीक अर्थ यही है कि तुम लोग अपने हृदयों को मेरे प्यार को प्राप्त करने के लिए खोल दो। अहंकार को छोड़ दें, यही सब कुछ है और (समस्या हल होगी), यह कार्यान्वित होगा। 

अचानक वे शीतल-लहरियों में भीग गए तथा अपने हृदय में श्री माताजी को मान्यता दी कि वे ही आदिशक्ति थीं। उन्होंने नम्रतापूर्वक माँ के चरणों में प्रणाम किया और उनकी क्षमा याचना की। 

सत्ताईस (27) जनवरी 1982 को सोलापुर कार्यक्रम में अपने अवतरण की भविष्यवाणी, महान दृष्टा आचार्य काका भुजंदर सत्वाचारी द्वारा (२००० वर्ष पूर्व की गयी भविष्यवाणी), को स्वीकारा, “एक महान महायोगी का अवतरण होगा, जो कि पूर्णतया परब्रह्म होंगे। उनके पास सब कुछ करने या न करने की शक्तियाँ होंगी। ” (यानि महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की शक्तियाँ होंगी।)

इस दृष्टा के अनुसार, एक नए युग का पदार्पण होगा- सन 1970 में और 1980 तक इस योग द्वारा लोग कृत-युग में प्रवेश करेंगे। (सन 1980 में नव वर्ष की पूर्व-संध्या पर राहुरी में, श्री माताजी ने कृत-युग के सूर्योदय का उद्घोष किया था।)

एक (1) फरवरी सन 1982 को राहुरी में श्री दुर्गा-पूजा आयोजित की गई। उन्होंने संकेत दिया कि देवी को पूजा की जरूरत नहीं रहती है, किन्तु सामूहिकता को इसकी जरुरत है। यदि वे प्रसन्न होतीं, तो ही पूजा में बैठतीं। उन्होंने योगियों को हाथ के इशारे से पास बुलाते हुए देवी माँ से क्षमाशीलता की याचना करने को कहा और कहा कि वे प्रण लें, कि इसके बाद वे अपनी गलतियों को नहीं दोहरायेंगे। 

अभी तक योगी-जन ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड-किंगडम U. K. अमेरिका और कनाडा से इस देशाटन (Tour) में शामिल हो चुके थे। करीब एक सौ पश्चिमी सहज-योगियों की सामूहिक देशाटन(यात्रा) श्री माताजी के साथ महाराष्ट्र के सुदूरवर्ती गाँवों की ओर चली। गाँवों के स्कूलों, आम चौराहों पर, खुले मैदानों में तत्काल मंडप छाने वाली व्यवस्था के साथ (श्री माताजी के लिए), सहज-योग कार्यक्रम आयोजित किए गए। श्री माताजी सुदूरवर्ती गाँवों के लिए सुबह निकलतीं, रास्ते में पड़ने वाले दो/तीन गाँवों में आत्म-साक्षात्कार देतीं, तब आगे के गांव की ओर पुनः यात्रा करतीं। जब अँधेरा हो जाता ,वे सबसे पास वाले गाँव में डेरा डालतीं। 

दिन भर की गर्म बस-यात्रा के बाद नदी में जल-क्रिया (foot-soaking) इतनी आराम-दायक होती। रात्रि-विश्राम के लिए तंबुओं की एक बस्ती लगती। भोजन खुले आसमान-तले जलाऊ–लकड़ी (चूल्हे) पर बनता। महाराष्ट्र की भव्य प्राकृतिक-छटा ने सामूहिकता की पिंगला नाड़ी को शीतलता प्रदान की। 

दिन जादुई खेल की तरह बीतते गए। भजन और नृत्य के एक आनंदमय सत्र के बाद रात्रि-कालीन भोजन (Dinner) होता। मध्य-रात्रि तक हरेक साधक (योगी) कारणात्मक परम् सुख में परिवर्तित हो चुकते! इन सत्रों के दौरान वे सामूहिक-बाधाओं को दूर करतीं। वे कहतीं, “लीवर की पकड़ ज्यादा है। तुम्हें नदी में जाकर जल-क्रिया (foot-soaking) करना चाहिए।”

“रसोइये को कहो कि मिर्च का उपयोग न करे।”

“स्वयं को दोषी महसूस करने कि जरूरत नहीं है। सबको ‘अल्लाह हो अकबर’ उच्चारित करना चाहिए।”

“तुम्हें आज्ञा की पकड़ क्यों है, बेहतर होगा तुम शू-बीटिंग करो। अपनी आज्ञा चक्र पर इस चैतन्यित कुंकुम को लगाओ।”

“स्वयंभू के चैतन्य तुम्हारे मूलाधार के लिए अच्छे हैं, धरती-माता पर बैठो और भगवान गणेश से प्रार्थना करो। जमीन पर सोने से तुम्हारी बाधाएँ दूर होंगी। महाराष्ट्र कुंडलिनी की सीट (घर) है जहाँ स्वयंभू या श्री गणेश की पीठ बहुत ज्यादा चैतन्य-लहरियाँ उत्सर्जित करते हैं।”

“बहुत ज्यादा ध्यान (चित्त) भोजन पर न डालो, नहीं तो नाभि-चक्र की पकड़ होगी।”

“यदि तुम मुझे हृदय में स्थापित करोगे, तो तुम्हारा ह्रदय नहीं पकड़ेगा।”

“हमेशा अपना चित्त अपने सहस्रार पर रखो।”

“प्रातः काल में काम शुरू करने से पूर्व एक बंधन ले लो।”

श्री माताजी के प्यार भरे ध्यान ने हरेक-सोपान पर सुरक्षा प्रदान की। महाराष्ट्र की लम्बी आध्यात्मिक यात्रा पर एक भी दुर्घटना नहीं घटी।

कार्यक्रम की शुरुआत पाश्चात्य सहज-योगियों के हिन्दी, मराठी और संस्कृत भजनों से (शुरू) होती।

आत्म-साक्षात्कार के बाद योगीजन साधकों के चक्रों को साफ करने के लिए जुड़ते। गहन अनुराग और प्रेम योगियों की जमात में बढ़ता गया, योगीजन ऑस्ट्रेलियन, अंग्रेज, इटालियन, ऑस्ट्रियन, इंडियन, अमेरिकन और अफ्रीकन थे। पाश्चात्य योगी न तो मराठी बोल पाते और न समझ पाते, किन्तु उनमें आपसी इतना अच्छा संवाद (समझ) था। वे अपनी माँ के प्यार के सूत्र में (धागे में) बंधे हुए थे।

श्री माताजी ने योगियों को उनके संशय दूर करने और प्रश्न पूछने को प्रेरित किया। 

प्रश्न – हमें कितनी बार ध्यान करना चाहिए?

उत्तर – हर क्षण। 

प्रश्न – आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद हमारे कर्मों का क्या होता है?

उत्तर – जब तुम्हारा परमात्मा से योग घटित हो जाता है ,तुम्हारे सभी कर्म लगभग अदृश्य/समाप्त हो जाते हैं। ईसा ने इतना सब कुछ सहन किया/दुःख उठाया,क्या आप सोचते हो, उनके कर्म बुरे थे। 

प्रश्न – पारिवारिक जीवन के बारे में बताइये।

उत्तर – आत्म-साक्षात्कार के बाद आध्यात्मिक जीवन और पारिवारिक जीवन में समन्वय में कोई मुश्किल नहीं होती। वह बहुत आसानी से हो जाता है। एक बार आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के बाद यदि आप ईमानदार हैं, आपकी गहराई बढ़ती है। यदि ईमानदार नहीं हैं, तो आपका पतन होता है।

प्रश्न – भय के बारे में बताइये?

उत्तर – भय बहुत नुकसानदेह हो सकता है, किन्तु सहज-योग में पूरी तरह इसका इलाज किया जा सकता है। 

प्रश्न – क्या, प्यार पर्याप्त नहीं है?

उत्तर – तुम्हारा प्यार पवित्रता से भर-पूर होना चाहिये, जिसमें कोई अपेक्षा नहीं होती। यह प्रवाहित होते रहता है। कुन्डलिनी-जागरण से पूर्व प्यार सीमित होता है, किन्तु जाग्रति के बाद यह सागर की तरह असीमित (अथाह) हो जाता है। 

प्रश्न – चित्त कैसे काम करता है ?

उत्तर – आत्म-साक्षात्कार के बाद, केवल आप अपना चित्त डालिए, और यह कार्यान्वित होता है। चित्त परम-चैतन्य के द्वारा कार्य करता है,….आपके विचार नहीं, बल्कि आपका चित्त (उस समस्या पर) जाना चाहिये। विचार निर्जीव हैं। जब आप विचारों के साथ कार्य करते हो, तुम केवल मरी हुई कृति (निर्जीव) बना सकते हो। विचार कार्यान्वयन नहीं कर सकते। चित्त जो कि ब्रह्मांडीय चेतना से भरा है, वही कार्यान्वित होता है।

इस महाराष्ट्र यात्रा का अद्वितीय भाग ग्रामवासियों द्वारा जुलूस का आयोजन था। वे श्रीमाताजी को एक बैलगाड़ी में विराजित कर उन्हें जुलूस में सुरक्षा-पूर्वक लेझिम, नगाड़े, शहनाई और बैंड के साथ नृत्य करते हुए, अपने ओठों पर ‘जय श्री माताजी’ के गायन के साथ चल रहे थे। जुलूस के आगे पटाखों का प्रदर्शन, उनके आगमन की उद्घोषणा गाँव के प्रवेश पर कर रहा था। उनका समारोह-पूर्वक स्वागत पुष्प-दलों की वर्षा के साथ होता था। गलियों में रास्ते के दोनों ओर मिट्टी के दिये जल रहे थे। रास्ते में स्वागतार्थ रंगोली और केले के पत्तों के तोरण-द्वार सजाए गए थे। गाँव के प्रमुख (पटेल) उन्हें हार पहनाते हुए मंच तक ससम्मान सुरक्षा-पूर्वक लाते थे। 

अट्ठारह (18) से अट्ठाइस (28) फरवरी 1982 तक चौरासी (84) पश्चिमी -देशों से योगियों का आगमन हुआ। दस (10) दिनों से ज्यादा दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में कार्यक्रम आयोजित हुए, जिसमें FICCI ऑडिटोरियम, कंस्टीट्यूशन क्लब और सनातन धर्म मंदिर प्रमुख थे। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश माननीय राजा जसवंत सिंह ने कंस्टीट्यूशन-क्लब में श्री माताजी का सम्मान किया। श्री माताजी के ऐसे प्यार भरे और नवीन उत्साह से दिए गए उद्बोधन से प्रत्येक साधक को, उनका आत्म-साक्षात्कार उनके प्रवचन के दौरान ही हो गया था। कार्यक्रम का समापन प्रश्नोत्तर सत्र से हुआ। श्री माताजी को सभी धर्म-ग्रंथो पर अधिकार था और वे उन्हें मौखिक याद थे। वे धैर्यपूर्वक घंटों खड़ी रहीं और प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया। 

प्रश्न – आपने कुंडलिनी-जागरण कैसे विकसित किया?

उत्तर – कुंडलिनी-जागरण यह एक ईश्वरीय (सनातन) सम्पदा है। 

मैं केवल एक यंत्र हूँ – मानवता को दुखों से शांति दिलाने हेतु। कुंडलिनी जागरण के द्वारा ही दुखों का शमन करने/शांत करने हेतु एक यंत्र-मात्र हूँ। 

प्रश्न – चैतन्य-लहरियाँ क्या हैं?

उत्तर – ये स्पंदन हमारे हृदय का ही हिस्सा हैं। हृदय में स्थित आत्मा की एक टिमटिमाती ज्योति, जो कि हर समय जलती रहती है, यही परमात्मा का एक प्रतिबिम्ब हमारे हृदय में है। जब कुंडलिनी का उत्थान होता है, तो वह ब्रह्म-रंध्र खोल देती है और वहाँ सदाशिव की पीठ (आसन) है- सहस्त्रार में। इस पीठ का सृजन सर्व व्याप्त परमात्मा की सूक्ष्म-शक्ति को प्राप्त करने हेतु होता है। जो उत्तरदायी है, वह रहस्यपूर्ण (गुप्त) धुनों को ग्रहण कर सकता है,किन्तु एक सामान्य व्यक्ति जब तक कि उसका ग्रहणशील-व्यवहार है, इन चैतन्य -लहरियों से कहीं भी, किसी भी समय अपना संवाद स्थापित कर सकता है। 

सहज-योग दिल्ली में एक अरसे से आ गया था। सहजयोग के उत्तर-वर्ती (follow up) कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साधक आए थे। घरों पर संचालित होनेवाले वाले सहज-योग केंद्र साधकों से भरपूर होते थे। दिल्ली सहज-योग सामूहिकता ने श्री माताजी से स्थायी सहज-योग केंद्र प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने इस आवश्यकता के लिए बंधन दिए। इक्कीस (21) फरवरी, महाशिव रात्रि पूजा के शुभ अवसर पर एक सहज-योगी ने एक आश्रम सहज-योग को उपहार स्वरूप भेंट किया-78, कृष्णा नगर सफदरगंज एन्क्लेव दिल्ली। श्री माताजी भारत के प्रथम सहज-योग केंद्र का उद्घाटन करके प्रसन्न थीं। 

श्री माताजी ने एडवर्ड-स्क्वेयर, गोल मार्केट पर आयोजित बारह सहज-विवाहों को आशीर्वादित किया। एक स्थानीय अख़बार रिपोर्टर ने जानना चाहा कि सहज-योग विवाह व्यवस्था कैसे कार्य करती है। 

श्री माताजी मुस्कराईं, “परमात्मा का कार्य बहुत नाजुक है। यदि लोग सामूहिक-चेतना के स्तर पर (सलाह पर) अच्छी विवाह-पद्धति अपनाते हैं, तो विवाह योग्य विभिन्न वर-वधू का चुनाव बहुत आसान हो जाता है। विवाह रीति-रिवाज अचेतन (परमात्मा) की कार्यशैली की सद्भावना पर आधारित होने चाहिए।”

समाचार पत्र ने सूचना दी, “क्या, यह आदर्श, सरल और दहेज-मुक्त विवाह-पद्धति विशाल पैमाने पर श्री माताजी के मार्ग-दर्शन में एक बड़ा विशाल-आंदोलन बन पायेगा और भारत के बाहर विदेशों में प्रत्येक कोने-कोने में फ़ैल पायेगा?”

दो (2) मार्च सन 1982 को श्री माताजी ऑस्ट्रेलिया के लिए रवाना हो गईं और अपने जन्म-दिवस के लिए मुंबई वापस आईं। उसके बाद 23 मार्च को वे जन्म-दिवस समारोह हेतु लंदन के लिए रवाना हुईं। 

श्री माताजी फ्रांस के बारे में बहुत चिंतित थीं, जैसा कि यह देश सभी देवी-देवताओं द्वारा अभिश्रापित और उपेक्षित था, क्योंकि वहाँ के लोग बहुत गलत/अनुचित हो गए थे। उन्हें मालूम था कि एक बार फ्रांस का सहस्रार खोला गया, तो यह बच जायेगा। सहस्रार-पूजा का आयोजन पांच (5) मई को ली-रेन्सी Le-Raincy में हुआ। उन्होंने आशीर्वाद दिया, “सभी देवी-देवता इस देश में स्थायी -रूप से निवास करें। यदि यह सहस्रार दिवस फ्रांस में नई प्रगतिशीलता को स्थापित करता है-उनका अचेतन उन्हें उनके आत्म-तत्व में ले जायेगा और वे नए सिरे से (शुभ) सोचना शुरू कर देंगे।”

सहज-योग कार्यक्रम पुर्तगाल में जून महीने में आयोजित हुए। एक महिला जिसे आत्म-साक्षात्कार मिला, उसने श्री माताजी को उसके अपराधी बेटे की फोटो दिखाई, जो जेल में बंद था और पूछा, “श्री माताजी आप मेरे बेटे के लिए क्या कर सकती हैं?”

श्री माताजी ने कहा कि केवल यही करना है, उसकी कुंडलिनी उठाना। बाद में उस अपराधी बेटे को राजनैतिक-अपराधियों को सामूहिक क्षमा-दान के तहत रिहा कर दिया गया। उसका बेटा सहज-योग में आया और उसकी चैतन्य -लहरियाँ बहुत ज्यादा बेहतर हो गईं। 

श्री माताजी ने चार जुलाई को लंदन में गुरु-पूजा में अंग्रेज सहज-योगियों का आत्म-साक्षात्कार स्थापित किया। योगियों को ब्रह्माण्ड की रचना पर बहुत से प्रश्न थे। श्री माताजी ने उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर एक पुस्तक (सृजनात्मकता पर) “The Eternal Play” में देने का वादा किया। 

इंग्लैंड (U.K.) में श्री कृष्ण पूजा पर उन्होंने जिक्र किया, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं कितनी वृद्ध हूँ या युवा हूँ, जो मैं हूँ सो हूँ।”

श्री गणेश पूजा जिनेवा में बाइस (22) अगस्त 1982 को आयोजित हुई। श्री माताजी ने जाहिर किया, “मेरे इस अवतरण में यह अनिवार्य हो गया है कि आप मुझे पहचानें।”

छब्बीस (26) सितंबर को श्री माताजी ने विएना को दुर्गा पूजा से आशीर्वादित किया। उन्हें अस्त्र-शस्त्र भेंट किये गए और उन्होंने तलवार धारण की। ऑस्ट्रियन सहज-योगियों के पहले समूह को अगले दिन सहज कार्यक्रम में आत्म-साक्षात्कार मिला। उस शाम को ऑस्ट्रिया में सहज-योग का बीजारोपण हुआ। 

श्री माताजी के लंदन वापसी यात्रा पर भारतीय राजदूत ने श्री माताजी से भारत के राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी को चैतन्य देने की प्रार्थना की। वे अमेरिका से उनकी ओपन-हार्ट-सर्जरी (हृदय शल्य-चिकित्सा) करवाकर लंदन होते हुए भारत जा रहे थे। इस यात्रा ने उन्हें बहुत थका दिया था और वे बहुत अस्वस्थ हो गए थे। श्री माताजी ने उनके हृदय को चैतन्य प्रदान किया। उन्हें इतना आराम मिला कि पहली बार उन्हें गहरी नींद आई। राष्ट्रपतिजी और उनकी पत्नी ने श्री माताजी का उपकार माना और उन्हें भारत में राष्ट्रपति-भवन में पधारने हेतु तथा उनके साथ रुकने (ठहरने) हेतु आमंत्रित किया। श्री माताजी ने उन्हें इस विनम्र आमंत्रण हेतु धन्यवाद दिया, किन्तु उनके साथ राष्ट्रपति भवन में ठहरने हेतु असहमति जताई। क्योंकि वे इस सब में विश्वास नहीं करती कि जिसे स्वस्थ किया, उनका आतिथ्य स्वीकार करें।

हालाँकि, जब वे दिसंबर में दिल्ली आईं, राष्ट्रपतिजी ने व्यक्तिगत-रूप से उनसे भेंट की और प्रार्थना की कि वे राष्ट्रपति भवन पधारें। राष्ट्रपतिजी ने विशेष तौर पर चंदन की एक कुर्सी श्री माताजी हेतु बनवाई। उन्होंने श्री माताजी का फूलों से स्वागत किया और उनके चरण-कमलों में विनम्रतापूर्वक बैठे। श्री माताजी ने शर्माते हुए शिष्टता से व्याकुलता-पूर्वक पूछा, “श्रीमान,आप क्या कर रहे हैं? आप भारत के राष्ट्रपति हैं, आप जमीन (फर्श) पर क्यों बैठे हैं।”

राष्ट्रपति जी बोले, “मैं राष्ट्रपति हो सकता हूँ, किन्तु आप एक संत हैं।”

1983

अध्याय-10

सन 1983, नववर्ष का स्वागत-समारोह श्री महालक्ष्मी पूजा के साथ कोल्हापुर में हुआ। श्री माताजी ने यह रहस्य प्रकट किया कि श्री महालक्ष्मी सभी वस्तुओं के सृजन हेतु सार-तत्व हैं। इस तत्व के मध्य तीन केंद्रीय भाग (core) हैं, इसके बीच आधा केंद्रीय-भाग, श्री गणेश का। यह आधा भाग श्री गणेश-तत्व है। यह श्री गणेश तत्व ही आखिरकार हरेक चीज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है और हरेक वस्तु में पारगमन करता है।”

बाद वाले सप्ताह, वैतरणा की यात्रा पर श्री माताजी ने एक सुन्दर भूखंड का पता लगाया, जिसमें एक जल-धारा बहती है, उसे खरीद लेने की सलाह दी। उन्होंने इस भूखंड की चैतन्य-लहरियों की प्रशंसा करते हुए कहा कि ये लहरियाँ सहज ध्यान-धारणा के लिए उपयुक्त होंगी। 

इंडिया- टूअर (भारत-भ्रमण) की सामूहिकता ने वैतरणा पर कैंप लगाया। श्री माताजी ने जाहिर किया कि सहज-योग बौद्धिक स्तर पर कार्य नहीं करता,किन्तु आध्यात्मिक स्तर पर कार्य करता है। “लोग अभी भी बौद्धिक-स्तर पर जीते हैं और इसी स्तर पर समस्यायों को हल करने का प्रयास करते हैं और यही वजह है कि समस्याएँ पुनः शुरू हो जाती हैं।”

तेरह (13) जनवरी 1983 को धुलिया (महाराष्ट्र) में एक सहज-कार्यक्रम आयोजित हुआ, कार्यक्रम के बाद श्री सरस्वती पूजा आयोजित हुई। श्री माताजी ने समझाया कि धुलिया का अर्थ ‘धूल’ से है। इससे उन्हें अपने बचपन में सात वर्ष की उम्र में लिखी गई एक कविता की स्मृति हो आई,

“मैं एक छोटा-सा धूल कण होना चाहती हूँ, जो हवा के साथ गति करता रहता है।

धूल का यह कण हर जगह जाता है।

यह जाकर राजा के सिर पर भी बैठ सकता है।

या जाकर किसी के पैरों-तले (चरणों पर) गिर सकता है।

और जाकर छोटे से फूल पर विराजित हो सकता है।

और जाकर कहीं भी बैठ सकता है।

किन्तु, मैं धूल का वह कण बनना चाहती हूँ,

जो कि सुगंधित है, पोषित करता है और जो प्रकाशित (चेतित) करता है।”

हर हृदय को इस धूल के कण की तरह बनने कि प्रेरणा मिली, जो पूरी मानवता को गले लगा सके।

श्री माताजी ने एक बार पुनः सभी को सलाह दी, “प्रत्येक (सहजी) को इस विश्व के लिए जो भी वे करना चाहें, करना चाहिए, इसे पोषित करने हेतु,सहायता करने हेतु या इसके उद्धार (मोक्ष) हेतु।”

एक (1) फरवरी 1983 से आगे, दिल्ली में सहज-योग कार्यक्रम हुए। आयोजकों ने ये कार्यक्रम खुले आसमान तले ठंढ में आयोजित किए, क्योंकि उनके पास कार्यक्रम स्थल को सज्जित करने के लिए अर्थ व्यवस्था (funds) नहीं थी। दिल्ली की कड़क ठंढ से सामूहिकता की विशुद्धी में पकड़ आ गई। श्री माताजी ने योगियों को पैसे दिए, ताकि कार्यक्रम स्थल पर छाया की जा सके।

नौ फरवरी को जंगपुरा कार्यक्रम में इशारा किया (बताया) कि यद्यपि दिल्ली में सहज-योग बढ़ चुका था, किन्तु उनके ह्रदय अभी नहीं खुले थे। यह आज्ञा चक्र की पीठ (स्थली) होने से लोग सहज-योग के माध्यम से बीमारियों से मुक्त होने में ज्यादा रूचि ले रहे थे और अपने उत्थान के बारे में बेखबर थे,चिंतित नहीं थे। अभी तक श्री माताजी ने सभी सहज-कार्यक्रमों के लिए स्वयं की जेब से पैसे खर्च किए थे, इसमें सामूहिकता का कोई सहयोग नहीं था,किन्तु अब समय आ चुका था कि वे अपना हृदय खोलें। 

श्री माताजी की वार्ता समाप्त होने के बाद, उन्होंने प्रश्नोत्तर का अवसर प्रदान किया। 

प्रश्न – पूरी दुनिया के अंत का क्या होगा और सभी इंसानों का भी?

उत्तर – दुनिया के अंत की बात न करें। अभी प्रारम्भ (श्री गणेश) हुआ है। जब बच्चा जन्म लेता है, हम उसकी मृत्यु के बारे में सोचते भी नहीं। 

सत्य के साधक-गण उनके चरण कमलों का स्पर्श करना चाहते थे। श्री माताजी ने बताया कि धरती माता का स्पर्श करने से वे उन्हें आशीर्वाद प्रदान करेंगी। उन्होंने धरती माँ को परम श्रद्धा-अवनत हो प्रणाम किया और उनकी कुंडलिनियाँ जाग्रत हो उठीं।

श्री माताजी चाहती थीं, भारतीय और पाश्चात्य सहज-योगियों में प्रेम की गहनता हो और पाश्चात्य सहज-योगी भी भारतीय आतिथ्य का अनुभव लें। श्री माताजी ने दिल्ली की सामूहिकता को, पाश्चत्य-योगियों के ठहरने का इंतजाम अपने घरों में करने को कहा, बजाय अपने आवास (flats) को उन्हें किराये पर उठाकर देने के। किन्तु कार्यक्रम के आयोजकों ने सोचा कि यह ज्यादा सुविधापूर्ण होगा कि सभी विदेशी सहज-योगी फ्लैट्स में साथ-साथ रहेंगे, अतः उन्होंने फ्लैट्स किराये पर उठाए। अगले दिन, इतनी जोरों की बारिश हुई कि फ्लैट्स टपकने लगे और उन्हें योगियों को अपने घरों में स्थानांतरित करना पड़ा। श्री माताजी ने विनोदपूर्ण हो समझाया कि जब उन्होंने कुछ कहा, इसके पीछे गहन उद्देश्य छिपा है। यदि उन्होंने श्री माताजी की सलाह मानी होती,वे सभी रेंट बचा लेते। इस घटना से उनका अहंकार नीचे आ गया और उन्होंने श्री माताजी की क्षमा याचना की। अगले कार्यक्रम में, श्री माताजी की सुबुद्धि के मोतियों ने योगियों का ध्यान आज्ञा से हृदय पर स्थानांतरित किया। अगले सप्ताहांत में होली का त्यौहार पड़ा और मनाया गया। प्रत्येक सहज-योगी के आश्चर्य की बात थी कि श्री माताजी ने पूजा के सभी कर्मकांड हटाकर सभी को सामूहिकता में नृत्य करने को कहा। होली के रंगों की फुहारों के मध्य, योगियों को यमुना किनारे ले जाया गया, जहाँ वे श्री कृष्ण जी की रास-लीला में खो गए। श्री माताजी ने ऑस्ट्रेलियाई सहज-योगियों को पीतल से निर्मित श्री गणेश भेंट किए, ऑस्ट्रेलिया जो कि श्री गणेश की भूमि है।

प्यार की लहरें महासागर में जुड़ गईं, श्री माताजी ने महासागर को आशीर्वादित किया, उनके साठवें जन्म-दिवस पर उनके चरण कमलों के प्रक्षालन पर। श्री माताजी के जन्म-दिवस बधाई-कार्यक्रम ऐवान-ए-ग़ालिब पर डॉ नगेंदर सिंह विश्व कोर्ट के न्यायाधीश, हेग, उन्हें मुख्य -अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। श्री माताजी के पारिवारिक मित्र होने के बावजूद, उन्होंने उन्हें मान्यता दी। श्री माताजी ने उनकी प्रशंसा की तथा कहा कि वे बहुत महान आत्मा हैं। श्री माताजी ने अपने एकांत के अनुभव बताये, क्योंकि वे अपने अनुभव परमात्मा के बारे में किसी को भी नहीं बता सकती थीं किन्तु उन्होंने डॉ नगेंदर सिंह में इतना सारा चैन और उम्मीद देखी जो कि मामलों के परिचालन के नियंत्रक थे और तो भी इतने नम्र और चेतित (प्रकाशित) व्यक्ति थे।

श्री वेणुगोपालन ने बधाई-कार्यक्रम के सम्बोधन को जारी रखते हुए श्रीमदभगवतगीता के विषय जैसी चर्चा के दौरान यह अतिरिक्त जानकारी दी कि यद्यपि वे श्रीकृष्ण भक्त थे, श्री माताजी ने उन्हें आत्म-साक्षात्कार दिया और भगवान कृष्ण ने नहीं!

श्री माताजी ने अहंकार रहित वाणी में कहा, “मैं जो हूँ वही हूँ, मैं हमेशा वही रहूँगी- न तो मैं वृद्ध हो रही हूँ और न ही जवान। मैं हमेशा से ठीक वही हूँ।” 

पूजा के अगले दिन, श्री माताजी ने दिल्ली वालों का सहस्रार खोल दिया उन्होंने उद्घोषणा की कि कृतयुग को समाप्त होना था, सतयुग के प्रभात के लिए। 

इसके बाद वे मुंबई के लिए रवाना हुईं, जहाँ उनके जन्म-दिवस समारोह के दूसरे कार्यक्रम हेतु पहुँचना था। पूजा के लिए प्रातः वे अपने गहनों को लेने के लिए बैंक-लॉकर गईं। बैंक मैनेजर आश्चर्य में थे ,क्योंकि श्री माताजी ने इन गहनों को कभी पहले उपयोग नहीं किया था।

श्री माताजी बोलीं, “मैंने अपनी जिंदगी में कभी इन गहनों को नहीं पहना है और आज चूँकि समय आ गया, मुझे इन्हें पहनना होगा। अभी-अभी मैंने सोचा,यह सब मेरे बच्चों के लिए है। यदि मुझे इन्हें पहनना पड़ा, उससे क्या फर्क पड़ता है? केवल, बच्चों को खुश करना है, यदि वे इससे प्रसन्न होते हैं, तो मेरी प्रसन्नता सम्पूर्ण हुई।”

श्री भीमसेन जोशी के गीत-संगीत की प्रस्तुति से चैतन्य-लहरियाँ फूट पड़ीं और सामूहिकता की कुंडलिनियाँ परम-आनंद (विभोरता) में नृत्य करने लगी थीं। 

अध्याय-11

श्री कृष्ण पूजा जिनेवा में अठ्ठाइस (28) अगस्त 1983 को आयोजित हुई। श्री माताजी ने बताया कि सहजयोग का ज्ञान उससे बहुत ज्यादा गहन है, जो सभी युगों के संतों द्वारा प्रकट किया गया।

विराट शक्ति जो कि आधुनिक काल में कार्यान्वित हो रही थी, वह शक्ति श्री राधा या मदर मेरी की नहीं थी, किन्तु विराटांगना की थी, जिसने सामूहिक चेतना की अनुभूति प्रदान की। 

“…….विराट शक्ति एक दूसरा रूप लेती है। संहार की शक्ति (अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति) क्षमा की शक्ति बन जाती है। हर प्रकार की संहारक-शक्ति का उपयोग सृजन में हो सकता है, यदि इसका युक्ति-पूर्वक उपयोग किया जाय।”

अगले महीने श्री माताजी का ध्यान विराट की भूमि (U.S.A.) की ओर गया। करीब दो सौ से ज्यादा साधक सहज कार्यक्रम में आए, जो कि हॉलीवुड के मध्य मेथोडिस्ट चर्च में आयोजित हुआ। श्री माताजी ने साधकों को हाथ उठाने और प्रश्न पूछने को कहा, “क्या, आप आदिशक्ति हैं?”

एक हाथ में बाइबिल की प्रति लिए एक नाराज़ धर्मांधता से भरे व्यक्ति ने आक्रमण करते हुए आरोप लगाया, “क्या आप कह रही हैं कि आप आदिशक्ति (Holy Ghost) हैं।”

“हाँ, मैं हूँ” श्रोताओं ने ताली बजाकर स्वीकृति प्रदान की, और वे महाशय हवा में गायब हो गए थे। 

एक युवा लड़का संकोचपूर्वक श्री माताजी के पीछे-पीछे उनकी गाड़ी तक चला और वह फुसफुसाया कि वह बचपन से बहरा था और क्या वे उसकी कुछ मदद कर सकेंगी?

“हाँ, क्यों नहीं, मेरे बच्चे” श्री माताजी ने उसे सांत्वना दी। श्री माताजी ने अपनी सबसे छोटी अंगुली (कनिष्ठिका) को उसके कानों में डाला और थोड़ी देर बाद पूछा और उसने अविश्वसनीयता के साथ- प्रश्न का उत्तर दिया!

शाम को जब कार्यक्रम कि क्लिपिंग्स (कार्यक्रम के अंश) स्थानीय टेलीविज़न पर दिखाई दिए, दर्शकों ने टिप्पणी की, “जब वे मुस्कराती हैं, पूरा स्क्रीन प्रकाशित होता है।”

सैन-डिएगो कार्यक्रम में एक व्यक्ति सामूहिकता में से उठा, वह श्री माताजी को ग्यारह (11)

डॉलर वापस करने आया, यह व्यक्ति श्री माताजी से दस वर्ष पहले मिला था और उसने यह राशि 1973 में उनसे उधर ली थी। श्री माताजी हँस पड़ीं और उन्होंने हरेक (साधक) को डिनर पर आमंत्रित किया, “अब कोई भी डिनर के लिए मुझे भुगतान करने से नहीं रोकेगा!”

एक सेमिनार बॉयस-स्काउट कैंप पर सांताक्रुज में रखा गया था, जहाँ श्री माताजी को आमंत्रित किया गया था, एक छोटे से आरामदायक कक्ष में जो प्रिस्टीन रेडवुड वृक्षों से आच्छादित था। जैसे ही सूर्योदय की प्रथम किरणों ने उनके चरण कमलों को चूमा, उन्होंने सुंदरता से परिपूर्ण हरी-भरी भूमि के प्राकृतिक-दृश्य को खिड़की से झाँककर देखा और अपनी प्रतिक्रिया (टिप्पणी) की, “यहाँ की चैतन्य-लहरियाँ मुझे वैकुण्ठ की याद दिलाती हैं।”

शायद ही किसी को इस बात की जानकारी थी कि श्री माताजी ने भविष्य के वैकुण्ठ की कल्पना काना-जौहरी में की थी!

सैन-फ्रांसिस्को का जन-कार्यक्रम सौसालिटो-चर्च में आयोजित हुआ। साधक तीव्र आज्ञा चक्र की बाधाओं से पीड़ित थे, यह बाधा आँखों की अस्थिरता से हुई थी। 

श्री माताजी ने सलाह दी, “जब आप अपने आज्ञा-चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हो, तुम बाएँ या दाएँ जाते हो। आप एक गत्ते में एक छेद करके और एक मोमबत्ती वहाँ लगा दें। आपका ध्यान लाइट की वजह से दायीं और जाता है, किन्तु तब एक पेंडुलम (गोलक) की तरह देखने से यह बायीं ओर जाता है। यदि आप श्री राम पर केंद्रित करते हैं, आपको श्री राम दिखाई देने लगते हैं। यदि कोई व्यक्ति आपकी आँखों में ऑंखें डालकर देखता है, उसकी आँखों में एकत्रित नकारात्मकता आपकी आँखों में प्रवेश कर जाती है। यही बात टेलीविज़न देखने से हो सकती है, और किसी के झूठे-प्रेम प्रसंग से भी होती है। 

एक पूजा में, एक सुंदर मिल-वैली होम, जो समुद्री-खाड़ी से दिखाई देता था, वहाँ पर एक फ्लाइट अटेंडेंट (उड़ान-सहायक), उर्सुला ने विचारों की बौछार से चारों ओर से घिरे होने की शिकायत श्री माताजी से की। उन्होंने कहा, “तुम विचारों के संधि (दो विचारों के बीच का जोड़) पर कूद रही हो। तुम विचारों के आगमन (चढ़ाव) को देख नहीं पाते, किन्तु उनके गिरने को देख सकते हो। विचार मृत हैं, जबकि चित्त ब्रह्मांडीय-चेतना है। विचार कार्यान्वित नहीं हो सकते। जब आप विचारों से काम करते हो, तुम केवल मृत-प्राय कार्य ही कर सकते हो, जबकि चैतन्यित चित्त (प्रकाशित-चित्त) कार्य करता है, जब आपका चैतन्यित-चित्त किसी वस्तु पर डालते हो, तो यह परम् चैतन्य के द्वारा कार्य करता है।”

उर्सुला का दिमाग खाली हो गया। वो गहन ध्यानावस्था में गई। जब उसने ऑंखें खोलीं, उसने श्री माताजी का स्वागत करने की शुद्ध इच्छा महसूस की,बे-एरिया में (खाड़ी क्षेत्र में) एक आश्रम के उद्घाटन करने के साथ [सन 1997 में श्री माताजी ने उसकी शुद्ध इच्छा को आशीर्वादित किया और ऑकलैंड आश्रम का शुभारम्भ किया।]

वैन्कोवर (कनाडा) में एक टेलीविज़न-साक्षात्कारी महिला ने श्री माताजी से पूछा कि वे कौन थी। श्री माताजी ने उत्तर दिया “कंफर्टर और काउंसेलर (आरामदायिनी और सलाहकारिणी), जिसका वादा ईसा-मसीह ने किया था और होली-घोस्ट का साक्षात् स्वरूप हैं। “

बोस्टन के कार्यक्रम में महात्मा-गाँधी के पोते ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। उन्होंने श्री माताजी से उनके शिक्षण कार्य हेतु एम.आई. टी. में आशीर्वाद माँगा। 

सन 1983 सोलह (16) सितंबर, न्यूयार्क में सी. जी. जंग C. G. Jung सोसाइटी को सम्बोधित करते हुए श्री माताजी ने जंग की अचेतन-साक्षात्कार के लिए तारीफ की, फिर भी उन्होंने स्पष्ट किया कैसे अचेतन सहज-योग के द्वारा जाना गया। जब कि जंग ने स्वप्नों की व्याख्या करने पर बहुत ज्यादा महत्व दिया था, किन्तु सपने भ्रम में डालते थे। हालाँकि, चैतन्य लहरियों के द्वारा कोई भी हर चीज स्पष्ट जान गया था।

श्री माताजी ने वर्तमान युग को कुम्भ (जल) का युग कहा है, जो कि कुण्डलिनी का युग है, किन्तु कुंडलिनी को संस्कृत में ‘कुम्भ’ यानि एक्वेरियस कहा है। 

तेरह (13) सितंबर 1983 को न्यूयार्क में एकादश -पूजा का आयोजन हुआ। श्री माताजी ने आगाह किया कि एकादश-रूद्र की शक्ति का उपयोग विध्वंस के लिए नहीं, बल्कि लोगों में शुभ परिवर्तन के लिए होना चाहिये। “जब तक कि आंतरिक परिवर्तन नहीं आता, तुम कार्यान्वित नहीं होते ,आप लोगों से बात नहीं कर सकते, आप उनके साथ संवाद नहीं स्थापित कर सकते। “

अमेरिकन लोगों के हृदय खोलने के लिए यही एक रास्ता था। किन्तु श्री माताजी के चक्रवाती (तूफानी) अमेरिकी-भ्रमण के बावजूद कोई भी साधक उत्तर-कार्यक्रम Follow-up में नहीं आए। सप्ताहांत (weekend) में सहज-योग शिविर में उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “मैं कई लोगों से मिली, जो मेरा भाषण सुनने के लिए आए और वहीं तक सीमित रह गए। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार नहीं लिया और कुछ ने लिया, तो वे खो गए। किसी तरह से, यह एक ऐसी हास्यास्पद कहानी मेरे लिए थी कि मैं उन्हें आत्म-साक्षात्कार दे रही हूँ, इसके लिए पैसा नहीं ले रही हूँ और स्वयं के खर्चे पर यात्रा कर रही हूँ। मैं सोच रही थी कि ये लोग जो किसी प्रकार की साधना में यहाँ-वहाँ खो गए हैं, उन्हें मैं कैसे आत्म-साक्षात्कार दे पाऊँगी।”

अचानक श्री माताजी ने आकाश की ओर देखा, “भगवान श्री कृष्ण जी को अपनी लीला (खेल) बंद कर देना चाहिये।”

देखो, देखो! बारिश थम गई। 

दस (10) अक्टूबर 1983 को श्री माताजी ने टोरंटो (कनाडा) को आशीर्वाद दिया। सहज-योग कार्यक्रम और उसके बाद होने वाली पूजा के लिए, [चैतन्य लहरियों की सफाई के लिए] नकारात्मकता को दूर करने हेतु एक हवन का आयोजन रखा गया था। 

अध्याय-12

सन 1983 की नवम्बर मास में श्री माताजी सहजयोग आश्रम के लिए उचित भूखंड की तलाश में दिल्ली लौटीं। इस बारे में सामूहिकता के प्रयास विफल रहे और उन्होंने श्री माताजी से तदर्थ बन्धन देने के लिए प्रार्थना की। श्री माताजी ने श्री वेणुगोपालन को निर्देश दिया कि श्री जगमोहन दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर को मिलें। श्री वेणुगोपालन ख़ुशी से आश्चर्यचकित थे, ले. गवर्नर जगमोहन की गर्म जोशी से भरे उत्तर (प्रतिक्रिया) से। वे श्री गोपालन को एक पुराने मित्र की तरह मिले। श्री जगमोहन साहब की श्री माताजी के प्रति गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने श्री वेणुगोपालन को खाली प्लॉट्स का नक्शा बताया। वे उस नक्शे को लेकर श्री माताजी के पास गए। उन्होंने कार्नर (कोनेवाले) के एक प्लॉट की चैतन्य-लहरियाँ बहुत ज्यादा महसूस कीं। श्री माताजी के बंधन ने कार्य किया और दस दिनों के भीतर वही प्लॉट (भूखंड), जो क़ुतुब-इंस्टीट्यूशनल एरिया में था, लाइफ इटरनल ट्रस्ट (Life Eternal Trust) को मात्र 1.20 लाख रूपये में आवंटित कर दिया गया । श्री माताजी ने असीम उदारता-पूर्वक, यह राशि लाइफ इटरनल ट्रस्ट को दान कर दी। 

श्री माताजी प्रसन्न थीं और दिल्ली को दिवाली-पूजा से आशीर्वादित किया। जब पूजा के मंत्र लिए जा रहे थे, श्री माताजी ने अचानक पूजा रुकवा दी और कहा, “पूजा दुबारा शुरू की जाय, किन्तु इस बार मंत्र-उच्चारण ह्रदय से किए जायें।”

बिना हृदय के, बिना हुए योग से, केवल यांत्रिक मंत्रोच्चार उन तक नहीं पहुँच सके। मंत्रों की संभावित स्थैर्य शक्ति हृदय-रूपी कमल की पंखुड़ियों में छिपी हुई थी। जैसे ही मंत्रों का उच्चारण हृदय से हुआ, यह छिपी हुई स्थिर-ऊर्जा गतिज-ऊर्जा में परिवर्तित हो गई और ह्रदय की पवित्र पंखुड़ियों द्वारा मंत्रों का मंथन, पास-वर्ड्स में परिवर्तित हो गया,(जिससे चैतन्य-लहरियाँ खुल गईं) श्री माताजी मुस्कराईं, “अब देवी-देवता प्रसन्न हैं। चैतन्य-लहरियों का प्रवाह हो रहा है।”

अपनी असीम करुणा में, श्री माताजी की कृपा सहस्रार से झरने की तरह बहने लगी और सामूहिकता के चक्रों को अमृत से भीगाकर तर कर दिया। चक्रों को शक्ति प्राप्त हो गई और छिपी हुई नकारात्मकता को बाहर फेंक दिया। 

जहाँ श्री माताजी की कृपा बहती है, इच्छा होने के पहले ही परम्-चैतन्य यह प्रदर्शित करते हैं। यह ऋतम्भरा प्रज्ञा हैं, जिसके द्वारा माँ के द्वारा संचित आशीर्वाद अपने बच्चों के लिए सहज ही प्रकट होते हैं।

श्री माताजी की दैवीय कृपा उजागर हुई, जब पहली बार योगियों ने अपने सेंट्रल नर्वस सिस्टम (केंद्रीय तंत्रिका तंत्र) पर उन्हें महसूस किया। जैसे उन्होंने इसे अपने अंदर महसूस किया, चैतन्य को हर जगह अनुभव करना संभव हो गया! इसे निश्छल बच्चों की मुस्कराहट में, प्रकृति के सौंदर्य में, फूलों की सुगंध में और दया के हरेक कार्य में, अनुभव करना संभव हो गया। 

पंद्रह (15) दिसंबर 1983 के कार्यक्रम में श्री माताजी ने माता-पिता और बच्चों के संबंध पर प्रकाश डाला। उन्होंने एक सहज-स्कूल की परिकल्पना की,जहाँ वे ऐसे बीजों का वपन (बोएं) करें, जो विकसित होकर, पुष्पित होकर उनके प्यार की सुगंध से संसार को सुवासित कर दें। 

तेईस (23) दिसम्बर को वे नागपुर पधारीं- उनके पिताश्री प्रसाद राव साल्वे के मूर्ति स्मारक (Bust-size) के उद्घाटन पर- ‘साल्वे-चौराहा’ पर।

जब भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री हिदायतुल्ला जी ने मूर्ति का अनावरण किया, तो श्री माताजी की आँखों से आँसू छलक पड़े। 

श्री माताजी के उद्बोधन में, “मुझे वह क्षण अभी भी याद है, जब मेरे पिताजी नागपुर हाई- कोर्ट (उच्च न्यायालय) के शिखर (गुंबद) पर चढ़े थे- भारतीय तिरंगे-झंडे को फहराने के लिए। हम सब नीचे खड़े हुए थे, उनका मनोबल ‘वन्दे मातरम’ उच्चारण करते हुए बढ़ा रहे थे। गोलियों की बौछार के बीच उन्होंने ऊपर चढ़ना जारी रखा, गोलियों के आघात से उनकी कमीज से खून बह रहा था, किन्तु उन्होंने दृढ़तापूर्वक गुंबद के ऊपर पहुंचकर भारतीय तिरंगे झंडे को फहराया था।”

श्री माताजी ने कृपा करके सभी योगियों को साल्वे परिवार के साथ क्रिसमस मनाने हेतु क्रिसमस की पूर्व-संध्या को आमंत्रित किया। उन्होंने क्रिसमस उपहार उनके सभी भाइयों, बहनों, चचेरे संबंधियों, चाचा-चाचियों, पारिवारिक मित्रों और पुराने सेवकों को दिए। मराठी में लिखी स्तुति-प्रार्थना गाने में वे साल्वे-परिवार में प्रमुख स्वर थीं। जब वे “क्राइस्ट द सेवियर इज़ बोर्न……,ईसा, हमारे संरक्षक प्रकट हुए” इस पंक्ति को गा रहे थे, हरेक की कुंडलिनियाँ नृत्य कर रहीं थीं। 

अगले दिन, उन्होंने 1840 church (1840 चर्च) में प्रातःकालीन सेवा में भाग लिया। यह चर्च श्री माताजी के घर के पास ही पड़ता था,जहाँ वे पूर्व में रहीं। उन्होंने ध्यान-पूर्वक प्रेस्बिटेरियन बिशप की (sermon) धार्मिक उपदेश को सुना। औपचारिक समारोह के बाद वे गिरिजाघर के एक ओर के रास्ते से मुख्य-पोर्टल (मुख्य-द्वार) पर पहुंचीं, तब एक चमत्कार घटित हुआ। उन्होंने एक अशक्त-लंगड़े व्यक्ति को स्वस्थ कर दिया,जो उनके पिताजी की सेवा किया करता था। उसने स्मरण कराया कि जब उसने उन्हें देखा था (पिछली बार), तब वे ‘छोटी-सी’ बच्ची थीं। 

श्री माताजी ने अपना वरद-हस्त उसके सिर पर रखा और उसे आशीर्वाद दिया। बिशप साहब को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, जब उन्होंने उस अशक्त पंगु आदमी को बिना सहारे के (बिना लाठी के) ख़ुशी-ख़ुशी जाते हुए देखा।

श्री माताजी के एक पुराने भक्त श्री राजेश शाह उनकी मुंबई स्थित स्टील-फैक्ट्री में गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे थे। एक कुख्यात लेबर यूनियन लीडर ने लम्बे समय से चली आ रही हड़तालों से फैक्ट्री के संचालन को खतरे में डाल दिया था। श्री माताजी ने राजेश शाह को अपनी फ़ैक्ट्री के मजदूरों की कुंडलिनियों के द्वारा इस पर कार्य करने की सलाह दी। उन्होंने उन्हें श्री गणेश-पूजा करने को कहा। श्री गणेश भगवान महाराष्ट्र के प्रमुख देवता हैं, जो भी आपसी मतभेद हैं,उनके नाम पर सभी एक मत हो जाते हैं।

श्री राजेश शाह ने श्री माताजी की सलाह-अनुसार काम किया। पूजा के दौरान लेबर्स (मजदूरों) की कुंडलिनियाँ जाग्रत कीं। इसके बाद, सामूहिक-कुंडलिनी ने अपना प्रभाव प्रकट किया; लेबर-यूनियन ने स्वेच्छा से राजेश शाह के पक्ष में निर्णय किया और हड़ताल मैत्री-पूर्ण भाव से समाप्त हो गई। 

कृतज्ञता की गहराई से राजेश शाह ने एक गणेश-मंदिर अपनी फैक्ट्री में बनवाया। उनकी भक्ति की शक्ति से सहज-योग का प्रसार उनकी फैक्ट्री ही नहीं,बल्कि सम्पूर्ण क्षेत्र में ठाणे तक हुआ। ठाणे के मेयर ने भी सहज-योग अपनाया। यह गणेश मंदिर एक तीर्थ-स्थल बन गया। 

1984

अध्याय-13

बारह (12) फरवरी 1984 को बोर्डी में एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित हुआ था। श्री माताजी ने योगियों से एक सौगंध लेने के लिए कहा कि उन्हें अपने अवतरण अनुरूप (शोभनीय) व्यवहार करना होगा। पाँच हजार सहज-योगियों ने यह कसम खाई। उन्होंने अपनी प्यार की शक्ति से सामूहिकता में व्याप्त मतभेद को बिना थोड़े से भी दबाव के समाप्त कर दिया। उन्होंने हरेक को स्वतंत्र-बनने को उत्साहित किया, अपने विवेक को विकसित करने और स्वयं के गुरु बनने हेतु प्रेरित किया। 

एक आंतरिक परिवर्तन हरेक साधक में हुआ। एक-एक इंच करके अपनी आत्मा के साम्राज्य (क्षेत्र) को उन्होंने विवेकपूर्ण अनुभव किया। सहजयोग एक नए आयाम में प्रवेश कर गया, जहाँ वे आत्मा बन गए।

सहज योगी/योगिनी जिन्हें सहज-विवाह की इच्छा थी, एक प्रार्थना-पत्र के साथ अपना फोटो और बायो-डाटा तैयार किया। श्री माताजी ने उनका जोड़ा उनकी चैतन्य-लहरियों के मिलान के आधार पर तय किया। सहजयोग परिवार शादी-समारोह की उद्घोषणा से स्फुरित (रोमांचित) थे। बारह (12) फरवरी1984 को श्री माताजी ने सुगंधित मेंहदी को चैतन्यित किया- दुल्हिनों के हाथों को असंख्य आकृतियों से श्रृंगारित करने हेतु।

शादी से पूर्व, श्री माताजी ने सभी दुल्हिनों को गृह-लक्ष्मी के शुभ मंगलमय स्वरुप की जिम्मेदारी के निर्वहन की समझाइश दी। सभी दूल्हों को भी अपनी गृह-लक्ष्मी का सम्मान करने की सलाह दी। विवाह की रस्म पवित्र-अग्नि के चारों ओर परिक्रमा (फेरे) लगाकर पूरी की गई। सातवें फेरे के बाद श्री माताजी ने उनकी सामूहिक नजर (evil eye) उतारी।

इसके पश्चात् श्री माताजी ब्रह्मपुरी के लिए रवाना हुईं। कृष्णा नदी के उस पार विट्ठल भगवान का मंदिर एक तीर्थ-स्थल था।

एक विद्वान के अनुसार, यहाँ पांडवों ने कौरवों से युद्ध में विजय प्राप्त करने हेतु भारी तपस्या की- श्री महादेव को प्रसन्न कर युद्ध में विजय का वरदान प्राप्त करने के लिए। शाम को श्री माताजी ने कृष्णा नदी को आशीर्वादित किया। यह वह स्थान था, जहाँ स्वामी रामदासजी को श्री राम, सीता और देवी अंगलाई की मूर्तियाँ मिलीं। 

श्री माताजी ने विस्तार से बताया की अंगलाई शब्द अंगला और आई से बना है। मराठी भाषा में आई का अर्थ माता है, अंगला यानि एंगलो (अंग्रेज),अर्थात एंगलो -रेस यानि अंग्रेज कुल की माता। कृष्णा नदी शर्म से लाल हो गई इस सम्मान से और श्री माताजी (आदिशक्ति) की प्रशंसा में मधुर लय-बद्धता की प्रस्तुति दी।

श्री माताजी ने कृष्णा नदी के किनारे लम्बे समय तक बैठकर उसके शांति-प्रदान करने वाले संगीत के माधुर्य का आनंद लिया। सहजयोगियों ने भी श्री माताजी के चैतन्यामृत का गहनता से पान किया और उसके द्वारा उन्मत्त हो गए। 

उन्होंने कृष्णा नदी की ओर गहराई से दृष्टि-पात किया, “यह वह जगह है जहाँ देवी-देवता एकत्रित हुए थे, इसलिए यह ब्रह्मपुरी नाम से जानी जाती है।”

श्री केंजले Mr Kenjale ने पूछा, “क्या, देवी-देवताओं को अहंकार होता है।”

श्री माताजी ने जबाव दिया, “आदिशक्ति अहंकार मुक्त हैं, वो परमात्मा की सर्व व्याप्त प्रेम-शक्ति हैं।”

तब उन्होंने आकाश की ओर नजरें उठाईं और आकाश शर्म के मारे लाल हो गया, जैसे ही उनकी चैतन्य-लहरियाँ, गुलाबी रंग से आकाश में भर गईं। 

उन्तीस (29) फरवरी 1984 को महाशिवरात्रि पूजा पंढरपुर में सम्पन्न हुई। पंढरपुर विराट (श्री कृष्ण) का स्थान है। श्री माताजी ने पंढरपुर में शिव पूजा के आयोजन का महत्व समझाया। “यद्यपि यह स्थान विराट का है, सदाशिव का आसन हमारे सहस्रार में है, किन्तु हमारे हृदय में यह आत्मा-स्वरुप प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए, आत्मा को हमारे मस्तिष्क तक लाने का मतलब है- हमारे मस्तिष्क की जाग्रति होना, ईश्वरीय-कृपा का प्रकाश फैलना। 

बारह (12) मार्च 1984 के बाद से एक सप्ताह लम्बा कार्यक्रम दिल्ली के गौरवशाली मावलंकर हॉल में आयोजित हुआ। ग्यारह मार्च को मेरठ में एक सहज-कार्यक्रम हुआ। मेरठ की चैतन्य लहरियाँ बहुत शीतल थीं। श्री माताजी ने बताया कि वहाँ चैतन्य-लहरियाँ इतनी शीतल थीं, क्योंकि मेरठ में उनके वैवाहिक-जीवन के शुरुआती वर्षों में वहाँ रहीं। उनके पास एक बहुत विशाल बँगला था, जिसमें एक बड़ा-सा अहाता था। वहाँ उन्होंने सब्जियाँ उगाईं,इतनी प्रचुर मात्रा में कि उन्होंने उन्हें पड़ोसियों में बाँटी।

उन्होंने स्मरण किया, “इतने बड़े आकार के बैंगन, टमाटर और ककड़ियाँ, इतनी बड़ी कि कोई विश्वास न कर पाए।यह देवी माँ शाकम्भरी का असर(आशीर्वाद) था।”

कलियुग में श्री आदिशक्ति महामाया के रूप में प्रकट हुई हैं। एक मुंबई के योगी उनके भौतिक-स्वरुप (मानव-रूप) की माया में खो गया और मर्यादाएँ तोड़ दीं। मुंबई में जन्म-दिवस समारोह में श्री माताजी ने उसकी गलतियों के लिए उसकी खिंचाई कर दी, किन्तु उसने इसका बुरा माना और सहज-योग छोड़ दिया। 

कुछ दिन बाद उसके बेटे की दुर्घटना हो गई और वह कोमा (बेहोशी) में चला गया। डॉक्टरों ने उम्मीद छोड़ दी। उसकी माँ ने हतोत्साह होकर श्री माताजी से अपने बेटे को बचाने की गुहार लगायी। श्री माताजी तुरंत अस्पताल आईं और उसे जीवन-दान दिया। बच्चे के पिताजी श्री माताजी के चरणों में गिर गए और क्षमा-याचना की। श्री माताजी ने यह स्पष्ट किया कि उन्हें अपने महामाया स्वरूप में, जब भी आवश्यक हो, लोगों को सही मार्ग पर लाना होता है। किन्तु श्री माताजी को अपने गहन-प्यार (वात्सल्य) से साधकों की गलतियों को ठीक करना, अपने बच्चों को बचाना है, और उनकी भावनाओं का हनन करना नहीं है। उस व्यक्ति ने समझ लिया, उसे उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए था और उनकी क्षमा-याचना की। 

श्री माताजी के जन्म-दिवस पर पिछले सप्ताह उन्होंने दो गिफ्ट्स (उपहार) सहज-योगियों से मांगे। पहला, कि उनके बच्चों के चरित्र में शांति का प्रदर्शन हो और दूसरे यह कि, यह शांति दूसरों को प्यार करने में, दूसरों के लिए भी दिखाई दे। 

रक्षा-बंधन पर्व पर लंदन में, उन्होंने पुनः इस बात पर जोर दिया कि सहज योग में भाई-बहिन में, आदमी-औरत में, विवाहों में, बच्चों में और बहुत महत्वपूर्ण है, श्री माताजी के प्रति मर्यादा का सम्मान रखा जाना चाहिए। 

“यदि आप मुझसे कुछ पूछते हो, श्री माताजी, क्या मुझे यह कार्य करना चाहिए? आप मुझे इसे करने को बाध्य करते हो। मुझे हाँ कहना पड़ता है,क्योंकि मैं तुमसे सख्ती नहीं कर सकती, क्योंकि मैं तुम्हारी माँ हूँ। किन्तु तुम्हें विवेकशील होना चाहिए कि मुझसे क्या माँगना है- कितनी छूट तुम ले सकते हो, यह सबसे बड़ी मर्यादा है, जिसे तुम्हें जानना है, सीखना है। आप यह देखने का प्रयत्न करें कि आप मेरी दरियादिली का लाभ न लें।”

सोलह (16) सितंबर 1984 को श्री एकादश रूद्र पूजा का इटली में आयोजन हुआ। श्री माताजी ने योगियों की ओर प्रवृत्त हो कहा, उन्हें अपना एकादश रूद्र अत्यंत करुणा के साथ विकसित करना चाहिए, जिससे उनका उत्थान तेजी से हो, “तुम जितने ज्यादा सामूहिक होते हो, तुम्हारा एकादश रूद्र भी उतना ही ज्यादा शक्तिशाली होगा….जब श्री कल्कि का कार्य शुरू हो जायेगा यानि श्री कल्कि की संहारक शक्ति जो भी नकारात्मक धरती पर होगा,उसे नष्ट करेगी और जो सकारात्मक होगा, उसे बचाएगी।”

स्विट्ज़रलैंड में श्री गणेश पूजा के बाद श्री माताजी अक्टूबर में वापस भारत आ गईं। उनकी (भारत) यात्रा शोलापुर के कार्यक्रम के साथ 31 अक्टूबर को प्रारम्भ हुई, बाद में हैदराबाद में एक कार्यक्रम हुआ। 

जब हैदराबाद में जन-कार्यक्रम चल रहा था, दंगे फसाद शुरू हो गए, जैसे ही भारत के प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर फैली। हथियार लिए दंगाइयों की भीड़ हॉल में घुसी और धमकी भरे ढंग से श्री माताजी की ओर बढ़ी। सहज-योगियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, किन्तु श्री माताजी ने हस्तक्षेप किया और उन्हें अंदर आने दिया।

जैसे ही वे श्री माताजी के सामने आए, अचानक वे मूर्तिवत जड़ हो गए, और अपने हथियार डाल दिए। शिष्टतापूर्वक श्री माताजी ने उन्हें शांत कर दिया। श्री माताजी ने प्रधानमंत्री की हत्या की दुखभरी खबर पर, अपनी गहरी संवेदना प्रकट की और कार्यक्रम को रद्द कर दिया। वे श्री माताजी के चरणों में गिर गए, और क्षमा याचना की। तो भी सत्य के साधक श्री माताजी को बिना आत्म-साक्षात्कार प्रदान किये नहीं जाने दे रहे थे और वे उनकी गाड़ी तक उनके पीछे-पीछे गए। अंततः कार पार्किंग पर एक वृक्ष के नीचे खड़े होकर, उन्होंने 200 सत्य साधकों को आत्म -साक्षात्कार का आशीर्वाद प्रदान किया। 

1985

अध्याय-14

जैसे ही सूर्य उत्तरायण की ओर जाना शुरू हुआ, श्री आदिशक्ति का ध्यान महाराष्ट्र की ओर गया। 

नव वर्ष मकर-संक्रांति पूजा इसकी परिचायक थी। सामूहिकता को गुड़ और भुने हुए तिल उनकी विशुद्धि को माधुर्य प्रदान करने हेतु वितरित की गई। 

भारत-भ्रमण (India Tour) की शुरुआत महाराष्ट्र से आरम्भ हुई। सत्रह (17) जनवरी 1985 को श्री माताजी ने नासिक शादी समारोह हेतु चाँदी के पात्र की खरीददारी की। 

वे छह (6) फरवरी 1985 को बोर्डी पधारीं, सहज-विवाह उत्सव हेतु। नारियल वृक्ष के बगीचे में एक पूजा आयोजित हुई, जहाँ उन्होंने अपने नए धर्म ‘विश्व निर्मला धर्म’ के जन्म की घोषणा की। 

आनेवाले सप्ताह में दिल्ली को सहज-कार्यक्रम की श्रृंखला से आशीर्वादित किया। दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के वॉयस-प्रिंसिपल डॉ.यू. सी. राय, श्री माताजी के पास अपनी पौत्री को स्वस्थ कराने पहुंचे। बहुत-सारी चिकित्सीय उपाधियों के बावजूद वे अपनी पौत्री को स्वस्थ नहीं कर सके। यद्यपि श्री माताजी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उनकी बीमार पौत्री को ठीक कर देंगी, किन्तु वे श्री माताजी की बात से संतुष्ट नहीं थे और बोले,प्रथम तो, आप वैज्ञानिक-रूप से मुझे बताएं कि आप क्या करने जा रहीं हैं?”

श्री माताजी मुस्कराईं, “डॉ. साहब, आपको इतना सारा मेडिकल-साइंस का ज्ञान है। आप अपनी पौत्री का जीवन चाहते हैं या वैज्ञानिक-जानकारी चाहते हैं? मैं बच्ची को कुछ नहीं करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें आश्वासन देती हूँ कि बच्ची स्वस्थ होने लायक है। मैं बच्ची की कुंडलिनी को उठाऊँगी और बच्ची व्याधिमुक्त (स्वस्थ) हो जाएगी। उसके लिए आपको मुझे कुछ भी भुगतान करने की जरुरत नहीं है।”

डॉ. राय स्तब्ध खड़े थे, किन्तु बच्ची की माँ बहुत उत्सुक थी, “प्रयत्न क्यों न किया जाय, मैं अपनी पुत्री का जीवन चाहती हूँ।”

श्री माताजी ने बच्ची की कुंडलिनी उठायी और वह करीब तीन दिनों में दौड़ने लगी। डॉ. राय को निराशा (कुंठा) लगी, “यह सब हमारे मेडिकल विज्ञान में नहीं है।”

श्री माताजी मुस्कराईं, “आप इस बिंदु तक नहीं पहुँच सकते, क्योंकि मेडिकल-विज्ञान की अपनी मर्यादाएं हैं। किन्तु अब आप इसे सत्यापित कर लें, मैं जो कह रही हूँ। यदि यह सत्य है, तो आपको इसे स्वीकारना होगा। सहज-योग पर शोध क्यों नहीं किया जाय। तीन या चार बीमार व्यक्ति लें और तुम्हें बताऊँगी कि कैसे उनका इलाज करना है और यह मेडिकली कैसे कार्यान्वित हुआ है।”

डॉ. राय दृढ-संकल्प होकर रिसर्च (शोध) में डूब गए। उन्होंने गहनता से सहज-योग ध्यान करना शुरू कर दिया। उनका अस्थमा ठीक हो गया। तीन डॉक्टर्स उनकी इस शोध में उनके साथ हो लिए। पहले उन्होंने मिर्गी रोग पर रिसर्च की, दूसरे अस्थमा पर और तीसरे शारीरिक स्वस्थता पर (ब्लड प्रेशर,ह्रदय रोग आदि पर)। उन्होंने सैकड़ों रोगियों पर सहज-योग द्वारा कार्य किया और सकारात्मक परिणाम मिले। 

श्री माताजी ने उन्हें अपनी उपलब्धियों को एक पुस्तक में अंकित (record) करने को कहा। (सन 1995 में डॉ. राय ने अपनी शोध के आँकड़े एक पुस्तक, ‘मेडिकल साइंस एनलाईटेन्ड’ में प्रकाशित किए। वर्ष 1995 आठ (8) मई को, भारत सरकार के राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने राष्ट्रपति भवन में एक समारोह में पुस्तक का विमोचन किया। कुछ वर्षों बाद डॉ. यू. सी. राय ने सहज योग हेल्थ और रिसर्च सेंटर, नवी मुंबई के प्रमुख के रूप में कार्य-भर ग्रहण किया।)

सत्रह (17) फरवरी 1985 को श्री महाशिवरात्रि पूजा पर सहज-योगीजन श्री माताजी के चरण-कमलों पर बिल्व-पत्र चढ़ाना भूल गए। श्री माताजी के शरीर पर लाल-चकत्ते उभर आए और उन्होंने कहा कि शिवजी की अग्नि को शांत करने के लिए शिव-पूजा पर शीतलता-दायक बिल्व-पत्र चढ़ाये जाने आवश्यक थे। सामूहिकता ने क्षमा-याचना की और लाल-चकत्ते (rashes) तुरंत गायब हो गए। 

इस घटना से यह ज्ञात हुआ कि पूजा के दौरान भेंट होनेवाली प्रत्येक वस्तु, फल, तत्व, फूल आदि अति-आवश्यक था, जैसा कि उनके शरीर पर इसका प्रभाव हुआ, ठीक उसी प्रकार से जैसे एक वृक्ष को पानी देना, उसके लिए कितना आवश्यक था। उनके चक्र आवश्यक सुगंध, तत्व, स्वाद, मंत्र, गीत(लयबद्धता) और भेंट-सामग्री के प्रति प्रति-क्रिया प्रदान करते थे। इस प्रकार इन वस्तुओं का समर्पण देवी -देवताओं की अनुकूलता (संतुष्टि) के लिए महत्वपूर्ण था। 

जब उनके चक्र प्रसन्न हुए, सामूहिकता के चक्रों का शुद्धिकरण हुआ और सामूहिकता के सहस्रार खुल गए। सामूहिकता के सहस्रार की पँखुड़ियों पर अमृत के माधुर्य की आर्द्रता बूँद-बूँद कर टपक रही थी। 

इसके बाद वाले सप्ताह में श्री माताजी जयपुर पधारीं। एक दिन जब वे खरीददारी कर रहीं थीं, एक सम्भ्राँत महिला उनके समीप आईं और स्वयं को श्रीमती पारदल कहते हुए परिचय दिया। वे श्री माताजी के द्वारा पुणे में अस्थमा से मुक्त हुईं थीं। उन्होंने श्री माताजी से अपने आवास को आशीर्वाद प्रदान करने हेतु प्रार्थना की, उन्होंने कृपा करके स्वीकृति प्रदान कर दी। 

श्रीमती पारदल ने अपने कुछ राजपूत मित्रों को आमंत्रित किया था, जिन्होंने अपनी कुंडलिनी की जाग्रति हेतु प्रार्थना की। जिस क्षण उन्होंने पूछा, “श्री माताजी, क्या आप दुर्गा देवी हैं?” उनकी कुंडलिनियाँ जाग उठीं।

श्री माताजी मुस्कराईं, “राजपूत मुझे आसानी से पहचानते हैं, क्योंकि वे परम्परागत-रूप से दुर्गा देवी को पूजते हैं।”

उन्होंने श्री माताजी से राजस्थान में जन-कार्यक्रम के लिए प्रार्थना की, उन्होंने वचन दिया, “अगले वर्ष।”

श्री माताजी अपने जन्म-दिवस पूजा के लिए दिल्ली लौटीं। जन्म-दिवस के आनंदमय समारोह के बाद, वे पठानकोट के लिए रेलगाड़ी में सवार हुईं। प्रातः काल में श्री माताजी के आगमन पर एक पुश्तैनी महाजन हाउस पर ग्राम-मैमून (पठानकोट के बाहरी क्षेत्र) में, एक पब्लिक-प्रोग्राम (जन- कार्यक्रम)आयोजित किया गया। दो सौ वर्ष पुराने महाजन के पूर्वजों का यह मकान श्री माताजी के चरणों में समर्पित किया गया। श्री माताजी ने कृपा करके इसे स्वीकार किया और सहज-योग स्कूल हेतु प्रदान कर दिया।

भवन के बरामदे में एक पालतू तोता पिंजरे में कैद था। श्री माताजी ने उसकी पीठ थपथपाई और वह ससम्मान बोला, ‘जय श्री माताजी’। 

यद्यपि वह इर्द-गिर्द घूमने-फिरने के लिए स्वतंत्र था, उसने बरामदे के बाहर जाने की कभी हिम्मत नहीं की। श्री माताजी ने प्यार से उसके पंखों को सहलाया और वह आज़ाद हो उड़ चला। सामूहिकता की आत्मा उसकी स्वतंत्रता पर खुश थी, किन्तु अपनी स्वतंत्रता हेतु बेचैन थे। उन्होंने प्रार्थना की, “कृपया, हमारी आत्माओं को भी स्वतंत्रता प्रदान करें।”

धर्मशाला पहुँचने पर श्री माताजी ने अपने पिताश्री हिमालय का प्रसन्नतापूर्वक अभिनन्दन किया। वे पर्वतराज धौला-धार (पर्वत-मालाओं) की ओर मुखातिब हुईं और स्नेहासिक्त हो उन्हें सम्बोधित किया। “जब रामावतार हुआ, आपने लक्ष्मण को उनकी सहायता के लिए भेजा, जब श्रीकृष्ण अवतरित हुए आपने अर्जुन को उनके यंत्र-स्वरुप भेजा, किन्तु इस बार आपने मुझे अकेले ही इस धरा पर भेजा-बिना किसी सहारे के। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता,मेरे बच्चों का प्यार मेरे ध्येय (mission) को पूर्णता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है और मैं इस धरा को तब तक नहीं छोडूंगी, जब तक कि मेरा आखिरी बच्चा सुरक्षित न हो जाय।” 

श्री माताजी की करुणार्द्र आँखों ने ग्लेशियर को द्रवित कर दिया और अपने पिताश्री हिमालय की आँखों में ख़ुशी के आँसुओं से हिमालय की तराई को आशीर्वादित कर दिया। 

अगली शाम लॉयन्स क्लब, धर्मशाला ने श्री माताजी से धौलाधार होटल में एक कार्यक्रम हेतु विनती की। 

श्री माताजी ‘महाजन-कुटिया” तलनू में ठहरीं, जो उन्हें समर्पित किया गया था। उनके दर्शन के बाद उन्होंने इसे सहज-म्यूज़ियम में परिवर्तित करने के लिए आशीर्वादित किया, ताकि उसमें उनके चैतन्य सुरक्षित रहें। 

एक गर्भवती गाय अपने खूंटे से मुक्त हो गई और चैतन्य के सहारे श्री माताजी के शयन-कक्ष तक आ पहुंची। गाय ने धक्का देकर दरवाजा खोला और श्री माताजी को सम्मानपूर्वक झुकी, श्री माताजी ने उसे आशीर्वाद दिया और एक घंटे बाद गाय ने एक सुंदर बछिया को जन्म दिया। उससे इतनी ठंढी चैतन्य-लहरियाँ आईं। उन्होंने कहा कि बछिया जन्मजात आत्मसाक्षात्कारी थी और उसका नाम धीरा रखा। उसी रात चौकीदार की पत्नी को भी पुत्र जन्मा और श्री माताजी ने उसका नामकरण ‘चिरंजीवी’ किया।

हिमाचल निवासी कई दिनों की कठिन पहाड़ी यात्रा कर- सुदूरवर्ती क्षेत्रों से श्री माताजी की शैलपुत्री स्वरुप पूजा हेतु पहुँचे। (देवी माँ का प्रथम अवतरण शैलपुत्री के रूप में हुआ। वे हिमालय-पुत्री के रूप में जन्मीं, हिमालय- जहाँ से आप पूरे संसार को देख सकते हो।)

29 मार्च को यह पूजा तलनू के पुरुषोत्तम हॉल में आयोजित हुई। पहाड़ी जन-जाति के लोगों ने श्री माताजी का श्रृंगार एक प्रकार के लाल पुष्पों से (रोडोडेंड्रोन-फ्लावर्स) किया, जो देवी माँ को बहुत पसंद हैं। उन्होंने आनंद दायक गीत गाए। श्री माताजी ने महसूस किया कि उनके गीत पूरी तरह से उमंग और प्रेम से परिपूर्ण, बिना किसी थकावट की शिकायत लिए हुए थे और न ही, किसी प्रकार की कामनापूर्ति हेतु या अनुदान की कामना से प्रेरित थे। कारण कि उनके हृदय निर्मल थे और वे इस आनंद को प्राप्त कर सके थे। उनके भीतर के भोलेपन से वे श्री माताजी के प्रकृति-माँ की उदारता में दर्शन कर सके थे। उन्होंने श्री माताजी का कीर्तिगान (गुणगान) हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाओं, गहरे हरे लबादे ओढ़े हुए जंगल, कल -कल बहती धाराओं (झरनों), घाटियों, पशु और पक्षियों के कल-रव में महसूस किया। 

श्री माताजी उनकी भक्ति की अबोधिता से अति-प्रसन्न थीं और उन्हें एक सहज-आश्रम का आशीर्वाद अपने पिताश्री की छायाकृति प्रदान करते हुए दिया, साथ ही अपने पिताश्री के द्वारा स्वतंत्रता-आंदोलन के समय उनके कारागार के प्रवास के दौरान उनके द्वारा बुनी हुई एक शॉल प्रदान की। 

पूजा के बाद श्री माताजी पुरुषोत्तम हॉल से उनकी कुटिया की ओर बढ़ीं। आज पूर्णिमा थी। उन्होंने हिमाच्छादित धौला धार-पर्वत मालाओं की ओर रुख करते हुए कहा, “हिमालय से प्रसारित होने वाले चैतन्य को देखो।”

सभी ने दीनतापूर्वक स्वीकार किया कि उन्हें कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। तब श्री माताजी ने सभी को कृपा करके अपने चित्त में लेते हुए कहा, “अब तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?”

उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ, चैतन्य दमकते हुए उलटे अल्प-विराम (Luminous inverted commas), की तरह प्रकट हो रहे थे। चैतन्य की लहरों पर लहरियाँ हिमालय से झरने-जैसी नीचे की ओर बह रहीं थीं। 

श्री माताजी मुस्कराईं, “हिमालय एक स्वयंभू कृति हैं। उनकी चैतन्य-लहरियाँ पूरे विश्व को स्वच्छ करती हैं। ‘तलनू’ सहस्रार में (back Agnya) ‘पृष्ठ-आज्ञा’की तरह है।”

संध्याकालीन भोजन (Dinner) के बाद वे सोने चलीं गईं और अगली संध्या तक नहीं जागीं। जब वे जागीं, तो अपनी उम्र से दस वर्ष छोटी प्रतीत हो रहीं थीं। श्री माताजी ने टिप्पणी की, “आखिरकार, मैंने कई वर्षों की यात्राओं के बाद आराम किया है। हिमालय में तपस्या करने वाले संतों ने मेरे चैतन्य को आत्म-सात किया है। मैं पूर्णतया हल्की-फुल्की (विश्रामित) महसूस कर रही हूँ।”

पूजा के दो दिनों बाद यह मालूम हुआ कि पूजा-प्रसाद समाप्त नहीं हो रहा। 

श्री माताजी हँसी, “यह अन्नपूर्णा का आशीर्वाद है, अतः यह कैसे समाप्त हो सकता है। बेहतर नदी से प्रार्थना करें कि वे इसे स्वीकार करें। 

एक कार्यक्रम डल-झील पर आयोजित हुआ, करीब पाँच हजार पर्वत-वासियों के लिए, जो श्री माताजी के दर्शन हेतु आये थे।

श्री माताजी बोलीं, “तुम जानते हो, इन लोगों ने मुझे युगों से पूजा है। मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि इन्होंने मुझे हृदय से पहिले से ही माना हुआ है।”उन्होंने अपना हाथ ऊपर उठाया और उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल गया। डल झील से आ रही चैतन्य-लहरियों की बौछार ने माँ को भीगा दिया था। 

जैसे ही श्री माताजी आश्रम को लौट रहीं थीं, उनका ध्यानाकर्षण एक स्थान की ओर हुआ, जहाँ से चैतन्य-लहरियाँ उत्सर्जित हो रहीं थीं, जहाँ से सड़क आश्रम की ओर फट रही थी। उन्होंने कहा, “इस जगह से इतनी चैतन्य-लहरियाँ उत्सर्जित हो रही हैं, यहाँ एक सहज-मंदिर बनाया जाना चाहिये।”

श्री माताजी ने मंदिर के लिए रूप-रेखा खींची और शीघ्र ही उस स्थान पर एक सहज मंदिर बनाया गया। 

श्री माताजी ने रहस्योद्घाटन किया कि ऋषि दुर्वासा महाराष्ट्र से यहाँ अपनी राइट-साइड (पिंगला) को ठंढा करने आए थे। एक शिला (चट्टान) की ओर इशारा करते हुए वे बोलीं, “ऋषि दुर्वासा ने इस शिला पर तपस्या की थी। इसी वजह से इस स्थान का नाम ‘धरम-शिला’ रखा गया, किन्तु अंग्रेजों ने इसे धर्मशाला कहकर सम्बोधित किया। (मूल रूप से यह क्षेत्र ऋषि दुर्वासा के नाम पर ‘दुरवेश्वर’ रखा गया था। अंग्रेजों ने इसे डल-झील (Dal Lake) कहा। डल-झील पर एक ध्यान केंद्र आरम्भ किया गया।)”

उन्होंने ‘ग्रेस-कॉटेज’ पर धर्मशाला के साधकों को आशीर्वाद देने हेतु एक दिन बिताया। इसके बाद वे दक्षिण की ओर गईं और नूरपुर में शॉल-बुनने वाले केंद्र का अवलोकन किया। नूरपुर के थोड़े पहले उन्होंने बहुत तेज चैतन्य का झोंका महसूस किया। योगियों ने बताया की वहाँ सर्पिणी का एक मंदिर’नागिनी’ था, जहाँ बीमार लोग स्वास्थ्य-लाभ हेतु ले जाए जाते थे। श्री माताजी ने कहा कि, ‘नागिनी’ कुंडलिनी ही थी। 

नूरपुर हैंडलूम्स पर, एक अस्सी वर्षीया महिला ने उनकी स्तुति कर प्रणाम करके ‘नम्रता-पूर्वक’ झुकीं, क्योंकि उसके कर्मठ हाथ नाजुक पश्मीना-ऊन को बड़ी तकली (spindle) पर लपेट रहे थे। वह बुजुर्ग महिला तेज हवा से अपने सिर से हटी शॉल को, अपने सिर पर ढँकने कि कोशिश करती रही थी, फिर भी वह शांत बनी रही और ऊन बुनना जारी रखा।

एक सहज-योगिनी ने उक्त महिला को गर्म सिंथेटिक-शॉल (कृत्रिम ऊन से बनी) से ढँकने का प्रयास किया। उस वृद्ध- महिला ने नम्रतापूर्वक मना कर दिया, “मैंने इस शॉल के ऊनी धागे को स्वयं काता (spin) है (तैयार किया है)। मेरी माँ और बहन ने इसे बुना है। इतने सारे लोगों की अँगुलियों की गर्मी इसमें समायी हुई है। कोई मशीन कैसे इससे बेहतर शॉल बुन सकती है?”

श्री माताजी ने अपने प्यार की गर्मजोशी में उसे बांध लिया और उसकी सभी शालें खरीद लीं।

अध्याय15

उत्तर-भारत को आशीर्वाद प्रदान के उपरांत श्री माताजी का ध्यान पूर्व की ओर गया। अप्रैल के आरम्भ में परम्-चैतन्य ने माँ दुर्गा के भक्तों को उनके आशीर्वाद हेतु व्यवस्था की। श्री माताजी का कक्ष पार्क-होटल के प्रथम तल पर था तथा सहज-योगी दूसरे तल पर एकदम विपरीत दिशा में स्थित कक्ष में रुके थे। अचानक योगियों को उनके सहस्त्रार से चैतन्य का भारी प्रवाह महसूस हुआ। वे तुरंत श्री माताजी के कक्ष की ओर लपके और उन्हें एक नए साधक को आत्म-साक्षात्कार देते पाया। श्री माताजी ने टिप्पणी करते हुए बताया, “कितना बड़ा साधक है, उसमें बहुत ज्यादा चैतन्य है।”

योगियों ने अपने अनुभव सुनाए। श्री माताजी मुस्कराईं, “यह सामूहिक चेतना है। तुम लोग सहस्रार पर हरेक का मजा उठा सकते हो।” इसने परम् चैतन्य की एक नई दुनिया को सुलझा दिया (उजागर कर दिया)। जब वे किसी साधक के चक्रों को स्वच्छ करतीं, परम् चैतन्य सहज ही सामूहिकता के उस चक्र को स्वच्छ कर देते। 

पहले कार्यक्रम में केवल दो साधक ही आए। आयोजन-कर्त्ता हताश थे और दूसरे कार्यक्रम को निरस्त करना चाहते थे, परन्तु श्री माताजी बहुत ही उत्साहपूर्ण थीं। उन्होंने प्रतिक्रिया दी, “बंगाल वह रण-भूमि थी, जहाँ देवी माँ ने महिषासुर का संहार किया था, मुझे यहाँ कड़ी मेहनत करनी है।”

उन्होंने उन्हें ऐसे उत्साहपूर्ण सम्बोधित किया, जैसे कि वे पूरी मानवता को बता रहीं थीं, वस्तुतः वे ऐसा ही कर रहीं थीं। 

श्री माताजी ने उन पर अपना वात्सल्य उड़ेल दिया- उन्होंने एक घंटे तक उनसे बातचीत की, मनोविनोद भी किया तथा प्रश्न पूछने हेतु प्रेरित किया उन्हें आत्म-साक्षात्कार दिया और घोषणा की कि वे उनके दो बेटे थे, जो सहज-योग के स्तम्भ होंगे। 

श्री माताजी के उत्साह ने कलकत्ते के सत्य-साधकों में शक्ति का संचार कर दिया। दूसरे दिन, सहज-कार्यक्रम में ‘हाउस-फुल’ था। सहज-सामूहिकता की इड़ा नाड़ी अचानक बहुत भारी हो गई, जैसा कि भारी जड़ता इसे नीचे की ओर ले जा रही थी। राणी सती के भक्त-गणों को शीतल-लहरियाँ नहीं महसूस हुईं। श्री माताजी ने उन्हें एक प्रश्न पूछने को कहा, “श्री माताजी, क्या आप राणी सती हैं?”

जैसे उन्होंने प्रश्न किया, उनकी कुंडलिनियाँ उठीं, उनके हाथों से ठंढी लहरियाँ बह निकलीं और उनकी सामूहिक इड़ा नाड़ी से जड़त्व समाप्त हो गया। यह सामूहिक-चेतना पर एक और पाठ था कि किस प्रकार सामूहिकता की बाधाएँ व्यक्तिगत-चक्रों पर कैसे दूर की जाती हैं।

जैसे ही श्री माताजी जाने को थीं, एक गरीब विद्यार्थी ने उनसे अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की। “ओ माँ, आपके साम्राज्य में एक गरीब (निरीह) के लिए कोई जगह नहीं है। मैं दिन भर का भोजन भी नहीं जुटा सकता हूँ और न ही कोई नौकरी (काम) कर पा रहा हूँ।”

उसकी यह दुर्दशा श्री माताजी की आँखों में आँसुओं के रूप में बह निकली और उन्होंने उसे प्रातः काल होटल के कक्ष में मिलने को कहा। श्री माताजी ने नाश्ते के पहले ही अपना ‘पर्स’ खाली करके, पर्स की पूरी राशि एक पैकेट के रूप में उसके लिए रख दी। दुर्भाग्य से, वह प्रातः काल आने में विलम्ब से पहुंचा और जैसे कि पूजा की तैयारी चल रही थी, आयोजकों ने उसे अंदर आने नहीं दिया, किन्तु पूरे रास्ते उनका चित्त उसी युवा पर था। 

जब उन्होंने सुना कि उसे वापस लौटा दिया गया था, यह जानकर उन्होंने बहुत उदासी महसूस की, “जब सहज-योगी प्रबंधन करने लगते हैं, वे ज्यादा ही अति दायीं ओर चले जाते हैं और भूल जाते हैं कि सहज-योग कारुण्य की शक्ति है।”

किन्तु कुछ भी बाधा [रूकावट] उनकी करुणा की शक्ति के रास्ते में नहीं खड़ी हो सकती थी। अगले दिन जब कार्यक्रम से वे वापस लौटीं, उस युवा का छोड़ा हुआ एक नोट (note) (संवाद-पत्र) होटल के आगमन (reception) पर उन्हें मिला, जिसमें उसने अपने नए जॉब (नौकरी) के लिए उन्हें धन्यवाद दिया था।

इसके तुरंत बाद, श्री माताजी ईस्टर-पूजा समारोह हेतु लंदन आठ (8) अप्रैल को रवाना हुईं। अंग्रेज-सामूहिकता को लंदन शहर के बाहर आश्रम हेतु जमीन खरीदने के लिए आशीर्वाद मिला। श्री माताजी ने इस केंद्र का नाम शुडी केंद्र रखा (शुडी-कैम्प्स) (वस्तुतः शुद्धि-कैम्प्स)!

शीघ्र ही, श्री माताजी ने ऑस्ट्रिया को सहस्रार-पूजा से (पाँच मई को) आशीर्वादित किया। शुक्रवार को प्रातः आकाश में गहरे व काले बादल थे। कुछ चिंतित ऑस्ट्रियन सहज-योगियों ने श्री माताजी से बंधन के लिए प्रार्थना की। पंद्रह मिनट बाद ही आकाश में बड़ा-सा छेद बादलों के बीच हो गया, जो वियेना शहर के ऊपर था तथा वह दूसरे बादलों को हटाने लगा और आकाश को नीले-सहस्रार और उल्लसित-धूप से भर दिया। श्री माताजी ने ‘मदर्स-डे’जर्मनी में सभी आश्रमों हेतु सुन्दर ‘पिंक – क्रिस्टल्स’ खरीदते हुए बिताया। 

चौदह (14) मई को सहज-योग के बीज मिलान में बोये गए, इसके बाद बाइस (22) मई को वेनिस शहर में सहज-योग कार्यक्रम हुआ। 

छब्बीस (26) मई को वे अमेरिका के लिए रवाना हुईं। सहज-योग कार्यक्रम न्यूयार्क, लॉस-एंजेलिस और सैन डिएगो में आयोजित हुए। कार्यक्रम की प्रतिक्रिया धीमी थी, किन्तु श्री माताजी मुस्कराईं, “पहले बीज बोने का मौसम आता है और तब फसल काटने का समय आता है।”

उन्तीस (29) जून को श्री माताजी फ्रांस में थीं। सर्व गुरुओं की गुरु (जननी) का पूजन पेरिस शहर के बाहरी क्षेत्र में स्थित सुंदर बगीचे चातौ-दे-चामरेन्डेChateau-de Chamrande में हुआ। माँ के शिष्य -गण अपने आदि-गुरु (श्री माताजी) के स्वागत-नियमाचरण पालन करे में चूक गए। श्री माताजी का मुख-मंडल साँवला पड़ गया, जैसे कि वे किसी असह्य-कारक या असह्य-भाव से पराभूत हो गयीं और उनका चित्त हट गया,क्योंकि वे अपने बच्चों के दिलों में नहीं थीं। यह बच्चों द्वारा माँ का अपमान था और वे इस भाव -विहीन पूजा को स्वीकार करने की मनः स्थिति में नहीं थीं। 

मानव जाति ने परमात्मा की शान में मंदिर और चर्च बनवाए, उनकी एक झलक पाने की तीव्र इच्छा लिए और मसीहा के आगमन की प्रतीक्षा में, इनका निर्माण किया और मसीहा (तारणहार) आए, उन्होंने उनकी कोई इज्जत नहीं की। क्या इतिहास पुनः दोहराया जाना था? क्या, मानव-जाति इस अंतिम अवसर को हाथ से जाने दे रही थी?

मनुष्यों को यह महानतम सौभाग्य मिला था कि उन्हें ऐसा कोई मिला, जिसने उन्हें इतना अपनत्व (प्यार) दिया और बच्चों ने इसे अपना हक़ समझ लिया। रात-भर माँ के बच्चों ने अपने हृदयों में क्षमा मांगी और उत्साहपूर्वक उनकी क्षमा के लिए प्रार्थना की। 

नाश्ते के बाद बच्चों की प्रार्थनाओं का उत्तर मिला, इस उद्घोषणा के साथ कि पूजा होगी, किन्तु श्री माताजी के पूजा-स्थल (पंडाल) में प्रवेश करते ही वे रात-भर के लम्बे संघर्ष के बाद थकी हुईं और म्लान-मुख (उदास) दिखाई दीं। बच्चों की सांसें सघन-चुप्पी में रुकी थीं। उनकी आँखों में दूर से भारी दुःख छलक रहा था, किसी फटकार या डांट से ज्यादा। इससे बच्चों को समझ आ गया कि जब माँ का चित्त बच्चों से हट जाता है, तो क्या होता है और वे दुखी हो सुबक रहे थे। भयभीत कष्टसाध्य परमात्मा अनंत दूर से प्रकट होने लगे थे। माँ का प्यार (वात्सल्य) उनकी आँखों में पुनः प्रकट हो रहा था, जैसा कि उन्होंने प्यार से समझाया, “देवी-देवता नाराज हो गए थे, क्योंकि पूजा के नियमाचरणों का पालन नहीं हुआ था। निःसंदेह मैं नाराज नहीं थी, किन्तु मुझे उन्हें शांत करना पड़ा….किसी से सुनना महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे अंदर (व्यक्तित्व) में आना चाहिए।”

श्री माताजी के वात्सल्य की ऊष्मा उनके द्वारा प्रदत्त उपहारों में झलक रही थी, सुंदर गलीचे रोम और ऑस्ट्रिया आश्रमों के लिए तथा हर देश के लिए गुलाबी पारदर्शी रत्न (pink-Crystals vases) के फूलदान थे, “आपको इन क्रिस्टल्स (पारदर्शी सुंदर रत्नों) कि भाँति पारदर्शी, सुंदर और गरिमामय होना चाहिए।”

सामान्यतया एक गुरु को गुरु-पूजा के दौरान अपने शिष्यों को उपहार नहीं देना चाहिए, “किन्तु (हँसते हुए) मैं एक माँ भी हूँ पूर्णतया।”

तीस (30) जून को श्रीमाताजी ने ब्रुसेल्स को प्रथम सहज-कार्यक्रम से आशीर्वादित किया। कार्यक्रम स्थल (हॉल) बेल्जियन-साधकों के लिए बहुत छोटा पड़ा और साथ ही साथ पास के हॉल में एक और कार्यक्रम हुआ। दूसरे दिन श्री माताजी ने गेन्ट Gent के साधकों का उद्धार किया।

तीन (3) जुलाई को श्री माताजी हेग Hague की तराई में पधारीं, और साधकों का उद्धार किया, यह स्थान समुद्र- सतह से नीचे स्थित है। श्री माताजी ने साधकों को स्मरण कराया, “मैं तुम्हारे उत्थान के लिए यहाँ आई हूँ। यदि तुम मुझे नीचे की ओर नहीं घसीटो, तो मैं तुम्हें बहुत-जल्दी ऊपर (उत्थान की ओर) खींच सकती हूँ। अतः कृपया, मुझे नीचे की ओर न खींचें।”

बच्चों ने गुरु-पूजा में अपनी माँ के अवरोधन (निम्न स्तर के व्यवहार) के लिए अपने कान खींचकर क्षमा माँगी। 

श्री माताजी ने तब, श्री त्रिगुणात्मिका पूजा में साड़ी स्वीकार की, जिसे उन्होंने पूर्व में (श्री गुरु पूजा में) अस्वीकार कर दिया था, और मुस्कराते हुए बोलीं, “यह एक विशेष स्थान है, जहाँ एक गुरु ने माँ को समर्पण कर दिया।”

बच्चों ने परम्-चैतन्य को इस हेतु धन्यवाद दिया, इन दो घटनाओं के संयोग को सम्मोहित करने के लिए, जहाँ सांकेतिक रूप से समुद्र, जो गुरु-तत्व है, ने धरती माँ (मातृत्व) की शरण ली है। जैसे कि तीन साड़ियाँ श्री महालक्ष्मी, श्री महासरस्वती और श्री महाकाली के लिए भेंट की गईं और यह निम्न-भूमि(Low Lying Land) पवित्र भूमि हो गई।

ग्रीष्म-काल में श्री माताजी ने विस्तृत-रूप से यूरोप की यात्रा की। चार (4) अगस्त को श्री विष्णुमाया पूजा लंदन में मनाई गई। उसके बाद उन्होंने ब्राइटन और रोम में श्री गणेश पूजाओं में श्री गणेश-तत्व स्थापित किया। 

भारत लौटने से पूर्व स्विस योगियों ने उन्हें वेगिस Weggis में नवरात्रि पूजा पर यूरोप को आशीर्वादित करने हेतु धन्यवाद ज्ञापित किया। 

श्री माताजी ने कोलकाता को महाकाली-पूजा से आशीर्वादित किया। एक हवन श्री महाकाली के एक हजार आठ (1008) नामोच्चार के साथ सम्पादित किया गया। यह हवन दोपहर एक बजे शुरू हुआ और शाम चार बजे तक चलता रहा, सामूहिकता की इड़ा नाड़ी (Left Side) को स्वच्छ करने के लिए श्री माताजी ने योगियों की हथेलियों पर अपने चरण रखे। उनकी इड़ा नाड़ी से काफी गर्मी निकली और उनकी हथेलियों से पसीना चूने लगा। श्री माताजी ने सारी नकारात्मकता को अपने अंदर आत्म-सात कर लिया और उनके पाँव सूजकर आकर में दुगुने फूल गए। तब वे विश्राम करने गयीं और पल-भर भी नहीं सो पाईं। जब सहज-योगियों ने उनके चैतन्य को आत्म-सात किया,तब वे सो पाईं। जब वे जागीं, वे पूर्णतया प्रसन्न तरो-ताज़ा लग रहीं थीं। 

सत्रह (17) दिसंबर को वैतरणा में चयनित भूखंड पर भूमि-पूजा आयोजित की गई थी। श्री माताजी ने रहस्योद्घाटन किया कि महाराष्ट्र भारत की कुंडलिनी है और कुण्डलिनी के साढ़े-तीन वलयों में सप्तश्रृंगी अर्धमात्रा-आदिशक्ति स्वयं हैं। श्री माताजी ने दो सौ सहज-योगियों के लिए महाराष्ट्र की यात्रा की व्यवस्था की। इसके बाद, यह यात्रा धुलिया होते हुए ब्रह्मपुरी के लिए रवाना हुई।

ब्रह्मपुरी आने पर सहजयोगी कृष्णा नदी में जल-क्रिया (Foot Soaking) कर अति आनंदित हुए। प्रातः वेला में ठीक जैसे ही सब ठीक स्नानादि से निवृत्त हुए, श्री माताजी ने कृष्णा नदी को आशीर्वाद दिया। वे एक विशाल शिला पर विराजित हुईं और अपने चरण-कमलों को कई घंटों तक जल में स्थित रखा। उन्होंने सभी योगियों को उनके चरण-कमलों के प्रक्षालन की अनुमति प्रदान की। अपराह्न (afternoon) की धूप के बावजूद योगीजन शीतल-लहरियों में सराबोर हो गए। उन्होंने कृष्णा नदी के पावन-जल में क्रीड़ा करते हुए माँ के आशीर्वाद से परिपूर्ण दिन बिताया। 

श्री माताजी ने श्री केन्जाले Mr Kenjale को नदी के किनारे भूखंड खरीदने को कहा। (सन 2002 में श्री माताजी के चरण-कमलों से आशीर्वादित-भूखण्ड सहज-योग को दान कर दिया गया।)

कोल्हापुर के आतिथ्य (मेहमानवाज़ी) का आनंद लेने के बाद, अंततः यह यात्रा गणपतिपुले के किनारों पर पहुंची। यह संयोग से उनकी दैवी लीला थी कि उन्होंने सागर के तटीय इस सुंदर स्थान को खोजा। कुछ वर्ष पूर्व वे अपने छोटे भाई के विवाह के प्रबंध हेतु रत्नागिरी गई हुईं थीं। उनके रत्नागिरी से वापस लौटते समय उन्होंने एक बड़े तारे को देखा जो उन्हें ‘हाथ-खम्भे’ से बायीं ओर मुड़ने हेतु संकेत दे रहा था, उन्होंने अपने भाई से उस तारे का अनुसरण करने को कहा। वह तारा उन्हें गणपति मंदिर की ओर ले गया। श्री माताजी अरुणोदय के समय परम्-चैतन्य के प्रकाश से दमकती हुई उषा के सौंदर्य से चौंक गईं और बोलीं ,”यह वह स्थान है, जहाँ सभी सहज-योगीजन आयेंगे।”

उन्होंने श्री मगदुम से स्वयंभू गणेश के पास थोड़ी जमीन देखने के लिए कहा। स्थानीय रिवाज के अनुसार कोई भी जमीन नहीं बेचता था। इस प्रकार से भी मगदुम खाली हाथों लौट आए। उन्होंने श्री माताजी से बंधन देने हेतु प्रार्थना की। कुछ महीनों बाद किसी ने एक एकड़ ज़मीन दान में दी। 

क्रिसमस पर्व पर श्री माताजी ने चौपन (54) वैवाहिक जोडों का चयन किया। रूढ़िवादी हिन्दू सहज-योगी चाहते थे कि शादियाँ शुभ-मुहूर्त में गृह-नक्षत्रों की खगोलीय अनुकूल स्थिति में सम्पन्न की जायें। 

श्री माताजी ने उन्हें याद दिलाई, “आत्मा मंगलमयता का क्रियान्वयन करती है। पंचांग (कैलेंडर) नहीं करते। पहले देवी माँ की पूजा होती है। जब उनका आशीर्वाद मिलता है, वही शुभ-मंगलमय समय (क्षण) है।”

तदनुसार, अल्पकालीन सूचना पर क्रिसमस-पूजा के लिए प्रबंध किए गए। एक मिट्टी की स्टेज (मंच), जिस पर घास-फूस छाई गई, उसका निर्माण हुआ। श्री माताजी इसे देखकर बहुत प्रसन्न हुईं, क्योंकि इसने उन्हें ईसा-मसीह के जन्म-स्थल (जीर्ण-पशुशाला) की याद दिला दी। 

सहज-सामूहिकता ने श्री माताजी से आयोजन स्थल पर एक निर्मला-नगरी स्थापित करने की प्रार्थना की। श्री माताजी ने समस्या को एक बड़ा बंधन दिया। (इसके शीघ्र पश्चात् छह एकड़ जमीन खरीद ली गई। ‘निर्मला-नगरी’ श्री माताजी के नाम पर वहाँ बसाई गई।)

नव वर्ष की पूर्व-संध्या पर, श्री माताजी ने विवाहोत्सव को आशीर्वादित किया। यहीं से आगे (भविष्य में), पूजा के बाद सभी कार्यक्रम और सहज-सेमीनार (शिविर) हुए।

अध्याय-16

नव-वर्ष गणपतिपुले में श्री गणेश पूजा के आशीर्वाद का परिचायक था। इसके पश्चात इंडिया-टुअर (भारत-यात्रा) कोल्हापुर के लिए रवाना हुई। छह (6) जनवरी को सांगली में श्री महालक्ष्मी पूजा आयोजित हुई। श्री माताजी ने जाहिर किया कि श्री महालक्ष्मी की शक्ति मध्यमार्ग (सुषुम्ना) है और यही शक्ति आज्ञा-चक्र पार करके विराटांगना होकर आभासित हुई। 

इस यात्रा ने आठ (8) जनवरी को श्री देवी पूजा हेतु पुणे के लिए प्रस्थान किया। 

मकर-संक्रांति के शुभ अवसर पर श्री माताजी ने एन. डी. ए. रोड पर ग्यारह एकड़ के भूखंड पर फार्म हाउस के निर्माण का शुभारम्भ किया। उन्होंने इसे’प्रतिष्ठान’ नाम प्रदान किया, जो कि उनके पूर्वजों की राजधानी के नाम पर रखा गया, जिन्होंने पैठण राज्य पर शासन किया था।

श्री माताजी के पति श्री सी. पी. सर एक वर्ष में सेवामुक्त होने का विचार कर रहे थे और वे तब तक यह फार्म-हाउस पूर्ण होने के लिए आतुर थीं। यद्यपि वास्तुकारों ने कई ठेकेदारों के सुझाव दिए, किन्तु उन्होंने स्वयं इसे बनाने का निश्चय किया। उन्होंने कहा कि जब सहज-योगीजन स्वयं कार्य हाथ में लेते हैं,तो परम -चैतन्य की कृपा-वृष्टि होती है। 

वे एक प्रभावशाली-निर्माण (कृति) नहीं खड़ा करना चाहतीं थीं, किन्तु प्रकृति माँ की गोद में अपने वात्सल्य से परिपूर्ण एक स्वागतातुर-मुखौटा (मुख द्वार) के निर्माण का विचार रखती थीं और वैश्विक-परिवार के लिए एक अमन-चैन (सुकून से भरे) घर का विचार रखती थीं। इससे एक पुरातन भविष्यवाणी पूरी होती है, जो उनके अवतरण को कम्फर्टर “आरामदायिनी” वर्णित करती है। 

श्री माताजी फार्म-हाउस के निर्माण की देखभाल (निरीक्षण) करने हेतु कोथरुड में दो-शयन कक्ष वाले ‘फ्लैट’ में रहने चलीं गईं। थोड़े से समय में ही,शक्ति ने गति पकड़ी- वे हर जगह उपलब्ध रहतीं, एक मिनट वे छत की चढ़ाई हुई दिखाई देतीं, और दूसरे मिनट वे भूतल ground floor पर मिस्त्री की प्रशंसा कर उसे प्रेरणा प्रदान करती हुई दिखाई देतीं, उनके कार्य-कौशल में परिवर्तन करने, नए प्रयोगों की स्वीकृति हेतु, रंगों के पुनर्मिश्रण के चयन,उनकी परतों (coats) और उनके रंगने (coating) के अंतिम स्वरुप को स्वीकृति की हामी-भरती-हुई दिखाई पड़तीं। 

प्रतिष्ठान की नींव खोदते समय एक विशालकाय चट्टान ने कार्य में व्यवधान उपस्थित किया। विस्तृत खुदाई के बावजूद यह व्यवधान अंत-रहित चलता रहा और शिल्पकार ने इस विषय को श्री माताजी के संज्ञान में डाल दिया। वे बोलीं, “आप एक स्वयंभू को कैसे धरती माँ से बाहर कर सकते हो।”

इस तरह से श्रोतागण हेतु (Audience Hall) बनने वाले हॉल का निर्माण बिना स्वयंभू को हटाए किया गया। पौराणिक कथनानुसार यह वह स्थान था,जहाँ श्री सीताजी अपने वनवास के दौरान ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं थीं। महान तपस्वी ऋषि वाल्मीकि की समाधि प्रतिष्ठान से करीब तीस मील सासवाड के पास वेल्टी गांव में है। 

श्री माताजी स्वयं कला हैं और कलाकार हैं। उनका पवित्र दर्शन (स्वप्न) एक कविता जैसा विस्तारित हुआ। पाँच वास्तु-विद इस कविता को लय/ताल बद्ध करने हेतु नियुक्त किए गए। उन्होंने उन्हें कई महलों के चित्र दिखाए। श्री माताजी ने उन स्थानों के चैतन्य को पता करने को कहा। उन्हें ग्वालियर के महल के फोटो से ठंढे-चैतन्य महसूस हुए। श्री माताजी ने स्वीकृति दी कि ग्वालियर महल के स्थापक एक आत्म-साक्षात्कारी थे, “एक आत्म-साक्षात्कारी का दर्शन (सोच) उसकी आत्मा के साथ लय-बद्ध होता है। वह अपनी कुंडलिनी के आनंद को अपनी कविता में जीवंत करता है।”

पाँच सहज-शिल्पकारों की टीम को पहले अपने अन्तःस्थ (आत्मा) कवित्व से परिचित होना था, (यानि अपना आत्म-साक्षात्कार लेना था), इसके पूर्व कि वे श्री माताजी के महान स्वप्न की (कविता की) तुकबंदी (शब्द-चयनिता) को शुरू कर सकें। 

श्री माताजी ने शिल्पकारों को प्रोत्साहित किया। धीरे- धीरे शिल्पकारों का कर्ता-भाव धुंधला (मंद) होता गया और परम्-चैतन्य ने कविता को साकार स्वरुप प्रदान किया। 

परम्-चैतन्य ने शिल्पकला को चैतन्य से लयबद्धता प्रदान की। सीधी रेखाओं और तीक्ष्ण-मोड़ों (कोनों) को श्री माताजी द्वारा मधुर-लयबद्धता प्रदान की गई। इस कविता को जालीदार पत्थर की खिड़कियाँ आनंद से लयबद्ध कर रही थीं। मकान (भवन) का पार्श्व-भाग टेराकोटा की टाइल्स से पटा हुआ था। मकान (भवन) की आंतरिक सज्जा, जीवंत-ललित-स्तम्भों जो कि जटिलता भरे कंगूरों को आधार प्रदान करते हुए थे, से सुशोभित थी। 

प्राकृतिक पदार्थों के प्रति श्री माताजी में स्वाभाविक (जन्म-जात) संवेदना (अनुभव क्षमता) थी। वे वस्तु की चैतन्य-लहरियों से उसके सहज या कृत्रिम होने को बता सकती थीं। शिल्पकारों ने फर्श के लिए टाइल्स का सुझाव दिया था, किन्तु उन्होंने संगमरमर को चुना, “संगमरमर चैतन्य को सबसे बेहतर अव-शोषित करते हैं।”

उनके अनुसार, “लोहे या एल्युमीनियम की खिड़कियाँ/चौखटें नहीं, केवल काष्ठ(लकड़ी) की खिड़कियाँ/चौखटें।” उनके दामाद श्री रोमेल वर्मा ने खासतौर पर रोज-वुड चौखट हेतु, एक पूरा कंटेनर बिहार से भेजा।

श्री माताजी इतने बड़े भवन के रख-रखाव की समस्या से पूर्णतया सचेत थीं, अतः उन्होंने दीवारों का रंग स्लेटी चुना। इससे आंतरिक सज्जा का आकर्षण बढ़ा! दीवारें नील वर्ण की ग्लेज़्ड साटिन टाइल्स (नीली चिकनी/चमकदार टाइल्स), बर्न्ट पिंक्स और लेमन्स से आवरित थीं। कमरों की सजावट, पूरे विश्व-भर से लाई हुई कलाकृतियों से सज्जित थे। एक बड़े भव्य कमरे (हॉल) का निर्माण उनकी बेशकीमती संग्रह पुरातन संगीत के-वाद्य-यंत्रों के प्रदर्शन हेतु विशेष रूप से किया गया था। 

(यह संग्रह बाद में पी. के. साल्वे संगीत-एकेडमी, वैतरणा को स्थानांतरित किया गया।)

मुंबई और पुणे के कार्यक्रमों के बीच उनका चित्त कारीगरों के कल्याण पर टिका। उन्होंने उनके रहने के लिए हट्स (झोपड़ियाँ) बनवाईं और पीने के स्वच्छ-जल की व्यवस्था की। त्यौहारों के अवसर पर उन्होंने कारीगरों के बच्चों के लिए कपड़े और खिलौने ख़रीदे। उनकी स्वास्थ्य-संबंधी समस्याओं पर ध्यान दिया और सहज योगियों को उनके लिए सहज-उपचार देने के लिए निर्देशित किया। बिना किसी औपचारिक-पाठ के, यह सहज-उपचार के प्रशिक्षण की शुरुआत थी।

पुणे की युवा शक्ति ने निर्माण-कार्य की टीम में सम्मिलित होने हेतु माँ की अनुमति माँगी। श्री माताजी उनके मेहनताने अदा करने पर दृढ रहीं। सहज-योगियों ने इस हेतु मना किया, किन्तु उन्होंने कहा, “इस भवन का निर्माण मेरे पतिदेव की सम्पत्ति से हो रहा है और यदि उन्हें पता चले कि मैंने तुम्हारी सेवाएँ बिना भुगतान किए स्वीकार की हैं, तो वे अंदर कदम भी नहीं रखेंगे।”

सहज-सेवा प्रदान करने वाले योगियों को सुन्दर वेतन के अलावा, श्री माताजी उनके लिए बहुत लज्जतदार सुस्वादु भोजन बनातीं थीं। पौ फटते ही (प्रातः काल) वे सब्जी मंडी और फल मंडी पँहुचतीं और अपने हाथों से रुचिकर सब्जी और फलों का चयन करतीं थीं। 

उन्हें कभी यह अहसास नहीं हुआ कि वे उनके लिए काम कर रहे थे, यह निष्केवल-प्रेम का प्रवाह था। वे स्वयं के मालिक थे, उन पर काम का कोई दवाब नहीं था, न कोई उन्हें उत्तेजित करने वाली समय-सीमा ही थी। यह अंतर्मुखी-यात्रा इतनी संतुष्ट करने वाली थी कि किसी भी गंतव्य (लक्ष्य) पर पहुँचने की चिंता नहीं थी। 

जब भवन की पहली छत ढाली जा रही थी, वास्तुविद वस्तुतः थोड़े आशंकित थे, क्योंकि छत का क्षेत्रफल बहुत-ज्यादा था और एक दिन में पूरी छत-ढालना (roof casting) सम्भव नहीं था। श्री माताजी अपने फ्लैट (आवास) में आराम कर रहीं थीं। करीब सायं काल पांच बजे वे जागीं और बोलीं, “हमें चलना चाहिए, छत की ढलाई (casting) पूरी हो गई है।”

वास्तुविद बोले, उन्होंने कैसे जाना कि छत की ढलाई पूर्ण हो गई थी। वे बोलीं, “मैं चैतन्य लहरियाँ महसूस कर रहीं हूँ, हमें चलना चाहिए।”

निस्संदेह! प्रतिष्ठान पहुँचने पर, नई ढली हुई छत धूप में चमक रही थी और कामगार लोग बहुत पहले जा चुके थे। यह कार्य संभावित-समय से आधे समय में ही हो गया था!

जब छत ढाली जा रही थी, तो भवन-निर्माण सामग्री (जैसे पाड़ बाँधने का सामान- बाँस, बल्ली, रस्सी आदि) की कमी हो गई थी। छत की ढलाई के मंच हेतु उपयोग होने वाले छब्बीस खम्भों की जगह सोलह खम्भे ही उपलब्ध थे। श्री माताजी ने आश्वस्त किया,”सोलह! यह संख्या श्रीकृष्ण की कलाओं की है।”

–और छत की ढलाई के मंच हेतु सामग्री पर्याप्त रही। जब छत की आखिरी स्लैब (last slab) ढाली जा रही थी, सीमेंट की कमी लगी। श्री माताजी ने एक बंधन दिया और राज-मिस्त्री को काम जारी रखने को कहा। 

इस छत की ढलाई पूर्ववर्ती छत की ढलाई से न केवल बेहतर रही, बल्कि सीमेंट की सात-बोरियाँ बची रहीं!

चमत्कार के बाद चमत्कार घटित होते गए। श्री माताजी ने पुराना एक चमत्कार सुनाया, “जब मेरा लखनऊ वाला भवन बनाया जा रहा था। मैंने पूरी की पूरी चूने की भट्टी (kiln) खरीद ली थी। उसका चूना न केवल उस भवन हेतु पर्याप्त रहा बल्कि और भी शेष बचा रहा। अतः मैंने अतिरिक्त बचे चूने को बेच दिया और उसमें चूने की पूरी कीमत वसूल हो गई।”

श्री माताजी युवा-शक्ति की ओर मुड़ीं और कहा, “हमेशा उत्कृष्टता की आकांक्षा करो, यह अपने आप में एक पुरस्कार है। यह इतनी परिपूर्णता लिए है।”

आखिरी छत (slab) की ढलाई के पूर्ण होते ही वे तत्काल प्रबंध-कक्ष में चलीं गयीं। धूल, गोपनीयता की कमी और अन्य सहूलियतों की कमी ने उन्हें परेशान नहीं किया। दिन के कार्य की पूर्णता के बाद युवा-शक्ति श्री माताजी को घेरकर आसपास बैठ जातीं और अपनी कविताओं की तुक-बंदी करती। भजनों के बाद भोजन (dinner) होता। प्रत्येक शाम की समाप्ति पर प्रसाद का आशीर्वाद मिलता और हरेक को उदारता-पूर्वक इनाम मिलते।

किन्तु, यह काव्य रचना हमेशा सम्भव न हो पाती, विशेषकर जब युवा-शक्ति के चक्रों से व्यवधान उपस्थित होते। एक युवा कर्मी से फैली (अग्नि) गर्मी सामूहिकता को भी प्रभावित करती या कोई बायीं ओर (इड़ा नाड़ी) की पकड़/ बाधा सामूहिकता को निम्न-स्तर पर खींच लाती। तो भी, श्री माताजी का चित्त सामूहिकता के चक्रों पर लगातार बना रहता- उनकी मुस्कान, योगियों के उत्साहवर्धन हेतु कहे गए कुछ शब्द और चैतन्य-लहरियों का प्यार-भरा स्पर्श पर्याप्त था। 

घंटे दिनों में, दिन सप्ताहों में और सप्ताह महीनों में बीतते चले गए और इसके पूर्व ही उन्होंने एक दूसरे को प्यार करना सीख लिया। तब यह कविता लयबद्ध हुई, क्योंकि यह कविता दूसरों से कैसे प्यार किया जाय, उसके बारे में थी।

फिर भी, यदि प्यार की इस कविता में असफलता आती, तो वे अपनी महामाया सर्वतोमुखी शक्ति का आश्रय लेतीं। परम् चैतन्य ने एक नाटक का विधान किया, उनकी विसंगति/मतभेद और झगड़े पैदा करने-वाली टिप्पणी को जाहिर करने हेतु। उनके वात्सल्य के प्रिज्म से प्रसारित विभिन्न रंगों के प्रकाश में विसंगतियाँ पैदा करने वाली टिप्पणियां को देख पाना सम्भव था तथा उन्हें दुरुस्त करना भी सम्भव था। उनका ठीक करने का तरीका इतना कोमल होता, जैसे कोई पंखुड़ी जमीन पर गिरती है।

इस तरह (परम् चैतन्य) दिव्य कवि ने सहज-परियोजना (Project) की आकाश-गंगा में काव्य (पद्य) संग्रह की श्री माताजी की रचना को, लय-बढ़ता का साकार रूप प्रदान किया। हालाँकि वे लोग कवित्व से सम्पन्न थे, लेकिन जन्मजात हठधर्मी (क्रियावादी) थे। श्री माताजी ने श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी दोनों के आशीर्वाद एक साथ अभिसरित किए। उदाहरण के लिए, उन्होंने कभी वित्त (अर्थ-व्यवस्था) नहीं पढ़ी, फिर भी उन्हें जन्म-जात वस्तुओं की कीमत का अनुमान था। वे हमेशा वस्तुओं का सही मूल्य बता सकतीं थीं। यदि उन्हें वस्तु का मूल्य असामान्य लगता, उन्हें उसे खरीदने हेतु फुसलाया नहीं जा सकता था। 

एक पूजा में साज-सज्जा पर बड़ी रकम खर्च की गयी थी। 

एक कटाक्ष-मात्र से ही, वे बता सकीं कि खर्च असामान्य हुआ था। 

श्री माताजी ने प्रतिष्ठान का निर्माण-कार्य ठेकेदारों के द्वारा उद्धृत की गई अनुमानित राशि की आधी कीमत में ही सम्पन्न करा लिया। इसके अतिरिक्त निर्माण-सामग्री बची, जिसे उन्होंने सहजयोग को दान कर दी। वास्तुविदों ने यह पाया कि यदि इस परियोजना (प्रोजेक्ट) में पूर्णता पर अतिरिक्त-सामग्री बची है, तो यह देवी माँ की कृपा का संकेत था। यह असाधारण घटना ‘बरकत’ शब्द में (अनुशीर्षक में) उद्धृत होती है।

अध्याय–17

इकतीस (31) जनवरी को सहज-योगियों के टुअर (यात्रा) ने राहुरी में पड़ाव डाला। साधारण स्वास्थ्य-संबंधी समस्याएं सहज-सामूहिकता में थीं और श्री माताजी ने निर्देशित किया कि विभिन्न समस्याओं को ठीक करने के लिए कैसे चैतन्य देना है। 

सहज-यात्रा चैतन्य से परिपूर्ण हुई नीरा नदी के किनारे पहुंची जहाँ श्री माताजी ने जमीन खरीदी थी। वणी के सहज-कार्यक्रम के बाद वे मुंबई वापस पहुंचीं।

श्री माताजी को चाय देते समय संयोगवश कुछ चाय सेविका द्वारा उनकी साड़ी पर छलक गई। सेविका डर के मारे स्तब्ध रह गई, (मानो) हजार मृत्यु से सामना हुआ हो। श्री माताजी ने उसकी इस बेचैनी को समझकर चाय का पूरा कप ही अपनी साड़ी पर डाल दिया, “देखो मेरे से भी चाय छलक गई।”

श्री माताजी उसे थपथपाते हुए उसे आश्वस्त करते मुस्कराईं, “इतना परेशान होने की जरुरत नहीं, यह एक ऐसी पुरानी साड़ी है। मैं तुम्हें देने वाली थी। आओ, अब मुझे एक कप चाय और डालो।” सेविका के चेहरे की रंगत वापस आ गई, किन्तु अपने प्रति किए गए अहसान से अपने आँसू नहीं रोक पाई। श्री माताजी ने अपनी साड़ी बदली और उस (पुरानी) साड़ी को सेविका को उपहार स्वरूप दे दी (वस्तुतः वह साड़ी एकदम नई थी। )

उसके बाद, श्री माताजी कार्यक्रम के लिए चल दीं। भ्रमवश, एक योगी, जो श्री माताजी के साथ ठहरा था, पीछे छूट गया। बीच रास्ते,जब उन्हें पता चला कि वह योगी पीछे छूट गया था। यद्यपि यह एक लम्बा रास्ता था और वे कार्यक्रम के लिए विलम्बित (late) हो रहीं थीं, उन्होंने ड्राइवर को उसे वापस लिवाने हेतु निर्देश दिए। 

फरवरी के प्रारम्भिक दिनों में लायंस-क्लब, कोलकाता ने उन्हें सहज-कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित किया। वे दुःख-संतप्त धनाढ्य व्यापारी वर्ग को मुक्त करने के लिए उत्सुक थे। श्री माताजी ने कहा, “परमात्मा को पैसा समझ नहीं आता है। एक साधक को पैसे की दृष्टि से नहीं तौला जा सकता, किन्तु उसकी कीमत उसकी साधना की गहराई से है। सहज-योग में आपको पैसा किसलिए चाहिए। पैसों से आप किसी की कुंडलिनी नहीं उठा सकते!निस्संदेह, पैसा अपने आप में एक बड़ा आकर्षण है, किन्तु सहज-योग में नहीं!”

वे जन साधारण तक पहुँचना चाहतीं थीं। उसके अनुसार ही जन-साधारण हेतु सहज-कार्यक्रम सफारी पार्क के खुले लॉन (घासों पर) आयोजित किए गए। सुबह का समय ध्यान सत्र का और शाम का समय प्रवचन का होता। ठीक एक वर्ष पूर्व के मुट्ठी-भर सहज-योगियों से उनकी संख्या बढ़कर एक सौ हो गई। वे बहुत प्रसन्न थीं, “सुनहरा बंगाल (सोनार बांगला) भारत के आध्यात्मिक परिवर्तन का प्रवेश द्वार होगा।” 

सत्रह (17) फरवरी को जयपुर के लायंस-क्लब ने उन्हें आमंत्रित किया। उन्होंने बताया कि लायंस क्लब उन्हें मान्यता देने वाले प्रथम हैं, क्योंकि ‘सिंह’देवी माँ का वाहन है। 

बीस (20) फरवरी को वे दिल्ली पहुंचीं। दिल्ली ने देखा कि गुण-वत्ता वाले साधकों का रुझान आध्यात्मिकता की ओर हुआ है, जिनमें ज्यादातर राजनयिक, पेशेवर, विद्यार्थी और कुछ डॉक्टर्स थे। योगीजन VIPs के यकायक आदर-युक्त भय में (संकोच से), श्री माताजी को उनके (VIPs के) घरों में आमंत्रण स्वीकार करने हेतु प्रार्थना कर रहे थे। श्री माताजी योगियों के अति-विशिष्ट-व्यक्तियों (VIPs) के प्रति इस भयमिश्रित आदर से चिंतित थी,जैसे कि वो कोई देवता थे। श्री माताजी ने स्पष्ट बताया कि उन्होंने (योगियों ने) अभी तक अपनी आत्म-गरिमा को नहीं पहचाना था और यही वजह थी कि योगीजन बाह्य के आवरणों से इतने प्रभावित थे। यह अंग्रेजों की गुलामी से जन्मी उनकी संस्कारिता थी। 

श्री माताजी बोलीं, “यदि वे (VIPs) वास्तव में सत्य साधक हैं, तो यह महत्त्वपूर्ण है कि अपनी साधना के हित में वे आम-जनों के साथ बैठकर सहज-योग जन कार्यक्रम में शरीक हों।अति विशिष्ट व्यक्ति (VIPs) केवल अपने अहंकार की संतुष्टि चाहते हैं और धनाढ्य लोग सोचते हैं कि वे भगवान को खरीद सकते हैं। मैं किसी से भी पैसा स्वीकार नहीं करती। कुण्डलिनी-शक्ति को पैसों से मतलब नहीं। वे (कुंडलिनी माता) नहीं उठेंगी, यदि आप अपने आत्म-साक्षात्कार के लिए पैसे दें। 

धीरे-धीरे (VIPs) अति विशिष्ट व्यक्तियों में से सच्चे साधकों को, यह समझ आ गई कि श्री माताजी दूसरे गुरुओं की तरह नहीं थीं और वे उनके ओहदों और सम्पन्नता की परवाह नहीं करतीं। वे श्री माताजी के कार्यक्रमों में आए और अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। 

चौबीस (24) फरवरी को दिल्ली विश्व -विद्यालय विद्यार्थी संघ ने उन्हें अपने कार्यक्रम  (समारोह) (harmony 86) “समन्वय-86” में आमंत्रित किया। श्री गुलाम नबी आज़ाद एक कैबिनेट मंत्री ने श्री माताजी का अंतर्राष्ट्रीय-व्यक्तित्व की हैसियत से विश्व-शांति के प्रसार हेतु सम्मान किया। श्री माताजी ने एक अंतर्राष्ट्रीय सहज-विद्यार्थी-सम्मेलन बनाने पर मार्ग-दर्शन प्रदान किया। 

पुणे वापस लौटने पर उन्होंने पाया कि उनकी कविता (प्रतिष्ठान) लय-बढ़ता से परे चली गई थी, सिढ़ाव (stair-case) चौड़े बनाने के बजाय, वास्तुकारों ने संकरे सिढ़ाव बना दिए थे। श्री माताजी ने स्पष्ट बताया, “आप इतने बड़े प्रासादीय-भवन के लिए इतने संकरे सिढ़ाव (stair-case) कैसे बना सकते हैं। यह पूर्णतया असामान्य (विषम) है। यह भवन की प्रकृति के अनुकूल नहीं है।”

वास्तुकारों को निरुत्साहित व भयभीत करते हुए, उन्होंने दीर्घकाय-सिढ़ाव गिरवाकर, शानदार-भवन हेतु चौड़े शानदार सिढ़ाव दुबारा बनवाए!

“उत्तर है संतुलन होना। भवन के स्तम्भ (खम्भे) सही अनुपात में मूलाधार में विशालतर होने चाहिए। कमरों के साइज के समानुपाती ही दरवाजे होने चाहिए।”

उनका अंतर्जात “अनुपात का ज्ञान” इस प्रतिष्ठान भवन को बनाने में सफलता का रहस्य था/इस कविता को लय-बद्धता प्रदान करने का रहस्य था। योगिनियों को साड़ियों के चयन के समय भी वे तुरंत ही सहज-भाव से उम्र-दराज महिलाओं से कम उम्र वाली महिलाओं के लिबास के रंगों में उचित अंतर का चुनाव करतीं हैं। उनका व्यक्तित्व सहज ही सांसारिक तुच्छ वस्तुओं में पीछे हट जाता था और यही है, जब योगीजन चूक (गलती) कर जाते थे!

वे प्रौढ़ परम्पराओं और भावनाओं के प्रति सम्मान हेतु विशेष ध्यान देतीं। दूसरों की भावनाओं को आहत किये बिना, लय-बद्धता को कायम रखने की चतुरता के संदेशों को सभी तक फैलाना, ही चातुर्य है। “मैं जानती हूँ कि यह उसकी गलती नहीं थी, किन्तु उसे अपने से बुजुर्गों के प्रति इस तरह से प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिए था।”

अध्याय-18

जन्म-दिवस पूजा के बाद श्री माताजी कैम्ब्रिजशायर के ग्रामीण-क्षेत्र में सहज-योग आश्रम की स्थापना को अंतिम स्वरुप प्रदान करने यू. के. (इंग्लैंड) लौट आईं। भूमि-पूजा के अवसर पर उन्होंने इसे ‘शुडी-कैम्प्स’ नाम दिया स्वयं के शुद्धिकरण करने हेतु केंद्र ‘शुद्धि-केंद्र’। श्री माताजी ने यह रहस्य प्रकट किया कि कैसे परम्-चैतन्य ने शुडी-कैम्प्स को खोजा। एक हवाई-जहाज की यात्रा के दौरान अचानक एक पत्रिका के विज्ञापन से भूखण्ड की चैतन्य-लहरियां महसूस हुई, और तभी उन्होंने इसके लिए नीलामी में बोली लगाई!

कई अंग्रेज सहज-योगियों ने इस आश्रम के निर्माण में अपनी सेवाएं दीं। श्री माताजी ने उन्हें स्वर्णिम-भवन निर्माता कहा था। 

सहस्रार पूजा इटली के मेडेसीमो में चार (4) मई को आयोजित की गई। श्री माताजी ने ध्यान दिया कि योगियों में एक तरह की जड़ता (निष्क्रियता) आ गई थी, जो उन्हें सहज-योग अंगीकार करने से रोक रही थी, जिस तरह से इसकी स्वीकारिता होनी चाहिए, नहीं हो रही थी। उन्होंने योगियों को अपने अर्द्ध-पक्व चेतना से ऊपर उठने हेतु प्रवृत्त किया, जहाँ वे अपने प्रति-अहंकार और अहंकार के साथ निरंतर जीते रहे, उन्होंने कहा, “तुम्हें अपने कार्यों के प्रति जागृत रहना होगा, तुम्हें स्वयं के प्रति सचेत रहना पड़ेगा कि तुम क्या कर रहे हो?- अतः मस्तिष्क का वह बिंदु, जो मस्तिष्क के अचेतन (अनभिज्ञ) हिस्से का कार्य कर रहा है, उसे सचेत (विवेकपूर्ण) बनाना होगा। यही है, जिसे उत्क्रांति कहा है। विवेकशीलता जो कि मैं अपने ह्रदय से कर रही हूँ, इसी को मैं चाहती हूँ कि आप इसे प्राप्त करें।”

पूजा ने उनकी (योगियों की) विवेकशीलता में एक नए आंदोलन की हलचल पैदा कर दी, जिसके द्वारा अचेतन के प्रति सचेत होना संभव हो पाया। इस प्रकार आत्म-संचलित नर्वस सिस्टम (autonomous nervous system) उनकी चेतना/बोध में प्रतिबिम्ब होने लगा। इससे आभास हुआ कि कुंडलिनी के साथ संबंध की प्रगाढ़ता अपने, ‘स्व’/’आत्मा’ के प्रति सचेत बने रहने की कुंजी है। श्री माताजी देवी-पूजा और सहज-कार्यक्रम हेतु फ्रांस रवाना हुईं। 

श्री गणेश-पूजा मेड्रिड में चौबीस (24) मई को आयोजित हुई। श्री माताजी ने समझाया, सहज-योग कैसे फैलाना है। पहले प्यार का भाव प्रकट होना चाहिए और तब ही ज्ञान की बात होनी चाहिए।

दो (2) जून को ऐंगलवुड, न्यू-जर्सी में श्री कृष्ण पूजा आयोजित की गई। दस वर्षों बाद, पूजा का आशीर्वाद एक सुंदर आश्रम के रूप में पड़ोस में ही दिखाई दिया। 

पाँच (5) अगस्त को ऑस्ट्रिया में श्री गुरु-पूजा और सहज-कार्यक्रम आयोजित हुए। उसके बाद जर्मनी में श्री कार्तिकेय-पूजा का आयोजन हुआ। श्री माताजी शुडी-कैम्प्स के लिए भूमि-पूजा हेतु लौट आईं। पूजा के बाद तेईस (23) अगस्त को स्विट्ज़रलैंड में श्री कृष्ण पूजा हेतु रवाना हुईं।

एक बार और सितंबर के प्रारम्भिक दिनों में श्री माताजी ने अमेरिका को आशीर्वादित किया। अमेरिकन योगी अभी भी बहस कर रहे थे कि श्री माताजी की छाया-प्रति (फोटोग्राफ) ड्राइंग-रूम में रखी जाय या नहीं। श्री माताजी ने कहा, “यदि आपने मुझे पहचान लिया है, तो फिर यह आत्म-संशय क्यों हो?”

विश्व-सामूहिकता ने मुठ्ठी-भर अमेरिकन सहज-योगियों द्वारा न्यूयार्क, सेन-डिएगो, लॉस एंजेलिस और पूर्वी समुद्र-तटीय स्थानों पर सहज-कार्यक्रमों को आयोजित करने के प्रयासों को मजबूत (पुष्ट) किया।

सामूहिकता की इच्छा-शक्ति ने अमेरिका में सहज-योग प्रसार को फली-भूत किया। कार्यक्रमों में हॉल साधकों से भरे होते थे और अमेरिका में सहज-योग ने अपनी जड़ें जमा लीं। सात (7) सितंबर को सेन-डिएगो में श्री गणेश पूजा में श्री माताजी ने अमेरिका का गणेश-तत्व स्थापित किया। 

बाद में, सितम्बर में श्री माताजी पूजा और सहज-कार्यक्रम के लिए यूरोप के हॉलैंड और बेल्जियम लौटीं। उन्होंने यह रहस्य बताया कि कैसे दोनों देश विराट की लीला से आपस में संबंधित थे, जहाँ वे विश्व कि बायीं नाभि का हिस्सा थे। जहाँ बेल्जियम विश्व-शांति और हॉलैंड न्याय के लिए खड़े थे। ये दोनों गुण एक दूसरे के पूरक थे,एक दूसरे पर आश्रित थे। जहाँ अन्याय था, वहाँ शांति कैसे हो सकती थी। 

एक डच (हॉलैंड वासी) योगी ने पूछा, “यह कैसे है कि गंभीर नकारात्मकताओं के बावजूद हॉलैंड अभी तक समुद्र में नहीं डूबा है।” श्री माताजी मुस्कराईं, “क्योंकि हॉलैंड आदिशक्ति के लिए फूलों का उत्पादन कर रहा है और तुम सब जानते हो, उन्हें फूल बहुत पसंद हैं।”

एक प्रश्न के उत्तर में श्री माताजी ने हेग कार्यक्रम में यह स्पष्ट किया कि उन्होंने कुंडलिनी को कभी सर्पिणी शक्ति कहकर वर्णन नहीं किया था। और यदि दूसरों ने ऐसा वर्णन किया था, तो उन्हें इस हेतु स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। 

सत्रह (17) सितंबर को उन्होंने हॉलैंड-सामूहिकता के साथ अंतरंग-संध्या बिताई। एक प्रश्न के उत्तर में कि कैसे लोगों को प्रभावित किया जाय, उन्होंने उत्तर दिया, “वास्तव में दूसरों को प्रभावित न करके, आप उन्हें प्रभावित करते हो। अपनी कला को छुपाए रखने में ही कला विराजती है। कोई वाद-विवाद जान-बूझकर नहीं होना चाहिये…..।”

नौ (9) अक्टूबर को वे कोलकाता में नवरात्रि के लिए पधारीं। पिछले एक सप्ताह से बड़ी क्रूरतापूर्वक बारिश हो रही थी और सहज-योगी पूजा हेतु प्रबंध को लेकर चिंतित थे। जैसे ही श्रीमाताजी के विमान ने धरती का स्पर्श किया, चमकती हुई धूप (सूर्य देव) ने उनका स्वागत किया। 

दस (10) अक्टूबर को श्रीमहादेवी पूजा का आयोजन हुआ। श्रीमाताजी ने बंगाल से अपने पौराणिक संबंध याद करते हुए कहा कि उन्होंने भक्तों को बचाने के लिए बड़ी बाधाओं को पार किया था और असुरराज महिषासुर को नष्ट किया। किन्तु, अब बंगाल तांत्रिकों के चंगुल में फँसा हुआ था और वे ही इस अधम गरीबी के कारण थे। 

श्री माताजी उन्हें कमल पुष्प भेंट करने से अति प्रसन्न थीं। उनके बच्चों की भक्ति भारी मात्रा में साधकों को ‘आइस स्केटिंग रिंक’ पर खींच लाई, जहाँ तीन रातों के लिए ‘लायंस-क्लब-अंतर्राष्ट्रीय’ ने सहज-कार्यक्रम आयोजित किए थे। एक आतंरिक जानकारी उन्होंने साधकों से पूछी, “हम कौन हैं, हमारा उद्गम (स्रोत) क्या है और कैसे हम उससे जुड़े हुए हैं?” श्री माताजी ने सार बताते हुए कहा, “इसका उत्तर सहज-योग है-यह सभी समस्याओं का हल है।”साधकों को सहज-योग की गहराई में बने रहने हेतु, सहायता के लिए उन्होंने स्वयं ध्यान-सत्रों का मार्ग-दर्शन किया। 

श्री माताजी पुणे का लक्ष्मी-तत्व स्थापित करने वापस पुणे चली आईं। श्री गणेश और मारुति (हनुमान) मंदिर हरेक गली में टेलीफोन-बूथ की तरह झूठे गुरुओं द्वारा पैसा बनाने के लिए स्थापित किए गए थे, जिससे अलक्ष्मी-तत्व बढ़ता है। नवम्बर के पहले सप्ताह में पुणे में दिवाली-पूजा ‘पुष्पक-मंगल-कार्यालय’ में आयोजित हुई। उन्होंने लक्ष्मी-तत्व की गलत-धारणा को दूर किया और उसके सार-तत्व को जाहिर किया। 

उन्होंने सामूहिकता में एक ज्योति जाग्रत की। दिवाली पर प्रकाशित होने वाले दीयों की तरह, उस ज्ञान-दीपक ने दूसरों को प्रकाश (बोध) दिया और यह अनंत काल तक माँ को दिखाने हेतु दमकता रहा। 

दिवाली की अँधेरी रात को देवी श्री लक्ष्मी आत्मा की ज्योत को जाग्रत करने शान्तिपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान गईं। ऐसी दिवाली की रात को दिल्ली शहर ने अपनी आंतरिक-जागृति के आमंत्रण हेतु दीयों के प्रकाश से मार्ग प्रशस्त किया।

डाक्टर यू. सी. राय अति उत्सुक थे कि श्री माताजी सहज-योग का प्रवेश मेडिकल-साइंस के क्षेत्र में करें। उन्होंने एक मेडिकल-कांफ्रेंस कराई और डॉक्टर्स ने उन्हें शांतिपूर्वक सुना। बहुत से डॉक्टर्स ने अपनी आरोग्यता हेतु प्रार्थना की। श्री माताजी मुस्कराईं, “पहले आप अपना आत्म-साक्षात्कार लें, और तब सहज ही आप स्वस्थ हो जायेंगे।”

अध्याय19

विनायक चतुर्थी के मंगलमय दिन, प्रतिष्ठान का निर्माण पूर्ण हो चुका था। शहनाई के आनंददायी संगीत ने श्री माताजी का उनके दिव्य (स्वर्गीय) निवास पर स्वागत किया। प्रवेश द्वार के पास का पोखर गुलाब की पंखुड़ियों और तैरते हुए दीयों से भरा हुआ था। भवन के गलियारे हल्दी, अक्षत और कुंकुम से बनी रंगोलियों से सुसज्जित थे। 

पूर्णाहुति समारोह के मध्य श्री माताजी के चरण-कमलों पर चमेली और हिना के सुगन्धित-तेल से मालिश की गई। उन्होंने अपने प्यारे-से कर-कमलों द्वारा माधुर्य से भरे श्वेत-स्फटिक-निर्मित श्री गणेश अपने भवन के प्रवेश-द्वार की देहरी पर स्थापित किए। 

शाम को, प्रतिष्ठान आनंदमय रंग-बिरंगी विद्युत्-लड़ियों से प्रकाशित किया गया। हैदराबाद से पधारे सूफ़ी संगीतज्ञ बाबा जहीर ने श्री माताजी के स्वर्गीय-भवन (प्रतिष्ठान) की प्रसंशा में लय-ताल-बद्ध काव्य-पदों की रचना पेश की, “आपकी दिव्य-देहरी से कभी कोई खाली-हाथ नहीं लौटता है।”

बाबा जहीर के संगीत के समाप्त होते ही श्री माताजी ने प्रचुरता से मुक्त हस्त से सौगातें दीं। महिलाओं को सुंदर साड़ियां और पुरुषों को रेशमी कुर्ते दिए गए। सभी कारीगरों को चाँदी के सिक्के रेशमी बटुए (पर्स) में दिए गए और सबसे महत्वपूर्ण, उनकी हथेलियों में उनकी किस्मत दुबारा लिखी ……उन्हें चैतन्यमय कर दिया। 

प्रतिष्ठान के बगीचे में विशिष्ट (शानदार) संध्याकालीन भोज (Dinner) योगियों का इंतजार कर रहा था। इस तरह यह जादुई शाम रंगीन आतिशबाजी के साथ समाप्त हुई। 

इक्कीस (21) दिसबंर को भारत दर्शन-यात्रा अलीबाग के स्वच्छ सुंदर सागरीय-तट पर पूजा के साथ आरम्भ हुई। प्राकृतिक सौंदर्य की उदारता स्वयं इसका वर्णन करती है। “यह सौंदर्य जो प्रकृति ने रचा है, वह स्वयं इसे नहीं देख सकती। उसी तरह परमात्मा जो इस सौंदर्य का स्रोत हैं, अपनी सुंदरता को नहीं देख पाते, इसके लिए उन्हें एक दर्पण की जरुरत होती है। यही वजह है कि परमात्मा ने इस ब्रह्माण्ड की रचना एक दर्पण की तरह की है। मनुष्य भी अपनी सुंदरता स्वयं नहीं देख सकते। वे अँधेरे में हैं, अज्ञान के अँधेरे में हैं। सत्य को जानने के संघर्ष-रत प्रयास इतने ज्यादा हैं कि परिणाम स्वरूप वे अपने को नष्ट करने लगते हैं। अब, स्वयं को देखने के लिए एक दर्पण बना दिया गया है , ताकि स्वयं को देखें कि वे स्वयं कितने सुंदर हैं। यह दर्पण उनकी आत्मा है। इस आत्मा को उनके चित्त में लाना है। यदि आत्मा उनके चित्त में आ जाती है, वे अपना प्रतिबिम्ब आत्मा के दर्पण में देख सकते हैं।”

यह प्रत्येक साधक पर निर्भर है कि इस दर्पण को स्वच्छ रखे, ताकि उसमें स्वयं का प्रतिबिम्ब दिखे इस तरह अपनी प्रकृति के सौंदर्य का आनंद ले। 

क्रिसमस पूजा पर भी श्री माताजी ने अभी एक और दूसरे अवसर का आशीर्वाद दिया, पावना-डैम के शांत वातावरण में आत्मा की सुंदरता का आनंद लेने का। जैसे हम पावना-डैम की शांति प्रदायिनी औषधि का पान कर रहे थे। अनायास एक फव्वारा उस डैम की झील के बीच फूटा, यह ऊँचा से ऊँचा होता गया। श्री माताजी ने अपना हाथ ऊपर उठाया और वह शांत हो गया। “जल मेरे पावित्र्य को महसूस करता है और प्यार में बुलबुलाता हुआ उठता है। सभी तत्व मुझे महसूस कर सकते हैं, विशेषकर प्रकाश जो कि चैतन्य-लहरियों के रूप में दिखाई देता है।”

पूजा के बाद, राजेश शाह ने उन्हें एक चमत्कारी फोटोग्राफ दिखाया, जिसमें आठ हाथ नाग- चम्पा के फूलों को संभाले हुए दिखाई दिए। श्री माताजी ने समझाया कि जिस समय फोटो लिया जा रहा था, वे राजेश शाह को बता रही थीं कि ये फूल सहस्रार का प्रतीक स्वरूप थे। राजेश शाह ने कहा, श्री माताजी आप सभी सहज-योगियों के सहस्रारों को अपने हाथों में पकड़े हुए हो। “श्री माताजी ने कृपा-करके इस चमत्कारी-फोटोग्राफ की प्रतियां सभी देशों के केंद्रों को दीं।

पुणे के एक कार्यक्रम में, शासकीय महाविद्यालय, नागपुर जहाँ श्री माताजी ने शिक्षा ग्रहण की थी, वहां के भूतपूर्व प्राचार्य डॉ कृष्ण मूर्ति स्टेज (मंच) पर आए। वे इतने भाव-विह्वल थे, अपने आँसुओं को रोक नहीं पाए। उन्होंने पुरानी-स्मृति का स्मरण किया, “श्री माताजी मात्र 17 या 18 वर्ष की रहीं होगीं। उस समय भारत के प्रशासनिक अधिकारियों ने महाविद्यालय के प्रवेश द्वार पर स्टूडेंट्स मीटिंग्स (छात्रों की सभाओं) पर रोक लगा रखी थी। श्री माताजी भारी सशस्त्र-पुलिस बल की अचानक उपस्थिति से निडर (निर्भय) हो उन्होंने उस रोक (ban) आदेश की उपेक्षा की और विद्यार्थियों को सम्बोधित किया,मैं उसी समय जान गया था कि वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं थीं, किन्तु शक्ति का अवतरण होना चाहिए। निस्संदेह उन्हें हिरासत में लिया गया और मुझे उन्हें महाविद्यालय से निष्कासित करने का आदेश मिला। मैंने आदेश की अवहेलना की और मुझे स्थानांतरित किया गया। उन्हें जेल में बहुत ज्यादा यातनाएं दी गईं थीं, किन्तु वे (प्रशासन) उनकी आत्मा को तोड़ नहीं पाए थे।”

ब्रह्मपुरी और साँगली पूजाओं को आशीर्वादित करने के साथ ही यह भारत-भ्रमण (यात्रा) नव-वर्ष के समारोह हेतु गणपतिपुले पहुँची। श्री माताजी से प्रवाहित चैतन्य-लहरियाँ प्रसिद्ध संगीतज्ञों के संगीत द्वारा सामूहिकता को प्राप्त हुईं और उनके चक्रों को पोषित किया। जब उन्होंने राग दरबारी पेश किया, सम्पूर्ण सामूहिकता के सहस्रार पहले से ही संगीतमय हो चुके थे। 

1987

अध्याय-20

श्री माताजी ने अपने प्रथम-अतिथियों को प्रतिष्ठान में जनवरी के प्रारम्भिक दिनों में आमंत्रित किया। उन्होंने गर्मजोशी से तीन सौ योगियों का स्वागत अपने बगीचे में किया। वे उद्यानिकी (Gardening) की बड़ी शौक़ीन थीं और विश्व भर से विदेशी फूलों का पौधा-रोपण किया गया था-जिसमें अंग्रेजी गुलाब, हॉलैंड के ट्यूलिप्स और थाई देश के ऑर्किड्स (विभिन्न जीवों के आकार के चमकदार फूल) शामिल थे। डॉ. हमीद एक कृषि वैज्ञानिक (UNO)कुछ खास किस्म के पौधे ऑस्ट्रिया से लाए थे। श्री माताजी ने उनके नाम पूछे, किन्तु किसी को जानकारी नहीं थी। जैसे वे योगियों का ध्यान प्रकृति की ओर आकृष्ट करना चाहतीं थीं, उन्होंने उनके नाम दुबारा गिनाए और हरेक को कहा कि उन्हें याद रखें, “यह एक सुविचार होगा–चिड़ियों और पेड़ों के नाम भी याद करना।”

बड़े आकार के अंगूरों की ओर इशारा करते हुए, उन्होंने सोचते हुए कहा, “अंगूरों से मुझे मेरी माँ का स्मरण हो आता है। वे एक महान स्वातंत्र्य सेनानी थीं। उन्होंने गंभीर वचन लिया कि वे तब तक अंगूर नहीं खाएंगी जब तक कि भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता और अंगूर खरीदना आम आदमी की पहुँच के भीतर नहीं हो जाता। अब मैं खुश हूँ कि अंगूर महाराष्ट्र में खूब उगाये जा रहे हैं और हर व्यक्ति अंगूरों का मजा ले सकता है। मैं और भी वृक्ष लगाना चाहती हूँ,किन्तु यहाँ पर्याप्त-मात्रा में पानी नहीं है।”

कृषि विश्व-विद्यालय के एक प्राध्यापक ने वर्षा-जल की खेती (rain water harvesting) की तकनीक सुझाई। श्री माताजी के मन में हर विचार पहले से ही था और उन्होंने अपनी योजनाएँ वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए एक छोटा बाँध, दो पहाड़ियों के बीच एक संकरी नीची जगह बनाने हेतु बताई थीं। 

“मैं इस बाँध को कमलों और गोल्ड-फिश (सुनहरी मछलियों) से भरना चाहूंगी।”

सब्जियाँ तोड़ते हुए एक मजेदार सुबह बीत गई। एक बड़े सूर्यमुखी फूल की ओर इशारा करते हुए उन्होंने टिप्पणी की, “देखो, वे कितने बढ़ गए हैं। यह चैतन्य की वजह से है। अब, जबकि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार मिल गया है, तुम बीजों को भी चैतन्यित कर सकते हो। मैंने साठ किलोग्राम बासमती (चावल) बीज से सत्रह सौ किलोग्राम उच्च गुणवत्ता वाला बासमती पैदा किया है। 

विश्व विद्यालय के प्राध्यापक ने जानना चाहा कि चैतन्य देकर दूध का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। 

“निस्संदेह, मैं कुछ स्थानीय नस्ल के दुधारू-पशु शीघ्र मँगवा रही हूँ और तुम्हें दिखाउंगी कि इन दुधारू पशुओं का दुग्ध-उत्पादन कैसे बढ़ाया जाता है। अतः अगले वर्ष जब आप यहाँ आएँ, तो प्रचुर मात्रा में दूध होगा।”

धूप काफी तेज थी- लीवर के लिए गर्म थी। श्री माताजी ने बादाम के वृक्ष की छाया की ओर संकेत किया। उनका ध्यान कृषि से सामूहिकता की पकड़ पर स्थानांतरित हुआ। उन्होंने कहा, “अपना बायाँ हाथ मेरी ओर करो, दायाँ धरती पर, अपनी ऑंखें खुली रखें।”

नाभि-चक्र की पकड़ पर ध्यान देते हुए श्री माताजी ने जानना चाहा कि सभी लंच (दोपहर भोज) के लिए क्या लेना चाहेंगे। इटालियन योगी जल्दी से बोले,”पास्ता”।

पास्ता भारतीय रसोई में सार्वजनिक नहीं है, किन्तु संयोगवश इटली के योगी दस पैकेट्स लाये थे। हालाँकि तीन सौ योगियों के लिए यह पर्याप्त नहीं था, जब श्री माताजी ने पास्ता पका लिया, इटली के योगियों ने दिल-भर के खाया और तो भी दुबारा भोजन के लिए पर्याप्त पास्ता बचा हुआ था।

श्री माताजी मुस्कराईं, “यह श्री अन्नपूर्णा की कृपा है। जब आप अपने ह्रदय से पकाते हो, तो दूसरों के हृदयों को स्पर्श कर लेते हो। यह अति संतुष्टि-प्रदायक है (तुष्टि रूपेण संस्थिता …….) जब आप भोजन के विभिन्न अंशों को मिलाना सीख जाते हो, आपको अनुपात का ज्ञान हो जाता है। मैं इतना बड़ा भवन बना रही हूँ, किन्तु मैं इसका आनंद ले रही हूँ। क्योंकि मैं विभिन्न वस्तुओं के अंश का अनुपात समझती हूँ।”

भोजन चाहे दस मेहमानों के लिए पका हो और सौ मेहमान आ गए, रसोई घर में यह दृश्य कई बार घटित हुआ, भोजन कभी कम नहीं पड़ा! दोपहर भोजन के बाद श्री माताजी ने अपने मेहमानों के लिए हस्त कला प्रदर्शनी में शॉपिंग (खरीददारी) हेतु बसों का प्रबंध किया। शाम को श्री माताजी और सर सी.पी. ने उन्हें डिनर (सायंकालीन भोज) के लिए आमंत्रित किया। श्री माताजी टेरा-कोटा की खरीददारी पर बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने कहा- “जब तुम लोग अपने घरों को सुसज्जित करोगे इन टेराकोटा कला-कृतियों से, वे तुम्हें अपने सुंदर चैतन्य से सुकून प्रदान करेंगी।”

श्री माताजी ने हैंडलूम साड़ियों की तारीफ की, “इन साड़ियों से बहते चैतन्य को महसूस करो। जब तुम इन्हें खरीदते हो तुम (अप्रत्यक्ष रूप से) इनके गरीब बुनकरों को रोजी (आजीविका) प्रदान करते हो। उनकी कला को देखो, उनकी सृजनात्मकता मुझे निर्विचार करती है।”

श्री माताजी ने प्लेट्स को पाउंड केक से भरपूर कर दिया, जो उन्होंने विशेषकर अपनी माताजी की रेसिपी से तैयार किया था। तब उन्होंने स्टोन-फिनिश कलर तैयार करने की उनकी कलर-मिक्सिंग -मशीन दिखाई ,जिसने जादुई तरीके से आंगन में कंक्रीट के खम्भों को एंटीक में परिवर्तित कर दिया था। 

विशिष्ट (शानदार) डिनर के बाद, उन्होंने हारमोनियम मंगवाया और एक गीत जो उन्होंने स्वतंत्रता-आंदोलन के समय लिखा था, “माँ तेरी जय हो, तेरा ही विजय हो- सहज-योगियों को हारमोनियम पर सिखाया। निराशा के क्षणों में, इस गीत ने स्वतंत्रता-सेनानियों को आत्म-प्रेरणा प्रदान की।

श्री माताजी ने विशाल कमरों (हॉल) में सहज-अतिथियों के रात्रि-विश्राम हेतु आरामदायक प्रबंध किये थे। रात्रि शयनकाल में एक आश्चर्य-मय अनुभव हुआ, सामूहिकता नींद में सोते हुए भी ध्यानावस्थित थी। हरेक योगी जागने पर पूर्णरूपेण तरोताजा (नाविन्य-पूर्ण) लग रहा था। लॉन की घास उषा कालीन ओस-कणों से अभी थोड़ी गीली थी, जैसे ही सामूहिक-ध्यान श्री माताजी के शयन-कक्ष के पास वाले लॉन (हरित-भूमि) पर हुआ, प्रकृति के साथ पूर्ण समन्वय का अहसास चारों ओर व्याप्त हो गया। आंतरिक (मानसिक) उथल-पुथल शांत हो गई और राइट-साइड (पिंगला) शांत हो गई। उनके विराट स्वरुप के साथ सामूहिकता की एकाकारिता के अहसास ने सामूहिकता को अपने आगोश में ले लिया था। योगीजन उनके विराट-स्वरुप में अनंत तक रह सकते थे, किन्तु प्रातःकालीन नाश्ते की सूचना ने शांति भंग कर दी!

बाद वाले सप्ताह, श्री माताजी को उनकी विश्व-यात्रा के दौरान उपहार-स्वरुप समर्पित की गई कला-कृतियों के खजाने के डिब्बे (Packings) खोले गए। उन्होंने कभी उनकी कीमत नहीं आंकी, किन्तु उनके पीछे छिपी हुई प्यार की दौलत को सहेजा हुआ था, “ये मेरी सबसे ज्यादा मूल्यवान अधिकृत सम्पत्ति (स्वामित्व) हैं। ये मेरे बच्चों द्वारा मुझे भेंट की गई हैं। चाहे बड़ी हों या छोटी, इन्हें सावधानीपूर्वक हाथ से सम्हालना। मैं नहीं चाहती कोई कृति को नुकसान पहुँचे। श्री माताजी ने उनकी सुरक्षित देखभाल के लिए विशेष काँच की अलमारियाँ बनवायीं। इन वस्तुओं में कला की विलक्षण वस्तुएँ,मूर्तियां, लकड़ी/पत्थर आदि पर की गई नक्काशी, पच्चीकारी की हुई कृतियाँ, चीनी मिट्टी की कला कृतियाँ, धागों से बुनाई की गई कला-कृतियाँ और कसीदाकारी की विभिन्न कला-कृतियाँ थीं। देखिये, कैसी पेचीदा (जटिल) कसीदाकारी की गई है। हमें चीन-वासियों से इतनी बारीक़ कसीदाकारी सीखनी चाहिये। यह कलाकृति मेरे शयन-कक्ष की दीवार को उपयुक्त रहेगी।”

एक मिट्टी का पात्र जो यूक्रेन के एक किसान द्वारा भेंट किया गया था, उसे बैठक-कक्ष (Drawing Room) के मध्य ससम्मान रखा गया था। श्री माताजी ने बड़े प्यार से (नाजुकता से) उसे मेहमानों को दिखाया। यद्यपि वहां सात सौ (700) से अधिक उपहार समर्पण, पिछले सोलह वर्षों से सहेजे हुई थे, किन्तु उन्हें स्पष्ट रूप से सभी उपहारों के देश और अवसरों की जानकारी थी। जब इटालियन उपहारों की पेटी खोली गई, उन्होंने चीनी फूलदान (Vases) की खरीद के पीछे छिपे चमत्कार का वर्णन किया, “यह एक जैकपॉट (संगृहीत इनामी राशि) था। मैं एयरपोर्ट जा रही थी, अचानक मुझे वहाँ से चैतन्य लहरियां महसूस होने लगीं। मैं उस ओर मुड़ी, जहाँ से चैतन्य प्रवाह आ रहा था और चीनी फूलदान को बेचने वाली दुकान को पहचाना। वह दुकानदार 25% कमीशन (Discount) पर बिक्री कर रहा था, किन्तु जब मैंने पूरी दुकान खरीद लेने का प्रस्ताव दिया, उसने मुझे 40% मुनाफा दिया। मेरा चित्त चीन पर था और मैं चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित थी। अतः परम् चैतन्य ने यह हल निकाला कि मैं चीनी हैंडी-क्राफ्ट्स (हस्त शिल्प-कला) को चैतन्य प्रदान करूँ। मैं निरपेक्ष हूँ, किन्तु शुद्ध इच्छा की शक्ति मुझ पर परावर्तित (प्रतिबिंबित) होती है और परम चैतन्य उसे हल करते हैं। 

आगे, जैसे ही वेनिस के बने पोर्सलेन-लैम्प्स की पैकिंग खोली गई, उन्हें स्मरण हो आया, “सहज योगी मुझे दिवाली के लिए दिए भेंट करने वाले थे, किन्तु रोम में वे बहुत ज्यादा ही मंहगे थे। जब हम वेनिस की ओर जा रहे थे, हम एक छोटे से कस्बे से गुजरे, जहाँ ये प्रदर्शन हेतु रखे हुए थे। यह एक फैक्ट्री थी,जो रोम को इन्हें भेजती थी। हमने उस फैक्ट्री से दीयों को चौथाई-मूल्य (1/4th) पर खरीद लिया। पुनः कहना चाहिये की यह एक प्रेम की शक्ति है, जो हम पर आशीर्वाद की बारिश करती है।”

सुबह तीन बजे तक ईश्वरीय प्रेम के अद्भुत उदाहरण उजागर होते गए! आखिर में, सुधा दीदी श्री माताजी के लिए रात्रि-भोज (Dinner) ले आईं। श्री माताजी मुस्कराईं, “अब तुम्हें पता चला कि मुझे इतना बड़ा भवन (प्रतिष्ठान) क्यों बनाना पड़ा- तुम्हारी मधुर स्मृतियों को सहेज रखने हेतु। अब, मुझे उपहार देना बंद कर दें, अन्यथा मुझे उनके लिए एक और भवन बनाना पड़ेगा। अब आगे से, मैं कोई भी व्यक्तिगत उपहार नहीं स्वीकार करुँगी। केवल एक ही सामूहिक उपहार होना चाहिये।”

अगले दिन, उन्होंने सहज-योगियों के लिए अजंता और एलोरा-दर्शन का प्रबंध किया। उन्होंने टिप्पणी करते हुई कहा, “आप परमात्मा को बिना देखे प्रेम कर सकते हो, जिस तरह जिन्होंने बुद्ध को नहीं देखा, उनकी प्रतिष्ठा में इतनी अद्भुत रचनाओं का सृजन किया। वे परमात्मा की प्रेम की शक्ति से प्रेरित थे।”

अध्याय-21

ग्यारह (11) जनवरी को श्री माताजी ने पैठण (प्राचीन प्रतिष्ठान) को एक पूजा का आशीर्वाद दिया। उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया कि पैठण उनके पूर्वजों शालिवाहन राजाओं की पुरातन राजधानी थी। (शालिवाहनों का राज्य चार शताब्दियों तक (230 B.C. से 230 A.D.) रहा। उनका राज्य पूरे मध्य-भारत पर छाया हुआ था।) उनका शासन आत्मा के स्वर्ण-युग के नाम से जाना जाता रहा था, जिसे ‘राम राज्य’ कहा गया था। उनकी असाधारण आत्मीय वीरता ने उनके प्रजा-जनों को शान्ति और सम्पन्नता से आशीर्वादित किया था। 

श्री माताजी ने ईसा की कश्मीर यात्रा का वर्णन किया, “वे तत्कालीन शालिवाहन राजा से मिले, जिसने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आए थे। ईसा ने उत्तर दिया था कि वे म्लेच्छों के देश से आए थे।” श्री माताजी अपने पूर्वजों की सरजमीं पर आकर प्रसन्न थीं और कार्यक्रम में वे अपने पूर्वजों के राजवंश में वैभवपूर्ण रानी-सी लग रहीं थीं, वे संक्षेप में बोलीं, किन्तु, लोग उनकी आंतरिक मान्यता द्वारा आकर्षित हो चले आए और उनके दर्शन-मात्र से उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिल गया। 

अगली सुबह, उन्होंने बुनकरों को नौ-गज परम्परागत पैठणी साड़ी बुनते देखा, जो देवी माँ को भेंट होती थी। सहज-सामूहिकता ने उन्हें हरे रंग की पैठणी-साड़ी जिसकी उत्तम किनारी (बॉर्डर) पर सुनहरी-धागों से मयूर बनाये गए थे, भेंट की।

श्री माताजी ने पाश्चात्य सहज-योगियों को आगाह किया कि वे भरी दोपहरी में बाहर न निकलें। उनमें से कुछ योगी अपने-आप को रोक नहीं पाए और औरंगाबाद दर्शन के लिए निकले और तेज धूप से उनकी त्वचा जल गई, (Sun burnt)। श्री माताजी ने उन्हें चैतन्य प्रदान किया और धूप से जले भाग को अपनी साड़ी से ढँक दिया, उनकी गर्म चैतन्य लहरियाँ श्री माताजी की साड़ी से निकली और उसमें बड़े -बड़े छेद छोड़ दिए।

इसके तुरंत बाद, वे औरंगाबाद के लिए रवाना हुईं, जहाँ वे अपने भाई न्यायमूर्ति साल्वे साहेब, जो प्यार से बाला साहेब नाम से जाने जाते हैं, उनके साथ ठहरीं। उनके भाई साहेब ने अपने सहकर्मियों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने हेतु आमंत्रित किया। श्री माताजी ने टिप्पणी की कि वकील और न्यायाधीश अपनी निर्मल बुद्धि की वजह से आसानी से अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं। बायीं विशुद्धि की पकड़ सामूहिकता में थी। श्री माताजी ने कहा, “न्यायाधीश अक्सर इस पकड़ से प्रभावित होते हैं, कारण है उनकी विवेक बुद्धि (अन्तःकरण में) यह बात उन्हें चुभती रहती है, “क्या मैंने सही निर्णय (न्याय)दिया है?”

श्री माताजी ने उन्हें यह दोहराने के लिए कहा, “श्री माताजी,क्या आप सब जजों की जज हैं।” सामूहिक पकड़ दूर हो चुकी थी। 

श्री माताजी ने अपने पिताजी के द्वारा लड़े गए अदालती मामलों का विवरण देते हुई कहा कि वे कभी गरीब आदमी से फ़ीस नहीं लेते थे। एक केस में,उन्होंने एक अबोध इंसान को फांसी के तख्ते से बचाया था- उस मामले में हत्या में लिप्त हत्यारे की खून से सनी हुए कमीज को सबूत के रूप में प्रस्तुत करते हुए, जिसे उन्होंने नदी से कब्जे में लिया था। उनके पिताजी एक प्रमुख फौजदारी वकील थे। 

जजों ने श्री माताजी से औरंगाबाद में एक ध्यान केंद्र प्रारम्भ करने की प्रार्थना की। बालासाहेब के एक मित्र श्री घोले ने केंद्र के लिए अपना मकान दिया और वहाँ ध्यान केंद्र शुरू हो गया। उसके बाद, श्री माताजी एक कार्यक्रम के लिए अहमदनगर रवाना हुईं। 

चौदह (14) जनवरी को संक्रांति -पूजा राहुरी में मनाई गई। योगियों ने मराठी, हिंदी, संस्कृत, इटालियन और अंग्रेजी भजनों में पूरा ह्रदय उड़ेल दिया। श्री माताजी प्रातः तीन बजे तक बैठीं रहीं, अपने बच्चों के प्यार का आनंद लेतीं रहीं।

शाम को श्री माताजी ने राहुरी कृषि विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों को सम्बोधित किया। उन्होंने समझाया कैसे देश की खाद्य-समस्या चैतन्य द्वारा हल की जा सकती थी। उन्होंने कहा, “यदि सामान्य देशी बीज को चैतन्यित करें, तो उनकी पैदावार बढ़ जाएगी।”

श्री माताजी ने प्राध्यापकों को महाराष्ट्र के बंजर भूमि क्षेत्र के लिए चारे के बीज को उन्नत करने के लिए उनकी परियोजनाओं में शामिल होने हेतु उन्हेंआमंत्रित किया। ये चैतन्यित बीज किसानों को मुफ्त वितरित किए जायेंगे। पांच कृषि-प्रोफेसरों ने इस परियोजना के लिए स्वयं-सेवाएँ दी। विश्व-विद्यालय के उप-कुलपति ने इस हेतु आर्थिक अनुदान की स्वीकृति प्रदान की।

अगले दिन, श्री माताजी ने अपने पूर्वजों का पुराना वाडा (पैतृक अचल सम्पत्ति) नंदगांव शिन्ग्वे में देखा, यह गाँव राउरी से कुछ कि. मी. दूर है। इमारत(किले) के सामने के हिस्से के अतिरिक्त, पूरी इमारत खंडहर में तब्दील हो चुकी थी। श्री माताजी ने अपने दादाजी के बारे में बताया, जो वहाँ के राजा थे।उनकी अचानक मृत्यु के उपरांत उनके चचेरे भाइयों ने दादाजी के बच्चों की हत्या की साजिश रची और राजगद्दी पर कब्जा कर लिया। श्री माताजी केदादाजी की विधवा यानि दादीजी को कुछ स्वामी-भक्त सेवकों ने उक्त षड्यंत्र की जानकारी दी। रात्रि के अंधकार में, दादीजी ने अपने बच्चों के साथनंदगांव शिन्ग्वे नदी को तैरकर पार करके अपना बचाव किया। इस तरह ईश्वरीय कृपा के आशीर्वाद से श्रीमाताजी के पिताजी बच पाए।

कृषि विश्व विद्यालय के एक प्राध्यापक ने पूछा कि कैसे उनके परिवार ने ईसाई-धर्म स्वीकार किया। श्री माताजी ने जबाव दिया, “मेरे दादाजी की बहन20 वर्ष की उम्र में विधवा हो गई। मेरे दादाजी उनकी दुबारा शादी (पुनर्विवाह) कराना चाहते थे, किन्तु रूढ़िवादी हिन्दू सम्प्रदाय ने विधवा-विवाह काविरोध किया। इस तरह अपनी बहन का पुनर्विवाह कराने हेतु उन्होंने ईसाई-मत स्वीकार किया।”

एक स्थानीय राजनेता ने उनके पूर्वजों की दो एकड़ जमीन को दुबारा उन्हें वापस करने का प्रस्ताव दिया, जो उसके पूर्वजों ने अनधिकार-पूर्वक कब्जे में कर रखी थी। यद्यपि स्थानीय योगियों ने विचार बदलवाया, “श्री माताजी हम उसके बारे में आपको खबरदार करने आए हैं। आपको होशियार रहना है। वहएक राजनेता है।”

श्री माताजी ने ध्यानस्थ होकर अपने देवत्व में जान लिया। पांच मिनट बाद उन्होंने ऑंखें खोलीं, “ठीक है, यही सब आप उसके बारे में जानते हो? अब मैंतुम्हें उसके बारे में बताती हूँ। इस आदमी ने अपनी पत्नी से विवाह नहीं किया है। उसकी यह पत्नी किसी और की है और वह इसे भगाकर ले आया, इसऔरत के साथ उसने बलात संबंध बनाया था और इस तरह उसे यह बच्चा हुआ है।”

वे सभी योगी स्तब्ध रह गए, “श्री माताजी आप यह सब कैसे जानती हैं।” श्री माताजी मुस्कराईं, “पहले आप लोग जाकर पता करो कि मैंने जो कहा, वहसत्य है या नहीं।”

वे कुछ घंटों बाद लौटे, “श्री माताजी, यह आश्चर्यजनक है कि अपने जो कहा, वो सत्य है।”

श्री माताजी ने समझाया, “चैतन्य द्वारा आप हर चीज को जान सकते हो। लोग सोचते हैं कि मैं जब किसी के बारे में कुछ कहती हूँ, वह इसलिए कि मुझेउसके विरोध में जानकारी मिली है। परन्तु यदि मैं चैतन्य-लहरियों का स्रोत हूँ, तो किसी के बारे में जानकारी हासिल करना क्या मुश्किल है? क्यों, कोईमुझे किसी विषय पर सूचना दे। यदि वे बताना चाहते हैं, तो बता सकते हैं, परन्तु मैं पूरी वस्तु-स्थिति जानती हूँ।”

प्रश्न – कैसे ?

उत्तर – जब मैं किसी को देखती हूँ, मैं उसकी कुंडलिनी देखती हूँ और जान जाती हूँ कि वो कौन है?

प्रश्न – किन्तु, श्री माताजी हजारों सहज-योगी हैं।

उत्तर- हजारों कुंडलिनियाँ हो सकती हैं, किन्तु मैं जानती हूँ कि कौन क्या है? क्योंकि मैं उन्हें प्यार करती हूँ।

यद्यपि, वे भूत, वर्तमान और भविष्य जान सकती थीं, तो भी उन्होंने कभी अपनी शक्तियाँ नहीं प्रदर्शित कीं या उनके बारे में चर्चा की। वे ग्राम-वासियों मेंइतनी घुल मिल जातीं कि प्रायः उन्ही में से एक लगतीं। वे बहुत-थोड़ा ही समझ पाए कि आदिशक्ति अपने विनम्र स्वरूप में छिपी हुई उनके बीच हीस्थित थीं।

यहाँ तक की योगियों के लिए, उन्हें परिभाषित करना सम्भव नहीं था, यदि एक योगी उनके एक फलक को प्रति संस्कारित हो जाता, तो तुरंत वे उसे उसओर संस्कारित होने से रोक देतीं और प्रतीति देतीं कि जैसे उसने पहले माँ को जाना ही नहीं। हर फोटोग्राफ में वे अलग दिखतीं। कोई भी दो फोटोग्राफएक जैसे नहीं थे। वे मुस्कराईं, “मैं एक बहु-आयामी (multi -faceted) हीरे की तरह हूँ, जो तुम्हारे प्यार को प्रतिबिम्बित करता है।”

जो भी विचार कोई उनके बारे में अपने मन में कायम कर लेता था, तो वे नेति, नेति, नेति – यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, मात्र नहीं थीं। यदि किसी ने उन्हेंबौद्धिक-स्तर से जानने का प्रयत्न किया, वे चतुराई से बच जातीं, क्योंकि धारणा वास्तविकता (सत्य) नहीं थी। किन्तु,जब कोई उन्हें हृदय में खोजता, वेहमेशा वहाँ होतीं थीं।

अध्याय22

छब्बीस (26) फरवरी को बसंत में, श्री माताजी ने मुंबई को श्री महाशिवरात्रि पूजा का आशीर्वाद दिया। बाद में, शाम को उन्होंने ब्रह्म-चैतन्य के बारे मेंसमझाया, “ब्रह्म-चैतन्य श्री आदिशक्ति हैं और सदाशिव भी मेरे ह्रदय में हैं। परन्तु, जब मैं इतनी मानवीय हूँ, सब पता करना आसान नहीं है। यदि आपआधुनिक मानव को यह सब कहें, उन्हें समझ नहीं आएगा। उनके लिए इस सत्य को स्वीकारना कि मेरे अंदर ही सभी अवतरण समाये हुए हैं, यह समझना(सहन करना) बहुत कठिन है।”

एक योगिनी ने पूछा, “माँ,क्या आप मानव होने के प्रति सचेत थीं?”

श्री माताजी ने उत्तर दिया कि मैंने इस मानव देह को सचेतन स्वीकार किया है, यानि मुझे यह सब ज्ञात है। मेरे अनुसार अचेतन कुछ भी नहीं है।

तब उन्होंने टिप्पणी की, “मुझे चिंता है कि उन्होंने मुझे एक देवी कि तरह अलग बिठा दिया है, और तब मैं पहुँच से बाहर हो जाती हूँ- मुझ तक नहीं पहुँचाजा सकता। अब, आप लोग होंगे, जो खड़े होकर कहेंगे, लोग आपको देखेंगे और सहज-योग में आएंगे। बहुत से लोगों ने इसे व्यक्तिगत बता दिया है। वेजानना चाहते हैं कि मेरे परिवार में सहज-योग के बारे में क्या हो रहा है।”

श्री माताजी के प्रतिष्ठान लौटने पर, बगीचा पूरी बहार पर था। वे बड़ी चाव से फूलों की ओर मुड़ीं और वे उनके कटाक्ष-मात्र से ही खिल उठे। बुलबुलउन्हें अपना सम्मान प्रदर्शित करने आईं, श्री माताजी ने उनकी तकलीफें सुनीं और उन्हें आराम (सुकून) दिया। उन्होंने अपना प्यार होली के मधुर सुरीलेगीति काव्य में उड़ेल दिया। वे उनकी बांहों पर उतर बैठतीं और श्री माताजी ने उन्हें प्रसाद खिलाया।

उन्होंने माली को उनके लिए एक घरौंदा बगीचे के कोने में तैयार करने को और उनके लिए पीने के पानी के लिए एक पोखर बनाने को निर्देशित किया।

श्री माताजी के चरण-कमलों का पूजन होली के रंगों से हुआ। उन्होंने जब अपने चरण वहाँ से उठाये, देखो और निहारो! श्री गणेश जी की आकृति कीछाप मरकत-सी हरी घास पर अंकित थी।

आनंद और मस्ती के बीच श्री माताजी ने विनोदपूर्ण हो कहा, “आज मैं इतनी हँसी हूँ कि शीघ्र ही मुझे गंभीर होना होगा।”

(शायद जाने या अनजाने अंतर्राष्ट्रीय अपराधी-ग्रुप की दुष्ट/गंदी योजनाएँ उनके विरोध में, उनसे बेखबर……..)

उनका चौसठवाँ (64th) जन्म-दिवस मुंबई के षणमुखानंद हॉल में (षण्मुखानन हॉल में) मनाया गया। सुप्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायिकापरवीन सुल्ताना के द्वारा इस शुभ अवसर पर उनके सम्मान में शास्त्रीय संगीत समर्पित किया गया। इस अवसर पर श्रोताओं द्वारा फ़िल्मी-ग़ज़ल कीफरमाइश की गई। परवीन सुल्ताना ने फुर्ती से उत्तर दिया, “क्या आप जानते नहीं कि किसकी उपस्थिति में आप बैठे हैं।”

हालाँकि परवीन सुल्ताना को अभी तक आत्म-साक्षात्कार नहीं मिल पाया था, वे श्री माताजी के दैवत्व को महसूस कर पाईं थीं। जैसे चन्द्रमा की कलाओंके अनुसार समुद्र का ज्वार-भाटा प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, उसी तरह से साधक-गण उनके दैवत्व को अनुभव कर रहे थे। श्री माताजी को कुछ नहीं करनाथा, यदि साधक की परिपक्वता थी, उनकी कुण्डलिनियाँ उत्तर दे रहीं थीं जिन्होंने उन्हें हवाई-अड्डे (airport) पर देखा, उनकी ओर सहज आकर्षित होगए। श्री माताजी की उपस्थिति में उन्हें बहुत शांति महसूस हुई। ट्रेन से पुणे की यात्रा पर एक माँ और छोटा शिशु उनके बाद सीट पर बैठे थे। (किसीकारण) बच्चा रोता रहा, किन्तु उसकी माँ के सब प्रयत्नों के बावजूद उसे—-शांत नहीं करा सकीं। श्री माताजी ने उसे अपनी गोद में लिया और बच्चा हंसनेलग गया। उन्होंने बच्चे की माँ को समझाया कि कैसे चैतन्य द्वारा बच्चे को शांत करते हैं।

मार्च पच्चीस (25) को श्री माताजी के प्रतिष्ठान लौटने पर उन्हें भवन के दरवाजे पर प्रतिष्ठान-भवन को तोड़ने का एक नोटिस (कारण बताओ नोटिस, show cause notice )चस्पा किए हुए मिला। श्री माताजी ने बिल्डर्स माफिया और राज-नेताओं की एक कपटपूर्ण योजना का पता लगाया, जिसमेंइस प्रतिष्ठान-स्थित जमीन को इस असत्य बहाने से हड़पना था कि यह जमीन खेती हेतु अयोग्य है। वे इस सुंदर हरित घाटी को लॉस-वेगास की पट्टिका जैसे परिवर्तित करना चाहते थे और इसीलिए उचित कृषि-कार्यों का उन्होंने विरोध किया था। माफिया (स्थानीय) प्रशासन पर हावी होने लगा, ताकिप्रतिष्ठान के विरोध में केस तैयार हो कि प्रतिष्ठान एक फार्म हॉउस नहीं, बल्कि एक मंदिर है। जैसा कि मंदिर व्यावसायिकता में गिने जाते हैं, वे कृषि-क्षेत्र में अयोग्य हैं यानि अनुमति के योग्य नहीं है।

साथ ही, ‘सकाळ’ समाचार पत्र द्वारा एक प्रमुख आक्रमण मनगढंत (असत्य) प्रतिवेदन द्वारा श्री माताजी की प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए किया गया। प्रशासन ने श्री माता जी के बैंक एकाउंट्स की जाँच की, यह मालूम करने के लिए कि जनता के पैसे या लाइफ इटरनल ट्रस्ट (LET)से भवन निर्माण हेतु उनके द्वारा पैसों का उपयोग किया गया था। जाँच में पता लगा कि निर्माण में प्रयुक्त-राशि उन्हें उनके पति श्री चन्द्रिका प्रसाद श्रीवास्तव की आय से प्राप्त हुई थी, जो उन्होंने विदेशों में रहते हुए कमाई थी। उनके पति सर सी. पी. ने सत्रह(17) वर्षों तक सेक्रेटरी-जनरल-ऑफ़ इंटरनेशनल मेरीटाइम आर्गेनाईजेशन, यूनाइटेड नेशंस (IMO, Secretary General) के रूप में अपनी सेवाएँ दीं थीं और इस बचत राशि (Savings) को अपने रिटायरमेंट होम बनाने के लिए बचाई थी। 

इस शक्तिशाली राजनेता-प्रशासन की ग्रुप-बाज़ी के उत्पीड़न से बिना व्याकुल हुए श्री माताजी ने अपने अटार्नी (मुख़्तार) को निर्देश दिए और ऑस्ट्रिया/न्यूजीलैंड की एक लम्बी यात्रा पर रवाना हो गईं। 

श्री माताजी की अनुपस्थिति में अपराधी-ग्रुप (माफिया) ने प्रशासन को प्रतिष्ठान के गेट पर सात (7) मई को भवन-तोड़ने के एक आदेश को लगाने के लिए प्रभावित किया। यद्यपि श्री माताजी के मुख़्तार ने ‘स्टे’ ऑर्डर प्राप्त कर लिया था, (फिर भी) प्रशासन ने एक तरफे निर्णय द्वारा प्रतिष्ठान भवन को सत्ताईस (27) मई को खाली करा लिया था।

इस पूरे प्रकरण ने हरेक को हिलाकर रख दिया था। शायद उनमें परमात्मा के प्रति विश्वास में कमी थी या परम्-चैतन्य को समझने में कमी थी और उन्हेंध्यान की ज्यादा गहराई की आवश्यकता थी।

श्री माताजी के न्यूजीलैंड से वापसी के बाद, मुश्किल से एक दिन बाकी बचा था- प्रतिष्ठान को बचाने के लिए। श्री माताजी पूरी रात बैठीं और मुंबईहाई-कोर्ट को पेटिशन (अपील) डिक्टेट कराई (स्वयं बोलकर लिखवाई) उन्होंने हरेक बिंदु का खंडन किया/गलत साबित किया। कानून की ऐसी चतुराई-भरी समझ-बूझ से, कि वकील लोग भी स्तब्ध रह गए। उनके भाई जो न्यायाधीश थे, आश्चर्यचकित रह गए। श्री माताजी ने –brief- अस्थायी तैयार की और उनकी कुशाग्रता ने अपने भाई को अपने चतुर पिताजी की याद दिलाई। श्री माताजी इस केस में कोर्ट में जिरह करना चाहतीं थीं ,किन्तु उनके भाईसाहब (जज-साहब) ने उनका विचार बदलवाया।

अट्ठाइस (28) मई को जबकि मुंबई हाई कोर्ट में केस की सुनवाई चल रही थी, श्री माताजी लम्बी यात्रा के बाद शांतिपूर्वक आराम कर रहीं थीं। जब वेगहरी नींद में थीं, कोर्ट ने एक आदेश श्री माताजी के पक्ष में दिया। अटार्नी (मुख़्तार) ख़ुशी के मारे इतना उत्तेजित था और वो प्रतिष्ठान की ओर यह खबरदेने हेतु भागा, किन्तु प्रोटोकॉल के तहत किसी ने भी श्री माताजी को परेशान नहीं किया। कुछ भी हो, श्री माताजी अचानक जागीं और मीठी-सीमुस्कराहट लिए बोलीं, “काम हो गया!” (मानो), उनके चेहरे के भाव कह रहे हों, “यह एक केवल छोटा सा नाटक है। परम् चैतन्य हरेक चीज को संभालतेहैं और हरेक चीज की देखभाल करते हैं।”

प्रतिष्ठान में एक छोटे-से विश्राम के बाद, श्री माताजी ईस्टर-पूजा हेतु रोम पधार गईं।

अध्याय23

शुडी कैम्प्स पर श्री गुरु-पूजा के कुछ देर बाद श्री माताजी अमेरिका के लिए रवाना हो गईं। आठ (8) सितंबर को श्री माताजी ने अमेरिका को श्रीविष्णुमाया पूजा का आशीष दिया। उन्होंने कहा, “जब आपको आत्म-साक्षात्कार मिलता है, आपकी आँखों में एक चमक (झलक) दिखती है, वहीविष्णुमाया है, जो आपकी आंखों से प्रतिबिम्बित होती है और वे ही आपको विष्णुमाया की माया से पार ले जाती हैं।”

पूजा से साधकों को जाग्रति मिली। बहुत से साधकों को आत्म-साक्षात्कार मिला, किन्तु फॉलो-अप (पूरक/अनुसरण) कार्यक्रम में कुछ ही साधकउपस्थित हुए। श्री माताजी ने जान लिया कि कमजोर मूलाधार की वजह से आत्म-साक्षात्कार कार्यान्वित नहीं हो पाया, किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी औरउनके मूलाधार को स्थापित करने के लिए उन पर दिन-रात कार्य किया। उनके शब्दों में, “यह बहुत भारी कार्य था, किन्तु कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं उनकेचक्रों पर कार्य करती रही और समस्या का हल निकाल लिया।”

जैसे ही वे लंदन पहुंचीं, वे यूरोपीय देशों की यात्रा पर निकली पड़ीं। श्री कृष्ण पूजा पेरिस (फ्रांस) में हुई। सुप्रसिद्ध शहनाई वादक मास्टर उस्तादबिस्मिल्ला खान ने पूजा की पूर्व-संध्या को कार्यक्रम प्रस्तुत किया। श्री माताजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया, “आप परमात्मा की सेवा मंगल-मयता कोफैलाते हुए करते रहे हो। हरेक-शुभ अवसर पर आपका शहनाई वादन होता है……..कृपया, योगियों की इस सामूहिकता को क्षमा कर दीजियेगा, यदिइनके द्वारा कोई गलती आपके सम्मान में हो गई हो, क्योंकि वे आपके बच्चों जैसे हैं।”

उन्होंने बड़े अदब से झुककर नमन किया, “कृपया, उन्हें ऐसी गलतियाँ बार-बार करने दें।”

चार (4) अक्टूबर को श्री राम पूजा स्विट्ज़रलैंड में आयोजित हुई। श्री माताजी ने उनके गुणों की सराहना करते हुए कहा, “हम निश्चय करें कि हमें सहज-योग में राम-राज्य स्थापित करना है, जहाँ परोपकार, प्रेम, करुणा, सुरक्षा, शांति, आनंद और मर्यादाएँ हमारे अंदर हों।”

नौ (9) अक्टूबर को श्री महालक्ष्मी पूजा का आयोजन बेल्जियम में हुआ। उसके बाद जर्मनी में श्री महाकाली-पूजा अट्ठारह (18) अक्टूबर को आयोजितहुई।

इटली में दिवाली पूजा पच्चीस (25) अक्टूबर को सम्पन्न हुई।

श्री माताजी की विदाई (प्रस्थान) से पहले उन्होंने बच्चों द्वारा भेंट किए गए सभी फूल एकत्रित किए और उन्हें हवाई-जहाज पर ले गईं। पूरी लम्बी यात्राके दौरान श्री माताजी का चित्त फूलों पर था, जिनके माध्यम से उन्होंने अपने बच्चों के प्यार को प्रेम से हृदय के घरौंदे में बंद कर लिया। जब वे मुंबईपहुंचीं, वे सब फूल एकदम (पूर्णरूपेण) तरो-ताज़ा थे!

अध्याय24

बारह (12) दिसंबर को अलीबाग गांव के मछुआरों ने उत्सवों जैसे सजधज कर अपने परम्परागत नृत्यों से श्री माताजी का स्वागत किया। वे एक मछुआरेके घर रुकीं और तीन सौ (300) योगियों के लिए टेंट्स (तम्बू) लगाए गए। अगले दिन श्री माताजी ने उन्हें पूजा का आशीर्वाद दिया।

सत्रह (17) दिसंबर को मराठवाड़ा को औरंगाबाद में पूजा का आशीर्वाद मिला। उसके बाद एक कार्यक्रम हेतु सहज-यात्रा (tour) अहमदनगर के लिएरवाना हुई। इक्कीस (21) दिसंबर को राहुरी-पूजा में कृषि विश्वविद्यालय, राहुरी के पांच प्राध्यापकों ने अपने विद्यार्थियों के साथ श्री माताजी से खेती कोआशीर्वाद प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। अगले दिन वे अपने विद्यार्थियों को संगमनेर कार्यक्रम में ले आए।

भूगांव (पुणे) में झील के किनारे आयोजित क्रिसमस-पूजा पर श्री माताजी को वहां के चैतन्य बहुत शक्तिशाली प्रतीत हुए और उन्होंने वहां जमीन खरीदनेका सुझाव दिया। दुर्भाग्य से, ज़मीन के भाव तय होने से पहले ही एक होटल-ग्रुप ने अपने पैर जमा दिए। किन्तु परम् चैतन्य ने हस्तक्षेप किया, कुछेकवर्षों के बाद परम् चैतन्य ने झील से ऊपर वाले क्षेत्र में बहुत-बड़े भूखंड खरीदने का आशीर्वाद प्रदान किया।

पूजा के बाद श्री माताजी सहज-विवाहोत्सव हेतु चाँदी (की वस्तुएँ) खरीदने हेतु कोल्हापुर रवाना हुईं। कोल्हापुर में श्री महालक्ष्मी मंदिर के बाहर स्थितएक चाँदी की दुकान से बहते हुए चैतन्य पर उनका ध्यान आकृष्ट हुआ। दुकानदार ने उन्हें पहचान लिया और ठीक अगले दिन दुकान के ऊपर ध्यान-केंद्रखोल दिया।

गणपतिपुले के सागर-तट पर एक नये स्वर्ग का सृजन किया गया। श्री माताजी ने सहजी बच्चों के लिए स्थानीय लाल-पत्थर से सुंदर झोंपड़े (huts)तैयार कराये। पहाड़ी के ढलान पर एक मुक्त-आकाश (open-air) सीढ़ी-नुमा रंगभूमि (Amphi-theater) का निर्माण पहाड़ी के ढलान को काटकरतैयार किया गया।

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर हरेक के लिए उपहार थे। सबसे पहले दस-वर्ष तक के बच्चों को बुलाया गया। श्री माताजी ने उनके लिए क्रेयॉन्स, खिलौने और चॉकलेट्स (U.K.) से खरीदी हुई प्रदान की। तब दस से पंद्रह वर्ष तक के बच्चों को स्टेशनरी बॉक्स, पेन और गेम्स दिए गए। उन्होंने कहा की, “यदि किसी को एक और पेन चाहिए तो उसे लेने दो।” पंद्रह से इक्कीस वर्ष तक के वर्ग-वालों के लिए बारी आई, उनके लिए शर्ट्स, टाई और महिलाओं के लिए हार व चूड़ियां थीं। 

तीस वर्ष की उम्र वालों के लिए घड़ियाँ थीं। मध्य उम्र वर्ग के लिए टी-सेट्स, पॉट्स, पैन्स (frying pans) थे। “मैंने चालीस वर्ष से ऊपर वालों के लिए चमड़े के वॉलेट्स (बटुए) दिए। अहा, आर्कोपोल-कप्स (cups) मैंने पेरिस से पचास वर्ष की वर्ग की महिलाओं के लिए खरीदे थे, उन्हें दें।”

पांच घंटे बीत गए, किन्तु श्री माताजी बाँटने के आनंद में खोई रहीं। जितना ज्यादा उन्होंने दिया, उनके प्यार की शक्ति ने उन्हें स्फूर्तिमय बनाये रखा। “जहाँ प्रेम है, वहां ऊर्जा है।”

1988

अध्याय-25

दस (10) जनवरी को, महा संक्रांति पूजा का आयोजन मुंबई में हुआ। श्री माताजी ने बताया, यद्यपि वे हरेक को उसकी सुषुम्ना से जानती थीं, किन्तु सुषुम्ना की चौड़ाई में विस्तार के लिए नित्य ध्यान करना बहुत जरुरी था। 

इसके तुरंत बाद वे प्रतिष्ठान लौट आईं। वे किसानों के लिए चैतन्यित बीजों के विकास हेतु बहुत उत्सुक थीं और मुथा नदी के किनारे शेरेगाँव में (पूना से तीस, 30 कि. मी. दूर) पैंतीस (35) एकड़ जमीन खरीदी। यह जमीन सड़क मार्ग से नहीं जुडी थी, किन्तु जमीन के विक्रेता ने उन्हें आश्वासन दिया कि इस जमीन में पहुँच-मार्ग हेतु जमीन दिलायेगा। जमीन खरीदने के बाद, पहुँच मार्ग हेतु जमीन (जिसके लिए विक्रेता ने आश्वस्त किया था), उसकी कीमत उसने बढ़ा दी, किन्तु श्री माताजी उसके झांसे में नहीं आईं और ज्यादा कीमत (फिजूलखर्ची) अदा करने से इन्कार कर दिया। इसके बनिस्बत उन्होंने जमीन के पहुँच-मार्ग (approach road) हेतु एक और रास्ता भैंसों के द्वारा आने-जाने में उपयोग होने वाले मार्ग का पता कर लिया। 

श्री माताजी ने किसानों को चैतन्य-लहरियों द्वारा बीजों की नैसर्गिक इम्यून-शक्ति (रोग प्रतिरोधकता) को विकसित करना सिखाया। किसानों ने हाइब्रिड (दोगले बीज) को छोड़ दिया और उन्होंने चैतन्यित बीजों को अपनाया। उन्होंने ऑर्गेनिक-फार्मयार्ड खाद का उपयोग करने की सलाह दी, क्योंकि केमिकल-उर्वरकों ने जमीन की गर्मी बढ़ाई, इसके अतिरिक्त, इससे कीटनाशक दवाओं के खर्चे में कमी आई। 

कृषि-क्षेत्र में प्रयोगों और सहज-कार्यक्रमों के बीच, श्री माताजी ने बीमार साधकों को स्वस्थ किया। कोलकाता के डॉ. खान मृत्यु शैय्या पर थे। वस्तुतः,उन्हें चिकित्सीय तौर पर मृत घोषित कर दिया गया था। श्री माताजी ने फ़ोन को डॉ. खान के कान के पास रखने को कहा और एक मन्त्र कई बार दोहराया। दस मिनट बाद उनकी नाड़ी की धड़कन (pulse) लौट आयी और एक घंटे बाद वे अस्पताल से बाहर चल कर गए। किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि एक मंत्र इतना शक्तिशाली हो सकता है!

श्री माताजी के व्यस्त कार्यक्रमों के मध्य, वे दिल्ली के क़ुतुब-इंस्टीट्यूशनल एरिया में एक नए आश्रम की रूप-रेखा खींचने के लिए, दिल्ली रवाना हुईं। उन्होंने अभी-अभी पुणे, प्रतिष्ठान-भवन रूपी कविता को पूर्ण किया था और अब यह दिल्ली का नंबर था, एक और काव्य-रचना को लय-बद्ध करने का। हर प्रोजेक्ट (परियोजना) सहज-योगियों को लय-ताल-बद्ध करने का एक बहाना था। आदिशक्ति का हर कार्य मन (मस्तिष्क) को आत्मा के साथ समन्वित कराने हेतु निर्देशित था। उन्होंने वास्तुविदों को याद कराया, “एक सहज-योग आश्रम व्यावसायिक भवन नहीं, बल्कि आपकी माँ के प्यार (वात्सल्य) का प्रदर्शन है।”

श्री माताजी ने वास्तुकारों पर उनकी काव्य-रचना हेतु प्रातः काल तक कार्य किया। उनका चित्त बारीक़ से बारीक़ जानकारियों पर गया। दिल्ली शहर की गर्मी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ऊँची छतों की और भवन को ठंढा रखने हेतु बरामदों की प्लानिंग (वास्तु-योजना) की। उन्होंने अपने वात्सल्य की ऊष्मा से इसे गुलाबी सेंड-स्टोन से श्रृंगारित किया। गुलाबी पत्थर की शीतल लहरियों के आलावा एक फायदा और- इसके रख-रखाव की समस्याएं भी हल हो गईं। 

फरवरी में श्री मूर्ति जिनके ह्रदय को श्री माताजी ने अभी-अभी ठीक (स्वस्थ) किया था, उन्होंने सहज-योग जन-कार्यक्रम कोयंबटूर चेन्नई और बेंगलोर में आयोजित करवाये। साधकों की बायीं ओर की बाधाएँ (कुसंस्कारिता) उनकी कुंडलिनियों को नीचे खींच रहीं थीं। श्री माताजी ने श्री मूर्ति को उनकी (साधकों की) बायीं-नाड़ी को कैसे साफ करें, इसकी सलाह दी और उन्हें कहा कि एक बार पुनः आना पड़ेगा। 

श्री माताजी ने अपने पैंसठवें (65th) जन्म-दिवस के शुभ अवसर पर आरडगांव (राहुरी के पास) ग्रामीण-महिलाओं के कल्याण हेतु ‘सहज-महिला-कल्याण संस्था’ की नींव रखी। इस परियोजना को आर्थिक सहायता का अनुग्रह ऑस्ट्रेलियन हाई-कमीशन ने नई-दिल्ली में किया। 

श्री पुरुषोत्तम दस जलोटा (अनूप जलोटा के पिता) ने मुंबई में श्री माताजी के जन्म-दिवस समारोह पर संगीतमय बधाई दी। संगीतज्ञों ने उन्हें पहचान लिया, क्योंकि वे परमात्मा के द्वारा उनके आत्म -साक्षात्कार मिशन की सहायता करने हेतु परमात्मा से विशेष तौर पर प्रतिभा-प्राप्त थे। ये संगीतज्ञ तथा गायक अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद हमेशा श्री माताजी के समक्ष अपनी संगीतमय-सेवाओं की प्रस्तुति देने को तत्पर रहते थे। श्री माताजी ने कई महान संगीत गुरुओं- उस्ताद अमजद अली खान, भजन सोपारी, अनूप जलोटा, देबू चौधरी, उस्ताद शफत हुसैन, पं. जसराज, पं. भीमसेन जोशी, परवीन सुल्ताना, श्रीमती राजम और कई अन्य संगीत हस्तियों को आशीर्वादित किया था। अपना आत्म-साक्षात्कार पाकर न केवल वे सुप्रसिद्ध हुए, बल्कि चैतन्य को प्रसारित करने वाले बड़े माध्यम भी बने। 

एक बधाई-समारोह पर श्री माताजी ने स्पष्ट किया, “सामूहिकता एक-एक व्यक्ति के बिना नहीं प्राप्त हो सकती है और सामूहिकता के बिना व्यक्ति का कोई महत्व (अस्तित्व) नहीं है, व्यक्तिगत कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। हमें व्यक्तिगत और सामूहिकता में संतुलन विकसित करना है। आपको सामूहिक-चेतना प्राप्त होती है, जिसके द्वारा आप सामूहिक अनुभव करते हो। यही नहीं, किन्तु आपको सामूहिकता की ठीक करने की ऊर्जा मिलती है। उदाहरणार्थ- सहजयोगी शांति का सृजन कर सकते हैं, वे सब प्रकार की मंगलमयता ला सकते हैं।”

अप्रैल में, श्री माताजी ईस्टर पूजा समारोह हेतु शुडी कैम्प्स (लंदन) रवाना हुईं। उसके बाद रोम को पांच (5) मई को सहस्रार-पूजा का आशीर्वाद दिया। 

आठ (8) जून को विएना (इटली) में आयोजित एकादश-रूद्र पूजा में सहज-योगियों को स्वयं की नकारात्मकता से लड़ने, के साथ ही विश्व में व्याप्त नकारात्मकताओं से मुकाबला करने हेतु उनकी एकादश रूद्र शक्ति को जाग्रत किया। 

इसके बाद, जुलाई दस(10) को उन्होंने जर्मनी का सामूहिक हंसा-चक्र खोला।

बीस (20) जुलाई को कोलम्बिया में स्वतंत्रता-दिवस समारोह पर उन्होंने बताया कि सच्ची आज़ादी आत्मा की स्वतंत्रता है। शाम का जन-कार्यक्रम दो सौ (200) साधकों के आत्म-साक्षात्कार (‘स्व’-तंत्रता) का साक्षी बना। 

तेईस (23) जुलाई को सैन-डिएगो में बुद्ध-पूर्णिमा का आयोजन हुआ। पूजा के दौरान खींचे गए फोटोग्राफ्स ने एक अद्भुत घटना का रहस्योद्घाटन किया,जिसमें श्री माताजी से प्रकाश-पुंज निकल रहा था। आरम्भ में यह फोटो-ओवर-एक्सपोज़र (फोटो पर फोटो की प्रच्छाया) जैसा प्रतीत हुआ, किन्तु यही घटना गुरु-पूजा पर अंडोरा (इटली) में इकतीस (31) जुलाई को पुनः घटित हुई।यह घटना क्रमवार दिखाई दी, पहले फोटो में श्री माताजी नाव पर सहज-योगियों के साथ बेंच पर बैठी हुई दिखाई दीं। दूसरे फोटो में सभी योगियों के सिरों के ऊपर प्रकाश-पुंज चमकता हुआ दिखाई दिया। तीसरे फोटो में उनके चेहरे अस्पष्ट (धुंधले से) दिखाई दिए और चौथे फोटो में वे सब के सब गायब हो चुके थे, केवल प्रकाश पुंज की धाराएँ शेष थीं।

किन्तु मजेदार बात यह थी कि जिस बेंच पर श्री माताजी बैठीं हुईं थीं,वह बेंच हरेक फोटो में एक जैसी (यानि स्पष्ट) ही दिखाई दी। श्री माताजी ने समझाया कि बेंच चूँकि एक पदार्थ (निर्जीव वस्तु) से बनी है, अतः इसका चैतन्य वैसा का वैसा ही रहा। जबकि चैतन्य ने योगियों को परिवर्तित कर दिया, जैसे ही उनकी कुंडलिनियाँ जाग्रत हुईं। जैसे उनके सहस्रार खुले (विस्तरित हुए), आकाश में चैतन्य-लहरियां जल-प्रपात जैसी फैलीं। कैमरे की आँखों ने उनके सहस्रारों से रंग-बिरंगी धाराओं के रूप में चैतन्य-लहरियों को बाहर प्रकट होते कैद कर लिया था।

छह (6) अगस्त को श्री कृष्ण पूजा पर और भी बहुत से चमत्कारपूर्ण फोटोग्राफ दिखाई दिए। श्री माताजी ने टिप्पणी की कि उन्होंने कुछ भी नहीं किया। यह केवल परम्-चैतन्य था, जो कि अपनी आध्यात्मिकता को उजागर करने का प्रयत्न कर रहा था। 

ग्यारह (11) अगस्त को स्विट्ज़रलैंड में श्री फातिमा पूजा आयोजित हुई। श्री माताजी ने समझाया कि गृह-लक्ष्मी के तत्व की रचना विशेषतया लोगों के मस्तिष्क से घृणा की (hatred) बर्फ की दीवार को प्यार की ऊष्मा से गिराना था!

1988

अध्याय-26

नवरात्रि की नौ (9) रात्रियाँ, जो की ग्यारह (11) अक्टूबर से प्रारम्भ हुईं ,पुणे प्रतिष्ठान में पूजाएं आयोजित की गईं थीं। पहली (1st) रात्रि को श्री गणेश पूजा सम्पन्न हुई। 

दूसरी (2nd) रात्रि को, ‘देवी-सूक्तम’ समर्पित किया गया। योगीजन नवजात अबोध बच्चों की तरह अपनी माँ की साड़ी की कलाओं (folds) में पूर्णतया सुरक्षित थे। 

तीसरी(3rd) और चौथी (4th) रात्रि को, देवी माँ के नव-दुर्गा स्वरूपों की प्रार्थनाएँ उनके रक्षा-कवच को प्राप्त करने हेतु की गईं। देवी माँ ने करुणामय हो अपना कवच प्रदान किया, “यह मध्य हृदय चक्र के लिए अच्छा है। देवी माँ के पास आपकी सुरक्षा के लिए बहुत-सी शक्तियां हैं, किन्तु पहले आपको उनके प्रति समर्पित होना होगा। मैंने तुम्हें अपना कवच बंधन के रूप में दिया है। तुम्हें घर से बाहर जाते समय बंधन लेना है, यात्रा में जाने के समय लेना है और सोने से पूर्व लेना है। मेरे मामले में, मैं अपना बंधन कभी नहीं लेती। मैंने अपने शरीर को बहुत खुला (स्वतंत्र) रख छोड़ा है। इस तरह, यदि कोई समस्याग्रस्त सहज-योगी मेरे पास आता है, मैं उसकी तकलीफ को आत्म-सात कर लेती हूँ और उसे स्वच्छ करती हूँ। मुझे थोड़ी तकलीफ (पीड़ा) झेलनी पड़ती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैं अपनी तकलीफ को साक्षी-रूप से देखती हूँ।”

पांचवी (5th) रात्रि को श्री माताजी ने संत एकनाथ के द्वारा रचित ‘जोगवा’ ..का अर्थ समझाया, “सहज-योग वही है जिसकी कल्पना संत एकनाथ ने की थी, परमात्मा के साथ सहज-योग होना। अब, तुम्हें आत्म-अवलोकन करना चाहिए और उनके महान स्वप्न को साकार करना चाहिए।”

छठी (6th) रात्रि को, श्री माताजी ने सामूहिकता को अपनी नाव में आज्ञा चक्र के पार किया और स्पष्ट किया कि कैसे उनकी शक्ति का उपयोग करना है। धीरे-धीरे करके उन्होंने योगियों को ब्रह्मांडीय-शांति में उतारा जिसने सहज-सामूहिकता को ‘निर्विचार’ में उतारा। जब श्री माताजी ने अपनी आँखें खोलीं, योगीजन शांत तालाब की तरह, कारुण्य से परिपूर्ण (लबालब) हो उमड़े जा रहे थे। यह माँ का प्यार (वात्सल्य) था, जो उन्हें अपनी बच्चों की सुरक्षा हेतु बाध्य करता है, उनका कारुण्य, जिसने उन्हें राक्षसों से युद्ध करने के लिए बाध्य किया और यही कारुण्य (दया) देवी माहात्म्य में “सांद्र करुणा”वर्णित किया गया था। 

सातवीं (7th) रात्रि को, सत्रह(17) अक्टूबर को, अथर्व-वेद से प्रार्थना ‘देवी अथर्वशीर्षम’ चरण-कमलों में निवेदित की गई। श्री माताजी ने बताया, कैसे बीज-मंत्रों का आह्वान किया जाता है। वेदों में आदिशक्ति को ‘ईं ’कहकर इंगित किया गया है। जब बीज मन्त्रों का आत्म-साक्षात्कारी द्वारा आह्वान किया गया, उन्होंने सभी गाँठों(बंधनों) को खोल दिया। 

आठवीं (8th) रात्रि, बहुत विशेष थी, श्री माताजी ने सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया का रहस्य बताया। साधकों की बौद्धिक ज्ञान पिपासा (प्यास) को शांत करने हेतु, श्री माताजी ने मेहरबानी करके प्रश्न पूछने की अनुमति दी, किन्तु उन्हें आगाह किया, “आत्मा की प्यास भक्ति से शांत होती है। जब आप आनंद-विभोर होते हैं, तब कुछ पूछने को नहीं होता।”

मन-गढ़ंत (काल्पनिक) कहानियों की निरर्थकता, सामूहिकता की समझ में आ गई और योगियों ने श्री माताजी के चरण-कमलों में भक्ति के पद ‘महालक्ष्मी स्तोत्रम’ देवी-माहात्म्य से समर्पित किया। यह सामूहिकता की चेतना में प्रकाशित हो गया कि श्री आदिशक्ति माताजी सृजन का स्रोत होने के साथ, हरेक वस्तु की सीमा से परे ही नहीं, किन्तु सबके मूल में भी स्थित हैं। 

नौवीं (9th) रात्रि को, आज्ञा-चक्र की चल-विचल रुक गई और एक पक्का-सम्पर्क, पूर्ण-एकाकारिता श्री माताजी से स्थापित हो गई। सभी प्रार्थनाएँ,स्तोत्र, भजन और मंत्र वहाँ समा गए थे, जिन्होंने विश्लेषण करने की हिम्मत की, वे आज्ञा के भटकाव में वापस गिर पड़े। 

नव-रात्रियों में भगवती देवी माँ सामूहिक-नकारात्मकता से लड़ीं और दसवें दिन उनकी विजय हुई। 

सामूहिकता ने देवी माँ से दुनिया की नकारात्मकता को समाप्त करने की प्रार्थना की। उन्होंने अपने धनुष से एक बाण छोड़ा और शैतान की प्रतीक-स्वरूप तीन प्रतिमाओं को जलाकर भस्म कर दिया ।

1988

अध्याय-27

सत्रह (17) दिसंबर को भारत-भ्रमण पुणे-कार्यक्रम से आरम्भ हुई। पाश्चात्य-योगियों की भक्ति मराठी भजनों में प्रकट हुई, जिससे आम जनता को बड़ी प्रेरणा मिली। श्री माताजी ने उन्हें अपना कार्य करने के लिए धन्यवाद दिया। 

इसके तुरंत बाद, सांगली (महाराष्ट्र) में कार्यक्रम आयोजित हुए। कृष्णा नदी के किनारे सहजियों का डेरा डला। श्री माताजी ने रात्रि-विश्राम सांगली में किया। सुबह कैंप से आती हुई नकारात्मकता से वे अचानक बीमार हो गईं। स्पष्ट-रूप से, योगियों को खुले में गर्म-पानी से स्नान करने की बाद उन्हें सुबह ठंढ लग गई। श्री माताजी ने उन्हें एक बंधन दिया और वे बेहतर महसूस करने लगे। 

उनके शब्दों की गहराई में, “आप सभी मेरे विराट शरीर में सेल्स (कोशिकाएं) हो और मैंने तुम्हें जाग्रत किया है। यदि आपका पतन होता है (बीमार होते हो), तो मैं उत्थान करती हूँ (स्वस्थ करती हूँ),” यह एक सबक था जिसे कभी नहीं भूलना चाहिये। यह शरीर आदिशक्ति का पवित्र मंदिर है और हरेक योगी इसकी पवित्रता को बनाये रखने के लिए जिम्मेदार है। 

अगले दिन उत्सुकता-पूर्वक गणपतिपुले के लिए योगी-जन बसों से रवाना हुए। नील-वर्ण महासागर के दृश्य को देखकर योगियों की आत्माएँ ऊँचाइयाँ छूने लगीं- यह घर वापसी का सुख जो था। हरेक रात्रि स्वर्गीय दावत से भरपूर थी, अलौकिक मधुर संगीत की सुरीली-धुनों की सुरा (मदिरा) ने बच्चों को उनके स्वप्नों में जाग्रत रखा। 

हर ऊषा सागर की गहराई से भरपूर मोती लाती और उनकी आत्माओं को सम्पन्नता प्रदान करती।

क्रिसमस की पूर्व संध्या को, श्री माताजी ने स्नेह-पूर्वक अपने क्रूसारोपित पुत्र को याद किया। सामूहिकता ने उनके पुनर्जीवन हेतु हृदय से प्रार्थना की। उन्होंने (ईसा ने) श्री माताजी के चरण-कमलों के पदार्पण (पधारने) का इशारा किया था। 

अगली संध्या को विवाह-समारोह (शादियों की जानकारी) का उद्घोष हुआ। हरेक योगी दूल्हा या दुल्हिन के परिवार से जुड़ा (संबंधित) था। बुजुर्ग, दूल्हा या दुल्हिन के माता, पिता या मामा के रोल अदा कर रहे थे, जबकि छोटे बच्चे दूल्हा-दुल्हिन के भाई या सहेली के रूप में थे। शादी के जोड़े आपस में शादी की दावत के बीच तुक-बंदी (दोहे) duets प्रस्तुत कर रहे थे। श्री माताजी हँसी के फव्वारों के बीच इन तुकबंदियों (duets)का आनंद ले रहीं थीं और सामूहिकता उनके साथ अति प्रसन्नता में डूबी हुई थी। 

1989

अध्याय-28

जनवरी के प्रारम्भिक दिनों में श्री माताजी ने बड़ौदा से अपनी गुजरात यात्रा शुरू की। कला, संगीत और संस्कृति के इस नगर ने उनका उत्साह-पूर्वक स्वागत किया। आगे, अहमदाबाद कार्यक्रम में उन्होंने नाभि-चक्र की शक्तिशाली बाधा महसूस की। “मेरे लिए आत्म-साक्षात्कार प्रदान करना-कठिन नहीं है, किन्तु गुजरात वासियों को अपने पैसों के प्रति मोह से परे जाना होगा।” वहां से राजकोट की तीन-चार घंटे की यात्रा के दौरान वे सामूहिक पकड़ को दूर करने हेतु अपनी नाभि-चक्र पर हाथ रखकर सामूहिक नाभि को साफ करती रहीं। 

श्री राजेश शाह के पूर्वजों के घर चोरवाड़ में, माँ के स्वागतार्थ गांव की कुमारियाँ अपनी परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर, श्री माताजी के आगमन-मार्ग को गुलाब की पंखुड़ियों से सुगंधित करतीं, उन्हें एक सुंदर मंडप जो कि नारियल के पेड़ की संकरी मार्ग (गली) से जुड़ा हुआ था, सादर ले आईं। हज़ारों ग्रामवासियों ने गुजराती शैली में उनकी आरती उतारी। श्री माताजी के चरण-कमलों के नीचे कदली (केले) के पत्ते बिछाये गए थे। बाद में,ग्रामवासी एक सुंदरता से सुसज्जित बैलगाड़ी से उन्हें जान-सभा हेतु सुरक्षा-पूर्वक ले आये। शाम को, श्री माताजी ने अंतिम चरण में बीमार कैंसर मरीज को नीरोग किया। संगीत कार्यक्रम के आखिर में, वह व्यक्ति (स्वस्थ होकर) उल्लासपूर्वक डांडिया नृत्य में शामिल हुआ।

पुणे में एक अल्प-कालीन आराम के बाद श्री माताजी हैदराबाद की फ्लाइट (हवाई-यात्रा) के लिए विमान-पत्तन (एयरपोर्ट) रवाना हो गईं। हैदराबाद की फ्लाइट (उड़ान) तीन घंटे विलम्बित थी। उन्होंने इस विलम्ब को नजर-अंदाज करते हुए, हरेक सहजी से वार्तालाप का आनंद लिया-उनके परिवार, बच्चों की शिक्षा आदि के बारे में जानकारी लेते, कुछ मज़ेदार गाथाएँ सुनाते हुए, हँसते-हँसते हुए मजे लिए। उधर, हैदराबाद विमान पत्तन पर इतने लम्बे इंतज़ार के बावजूद सहज-योगीजन इतने तरो-ताज़ा लग रहे थे। उन्होंने श्री माताजी से कहा, “माँ, हम लोग तो भजन गाते हुए चैतन्य का आनंद ले रहे थे। पूरा माहौल पूजा जैसा लग रहा था। इंतज़ार के तीन घंटे पल-मात्र में लुप्त हो गए।” श्री माताजी मुस्कराईं, “मेरा ध्यान (चित्त) तुम सब लोगों पर था,क्योंकि मैं इतनी चिंतित थी, तुम तीन घंटे से हवाई अड्डे पर प्रतीक्षा-रत थे।”

सहज-योगी जनों का समर्पण बहुत से साधकों को सहज-कार्यक्रम में लाया। एक सुप्रसिद्ध संत वीर ब्रह्मेन्द्र स्वामी ने श्री माताजी के अवतरण की भविष्यवाणी की थी और कुंडलिनी के बारे में लिखा थाl कुंडलिनी के बारे में आम आदमी को जानकारी होने से उनकी इड़ानाड़ी (इच्छाशक्ति) को जाग्रत करने में सहायक रही।

किन्तु, चेन्नई आकर श्री माताजी को मालूम हुआ कि चेन्नई की शुद्ध इच्छा-शक्ति का जाग्रत होना अभी बाकी था। उनकी इड़ानाड़ी के चलन के लिए,पहले साधकों का चित्त शांत होना जरुरी था। इसके लिए श्री माताजी ने चेन्नई को श्री चित्त-शक्ति पूजा का आशीर्वाद दिया। 

जैसे श्री माताजी बेंगलोर की ओर बढ़ीं, साधकों की इड़ा नाड़ी (शुद्ध इच्छा शक्ति) की हलचल ज्यादा जटिल हो गयी। इसका कारण था- आधुनिक युग में राक्षस, भक्तों के मस्तिष्क में प्रवेश कर चुके थे। अतः श्री माताजी ने श्री गणेश पूजा द्वारा श्री गणेश तत्त्व स्थापित करना आवश्यक समझा। पूजा के बाद, अगले जन-कार्यक्रम में हॉल पूरा भरा हुआ था। इस अनुभव ने योगियों को सिखाया कि हर कार्यक्रम के पूर्व श्री माताजी से आशीर्वाद की प्रार्थना करनी चाहिये।

तीन मार्च को श्री माताजी अपने गृह-नगर नागपुर पहुंचीं। श्री माताजी के सम्बन्धियों और बचपन के मित्रों द्वारा उनका हार्दिक स्वागत भाव-विह्वल कर देने वाला था। “मुझे महसूस हुआ कि मैं अपनी माँ के घर आयी हूँ। हो सकता है उन्हें कछ अंतर्ज्ञान हो और जो शक्ति उन्हें मुझसे बाँधे रखती है, उसी ने उन्हें मुझको पहचानने में इतने वर्षों बाद मदद की है।”

श्री माताजी ने अपने बचपन के मधुर किस्से सुनाए। यह बातचीत नए सहज-योगियों की समस्याओं की ओर मुड़ी और उन्होंने सामूहिकता को बीमार लोगों का सीधे इलाज करने/ठीक करने से मना किया, बल्कि इसके बजाय, श्री माताजी के फोटोग्राफ का उपयोग किया जाय। श्री माताजी ने अपनी पिताजी के छिंदवाड़ा स्थित मकान के बारे में पता लगाया। श्री माताजी ने कहा कि उस मकान को खरीदना एक अच्छा विचार होगा। श्री बाबा मामा ने बताया कि एक डाक्टर ने वहां एक क्लिनिक खोला था।

एक कट्टर संगठन ‘अंध श्रद्धा निर्मूलन’ ने श्री माताजी की जन-सभा को भंग करने की कोशिश की। उन्होंने सहजयोग पर अंध-श्रद्धा और अंध-विश्वास का आरोप लगाया। श्री माताजी ने स्पष्ट किया, “इसके विपरीत सहज-योग अंध श्रद्धा और अंध विश्वास के खिलाफ है। सहज-योग अंध-विश्वास से मुक्त प्रबुद्ध-ज्ञान है। उन्होंने पुलिस कमिश्नर को इसे स्वयं सत्यापित करने को कहा। उन्हें उनका आत्म-साक्षात्कार मिला और शीतल-लहरियां महसूस हुईं। पुलिस कमिश्नर ने अनैतिक-हानि करने वाले धंधेबाजों को चुकता कर दिया और सहज-योग जन सभा आनंदपूर्वक साशीर्वाद समाप्त हुई।

सामूहिकता का मिज़ाज़ शाम को आनंदमय शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति से आलोकित हुआ। श्री माताजी के सायंकालीन-भोजन (डिनर) में एक बीमार के आकस्मिक फ़ोन कॉल से व्यवधान उपस्थित हुआ, जिसे लकवे का दौरा पड़ा था। श्री माताजी को अपनी बायीं-विशुद्धि पर यातनामय पीड़ा महसूस हुई। सहज-योग केंद्र प्रभारी ने बताया कि उस व्यक्ति को झूठ बोलने की आदत थी। श्री माताजी ने कहा कि यह तकलीफ उसी का परिणाम था। फिर भी उन्होंने कृपा करके दयापूर्वक उसे एक बंधन दिया और वह स्वस्थ हो गया। इसके बाद, श्री माताजी ने सहज-योगियों को प्रलोभनों के चंगुल से बचने के लिए सतर्क किया, जिसमें वे गिर जाते हैं और उनके स्वास्थ्य पर उसका प्रतिकूल असर होता है।

अगले दिन, योगीजन श्री माताजी के बचपन की स्मृतियों को ताज़ा करने वाली गली में घूमे। उनकी बचपन की हंसी हर जगह सुनाई दी, हालाँकि यह सामूहिक अचेतन में हमेशा के लिए अंकित रहेगी- श्री माताजी के खुले टखनों पर शोभित चाँदी की पायल की नन्हीं घंटियों (घुंघरुओं) की रुनझुन प्रतिध्वनि स्कूल से घर वापस आते हुए, उनके गायन का संगीत, जिन बगीचों में वे खेलती थीं, वो आंसुओं की लड़ी जो उनके नेत्रों से बही, अपने पिताश्री को नागपुर हाइकोर्ट के गुंबद पर चढ़ते हुए-गोलियों की बौछार में, यूनियन-जैक (ब्रितानी-झंडे) को नीचे खींचते और भारतीय तिरंगे झंडे को (गुंबद) के शिखर पर फहराते हुए- हर जगह उनके बचपन की स्मृतियाँ हर जगह प्रति-ध्वनित होती महसूस हो रहीं थीं। 

योगी-जनों ने उनके पिताजी के (नागपुर रोड पर) छिंदवाड़ा में स्थित घर को देखा। एक छोटे से कक्ष से अत्यंत जोरदार चैतन्य लहरियां का झरना सा महसूस हुआ। जब योगियों ने श्री माताजी से इसके बारे में पूछा, वे अति विनम्र संकोच से मुस्कराईं, “इसमें मेरा जन्म हुआ था।”

शीघ्र ही वे दिल्ली के लिए हवाई यात्रा से रवाना हुईं और पीछे अपनी मधुर बाल-स्मृतियाँ छोड़ गईं। छह (6) मार्च को भगवान शिव के प्रेम-सागर में दिल्ली को भीगा दिया (स्नात करा दिया)। योगीजन इतने ऊर्जावान थे कि वे कार्यक्रमों से आई पकड़ (बाधा) से बिलकुल चिंतामुक्त थे और अपने हृदय में नए साधकों को समाये हुए थे। जितना योगियों का हृदय खुलता वे उतना ही आगे बढ़ते और ज्यादा से ज्यादा आनंद की वर्षा होती। जिस प्रकार सूर्य की किरणें अच्छे और बुरे में फर्क नहीं करती, उसी तरह कार्यक्रमों के बीच (दौरान), श्री माताजी ने मानवता के सागर (साधकों) का अपने ह्रदय में आलिंगन किया।

दस दिनों के लिए श्री माताजी का प्यार (वात्सल्य) नोयडा और पीतमपुरा के विशाल जन-समूह पर बरसता रहा, एकदम निरपेक्ष। प्रातः कालीन सभाओं में वे साधकों की व्यक्तिगत समस्याएं हल करतीं। किसी भी व्यक्ति के लिए श्री माताजी के व्यस्त-कार्यक्रम के साथ सफलतापूर्वक प्रबंध कर लेना सम्भव नहीं था और युवा-शक्ति ने अपने को इस हेतु रिले-टीम (Relay team) में बाँट लिया था, ताकि वे श्री माताजी के व्यस्त-कार्यक्रम के साथ-साथ चल सकें।

श्री माताजी के प्यार की ऊष्मा और भी आशीर्वाद समेटे हुए थी- इसमें क़ुतुब-इंस्टीट्यूशनल-क्षेत्र में निर्मित क़ुतुब-आश्रम की सौगात थी। योगियों ने प्रार्थना की कि उनकी उत्साह पूर्ण कृतज्ञता भजनों के समर्पण के माध्यम से उनके चरण-कमलों तक पहुंचेगी। श्री माताजी ने सेवा-मुक्त (रिटायर्ड)योगीजनों को आश्रम की देखभाल करने की सलाह दी। श्री वेणुगोपालन ने श्री माताजी को आश्रम में ठहरने की प्रार्थना की। श्री माताजी ने टिप्पणी करते हुए कहा, “मेरे पति बिना किराया चुकाए आश्रम में रुकने की आज्ञा नहीं देंगे।”

श्री वेणुगोपालन की आँखों में आंसू थे- यह कैसे होगा! प्रथम तो श्री माताजी ने स्वयं के पैसों से यह आश्रम बनाया, दूसरे उन्होंने उसे सहज-योग को दान कर दिया और वे उसमें ठहरने (रुकने) हेतु किराया देने पर कायम (दृढ़) हैं। श्री वेणुगोपालन ने तर्क दिया, “माँ, इस तरह का शिष्टाचार क्यों? आप अपने लिए कुछ नहीं रखतीं और सब हमें दे देती हो, किन्तु इस बार, हम तब तक भोजन नहीं ग्रहण करेंगे, जब तक कि आप ऊपरी-मंजिलें (upper-floors)रखने के लिए तैयार न हों।”

श्री वेणुगोपालन का रुँधा-हुआ गला भर आया, जब श्री माताजी कोमल (soft) हो उठीं। ऊपर की दो मंजिलें श्री माताजी के ठहरने हेतु चिन्हित की गईं,किंतु उन्होंने अपने लिए एक मंजिल पर एक छोटा-सा कमरा चुना। (हालाँकि, जब भी श्री माताजी वहाँ ठहरतीं थीं, श्री सी. पी. सर हमेशा अच्छी रकम दान-स्वरुप सहज-योग को देते। यह श्री माताजी के द्वारा अनुबंधित किराये से भी ज्यादा होता था!)

श्री माताजी नोयडा-कार्यक्रम के विस्तृत प्रबंध से भाव-विह्वल हो गईं, बोलीं, “तुम्हें इतना ज्यादा खर्च करने की जरुरत नहीं। तुम्हारे प्रेम ने मुझे नोयडा के लिए आकृष्ट किया है और मुझे अपना निवास (घर) यहाँ बनाना होगा। सन 1982 में एक हाउसिंग-प्लॉट मेरे पति को अलॉट (आवंटित) किया गया था,यमुना के तटबंध पर, परन्तु तब से यह प्लॉट (भूखंड) खाली पड़ा हुआ है।”

सत्रह (17) मार्च को दून-घाटी की घनी हरियाली में नोयडा की संगीत टीम के आह्वान की गूंज सुनाई दी और देहरादून में श्री माताजी के स्वागत में बसंत-ऋतु के पुष्पों की चादर बिछा दी, घोषणा हुई, “बसंत का आगमन हो चुका है।”

हज़ारों सत्य-साधक बसंतोत्सव मनाने अपने पुनरूत्थान के लिए (उत्सव के रूप में) इकट्ठे हुए। उन पर श्री माताजी ने अपने पसंदीदा आशीर्वाद बरसाए। श्री माताजी का 66 वां जन्म-दिवस उत्सव उन्नीस (19) मार्च को दिल्ली में मनाया गया। इस बहार में पुष्पों की हर पंखुड़ी अपनी मधुर सौरभ बिखेरते हुए अपनी माँ के प्यार की दमक में प्रसन्न थी। दूसरे दिन मुंबई में श्री माताजी का जन्म-दिवस समारोह आयोजित हुआ। श्रीमती कीर्ति शिलेदार ने श्री माताजी के जन्म-दिवस बधाई कार्यक्रम को सूर्यवंशी-हॉल में उनके द्वारा प्रस्तुत शानदार संगीत-नाट्य द्वारा सुन्दर बनाया। श्री माताजी अपने बच्चों के द्वारा सुन्दर गुल-दस्तों की भेंट से प्रसन्न थीं, वे बोलीं, “जब मैं इन सब फूलों को देखतीं हूँ- जो आप लाए हैं, मैं आपके बारे में सोचती हूँ, जो पहले फूल थे, वे अब समझदार होकर प्रौढ़ता प्राप्त कर के फलों में परिवर्तित हो गए हैं। इससे मुझे सबसे ज्यादा आनंद मिलता है।”

श्री माताजी ने पुष्पार्पण के लिए आशीर्वाद प्रदान किया और अपने बच्चों को अपने घरों को सुरभित/चैतन्यित करने के लिए उन्हें वापस किए। योगियों ने श्री माताजी को हृदय से धन्यवाद दिया और अगले जन्म-दिवस पर इक्यावन (51) नए सहज-योगियों को लाने की सौगंध ली। इसके उपरांत, वे कोलकाता के लिए रवाना हो गईं।

सुप्रसिद्ध पार्श्व-गायक (संगीतकार) श्री रवींद्र जैन को कोलकाता हवाई-यात्रा के दौरान उनका आत्म-साक्षात्कार मिला। जैसे ही श्री माताजी हवाई-जहाज से उतरीं, श्री रवींद्र जैन ने उनका श्रृंगार-दान (vanity case) को उठाने के लिए इच्छा की, श्री माताजी इस हेतु राज़ी नहीं हुईं। उन्होंने कहा, “यह अच्छा नहीं दिखता कि कोई पुरुष स्त्री का श्रृंगार-दान (वैनिटी -केस) उठाता रहे।”

यह सुनकर श्री जैन द्रवित हो गए, “क्योंकि मैं देख नहीं सकता और अपनी माँ की पेटिका (श्रृंगार-पेटिका) भी नहीं उठा सकता।”

श्री माताजी उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहतीं थीं और वे उन्हें अपना वेनिटी-केस (श्रृंगार पेटिका) ले चलने हेतु राज़ी हो गईं। उन्होंने श्री माताजी के कानों में फुसफुसाते हुए कहा, “माँ मैंने आपके लिए एक भजन लिखा है।”

श्री माताजी ने उन्हें सुबह आने के लिए कहा। नम्रता-पूर्वक उन्होंने ‘विश्व-वन्दिता’ गाया। श्री माताजी चैतन्य से भींग गईं। उन्होंने इस गीत में कुछ सुधार किया, ताकि छब्बीस (26) तारीख को ईस्टर-पूजा में आरती से पूर्व यह गीत प्रस्तुत किया जा सके। सहज कार्यक्रमों में सोनार-बांगला (Golden Bengal) ने उनके अवतरण की सूचना दी, “आइये! माँ बुला रही हैं।” कवियों, लेखकों, कलाकारों और संगीतज्ञों ने श्री माताजी के आह्वान पर ध्यान दिया और उनके आशीर्वाद के लिए एकत्र हुए। बड़े इश्तहारों ने घोषणा की, “सहज योग में खुश रहना जरुरी है, यह आनंददायक है।” अन्यथा, यह कैसे सम्भव हुआ होता!

1989

अध्याय-29

एक ऑस्ट्रियन योगिनी लिसा जो नेपाल में रह रही थी, उन्होंने श्री माताजी से काठमाण्डु में कार्यक्रमों के लिए प्रार्थना की। 29th मार्च को श्री माताजी ने काठमाण्डु को आशीर्वाद प्रदान किया। हवाई अड्डे से रास्ते में गुजरते हुए जैसे ही उन्होंने पशुपतिनाथ मंदिर पार किया, उन्हें अपनी पूर्व यात्रा मार्च 1977की मधुर-स्मृतियाँ ताज़ा हो आईं, जब राजेश शाह को उनकी झलक भगवान शिव के रूप में दिखी। जब राजेश शाह मंदिर की देहरी पर खड़े हुए थे,उन्होंने श्रीमाताजी को अनंत से उदित होते हुए, अनंत में प्रवेश करते देखा। इस अनुभव ने उनका अन्तः-परिवर्तन कर दिया और वे माँ के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गए।

लिसा ने पशुपतिनाथ मंदिर के बाहर बनाई गई कामोत्तेजक कला-कृतियों के बारे में जानकारी लेना चाही और पूछा। 

श्री माताजी ने उत्तर दिया, “तांत्रिकों ने मंदिर की सजावट करने वाले कला-शिल्पियों को बताया कि विद्युत-तड़ित की देवी विष्णुमाया कुँवारी हैं और यदि वे मंदिर के बाहर दीवारों पर ये काम-उद्दीपक दृश्य निर्मित करते हैं, तो वे वहाँ प्रवेश नहीं करेंगी और इस तरह से मंदिर की रक्षा वर्षा, तूफान और तड़ित (बिजली गिरने) से होगी। भारत में तांत्रिकों ने कला-शिल्पियों को मूर्ख बनाया, यह अंध-विश्वास स्थापित करते हुए कि इस तरह के कामोद्दीपक-दृश्य शैतानी शक्तियों को विकर्षित करती हैं और इसी बहाने (असत्य कारण) उन्होंने भारत में खजुराहो और कोणार्क में भी यही काम किया। तांत्रिकों ने हरेक मानव को कामुकता से जोड़ने का प्रयास किया, और दावा किया कि भगवान को कामुकता द्वारा प्राप्त किया जा सकता था। वे कामोद्दीपक-साहित्य में लिप्त रहे और कामसूत्र जैसी पुस्तकें लिखी। इस तरह उन्होंने उर्वरता-पंथ का आरम्भ किया।”

लिसा ने पूछा, “क्या लिंग उर्वरता का चिन्ह है?”

श्री माताजी ने कहा, “जब आदिशक्ति सदाशिव से अलग हुईं, तब उन्होंने श्री सदाशिव की अंडाकार-पथ में प्रदक्षिणा, उन्हें गले में हार पहनाते हुए की। इसके बाद, संक्षेप में अमर-साक्षी श्री सदाशिव को लिंगम स्वरूप में प्रतीकात्मक दर्शाया गया और उनकी शक्ति जो प्रदक्षिणा करती हुई, उन्हें योनि स्वरुप दर्शाया गया, यह उत्थान पथ को प्रदर्शित करता था।

लिसा का प्रश्न, “क्या, आप कृपा करके हमें थोड़ा-सा इन तांत्रिकों के बारे में बतायेंगी?

श्रीमाताजी ने उत्तर दिया, “तांत्रिक शैतानी तरीके व्यवहार में लाते थे वे साधकों को मूर्ख बनाते थे, यह विश्वास दिलाते थे कि वे परमात्मा तक काम-वासनाओं/उत्त्तेजनाओं के तरीकों द्वारा पहुँच सकते थे। जब कुण्डलिनी (माँ) का इस तरह अपमान होता है वह जड़वत (जाम) हो जाती है और परमात्मा का चित्त जो आपको विभिन्न चक्रों के देवी-देवता के माध्यम से देखता रहता है, अंततः पीछे हट जाता है। मृतात्माएँ, सामूहिक सुप्त-चेतन और सामूहिक अति-चेतन से साधक के मस्तिष्क में प्रवेश करना शुरू कर देती हैं और साधक को अपने अधिकार (कब्जे) में कर लेती हैं। तब मस्तिष्क में एक सनकी आत्मा की तरह, साधक उसके गुरु से आदेश लेना शुरू कर देता है, जिसने उसे वशीभूत कर लिया है।”

लिसा का प्रश्न :- वे लोगों को कैसे वशीभूत (मोहित) कर लेते हैं?

श्री माताजी का उत्तर :- तांत्रिक लोग नाटक करते हैं। वे अपनी ऑंखें आपकी आँखों में डालते हैं, यानि जो भी नकारात्मकता उनकी आँखों में इकट्ठी है,आपकी आँखों में उतर जाती है। इस तरह नकारात्मकता आपके अंदर प्रवेश करती है। जब नकारात्मकता व्यक्ति में प्रवेश करती है, वह बहुत शक्तिशाली अनुभव करता है। यह केवल एक बाधा है, यह भूत के आलावा कुछ भी नहीं है। प्रेम का स्वांग करना भी इसी तरह से कार्यान्वित होता है।

लिसा का सवाल:- यौन कामुकता और आध्यात्मिकता के बीच क्या संबंध है?

श्री माताजी का उत्तर – बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं! आरम्भ में यह समझा जाना चाहिये कि कुण्डलिनी पवित्र-अस्थि में मूलाधार में स्थित की गई है। कुंडलिनी के बहुत नीचे मूलाधार चक्र पौरुष -ग्रंथि में रीढ़ की हड्डी के बाहर रखा गया है। यह चक्र हमारे पेल्विक-प्लेक्सस को नियंत्रित करता है, जो कि हमारी यौन-भावना को नियंत्रित करता है। इस केंद्र के देवता श्री गणेश हैं, जो माँ कुंडलिनी के प्रोटोकॉल (नियमाचार) की रक्षा करते हैं। इस प्रकार यौन स्थल (यौवनांग) से कुंडलिनी के लिए प्रवेश वर्जित है। जान बूझकर मनुष्यों/जानवरों पर चित्त लगाना (मोह-पाश में फँसना) आध्यात्मिकता के लिए खतरनाक है और यह साधक को बाधा-ग्रस्त करता है।

श्री माताजी ने चक्र-तालिका चित्रित करते हुए बताया कि कैसे कामुकता इच्छा-शक्ति महालक्ष्मी नाड़ी से प्रदर्शित होती है। “इस नाड़ी में स्थित यौन-इच्छा विशेष परिस्थितियों में कैसे प्रकट हो जाती है। आरम्भ में, पति-पत्नी की नैसर्गिक इच्छा घनिष्ठता प्राप्त करने की होती है। अपनी गोपनीयता में,यौन-सम्पर्क उद्देश्य-पूर्णता प्रदान करता है।”

श्री माताजी ने उक्त-तालिका में पिंगला नाड़ी की ओर इशारा करते हुए बताया, “पिंगला नाड़ी में कोई विशेष परिस्थिति (संस्कार) नहीं होती, जो नैसर्गिक इच्छा को जाग्रत करे, बल्कि उलटे यह इच्छा आँखों के सम्पर्क द्वारा जाग्रत होती है। आँखों द्वारा सम्पर्क यौवनेच्छा की प्रार्थना, जहाँ कोई कल्पना इसे उत्तेजित कर सकती है। 

श्री महासरस्वती शक्ति स्वाधिष्ठान-चक्र से पोषित होती है। जब यौनेच्छा मस्तिष्क में आती है, तब हम महासरस्वती-शक्ति द्वारा कार्य करते हैं और दिमाग में प्रवेश करती हैं, इसी वजह से यह कार्य-सम्पन्नता नहीं दे सकती, क्योंकि यह दिमागी-प्रक्षेपण द्वारा होता है। यह नुकसानदायक है और नपुंसकता में इसकी परिणति होती है। ईसा ने कहा है, “तुम्हारी ऑंखें व्यभिचार-मुक्त होनी चाहिए।”

“नेपाल की रचना विशेषता आध्यात्मिकता हेतु भारत को रक्षा-कवच प्रदान करने के लिए की गई है, जो कि विश्व की कुंडलिनी है, किन्तु नेपाल सुषुम्ना से पथ-भ्रष्ट होकर पथ से विचलित हो गया है और तांत्रिकता की बुराई का रास्ता ले लिया। वही कारण है कि यह इतनी ज्यादा-गरीबी से अभिश्रापित है,किन्तु अब मैं लक्ष्मी-तत्व स्थापित करने आ गयी हूँ।”

आश्रम में आयोजित श्री लक्ष्मी-पूजा के दौरान श्री माताजी का चित्त नेपाल की आर्थिक- समस्याओं की ओर आकृष्ट हुआ। उनके नेपाल प्रवास के पूर्व भारत और नेपाल की बीच सम्बन्ध खटाई में पड़े हुए थे। भारत ने अपने व्यापार समझौते को विस्तारित करने (आगे बढ़ाने से) इंकार कर दिया था, क्योंकि नेपाल ने चीन के साथ शस्त्रास्त्रों की सौदेबाज़ी की थी। इस तरह से नेपाल में नमक, शक्कर ,पेट्रोल और घासलेट का अभाव हो गया। प्रतिक्रिया स्वरुप नेपाल के महाराजा ने सभी भारतीय कार्यक्रमों पर रोक लगा दी थी। श्री माताजी के पधारने के कुछ मिनट पूर्व रॉयल-हॉल ने अपने दरवाज़े श्री माताजी के लिए बंद कर दिए। यह रॉयल परिवार के लिए अपशकुन-सूचक था। लिसा ने महल से प्रार्थना की कि सहज-योग नेपाल-वासियों के उत्थान (विकास) के लिए था और इसका भारतीय राजनीति से कोई सरोकार नहीं था किन्तु इसका कोई फायदा नहीं हुआ और लिसा (LISA) हताशा हो वापस आ गईं। 

श्री माताजी ने पूछा, “क्या मामला है?”

लिसा ने बताया कि रॉयल अकादमी ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं। श्री माताजी ने बिना परेशानी से कहा, “समस्या कहाँ है! हम आश्रम के बगीचे में कार्यक्रम रख सकते हैं!”

थोड़ी-सी व्यग्रता में लिसा ने समझ लिया कि श्री माताजी पूरी स्थिति के सर्वोच्च नियंत्रण में थी। 

श्री माताजी मुस्कराईं, “जब तुम समस्या को सहस्त्रार से देखते हो, तब तुम आश्चर्य करोगे कि उसके केवल हल ही हैं। समस्याएँ पानी के बुलबुले की तरह हैं, जो हमारे ही मस्तिष्क द्वारा सृजित होती हैं।”

तब, कल्कि की शक्ति ने नियंत्रण हाथ में लिया। किचन पेंडाल को श्री माताजी के लिए चारों ओर से घेरकर सुरक्षित स्थान बनाया, खाने की मेजों द्वारा स्टेज (मंच) तैयार किया गया, कुर्सी को साड़ी से लपेटकर श्री माताजी के लिए सिंहासन बनाया गया और पूरा लॉन (Lawn) हरियाली से आच्छादित मैदान, एक पूर्णतया मुक्त-आकाश श्रोता कक्ष (open air auditorium) में विस्तारित हो गया। लिसा की जानकारी से पूर्व ही, उसने श्री माताजी की वाणी (जोरदार व् स्वच्छ) बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्र (without loud hailer) के सुनी, जो 1500 साधकों को सम्बोधित कर रहीं थीं। “मैं एक राजनेता नहीं, बल्कि संत हूँ और मैं तुम्हें सिर्फ आत्म-साक्षात्कार कैसे प्राप्त होता है, यह बताने आयी हूँ, और इसके आलावा कुछ भी नहीं।”

इस पूरे वृतांत ने श्री माताजी की विनोद-पूर्ण स्थिति को उत्तेजित कर दिया। जन-कार्यक्रम के बाद योगीजन उन्हें घेरकर घंटों तक बैठे हुए उनकी सूक्ष्म विनोद प्रियता और प्रभायुक्त समझ-बूझ का आनंद लेते रहे। एक सबसे कम अपेक्षित, फिर भी बहुत ही आनंदित करने वाली उनकी विशेषता थी-उनका विलक्षण-रूप से हास्य-बोध।

दूसरे दिन, साधक गण अपने परिवार-जनों और मित्रों सहित दुगुनी संख्या में लौटे। श्री माताजी के आशीर्वाद से न केवल साधकों को आत्म-साक्षात्कार मिला, किन्तु भारत और नेपाल के बीच मतभेद मैत्रीभाव-से सुलझ गए। इसके अतिरिक्त, नेपाल की अर्थ-व्यवस्था ने एक ऊँची उछाल ली। 

मछिंदरनाथ चौक पर, टेराकोटा की कलाकृतियों की दुकान पर खरीददारी करते वक्त श्री माताजी ने अचानक बहुत चैतन्य महसूस किया। वे बहुत प्रसन्न थीं और महसूस किया कि वहां बहुत चैतन्य था, क्योंकि नेपाल में गणों का सृजन किया गया था।

1989

अध्याय-30

तेईस (23) अप्रैल को श्री हनुमान पूजा का आयोजन आश्रय-स्थल (resort) क्लिंटन विले, इंग्लैंड के दक्षिण-पूर्वी समुद्री किनारे पर हुआ। पूजा प्रवचन में उन्होंने सामूहिकता को बिना डरे साहसिक कार्य करने की सलाह दी। यह भूलते हुए कि क्या होगा बल्कि इस विश्वास के साथ कि परम्-चैतन्य इस विश्व को परिवर्तित करने के प्रयास में एकीकरण और पोषण प्रदान करेंगे। 

चार (4) मई को नेपल्स हवाई-अड्डे पर पैंतीस देशों के एक हजार से ज्यादा योगियों ने श्री माताजी का स्वागत किया। मौसम को लेकर परेशानी थी, जैसा कि पिछले दिन से लगातार बारिश हो रही थी। कुछ भी हो, श्री माताजी के विमान के पहुँचते ही, देखो! सूर्यदेव स्वागत-मुस्कान के साथ प्रकट हुए!

सोरेन्टो के समुद्र तट पर स्थित आश्रयालय (रिज़ोर्ट) पर सहस्रार शिविर का आयोजन हुआ। पाँच (5) मई की प्रातः काल में धूप में योगियों ने कैप्री के एक टापू तक श्रीमाताजी के सानिध्य का लाभ उठाया। महासागर बहुत अशांत था, श्री माताजी ने शांत-भाव से सागर की ओर टकटकी लगाए देखा और वह सहजयोगी बच्चों के अशांत मस्तिष्क को शांत करने में सहायता करने लगा। उनकी आँखों ने योगियों को दूर क्षितिज की ओर चुपके-से इशारा किया,अपने अपरिमित परम् चैतन्य के रूप को परावर्तित करते हुए! इसका साक्षी होने के लिए यह जरुरी है कि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से ऊपर उठें और सामूहिक समस्याओं को हल करने हेतु पहल करें।

कापरी पहुँचने पर श्री माताजी का चित्त दो चट्टानों पर स्थिर हो गया, जो समुद्र से बाहर निकल रहीं थीं, “इसी तरह से झेन मास्टर्स (झेन गुरु) प्रकृति की मदद से साधकों को निर्विचारिता प्राप्त करने में मार्गदर्शन प्रदान करते थे।”

नौका-विहार (boat-trip) में खींचे गए फोटोग्राफ में श्री माताजी के सहस्रार से प्रकाश-पुंज जल-प्रपात के सदृश प्रतीत हो रहा था। यह देवी-महात्म्य में वर्णित सहस्रार (हज़ार) पंखुड़ियों वाले सहस्रार के समान दिखाई पड़ा। परम् चैतन्य ने श्री माताजी के पावित्र्य के बारे में प्रदर्शित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी- प्रकाश की धाराएँ चैतन्य-लहरियों के आलावा कुछ भी नहीं थीं, जो उनके सहस्रार से प्रवाहित हो रही थीं। जब श्री माताजी को फोटोग्राफ्स दिखाए, उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “यह सब जो तुम देख रहे हो, यह मेरे मस्तिष्क में होता रहता है,तुम लोग sitting in the heart of universe ‘ब्रह्माण्ड के हृदय-कमल में विराजित’…..गा रहे थे। अब से, तुम लोगों ने मेरे अंदर स्थित विश्व के ह्रदय को पुकारा और उसकी (विश्व-ह्रदय से) चैतन्य-लहरियां मेरे सहस्रार से सभी दिशाओं में फूट पड़ीं।”

सोरेन्टो के मेयर (नगर-अध्यक्ष) ने श्री माताजी को शहर की चाबियाँ सौंपी और उन्हें परम्परागत लोक नृत्य और लोक-गीत को आशीर्वादित करने हेतु आमंत्रित किया। अगले दिन, एक बच्चे को चमत्कारपूर्ण जीवन-दान दिया, जो अट्ठारह फ़ीट की ऊँचाई से पक्की-फर्श (कॉन्क्रीट-फ्लोर) पर गिर गया था। 

पूजा की शुरुआत कृष्ण-पक्ष की समाप्ति के ठीक बाद हुई। अनायास श्री माताजी ने भजन रुकवा दिए और योगियों को एक हाथ ह्रदय पर रखने को कहा और आदर-युक्त भय के अनुभव के साथ प्रार्थना करने को कहा, “यह कितना बड़ा अधिकार (सम्मान) है कि हम श्री आदिशक्ति के साक्षात् सानिध्य (उपस्थिति) में गा रहे हैं।”

जैसा कि चमत्कार पूर्ण फोटोग्राफ में देखते हैं कि चैतन्य-लहरियाँ हृदयों से सहस्रार की ओर तेज धारा के रूप में प्रवाहित हो रहीं थीं। सामूहिकता ने उन्हें धन्यवाद दिया- इस धरती पर अवतरित होने के लिए और प्रार्थना की कि वे उनके ह्रदय-मंदिरों में सदा निवास करें। श्री माताजी ने उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर दिया और उनका प्रेम प्रवाह इतना ह्रदय-स्पर्शी था कि कार्यक्रम के दौरान पधारे साधकों के हाथों में गुनगुनाने लगा (यानि साधकों को चैतन्य-लहरियों ने सराबोर कर दिया था)।

नेपल्स जाने के रास्ते श्री माताजी को पोम्पेई में माउन्ट विसुवियस के ज्वालामुखी फूटने से हुए नुकसान (विध्वंस) के बारे में जानकर दुःख (उदासी) हुआ। उन्होंने महसूस किया कि स्थानीय लोगों के असामान्य अहंकार को रोकने हेतु यह एकादश-रूद्र का संकेत-मात्र था।

श्री माताजी के नेपल्स आने पर टेलीविजन स्टाफ ने उनका साक्षात्कार लिया। उन्होंने नेपल्स-वासियों के निर्मल-ह्रदय की बहुत तारीफ की, जिन्हें- उनके प्रति इतना प्यार व आदर था। एक संभ्रांत महिला जो चक्कर आने की बीमारी से ग्रसित थी, उन्होंने श्री माताजी से कार्यक्रम में सम्पर्क किया। जैसे ही श्री माताजी ने उसे स्वस्थ किया, हरेक योगी की कुण्डलिनी सहस्रार के पार हो उठी। 

श्री माताजी रोम पधारीं, (सुबह-सुबह) अरुणोदय के समय। इतने दिनों की नींद की थकावट के बावजूद उनका मुख-मंडल हजारों सूर्य की तरह दमक रहा था और उन्होंने लीवर-कैंसर (जिगर के कर्क रोग) से ग्रसित एक महिला को कार्यक्रम में निरोग कर दिया।

1989

अध्याय-31

(मदर्स-डे) मातृ-दिवस पर श्री माताजी के बच्चों ने दुनिया-भर से उन पर पुष्पार्पण की बारिश कर दी। जैसे ही उन्होंने बच्चों द्वारा प्रेषित बधाई-पत्र(ग्रीटिंग्स) पढ़े, उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा उमड़ पड़ी, “यह एक बड़ा आशीर्वाद है, कि इस पाश्चात्य दुनिया (आधुनिक दुनिया) के लोग अब भी माँ को याद करते हैं और धन्यवाद देते हैं।”

वे हरेक योगी को व्यक्तिगत-रूप से धन्यवाद देना चाहतीं थीं, किन्तु ऐसे व्यस्त कार्यक्रम की वजह से वे हरेक को जबाब नहीं दे पायीं। यद्यपि, उन्होंने अपना ह्रदय-स्पर्शी धन्यवाद और आशीर्वाद लंदन से एक यादगार-लेख (नोट) जारी कर प्रेषित किया। उन्होंने सभी ग्रीटिंग-कार्ड्स, पत्र, गिफ्ट्स और फोटोग्राफ्स अपने निजी-रिकार्ड्स में सुरक्षित सहेज कर रखे।

उनका ध्यान बच्चों की अबोधिता को आधुनिक-समाज के अनुशंसित आक्रमण से कैसे बचाना, उसी पर स्थित था। इस हेतु कुछ भी किया जाना था। उन्होंने तलनू की अद्भुत यात्रा का स्मरण किया और चैतन्य-फूट पड़ा, “हाँ, बच्चों को धर्मशाला, तलनू क्यों नहीं भेजा जाय।” उन्होंने योगी महाजन को धर्मशाला फोन किया और उन्होंने अपनी जमीन सहज योग स्कूल के लिए दान करने में स्वयं को खुशनसीब समझ, सम्मानित महसूस किया। इक्कीस (21) मई उनके मकान पर सात-बच्चों के साथ सहज-स्कूल प्रारम्भ हुआ।

अट्ठारह (18) मई मेड्रिड शहर में श्री माताजी को सम्मानित करने हेतु आकाश में दो इंद्रधनुष प्रकट हुए। ये इंद्रधनुष कार्यक्रम स्थल से होकर श्री माताजी के निवास-स्थान तक धनुषाकार विस्तारित थे। सहज-कार्यक्रम की गलियों में लगाए गए पोस्टर्स को देखते हुए उन्हें सुझाया, यह लिखने के लिए, “यदि आप अपने हाथ फोटोग्राफ्स की ओर फैलाते हो, आपको शीतल-चैतन्य-लहरियाँ (cool breeze) महसूस होंगी।” इस प्रकार, महीनों बाद तक, श्री माताजी के चले जाने के बाद भी साधक-गण अपना आत्म-साक्षात्कार पोस्टर्स से प्राप्त करते रहे।

एक कैंसर पीड़ित मरीज बार्सेलोना कार्यक्रम में निरोग हो गया। 20 मई को श्री बुद्ध पूजा बार्सेलोना के समीप होटल-एल-फ़ारेल के बाजू में बुद्ध-मय वातावरण में सम्पन्न हुई। श्री माँ के चैतन्य में जैसे प्रकृति नहा ली हो, इससे उन्हें सप्तश्रृंगी-मंदिर वणी (महाराष्ट्र) की स्मृति हो आई। श्री माताजी ने स्वयं को लॉफिंग-बुद्धा कहते हुए विनोदपूर्ण इशारा किया “अब, जब कि मैंने तुम्हें आत्म-साक्षात्कार दिया है, यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है- इसे बनाए रखना। तुम्हें अहंकार में नहीं फँसना है और सबसे ऊपर हमें स्वयं को सच्चा (विश्वस्त) होना है।”

स्पेन की सामूहिकता ने श्री माताजी को एल-ग्रेको की कृति ‘एल-पेंटेकोस्टेस’ की एक प्रति भेंट की। उसमें संतों के सिरों के ऊपर से निकलती हुई नन्ही-ज्वालाओं की ओर इशारा किया, श्री माताजी ने साश्चर्य कहा, “उनकी कुंडलिनियों को देखो।”

चौबीस (24) मई को एथेंस में श्री एथेना देवी की पूजा का आयोजन हुआ। श्री माताजी ने अपने पति के साथ पूर्व में की गई यात्रा का स्मरण करते हुए कहा, “वहाँ के प्रधानमंत्री की पत्नी मुझे लिवाने हेतु (स्वागत हेतु) पधारीं थीं, क्योंकि उन्होंने उनके पति से सुन रखा था कि श्रीमती श्रीवास्तव एक निर्मल और शांत महिला हैं।”

श्री माताजी ने यह रहस्य उजागर किया कि श्री एथेना श्री आदिशक्ति की अवतरण थीं। ग्रीस देव-लोक था, परन्तु ग्रीस वासियों की एक दुखांत बात है कि उन्होंने अपने देवी-देवताओं को मानव-सदृश स्वीकार कर लिया था और इस तरह वे भटक गए थे। ग्रीस नाभि-चक्र का मध्य (centre) था और श्री एथेना, कुंडलिनी (होली-घोस्ट) को यूरोपीय देशों को संतुलित करने के लिए जाग्रत करना जरुरी हो गया था, ताकि यह देश यूरोपीय देशों की समग्रता शक्ति बनें।

होटल ग्रांडे-ब्रिटेगने (Grande Bretagne) में आयोजित कार्यक्रम में श्री माताजी ने ग्रीक-विरासत की उदारता से प्रशंसा की, “उन्हें पवित्र-अस्थि(sacrum bone) का ज्ञान था। यद्यपि उन्हें समृद्धि का वरदान मिला हुआ था, उन्होंने उसे खो दिया, क्योंकि वे आध्यात्मिकता पर कायम नहीं रह सके।”

बाद में, शाम को बातचीत का विषय साधकों की विशेषता पर गया। श्री माताजी ने बताया कि साधक परिवार, धन या शक्ति (power) के पृष्ठ-भूमि वाला हो सकता है, किन्तु ये सब उपाधियाँ आनंद नहीं दे सकतीं, केवल कंजूसी दे सकती हैं। “परमात्मा को कोई बुद्धि-बल पर नहीं जान सकता, केवल भक्ति (अनन्यता) ही रास्ता है” कबीर के भजनों के बाद रात्रि-भोज (Dinner) हुआ। श्री माताजी रात्रि तीन बजे तक बैठी कबीरदास जी की भक्ति की गहराई का रहस्य उजागर करती रहीं।

श्री माताजी ने चलने की तैयारी की, ग्रीक-वासियों की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें इस्तांबुल तक छोड़ने चलें, किन्तु हवाई जहाज में सीटें फुल थीं। श्री माताजी ने एक बंधन दिया, सात सीटें खाली हो चुकीं थीं। श्री माताजी ने एक और बंधन दिया, बारह सींटें और खाली हो चुकीं थीं (बारह सीटों का रद्दीकरण हो चुका था), इस तरह माँ के सभी बच्चों ने श्री माताजी के वात्सल्य के पंखों की शरण में आशीर्वाद-पूर्ण उड़ान का मजा उठाया!

एक इटालियन योगिनी कार्ला मोट्टिना जो इस्तांबुल में नियुक्त थी, उन्होंने एक सहज-कार्यक्रम हिल्टन-कन्वेंशन-सेंटर पर आयोजित किया। वे थोड़ी-सी इस्लामिक-कट्टरवादियों को लेकर आशंकित थी, किन्तु जैसे ही सुराह (surah verse) के पद्य कुरान-शरीफ से पढ़े गये, जिन्होनें श्री माताजी का कीर्ति-गान किया, चैतन्य-लहरियाँ हॉल में फूट पड़ीं। श्री माताजी साधकों की संवेदनशीलता पर आश्चर्य-चकित थीं। उन्होंने इसकी वजह (विशेषता) अतातुर्क केमाल पाशा, जो एक आत्म-साक्षात्कारी थे, उन्हें बताया, जो धर्म को राजनीति से अलग करने में सफल रहे थे। इस तरह उन्होंने तुर्की को मध्य-कालीन बंधनों से मुक्त कर आधुनिक-देश होने का मार्ग-दर्शन प्रदान किया। 

एक छोटी पूजा कार्लास-फैट पर आयोजित हुई, जहाँ से बोस्पोरस का दृश्य दिखाई देता था। बोस्पोरस को धूप में चमकते हुए देखकर श्री माताजी ने सुकून से कहा, “मेरा प्यार सूर्य की तरह है ,जो हरेक के लिए चमकता है। मेरा नाता किसी व्यक्ति-विशेष से नहीं है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप स्वयं सूर्य की ओर मुखातिब हों और मुझे प्राप्त कर सकें और मेरे समीप आएं।”

1989

अध्याय-32

ग्यारह (11) जून को श्री माताजी ने बैंटम, कनेक्टीकट में विराट-पूजा से अपनी अमेरिकन यात्रा आरम्भ की। उन्होंने अमेरिकन योगियों से सहज-योग के लिए कड़ी मेहनत करने को कहा, “आप राइट-साइड (रजोगुणी) हो जायेंगे, इस भय (आशंका) से आप मुक्त हो जाइये, अनुशासित होइये। सुबह जल्दी उठें, स्नान करें, पूजा करें, अपनी जीवन-चर्या बदलें और सादे प्रगतिशील जीवन का आदर्श प्रस्तुत करें।” 

अगले दिन, उन्होंने न्यूयार्क शहर में एक जन-सभा को आशीर्वादित किया। उसके बाद उन्होंने कनाडा-वासियों की राइट-साइड को टोरंटो-कार्यक्रम में पहले उनके बौद्धिक-प्रश्नों की पिपासा (प्यास) को शांत करते हुए ठंडा किया। एक साधक जानना चाहता था कि उनकी हवाई-यात्रा का खर्च किसने वहन किया।

श्री माताजी मुस्कराईं, “मुझे तुम्हारे मोक्ष के लिए खर्च नहीं उठाना चाहिए, क्या खर्च उठाना चाहिए? यह आपको आत्म-सम्मान नहीं देता है, किन्तु आरम्भ में मुझे यह करना पड़ता है, मैं जानती हूँ। यह उचित नहीं है। मेरी हवाई-यात्रा के खर्च के भुगतान करने में कोई नुकसान (हर्ज) नहीं है। ईश्वर की मेहरबानी से मेरे पतिदेव धनाढ्य हैं, कहना चाहिए कि एक सम्पन्न परिवार से हैं, वे इस खर्च के लिए ध्यान नहीं देते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह खर्च मानवता के उत्थान के लिए है।”

श्री माताजी का हृदय टोरंटो की राइट-साइड (पिंगला हेतु) के लिए द्रवित हो उठा, जैसे कि उन्होंने मधुर वाणी में कहा, “यह बौद्धिक-ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान परमात्मा का प्रेम है। मैं तुम्हे यहाँ इसी ईश्वरीय प्रेम से परिचित कराने आयी हूँ।” 

उसके बाद, श्री माताजी का चित्त अमेरिका की बायीं नाड़ी (इड़ा नाड़ी) की ओर गया। अमेरिका की बायीं नाड़ी को साफ़ करने के लिए श्री महाकाली-मार्ग को श्री आदिशक्ति के साथ गठ-बंधन कराना जरुरी था। यह कार्य उन्होंने श्री महाकाली पूजा, वैन्कोवर में 17 जून और 19 जून को सैन-डिएगो में किया। श्री महाकाली शक्ति को सज्जित करने के लिए मूलाधार को सशक्त बनाना आवश्यक था, किन्तु अमेरिका का मूलाधार सब प्रकार की अनैतिकता की बाधाओं से प्रभावित होने वाला था। 

आने वाले सप्ताहों में, जन-कार्यक्रम लॉस-ऐंजलेस, मियामी, बोगोटा, साल्वाडोर और रियो-डे-जेनेरियो में आयोजित हुए। श्री माताजी तीन (3) जुलाई को न्यूयार्क वापस आ गयीं। श्री माताजी के विश्व-शांति के लिए प्रयास को मान्यता (अभिज्ञान) स्वरुप यूनाइटेड-नेशस (UNO) ने उन्हें शांति-पदक प्रदान किया। दूसरे दिन, वे लंदन के लिए रवाना हो गईं।

नौ (9) जुलाई को श्री माताजी ने फ़्रांस को देवी-पूजा से आशीर्वादित किया। फ्रांसीसी सामूहिकता शायद चिंतित थी, क्योंकि मेलुन में पूजा आयोजन के लिए समय कम बचा था। श्री माताजी ने तुरंत उनकी परेशानी भाँप ली और उन्हें सहज विश्राम देने की कोशिश की, अन्यथा वे पूजा की चैतन्य-लहरियों को आत्म-सात नहीं कर पाते। उन्होंने कहा, “मैं अचानक आ गयी हूँ। सम्भवतया, तुम लोग औपचारिकता के साथ तैयार नहीं थे- जैसे फ़ौज में सभी क्रम-बद्ध खड़े रहते हैं। इससे मुझे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। मैं तुम सब को एकसाथ देख कर इतनी खुश हूँ, क्योंकि मैं तुम सबको चाहती हूँ और आप भी मुझे प्यार करते हैं। सहज-योग एक परिवार है और परिवार में कोई औपचारिकताएँ नहीं होती हैं।”

श्री माताजी रात्रि दो बजे तक कार्यक्रम में रुकीं, उनके चक्रों को साफ़ करती रहीं। अगले दिन, वे बेल्जियम और हॉलैंड कार्यक्रमों के लिए रवाना हो गयीं। 

उन्नीस (19) जुलाई को परम्-चैतन्य पूजा का आयोजन म्यूनिख (जर्मनी) में हुआ। बच्चों ने उत्साह-पूर्वक प्रार्थना की, “हमें ज्यादा से ज्यादा इस बात की समझ-बूझ होनी चाहिए कि हम परम्-चैतन्य के अंग-प्रत्यंग हैं, इसे अनुभव कर सकते हैं, इसका उपयोग कर सकते है और इसे कार्यान्वित कर सकते हैं।” इस प्रार्थना पर परम्- चैतन्य प्रसन्न हुए और उन्हें चैतन्य-लहरियों से नहला दिया।

बाइस (22) जुलाई को, एक हजार योगी लागो-डे-ब्रेइस में अपने गुरु की पूजा के लिए एकत्रित हुए। शाही ग्लेशियर ‘अल्पाइन’ ने आदि-गुरु का स्वागत वर्षा की बूंदों (पंखुड़ियों-सम) से पुष्पार्पण जैसा किया। कार्यक्रम का आरम्भ श्री माताजी की विनम्र-स्तुति से हुआ, पश्चात् पारम्परिक ऑस्ट्रियन लोक-नृत्य की प्रस्तुति हुई। ऑस्ट्रियन गीत-संगीत और नृत्य ने आत्मीय उत्थान प्रदान किया। श्री माताजी ने ब्ल्यू-डेनुबी (Blue Denube) की दुबारा प्रस्तुति हेतु प्रार्थना की, उन्होंने महान आनंद को सामूहिक हृदय में अनुभव किया, उस आनंद का अनुभव उनके हृदय में प्रतिबिम्बित हुआ, “यह एक दुर्लभ-क्षण था- एक नए विश्व का आरम्भ और स्वप्न, जिसे मैंने बहुत पहले देखा था।”

पूजा प्रवचन में उन्होंने बताया कि कैसे गुरु-तत्व की सम्पूर्ण गतिविधि नाभि-चक्र में स्थापित हुई। “जब हम हमारी माँ के गर्भ में होते हैं,तो हमारा पोषण हमारी माँ से आता है,अतः एक गुरु में माँ की विशेषताएँ होनी चाहिए। पोषण अंदर बनाए रखना चाहिए।”

श्री माताजी के वात्सल्य के प्रतिबिम्ब के दर्शन का आनंद बच्चों की नस-नस और हरेक तंतु (कतरे) में बूँद-बूँद करके टपकता रहा। 

1989

अध्याय-33

यूरोप में सहज-योग स्थापित करने के बाद श्री माताजी का ध्यान पूर्वी-खंड (ईस्टर्न-ब्लॉक) की ओर गया। यह हिस्सा लौह-कवच से आवरित था और इसे भेदना आसान नहीं था, किन्तु परम्-चैतन्य ने मानव-निर्मित सभी रुकावटों को पार किया और एक घटनाक्रम को प्रबंधित किया। यह पता चला था कि एक सहज-योगी ने एक सोवियत राजनयिक जो दिल्ली में नियुक्त था, उसे आत्म-साक्षात्कार दिया था। कुछ समय पूर्व, उसके घुटने का पुराना मर्ज ठीक हो गया था। इस राजनयिक ने क्रेमलिन में अपने मित्र को इस चमत्कारिक इलाज के बारे में सूचित किया। उसके मित्र मिस्टर खोत्सीआलोव ने रूस के स्वास्थ्य विभाग को इस चमत्कार-पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ के बारे में सूचित किया। सोवियत-स्वास्थ्य-मंत्रालय, सहज-योग द्वारा स्वास्थ्य-लाभ के विज्ञान के बारे में जानने को उत्सुक हुआ और उसने श्री माताजी को राजकीय-अतिथि के रूप में आधिकारिक आमंत्रण भेजा। 

एक शताब्दी की बेफिक्र नींद से रुसी-लोग श्री माताजी के आह्वान पर जाग उठे। चार (4) अगस्त 1989 को श्री माताजी ने सोवियत नौकरशाह(दफ्तरशाह), राजनेताओं, विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स के ऊपर स्वास्थ्य-मंत्रालय के सभागार में अपने वात्सल्य की वर्षा कर दी। उन्होंने बताया कि कुंडलिनी की शक्ति द्वारा मनो-दैहिक समस्याएँ कैसे दूर की जा सकती थीं। “यह आध्यात्मिक विज्ञान (मेटा मॉडर्न साइंस) है, आधुनिक विज्ञान से ऊपर।”

उन्होंने इतना सारा वात्सल्य (माँ का प्यार) पहले कभी महसूस नहीं किया था और उनकी आत्म-साक्षात्कार की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। श्री माताजी ने उनके हृदयों को खोल दिया और उन्हें सामूहिक-प्यार से आशीर्वादित कर दिया। 

सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय और लाइफ इटरनल ट्रस्ट LET ने ‘अनुसन्धान और सहज-योग की आरोग्य प्राप्ति में उपयोगिता’ पर आपसी-सहयोग के लिए नियमाचार (प्रोटोकॉल) पर हस्ताक्षर किये। एक भविष्य-वाणी सत्य सिद्ध हुई। (उन्तीस, 29, जून 1985, पेरिस में श्री गुरु-पूजा पर श्री माताजी ने कहा, “रुसी और चीनी दोनों ही शीघ्र सहज-योग अपनाएंगे।”)

“यह वास्तव में आश्चर्य-चकित करने वाला है कि एक देश जिसने ईश्वर नाम भी नहीं जाना ,वह सहज-योग को आधिकारिक तौर पर मान्यता प्रदान करेगा!वे लोग खुले दिमाग वाले वैज्ञानिक लोग हैं और सत्य को पाने की तीव्र पिपासा कि उन्हें उनका आत्म-साक्षात्कार मिल गया। क्योंकि उनकी शुद्ध-बुद्धिमत्ता के गुण के कारण उनमें परम्-सत्य को मान्यता देने की क्षमता थी।”

1989

अध्याय-34

छह (6) अगस्त को श्री भैरवनाथ पूजा गारलेट, किंडरगार्टन इटली में आयोजित हुई। इसके बाद एक सहज-कार्यक्रम मिलान में आयोजित हुआ। मिलान-वासियों ने श्रीमाताजी की ग्रांदे-माद्रे (grande madre) ‘महामाता’ के रूप में पूजा की और जब तक कि उन्होंने इटली वापस आने का वादा किया, तब ही उन्हें छोड़ा। 

सोमवार शाम वे स्विट्ज़रलैंड के लेस-डाय-ब्लेरेट्स के विलक्षण गांव में पधारीं। श्री गणेश पूजा का आयोजन दस (10) अगस्त को साल्ले ओलेस कांग्रस ‘Salle Oles Congres’ में हुआ। श्री माताजी ने जननी की मातृत्व-शक्ति से संबंधित गुण ‘वात्सल्य’ का बखान किया, जिसे सभी योगियों को ग्रहण करना चाहिये। 

दो पूजाओं के बाद, श्री माताजी इंग्लैंड में चौदह (14) अगस्त को पूर्वानुसूचित श्री कृष्ण पूजा हेतु रवाना हुईं।

सत्रह (17) अगस्त को फ़िनलैंड में श्री देवी पूजा आयोजित हुई। श्री माताजी ने टिप्पणी की कि फ़िनलैंड जमीन (धरती) का अंतिम सिरा था, जहाँ सभी समस्याएँ आयीं और अंत में हल हुईं, क्योंकि वहां पर बहुत से साधक थे, उन पर नकारात्मक-शक्तियों के आने और आक्रमण करने के लिए ज्यादा आकर्षण था। झूठे गुरुओं की पकड़ के बावजूद, उन्हें शीतल-लहरियाँ महसूस हुईं। 

इसी बीच श्री माताजी के बच्चे सेंट-पीटर्सबर्ग में सर्द-आँखों से लम्बे समय से अपनी माँ के लिए प्रतीक्षारत थे। उनके ऑंसुओं को पोंछने (सांत्वना देने)हेतु वे सेंट-पीटर्सबर्ग पधारीं। 

कार्यक्रम में हजारों साधक आए, उन्होंने श्री माताजी की साड़ी की किनारी (sari’s Border) को प्यार से चूमा, जिस रास्ते से वो आयीं, उस भूमि की पूजा की और सिसकियाँ भरते हुए बोले, “माँ हमने इतनी लम्बी प्रतीक्षा की।”

श्री माताजी स्वयं आश्चर्य में थीं कि इस देश में जहाँ किसी ने भी उनका नाम सुना भी न था और न ही सहज-योग की कोई पुस्तकें वहां थीं, उन्हें वहाँ लानेवाला कौन था? श्री माताजी ने उन्हें नहीं बताया कि वे आदिशक्ति थीं। उन्हें कैसे पता चला? श्री माताजी ने पूछा, “क्या वजह थी कि तुम मेरे कार्यक्रम में आए?”

उन्होंने उत्तर दिया, “श्री माताजी, यह इतना स्पष्ट था- आपका चित्र!”

आध्यात्मिकता के प्रति उनकी संवेदनशीलता पर श्री माताजी भाव-विह्वल हो उठीं, “वे मेरे चित्र से आध्यात्मिकता का अनुभव कर सके थे! सामूहिक अचेतन ने इसे कार्यान्वित किया।”

यद्यपि सेंट-पीटर्सबर्ग में कोई विज्ञापन-पोस्टर्स नहीं लगाए गए थे। एक बार फिर, परम् चैतन्य ने सब कार्यान्वित किया- स्थानीय टेलीविजन चैनल ने श्री माताजी के हवाई अड्डे पर उनके आगमन की तस्वीर को प्रकाशित किया। कार्यक्रम-स्थल पर दस हजार साधक पहुँचे। “पैलेस-ऑफ़-यूथ” (कार्यक्रम-स्थल) की क्षमता मात्र 1400 सीटों की थी। हजारों साधकों ने बाहर इंतजार करते हुए पूछा, “हमारा क्या होगा?”

श्री माताजी ने उन्हें यकीन दिलाया, “कृपया इंतजार करें, तब तक मैं हॉल में बैठे हुए साधकों को आत्म-साक्षात्कार देती हूँ, मैं आपको भी आत्म-साक्षात्कार दूंगी।”

इस दिन के लिए साधकों ने सैकड़ों वर्षों का इंतजार किया था। श्री माताजी उनकी आत्माओं के सैकड़ों वर्षों के निरंतर धैर्य से अभिभूत हो उठीं और उन्हें अपने हृदय से आशीर्वाद प्रदान किया। वे बाहर इंतजार कर रहे हजारों साधकों के उत्साह से भाव-विह्वल हो गईं और सीढ़ियों पर खड़े हुए ही, उन्हें एक प्रश्न पूछने को कहा, “क्या रूस संसार को आध्यात्मिकता का मार्ग-दर्शन देने वाला है?”

शीतल-लहरियों ने साधकों को आशीर्वादित किया।

रूस की आत्मा की प्रसव वेदना में पाँच हजार सहज-योगियों का जन्म हुआ था!

उन्हें आत्म-साक्षात्कार देने के आनंद में श्री माताजी की थकान गायब हो गयी थी, “मैंने कभी कल्पना नहीं की थी, इतने सारे रुसी लोग मेरे जीवन-काल में सहज-योग अपनाएंगे।”

अपने बच्चों के प्यार में वे अपनी शारीरिक सुख-सुविधाओं (आराम) को भूल गईं। मॉस्को शहर में होटल-आवास मिलना मुश्किल था, किन्तु वे एक शयन-कक्ष वाले आवास में (one bedroom apartment) तथा सामान्य बाथ-रूम (शौचालय) के उपयोग की सहभागिता (sharing) पाकर बहुत खुश थीं। वे कहाँ रुकीं थीं, या कैसे यात्रा की- यह सब उनके चिंतन की विषय-वस्तु नहीं थी। जब उन्हें पता लगा कि उनके मेजबान के पास भोजन की कमी हो गयी, तो उन्होंने कुछ ब्रितानी योगियों को भोजन लाने के लिए फ़ोन लगाये। उन्होंने टैक्सी में यात्राएं कीं और सहज-योगियों के लिए सभी खर्चे उठाए,क्योंकि उनके पास गुजारा करने को बमुश्किल ही कुछ था। 

कम्युनिस्ट (साम्यवादी) मॉस्को में सांस्कृतिक कार्य-क्रम का प्रवेश सशुल्क (टिकिट-प्रथा द्वारा) था। आध्यात्मिकता के लिए अलग से कोई श्रेणी नहीं थी और इसी कारण से जनता को सहज-कार्यक्रम के लिए टिकिट खरीदना पड़ता था। सहज-कार्यक्रम के कई दिनों पूर्व ही मॉस्को जन-कार्यक्रम के लिए सभी टिकिट बिक गए थे और टिकिट सामान्य से ज्यादा अधि-शुल्क पर बेचे जा रहे थे। श्री माताजी ने इनकी शुद्ध-इच्छा को आशीर्वाद देने हेतु कृपा करके दूसरे कार्यक्रम की अनुमति प्रदान कर दी। जैसे ही यह उद्घोषणा हुई, सभी टिकिट्स बिक गए। श्री माताजी ने सलाह दी कि अगली बार कार्यक्रम का आयोजन ओलम्पिक-स्टेडियम में रखा जाना चाहिये। जहाँ की बैठक-क्षमता दस हजार होती है। 

श्री आदिशक्ति के साथ एकाकारिता पाकर साधकों की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गए और वे परम्-आनंद में नाचने लगे। श्री आदिशक्ति ने उन्हें बहार के समय (Blossom-time) का यकीन दिलाया था, वह आ गया और उनकी चिंताएं समाप्त हो गयीं थीं, उन्होंने श्री माताजी की साड़ी की बॉर्डर(किनारी) को कृतज्ञतापूर्वक चूमा। इतने सारे साधक, सभी प्रकार की मानसिक और शारीरिक बीमारियों से राहत पा चुके थे, किन्तु सामूहिकता का हृदय-चक्र (Central heart) अभी भी डर से मुक्त नहीं था, “स्टालिन का क्या होगा?”

श्री माताजी ने सांत्वना देते हुए कहा, “भूतकाल को भूल जाओ।”

अगली सुबह परम् चैतन्य ने श्री माताजी के दैवत्व को प्रकट किया। सबसे बड़े दैनिक अख़बार ‘ट्रूड’ में श्री माताजी के कार्यक्रम पर चमत्कार-पूर्ण-चिकित्सा पर रिपोर्ट आयी। जहाँ भी वे गईं, साधकों ने उनका अनुसरण किया। सुपर मार्केट, सहकारी-बाजार में, हर जगह सेल्स-गर्ल्स ने उन्हें पहचान लिया और कुछ ही मिनटों में, सहकारी-बाजार आत्म-साक्षात्कार के सत्रों में परिवर्तित हो गए। 

हजारों साधकों का यूक्रेन से आगमन हुआ और श्री माताजी को कीव आने का आमंत्रण दिया। उन्होंने श्री माताजी का परम्परागत वेश-भूषा में स्वागत किया- ब्रेड और नमक के साथ। उनका हृदय उनके मुस्कान में प्रकटित हो उठा और श्री माताजी को उन्होंने बेशकीमती संकलन फल, फूल, मेवे,कसीदाकारी किए हुए रुमाल, चॉकलेट्स, घर में बनी कुकीज, लकड़ी पर की गई छोटी-छोटी नक्काशी तथा पारिवारिक-चित्र (फोटोग्राफ्स) भेंट किये। श्री माताजी का हृदय कारुण्य से भर आया, उन्हें भेंट देने हेतु उनके पास उस समय कुछ नहीं था और इसलिए उन्होने उन्हें अपनी साड़ियाँ व आभूषण दे दिए। 

उन्होंने श्री माताजी को स्मृति-चिन्ह, जिनमें देवी माँ की छवि और कुंडलिनी का प्रतीक चिन्ह (Symbol) भी दिखाया। श्री माताजी ने टिप्पणी करते हुए बताया, “यूक्रेनवासी लव (श्री राम और सीताजी के छोटे पुत्र) के वंशज थे और इसीलिए उनके मन में मेरे प्रति इतनी गहन-संवेदनाएँ हैं।”

शीत ऋतु की प्रचंड उत्पीड़न में उनकी आत्माएँ श्री माताजी की करुणा के लिए पुकार कर रही थीं और वे आ चुकीं थीं, अब वे एक पल भी उनके प्यार का खोना नहीं चाहते थे। पूरी-रात भर वे श्री माताजी के होटल-आवास की खिड़की पर नजर रखे हुए थे और अपने हृदयों को उनके चरण-कमलों पर उड़ेल दिया। उनके द्वारा गाए हुए गीत श्री माताजी के थके हुए शरीर में मरहम (बाम) का काम कर रहे थे और वे आराम-दायिनी मीठी नींद में खो गईं। 

नव-रात्रि पूजा मार्गेट में अट्ठारह (18) अक्टूबर को आयोजित हुई। श्री माताजी ने बताया, “यह आवश्यक नहीं कि तुम कितनी प्रार्थना करते हो या कितने शब्दों का उपयोग करते हो, किन्तु यह आवश्यक है कि तुम कितनी गहनता से मेरे चरणों को पकड़े हो।”

यहाँ तक कि, श्री देवी माँ की स्तुति अपूर्ण हुई, यदि वह स्तुति ह्रदय से नहीं होती।

1989

अध्याय-35

श्री माताजी के द्वारा आरोग्यता प्रदान करने के चमत्कार सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाचेव के कानों तक पहुंचे और सोवियत स्वास्थ्य मंत्रलय ने उन्हें उन्नीस (19) अक्टूबर को प्रथम विश्व-योग सम्मेलन के आयोजन में महत्वपूर्ण-वक्ता के रूप में पधारने का आमंत्रण दिया, किन्तु श्री माताजी के परिवार-जनों ने पूछा, “आप वहां मात्र दो दिनों के लिए क्यों जाना चाहती हैं?

श्री माताजी ने स्पष्ट किया, “मुझे वहां जाना है, क्योंकि मुझे ईस्टर्न-ब्लॉक (पूर्वी यूरोपीय संघ) को तोड़ना है। इस संघ के लोग वहाँ आने वाले हैं और जब उन्हें आत्म-साक्षात्कार मिलेगा और अपने-अपने देशों में वापस जायेंगे, तब परम्-चैतन्य अपना कार्य वहाँ शुरू कर देंगे।”

श्री माताजी ने उस योग सम्मेलन को करीब चालीस मिनट तक सम्बोधित किया। श्रोतागणों (साधकों) ने कुंडलिनी-जागरण का साक्षात् अनुभव कराने के लिए प्रार्थना की, उन्होंने दृढ़तापूर्वक (स्वीकारात्मक) उत्तर दिया, “हाँ, हम अपने सिर के ऊपर (तालू पर) शीतल लहरियाँ महसूस कर सकते है।”

इस बारे में कोई संदेह नहीं था कि वे ही इन शीतल-लहरियों की स्रोत थीं और उन्होंने श्री माताजी की कार तक अपनी पिपासा को शांत करने हेतु अनुसरण किया। उनकी पिपासा (प्यास) को बुझाने के लिए श्री माताजी ने अपनी वहाँ ठहरने की अवधि बढ़ा दी। राष्ट्रपति गोर्बाचेव उनसे मिलना चाहते थे, किन्तु इटली में 29 अक्टूबर को (होने वाली) दिवाली-पूजा अनुसूचित थी, वे और ज्यादा अपने प्रवास को (रूस में) नहीं बढ़ा सकती थीं, तो भी उन्होंने अपना आशीर्वाद कुछ मातृ-वत परामर्श के साथ प्रेसिडेंट गोर्बाचेव को प्रेषित किया।

दिवाली पूजा के सांस्कृतिक-कार्यक्रम (concert) के अवसर पर मोंटे कैटेनी में एक नन्हीं बालिका ने श्रीमाताजी की अगवानी की, जिसमें हृदय के आकार के विशाल गुब्बारे पर ‘I love you’, मैं ‘आपको प्यार करती हूँ’ अंकित था। श्री माताजी ने गर्म-जोशी से बच्ची को बाहों में लेकर आलिंगन किया और गुब्बारे को अपने साथ ले गईं। उन्होंने टुस्कैनी (Tuscany) की चैतन्य की तारीफ की और स्थानीय वनस्पति और प्राणी उनकी प्रशंसा में शर्म से लाल हो उठे।

श्री माताजी पीसा (इटली) में दिवाली के लिए सौगात (उपहार) खरीदने के लिए रुकीं। ‘आर्ट ऑफ़ फ्लोरेंस’ की प्रशंसा करते हुए उन्होंने प्रोफेसर देबू चौधरी को सांता-मारिया के सेंट्रल-प्लाजा में चित्रकारी करते देखा। देबू चौधरी ने श्री माताजी के रेखाचित्र (sketch) को खींचने (drawing) के लिए आज्ञा माँगी। जब उन्होंने उस रेखाचित्र को समाप्त किया, श्री माताजी ने स्वयं उस रेखाकृति को अंतिम-स्पर्श देकर (finishing touch) पूर्ण किया। 

जलती हुई मशालों के साथ योगियों ने श्री माताजी को पूजा-स्थल तक एस्कार्ट (सुरक्षापूर्वक) किया। सौगातों से पूरा भरा ट्रक अचानक आया- उसमें कमीजें, कुर्ते, हार, हेयरपिन, आभूषण, वर्दियाँ, चूड़ियाँ, पेन और कुछ विशेष उपहार स्वरुप सौगातें थीं, उन सबके लिए, जिन्होंने रूस में कार्यक्रम में मदद की थी। रुसी-योगी हालाँकि पूजा के उपहारों को स्वीकार करते हुए शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे। श्री माताजी ने कहा, “ओह, यह कुछ नहीं है, यह तुम्हारे लक्ष्मी-तत्व को आशीर्वादित करने के लिए छोटी-सी भेंट है।”

श्री माताजी ने स्पष्ट किया कि श्री महालक्ष्मी अपना वजन (रौब) किसी पर नहीं डालती। इससे सामूहिकता का चित्त उनकी पिंगला नाड़ी (दाएं पक्ष) से हट गया, जो उनकी कुण्डलिनी पर दबाव (बोझ) बनाये हुए था, उन्होंने श्री माताजी से उनकी राइट-साइड को क्षमा करने की प्रार्थना की। जैसे ही वे विनीत (नम्र) हुए, उनकी पिंगला नाड़ी से दबाव हट गया और उनकी आत्मायों को स्वतंत्र कर गया। योगियों ने अपने पंख फैलाये और उड़ चले!

दो (2) नवंबर को एक कार्यक्रम इस्तांबुल (टर्की) में रखा गया। 

कुरान शरीफ के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए श्री माताजी ने कहा कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने सहज-योग का मार्ग प्रशस्त किया, इससे टर्की का हृदय खुल गया। 

एक तुर्की-योगिनी ने बताया कि ईसा-मसीह के क्रूसारोपण के बाद उनकी माता मैरी ने पश्चिमी-तुर्की के इफेसस (Ephesus) में शरण ली थी। श्री माताजी की भुजा चैतन्य से फड़क उठी और उन्होंने मुस्कराते हुए इस जानकारी को स्वीकार किया, “देवी माँ, तुर्की की रक्षा करती हैं, इस बारे में चिंता करने की जरुरत नहीं है।”

दूसरे दिन, श्री माताजी शॉपिंग (खरीददारी) के लिए बाजार पधारीं। वहां के योगियों ने एक विशेष दुकान की ओर इशारा किया, किन्तु वे चैतन्य का अनुसरण करते हुए दूसरी दुकान की ओर गईं, परिणाम-स्वरूप, वही वस्तु उस दुकान पर आधी कीमत पर उपलब्ध थी। 

श्री माताजी ने चाँदी की बारीक़ नक्काशी की तारीफ की और रूस के नए आश्रमों के लिए टी-सेट्स ख़रीदे। हरेक दुकान में, उन्होंने एक-एक सहज-योगी के बारे सोचा, जिसे वह वस्तु-विशेष फायदेमंद होगी। एक वस्तु खरीदने के बाद, उनका ध्यान दूसरी वस्तुओं की ओर जाता, जैसे कि उनके दैवीय-कम्प्यूटर में एक सूची संग्रहित थी। चाँदी की बालें (ear rings) देखकर उन्हें कीव (Kiev) में पहले देखी प्रौढ़-परिचारिका का स्मरण हो आया। उन्होंने एक हट्टे-कट्टे से योगी से लेदर-बेल्ट्स (चमड़े की कमरपेटी) देखने को कहा कि क्या वे रुसी योगियों को फिट रहेगी। 

ऐसा कोई योगी नहीं था, जिसे श्री माताजी से कुछ न मिला हो। सहज-योगियों के भौतिक रूप से क्षेत्र-निर्धारण (इस धरती पर) उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। सहज-योगी जहाँ भी हैं, वे उनके विराट-शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। निस्संदेह यह कठिन है, एक विवेकशील मस्तिष्क के लिए उनके वैश्विक-स्वरूप की कल्पना करना, किन्तु उन्हें खरीदारी करते समय निरीक्षण करने से लगभग यह लगता है कि जैसे वे अपने हृदय से विश्व के प्रत्येक-सेल(कोशिका) से बातचीत कर रही थीं। हरेक सेल (Cell) उनके हृदय में स्थित थी, जहाँ वे अपने उस अंग-प्रत्यंग (कोशिका) की हरेक आवश्यकता को जान सकतीं थीं और वहां से उसे आशीर्वादित करतीं थीं। 

वास्तव में, उनका आशीर्वाद किसी व्यक्ति की इच्छा व्यक्त होने से पूर्व ही दिखाई देने लगता है। सीमित-मस्तिष्क के लिए विराट के मस्तिष्क को(बौद्धिक-स्तर पर) जानना सम्भव नहीं है, जो हरेक प्राणी की हर समय देखभाल करता है और उन्हें सही समय पर सही वस्तुएँ मुहैया कराता है। श्री माताजी ने इसे ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहा है। प्यार के प्रिज्म (समपार्श्व) से इसे अनुभव करना सम्भव है। 

तुर्की के योगियों को खरीददारी करते समय मालुम हुआ था कि श्री माताजी ने स्वयं को छोड़कर सभी के लिए उपहार ख़रीदे थे। बहुत समझाने-बुझाने के बाद, वे पासाबेन्स के बड़े-ग्लास (गिलास) स्वीकारने पर राजी हुईं। 

दिन-भर की अति-व्यस्त खरीददारी के बावजूद वे बिलकुल नहीं थकीं थीं। एक डाइट-कोक (Diet Coke) की चुस्की लेते हुए वे मुस्कराईं, “मैं पैसे खर्च करने का मजा केवल उसी वक्त उठाती हूँ, जब तुम सब के लिए अपने वात्सल्य को अभिव्यक्त करती हूँ।”

1989

अध्याय-36

तेरह (13) दिसंबर को श्री माताजी ने इंडियन नेशनल टेलीविजन के स्टूडियो से देश भर के लोगों के लिए आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया। जैसे ही दर्शकों ने अपने हाथ श्री माताजी के फोटो के सामने (टी. वी. स्क्रीन पर) किए, उन्हें अपने हाथों में शीतल चैतन्य-लहरियों का अनुभव हुआ। समुद्र के ज्वार की लहरों की तरह यह समाचार फैला! फोन की घंटियाँ बजतीं रहीं (यह पूछने के लिए), “हमारे हाथों में महसूस हो रही शीतल-लहरियाँ क्या हैं?” हजारों साधक सहज-केंद्रों पर इस अनुभव को प्राप्त करने के लिए एकत्रित हुए।

श्री माताजी बहुत प्रसन्न थीं, “मुख्य समस्या यह थी कि इतने सारे लोगों तक कैसे पहुंचा जाय। मेरे लिए यही बड़ी समस्या थी और यहाँ उत्तर है! अब आप देखते हो कि पूरा विज्ञानं सहज-योग का सहायक था! टेलीविजन प्रसारण के दौरान मैंने लोगों को टेलीविजन-पर्दे की ओर हाथ करने को कहा था और उन्हें चैतन्य-लहरियाँ मिलीं। मेरे फोटोग्राफ्स किसी भी स्टेच्यू या मूर्ति के बनिस्बत ज्यादा शक्तिशाली हैं। धरती माता के द्वारा सृजित स्वयंभू-कृतियों में चैतन्य है, किन्तु वे तुम्हारी कुण्डलिनी की जाग्रति नहीं करा सकती हैं, यह इसलिए है कि मेरे फोटो में मेरी शुद्ध-इच्छा है। अब तुम्हारे सभी संचार-माध्यमों का मेरे फोटोग्राफ द्वारा उपयोग किया जा सकता है। यह कितनी बड़ी ईश्वरीय-कृपा है।”

सत्रह (17) दिसंबर को भारत-भ्रमण, यात्रा अलीबाग में एक पूजा से शुरू हुई। श्री माताजी ने भारत की पावन-भूमि की तीर्थयात्रा के दौरान, कैसे चैतन्य को आत्म-सात (अवशोषित) करना है, सबका मार्ग-दर्शन किया, “बिना प्रतिक्रिया किए हरेक वस्तु को साक्षी-भाव से देखो। अपना ध्यान (चित्त) अपनी ओर घुमाओ, दूसरों से चित्त को हटाओ। अपनी तीव्र पसंद या नापसंद को भूल जाओ। ‘मुझे पसंद है’, इस चंगुल में मत पड़ो।”

यह पूरी जिंदगी का वह क्षण था, उनके प्यार की सौंधी धूप-सेकना और उन्हें प्यार करना! उनके प्यार के आड़े किसी भी रूकावट को न आने दें। सफलता की कुंजी थी कि अपना चित्त सदा उन पर रखें और अपने चित्त को सतही (बाह्य) वस्तुओं जैसे आराम की वस्तुएँ या व्यवस्थाओं (प्रबंधनों) के मोह में ग्रसित होने से बचाया जाय। 

सामूहिकता के साथ संलग्न रहना ही सफलता की कुंजी है। श्री माताजी के प्रतिष्ठान की छत के नीचे पूर्णतया सुरक्षित होने के गहन अनुभव का यह वास्तवीकरण था। अब वह समय आ गया था कि इस संसार की छत के नीचे उसी गहन अनुभव की सच्चाई का वस्तुतः अहसास करने का। यह उतना कठिन नहीं था, क्योंकि अपने चित्त को श्री माताजी पर रखते हुए, हर परिस्थिति में सुरक्षित रहना आसान था।

प्रातः काल श्री माताजी ने सहज-यात्रियों का स्वागत करते हुए मधुर मुस्कान के साथ पूछा, “आपको अच्छी नींद आयी।”

योगियों ने कहा, “ओह माँ,यह कैसे नहीं होता।”

स्नेहमयी श्री माताजी बच्चों को उनके रुचिकर व्यंजन तैयार कराने में रम गईं। ज्यादा से ज्यादा व्यंजन आते रहे, उन्होंने आग्रहपूर्वक बानगी (नमूने) के तौर पर कहा, “मेरी मातु श्री के खास नुस्खे से तैयार यह व्यंजन…….।”

उन्होंने प्रत्येक योगी को इतने अधिक आनंद से भीगा दिया कि- वे सब कष्ट भूल गए, उन्हें कुछ महत्वपूर्ण नहीं लगा, यहाँ तक कि औरंगाबाद तक की दस घंटे की गड्ढेदार सड़क-यात्रा भी। हर योगी श्री माताजी के वात्सल्य के रंग में रंगा हुआ प्रतीत होता था। 

‘महाराष्ट्र देशा जाग्रत करुया…..’ और ‘जोगवा ..’ जैसे गीतों ने औरंगाबाद के साधकों को विद्युत्-संस्फुरित कर दिया। पाश्चात्य-योगियों द्वारा मराठी-गायकी की प्रस्तुति के दृश्य ने अपनी छाप (स्मृति) छोड़ी। श्री माताजी ने दृढ़तापूर्वक कहा कि आत्मा के साथ संबंध (अंतरंगता) सहज योग के प्रसार की कुंजी है। सहज का बाह्य विकास हमारे आंतरिक विकास पर निर्भर करता है। 

उन्नीस (19) दिसंबर को भारत-भ्रमण (यात्रा) पैठण पहुंची, श्री माताजी ने बताया कि श्री सीताजी यहां ठहरीं थीं और भी, कि गजेंद्र-मोक्ष भी इसी स्थान के आस-पास हुआ था। चाँदनी रात में चमकती हुई गोदावरी-नदी के पार इशारा करते हुए श्री माताजी ने बताया, “यह वह स्थान है, जहाँ ऋषि वाल्मीकि ने रामायण लिखी थी। यद्यपि शालिवाहनों के कुलगुरु ऋषि शांडिल्य थे, ऋषि वाल्मीकि के प्रति उनमें बड़ा पूज्य भाव था।”

शालिवाहनों के पूर्वजों की वैभवपूर्ण राजकीय परम्परानुसार श्री माताजी को पूजा में एक शाल भेंट की गयी। 

इक्कीस (21) दिसंबर को श्री माताजी ने श्री रामपुर के लिए प्रस्थान किया, रास्ते में उन्हें चैतन्य असहज (कष्टप्रद) महसूस हुआ। जब उनका चित्त रास्ते की ओर गया, उन्हें महसूस हुआ कि वे गलत रास्ते जा रहे थे। योगियों ने उन्हें पूछा, “श्री माताजी आप यह कैसे जानते हैं?”

श्री माताजी ने जबाव दिया, “मैं सही-सही जानती हूँ! जब आपकी चेतना आपको प्रकाश देती है, मार्ग दर्शन करती है। आप सब कुछ, अपने अंदर ही जानने लगते हो। आपको जोर देकर बुद्धि-चातुर्य या कौशलपूर्वक प्रयास करके नहीं बताना पड़ता।”

निस्संदेह वे गलत रास्ते पर थे। श्री माताजी की कृपा से वे समय पर पूजा हेतु पहुँच गये। पूजा के अवसर पर श्री माताजी ने उन्हें स्मरण कराया, “यह आवश्यक नहीं कि कितनी वस्तुएँ आप मुझे देते हैं। यह भी जरुरी नहीं कि कितनी वस्तुएँ आप मुझे देते हैं। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आपने कितने लोगों को आत्म-साक्षात्कार दिया है और दूसरी बात (महत्वपूर्ण है) आप कैसे हैं, क्या आप आगे बढ़े हैं? क्या आप वास्तव में स्वतंत्र हो गए हैं और क्या आप अपनी सभी आदतों (संस्कारों) से मुक्त हो सकते हैं? और आपका अहंकार? (यानि क्या आप अहंकार से भी मुक्त हो सके हैं?) क्या, आप एक बहुत सौम्य, सुंदर, करुणामय और सामूहिक व्यक्तित्व बन पाए हैं? आत्म-निरीक्षण का प्रश्न, स्वयं को देखना (स्वयं से हटकर), बहुत ही महत्वपूर्ण है।”

लोनी कार्यक्रम पर श्री माताजी को अकोला तक एक जुलुस में सहज-योगीजन सुरक्षा-घेरे (escorted) में लाए। उन्हें बैलों से जुते हुए रथ में सवार होना था, बैलगाड़ी का फर्श ऊँचा था, कोई योगी उनके चढ़ने हेतु स्टूल लेने दौड़कर गया, किन्तु उसके आने के पूर्व ही श्री माताजी रथ पर सवार हो गईं थीं,किसी को भी पता नहीं, कैसे!

वापस, क्रिसमस पूजा में पुणे में उन्होंने स्पष्ट किया कि सहज-योग एक लहर के शीर्ष पर था और आगे अगले पड़ाव के लिए आवश्यकता थी ‘तपस्विता की’, अपनी आंतरिक स्वच्छता के लिए।

एक जन-कार्यक्रम में ‘अंध श्रद्धा-निर्मूलन’ एक कट्टरवादी समूह ने सभा को तितर-बितर कर दिया और सुरक्षा-व्यवस्था बुलानी पड़ी। श्री माताजी ने कट्टरवादी/धर्मांध समूह के वाद-विवाद के विषय को 27 दिसंबर को एक प्रेस-वार्ता पर सम्बोधित किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे किसी अंध विश्वास या अंध श्रद्धा में विश्वास नहीं करतीं। वर्ष 1970 में उन्होंने सभी झूठे-गुरुओं, जो कि अंध-श्रद्धा द्वारा साधकों/भक्तों का शोषण करते थे, उनकी खुली आलोचना की। उन्होंने बार-बार कहा कि उनका कुंडलिनी-जागरण मिशन मानव के अंदर स्थित आध्यात्मिक-क्षमता का वास्तवीकरण था, जिसे पाकर हरेक मानव परम् सत्य को पा सकता था, यह कोई अंध-विश्वास नहीं था, जैसा कि अंध-श्रद्धा निर्मूलन समूह द्वारा प्रचारित किया गया था और इसके अलावा, साधक- इसके लिए पैसे खर्च नहीं कर सकते।

दो शिल्पकारों और एक सुप्रसिद्ध पुणे के व्यवसायी द्वारा सहज-योग से स्वास्थ्य-लाभ होने के चिकित्सीय-प्रमाण पत्र प्रस्तुत किए गए और भी सहज-योग से स्वास्थ्य-लाभ होने, निरोग होने के प्रभावों की रिपोर्ट्स ऑस्ट्रिया, हेलसिंकी, बोस्टन और सोवियत यूनियन से सप्रमाण प्रस्तुत किए गए थे। 

एक शैतानी संवाददाता ने श्री माताजी द्वारा ओशो पर की गयी टिप्पणी पर उन्हें उकसाने की कोशिश की। श्री माताजी ने कहा कि वे आत्म-साक्षात्कारी नहीं थे। इससे प्रेस में एक लम्बी बहस छिड़ी, ओशो-भक्तों ने दावा किया कि श्री माताजी ओशो की शिष्या थीं। निस्संदेह, श्री माताजी ने उनके बेतुके(हास्यास्पद) आरोपों का खंडन किया और विवरण दिया कि, इसके विपरीत उन्होंने ओशो को 1970 में चेतावनी दी थी कि साधकों की अबोधिता को क्षति न पहुँचाएँ।

दूसरे दिन सतारा-कार्यक्रम में अंध श्रद्धा निर्मूलन समूह ने श्री माताजी के विरोध में नारे लगाए। जब तक कि पुलिस ने हस्तक्षेप नहीं किया, उन्होंने श्री माताजी को कार्यक्रम में बोलने नहीं दिया। एक माँ के तरीके से मीठी आवाज में उन्होंने लोगों को शांत किया और उन्हें बताया कि उन्हें सही मार्ग-दर्शन नहीं मिला था, उन्हें बरगलाया गया था। वे उनके सभी प्रश्नों या संदेहों को दूर कर पायेंगी, यदि उन्होंने उन्हें धैर्यपूर्वक सुना। उनके झगड़ालू स्वाभाव के बावजूद श्री माताजी ने शिष्टतापूर्वक उनके प्रतिनिधि से ब्रह्मपुरी कैंप में मिलना स्वीकार किया।

अभी भी, धैर्य और क्षमाशीलता पर यह दूसरा पाठ था। तीस (30) दिसंबर को ब्रह्मपुरी पूजा में श्री माताजी गंभीरता-पूर्वक संस्कारों के बारे में बोलीं,जिसने योगियों के उत्थान को बाधित किया था। उन्होंने सामूहिकता को मानवता के उद्धार के लिए कठिन परिश्रम हेतु प्रवृत होने को कहा, “पहले बुराई अच्छाई पर छायी (हावी) रहती थी, किन्तु अब बुराई पर अच्छाई की जीत होगी और अच्छाई फैलेगी।”

शाम को अंध-श्रद्धा-निर्मूलन समूह के प्रतिनिधि नहीं आए और श्री माताजी ने अंगपुर गांव की ओर प्रस्थान किया, जहाँ एक कार्यक्रम-स्थल तक उन्हें सुरक्षा-पूर्वक जुलूस में ले जाया गया।

जैसे ही श्री माताजी अपना सम्बोधन देने वाली थीं, अंध-श्रद्धा-निर्मूलन समूह का एक कार्यकर्ता स्टेज (मंच) पर कूद पड़ा और श्री माताजी पर प्रश्नों की दीवार से आक्रमित करने लगा। श्री माताजी ने उसे शांत करने की कोशिश की और कार्यक्रम के बाद तक प्रतीक्षा करने को कहा। उन्होंने उसे एक साक्षात्कार के लिए समय दिया था, किन्तु वह कभी नहीं आया और अब उसे सभा में बाधा नहीं डालना चाहिये। इसी बीच, अंध-श्रद्धा-निर्मूलन के आदमियों ने श्री माताजी की कार के पीछे से दो सहज-योगियों पर घात लगाकर आक्रमण कर दिया।

जब श्री माताजी उन्हें तवज्जो दे रहीं थीं, उनके लीडर डॉ. दाभोलकर ने अपने सह-अपराधियों को इशारा किया और उन्होंने अचानक श्री माताजी पर पत्थरों की बौछार शुरू कर दी। सौ से ज्यादा पत्थर उन पर फेंके गए, किन्तु सबके सब पत्थर श्री माताजी से कुछ इंच दूर गिरे, एक भी पत्थर ने उन्हें नहीं छुआ।

परम् चैतन्य कार्यान्वित हो चुके थे और उनकी सुरक्षा हेतु ढाल बना दी थी। पत्थर परम् चैतन्य की ढाल (सुरक्षा) को नहीं भेद पाए थे, जबकि अट्ठारह सहज-योगी जो श्री माताजी के पीछे खड़े थे, उन्हें लगे। 

इस चमत्कार से यह स्पष्ट हुआ कि संसार में कुछ भी वस्तु उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकती। उन्हें किसी भी सुरक्षा की जरूरत नहीं थी। उनकी अपनी शक्ति (परम् चैतन्य) ने उनका संरक्षण किया। पत्थर बंदूक की गोलियों जैसे उन तक चले, किन्तु उनके चरणों तह नहीं पहुँच पाए, उनसे कुछ दूरी पर गिरते गए। परम् चैतन्य को खुले रूप में कल्कि अवतरण की घोषणा करने का समय आ चुका था। दसवें-अवतरण श्री कल्कि के आने की नाड़ी-ग्रंथ की भविष्यवाणी घटित हुई। श्री आदिशक्ति की कृपा से, श्री कल्कि का प्राकट्य, सभी आत्म-साक्षात्कारियों की सामूहिक शक्ति-स्वरुप थी, जो उनकी सामूहिक-चेतना में लीन थे।

इसी उलझन के बीच श्री कल्कि की शक्ति पूर्णतया रणांगण (युद्ध स्थल) के नियंत्रण में प्रकट हो चुकी थी, यह शक्ति क्रोध से नहीं, बल्कि अपने बच्चों के संरक्षण हेतु प्यार की अनिवार्यता से संचालित थी। 

श्री माताजी अपने बारे में बिलकुल भी चिंतित नहीं थीं और योगियों को प्रतिकार नहीं करने का निर्देश दिया। उन्होंने अपने शत्रुओं को भी यह कहते हुए क्षमा कर दिया कि उन्हें पथ-भ्रष्ट किया गया था, “इन लोगों को मुझ पर आक्रमण करने के लिए पैसा दिया गया था। उन्होंने जान-बूझकर सुदूर स्थित इस गांव (अंगपुर) को योजनाबद्ध हो चुना था और अब, परम् चैतन्य ने उनकी पोल खोल दी थी।”

अंततः, रात्रि 9 बजे पुलिस आई और योगियों ने शिकायत दर्ज कराई। अपने प्रतिकार में, अंध- श्रद्धा-निर्मूलन समूह ने भी झूठी शिकायत दर्ज कराई, यह कहते हुए कि योगियों ने पहले उन पर आक्रमण किया था। यदयपि, मेडिकल रिपोर्ट्स अलग प्रकार से जाहिर कर रही थी, जबकि अट्ठारह योगी घायल हुए थे, अंध-श्रद्धा-निर्मूलन समूह के कुकर्मियों (बदमाशों) में से किसी के चोटिल (घायल) होने के साक्ष्य नहीं थे। 

श्री माताजी ने अकेले ही इस युद्ध के तेज समाघात सहे और पूरी तकलीफ को आत्म-सात किया। इसके अतिरिक्त वे पूरी-रात घायल सहज-योगियों की देखभाल करतीं रहीं। श्री माताजी के भावनात्मक-क्षति के तनाव के बारे में उनके बच्चे चिंतित थे, किन्तु अगली सुबह श्री माताजी को जल्दी उठकर हजारों-सूर्य की भाँति दीप्तिमान देखकर आश्चर्यचकित थे। चमकती हुई मुस्कान के साथ श्री माताजी ने हरेक योगी का नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ अभिवादन किया। उनके मुख-मंडल पर पिछली रात्रि के युद्ध का किंचित मात्र भी असर नहीं दिखाई दिया- उन्हें केवल एक बात याद करना था की हरेक चीज (हर विषय-वस्तु) उनके हाथों में सौंप दें। 

श्री माताजी ने टिप्पणी की, “मैंने तुम्हारी सभी दुःख-तकलीफें मेरे ऊपर ले ली हैं। सभी अवतरणों को अपनी नियति (भाग्य) को स्वीकार करना पड़ा था और दुःख उठाना पड़ा था, किन्तु तब उन्होंने हार मान ली थी। मैंने हार नहीं मानी है। पुरुषार्थ (आध्यात्मिक-प्रयास) द्वारा कोई भी इसका सामना कर सकता है, बिना प्रतिक्रिया किए, साक्षी बन सकता है। जीवन में, (समय तथा स्थान के) परम्पराक्रम बदलते नहीं, किन्तु सहज-योग द्वारा परिणाम बदलेंगे।” 

अपने बच्चों के मस्तिष्क से भावनात्मक-क्षति को मिटाने हेतु उन्होंने बच्चों को अपनी महामाया की छत्र-छाया (आवरण) से आच्छादित किया और नव-वर्ष को नए सिरे से द्वारपाल (परिचायक) बताया। योगी-जन श्री माताजी को नए वर्ष की भेंट देना चाहते थे, उन्होंने कहा, “मैं तुम से कुछ नहीं चाहती,किन्तु तुम्हें ध्यान करना होगा।”

सांगली में नव-वर्ष पूजा पर श्री माताजी ने सामूहिकता की मनः स्थिति को विद्युत्-स्फुरित करते हुए सहज-विवाह-समारोह की उद्घोषणा की।

1990

अध्याय-37

श्री माताजी गणपतिपुले में तीन जनवरी को देर-शाम पधारे। सागरीय ज्वार पूर्णता पर था (Full tide) और अरब सागर श्री आदिशक्ति के सम्मान में सागर-तट को छू रहा था। सागर की लहरों ने बच्चों की चिंताओं को धो डाला और अस्ताचल की ओर प्रस्थान करते हुए सूर्यदेव की ओर लौट गईं।

किन्तु, श्री माताजी के लिए आराम नहीं था! उनका ध्यान तुरंत अपने बच्चों की सुख-सुविधाओं की जानकारी के छोटी से छोटी विवरणी (जानकारी) पर गया, “उनके आवास हेतु बने टेंट को आच्छादित करने में किस मटेरियल (सामग्री) का उपयोग किया गया था?”

श्री मगदुम ने जानकारी दी, “मोटी सूती चादरों का उपयोग किया गया।”

श्री माँ, “नहीं, यह नहीं चलेंगी, इसे कैनवास-के-चादरों के साथ मजबूत किया जाय, यदि बारिश होती है तो।”

“(डिनर) रात्रि-भोजन का मीनू (भोजन सामग्री की सूची) ज्यादा ही मितव्ययी है, बेहतर होगा मिठाई और फल और जोड़े जाएँ।”

“इस खाद्य (मिठाई) के नुस्खे को भोजन के बाद परोसी जाने वाली मिठाई की तैयारी हेतु रसोइये को दे दो, यह नुस्खा मेरी माँ का चहेता नुस्खा है।

“मेरे बच्चों के आराम/सुविधाओं के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जाय।”

यहाँ तक कि प्रकृति भी उनके बच्चों के लिए अनुकूल हो गयी। झुलसाने वाली गर्मी श्री हिमालय के मंत्र से तथा बायीं ओर को इक्कीस (21) बार उठाने से शांत हो गई। श्री माताजी के करुणामय-चित्त से कुछ छिप नहीं पाया। जब तक उनके बच्चों को चैन नहीं मिला, वे भी आराम नहीं कर सकीं।

शाम के उत्सवों के दौरान, उन्होंने टिप्पणी की कि यह जरुरी नहीं था कि वे प्रवचन दें, सबसे महत्वपूर्ण चीज थी उनके चैतन्य को अवशोषित करना। सभी उत्सव समारोहों का वही उद्देश्य था। “यदि आप अपना चित्त सहस्रार पर रखते हैं, आप चैतन्य को बेहतर अवशोषित कर पाएंगे।”

अपनी माँ की सीख को ध्यान में रखते हुए सहजी बच्चों ने अपने चित्त को सहस्रार पर बनाए रखा। श्री माताजी की प्रोत्साहित करने वाली स्वीकृति ने देबू चौधरी के सितार के तारों को बच्चों के चक्रों को, रागों के उतर-चढाव (चालन) की लय बद्धता के साथ समन्वय हेतु प्रेरित किया। यहाँ तक कि उनकी आत्मा को आनंद देने के साथ, शारीरिक आराम भी हाथ से बुनी हुई शॉल द्वारा प्रदान किया।

आने वाली संध्या को भारतीय सहज-योग केंद्रों द्वारा- पाश्चात्य सहज-योगियों को उपहार दिए गए। श्री माताजी ने विभिन्न शहरों की यात्राओं के दौरान स्वयं विभिन्न उपहार चुने थे। गरीब कारीगरों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने परम्परागत हस्त कलात्मक वस्तुएँ चुनीं थीं। हरेक उपहार इतनी ही विशेष थी। 

सात (7) जनवरी को श्री आदिशक्ति के चरण-कमलों में एक पूजा समर्पित की गई। उन्होंने ये रहस्योद्घाटन किया कि पूजा की अवधि में उनके चक्रों में स्थित देवी-देवता पुकारने लगे और बहुत ज्यादा चैतन्य-लहरियाँ उन्होंने उत्सर्जित कीं। वे प्रसन्न थीं कि बच्चों ने चैतन्य-लहरियों को अवशोषित किया। उन्होंने पूजा-उपहार स्वरूप सभी देशों को चाँदी की कृतियाँ प्रदान कीं। उन्होंने अपने बच्चों से सामूहिक-पूजा-उपहार (Collective Gifts) के अतिरिक्त कुछ भी नहीं स्वीकार किया। वो भी उपहार उन्होंने आशीर्वादित-कर उनके केंद्रों को पूजा-सिल्वर के (पूजा हेतु चाँदी के पात्र) स्वरूप वापस कर दिया।

“मैं जानती हूँ, तुम लोग मुझे बहुत प्यार करते हो और मुझे प्रसन्न रखने के लिए सब कुछ करना चाहते हो। किन्तु, प्यार से अर्पित किया गया केवल पत्र(पत्ता), फूल या फल भी मुझे बहुत ज्यादा प्रसन्नता देता है। इस भेंट (उपहार) के पीछे छिपी भक्ति मुझे उसकी भौतिक कीमत से ज्यादा हृदय-स्पर्शी लगती है। अतः कृपया मँहगे उपहारों पर पैसा बर्बाद न करें।”

रात्रि-कालीन भोज (Dinner) के बाद उन्होंने कुबेर का ‘उपहार का पिटारा’ खोल दिया और पूरी रात बैठकर अपने बच्चों को उनकी रूचि के अनुरूप उपहार ख़ुशी से देतीं रहीं। 

जैसे ही अरब-सागर के सुदूर-क्षितिज में सूर्यास्त हुआ, सहज-विवाहोत्सव पर दूल्हों के उनके विवाह की पवित्र-वेदी तक जाने वाले मार्ग को, हजारों-तारागणों से रचित आकाश-गंगा ने चाँदी-से चमकते हुए पथ को प्रशस्त किया। श्री माताजी समय से पूर्व ही, व्यक्तिगत-रूप से समारोह के प्रबंध का निरीक्षण करने पधारीं। उन्होंने सहज-योगी माताओं को अपने-अपने दामाद (दूल्हों) की आरती के साथ स्वागत करने हेतु पहुँचने के निर्देश दिए और तब,आरती के बाद दूल्हों को अपनी-अपनी वेदी तक सुरक्षा में लाएँ। 

श्री माताजी ने विवाहोत्सव को समृद्धि-हेतु चावल (धान) की धानी से बौछार करते हुए आशीर्वादित किया। शादी का हर जोड़ा वेदी पर विराजित श्री माताजी के चरण-कमलों की पूजा हेतु आया। उन्होंने उन्हें पूजा हेतु चाँदी के सेट्स के उपहार देकर महालक्ष्मी स्वरुप से आशीर्वाद प्रदान किए। डिनर (रात्रि-भोज )पर दूल्हे और दुल्हिनों ने तुरंत स्वरचित कविता के दोहे (Duets) एक दूसरे के प्रति (विनोदपूर्वक) सुनाए। वे इतने मनोरंजक थे कि श्री माताजी की हँसी की लहरें विशाल जन-सागर में लहराने लगीं।

हँसी की लहरों ने महामाया के चोगे को अनावरित कर दिया था। अंगपुर में अंध-श्रद्धा-निर्मूलन समूह के कुकर्मियों द्वारा अपनी प्यारी श्री माताजी पर,पत्थर बरसाए गए थे, इससे उन लोगों के प्रति उपजी चोट, अपमान और क्रोध, जो योगियों को अशांत बनाए हुए था। सहजी बच्चों ने श्री माताजी से पूछा कि उन्हें क्या करना चाहिये। श्री माताजी ने मीठी वाणी में घृणा की शक्ति से प्रतिक्रिया नहीं करने की सलाह दी। इसके बदले, उन्हें क्षमा-शीलता और करुणा की शक्ति को अपनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा, “यहाँ तक कि मैं सुधार लाने हेतु बाहर से क्रोध प्रकट करती हूँ, फिर भी इसके पीछे मेरे प्यार की शक्ति ही रहती है।”

सहज योगी बच्चों ने श्री माताजी की कुटिया के पीछे स्थित बगीचे में लम्बे समय तक ध्यान किया, एक बड़े विशाल चित्र के सामने, जिसमें भारत इस धरती माँ के लघु-रूप में प्रकट हुआ और महाराष्ट्र इसमें इस धरती माँ की कुंडलिनी थी, जो अष्ट-विनायक द्वारा संरक्षित थी। राक्षसी शक्तियाँ महाराष्ट्र पर(कुंडलिनी) पर आक्रमण कर रही थीं और श्री माताजी इसकी ढाल बनकर सुरक्षा प्रदान कर रहीं थीं। इस कारण से, उन्होंने अपना आक्रमण श्री माताजी पर प्रशिक्षित किया। 

अपनी माँ की सलाह पर चलते, सहज-योगियों ने एक शांति-मार्च (शांति-कूच) महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री तक किया। श्री आदिशक्ति पर आक्रमण से परम्-चैतन्य का क्रोध उत्तेजित हो उठा और उस प्रदर्शन के हर कदम पर श्री कल्कि की शक्ति ने महाराष्ट्र को चारों ओर से घेरी हुई नकारात्मकता से युद्ध किया।

दो हजार से ज्यादा साहसी निर्मला-पुत्रों (Nirmalites) ने मुंबई की गलियों से उनकी प्रिय श्री माताजी को दी गई यातना के विरोध-प्रदर्शन में कूच किया। उन्होंने विरोध-प्रदर्शन का एक पत्र (ज्ञापन) महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को सौंपा, उन्होंने भरोसा दिलाया कि वे आवश्यक कार्रवाई करेंगे। 

नकारात्मकता का भारी वजन दूर हट गया था और परम्-चैतन्य ने प्रकट किया कि देवी माँ विजयी रहीं। नोयडा भजन-गायकों ने एक भजन द्वारा देवी माँ की इस विजय को सम्मानित किया, जिसमें उन्होंने कैसे महिषासुर को हराने के बाद, उसे क्षमा कर दिया और जैसा कि वह देवी माँ के हाथों मारा गया,उसे मोक्ष प्राप्त हो गई।

एक और भजन जिसमें, नाड़ी-ग्रंथ में वर्णित पौराणिक भविष्यवाणी के पूर्ण होने का वर्णन किया गया था, जहाँ सहस्राब्दी के प्रभात पर देवी माँ कल्कि स्वरुप में अवतरित होंगी, वे अपनी परम्-चैतन्य की शक्ति को, अच्छाई और बुराई में छंटनी करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देंगीं। 

चौदह (14) जनवरी को संक्रांति-पूजा पर सहजी बच्चों ने अपनी परम् प्रिया आदि माँ को, आदि-कुंडलिनी की पवित्र-भूमि की रक्षा करने हेतु धन्यवाद दिए।

किन्तु, उनकी माँ के लिए अभी भी विराम नहीं था, जब तक की महाराष्ट्र में नकारात्मकता जड़-मूल से समाप्त नहीं हो जाती, वे आराम नहीं कर सकतीं थीं। 

तथाकथित ईश्वर-जनों (गुरुलोगों) ने धर्म की जड़ें नष्ट कर दीं थीं और परमात्मा के नाम भोले-भाले साधकों पर अधिकार जमा लिया था। हर गली-नुक्कड़ पर गणेश और हनुमान मंदिर पैसे देने वाली मशीन (ATM) की तरह स्थापित कर दिए थे। श्री माताजी ने उनकी पोल खोलने के लिए प्रेस में लेख प्रकाशित कराए। उन्होंने प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के साथ मिलकर ‘सकाल’ (समाचार- पत्र) के विरुद्ध अपने व सहज-योग की अवमानना का मामला (case of defamation) दायर किया। थोड़े से समय में ही परम् चैतन्य ने ऐसे गुरु-लोगों की असलियत को उजागर करना शुरू कर दिया।

श्री माताजी ने चेन्नई की तृण-मूल की (दैवीय आपदाओं से) रक्षा की और आठ (8) फरवरी को प्रेस की तारीफ की। फिर से एक शरारती पत्रकार ने उनका ध्यान विकर्षित करने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्होंने अपने मनो-विनोदी स्वभाव से उसे बेहोशी से मुक्त कराया। पत्रकारों ने अपने आत्म-साक्षात्कार के लिए उनसे याचना की और उन्होंने साधक-पत्रकारों की कुंडलिनियों को जाग्रत कर दिया। 

शाम को श्री माताजी के लिए थोड़ा विश्राम था- कला क्षेत्र के द्वारा उनके सम्मुख नृत्य-नाटिका की प्रस्तुति थी। इस नृत्य-नाटिका के द्वारा परमात्मा के द्वारा ब्रह्माण्ड के सृजन को दर्शाया गया था। कार्यक्रम की शुरुआत में उन्होंने सदाशिव को निराकार बताया, इसके बाद यही, निराकार सदाशिव सृष्टि-सृजन की इच्छा व्यक्त करते हैं। सृष्टि के सृजन के उद्देश्य हेतु सदाशिव ने अपनी शक्ति, श्री आदिशक्ति को स्वयं से अलग किया, किन्तु वे श्री आदिशक्ति के इस नाटक के सनातन-साक्षी रहे। श्री आदिशक्ति ने अपने नाटक का आरम्भ अपनी श्री महालक्ष्मी, श्री महासरस्वती और श्री महाकाली की शक्तियों के प्रदर्शन से किया। 

श्री माताजी कलाकारों के नाटक के अनुशीर्षक से प्रसन्न हुईं और सृष्टि-सृजन के विकास को विस्तारपूर्वक बताने लगीं।

श्री कृष्ण पूजा का आयोजन नौ (9) फरवरी को हुआ। उन्होंने जाहिर किया कि श्री कृष्णजी की बाँसुरी बनने के लिए अंदर से खोखला होना जरुरी था,अपने अहंकार से मुक्त, स्वयं में विश्वास, निर्मल-हृदय होना और ईश्वरत्व के प्रति वफ़ादारी होना चाहिए। 

अगले दिन, उन्होंने तमिलनाडु एम्पोरियम पर हस्त-शिल्प को आशीर्वादित किया। प्रतिष्ठान सज्जित करने के लिए परम्परागत तैयार की गई हरेक वस्तु से परम्-चैतन्य आतुर दिखाई दिया। पाँच आदमकद देवी की मूर्तियाँ प्रतिष्ठान के सोपान-मार्ग सिढ़ाव के लिए एक-दम ठीक आकार की मिल गयीं। प्राचीन चलन का सज्जित चेत्तीनाड-दरवाजा आंगन के प्रवेश हेतु और अतिथि कक्ष के लिए नक्काशी वाला फर्नीचर एकदम पूर्णता प्रदान करते थे। अंत में, वहां श्री गणेश मूर्तियाँ श्री माताजी के हरेक बच्चे के लिए ठीक संख्या में प्रचुरता से उपलब्ध थीं।

वे मुस्कराईं, मैं एक बड़ी अच्छी खरीददार हूँ, किन्तु मेरी व अन्य किसी और की खरीददारी में फर्क इतना है कि मैं तुम सबके लिए खरीदती हूँ। मैं शॉपिंग के लिए जाती हूँ, क्योंकि मैं जानती हूँ कि मुझे वहां चीजें बहुत सस्ती मिलेंगी, और बेहतर गुणवत्ता वाली भी। वहाँ सब अच्छी वस्तुएँ उपलब्ध होंगी,क्योंकि मैं वहां हूँ। मैं सब लोगों के लिए चीज़ें प्राप्त कर सकूंगी क्योंकि मैं उन्हें प्यार करती हूँ, जिनके लिए मुझे खरीदारी करना है, यह हमेशा ऐसे ही घटित होता है। जब मैं खरीददारी के लिए बाहर जाती हूँ, यहाँ तक कि यदि मुझे चार सौ लोगों के लिए चीजें ढूंढना है, मुझे वहाँ चीजें मिल जाती हैं,बिलकुल ठीक, संतोषप्रद। इसीलिए मुझे जाना पड़ता है।”

वहाँ कार्यक्रम में बहुत से बुद्धिजीवी विद्वान् और वैज्ञानिक थे। एक वैज्ञानिक, प्रश्नों की बौछार में इतना मस्त हो गया कि एक प्रश्न का उत्तर मिलते ही,वो दूसरे प्रश्न दागने लगता। उसे प्रश्न पूछने की सनक प्रतीत हो रही थी और प्रश्नों के उत्तर से उसे कोई सरोकार नहीं था, कोई रूचि नहीं प्रतीत होती थी।

श्री माताजी ने उसे धैर्यपूर्वक बताया कि अभी तक उसका ज्ञान बौद्धिक-स्तर का था, किन्तु अब उसे ‘सत्य’ का अनुभव करना चाहिए। यद्यपि हॉल पूरा भरा हुआ था, बहुतों को उनका आत्म-साक्षात्कार नहीं मिला। श्री माताजी ने उन्हें सुबह अपने आवास पर आमंत्रित किया। उन्होंने दो सौ साधकों की इड़ा नाड़ी (left side) को संचालित करने हेतु पाँच घंटों तक उन पर कार्य किया। दोपहर बाद श्री माताजी ख़ुशी से मुस्कराईं, “कार्य हो गया है,” उनके सहस्रार खुल गए थे।

पाँच घंटे के प्रातःकालीन गहन-सत्र में जीवंत-क्रियाओं द्वारा दो सौ साधकों की सफाई हो चुकी थी और इस तरह चेन्नई की सामूहिकता के उत्थान का रास्ता साफ हो गया था। अब, बीजों को अंकुरित होना था। 

श्री माताजी ने उन्हें याद दिलायी, “जीवंत-क्रिया वैज्ञानिकों को नहीं समझाई जा सकती है। यदि आप मेरे बारे में उनसे बात करें, उन्हें आघात (आश्चर्य)लगेगा। केवल, उन्हें बताएं कि यह एक अद्वितीय विधि है, जिसका आविष्कार हो गया है। यह एक जीवन्त प्रक्रिया है और हमनें स्वयं इसे अनुभव किया है।

“अगली सुबह वे बैंगलोर के लिए रवाना हो गईं। बैंगलोर में सहज-योग के पूर्व कार्यक्रम में श्री माताजी के द्वारा बोए बीज अंकुरित हो चुके थे। पच्चीस सहजयोगी गुलाब पुष्पों सम पूर्णरूपेण विकसित हो गए थे, और उन्होंने अपनी मीठी सुगन्ध से उनका स्वागत किया। 

एक पुरानी मित्र, श्रीमती मुडप्पा ने सहज-कार्यक्रम के विज्ञापन देखे। उनके पति ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति को उनके सचिव के रूप में सेवाएँ दीं थीं,जब सर सी.पी.श्रीवास्तव तत्कालीन प्रधानमंत्री के सचिव रहे थे। श्रीमती मुडप्पा के साथ एक वृद्ध महिला थीं, जो अपना आत्म -साक्षात्कार प्राप्त करने को अत्यंत उत्सुक थीं। उन्होंने श्री माताजी को उन्हें आत्म-साक्षात्कार देने के लिए धन्यवाद दिया और अपने निवास पर एक विशाल हॉल सामूहिक सभाओं हेतु प्रदान किया। श्री माताजी मुस्कराईं, “देखो, परम चैतन्य कैसे हरेक कार्य करते हैं। वे हर चीज का आयोजन करते हैं। हमें हर कार्य उन पर छोड़ना चाहिए और बस मजा उठाएँ।”

श्री जयकर के लिए एक विनम्रता-प्रदायक अनुभव था, जिन्होंने कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित किया था। उन्हें यह विश्वास हो आया कि कार्यक्रमों के करने वाले वे (कर्त्ता) थे। उन्होंने अपना दोष स्वीकार किया कि वे एक बहुत बड़ी कम्पनी के चालक थे। वे इस विश्वास की भ्रांति में पड़ गए थे, कि उन्होंने ही सब कुछ किया था। इसी प्रकार से, सहज-योगीजन जो कार्यक्रमों के प्रभारी थे, उन्हें लगा कि सहज-योग का प्रसार उनके प्रयासों के कारण हुआ था।

उनके अहंकार को बिना चोट पहुंचाए श्री माताजी ने उन्हें इसे (अहंकार) साक्षी-भाव से देखने को कहा। दूसरों के अहंकार को देखना आसान था, किन्तु स्वयं के अहंकार को देखना असम्भव होता। 

अपने अहंकार को लेकर श्री जयकर बहुत गुस्से में थे और उन्होंने पूछा, “श्री माताजी, क्या अहंकार एक भूत है?”

“नहीं,” श्री माताजी ने उत्तर दिया, “अहंकार एक भ्रम है।”

“हम इससे कैसे छुटकारा पाते हैं?”

“यह केवल एक ध्रुवीकरण है। तुम्हें अहंकार से लड़ने की कोशिश नहीं करना चाहिए, किन्तु बस इसे साक्षी-भाव से देखो। यदि तुम अपने अहंकार से लड़ते हो, यह एक ध्रुवीकरण का सृजन करता है- एक समानांतर अहंकार का और तुम्हारे सिर पर सींग आ जायेंगे। आत्मावलोकन का प्रयत्न करें, तब यह चला जायेगा।”

इसी बिंदु को आगे बढ़कर समझाने के लिए कार्यक्रम-स्थल की स्टेज के पीछे एक पोस्टर द्वारा राक्षस राज महिषासुर के सिर पर सींग बताकर अहंकार को प्रदर्शित किया गया था। सींग- सामूहिक अहंकार के प्रतीक थे। 

तब, धीरे से आशा से परे श्री माताजी ने महिषासुर-मर्दिनी पूजा की उद्घोषणा तेरह (13) फरवरी के लिए की। यह एक प्रसंग का संयोग-मात्र भी था। शायद यह प्रासंगिकता परम्-चैतन्य की युक्ति थी, यह विश्वास दिलाने के लिए कि श्री माताजी का संदेश भूला नहीं गया था।

पूजा पांडाल में श्री माताजी के सिंहासन के पीछे एक पार्श्व-चित्र (Back-drop) में देवी माँ सिंह पर सवार विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों को धारण किए हुए महिषासुर के वध हेतु प्रहार करती दिखाई गईं थीं। वे आदर-युक्त भयाक्रांत करती, क्रोध से भरी हुईं थीं, फिर भी उनकी आँखों में करुणा भरी हुई दिखाई दी। राक्षस महिषासुर अहंकार का प्रतीक बताया गया था, जो हमारे मन के तारों को संचालित करता था। यह संवाद सबके दिलों में समा गया!

संगीतकार राक्षसराज महिषासुर पर देवी माँ की विजय-कीर्ति में एक भजन गाते रहे। इस भजन में देवी माँ दुर्गा के भयानक युद्ध को वर्णित किया गया था,जो अपार-क्रोध से भरी हुई ज्वालामुखी के सदृश उनके रास्ते में आने वाली हरेक सत्य-विरोधी वस्तु को निर्दयता-पूर्वक नष्ट करती जा रहीं थीं। महिषासुर को समाप्त करने के बाद दुर्गा माँ प्रसन्न हुईं और अपने भक्तों पर सहस्रों आशीर्वाद बरसाये।

महिषासुर-मर्दिनी पूजा का प्रतीक, जो बैंगलोर में आयोजित हो रही थी, वह सामूहिकता पर व्यर्थ नहीं गया। पूजा के दौरान उन्होंने प्रतीकात्मक-महिषासुर का अंत किया और उसके साथ ही सामूहिकता की नकारात्मकता भी समाप्त हो गई!

1990

अध्याय38

 सहज योग जन कार्यक्रम 14 और 15 फ़रवरी को अहमदाबाद में आयोजित हुए। कार्यक्रम में हॉल खचाखच भरे हुए थे, किन्तु नए सहजी बच्चे अभी अपने झूलों में थे।। श्री माताजी ने आगाह किया कि इन नए सहजयोगियों का चित्त अभी भी पैसों पर था, किन्तु यदि उन्होंने सहजयोग को अपना लिया,तो उन्हें श्री महालक्ष्मी का वास्तविक प्रसाद मिलेगा।

23 फरवरी को पुणे को शिवरात्रि पूजा का आशीर्वाद मिला, सामूहिकता ने शिव तत्त्व की गहराई का आलिंगन किया, जो क्षमा-शीलता का स्रोत हैं। श्री माताजी ने स्पष्ट बताया कि परम चैतन्य जीवंत कार्य करते हैं, “परम चैतन्य साक्षात् आदिशक्ति हैं जो श्री शिव जी की इच्छा शक्ति हैं। आपके अंदर ह्रदय में स्थित आत्म-स्वरुप यह उनकी ज्योति है- मनुष्य बनने के बाद आप आत्मसाक्षात्कारी हो गए हैं, जो कि परम चैतन्य का आशीर्वाद है।”

 अगली शाम, श्री माताजी हैदराबाद के लिए ट्रेन में सवार हुईं। उनके लिए एक प्रायवेट (निजी) रेलवे बोगी बुक्ड (निर्धारित) थी,किन्तु वे रिज़र्व बोगी (आरक्षित डिब्बे) से सामान्य डिब्बे (आर्डिनरी कोच) में स्थानांतरित हो गईं, ताकि ट्रेन में सभी लोगों को आत्मसाक्षात्कार दे सकें। जैसे ही आत्मसाक्षात्कार की यह खबर लोगों तक पहुंची, यात्रीगण उनके डिब्बे (coach) में रास्ते (passage) में अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने हेतु कतार में लग गए। ट्रेन के सामान्य डिब्बे में सहज ही आत्मसाक्षात्कार का आशीर्वाद मिला!

 उषा काल से पूर्व ही सहजयोगियों ने यात्रियों से क्षमा मांगते हुए कहा कि श्री माताजी को थोड़ा आराम कर लेने दीजिये, जैसा कि शाम को उन्हें एक जन कार्यक्रम को संबोधित करना था। यात्री गणों ने कार्यक्रम स्थल का पता ले लिया और अपने मित्रों और सम्बन्धियों सहित शीघ्रता से उत्साहपूर्वक कर्यक्रम में उपस्थित हुए।

 सहजयोग का विकास दक्षिण भारत में यद्यपि निरुत्साहित करने वाला था। 25 फरवरी को हैदराबाद में श्री कुण्डलिनी पूजा के अवसर पर श्री माताजी ने सांत्वना देते हुए कहा कि सहजयोग एक जीवंत क्रिया है और एक जीवित वस्तु धीरे धीरे विकसित होती है। उन्होंने एक वृक्ष का उदाहरण देते हुए कहा,कैसे एक वृक्ष धीरे धीरे किन्तु निश्चित ही विकसित होता है और दक्षिण भारत में उन्होंने जो पौधे लगाए हैं, वे एक बड़े जंगल में परिवर्तित हो जायेंगे।

 स्थानीय हस्त कला को आशीर्वाद देने हेतु वे खरीददारी के लिए गईं। उन्होंने आंध्र प्रदेश के धातु-शिल्प की सराहना की और शिवाजी महाराज की 500मूर्तियां सभी सहजयोगियों के लिए खरीद लेने का आदेश दिया।

 उन्होंने कहा “मैंने तुम्हें शिवाजी महाराज की मूर्तियां दीं हैं। वे एक महान आत्मा थे और इतने सैद्धांतिक व्यक्ति थे। उनका जीवन इतना सुंदर था, उनकी अपनी भाषा, वाणी, व्यवहार सभी में सौंदर्य था। इस सबके साथ, वे एक साहसी व बहादुर व्यक्ति थे । एक बार आपमें वह साहस आ जाये, आप सत्य के लिए खड़े हो जायेंगे।”

1990

अध्याय-39

 श्री माता जी 23 फरवरी को मुंबई से ऑस्ट्रेलिया के लिए एक विमान पर सवार हुईं। रास्ते में उन्होंने सिंगापुर में मलेशिया की सामूहिकता को आशीर्वादित किया। वे चीन में सहज-योग के प्रसार के लिए उत्सुक थीं, “चीनी लोग समझदार हैं- अपने पौराणिक रीति-रिवाज़ों को लेकर और आसानी से सहज-योग अपनाएंगे। चीन में महान दार्शनिक लाओत्से जैसे व्यक्ति (गुरु) थे, जिन्होनें साफ़ स्वच्छ विचार सिखाए, जैसे सहजयोग में व्यवहार में लाए जाते हैं, किन्तु उन विचारों को अमल में लाने हेतु व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कारी होना जरुरी है।”

“उसी तरह से झेन का अभ्यास बिना अर्थ समझे-बूझे शुरू हुआ और वह एक सामाजिक क्रिया कलाप में परिवर्तित हो गया। झेन में कोई जीवन नहीं रह गया है, दूसरे धर्मों की तरह झेन भी अपने उद्देश्य से विचलित हो गया है।” हवाई उड़ान और भी ज्यादा लेट (विलम्बित) हो गयी थी और श्री माता जी कृपा कर के, सब के लिए चॉकलेट्स ले आईं।

2 मार्च को पर्थ (ऑस्ट्रेलिया) में आने के बाद श्री माताजी ने अनुभव किया- चैतन्य कमज़ोर हो चुका था। श्री माताजी ने बहुत ज्यादा कठिन मेहनत की और हज़ारों साधकों को आत्मसाक्षात्कार दिया, किन्तु ये जानकर उन्हें निराशा हुई कि कम से कम आधे साधक बाहर फेंक दिए गए थे। वहां लीडर्स घमंडी और उत्पीड़नकारी हो गए थे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि किसी ने उन्हें इसकी सूचना नहीं दी। बहुत से आश्रम बंद हो गए थे और योगियों ने अकेले रहना उचित समझा।

 सहजयोगियों के आपस में साथ-साथ रहने और नए साधकों के प्रति दयालुता, भद्रता, मधुरता और समझ बूझ से श्री माता जी प्रभावित हुईं, “सामूहिकता में रहना सहज संस्कृति का एक अभिन्न अंग है और हमारे आध्यात्मिक उत्थान के लिए बिलकुल आवश्यक है- खास बात है कि वे आक्रामक न हों।” कार्यक्रम में उन्होंने २ एड्स (AIDS) बीमारों को स्वस्थ किया।

 श्री माताजी मेलबोर्न में 4 मार्च शाम को पधारीं और ज्यादा समय उन्होंने सामूहिक समस्याओं को ठीक करने में बिताया। उन्होंने कार्यक्रमों में कई प्रश्नों के उत्तर दिए। एक बार साधकों की बौद्धिक जिज्ञासा शांत हुई, उन्हें उनका आत्मसाक्षात्कार मिलने में आसानी रही। उन्होंने साधकों का गर्म जोशी से स्वागत किया और आधी रात तक उन पर कार्य करती रहीं। कैर्न्स (Cairns) रवाना होने से पूर्व, उन्होंने सामूहिकता को आपस में प्यार करने, ध्यान करने और उनके प्रवचन को सुनने को प्रेरित किया- अन्य किसी के प्रवचन सुनने को नहीं!

 कैर्न्स (Cairns) के मेयर (नगर-अध्यक्ष) ने एक विशेष जीव, स्टार-फिश ‘क्राउन ऑफ़ थोर्न’ के बारे में उन्हें समझाया, जो छोटे कोरल प्राणियों को खा कर समाप्त करती जा रही थी, इस तरह कोरल रीफ (कोरल की चट्टानों) को नष्ट करती जा रही थी । श्री माताजी ने उन्हें आश्वस्त किया, “एक बार आपकी शक्ति जागृत होने पर, आप इस समस्या पर कुछ कर सकेंगे।” किन्तु मेयर ने इस बिंदु को कोई महत्व नहीं दिया।

 श्री माताजी ‘ग्रेट बेरियर रीफ’ (कोरल रीफ) पर पहुंचीं और अपनी आँखों में चमक के साथ मुस्कराईं, “देखते हैं, क्या किया जा सकता है!”

 अगले सप्ताह, हज़ारों की संख्या में स्टार फिश मरी हुई मिलीं, पानी में ऊपर तैरती हुईं! श्री माताजी ने मजाक में (सहजियों से कहा) “मेयर साहब को थोड़ा और विश्वास रखने को कहो।”

 ब्रिसबेन प्रेस से बहुत-से लेख प्रकाशित हुए, जिससे प्रेरित हो कर बहुत-से साधक कार्यक्रमों में आए। बाद में, श्री माताजी ने शाम को होम्योपैथिक दवाओं के बारे में जानकारी दी। “होम्योपैथिक में विश्वास अत्यंत उत्साहित करने वाला है। हमारे अंदर विचार-तंत्र बहुत ज्यादा सक्रिय हैं, सहज-योग अंदर से कार्य करता है। यदि आपको ठीक से समस्या का पता चल जाय, तब आप उसे हल कर सकते हो। सहजयोग में सात चक्र और तीन नाड़ियां हैं- कुल इक्कीस चीज़ें।”

 श्री माता जी ने काफी वक्त समाचार पत्र के रियल-एस्टेट सेक्शंस (अचल संपत्ति व्यावसायिक विज्ञापन) में आश्रम के लिए उचित स्थान हेतु तलाशते हुए बिताया।

 अगले दिन, ऑकलैंड हवाई अड्डे पर अपने सभी बच्चों के साथ समय बिताते वे बहुत प्रसन्न थीं और हरेक योगी के बारे में इतने प्यार और घनिष्ठता से पूछतीं रहीं- “वे इतने सारे बच्चों की माँ हैं, किन्तु इससे प्रत्येक के लिए उनका वात्सल्य कम नहीं होता।”

 उन्होंने न्यूज़ीलैंड के सबसे प्रसिद्ध रेडियो प्रसारण-कर्ता को एक जीवंत-साक्षात्कार (live interview) दिया। उस साक्षात्कार-कर्ता ने, जो कि पर-छिद्रान्वेषी था- सहजयोग में पैसों को लेकर उत्तेजित करने वाले प्रश्न पूछे, चूँकि वह साक्षात्कार-कर्ता मधुमेह से पीड़ित था, श्री माता जी ने उसकी बीमारी का कारण बताया और उस से मुक्त होने की सहज-योग की योग्यता को समझाया। जैसे जैसे साक्षात्कार ने गति पकड़ी, वह ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक होता गया। तब उसने सवाल किया, “क्या आप मसीहा हैं या पैगम्बर हैं?”

 श्री माताजी शांत रहीं, किन्तु अचानक उसे अपने हाथों में शीतल-लहरियां महसूस होने लगीं, तब वह भूल गया कि रेडियो पर सीधा प्रसारण चल रहा था और उसने कहना शुरू कर दिया, “अरे, मैं इन शीतल लहरियों को अपने हाथों में महसूस कर सकता हूँ। मुझे लगता है कि मैं अपने हाथों में हवा की ठंडी गेंद पकड़े हुए हूँ। जब मैं, उनका साक्षात्कार ले रहा था, मैंने एक शब्द भी नहीं विश्वास किया, वो क्या कह रहीं थीं। अब मैं शीतल लहरियां महसूस कर सकता हूँ।”

 जब यह रेडियो-प्रसारण चल रहा था, उस रेडियो स्टूडियो के कोई भी कर्मचारी विश्वास नहीं कर सके, जो वह साक्षात्कारी कह रहा था, क्योंकि यह उसकी प्रकृति (चरित्र) से परे था। वे अपनी अपनी टेबलों से उठ कर स्टूडियो की खिड़कियों से अविश्वास में झांक रहे थे। उस साक्षात्कारी ने तब कहा कि शीतल लहरियां रुक गईं थीं। श्री माताजी ने उस पर कार्य किया और पुनः वह शीतल लहरियों को अपने हाथों में महसूस कर सका। उसने पूछा, ”क्या,हरेक साधक को ये लहरियां मिल पाएंगी?”

 श्री माताजी ने उत्तर दिया, “वे भी इसे प्राप्त कर सकते हैं। केवल उन्हें अपने हाथों को रेडियो प्रसारण की ओर करने को कहें और उन्हें ये शीतल लहरियां मिल जाएँगी।”

 जैसे ही सभी रेडियो कार्यालयीन कर्मचारियों का एक हाथ श्री माताजी की ओर था और दूसरा हाथ अपने सिर के ऊपर था, शीतल लहरियां महसूस करते हुए यह एक आश्चर्य-जनक दृश्य था। श्री माताजी बहुत प्रसन्न थीं और दोपहर बाद उन्होंने श्री महालक्ष्मी पूजा का आशीर्वाद सामूहिकता को प्रदान किया।

 उन्होंने सिडनी विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन-विभाग को सम्बोधित किया। दो जन-सभाएं हिलटन होटल में आयोजित की गयीं, जहाँ आठ सौ पचास से ज्यादा साधकों को आत्मसाक्षात्कार मिला।

 अट्ठारह मार्च को होली पर्व के शुभ अवसर पर श्री माताजी ने प्यार से दो सौ बच्चों के लिए भोजन तैयार किया। उन्होंने प्रातः छह बजे से प्रारम्भ कर, छह घंटों की रसोई पकाने के बाद लज्जतदार अति स्वादिष्ट भोजन प्रस्तुत किया। हरेक सहजी को आनंदित करते हुए, दूसरी बार परोसने (IInd serving), भोजन लेने हेतु आग्रह किया।

 कैनबरा कार्यक्रमों में, उन्हें राजनयिक-लोगों की चैतन्य-लहरियां, उनकी पिछली कैनबरा यात्रा की तुलना में बेहतर लगीं, किन्तु फिर भी उस सामूहिकता में बहुत ज्यादा अहंकार था। अपनी पिछली कैनबरा यात्रा में स्वाधिष्ठान-चक्र की बाधाओं (catches) की वजह से वे बमुश्किल पैदल चल सकीं थीं।

 कार्यक्रमानुसार मंगलवार का दिन आराम का दिन था, किन्तु उन्होंने लगभग पूरा दिन सामूहिकता की समस्याएं हल करते हुए बिताया। उन्होंने हरेक योगी को दैनन्दिनी (daily diary) रखने और रोज़ाना लिखने की सलाह दी, “मैं सहजयोग के लिए क्या करने जा रहा हूँ और आज मेरे उत्थान के लिए क्या करने जा रहा हूँ।”

 श्री माताजी ने अपने सिडनी एयरपोर्ट पर आगमन पर, वीडियो कार्यकर्ता से अपने कैमरों को, यन्त्र-चालित सीढ़ियों (एस्कलेटर) से नीचे उतरती हुई सुन्दर देवांगनाओं की धारा को कैद करने (to record) के लिए चालू करने को कहा, जो उन्हें पुष्पार्पण करने को अवतरित हो रहीं थीं।

 श्रीमाताजी ने सामूहिकता से विस्तार पूर्वक बात की, “सहजयोग और कुण्डलिनी चेतना निर्विचार समाधि की एक स्थिति है, जो निर्विकल्प समाधि की ओर अग्रसर होती है। जब हम दूसरों की मदद करना प्रारम्भ करते हैं, हम सहज ही इस स्थिति को छूने लगते हैं। इस स्थिति में हम अति शक्तिदायक,शक्ति संपन्न और कारुण्यमय हो जाते हैं। हम निर्लिप्त रहते हुए हरेक चीज़ को साक्षी भाव से देखते हैं। सृष्टि का आनंद हमारे अंदर अवतरित होगा और हम पूरी मानवता का कल्याण प्राप्त कर लेंगे।”

 इक्कीस मार्च को श्री माताजी की जन्म-दिवस-पूजा कर्जन (curzon) हॉल में मनाया गया- जो एक महान शास्त्रीय ‘मनोर-हाउस’ जिसकी शिल्प कला से सामूहिक उल्लास (आनंद) प्रतिबिंबित होता है। कार्यक्रम का मंच एक अति उत्तम कमल, जिसे लकड़ी, रंगीन रेशमी और शिफॉन (महीन पारदर्शक वस्त्र) से ढँक कर सज्जित किया गया था, इस कमल के मध्य में एक सुन्दर पुष्प-सजावट (flower decoration) की गई थी।”

 श्री माताजी ने कहा, “जब ह्रदय खुला हो, आप ह्रदय के चमत्कार देखते हो। कैसे ह्रदय चैतन्य -लहरियों को उत्सर्जित करता है, जिससे आप करुणामय, प्रगतिशील, सौन्दर्यमय और सहज-योग के प्रति वफादार हो जाते हैं।”

 श्री माताजी ने योगियों को याद दिलाई कि यह ज़ुबान कटु वचन बोलने के लिए नहीं है, दूसरों का मजाक बनाने के लिए नहीं है, या दूसरों की नक़ल करने/चिढ़ाने के लिए नहीं है, किन्तु सुन्दर, आनंदित करने वाले मधुर वचन के लिए है, ताकि दूसरा व्यक्ति (सामने वाला) भी इस वाणी के सौंदर्य का पान कर सके।

 श्री माताजी के बच्चों के दिल प्रसन्नता से उछल पड़े! हरेक योगी ने उन्हें अपने ह्रदय में महसूस किया और माँ के विशाल वात्सल्य-मय ह्रदय में हरेक ह्रदय प्रतिबिंबित हो उठा।

1990

अध्याय40

 चौबीस मार्च को मुंबई ने भी श्री माताजी का जन्म-दिवस मनाया। ऑस्ट्रेलिया से लम्बी यात्रा के बावजूद श्री माताजी पर यात्रा की थकान का किंचित मात्र भी असर नहीं था। यद्यपि पूजा से पूर्व उन्हें आराम लेने का समय नहीं था, उनके बच्चों के प्यार ने जादुई करिश्मा किया! उनका मुख मंडल प्रातः कालीन सूर्य की तरह दमक रहा था। उनके थके हुए शरीर पर उनके बच्चों का प्यार एक मरहम की तरह था। अपने बच्चों के प्यार के मरहम से वे महीनों की अनवरत यात्रा और मुश्किलों को सहन कर सकीं थीं। किन्तु प्यार के बिना, उनका शरीर कष्ट उठाता था।

 यद्यपि सामूहिकता उन्हें बहुत प्यार करती थी, जिस तरह का कार्य मुंबई में होना चाहिए था, नहीं हो पाया था। अपने जन्म-दिवस पर वे इस बात को नहीं उठाना चाहतीं थीं। बीस वर्षों से उन्होंने मुंबई में इतना कठिन कार्य किया, किन्तु योगीजन वहां पर सहज-योग की गहराई में नहीं बढ़ पाए, जैसे उन्हें बढ़ना चाहिए था। उनकी छोटी-छोटी व्यर्थ की बातों पर झगड़ने से सहज-कार्य में बाधाएं आयीं, वे लक्ष्य से भटकते हुए प्रतीत हुए। वे भौतिक-स्तर (बौद्धिक-स्तर) पर व्यवस्थाएं संगठित करते थे और आतंरिक रूप से परिवर्तित नहीं हो पाए थे।

 उन्होंने ईस्टर्न ब्लॉक (पूर्वी यूरोपीय खंड) में सहजयोगियों की गहनता का उदाहरण देते हुए कहा, जहाँ उन्हें आत्मसाक्षात्कार मिलने मात्र से, दोनों जर्मनी के बीच की बर्लिन-दीवार तोड़ दी गयी थी। “परम-चैतन्य को अपने पवित्र कार्य के लिए ऐसी गहनता प्राप्त साधकों की जरुरत है। एक दूसरे से घृणा करना महापाप है।”

 श्री माताजी ने उन्हें उम्र में बढ़ने के साथ परिपक्वता प्राप्त करने को कहा,-“सब झगड़ों को एक तरफ छोड़ें और एक विनम्र सौगंध लें। ओह माँ! इस वर्ष हम एक सौ लोगों को जागृत करेंगे।”

 सहजयोगी अपनी माँ के वचनों में छिपी वेदना को नहीं सहन कर सके और अपने कान पकड़ कर उन्होंने सौगंध ली।

 शाम को श्री माता जी ने बधाई समारोह में सहजयोगियों को स्मरण कराया, उस महान उत्तरदायित्व (जिम्मेदारी) का जो उन्हें सौंपी गयी थी, उनका जन्म उस समय हुआ, जब उन्हें पूरी मानवता को परिवर्तित करने की ऐसी महान घटना में भाग लेना है। “हमारी आध्यात्मिक गहनता का व्यक्तित्व नए परिवर्तन की शुरुआत करने जा रहा है, जिससे मनुष्य जान पायेंगे कि वे परमात्मा के साम्राज्य में हैं। यह एक बहुत बड़ा कार्य है- जो हमें करना है। यह उच्चतम प्रकार का विकास है। हमें इस बदलाव और परिवर्तन को जन्म देना है।”

 श्री माताजी को अगले दिन दिल्ली के लिए रवाना होना था, किन्तु जयपुर के महाराजा भवानी सिंह की प्रार्थना थी, विनम्र विनती करते हुए कि वे जयपुर को आशीर्वाद प्रदान करें। राजपूत समुदाय अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करने को बहुत आतुर था। श्री माता जी ने दिल्ली के रास्ते से जयपुर (via Jaipur to Delhi) में रुकने की कृपा करके अनुमति प्रदान कर दी।

 महाराजा भवानी सिंह अति प्रसन्न थे और श्री माता जी का परम्परागत सम्मान के साथ अपने महल में स्वागत किया। राजपूत समुदाय श्री माताजी का आशीर्वाद प्राप्त करने एकत्रित हुआ। महाराजा की पुत्री राजकुमारी दिव्या जो एक आत्मसाक्षात्कारी थी, उन्हें तुरंत चैतन्य की ठंडी लहरियां महसूस हुईं।

 राजमहल के एक कर्मचारी को गले में ट्यूमर (गांठ) थी। श्री माताजी ने अपना हाथ उस पर रखा और वह कम हो गयी। महाराजा और महारानी दोनों आश्चर्य-चकित थे, वे श्री माताजी के चरणों में गिर गए, राजकुमारी दिव्या की आँखों में आंसू थे।

 दूसरे दिन गणगौर का त्यौहार था। महारानी ने श्री माताजी से उनकी गणगौरी स्वरुप पूजा की अनुमति मांगी। श्री माताजी ने बताया कि पुरातन परम्परागत गणगौरी की मूर्ति की पूजा (राजस्थान में) वास्तव में श्री गणेश और गौरी माता का पूजन ही थी।

 महारानी ने श्री माता जी का श्रृंगार एक परंपरागत राजस्थानी जीवंत रंगों से सुसज्जित घाघरा द्वारा किया। राजपूत महिलाओं ने फूलों और आरती से उनकी पूजा की। उसके बाद, श्री माताजी ने महाराजा के निजी मंदिर में स्थापित गणगौर की मूर्ति को चैतन्यित किया। जहाँ राजपरिवार के अलावा किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी।

 श्री माताजी के सम्मान में, राजस्थानी नज़ाकत भरे उत्तम पकवानों का एक बड़ा भोज रखा गया। महाराजा और महारानी श्री माताजी की थाली में पकवान परोसते रहे। श्री माता जी ने उन्हें संकोचपूर्वक बताया कि वे बहुत कम खाती हैं और अपनी थाली में परोसे गए ढेर सारे पकवानों को प्रसाद के लिए आशीर्वादित किया।

 शाम को प्रसिद्ध गोविन्द जी के मंदिर में आयोजित जन-कार्यक्रम हेतु महाराजा स्वयं श्री माताजी को लेकर पधारे।

 श्री माता जी ने राजपूतों के परंपरागत-मूल्यों की सराहना की, जिन्होंने अपनी मर्यादाएं कायम रखीं और इस तरह से अपने चक्रों को संरक्षित रखा। माँ दुर्गा के भक्त होने के नाते उनकी कुण्डलिनियों ने श्री माता जी को आसानी से पहचान लिया था।

 महाराजा सहजयोग की तकनीक जल्दी सीख गए थे। दो जन-कार्यक्रम के बाद, वे अपनी समस्याओं को बंधन देने लगे थे और उन्हें श्री माताजी के पवित्र-चित्त में समर्पित कर रहे थे।

 श्री माता जी ने राजपरिवार को इस जीवंत मेहमान नवाज़ी के लिए धन्यवाद दिया। महाराजा ने अपने महलों में से एक महल सहज-योग केंद्र के लिए दिया। श्री माता जी ने नम्रता पूर्वक मना करते हुए कहा कि सहजयोग केंद्र सामान्य जनों की पहुँच के नज़दीक रखना बेहतर होगा।

1990

अध्याय-41

 दिल्ली ने श्री माता जी का उनके जन्म-दिवस समारोह के लिए सहृदय चमकती आँखों में प्यार से स्वागत किया।

 श्री माता जी ने सन 1990 को आशीर्वादित किया, जहाँ सहजयोगियों के लिए एक नया आयाम खुलेगा, एक ऊंचाई प्राप्त करने, परिस्थितियों से बाहर आने और नयी चीज़ को समझने हेतु एक नया आयाम खुलेगा। उन्होंने जिक्र किया कि उनके जन्म-दिवस के साथ सहजयोगियों का भी जन्म-दिवस मनाया जाना चाहिए, ताकि वे अपना सम्बन्ध (एकाकारिता) को समझ सकें और अपने जीवन को श्री गणेश की तरह पवित्रता और शुचिता से भर सकें। इस प्रकार उन्हें दृढ़ता पूर्वक स्थापित हो जाना चाहिए और पावित्र्य को अंगीकार कर के स्वयं को परिवर्तित करना चाहिये।

 उनके हरेक बच्चे ने उनसे अपने अंदर श्री गणेश की पवित्रता को स्थापित करने की प्रार्थना की। उन्होंने प्रार्थनाओं का उत्तर दिया और सामूहिकता के चक्रों को शुद्ध करने हेतु एक ठंडी हवा का झोंका उठा। पंडाल की छत भी ठंडी हवा के साथ झूमने लगी, हालाँकि वहां बाहरी हवा का कोई प्रवाह नहीं था।

 अगले सप्ताह, श्री माता जी करनाल और यमुनानगर के लिए रवाना हुईं। करनाल नहर की स्वच्छता का आनंद लेते हुए, श्री माता जी ने जिक्र किया कि करनाल का नामकरण महाभारत कालीन महान योद्धा दानवीर कर्ण के नाम पर किया गया, जो यहाँ कुरुक्षेत्र-युद्ध के दौरान रुका था।

 सहज-योग जन कार्यक्रम हरियाणा के सभी ओर से आए किसानों से लबालब भर गए थे। ये सामान्य लोग थे और सहज ही अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हो गए। एक मूक व बधिर (बहरा) लड़का श्री माता जी का आशीर्वाद लेने आया और जैसे ही श्री माता जी ने उसका विशुद्धि चक्र खोला, उसकी वाणी और श्रवण-शक्ति (सुनने की शक्ति) वापस आ चुकी थी।

 इस चमत्कार की खबर जंगली-आग की तरह फैली कि दूसरे दिन कार्यक्रम में इतनी भीड़ उमड़ी कि भगदड़ मचने को थी। भीड़ तब शांत हुई, जब श्री माता जी ने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि बिना आत्मसाक्षात्कार दिए वे नहीं जाएँगी।

 यह एक अविश्वसनीय क्षण था, जब हाथों का समुद्री ज्वार ऊपर उठा! श्री माता जी की आँखों की चमक में परम चैतन्य आनंद से उल्लसित हो उठा।

 इसी प्रकार की आनंद के उल्लसित होने की घटना रामलीला मैदान (दिल्ली) के जन-कार्यक्रम में अनुभव हुई, जितने ज्यादा सहज-साधकों की संख्या होती, परम-चैतन्य उतना ही जीवंत होता। अमृत की धाराएं श्री माताजी से प्रवाहित हुईं और सामूहिकता ने अपनी जिह्वा से बूँद-बूँद टपकते हुए इस अमृत का आस्वादन किया।

 परम-चैतन्य कार्य करने पर तुल गया। गृह-मंत्री जी ने श्री माताजी को अंध-श्रद्धा-निर्मूलन समूह द्वारा सहज-कार्यक्रम में पत्थर फेंकने की घटना पर बातचीत के लिए आमंत्रित किया। जैसे ही श्री माताजी ने मंत्रीजी के निवास पर प्रवेश किया, अनायास एक व्यक्ति श्री माताजी के पैरों में गिर पड़ा। वह व्यक्ति दूरदर्शन का कर्मचारी परांजपे था- जो कि इस पत्थर-फेंकने वाले मामले में सही दोषी ठहराया गया था, जो एक सह-अपराधी था। उसने श्री माता जी से विनय-पूर्वक क्षमा की भीख मांगी। उसने श्री माताजी से कहा- उसे डॉक्टर दाभोलकर द्वारा दिग्भ्रमित किया गया था और उसे श्री माताजी के प्रति उच्चतम सम्मान है। श्री माताजी ने उसे तुरंत क्षमा दान दे दिया।

 सात अप्रैल को श्री माता जी और सर सी. पी. श्रीवास्तव की शादी की वर्षगाँठ मनाई गई। सर सी. पी. ने प्यार से कहा, “जब माँ का प्यार निस्संदेह महान होता है, मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि पिता का प्यार भी कम नहीं होता है।”

9 अप्रैल को श्री माताजी ने कोलकाता को श्री आदिशक्ति पूजा से आशीर्वादित किया। उन्होंने कहा कि यह आदिशक्ति के लिए आवश्यक था, उनका स्वयं अवतरित होकर परमात्मा के दर्शन आत्मा के रूप में मानव-जाति को प्रदान करना। यह कार्य श्री माताजी के साहस के साथ शुरू हुआ और बहुत सुन्दर तरीके से कार्यान्वित हो रहा है। उनके महामाया स्वरुप में अवतरित होने से यह सब संभव हो पाया। यह श्री माताजी के लिए आवश्यक था कि वे महामाया के सौम्य-स्वरुप में रहें, ताकि साधक ईश्वरीय चेतना के बोध को प्राप्त कर सकें।

 कोलकाता में एक संगीत कला प्रदर्शन के दौरान देबू चौधरी की अंगुली से खून बहना शुरू हो गया। श्री माताजी ने उसे चैतन्य द्वारा ठीक कर दिया। वे श्री माताजी से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने सहज ही एक नया राग ‘स्वानन्देश्वरी’ का सृजन किया।

 बाद में, उन्होंने स्वीकार किया कि वे नहीं जान पाए, कि वे क्या बजा रहे थे, किन्तु वे भक्ति के आनंद की विभोरता में खो गए थे- सुरीली स्वर लहरी श्री माता जी से बहती रहीं। श्री माताजी प्रसन्न थीं और अपने भाई बाबा मामा को नागपुर में संगीत अकादमी खोलने की सलाह दी।

 एक सहजयोगिनी श्रीमती तलवार को श्री माताजी के आदिशक्ति होने पर संदेह हो गया। उन्होंने उनसे अपने ह्रदय में प्रार्थना की-

“माँ, कृपया, मेरे विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए मुझे एक चमत्कार बताइये।”

 जब श्री माताजी हिमांशु शाह के ‘पारिवारिक आवास’ में भोजन ग्रहण कर रहीं थीं। श्रीमती तलवार ने एक फोटो खींचा। उस फोटो में श्री माताजी के पीछे ‘पूर्ण-चन्द्रमा’ दिखाई दिया। श्रीमती तलवार के चेहरे पर आंसू छलक पड़े और वे उनके चरणों में लोट गईं।

1990

अध्याय42

 एक लम्बे और कड़े शीतकाल के बाद परम-चैतन्य ने बसंत के मौसम (बहार) का मार्गदर्शन किया। ईस्टर पूजा ईस्ट बोर्न, इंग्लैंड बाईस (22) अप्रैल को श्री माताजी ने योगियों को याद दिलाया कि परम-चैतन्य तभी कार्यान्वित होगा, जब योगी ऐसा चाहेंगे- परम-चैतन्य शक्ति थीं और योगीजन उनके यन्त्र थे। केवल निपुणता पा कर ही वे इस शक्ति से जुड़ सकते थे। सहजयोग में सामान्यता (साधारणता) के लिए जगह नहीं थी।

 श्री माताजी ने छह (6) मई को रोम में सहस्त्रार पूजा पर इसी विषय पर आगे चर्चा की। यद्यपि वे पिछले इक्कीस (21) वर्षों से सहज-योग के विकास पर संतुष्ट थीं। वे इतने वर्षों इसी दिन के इंतज़ार में थीं, जब उनके बच्चे समझ जायेंगे कि वे स्वयं के स्वार्थ के लिए सहज-योगी नहीं बनाए गए- बल्कि पूरे विश्व के लिए सहज योगी बनाए गए थे। वे इस नए परिवर्तन से खुश थीं, कि सहज-योगी अपने अन्तर्निहित जाग्रत-शक्ति से बेखबर नहीं थे।

सामूहिक प्रगतिशील शक्तियाँ रूस में पहले से ही कार्यान्वित थीं। श्री माताजी ने मास्को को पिछले छह महीनों में चौथी बार आशीर्वाद दिया था। बारह (12) मई को जब वे मास्को हवाई अड्डे पर उतरीं, उनके पासपोर्ट से VISA गायब था! श्री माताजी ने आप्रवासन-अधिकारी (इमीग्रेशन-ऑफिसर) की ओर मधुर मुस्कान दी, उसने उनकी ओर देखा और बिना कुछ प्रश्न किए, उनके पासपोर्ट पर मुहर लगा दी। उन्होंने रूसी सहजयोगियों को अविश्वास में मुंह फाड़ कर देखते हुए पकड़ा और अपनी आँखों में एक झिलमिलाहट के साथ चतुर स्वीकृति दी, “परम-चैतन्य सभी छोटी से छोटी जानकारी को देखते हैं और चमत्कार द्वारा आपको जताते हैं कि वे सर्वत्र हैं।”

 राष्ट्रीय टेलीविज़न ने श्री माताजी की आँखों की चिंगारी (टिमटिमाती चमक) को टेलीविज़न नेटवर्क पर प्रसारित किया। इस निश्छल चमक ने रुसी लोगों के हृदयों से बात की और वे कार्यक्रम के टिकट हेतु दौड़ पड़े। वहां सहजयोग कार्यक्रम के टिकट्स की इतनी मांग थी कि कार्यक्रम की जगह को फुटबॉल स्टेडियम (दस हज़ार दर्शक की क्षमता) में स्थानांतरित करना पड़ा। तब भी, हज़ारों साधक फुटबॉल स्टेडियम के मैदान में एड़ियों के बल झुकते हुए ज़मीन पर बैठे रहे।

 श्री माताजी ने उनकी आत्माओं को सुकून दिया, वे निर्मल संगीत सरिता के संगीत से प्रसन्न हुए। श्री माताजी के दर्शनों के लिए एक लम्बी ‘Q’ में पंक्तिबद्ध साधक प्रतीक्षा-रत खड़े थे। श्री माताजी मध्य रात्रि तक अपने आखिरी बच्चे (साधक) को सुखमय बनाने के लिए प्रतीक्षा में रहीं। स्टेडियम का बुकिंग समय (timings) समाप्त हो गया था और अधिकारियों ने लाइट्स बंद कर दी थी, किन्तु उनके नवजात बच्चे अपनी माँ के प्यार से अलग नहीं हो पा रहे थे, जब तक कि श्री माताजी ने उन्हें आश्वस्त नहीं किया कि वे जून में वापस आयेंगी। कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया ने उन्हें सम्मान दिया। श्री माताजी ने अपना रोष रूस में गरीबी और खाद्य की कमी पर व्यक्त किया। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख को आर्थिक-संकट से उबरने के लिए कुछ अनमोल सलाह दी।

 स्वास्थ्य मंत्रालय मेडिको-बायोलॉजिकल समस्याओं के लिए एक सहजयोग केंद्र चला रहा था। स्वास्थ्य मंत्रालय ने श्री माताजी को पूरे सोवियत-यूनियन से तीन सौ डॉक्टरों के एक विशेष सम्मेलन को सम्बोधित करने हेतु आमंत्रित किया। श्री माताजी ने लीवर, स्प्लीन और आंतों की बीमारी के कारणों को स्पष्टतया प्रकट किया और सहजयोग उपचार का निर्धारण किया। डॉक्टर्स उनके ज्ञान की गहरायी से मंत्र मुग्ध हो गए। डॉक्टरों की ज्ञान पिपासा ने उन्हें सहजयोग केंद्रों की ओर प्रैक्टिकल-ट्रेनिंग (व्यावहारिक प्रशिक्षण) के लिए मार्ग-दर्शन किया। श्री माताजी ने उनके वैचारिक-खुलेपन और सत्य को स्वीकार करने की सुबुद्धि की प्रशंसा की। इस सत्य के बावजूद कि यह बुद्धि ही उनकी सहज ट्रेनिंग की विरोधी थी। शिक्षा-मंत्रालय ने भी श्री माताजी को सकारात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की, जिन स्कूलों- में सहजयोग प्रवेश पा चुका था।

 उन्होंने चौदह (14) मई को श्री बुद्ध-पूजा के अवसर पर रुसी लोगों का आज्ञा चक्र खोला। उन्होंने बताया कि रूस विश्व का आज्ञा-चक्र था और चीन पृष्ठ आज्ञा-चक्र (back Agnya) था। आज्ञा के स्तर पर विचार नहीं थे, और इसीलिए सभी में सोचने के दृष्टिकोण से कोई मतान्तर नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि एक विशाल ह्रदय अच्छे आज्ञा चक्र के लिए जरुरी था और सभी को आज्ञा का मन्त्र ‘हं क्षं’ दुहराने को कहा।

 श्री माताजी बहुत प्रसन्न हुईं कि उनके बच्चों ने पूजा के चैतन्य को अवशोषित किया था। जब उनके चैतन्य अवशोषित नहीं हो पाते, उनके पाँव सूज जाते, किन्तु इस पूजा के बाद किसी प्रकार की सूजन नहीं थी। उन्होंने अपने बच्चों पर सौगातों की बौछार कर दी थी, महिलाओं के लिए रंगीन साड़ियां,पुरुषों के लिए कुर्ते, रत्न आभूषण और छोटी बच्चियों के लिए कंघियाँ और बच्चों हेतु खिलौने थे। बच्चे आनंद विभोर थे और उन्होंने नव-रचित रुसी-भजनों पर नृत्य किया।

 सहजी बच्चों ने श्री माताजी के रुसी प्रवास की अवधि को विस्तारित (extend) करने हेतु प्रार्थना की और उनकी आगामी अमेरिकी-यात्रा को रद्द करने की सलाह दी, किन्तु योगेश्वर (श्री कृष्ण) की भूमि के पास इस संकट काल (असमंजस) की कुंजी थी, जहाँ इतिहास रचने वाला था। श्री माताजी ने कल्पना की कि काश वे श्री योगेश्वर की शक्ति का उपयोग करना सीख पाते, वे पूरी मानवता का बहुत सा भला कर सकते थे।

1990

अध्याय43

 अट्ठाईस मई को श्री माताजी ने सेन-डिएगो को श्री योगेश्वर पूजा से आशीर्वादित किया। उनके माधुर्य ने अमेरिका का हंसा-चक्र खोला और नवागत सहजी बच्चों को विवेकशीलता का आशीष प्रदान किया। उन्होंने ज़ाहिर किया कि जर्मनी में हंसा-चक्र पूजा से जर्मन लोगों का विवेक विकसित हुआ और उन्होंने अपनी पिछली भूलों के लिए प्रायश्चित किया। जर्मन सबसे पहले थे, जिन्होंने रूस जाकर रूस-वासियों को आत्मसाक्षात्कार दिया। इसके अतिरिक्त बर्लिन की दीवार तोड़ने के बाद उन्होंने पूर्वी-जर्मन के लोगों को अपने भाइयों की भांति गले लगाया।

 श्री माताजी ने अमेरिका में सहजयोग को प्रसारित करने के लिए सहजयोगियों की गहराई की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और उदाहरण देते हुए कहा कि एक हंगेरियन सहजयोगी की गहराई कैसे उसके देश को स्वतंत्रता दिलाने में पर्याप्त हुई।

 देर से अपरान्ह में, श्री माताजी ने अपने कक्ष से आकाश की ओर दृष्टि-पात करते हुए उसकी गहराई पर टिप्पणी की। एक अमेरिकी सहजयोगी ने बताया,केलिफोर्निया में सूखा पड़ा था। श्री माताजी आश्चर्य में दिखाई दीं, क्योंकि प्रायः बारिश उनका स्वागत करती थी। बातचीत का प्रवाह मियामी में दो और तीन जून को होने वाले कार्यक्रम की व्यवस्था की ओर चला गया। श्री माताजी ने तब अपनी कुर्सी दोपहर बाद की हवा का मज़ा लेने हेतु बालकनी में ज़माने के लिए कहा। जब उन्होंने गली के पार स्थित एक मकान की छत की टाइल्स के संयोजन को सराहा, हवा उनके इर्द गिर्द धीरे से ऊपर उठने लगी। धीरे धीरे उनके सिर पर आकाश में बादल इकट्ठे होने लगे और पूरी प्रकृति श्री माताजी के चित्त द्वारा उत्तेजित होने लगी। दो दिनों तक लगातार बारिश होती रही और बर्फ़बारी भी हुई।

 प्रकृति ने उनके हल्के-से-हल्के हाव-भाव की अभिव्यक्ति का अनुसरण किया। यद्यपि वे किसी चीज़ की इच्छा नहीं करतीं, किन्तु सामूहिकता की इच्छा उनके चित्त में आ गई।

 चार जून को सहजयोग मेडीटेशन सोसाइटी को एक ‘आधिकारिक तौर पर प्रायोजित’ यूनाइटेड नेशंस सोसाइटी से मान्यता प्रदान की गई। छह जून को श्री माताजी ने कुण्डलिनी जागरण के द्वारा यूनाइटेड नेशंस (UNO) के सामूहिक सिद्धांत को सामूहिकता में लाने की आवश्यकता पर सम्बोधित किया। करीब पचास यूनाइटेड नेशंस के अधिकारियों ने अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। उनमें से एक मेक्सिको देश के राजनयिक थे, जिन्होंने मेक्सिको में सहजयोग का परिचय कराया।

 अगले दिन, श्री माताजी ने विश्व प्रसिद्ध अपोलो थियेटर को लॉयड स्ट्रेहॉर्न के साथ एक जीवंत रेडियो साक्षात्कार के लिए अनुग्रहित किया। श्री माताजी के वात्सल्य और समझदारी ने कई साधकों के हृदय को द्रवित कर दिया। मेज़बानों ने उन्हें अत्यंत धन्यवाद दिया और उन्हें भविष्य में पधारने के लिए ‘कार्ते ब्लांचे’ आमंत्रण दिया।

 शाम को कार्यक्रम में, न्यूयॉर्क शहर के मध्य से आए गोरे (श्वेत), चीनी, इंडियन और लेटिन (प्राचीन रोमवासी) समुदायों से आए चार सौ से अधिक साधकों ने अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया।

 न्यूयॉर्क शहर से विदा होने से पूर्व, उन्होंने अपने बच्चों को आने वाले नए साधकों को प्यार, दयालुता और सतर्कता से पोषित करने हेतु स्मरण कराया। यह समय उनके नए साधकों के पालन- पोषण हेतु देना था। 

1990

अध्याय44

 जून में श्री माताजी का चित्त स्पेन की ओर गया। यद्यपि उन्होंने स्पेन का पोषण चौदह वर्षों तक किया, सहजयोग वहां नहीं विकसित हो पाया, जैसा कि शेष यूरोप में हुआ। एक बार पुनः परम-चैतन्य ने हस्तक्षेप किया और स्पेन की महारानी ने श्री माता जी को एक आमंत्रण भेजा। चौदह जून को दोपहर भोज पर महारानी ने शिकायत की कि एक झूठा गुरु चौदह वर्षों से स्पेनिश लोगों को मंत्र -मुग्ध कर रहा था। शाम के कार्यक्रम में, होटल वेलाज़-क्वेज़ पर श्री माताजी ने पासा पलट दिया और ऐसे मंत्र-मूर्छित साधकों को बचा लिया।

 परम-चैतन्य को श्री महावीर पूजा के लिए एक आदर्श स्थान बार्सेलोना के उत्तर में पहाड़ों पर मिल गया। श्री महावीर ने नर्क का वर्णन लोगों को स्पष्टतया किया था, उन्हें चेतावनी देते हुए कि वे अनैतिक कार्य न करें। उन्होंने स्पष्ट बताया कि वे नर्क के बारे में बात नहीं करना चाहतीं थीं, बल्कि उन्हें पहले आत्मसाक्षात्कार देना चाहतीं थीं। इस तरह, कुण्डलिनी के प्रकाश में वे आगे बढ़ पाएंगे और समझदार बन सकेंगे।

 पूजा के दौरान उन्होंने स्पेन की इड़ा नाड़ी साफ़ कर दी जो वास्तविक साधकों को कार्यक्रम में लायी। उन्होंने कहा कि स्पेन की मुख्य समस्या, औरतों का पतियों पर रौब जमाना थी। औरतों को अपना गृह-लक्ष्मी सिद्धांत- विकसित करना और अपने पतियों पर शासन बंद करना चाहिए। श्री माताजी ने उनके लक्ष्मी सिद्धांत को उपहारों द्वारा आशीर्वादित किया, और पूरे देश में सब जगह छिड़कने (spraying) के लिए पानी को चैतन्यित किया।

 अगले दिन वे सहज कार्यक्रम हेतु विएना (ऑस्ट्रिया) के लिए रवाना हुईं। नए साधकों पर उन्होंने सूर्योदय होने के पूर्व तक (रातभर) घंटों कार्य किया। उन्होंने महसूस किया कि सत्य के साधकों को बचाया जाय और ऑस्ट्रिया को उन्नीस (19) जून को कुण्डलिनी-पूजा से आशीर्वादित किया। श्री माताजी के वात्सल्य के सागर ने साधकों को कार्यक्रम हेतु आकृष्ट किया और उनकी ज्ञान-पिपासा को शांत किया।

 सुबह वे एथेंस के लिए रवाना हुईं और ग्रीस-वासियों के नाभि-चक्र को श्री महालक्ष्मी पूजा पर जागृत किया। उन्होंने सहज-कार्यक्रम में भी उनके नाभि-चक्र पर कार्य करना चालू रखा, किन्तु उनके संस्कारों ने बहुत मज़बूती से बांधा हुआ था। उन्होंने उन्हें कहा कि उन्हें दुबारा (ग्रीस) आना पड़ेगा।

1990

अध्याय-45

 अट्ठाईस (28) जून को श्री माताजी ने मॉस्को मेडिकल कॉन्फ्रेंस में अपने जीवंत-विज्ञान (Meta Science) से मेडिकल साइंस की सरहदें खोल दीं। उन्होंने सामान्य बीमारियों के कारणों को उजागर किया और उनके सहज उपचारों को ज़ाहिर किया, जो कि विज्ञान की सीमा से परे थे। उनके मेटा-साइंस की संभावनाएं रूसी डॉक्टर्स पर व्यर्थ नहीं गईं और उन्होंने गंभीरता से उसके मोती इकठ्ठे करने हेतु डुबकी लगायी। एक वैज्ञानिक ने श्री चक्र पर रिसर्च (शोध-कार्य) प्रारम्भ किया। उसने चैतन्य -लहरियों को मापने के लिए एक यन्त्र का आविष्कार किया और वैज्ञानिक-रूप से सिद्ध कर दिया कि श्री माताजी ही इन चैतन्य-लहरियों की स्रोत थीं।

 मॉस्को और सेंट-पीटर्सबर्ग में सहज-योग को आए एक युग हो गया था। सहज योगियों की संख्या कई गुना बढ़ गई थी। सेंट-पीटर्सबर्ग कार्यक्रम में जैसे ही श्री माताजी कार्यक्रम से जाने के लिए उठीं, साधकों की भीड़ उनकी ओर उमड़ पड़ी। एक पुलिस का जवान जिसने भीड़ को रोकने की कोशिश की,वह असफल रहा। वह क्रोधित हो आपे से बाहर हो कर चिल्लाने लगा। अनायास, उसका सामना श्री माताजी से हुआ और उसका चेहरा शांत हो गया। उसके हाथ ऊपर उठ गए और वह हंसने लगा। श्री माताजी मुस्कराईं, “उसे आत्मसाक्षात्कार मिल गया है।”

 कीव (kiev) के प्रेस-सम्मेलन में श्री माताजी ने घोषणा की कि वे आदिशक्ति (Holy ghost) थीं। जनाधार कल्पना से परे था। वे उनके प्यार का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते थे और उन्होंने एक दिन की छुट्टी ले ली। वे कार्यक्रम के टिकट खरीदने हेतु दौड़े चले आए और कार्यक्रम हॉल में श्री माताजी के चैतन्य को अवशोषित करने के लिए निर्दिष्ट समय से घंटों पूर्व एकत्रित हो गए थे। श्री माताजी के साथ उनका इतना प्रगाढ़-सम्बन्ध(एकनिष्ठता) था कि श्री माताजी को उनकी कुण्डलिनियाँ उठाने कि जरुरत नहीं पड़ी।

 सामूहिकता ने श्री माताजी को एक मुद्रिका (अंगूठी) भेंट की। श्री माताजी इतनी अभिभूत हो उठीं, “इतने कठिन दौर में तुम्हें मुझे इतनी महंगी भेंट नहीं देनी चाहिए थी।”

 उन्होंने उत्तर दिया, “क्योंकि हम लोग इतने गरीब हैं, हमें कुछ तो महंगी वस्तु भेंट करनी चाहिए।” जैसे ही श्री माताजी ने उन्हें अपने ह्रदय से आशीर्वाद दिया, उनके गालों से आंसुओं की बूँदें लुढ़क पड़ीं।

अगला कार्यक्रम निर्धारित था- सोची (Sochi) के लिए। एयरपोर्ट पहुँचने पर अधिकारियों ने कहा कि श्री माताजी को सोची के लिए वीज़ा (VISA)चाहिए था। किसी को भी नहीं मालूम था कि हरेक शहर के लिए अलग से एक वीज़ा चाहिए था। अपरोक्ष रूप से यह एक वरदान सिद्ध हुआ, श्री माताजी को रास्टेरजेवा (Rastergeova) गांव में, मास्को से बाहर, आश्रम के लिए एक कुटिया (dacha) मिल गई।

 श्री माताजी रूस की नाभि को आशीर्वाद देना चाहतीं थीं और अपनी बचत में से (from her savings ) कुटिया (डाचा) के लिए पैसे दे दिए। यह डाचा एक पुरानी लकड़ी से बनी कुटीर थी, जिसमें एक बड़ा बगीचा था। पिछले मालिक ने उसका उपयोग (WeekEnd Resort) सप्ताहांत मौज मजे के लिए फूल और सब्ज़ियां उगाने हेतु किया था। विशाल फार्म-हाउस की धारणा उस समय लगभग नहीं के बराबर थी, केवल छोटी कुटियाएं (डाचा) कुछ लोगों द्वारा बनाई गईं थीं, जिसका खर्चा वे उठा सके थे। सहजयोगियों को काम (श्रमदान) करना पड़ा, और श्री माताजी की कृपा से डाचा एक सुन्दर सहज-आश्रम में परिवर्तित हो गया।

 भारतीय संगीतकार मॉस्को से मिलान के लिए ट्रेन से रात में रवाना हुए। जब रेलगाड़ी हंगेरी की सीमा पर पहुंची, उन्हें ट्रेन से उतार दिया गया, क्योंकि उनके पास हंगेरियन-वीज़ा नहीं थे। वे रेलवे-प्लेटफॉर्म पर बैठे रहे, मालूम नहीं क्या करें, उनके पास पैसे भी नहीं थे और न ही वे वहां की स्थानीय भाषा जानते थे। उन्होंने एक बंधन दिया और सब कुछ श्री माताजी के चरण-कमलों पर समर्पित कर दिया।

 इमीग्रेशन अधिकारियों ने उनसे प्रश्न पूछने शुरू किए। इसी पूछ-ताछ के दौरान संगीतकारों ने उनको आत्मसाक्षात्कार दिया। तभी एक चमत्कार घटित हुआ। इमीग्रेशन (आप्रवासन) अधिकारियों ने अपनी निजी गाड़ियों से उन्हें हंगेरी की सीमा के पार उतार दिया!

 दुर्भाग्यवश, वहां पहुँचने पर उनकी ट्रेन, (मिलान के लिए) छूट चुकी थी। संगीतकार सहजयोगियों ने दूसरा बंधन दिया। अचानक से एक खाली युगोस्लावियन बस आकर रुकी। उन्होंने उसके ड्राइवर को आत्मसाक्षात्कार दिया और उसने उन्हें मिलान तक बस द्वारा छोड़ने की पेशकश की। उसने सभी भारतीय योगियों को मिलान आश्रम के ठीक प्रवेश-द्वार पर बिना कुछ मोल मांगे उतार दिया!

1990

अध्याय46

 आठ जुलाई को श्री गुरु पूजा का आयोजन दक्षिण-फ्रांस के एक विलक्षण समुद्र-तटीय रिजोर्ट (आश्रय-स्थली) आविग्नोन (Avignon) में हुआ। श्री माताजी लंदन से मार्सीले पहुंचीं। जहाँ सैकड़ों योगियों ने उनका गर्म-जोशी से स्वागत किया। उन्होंने प्रत्येक योगी का व्यक्तिगत स्वागत किया और उनके परिवार की कुशल-क्षेम पूछी।

 लगभग आधी रात को ठीक जब लाइट्स बुझायी जा रहीं थीं, श्री माताजी पधारीं- अपने बच्चों के आराम, सुख-सुविधाओं का जायज़ा लेने, “क्या उन्होंने खाना खाया? वहां पर्याप्त संख्या में कम्बल थे?”

 बिना पूर्व तैयारी के हिंदी, रुसी, फ्रांसीसी, इटालियन और अंग्रेजी भाषा में भजन चलते रहे।

 अगली संध्या को, संगीतकारों ने सहज ही एक नए राग का सृजन किया और श्री माताजी ने उसे ‘चैतन्य पूर्णिमा’ नाम दिया। श्री माताजी ने महसूस किया कि जब योगीजन निर्विचार हुए, तब उनकी कुण्डलिनियों की सृजनात्मकता ने कार्यक्रम को अपने नियंत्रण में लिया। संगीतकारों को पता नहीं था कि वे क्या प्रस्तुति दे रहे थे, वे अपनी माँ के प्यार में खो गए थे।

 पूजा के दौरान श्री माताजी ने बताया- कैसे गुरु-तत्व को समर्पण और विनय से जाग्रत किया जा सकता था और वह विनय (दीनता) उनके प्रति वात्सल्य और आदर के द्वारा सहज ही बहने लगी।

 सुबह जल्दी, श्री माताजी ने लंदन के लिए उड़ान (Flight) पकड़ी। जहाँ सर सी. पी. को उनके द्वारा किए गए प्रमुख कार्यों के लिए सर्वोच्च-सम्मान(KCMG) मिलना था, जो उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय जहाज-रानी-प्रबंधन के सेक्रेटरी-जनरल के पद पर रहते हुए किए थे। अवैतनिक नाईटहुड की उपाधि उन्हें सर सेसिल पार्किंसन, सेक्रेटरी ऑफ़ ट्रांसपोर्ट द्वारा एक रात्रि भोज कार्यक्रम में अर्पित की गई।

 उन्होंने ब्रिटेन की महारानी से प्रेषित एक विशेष सन्देश सर सी. पी. को दिया।

 अगली संध्या को, शॉ-थियेटर में सर सी. पी. के सम्मान में एक गीत-संगीत व मनोरंजन कार्यक्रम (कंसर्ट) आयोजित किया गया। सर सी. पी. ने श्री माताजी से कहा, “वास्तव में यह अवार्ड (इनाम) आपको मिलना चाहिए था।”

 श्री माताजी हँसी, “किसलिए? यह मेरा प्यार है, जो कार्यान्वित है। मैंने इसके लिए कुछ नहीं चुकाया, कुछ भी नहीं। यह केवल मेरा प्यार है, जो मुझे वापस मिल रहा है। यह प्यार जो कुछ है, वह तुम्हारे साथ एकाकारिता का अहसास है, यह एकाकारिता मेरे देश के साथ, आप सब के देशों के साथ,आपके परिवारों के साथ, हरेक चीज़ के साथ है। यह वह चीज़ है, वह अहसास है, जो मुझे हमेशा होता रहता है कि तुम सब मेरे अंग -प्रत्यंग हो और इसी तरह से मैं तुम्हें याद करती हूँ। मैं हरेक व्यक्ति को उसकी कुण्डलिनी के चित्र से याद रखती हूँ।”

1990

अध्याय47

 जुलाई में मॉस्को में कार्यक्रम आयोजित हुए। श्री माताजी को स्मरण हो आया अपनी पहली यात्रा घेस्टोचोवा का, जहाँ काली मेडोना की पूजा होती थी। पोलैंड के टेलीविज़न ने कार्यक्रम प्रसारण किया और ढाई हज़ार साधकों को आत्मसाक्षात्कार मिला।

 श्री माताजी के बर्लिन आगमन पर पंद्रह जुलाई को, उन्हें वहां का चैतन्य बहुत ज्यादा बेहतर अनुभव हुआ, जब से बर्लिन की दीवार गिरी। कार्यक्रमों का आयोजन ईस्ट-बर्लिन और ड्रेस्डेन में हुआ। यद्यपि जर्मनी एक कलिष्ट देश था, श्री माताजी ने कहा कि जर्म ‘germ’ का मतलब कुण्डलिनी स्वयं से था,किन्तु इसके अंकुरण (उत्थान) (germination) के लिए योगियों को अति धैर्यशील और नए लोगों के प्रति प्रेममय होना था।

 श्री माताजी अठारह (18) जुलाई को प्राग Prague में पधारीं। प्राग में गलियों में लोगों ने श्री माताजी को पहचान लिया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। आर्मेनिया की कुछ महिलाएं, जिन्हें शॉपिंग के दौरान अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ था, वे बाहर गईं और श्री माताजी के लिए फूल ले आईं। जैसे ही तीन हज़ार साधकों को कार्यक्रम में उनका आत्मसाक्षात्कार मिला, ऐसी स्वच्छ शांति उनके चेहरों पर सवार हो गई कि उनके चैतन्य से श्री माताजी स्वयं भीग गईं।

 उन्होंने महसूस किया कि सहजयोग ईस्टर्न-ब्लॉक में तेज़ी से फैलेगा, क्योंकि यहाँ लोग बहुत सरल ह्रदय वाले थे और झूठे गुरुओं द्वारा पथ-भ्रष्ट नहीं थे। वियेना वापसी पर, श्री माताजी ने योगियों से प्रार्थना की कि वे ईस्टर्न ब्लॉक जा कर साधकों की हर तरह से मदद करें।

 श्री माताजी को हवाई यात्रा से बुडापेस्ट जाना था, किन्तु इक्कीस (21) जुलाई को उन्होंने अपनी योजना बदल ली और इसके बजाय जल-जहाज से जाना निश्चित किया। यह उनकी करुणा थी-अपने बच्चों को आशीर्वादित करना। एक जल-जहाज विशेष रूप से किराये पर लिया गया। डेनुबे (जहाज)पर पांच घंटे की यात्रा के दौरान, श्री माताजी ने उन्हें स्वर्गीय-यात्रा का आनंद प्रदान किया।

 बुडापेस्ट कंसर्ट-हॉल के बाहर विशालकाय होर्डिंग से सहजयोग कार्यक्रम की सूचना का प्रसारण हुआ। सेंट्रल-स्क्वायर (केंद्रीय-चौक) पर एक टेलीविज़न स्क्रीन लगाया गया, जहाँ लाऊड-स्पीकर्स ने कार्यक्रम का प्रसारण किया। करीब आठ सौ साधक कार्यक्रम में आए और श्री माताजी नए लोगों पर कार्य करने के लिए काफी देर तक रुकीं।

 चौबीस जुलाई को श्री माताजी का गर्म-जोशी से स्वागत सोफ़िया हवाई-अड्डे पर किया गया था। सहजयोगियों ने अपनी परम्परागत-वेशभूषा में समारोह पूर्ण उनका अभिनंदन करते हुए उन्हें ब्रेड, नमक और गोबलेट (पानी से भरा प्याला) भेंट किये। पूरा विशाल कक्ष (हॉल) पहले ही कार्यक्रम में खचाखच पूरा भर गया था और दूसरे कार्यक्रम के लिए स्पोर्ट्स स्टेडियम बुक करना पड़ा, चार हज़ार से ज्यादा साधक ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे और कई साधक खड़े रह गए थे। श्री माताजी ने उनके ऊपर घंटों कार्य किया।

 शेराटन में प्रेसवार्ता पर श्री माताजी ने कहा कि यद्यपि वे विचारों को पढ़ सकतीं थीं, देवताओं को अनुभव कर सकतीं थीं और अन्य उपस्थित हस्तियों को भी जानतीं थीं,पर उनका मूल उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार देना था।

 एक अगस्त को वे पुणे पधारीं। पुणे विश्वविद्यालय ने सर सी. पी. को KCMG अवार्ड मिलने के शुभ अवसर पर उनका अभिनंदन (बधाई समारोह)किया।

1990

अध्याय48

 छह (6) अगस्त को श्री माताजी ने लॉस-एंजेलेस (USA) के लिए उड़ान भरी, एक कोर्ट मुक़दमा, जो उन्होंने मेर्व ग्रिफिन कॉर्पोरेशन के विरोध में दायर किया था।

 पांच वर्ष पूर्व, श्री माता जी लंदन से लॉस-एंजेलेस के लिए हवाई मार्ग से विशेष रूप से मेर्व ग्रिफिन कॉर्पोरेशन के आमंत्रण पर ‘मेर्व ग्रिफिन कॉर्पोरेशन शो’ पर एक जीवंत साक्षात्कार हेतु गईं थीं।

 इस कॉर्पोरेशन ने जान-बूझ कर- नियुक्त समय पर उन्हें स्टूडियो में इंतज़ार कराये रखा और उन्हें जीवंत साक्षात्कार (live interview) के लिए स्टेज पर आमंत्रित नहीं किया, इस बहाने कि, समय की कमी हो गई थी। यह प्रत्यक्ष साफ़ था कि यह संस्था एक नकारात्मक तथाकथित धार्मिक पंथ के

हाथों खेली और जान-बूझ कर श्री माताजी को नज़र-अंदाज़ किए रखा। श्री माताजी के पास कोर्ट की शरण लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। 

 श्री माताजी व्यक्तिगत रूप से लॉस-एंजेलेस कोर्ट में हाज़िर हुईं। कोर्ट की सुनवाई के बाद उन्होनें वकीलों के साथ कानून की बारीकियां समझने हेतु काफी समय बिताया। उन्होंने एक नई रणनीति की रूप रेखा पासा-पलटने हेतु बनाई। वकील लोग श्री माताजी की कानून की परिक्वता पर आश्चर्य चकित थे, यद्यपि उन्होंने कभी कानून की शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। उन्होंने वकीलों से हंस कर कहा, “यह इतना कठिन नहीं है, जब आप सार-तत्व को समझ जाते हो।”

 यद्यपि,यह मामला हल होने से पहले ही, परम चैतन्य ने हस्तक्षेप किया- ‘मेर्व ग्रिफिन कॉर्पोरेशन’ का भट्ठा बैठ गया था!

 एक पत्रकार ने श्री माताजी से इस पर उनकी राय (टिप्पणी) पूछी। श्री माताजी मुस्कराईं, “निस्संदेह, कुछ लोग ऐसे थे, जो निर्दयी और फूहड़ थे, जिन्होनें मुझे और सहजयोगियों को तकलीफ दी। ये सब चीज़ें वास्तव में मेरे उत्साह को क्षति पहुंचा सकतीं थीं, किन्तु उसके विपरीत, मैंने सोचना शुरू किया, “क्यों लोग इस तरह के हैं? तब मेरी समझ में एक चीज़ आई कि हम पूरी दुनिया को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। यह अंतिम निर्णय है। इस समय लोगों को निश्चय करना है कि क्या महत्वपूर्ण है। उन्हें स्वयं को जानना है और समझना है कि वे क्या कर रहे हैं।”

 अगले दिन, श्री विष्णुमाया ने अपने माधुर्य की सौरभ फैलाई और कोर्ट के मामले की गमगीनता रक्षा-बंधन के उत्सव की ख़ुशी में खो गई, उत्सव के बाद श्री गणेश पूजा संपन्न हुई। श्री माताजी ने कहा कि श्री गणेश जी रक्षा-बंधन के सार (तत्व) थे, क्योंकि भाई बहन के सम्बन्ध की पवित्रता श्री गणेशजी की अबोधिता से उत्सर्जित हुई। श्री माताजी ने रहस्योद्घाटन किया कि पूजा के दौरान उन्होंने श्री गणेशजी के दर्शन किए और सभी योगियों के मूलाधार चमक रहे थे।

 नौ अगस्त को श्री माताजी वैन्कोवर के लिए रवाना हुईं। सूर्यास्त के ठीक पहले बिजली की चमक व बादलों की गर्जना के साथ एक तूफ़ान उठा, जिसने आकाश को नारंगी, लाल और बैंगनी रंग की छटा से भर दिया। उन्होंने हरेक योगी को इस विद्युत्-तड़ित-तूफ़ान को देखने को कहा, क्योंकि उस पर उनका चित्त कार्यान्वित था। श्री सरस्वती पूजा की पूर्व संध्या को बिजली 1600 बार कौंधी (चमकी) थी, जैसा कि कंप्यूटर ने अंकित किया था और अख़बार में भी दिया गया था। श्री आदिशक्ति के अवतरण के महत्व की उद्घोषणा करती हुई, बिजली सोलह सौ बार चमकी व गर्जन की।

श्री सरस्वती पूजा के प्रवचन के दौरान श्री माताजी ने योगियों को उनके अंदर श्री माताजी की शक्तियों के उपयोग करने के बारे में प्रवृत्त किया, अन्यथा ये शक्तियां दूसरा रूप धारण कर सकतीं थीं, जो कहीं अन्यत्र जलाकर नष्ट कर देंगी।

 पूजा के बाद एक भारतीय मूल के अमेरिकी योगी ने श्री माताजी को एक विशेष मुखौटा (मास्क) भेंट किया और उन्होंने पौराणिक कथन की भविष्यवाणी की कि जब आकाश लालिमा-लिए परिवर्तित हो दिखाई देता है, तब महान देवी माँ इस विश्व कि रक्षा करने आयेंगीं। तूफ़ान के दौरान वही लालिमा आकाश में थी!

 श्री माताजी ने कार्यक्रम में साधकों की तारीफ की और उन पर रात्रि दो बजे तक कार्य किया। थोड़े से आराम के बाद वे टोरेंटो (कनाडा) हेतु रवाना हुईं।

 श्री कृष्ण पूजा मूल निर्धारित कार्यक्रमानुसार न्यूयॉर्क में होनी थी, किन्तु श्री माताजी ने सोचा कि अगर यह पूजा इंग्लैंड को स्थानांतरित की जाए, तो बेहतर होगी। समयाभाव में, अंग्रेज़ योगीजनों ने पूजा-स्थल हेतु उचित स्थान की खोज की। उन्होंने श्री माताजी को प्रार्थना की, कृपया हमें मार्गदर्शन दीजिए। एक फोन कॉल ने पूजा में अवरोध किया। श्री माताजी से एक सन्देश मिला कि पूजा हेतु ऐसा स्थान देखा जाय, जो जलाशय के किनारे ढलान पर हो, यह ढलान जलाशय तक जाता हो, जिसमें नावें हों और ढलान के दोनों ओर वृक्ष हों, जो लगभग थेम्स नदी के मुहाने और सागर दोनों के मध्य स्थित हो।

 कैसे ऐसा स्थान खोजा जाय, इससे अनभिज्ञ योगीजन कैंप साइट्स के लिए खोज पर निकले। कुछ असंतोषप्रद स्थानों को देखने के बाद, उन्होंने जंगल के पेड़ों की कटी कतार को पार किया और ठीक, घास से आच्छादित ढलान वाले मैदान पर पहुंचे, जैसा कि श्री माताजी द्वारा वर्णित था। चमत्कारिक रूप से इस कैंप-साइट की कीमत दूसरे कैंप-साइट्स के मुकाबिले दशांश (दसवां हिस्सा) थी।

 श्री माता जी इप्सविच Ipswich के इस घास के इस छोटी पहाड़ी (टीले) पर सत्रह (17) अगस्त को शाम को पहुंचीं। श्री कृष्ण की लीला-विनोद की मनः स्थिति में, श्री माताजी ने श्री कृष्ण जी के बचपन से सम्बंधित कुछ मनोरंजक गाथाएं प्रस्तुत कीं, किन्तु विस्तारपूर्वक बताया कि उनके सामने का दृश्य बहुत विस्तृत था, दूसरे गुरुओं और अवतरणों ने अपने परिवार, बच्चों और हरेक वस्तु, सुविधाओं का परित्याग किया था, जबकि सहजयोग में मनुष्यों के लिए अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना, अपने परिवारों के साथ रहते हुए और इस संसार में करुणा की शक्ति के द्वारा कार्य करते हुए आवश्यक था। श्री माताजी के शब्द सामूहिकता के सहस्रार में गुंजायमान हो रहे थे, “यह कारुण्य (हमदर्दी) अपने परिवार, अपने देश तक ही सीमित नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए आवश्यक है।”

 दोपहर को, श्री माताजी की अध्यक्षता में अमेरिका और मध्य-एशिया के शुद्धिकरण के लिए हवन संपन्न किया गया। उन्होंने सहजयोगियों को पूरे ध्यानपूर्वक और प्रयत्नपूर्वक हवन संपन्न करने को कहा, ताकि उन्हें अपनी शक्तियों पर पूर्ण-विश्वास हो जाय, और संदेह के भटकाव से मुक्त हों। हवन के बीच में, श्री माताजी ने सहजयोगियों का ध्यान एक चमत्कार की ओर आकृष्ट किया। यद्यपि हवा चल रही थी, किन्तु पेड़ शांत खड़े थे, एकदम सम्मानपूर्वक उपस्थिति में थे। हवन में एक हज़ार नाम के बाद, श्री माताजी ने नकारात्मकता के बहुत से बिंदुओं (विषयों) को हवन देवता की अग्नि में समर्पित कर दिया। उनकी आँखों में करुणा की चमक थी, फिर भी नकारात्मकता को पूर्णतया नष्ट करने को वे पूरी तरह से कृत-निश्चय दिखीं।

 पूजा में श्री माताजी ने उद्घोषणा की कि कलियुग का अँधेरा समाप्त हो गया और कृत-युग का सवेरा हो गया। नए युग में परमात्मा की सर्व-व्याप्त शक्ति ने कार्य करना शुरू कर दिया था। इसके पहले किसी ने भी चैतन्य की शीतल लहरियां नहीं महसूस कीं थीं। उन्होंने ठंडक महसूस की, किन्तु चैतन्य लहरियां नहीं महसूस कीं थीं। श्री माताजी ने वचन दिया, जब तक वे इस धरती पर हैं, वे देखेंगी कि सहजयोग पूरी तरह से स्थापित हो चुका होगा।

 इसके बाद, संगीत-वाद्य यंत्रों की एक अद्भुत व्यूह रचना विभिन्न देशों से उनके चरणों में अर्पित की गई थी। उन्होंने घोषणा की कि ये यंत्र संगीत के चलन से दूर होते जा रहे थे, किन्तु वे पुनः उन्हें चलन (circulation) में लाएंगी।

1990

अध्याय49

 चौबीस (24) अगस्त को श्री माताजी ने ऑस्ट्रिया को श्री गणेश पूजा से आशीर्वादित किया। परम् चैतन्य ने एक सुन्दर स्थान (Lanners Back) ‘लैनर्स बैक’ पर एक नदी के पास आल्प्स पहाड़ियों से घिरी हुई जगह दिलायी।

 जब सहजी बच्चे उन्हें फूल भेंट कर रहे थे, श्री माताजी ने अचानक आकाश की ओर इशारा किया। आकाश शुभ्र नीला था और धूप चमक रही थी, किन्तु ईश्वरीय अनुकम्पा बरस रही थी। यह बारिश की तरह प्रतीत हो रही थी, परन्तु वहां पानी की बूँदें नहीं थीं। यह चैतन्यित अनुकम्पा सुषुम्ना के सहारे अंदर उतर रही थी, जिसने सभी चक्रों को सराबोर (भीगा) कर दिया था।

 बाद में शाम को बारिश इतनी लगातार हुई, कि टेंट के एक हिस्से को पानी की धारा ने लबालब भर दिया था। श्री माताजी ने कहा कि बारिश सुषुम्ना की सफाई कर रही थी। सुबह ग्राम-वासी आश्चर्य में थे कि नदी में बाढ़ नहीं आई, जैसा कि तूफान के बाद नदी हमेशा उमड़ती थी। उनकी समझ में थोड़ा सा आया, किसने यह नाट्य-संगीत रचा था।

 छब्बीस अगस्त को अपरान्ह में पूजा प्रारम्भ हुई। श्री माताजी ने हरेक योगी से अपने हृदय में प्रार्थना करने को कहा, “श्री गणेशजी हमारे प्रति दयालु उदार और क्षमाशील होइये और हमारे भीतर प्रकट होइये।” श्री माताजी ने सहजयोगियों की इन प्रार्थनाओं का उत्तर दिया और उन्हें अबोधिता के गुण से आशीर्वादित किया।

 प्रातः वे म्यूनिख (जर्मनी) के लिए रवाना हो गयीं। उन्होंने जर्मनी के गृह-लक्ष्मी तत्व को आशीर्वादित किया। साथ ही सभी गृह-स्वामिनियों को उपहार दिए।

 कार्यक्रम में एक साधक ने श्री माता जी से पूछा कि यदि इस विश्व की रक्षा हो सकेगा। श्री माताजी मुस्कराईं, “यह जर्मनों पर निर्भर करता है। एक बार जर्मनी सहजयोग अपनाता है, यह विश्व परिवर्तित हो जायेगा।”

 साढ़े तीन सौ श्रोताओं में विद्युत्-स्फुरण हुआ और उन्होंने श्री माताजी को गले लगाया। श्री माताजी प्रसन्न थीं, “जर्मन-वासी विश्व में सबसे सज्जन (मृदुल) लोग हो गए।”

 इकतीस (31) अगस्त को श्री हनुमान पूजा का आयोजन शानदार ‘महल स्केटज़िन्ज़ेन’ (Schewtzingen castle) के विशाल हॉल में हुआ। श्री माताजी ने आनंदित होते हुए श्री हनुमान के बालक-सम व्यवहार का बखान किया, जो हमारी पिंगला नाड़ी (right side) की बहुत मधुरता से देखभाल करते हैं, “अहंकार पर युक्तिपूर्वक कार्य करते हैं और उसे नीचे ले आते हैं, और बताते हैं कि कैसे पिंगला नाड़ी (right side) के सुन्दर क्षेत्र का मज़ा ले सकते हैं।”

 श्री माताजी ने श्री हनुमान जी की बहुत सी मनोरंजक गाथाएं कहीं- सामूहिक की पिंगला नाड़ी को शांत करते हुए।

 इसके उपरांत वे दस (10) सितम्बर को पेरिस (फ्रांस) रवाना हुईं।

 साधकों की प्रतिक्रिया (उत्तरदायिता) से वे अभिभूत हो उठीं, पेरिस में एक हज़ार चार सौ साधकों पर कृपा की, वे निर्मल फूल सम खिल उठे। व्यक्तिगत रूप से उन्होंने हरेक साधक को आशीर्वाद दिया और उनकी समस्याओं पर रात तीन बजे तक कार्य करतीं रहीं।

 यद्यपि, साधकों की सफाई करते-करते उनकी नकारात्मकताओं को आत्मसात कर लिया था। उनके पावों में इतनी सूजन आ गई थी और वे चल नहीं सकतीं थीं। सहजयोगियों ने उनके पैरों से चैतन्य को अवशोषित किया, कई घंटों तक चैतन्य को निकाला, जब तक पावों की सूजन नहीं उतर गई और वे दुबारा चल सकतीं थीं।

 श्री माताजी दोपहर तक सोईं और एक दम तरोताजा (स्वस्थ) नींद से जागीं, वे अगले कार्यक्रम के लिए तैयार थीं। उन्होंने कभी अपनी तकलीफ की परवाह नहीं की, किन्तु वे अपने बच्चों की तकलीफ नहीं सहन कर सकतीं थीं। अपने बच्चों का प्यार उन्हें इसके लिए विवश करता था और वे उनके लिए अपना जीवन दे सकतीं थीं। वे अपने बच्चों के लिए जीं, वे उनकी ज़िन्दगी थे।

 दूसरे कार्यक्रम पर उन्होंने पूरे पेरिस को सब तरफ से बदल दिया! कार्यक्रम की पूर्व-रात्रि को उन्होंने साधकों की नकारात्मकता को अवशोषित कर लिया था। पहले दिन उन्होंने नकारात्मकता से युद्ध किया और दूसरे दिन बच्चों को आनंद से आशीर्वादित किया। श्री महाकाली पूजा पर उन्होंने समझा कर स्पष्ट किया, “श्री महाकाली ने राक्षसों को केवल नष्ट ही नहीं किया, किन्तु वे आनंद शक्ति भी हैं। उनके पास स्वच्छ करने की शक्ति भी है। हमारी इच्छा बहुत शक्तिशाली होनी चाहिये और पूरे विश्व का उद्धार (मुक्ति) करने के लिए निर्मल (बहुत शुद्ध) होनी चाहिये।”

1990

अध्याय-50

 नव-रात्रि पूजा जिनेवा में तेईस सितम्बर को आयोजित हुई। स्विस नाभि को आशीर्वाद देने के लिए श्री माताजी ने अपने बच्चों के लिए स्वादिष्ट (लज्जतदार) भोजन बनाया।

 स्विस सामूहिकता ने एक नाटक ‘प्रिंस की खोज’ का मंचन किया। श्री माताजी ने इस नाटक की गहनता का आनंद लिया और इसे दिवाली पूजा पर पुनः प्रदर्शन हेतु प्रार्थना की। उनके दैवीय चित्त ने इस नाटक में कुछ सुधार किए और इसे पूर्णता की ओर उन्नत किया।

 पूजा में उन्होंने स्पष्ट बताया कि देवी माँ की शक्ति ने कैसे सभी राक्षसों का अंत किया, किन्तु उन राक्षसों का पुनः आगमन हो गया और साधकों के मस्तिष्क में झूठे गुरुओं, धार्मिक कट्टरवादियों के रूप में, चर्च और मंदिरों में प्रवेश कर चुके थे। श्री माताजी ने सलाह दी, हमेशा अपना चित्त इस शक्तिशाली दैवीय शक्ति से अपने योग पर (सहस्रार पर) रखें, ताकि दैवीय संरक्षण प्राप्त कर सकें।

 पूजा में देवी दुर्गा माँ के सभी अस्त्र-शस्त्र श्री माताजी को अर्पित किए गए। जब माँ ने अस्त्र -शस्त्रों को धारण किया, स्विस-नाभि में छिपकर घात लगाये हुए नकारात्मक ताकतों पर विजय प्राप्त हुई।

 रूस-वासियों ने श्री माताजी को रूस की यात्रा हेतु धन्यवाद दिया और उन्हें पूजा की भेंट समर्पित की। उनकी पिछली रूस यात्रा के बाद, रूस में सहजयोग सागर के ज्वार (विशाल लहरों) की तरह फैला और उन्हें मॉस्को और सेंट-पीटर्सबर्ग में कार्यक्रम हेतु प्रार्थना की, श्री माताजी ने कृपावंत हो,उनकी प्रार्थना को आशीर्वादित किया।

 ग्यारह (11) अक्टूबर को मॉस्को में पंद्रह हज़ार लोगों को आत्मसाक्षात्कार मिला और सेंट-पीटर्सबर्ग में दस हज़ार लोगों को आत्मसाक्षात्कार मिला।

 वेनिस के सागर-तट पर स्थित एक पुरातन व्यापारिक नगर चिओगिया में इक्कीस (21) अक्टूबर को दिवाली-पूजा का आयोजन किया गया था। श्री माताजी ने योगियों को लक्ष्मी तत्व स्थापित करने हेतु प्यार से सम्बोधित किया। श्री माताजी को अपने स्वयं को, अपने परिवार को, अपनी नींद को,आराम को त्यागना पड़ा, ताकि श्री महालक्ष्मी तत्व प्रकट हो सके, किन्तु श्री माताजी ने कहा कि उन्होंने इस त्याग को नहीं महसूस किया, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों से प्यार किया। दिवाली एक बहुत महत्वपूर्ण समय था, एक माँ के लिए, अपने बच्चों के साथ रहने हेतु तथा बच्चों के लिए भी खास वक्त था, अपनी प्यारी माँ के साथ रहने के लिए!

 बच्चे छोटी-छोटी भेंट/उपहारों से अपनी माँ के प्रति केवल कृतज्ञता ज्ञापित कर सके थे। सेरेमिक से बने दीये, जो कि दिवाली की रोशनी के प्रतीक स्वरुप थे, उन्हें भेंट किए गए। श्री माताजी ने हरेक उपहार की प्रशंसा की और अपनी टिप्पणी की कि ठीक इन्हीं की जरुरत उन्हें प्रतिष्ठान के लिए थी,जहाँ उन दीयों की रोशनी उन्हें हमेशा अपने बच्चों की याद दिलाती रहेगी, जो कि उनकी आँखों के तारे थे।

 अगले दिन, श्री माताजी ने टोरिनो में एक जन-कार्यक्रम की स्वीकृति दी। कार्यक्रम एक सिनेमा हॉल में था, जिस की क्षमता तीन सौ थी, किन्तु पांच सौ से ज्यादा साधकों को प्रवेश कराया गया। कुछ घंटों के आराम के बाद, श्री माता जी सुबह जल्दी उठीं और समाचार पत्र मंगवाए। उन्होंने Real -estate column ‘स्थायी संपत्ति’ विज्ञापन वाले हिस्से का निरीक्षण किया और एक फार्म हाउस (रोम के बाहरी क्षेत्र में) के विज्ञापन पर पेन से गोला बनाकर अंकित कर दिया। उन्हें इस फार्म हाउस से बहुत ज्यादा चैतन्य की अनुभूति हुई थी और महसूस किया कि यह स्थान सहजयोग के प्राथमिक शाला (Pre-School) हेतु उपयुक्त होगा।

 टोरिनो से दिल्ली एयर-इंडिया की उड़ान से आते वक्त, उन्होंने रोम में ब्रेक-जर्नी ली और सीधे एयर-पोर्ट (हवाई-अड्डे) से उस फार्म-हॉउस की स्थिति देखने पहुंचीं। एक ही नज़र में उस फार्म-हॉउस की चैतन्य की स्वीकृति प्रदान की और उसे खरीदने का निश्चय कर लिया। पुनः उन्होंने अपने व्यक्तिगत-खाते से इस सौदे के भुगतान का आग्रह किया!

1990

अध्याय-51

 एक (1) नवम्बर को श्री माताजी कुआलालम्पुर (मलेशिया) पहुंचीं। वहाँ गैर-मुस्लिम सभाओं पर कानूनी प्रतिबन्ध के बावजूद परम-चैतन्य की कृपा से सहज-योग कार्यक्रमों में चार सौ साधक आए!

 श्री माताजी ने रहस्योद्घाटन किया कि मलेशिया विश्व के मूलाधार का अंश था। श्री राम के राज्य के दौरान भारत का हिस्सा था।

 बैंकाक के लिए प्रस्थान करने से पूर्व वे भारत के आगामी-भ्रमण हेतु खरीददारी के लिए गईं और एक दुकान के सहायक की पाँव की टूटी हड्डी (Fractured leg bone) को दुरुस्त किया।

 हवाई-अड्डे से आते वक्त श्री माताजी बैंकाक के व्यस्त यातायात में रुकीं रह गईं। उन्होंने सलाह दी, “एक नुकसान को फायदे में क्यों न बदला जाय और शहर को बंधन दे दिए। परम् चैतन्य कार्यक्रम में एक सौ साधकों को ले आए। श्री माताजी खुश थीं और कहा कि शुरुआत में बहुत सारे लोगों की जरुरत नहीं थी, अन्यथा संभालना भारी पड़ता।

 जन-कार्यक्रम में एक छोटा बच्चा श्री माताजी के चरणों में बेहोश हो गया। वे बहुत दुखी हुईं, “देखो, उन्होंने मेरे बच्चे की क्या हालत कर दी।”

श्री माताजी उसे चैतन्यित-जल से होश में ले आईं। उसकी कुण्डलिनी को बौद्ध-साधुओं द्वारा क्षति पहुंचाई गई थी। उससे पूरी सामूहिकता को पकड़(बाधा) आ गई और श्री माता जी ने कई घंटों में उसे स्वच्छ किया। सौभाग्य से एक ऑस्ट्रेलियन योगी को कोई पकड़ नहीं आई, क्योंकि उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। श्री माताजी ने उसे एक लकड़ी की पेटी (मंजूषा) से आशीर्वादित किया, “वह प्रतिक्रिया नहीं करता है। केवल वही एक ऐसा योगी है, जिसे कोई पकड़ नहीं आई, जब मैं कार्यक्रम में लोगों को ठीक कर रही थी। क्या कारण था कि लोगों को पकड़ आई, क्योंकि ध्यान-धारणा की कमी थी।

 हालाँकि थाई देश की चैतन्य लहरियां बहुत भारी थीं और वह देश बहुत सी मर्यादाओं की प्रतिबद्धता (सतर्कता) को खो चुका था। श्री माताजी के लिए यह विशेष स्थान था। प्रत्यक्ष रूप से, अयोध्या थाई देश की राजधानी थी, जहाँ श्री राम सीता जी से विलग होने के बाद रहे थे। श्री सीता जी ने अपने आभूषण वहाँ आकाश से नीचे फेंक दिए थे, जब रावण उन्हें बलात श्री लंका ले गया था। उन रत्नाभूषणों की वजह से ही यह देश इतने बेशकीमती रत्नों से धनाढ्य था।

 दो सहजयोगी समय से पूर्व हवाई अड्डे पर सामान ‘चेक इन’ Check-In करने के लिए रवाना हुए। जब श्री माताजी कार में दाखिल हुईं, सहजयोगियों ने उनसे पूछा, “हमें कौन सा रास्ता चुनना है, फ्री-वे अथवा बैक-वे?” श्री माताजी ने कहा ,”बैक-वे!”

 आश्चर्य-जनक रूप से श्री माताजी उन सहजयोगियों से पहले पहुंचीं और वे सहजयोगी उड़ान बंद होने के दो मिनट पूर्व पहुंचे, “कारण था—ट्रैफिक,केवल ट्रैफिक (जाम)!”

 श्री माताजी आठ (8) नवंबर को तैपेई Taipei पहुंचीं।

 वे राजसी वैभव संपन्न तैपेई ग्रांड होटल में रुकीं, जहाँ से केक्लुंग नदी का नज़ारा दिखाई देता था। ‘स्वोर्ड पोंड युद्ध सेंटर’ के जन कार्यक्रम में किसी भी बौद्ध को चैतन्य की अनुभूति नहीं हुई। जब उन्होंने प्रश्न पूछा, “श्री माताजी क्या आप भविष्य की बुद्ध मात्रेया हैं?” तुरंत ही उन्हें ठंडी लहरियां महसूस हुईं।

 भारत के लिए रवाना होने से पूर्व श्री माताजी ने आकाश की ओर देखा, “कितनी तेज़ (असाधारण) चैतन्य-लहरियां हैं!”

 एक योगी ने आकाश में चैतन्य का फोटोग्राफ लिया, और उन चैतन्य लहरियों के मध्य श्री माताजी का मुख-मंडल था।

1990

अध्याय52

उन्नीस (19) नवम्बर को श्री माताजी ने पुणे में, अंध-श्रद्धा-निर्मूलन संस्था, के पीछे राजनीतिक-समूह, जो कि उन पर अंगपुर में हुए हमले के पीछे थे,उनको उजागर करने के लिए एक प्रेस-वार्ता को सम्बोधित किया। शैतानी तत्वों ने उन्हें परेशान करने की कोशिश की, किन्तु उनके सीधे, स्पष्ट उत्तरों ने उन्हें मन्त्र-मुग्ध कर दिया। सत्य ने बाज़ी पलट दी और अंततः प्रेस ने सहज-योग के विषय में सकारात्मक टिप्पणी लिखी। कुछ पत्रकार महान साधकों के रूप में उभरे और अपना आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने प्रतिष्ठान आए।

 श्री माताजी ने स्मरण कराया, “कुछ भी हो, हमें सत्य कहने से कभी नहीं डरना चाहिए। सत्य में असत्य को उजागर करने की शक्ति है।”

 बाईस (22) नवंबर को श्री माताजी ने मेडिकल-सम्मलेन को सम्बोधित किया। पूरे भारतवर्ष से पांच सौ डॉक्टर्स उस सम्मलेन में पधारे। उन्होंने चुटकी लेते हुए मनोविनोद-पूर्वक डॉक्टर्स को सम्बोधित किया कि वे उनकी नौकरियों (jobs) को हड़पने नहीं आयीं, किन्तु मनुष्य की स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याओं के उत्तर देने हेतु उनकी सहायता को आई थीं। स्व-चालित तंत्रिका तंत्र (autonomous nervous system) की व्याख्या करते हुए उन्होंने पूछा, “यह ऑटो ‘स्व’ कौन है?” डॉक्टर्स ने उन्हें ध्यान-मग्न हो सुना और बहुत से डॉक्टर्स ने सहजयोग अपनाया।

 तीन दिसंबर को शेरे (shere) पुणे में श्री गणेश-पूजा का आयोजन हुआ। श्री माताजी ने ज़ोर देते हुए कहा कि जब आध्यात्मिकता की नींव मज़बूत है,तब हम किसी भी प्रकार की इमारत उस पर बना सकेंगे, अन्यथा पूरी इमारत ध्वस्त हो जायेगी। पूजा के दौरान उन्होंने सामूहिक मूलाधार को सशक्त किया। यह एक पुनर्जीवित होने की प्रक्रिया थी, उन लोगों के लिए जो पाश्चात्य जीवन-शैली से जल गए थे। उन्होंने उनके लिए एक संगीत-मनोरंजन(concert) ‘जय जय गौरी-शंकर’ का प्रबंध किया।

 पूजा से लौटते वक्त, श्री माताजी ने कुछ योगियों को सड़क-किनारे बस के इंतज़ार में देखा, क्योंकि उनकी बस छूट चुकी थी। श्री माताजी ने उन्हें अपनी गाड़ी में समा लिया और संगीत-कॉन्सर्ट में छोड़ा और तब वे घर वापस हुईं।

 दूसरे दिन भारत दर्शन के लिए आए पांच सौ योगियों को उन्होंने प्रतिष्ठान में मध्यान्ह-भोजन (lunch) के लिए आमंत्रित किया। श्री माताजी ने मज़े-से स्वयं उनके लिए भोजन तैयार किया। भोजन के बाद वे बाहर बगीचे (lawn) में विराजीं और दोपहर बाद (अपरान्ह तक) मज़ेदार गाथाओं और वृतांतों से योगियों का मनोरंजन किया।

 रुसी योगियों को मुंबई के लिए शाम की ट्रेन पकड़नी थी। श्री माताजी रेलवे-स्टेशन तक उनके साथ गईं और हरेक योगी को आशीर्वाद के साथ डिनर-पैकेट्स (रात्रि भोज की व्यवस्था) भी दिए। जैसे ही ट्रेन चलने लगी, श्री माताजी की आँखों से अश्रुकण उनके गालों पर लुढ़कने लगे।

 अगली सुबह जल्दी भारत-भ्रमण-यात्रा श्री रामपुर की ओर बढ़ी। योगियों के ठहरने के प्रबंध हरे गाँव शक्कर फैक्ट्री के अहाते में किए गए थे। स्थानीय ठेकेदार ने आयोजकों को ठगने की कोशिश की और श्री माताजी ने उसे कड़ी फटकार लगाई। जब सभी योगीजन सो रहे थे, उसने परेशान करना शुरू किया और कंपाउंड में सांप छोड़ दिए। श्री माताजी की कृपा से, किसी ने उस पर नज़र रखी। श्री माताजी ने आश्वस्त किया कि सांप चैतन्य-लहरियों के प्रति संवेदनशील होते हैं और एक योगी को कभी नहीं काटेंगे। श्री माताजी ने सहज-योगियों को अपने शयन-कक्ष में इकट्ठा किया और मज़ेदार गाथाएं (वृतांत) सुनाते हुए उन्हें सुला दिया। वे छोटे बच्चों जैसे अपनी देवी माँ के वात्सल्य-मय संरक्षण में सोए।

 वे निहायत खूबसूरत अरुणोदय पर जागे। सारा विश्व इतना शांतिमय प्रतीत हुआ और हरेक योगी ने श्री माताजी के शयन-कक्ष के आर-पार बरामदे में गहन-ध्यान का आनंद लिया।

 श्री माताजी ने हरेक योगी के लिए सूती टोपी और धोती का चयन किया। कुछ योगियों ने इस लय बद्धता को समझा और उन्हें खरीद लिया और बाकी इस लय बद्धता से दूर रहे। नाश्ते के बाद श्री माताजी ने जानना चाहा, योगियों ने उन्हें क्यों नहीं ख़रीदा, जबकि उन्होंने इतनी तकलीफ उठाकर सूती-वस्त्र मंगवाए थे। आरम्भ में, श्री माताजी उन्हें योगियों को उपहार-स्वरुप देना चाहतीं थीं, किन्तु तभी उनके मन में ख्याल आया, क्यों न उनकी परीक्षा ली जाय। जो उनके भावों की अभिव्यक्ति में उनके प्यार को समझने में असफल रहा, उसे अपराध-बोध होने लगा। उन्होंने उन्हें अपराध-बोध से मुक्त करके आशीर्वाद-स्वरुप टोपी प्रदान की।

 श्री माताजी ने विनोदपूर्वक योगियों में अपेक्षित सुधार किए। कुछ भी नहीं थोपा गया। किसी प्रकार का दबाव, कड़े नियम या पाबन्दियाँ (यह करो/यह न करो), फौजी हुकूमत जैसा कुछ भी नहीं था। श्री माताजी ने पूर्ण स्वतंत्रता दी, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि पूर्णतया विश्राम अवस्था में सबसे ज्यादा चैतन्य अवशोषित होते हैं। इसके अलावा वह चाहतीं थीं कि साधक स्वयं अपने जन्म जात सदसद विवेक बुध्दि से, सच/झूठ को खोजे, बजाय इसके कि उसके ऊपर इसे लादा जाए। परिवर्तन एक आतंरिक कार्य था और हरेक को स्वयं का गुरु बनना था। जहाँ एक बच्चा (योगी) बहुत कमज़ोर था, ताल बद्धता के माप से, उन्होंने उसे चैतन्य द्वारा शक्ति संपन्न कर दिया था।

 श्री माताजी का मधुर परीक्षण बच्चों को अपनी लय-बद्धता में बने रहने की याद दिलाने हेतु किया गया था, ताकि वे उन सीढ़ियों (सोपान मार्ग के क्रम)को नहीं भूलें, जो उनकी माँ ने उनके लिए सावधानी-पूर्वक तय कर रखे थे। उन्होंने अपनी नींद में भी बच्चों को दुलार किया। बच्चों (योगियों) की सीमित दृष्टि में अपनी माँ के दैवीय प्यार की गतिविधि के बारे में सोचना संभव नहीं था, जिसने उन्हें पालन-पोषण, संरक्षण और वात्सल्य प्रदान किया। उनका चित्त अनवरत रूप से बच्चों की सुख-सुविधाओं पर था, जिसमें यात्रा का प्रबंधन, बसों की व्यवस्था, कैंप-साइट्स (शिविर-स्थलों) का उचित चयन,भोजन व्यवस्था (रसोइयों की नियुक्ति) भोज्य सामग्री की सूची तैयार करना और (अंततः) उनके आध्यात्मिक-उत्थान को कार्यान्वित करना था।

 भारत भ्रमण के दौरान सामूहिक वातावरण हमेशा तनाव-मुक्त रहा। यात्रा के कार्यक्रम लचीले थे, विलम्ब होने की स्थिति में समय की कमी नहीं थी। यात्रा गंतव्य से ज्यादा महत्वपूर्ण थी। कार्यक्रम विस्तृत यात्रा-योजनाओं के बारे में नहीं था, किन्तु हरेक योगी के चित्त की स्थिति के बारे में था। यदि चित्त सहस्रार से फिसल गया, मानो यात्रा का उद्देश्य खो गया था। बौद्धिक-स्तर पर (आधार-पर) भी, श्री माताजी के साथ यात्रा करना ‘सांप/सीढ़ी’ के खेल जैसा था, जिस क्षण चित्त टला, आप स्थिति से नीचे आ गए और उन्होंने सहारा दे कर उठाया बार बार! कोई विश्व-विद्यालय या स्कूल हमें वो पाठ नहीं पढ़ा सकते थे।

 इसके अतिरिक्त, वे पाठ और भी आनंद-प्रद हो गए- उनके वात्सल्य की बारिश के साथ, जहाँ उन्होंने सुन्दर उपहारों में अपने मातृ-वत प्रेम को प्रकट किया।

 नौ (9) दिसंबर को श्री रामपुर की यात्रा, एक और वात्सल्य की वृष्टि थी। लोनी कार्यक्रम के उत्सव-यात्रा के नृत्य और संगीत के बीच, उन्होंने उत्साहित करते हुए कहा, “यदि तुम मुझे जानना चाहते हो तो स्वयं को जानो।”

 श्री माताजी का वात्सल्य अपने बच्चों के लिए एक स्मरण-पत्र (reminder) था कि अपने पाठ को याद करने में, परीक्षा में उन्होंने कितना भी बुरा स्कोर किया हो (बुरे नंबर लाए हो)- इस सब के बावजूद वे उनकी माँ थीं। उनकी उपस्थिति, एक झलक, एक मुस्कान, हल्की सी थपकी या सहृदय-हँसी ने बच्चों को शक्ति प्रदान की।

 सत्रह (17) दिसंबर को श्री ललिता चक्र और श्री चक्र पूजा ब्रह्मपुरी में आयोजित हुई। श्री माताजी ने हरेक योगी को एक इच्छा प्रकट करने को कहा। सामूहिकता की जीवंत शक्ति ने कार्य करना शुरू किया और हरेक योगी ने अपने भाई/बहन के लिए आशीर्वाद माँगा।

 बीस (20) दिसंबर को कोल्हापुर योगियों ने एक परम्परागत भोज का (महाराष्ट्रियन परंपरागतानुसार), जहाँ भोजन के मध्य शिष्ट रीति-रिवाज़(प्रोटोकाल्स) पालन किए जाते थे, उसका आयोजन किया। जब तक सामूहिकता का भोजन समाप्त नहीं हो जाता- बीच में कोई भी व्यक्ति नहीं उठना चाहिए और थाली में जूठन (उच्चिष्ठ) नहीं छोड़ना चाहिए। युग से प्रचलित इस रिवाज़ से भोजन शांतिपूर्वक, तनाव रहित और नाभि-चक्र के लिए शांति-प्रदायक होता है।

 श्री माताजी ने बहुत से परम्परागत- रिवाज़ जो चक्रों को और चित्त को सहायक होते थे, उन्हें शामिल किए, किन्तु ये रिवाज़ अक्सर बच्चों के ध्यान से चूक जाते थे।

 इक्कीस (21) दिसंबर को श्री महालक्ष्मी पूजा कोल्हापुर में आयोजित हुई। यह एक जीवन पर्यन्त का अनुभव था। पूजा का आयोजन श्री महालक्ष्मी मंदिर से लगे हुए भूखंड पर हुआ, यह (मंदिर) स्वयंभू है। पूजा प्रवचन के दौरान श्री माताजी अपने दैवत्व से हट कर बोलीं और कहा कि उन्हें पता नहीं था,वो क्या कह रहीं थीं। उन्होंने सहस्रार से ऊपर प्रबोधन दिया और सामूहिकता को नए आयाम में ले गईं। सामूहिकता ने अपनी सांसें थाम कर उस अक्षुण्ण पल की पवित्रता को महसूस किया, इसके पहले कि योगियों का विचार-तंत्र इस पावित्र्य का हनन कर पाता।

 अगले दिन गणपतिपुले के शांतिपूर्ण सागर ने श्री माताजी के पूजा-प्रबोधन का स्मरण कराया -धरती माँ का अपना मस्तिष्क है। वे स्वयंभू कृतियों और देवताओं को जन्म देतीं हैं, वे सोचती-विचारती हैं। योगियों के नानाजी (सागर) ने अपने नातियों को अपनी लहरों में आलिंगन किया, उन्होंने बच्चों के व्यस्त-मस्तिष्कों को शांत किया और उनके आज्ञा-चक्रों से कचरे को साफ़ किया।

 क्रिसमस पूजा पर श्री माताजी ने स्पष्ट बताया कि कैसे ओंकार श्री गणेश बन गये। उनके चमत्कारिक फोटोग्राफ्स में चैतन्य, ओंकार के रूप में प्रकट हुए प्रत्यक्ष दिखलाई दिए। उनके चमत्कारिक फोटोग्राफ्स में दिखाई देने वाले विभिन्न प्रकाश ओंकार ही थे।

 यूरोप के साहित्य, कला, चित्रकारी आदि के विकास को दर्शाने वाले कलाकारों ने जीसस और मेडोना को दिखलाया था, किन्तु यहाँ श्री आदिशक्ति का पूर्णावतार साक्षात् मानव-रूप में संसार के सामने खड़ा था!

 पूजा के बाद श्री माताजी का चित्त विवाह हेतु आए आवेदनों पर गया, जो दुगुनी हो चुकीं थीं। सहज योगिनियों की संख्या सहजयोगियों के मुकाबले चार गुना थी। श्री माताजी ने चैतन्य लहरियों के आधार पर एक योगी/योगिनी पिछड़े देशों से और एक योगी/योगिनी विकसित देशों से, लेकर जोड़ियां तैयार कीं। उनके वैश्विक परिवार की कल्पना में राष्ट्रीयता, रंग या नस्ल को आधार ले कर कोई जगह नहीं थी। त्वचा का रंग या बाह्य-स्वरुप अंतिम वस्तु थी, जिसे महत्व दिया जाय। एक बहुत सांवली दक्षिण भारतीय बालिका का मिलान (pairing) बहुत गोरे अँगरेज़ से कराया गया था। निस्संदेह लड़का/लड़की (दोनों को) आखिरी समय तक मना करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी,किन्तु दैवीय चुनाव इतनी पूर्णता लिए था, कि यह मिलान सर्वोत्तम रहा!

 अस्सी जोड़ों की शादियां एक संध्या को हुईं। यह एक आत्मा को उत्तेजित करने वाला अनुभव था, जहाँ स्वयं दैवीय-संगीतज्ञ को अपने दैवीय-संगीत-वाद्य-दल के संचालन का चश्मदीद साक्ष्य होना। आधी रात का समय हो चुका था और मंच के पटाक्षेप का समय हो चुका था। जैसे ही गणपति पुले के मंच का पटाक्षेप हुआ, यह दैवीय आर्केस्ट्रा वैश्विक-मंच पर वैश्विक-परिवर्तन (global transformation) की चमत्कार-पूर्ण घटना (नज़ारे) को दिखने हेतु गतिशील हो उठा।