Shri Krishna Puja: Play the melody of God

Englewood Ashram, New Jersey (United States)

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श्री कृष्ण पूजा
एंजलवुड (यूएसए), 2 जून 1985।

आज हम श्री कृष्ण की पूजा करने जा रहे हैं।

श्री कृष्ण इस धरती पर ऐसे समय आए थे जब भारत में लोग बहुत कर्मकांडी थे। वे तथाकथित ब्राह्मणों के दास बन गए थे, जिन्हें परमात्मा के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं था क्योंकि उन्होंने एक ऐसी कहानी शुरू की थी कि एक ब्राह्मण का पुत्र ही ब्राह्मण हो सकता है। तो, जन्म ने व्यक्ति की जाति निर्धारित की। उसके पहले ऐसा नहीं था कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होगा। यह भी सच है कि यदि आप एक साक्षात्कारीआत्मा हैं, वास्तविक अर्थों में, यदि आप वास्तव में साक्षात्कारीआत्मा हैं, तो आपको अवश्य ही ऐसा एक बच्चा प्राप्त होना चाहिए जो एक साक्षात्कारी आत्मा हो। और ऐसे ही यदि यह कहा जाए कि यदि पिता ब्राह्मण है, साक्षात्कारी आत्मा है, तो उसका पुत्र भी ब्राह्मण हो जाता है।

चुंकि आप एक सहज योगी हैं, अब आप समझ सकते हैं कि एक सहज योगी का पुत्र सामान्य रूप से सहज योगी बन जाता है। तो यह तय हुआ कि ब्राह्मण के बच्चों को ब्राह्मण कहा जाएगा। धीरे-धीरे, इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण से पैदा हुए किसी भी बच्चे को ब्राह्मण कहा जाता था।

अब, हमने देखा है कि कई सहजयोगियों के पास भी अपने बच्चों के रूप में साक्षात्कारी आत्मा नहीं है। हो सकता है उनके अपने कर्म, शायद बच्चे के, कुछ भी हो, लेकिन मैंने भी कुछ सहजयोगियों को भयानक शैतानी बच्चे होते देखा है।

तो, यह दर्शाता है कि यह आपके जन्म के माध्यम से नहीं है कि आप यह दावा कर सकें कि आप ब्राह्मण हैं या जिसने ब्रह्मा को जाना है। ब्रह्म सर्वव्यापी शक्ति है। तो आपको अपने कर्म से ब्राह्मण बनना होगा, जो आप करते हैं। इस तरह हमें वाल्मीकि मिले हैं जो सिर्फ एक मछुआरे थे। उन्होंने रामायण लिखी, वे एक महान ब्राह्मण थे। तब आपको व्यास मिले हैं जिन्होंने गीता लिखी थी। वह भी एक मछुआरन का नाजायज बेटा था और उसने गीता लिखी थी।

तो श्री कृष्ण के अवतार ने इस विचार की धज्जियां उड़ा दीं। वह इस विचार का खंडन करना चाहते थे कि केवल ब्राह्मण ही ईश्वर की आराधना कर सकते हैं। तो, राम ने जो कुछ भी बनाया है, उसे एक और अति पर ले जाने वाले लोगों को मध्य में लाने के लिए – क्योंकि राम के माध्यम से, वे एक और जड़्ता रूप और कर्मकांड की कठोरता और बहुत अधिक कट्टरवाद में चले गए। इसलिए, इसे समाप्त करने के लिए, वह समाज को एक और चरम पर ले जाना चाहते थे। बेशक, श्री राम ने स्वयं श्री कृष्ण के रूप में अवतार लिया था।

इसलिए उन्होंने एक नयी विषय-वस्तु शुरू की, जो बिल्कुल समयाचार था, यह बिल्कुल विकासवादी था कि इस तरह का एक नया ही विषय सामने आना समयानुकूल था। और यह नया ढंग था कि पूरी बात एक लीला के अलावा और कुछ नहीं है। यह सिर्फ एक नाटक है, यह एक लीला है। इसलिए इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, इतना कठोर नहीं होना चाहिए, मौलिक नहीं होना चाहिए, किसी चीज के बारे में इतना खास नहीं होना चाहिए। तो, पूरी बात एक लीला है। और इस विषय पर उन्होंने यह स्थापित करने के लिए सब कुछ काम किया कि यह एक नाटक है।

और अमेरिका में यही आप देखते हैं, यह बहुत आम है कि लोगों के लिए यह एक मजाक बन गया है, जीवन एक मजाक बन गया है। और वे सोचते हैं कि जीवन को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, किसी भी प्रकार की वर्जनओं, या शायद किसी प्रकार की मर्यादाओं या आदर्शों में शामिल होने की तुलना में सभी प्रकार की चीजों को करने में अधिक मज़ा है। लेकिन अब अमेरिकनों के लिये यह मिथ्या है, क्योंकि इसके लिए आपके पास श्री कृष्ण होना आवश्यक है, आपकोअपनाआत्मसाक्षात्कार होना चाहिये। जैसे, यदि आप पानी में खड़े हैं, तो पानी की लहरें आपके लिये बिल्कुल वास्तविक हैं- अगर आपको लगता है कि यह एक माया है तो आप पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे। खुद जोरदार अभिव्यक्ति के माध्यम से माया यह साबित कर देगी कि वह भ्रम नहीं है। लेकिन अगर आप नाव में हैं, तो जो पानी है वह एक माया है। तो, यह उस अवस्था पर आधारित है जिस मेंआप हैं।

यदि आप आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में हैं, तो सब कुछ एक माया है, अन्यथा ऐसा नहीं है। यह एक हकीकत है। तो, जो वे भुल गये हैं, वो ये बिंदु है कि, आप उस अवस्था में नहीं हैं कि इसे माया कहें। तो हर चीज को माया कहना सिर्फ अपने आप को बहकाना है, यह सोचकर कि यह एक माया है और कोई फर्क नहीं पड़ता, इसमे क्या गलत है, तो क्या। यह काफी प्रतीकात्मक है कि, इस श्रीकृष्ण के स्थान पर इस बात को इतना सामान्य रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए कि सब कुछ एक माया है। तो कौन गलत है? बुरा कौन है? कुछ भी गलत नहीं है! बुराई जैसा कुछ नहीं है, अच्छाई जैसा कुछ नहीं है। और कुछ लोग उस सीमा तक जाकर कहते हैं कि “भूत” जैसा कुछ नहीं है, राक्षस जैसा कुछ नहीं है, एक बुरी ताकत जैसा कुछ नहीं है।
अब, श्री कृष्ण के लिए, उनका चीजों के प्रति दृष्टिकोण ऐसा था कि उनके लिए एक राक्षस को मारना भी एक नाटक था। एक राक्षस को नष्ट करना भी एक नाटक था। उस नाटक में उसका नाश होना था। तो, उन्होंने एक तरह से विवेक पुर्ण भेद किया कि किस खेल को नष्ट करना है, क्या नष्ट नहीं करना है। बुराई के खेल को उन्होने अपने ही खेल से नष्ट कर दिया। तो, यह कहना कि कुछ भी बुरा नहीं था, भी गलत है। जैसे अगर आप सोचते भी हैं कि सब कुछ एक नाटक है तो क्या होता है कि उसके प्रति आपका नजरिया एक दर्शक की तरह होता है। आप पूरी चीज को एक दर्शक के रूप में देखते हैं जैसे जब आप नाटक में आप दर्शक रूप मे बैठते हैं और आप सब कुछ एक दर्शक की तरह से देखते हैं, लेकिन आप जानते हैं कि क्या त्रासदी को दर्शाता है और क्या हास्य को दर्शाता है। यदिआप उसके प्रति निष्क्रिय नहीं हैं, तो आप किसी काम के नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि आप उसके प्रति निष्क्रिय हो गए हैं। कॉमेडी क्या है और त्रासदी क्या है, यह जानने के लिए आपके पास विवेक पुर्ण संवेदना है।

लेकिन अगर आप एक अभिनेता हैं, तो आपके लिए ऐसा नहीं है, आपके लिये यह कॉमेडी या त्रासदी नहीं है, आप केलिये यह एक काम है। यदि आप अभिनय कर रहे हैं तो आप अभिनय कर रहे हैं और आप एक अभिनेता हैं, आप इसमें शामिल हैं। तो, ऐसा नहीं है, क्योंकि आप त्रासदी और हास्य के बीच के विवेक को नहीं जानते हैं। आपके लिए, आप तब तक सिर्फ एक अभिनेता हैं जब तक आपको अच्छा पारिश्रमिक मिलता है, अगर आप अपना काम अच्छी तरह से करते हैं, तो यह एक कॉमेडी है, अन्यथा, यह एक त्रासदी है।

तो, जागरूकता दो प्रकार की होती है। अब, एक दर्शक की, दूसरी उस व्यक्ति की जो उसमें है। तो, किसी व्यक्ति को बात को उसी रोशनी में समझना होगा कि, जब कृष्ण ने कहा कि पूरी बात एक नाटक है, तो अर्थात वे स्वयं के लिए कह रहे थे, दूसरों के लिए नहीं। उनके लिए यह एक नाटक है। और इसलिए जब वे आपसे नाटक और भ्रम के बारे में बात करते हैं तो आपको उन्हें कहना चाहिए कि फिर उन्होने कंस को क्यों मारा? उसने जरासंध को क्यों मारा? कंस का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को उन्होने क्यों मारा? तो, उनके लिए यह एक नाटक था, सब कुछ एक नाटक था और उन्होंने अपने दृष्टिकोण से एक नाटक की तरह इसे किया।

तो, पहली बात, यदि आप श्री कृष्ण की शक्तियों से प्रबुद्ध हैं, तो आपके साथ जो पहली चीज होनी चाहिए, वह है विवेक। अब, विवेक एक ऐसी चीज है जिसका आप वर्णन नहीं कर सकते। आप यह नहीं कह सकते कि विवेक क्या है। उसका वर्णन करना या उसका परिसीमन करना बहुत कठिन है। विवेक एक प्र्वृति है, एक व्यक्तित्व का गुण है जो आपके पास खुद को संतुलित करके, परीक्षण और त्रुटि विधि द्वारा आता है। सभी पारंपरिक देशों में स्वाभाविक रूप से उन लोगों की तुलना में बहुत अधिक विवेक होता है जो गैरपारंपरिक हैं। लेकिन कृष्ण ने सभी परंपराओं को तोड़ दिया। इसलिए आप लोग यहां परंपरा विहीन हैं। उन्होंने सभी परंपराओं को तोड़ा, लेकिन वे श्री कृष्ण थे, इसलिए उन्हें किसी परंपरा की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं थी। लेकिन आपके लिए, आपको उन लोगों से समझना होगा जिनके पास परंपरा है कि विवेक क्या है। इसलिए, हम परीक्षण और त्रुटि विधि करते हैं। हम गलतियाँ करते हैं, उससे हम सीखते हैं। लेकिन जब अमेरिका जैसे देश में अहंकार इतना ठोस है कि, जब हम गलत भी करते हैं, तो हम इसे स्वीकार नहीं करना चाहते कि यह गलत किया गया था, यह हमारे उत्थान के खिलाफ था, यह हमारे उच्च लक्ष्यों के खिलाफ था। हम निचले लक्ष्यों से संतुष्ट हो जाते हैं।

जैसे मैंने सहज योग में कुछ अज़ीब चीजें करने वाले लोगों को देखा है। उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि यह उनके बिल्कुल खिलाफ है, वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह उनके खिलाफ है, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा करना गलत था। इसके विपरीत, वे बाईं विशुद्धि को पकड़ लेते हैं जो कि विशुद्धि चक्र पर उनकी एक और पकड़ है। इसलिए, क्योंकि आप अविवेकी हैं, आप गलत काम करते हैं। आप विवेक विकसित करने के लिए ही गलतियाँ करते हैं। (सभी क्रियाकलाप का परिणाम, यह विवेक है,)। जब आप गलती करते हैं, तो इसका सामना करते हुए ऐसा विवेक विकसित करने के बजाय कि यह एक गलती थी, अगली बार हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, जो हम करते हैं वो होता है, इसके बारे में दोषी महसूस करना है, ताकि आप इससे अपना बचाव कर सकें, दूसरे चक्र को भी खराब करते हैं।
इस तरह से लोगों को बाईं विशुद्धि पर समस्या होती है, और बाईं विशुद्धि इस प्रकार है कि आप दोषी महसूस करते हैं। इसके बारे में कुछ भी करने की तुलना में दोषी महसूस करना बहुत सुविधा जनक है। इससे बचने का यही सबसे आसान तरीका है। दरअसल, हमने देखा है कि ज्यादातर बायीं विशुद्धि अहंकार से आती है। जब अहंकार बहुत अधिक होता है, तो आप अपने अहंकार को सहन नहीं कर सकते, इसलिए आप इसे इसके दोषी पक्ष में रख देते हैं, और आप कहते हैं, “मैं बहुत दोषी हूं, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।”

अब दूसरा पक्ष जो बहुत खतरनाक भी है वह है दायीं विशुद्धि। दायीं विशुद्धि वह है जिसके द्वारा हम अपने सभी अविवेकी व्यवहार को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं। तो क्या गलत हुआ?” “इसमें क्या गलत है?” “तो क्या!” ये सब बातें दायीं विशुद्धि की समस्या हैं। इसलिए, यह बहुत आम है कि आप किसी को बताते हैं कि ऐसा करना गलत है, उदाहरण के लिए, वे अपने बालों को रंगते हैं। आप उन्हें बताएं, कि,”ऐसा मत करो, इससे तुम्हारी आंखें खराब हो जाएंगी।” वे कहेंगे, “तो क्या, हमें खुद को खराब करने का अधिकार है, हमें खुद को नष्ट करने का अधिकार है,” जैसे कि वे श्री कृष्ण हैं, वे खुद को नष्ट कर सकते हैं, है ना? वे एक छोटी सी चींटी भी नहीं बना सकते, चींटी को छोड़ दो, वे एक पत्थर भी नहीं बना सकते। और उन्हें खुद को नष्ट करने का अधिकार कैसे है? तो, यह सही बात है जहाँ हम सोचते हैं कि हमें नष्ट करने का अधिकार है।

जैसा कि मैंने कल आपको आंखों के बारे में बताया था, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आंखें ही हैं जो आपको श्री कृष्ण की शक्ति, श्री कृष्ण का खेल देती हैं। एक दृष्टि भी, कृष्ण की चेतना वाले व्यक्ति की एक छोटी सी नज़र, जैसा कि वे इसे कहते हैं, यदि उसके पास कृष्णभावनामृत है, तो उसे कुंडलिनी को जगाने में सक्षम होना चाहिए, मुक्ती दिलवाने में सक्षम होना चाहिए, सुखप्रदाता होना चाहिए, किसी को निरोग करने में सक्षम होना चाहिए। एक दृष्टि, एक नज़र भी ऐसा कर सकती है, अगर उसमें कृष्ण की चेतना हो। लेकिन ऐसे लोग नही जो स्व-प्रमाणित हों, जो हर समय कोई मंत्र या श्री कृष्ण का नाम लेते हुए कहते हैं, “हम कृष्ण भावनामृत हैं”।

तो, बाईं ओर, दोषी महसूस करने रूपी पलायन है। जब आप दोषी महसूस करते हैं, तो वे अभिव्यक्ति का कोई न कोई तरीका निकालने की कोशिश करते हैं। तो, वे कहते हैं कि वे किसी गुरु के पास जाते हैं और फिर गुरु उन्हें किसी प्रकार का मंत्र देते हैं, और वे उस मंत्र को स्वीकार कर लेते हैं, उसे जाप करते चले जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे बाईं विशुद्धि पर अधिक पकड़ लेते हैं। क्योंकि अगर आप बिना योग-संबंध के मंत्र बोलते चले जाते हैं, तो आप पूरी तरह से फंस जाते हैं। तो, बायीं विशुद्धि फिर से चली गई है और आपके मंत्र बिल्कुल बेकार हैं, वे उन्हें नष्ट कर रहे हैं। वास्तव में, मैंने कई लोगों को देखा है जिन्हें दिल का दौरा पड़ता है, जिन्हें एनजाइना होता है और जिन्हें कैंसर भी होता है, वे ऐसे लोग हैं जो इस तरह से मंत्रों को जाप करते रहे हैं, बिना परमात्मा से योग-(संबंध) के। यदि आप कनेक्ट नहीं हैं, उदाहरण के लिए कहें कि यह (माईक्रोफोन)कनेक्ट नहीं है और मैं इसे बहुत अधिक उपयोग करना शुरू कर देती हूं, यह खराब हो जाएगा। उसी तरह, जब आप किसी मंत्र को बिना सम्बंध जुड़े , उस मंत्र की शक्ति को महसूस किए बिना बोलना शुरू करते हैं, तो बाईं ओर का चक्र खराब हो जाता है। तो, सहज योग में, हमें बाईं ओर इन मंत्रों को बेअसर करने के लिए मंत्र मिले हैं।

जब हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो राइट-हैंड साइड की पकड़आती है। आपके राजनेताओं के साथ यह एक सामान्य बात है, वे बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। उन्हें लगता है कि वे बहुत जिम्मेदार लोग हैं और सभी गैर जिम्मेदाराना काम करते हैं। इसलिए, जब आप उस चक्र को खराब करना चाहते हैं, तो आपको कुछ गैर-जिम्मेदाराना बातें करनी होंगी। तो, इस तरह, हम कह सकते हैं, “मैं तुम्हारे लिए यह करूँगा, मैं वह करूँगा। मुझे यह पसंद है, मैं इसे ढूंढ सकता हूं, मैं इसे प्रबंधित कर सकता हूं, “समाप्त। जब आप अहंकार रूप में ऐसा कहना शुरू करते हैं कि, “मुझे यह करना है, मैं यह करूँगा,” तब हमारा अहंकार प्रकट होता है। परन्तु इसके विपरीत, यदि तुम कहते हो, “हे परमपिता, मुझे तेरे लिये करना है; मुझे तुम्हारे लिए करना है, माँ, यह तुम्हारा काम है जो मैं कर रहा हूँ,” तब सब कुछ गायब हो जाता है और आपको “समर्पण” नाम की वह खूबसूरत चीज़ मिल जाती है जो “इस्लाम” है। “इस्लाम” कुछ और नहीं बल्कि समर्पण है। तो, आप यह कहकर आत्मसमर्पण कर देते हैं, “यह तुम्हारा काम है, परमपिता; मैं तुम्हारे लिए काम कर रहा हूं, मैं तुम्हारा यंत्र हूं, मैं तुम्हारी बांसुरी हूं।” तो तुम परमात्मा का राग बजाते हो।

लेकिन, उसके लिए भी, विवेक रूपी मध्य बिंदु का उपयोग करना होगा: हर बार लौट करआप विवेक पर ही जाते हैं। जैसे, कुछ लोग हर तरह के गलत काम करते हैं और कहते हैं, “माँ, यह हमने आपके लिए किया।” ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कोई पीना चाहता है। वह कहता है, “मैं नशे में था क्योंकि माँ मैं आपकी मदद करना चाहता था।” या हिटलर कह सकता है कि, “मैंने इतने लोगों को मार डाला क्योंकि मैं उन सभी यहूदियों को हटाना चाहता था जिन्होंने ईसामसीह को मार डाला।” तो यह दायीं विशुद्धि आपको एक तरह का मन देता है जो हर बात को उचित ठहराने की कोशिश करता है और हर चीज को समझाने की कोशिश करता है, हर क्रिया को समझाया जा सकता है। “तुमने हत्या क्यों की?” “क्योंकि यह।” “आपने ऐसा क्यों किया?” “अमूक वज़ह होने के कारण।” एक बार जब आप अपने गलत कामों को सही ठहराना शुरू कर देते हैं, तो दायीं विशुद्धि आपके दिमाग तक चली जाती है। और फिर, आप जो कुछ भी करते हैं उसका कोई ना कोईऔचित्य होता है।
जैसे, अगर मैं कहूं कि अमेरिकी इस देश में आए, तो उन्होंने वास्तव में अन्य लोगों की जमीन लूट ली और अब बहुत अच्छी तरह से बस गए। अब, जब मैं ऐसा कहती हूं, तो उनमें से अधिकांश तुरंत बाईं विशुद्धि में चले जाएंगे। “ओह, हम बहुत दोषी हैं, हमने यह किया, हमने वह किया।” लेकिन एक वास्तविक सहज योगी ऐसा नहीं करेगा। एक वास्तविक सहज योगी, वह क्या करेगा, वह कहेगा, “ठीक है, यह मेरे पूर्वजों द्वारा किया गया है, मैंने नहीं किया। लेकिन मैं इसे सुधारने की कोशिश कर सकता हूं, मैं नस्लवाद से परे होने की कोशिश करूंगा; मैं इन लोगों की देखभाल करूंगा जिन्हें लूट लिया गया है, मैं उन्हें जो कुछ भी संभव होगा, देने की कोशिश करूंगा। आप इस तरह से सामना करते हैं, बज़ाय कि केवल यह कहने के कि, “ओह, मैं इतना दोषी हूं कि मेरे पूर्वजों ने यह और वह सब किया।” लेकिन आप इसके बारे में क्या कर रहे हैं?

जैसे मैं स्विट्ज़रलैंड गयी और मैंने कहा, “खुद को दोषी मत समझो।” तो, एक महिला ने कहा कि “मैं वियतनाम के लिए दोषी महसूस कर रही हूं।” मैंने कहा, “तुमने वहाँ क्या किया? आप वियतनाम के लिए दोषी क्यों महसूस कर रहे हैं, कम से कम आप वहां लड़ने तो नहीं गए? आपको इसके लिए दोषी क्यों महसूस हुआ?” तो, वह कहती है, “मैं सिर्फ दोषी महसूस कर रही हूं क्योंकि मुझे लगता है कि हमने गलत काम किया है।” मैंने कहा, “लेकिन अपने आप को ‘हम’ कैसे कहते हैं?” तो, यह भी एक और बिंदु है जो अविवेक से निकलता है कि हम अचानक एक व्यक्तित्व बन जाते हैं जो संपूर्ण का एक अभिन्न अंग है। इसलिए, हम सोचते हैं कि “ओह, हम अमेरिकन वैश्विक हैं।” ठीक है, कैसे? जिस दिन तुम वैश्विक बन जाओगे, उस दिन अधिकांश समस्याओं का समाधान हो जाएगा। वे रूसियों की ही तरह सबसे बड़े सिरदर्द हैं। दोनों ही पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द हैं। अगर वे वैश्विक बन जाते हैं, तो कोई समस्या नहीं है, कोई समस्या नहीं है क्योंकि तब वे प्यार बन जाते हैं।

लेकिन सिर्फ एक ऐसी स्थिति को मानकर जहां हम बस सोचते हैं कि, “हम हैं”, “हम”। “हम” कौन हैं? पति-पत्नी तो एक साथ नहीं रह पाते हैं। बच्चे और पिता एक साथ नहीं रह पाते। मां बच्चों के साथ नहीं रह पाती। हम क्या है”? हम कहाँ है”? ऐसे टुकड़े! वे कलम-चाकू या कुछ और, जैसे कौन-सा बर्तन खरीदा जाए, जैसी छोटी-छोटी चीज़ों पर लड़ेंगे। इसके लिए वे संघर्ष करेंगे। कैसे वे “हम” हैं? कोई मेल नहीं है, कोई मेल नहीं है। विशुद्धि चक्र इन सबके ठीक विपरीत है।

तो, शुरू से ही, यदि आप देखें कि एक व्यक्ति जो एक साकार आत्मा है, उसे सब कुछ एक नाटक के रूप में देखना चाहिए। बुराई का नाश भी जरूरी है, बुराई का खात्मा भी जरूरी है। यदि तुम बुराई को नहीं मारोगे, तो बुराई राज करेगी। क्या आपको लगता है कि हिटलर को बचाया जाना चाहिए था और उसे ईश्वर का प्रभारी बनाया जाना चाहिए था? उसे मारकर ही उसे बचाया गया है। चुंकि उसे नष्ट किया गया था, चुंकि सब कुछ नष्ट किया गया था, वह बच गया।

उनके जीवन से, कृष्ण के जीवन से यह समझना है कि सबसे प्राथमिक बात यही होती है ताकि आप लोगों के लिए, बुराई समाप्त हो जाए। तो, आपको क्या प्रार्थना करनी है कि, “हे परमात्मा, दुनिया की सभी बुराईयों को समाप्त करें, दुनिया के सभी विनाश, सभी मन जो हमारे विनाश का निर्माण करते हैं, कृपया इसे बेअसर करने का प्रयास करें।” एक सहज योगी को यही मांगना चाहिए। इसके बजाय, वे कभी-कभी ऐसे विचारों के साथ अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। यह उचित नहीं है। आपको खड़ा होना होगा और आपको कहना होगा, “यह गलत है। “हमें किसी को नष्ट नहीं करना है, हमें किसी को मारना नहीं है, हमें कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, “तुम उन सभी को मारो जो तुम्हारे संबंधी हैं, जो तुम्हारे मित्र हैं और जो तुम्हारे गुरु की तरह प्रतित होते हैं, लेकिन वे पहले ही मृत हैं।” श्रीकृष्ण ने ही कहा था, यह श्रीकृष्ण के अवतार ने कहा था। इसका मतलब यह नहीं है कि आप अर्जुन बनकर सभी को मारना शुरू कर दें, आप अर्जुन नहीं हैं।
इस तरह “आनंद मार्ग” [तांत्रिक आंदोलन], इस प्रकार का संगठन सामने आया, जिसने यह सोचकर सभी को मारना शुरू कर दिया कि उन्हें मारने का अधिकार है। कैसे? आपको सही और गलत का कोई बोध नहीं है। आप किसी को कैसे मार सकते हैं या किसी को कैसे बचा सकते हैं? सबसे पहले मारने की बजाय बचाने की कोशिश करें। मान लीजिए कि आपका सामना एक ऐसी नाव से हुआ है जो खतरे में है, लोग डूब रहे हैं और आप पाते हैं कि आपको लोगों को बचाना है। क्या तुम वहाँ के लोगों को मारोगे या उन्हें बचाने की कोशिश करोगे? अभी मारने का कोई अवसर नहीं है। आपको मारने की चिंता करने की जरूरत नहीं है, परमात्मा को वह काम करने दें। आपको जो करना है लोगों को बचाना है। आपको हर समय ज्यादा से ज्यादा बचाव करना होगा। और जो लोग गलत प्रकार के होते हैं, आप उनके बारे में भूल ही जायें। आप बस उन्हें बाहर निकालो। उन्हें दूर ले जाओ। उनसे कोई लेना-देना नहीं है। आपको जो अच्छा लगे वो करें, लेकिन उन्हें मारें नहीं।

तो, यह एक बात है जिसे सहजयोगियों के रूप में समझना होगा, कि आप यहां किसी को मारने, किसी को नष्ट करने, किसी को परेशान करने या कुछ अनुचित करने के लिए नहीं हैं। यहां तक ​​कि कठोर शब्द कहने की भी जरूरत नहीं है। परमात्मा उस सब की देखभाल करने जा रहें है। वह आज बहुत चिंतित है, आप मंच पर हैं और वह हर तरह से आपकी मदद करने के लिए इतना उत्सुक है क्योंकि आप उसका काम कर रहे हैं। लेकिन उसका काम करते हुए आप उसकी तलवार अपने हाथ में ले सभी को मारना शुरू नही कर दें।

यह एक बहुत ही सामान्य बात है जो सहज योग में, हम करने लगते हैं, मैंने देखा है कि लोग बहुत आक्रामक हो जाते हैं, वे बहुत आक्रामक तरीके से बात करते हैं। खासकर नए लोग जो किसी कार्यक्रम में आते हैं। उनके प्रति दयालु, भला, करुणामय, होने के बजाय, वे तुरंत कहेंगे, “तुम एक “भूत” हो! बहुत आम। आप मुझे कभी भी ऐसा करते हुए नहीं पाएंगे, है ना? फिर आप एक दूसरे पर भी हमला करना शुरू कर देते हैं, जो विशुद्धि के सिद्धांत के खिलाफ है। आपको आक्रमण नहीं करना है। आप देखिए, क्योंकि पूरी बात विवेक बन जाती है। विवेक क्या है, कूटनीति है। ईश्वरीय कूटनीति आपके विवेक से व्यक्त होती है। अगर आपके पास विवेक पुर्ण समझ है, तो फिर आप जानते हैं – यह आदमी खतरनाक है, आपको परेशान कर रहा है। अब यदि आप में विवेक है तो आप उस व्यक्ति को अपने बीच से इस प्रकार हटा दोगे कि फिर कोई चर्चा या विनाश न हो।

लेकिन इसके विपरीत, जोआप करते हैं वह उस व्यक्ति को चुनौती देने वाला होता है, और एक बड़ी लड़ाई शुरू हो जाती है। और सहजयोगी फिर लड़ते हैं, मैं आपको बताती हूं, कभी-कभी मुझे नहीं पता कि उनके झगड़े के बारे में क्या कहना है। तो विवेक होना चाहिए, समझना चाहिए। एक स्थिति विकसित होती है, उदाहरण के लिए, एक स्थिति विकसित होती है जहां आप पाते हैं कि कोई व्यक्ति आपसे कह रहा है, “देखो, इस व्यक्ति ने आपके बारे में ऐसा कहा है।” फिर वही व्यक्ति जाता है और दूसरे व्यक्ति से कहता है, “उस व्यक्ति ने तुम्हारे बारे में ऐसा कहा है।” तब आप मूल कारण का पता लगाने के बजाय झगड़ने लगते हैं, “क्यों? ऐसा क्यों हो रहा है, आपस में ऐसी स्थिति क्यों आ गई है। हम दोस्त थे, क्या हुआ है?” इसके बजाय, कोई शख्स लड़ने लगता है, गुस्सा हो जाता है। यह किसी साकार आत्मा के अभिव्यक्ति की निशानी नहीं है। साकार आत्माओं के भाव अत्यंत विवेकपूर्ण, नाजुक, सुंदर होने चाहिए।

किसी का भी इस बात पर ध्यान नहीं जाना चाहिए कि आप किसी भी तरह से प्रभाव डाल रहे हैं, और इस तरह आप इसे पूरा करेंगे। तो, श्री कृष्ण का अवतार, जैसा कि हम कहते हैं, दिव्य कूटनीति का अवतार है।

तो, वह खेलते है। आपको एक उदाहरण दें कि वह कैसे खेलते है।

एक राक्षस था, एक शैतान, जिसे शिव का आशीर्वाद था कि कोई भी उसे मार नहीं सकता। और केवल एक संत जिसने जीवन भर अपनी आँखें नहीं खोली हैं, यदि वह उस पर अपनी दृष्टि डाले, तो वह मारा जाएगा।

तो, एक संत थे जिनके पास आशीर्वाद था कि: “आप अपने योग में जाओ, “योग निद्रा” [नींद], अपनी योग निद्रा में सो जाओ, और एक बार जब आप अपनी आंखें खोलेंगे, जिस पर भी यह दृष्टि गिरेगी, ऐसा व्यक्ति मर जाएगा ।” “ठीक है।”

तो, श्री कृष्ण बहुत चतुर थे। वह इस शैतान से लड़ रहे थे और यह शैतान श्रीकृष्ण को मारने वाला था। और श्री कृष्ण इस सब के बारे में जानते थे, उनकी पृष्ठभूमि। इसलिए, वह मैदान से भागने लगे, इसलिए उसका नाम रणछोड़दास पड़ा, जो युद्ध के मैदान से भाग जाता है, उसे वास्तव में अपमानजनक माना जाता है, क्योंकि युद्ध के मैदान से भागना कोई बड़ी अच्छी बात नहीं है। तो, उन्होने कोई आपत्ति नहीं की, वह भाग गये और फिर यह शैतान उसका पीछा करने लगा। और वह उस गुफा में गये जहाँ यह महान संत अपने “योग निद्रा” में सो रहे थे। और उन्होने अपना शॉल उतार कर धीरे से, कोमलता से उस संत पर रख दिया और छिप गये।

तो, यह राक्षस उनके पीछे आ गया। उसने देखा कि वह वहीं लेटा हुआ है। उसने सोचा कि यह श्री कृष्ण थे। उसने कहा, “आह, तो अब, तुम थक गए हो, तुम यहाँ लेटे हो। अब आओ, अपनी आँखें खोलो!” और जैसे ही उसने थोड़ी ताकत से शॉल खींची, तुम देखो, यह योगी संत उठ गया और उसकी आँखों ने उसे देखा और वह राक्ष्स भस्म हो गया।

और उन्हें रणछोड़ नाम से बदनाम होने में कोई ऐतराज नहीं था। यही कूटनीति की निशानी है। तो उनका सारा विवेक जीवन भर भुमिका में रहता है। सारा विवेक, “उन्हे क्या करना चाहिए? क्या सही है? गलत क्या है?” है: उन्हे ऐसी समस्या नहीं है।

जब उन्हे अपनी शक्तियाँ अपने पास रखनी थीं, उन सभी को इस धरती पर लाया गया। तो, उन्होने एक चाल चली। उन्हे वो सारी शक्तियाँ स्त्रीयों के रूप में मिली हैं,जवान महिलाएं। और उन्होने एक राजा बनाया, तुम देखो, इन महिलाओं को अपने ही दरबार में घसीट ले गया ताकि वह उनका उपयोग कर सके। लेकिन वह उन्हें कभी छू नहीं सका। तो, श्री कृष्ण ने जाकर इस आदमी को हरा दिया। उसके पास औचित्य भी होना चाहिए; कुछ करने का उनके पास कोई धार्मिकऔचित्य भी होना चाहिए। इसलिए, उन्होने इस राजा को मार डाला, इन सभी महिलाओं को लाये और वे सभी उनकी पत्नियां बन गईं, तथाकथित। वे तरह-तरह की तरकिबेंअपनाते थे मैं आपको राधा की तरकिब बताती हूँ जो उन्होने खेली थी।

आज मैंने पोशाक राधा की तरह पहनी है, क्योंकि वह विराटांगना है, वही हमारी सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा करती है। वह महालक्ष्मी हैं और वे रक्षा के लिए इस तरह से साड़ी पहनती हैं। वह इस तरह पहनती है, जबकि वह अपना बायां हाथ तरफ का कंधा खुला छोड़ देती है क्योंकि यह महाकाली की शक्ति है और दाहिना हाथ तरफ का कंधा वह ढक देती है क्योंकि दाहिना बाजु महासरस्वती की शक्ति है, जिसका अर्थ है सृजन की शक्ति, सृजन चुंकि पहले ही हो चुका है: उसने बनाया है पृथ्वी और उसने मनुष्य बनाया है, सब कुछ हो गया है, अब, वह सृजन रुक गया है।

और भारत में, ब्रह्मदेव की पूजा नहीं की जाती है, सिवाय एक मंदिर के जहां वे ब्रह्मदेव की पूजा करते हैं, अन्यथा, ब्रह्मदेव का कोई मंदिर या कुछ भी नहीं है। तो, वह इस तरफ [दाईं बाजु] को ढक देती है, वह इसे अपने भीतर संजोये रखती है और वह अपनी बाईं बाजु को खोलती है। और उसके सामने उसके सभी शिष्यों के लिए पूरी सुरक्षा है। यह वह पूरी बड़ी “आंचल” [साड़ी का अंतिम टुकड़ा] बनाती है। आम तौर पर, “आंचल” इसके दूसरी तरफ होता है, जहां बच्चे को अंदर रखा जाता है, साड़ी में छुपाया जाता है। लेकिन इस साड़ी के इस प्र्कार में जो यहाँ है, बालक को उसके नीचे रखा जाता है, तो महालक्ष्मी का पूरा आरोहण होता है। और इसीलिए राधा की शक्तियों को दिखाया गया है।

तो, मैं आपको उनके बारे में आखिरी कहानी बताऊंगी जो राधा और श्री कृष्ण के बारे में इस बातचीत का निष्कर्ष होगी। कि, एक दिन, श्री कृष्ण की पत्नियों में से एक को नारद ने बहकाया, और नारद ने कहा, “देखो, कृष्ण तुमसे प्यार नहीं करते, वह केवल राधा से प्यार करते हैं। वह आपको सिर्फ कहानियां सुना रहा है कि वह आपसे प्यार करता है, कि आप उसकी पत्नियां हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। वह केवल राधा से जुड़े है। ”

तो, अफवाह, आप देखिए, महिलाओं में चली गईं। उन सभी को लगने लगा कि, “हे सच में, ऐसा ही है।” तो, उन्होंने जाकर श्री कृष्ण से कहा कि “आप हमसे प्यार नहीं करते, आप सिर्फ राधा से प्यार करते हो।” उन्होंने कहा, “आपको किसने बताया?” उन्होंने कहा, “नारद।” “नहीं, नहीं, आपको यह किसने बताया।” उन्होंने कहा, “नारद।” उन्होंने कहा, “नारद बस झूठ बोल रहे हैं, तुम देखो, वह सिर्फ तुम्हारे और मेरे बीच कुछ झगड़ा करवाने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए उनकी बात मत सुनो।” उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, यह सच है, हम इसे साबित कर सकते हैं।” उन्होंने कहा, “ठीक है। मुझे यह नहीं पता, लेकिन अभी मेरे पेट में भयानक दर्द हो रहा है, भयानक दर्द हो रहा है, मैं इससे उबर नहीं पा रहा हूँ।” ऐसे में वे सब परेशान हो गई। वे बोली, “क्या बात है? यह कैसा दर्द है, इस दर्द को दूर करने के लिए हम क्या कर सकते हैं?” उन्होंने कहा, “एक बहुत ही साधारण सी बात है कि पीने के लिए आपको अपने पैरों की धूल मुझे देनी होगी। यदि तुम अपने पैरों की धूलि निकालकर मुझे पीने को दे, तो मैं ठीक हो पाऊंगा।”

तो, इन महिलाओं ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि “पहले से ही, वह हमसे प्यार नहीं करते है और फिर अगर हम उसे अपने पैरों की धूल देते हैं, तो हम पाप करेंगे और फिर यह बहुत बुरा होगा। तो, उसके हाथों में खेलने का क्या फायदा, वह बहुत कूटनीतिक है, इसके बारे में भूल जाना बेहतर है। ”

उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, नहीं, हम ऐसा पाप नहीं करना चाहते हैं, आपको हमारे पैरों की धूल देना, यह गैर-प्रोटोकॉल है, हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये, आप हमें गलत बातें नहीं सिखाएं। ” तुम देखो, तो उन्होंने उसे रोक दिया।

तो नारद आए, उन्होंने कहा, “अब क्या करें, आपके पेट में दर्द से कैसे छुटकारा पाएं।” उन्होने कहा, “एक ही रास्ता है राधा के पास जाना और उसे बताना कि उनके पेट में दर्द है और यह दवा है।”

तो, वह राधाजी के पास गये और उसने उससे कहा कि, “देखो, श्री कृष्ण बहुत बीमार हैं, उनके पेट में दर्द है और जो आपको करना है अपने पैरों की धूल देना है।” उसने कहा, “हाँ, क्यों नहीं? इसे लें। बेशक, उस दर्द के लिए क्यों नहीं?” तो, उन्होंने कहा, “क्या आप अपने पुण्य के बारे में चिंतित नहीं हैं? क्या आप चिंतित नहीं हैं कि आप पाप कर रही हैं?” उन्होंने कहा, “आप इस श्री कृष्ण को नहीं जानते हैं, उन्हें पाप का बिल्कुल भी एहसास नहीं है। वह मुझसे सुबह से शाम तक पाप करवाता है। मुझे पापों की क्या चिंता है? मैं इसके बारे में चिंता करने वाली नहीं हूं। बेहतर होगा कि आप इसे उसके लिए ले लें, यह उसकी चिंता है।” तो, उन्होंने राधा के चरणों की धूल ली और उसे श्री कृष्ण के पास ले गए।

श्री कृष्ण: “क्या उसने तुम्हें दे दिया।” उन्होने पुछा, “क्या उसने तुम्हें दिया?” उसने कहा, “हाँ, उसने दिया है, मुझे आश्चर्य है, लेकिन वह अपने पापों के बारे में चिंतित नहीं है, वह चिंतित नहीं है।” उन्होंने कहा, “यह मैं जानता हूं।” तो, उन्होंने कहा, “लेकिन आप इसे कैसे समझाते हैं?” उन्होंने कहा, “आप अभी समझेंगे।” उन्होंने राधा के चरणों की धूल ली, आप देखिए राधा के पैर धूल भरे थे या वृंदावन [पवित्र स्थान जहां वे पवित्र तुलसी या तुलसी उगाते हैं] की धूल से भरे हुए थे, और वृंदावन को पीली मिट्टी प्राप्त है, आप देखिए, मिट्टी पीली है और वह सब पीली वस्तु उसके पांवों पर थी, जिसे उस ने हटाकर ले लिया था। तो, जब श्री कृष्ण ने उस धूल को पी लिया, नारद ने श्री कृष्ण के हृदय में देखा, राधा उनके हृदय कमल पर लेटी हुई थी और अपने पैरों से खेल रही थी।कमल का पराग था, कमल का पराग उसके चरण छू रहा था और उसे पीला कर रहा था। यही राधा ने कहा कि “ऐसा है कि जब मैं उनके दिल में ही हूँ, मेरे पैर उन
के ह्रदय में हैं, तो मैं क्या पाप कर सकती हूँ?” और जब महिलाओं ने यह सुना, तो उन्होंने महसूस किया कि श्री कृष्ण के बारे में उनकी समझअभी भी पर्याप्त नहीं है। उन्हें समझने के लिए उन्हें राधा बनना होगा। और इस तरह से वह कूटनीति करते है, यहाँ-वहाँ सरल तरकीबे हैं, जिसके द्वारा उन्होने यह किया।

और लीला की सुंदरता का परिचय देने के लिए उन्होंने रास की शुरुआत की। रास है, “रा” ऊर्जा है, “स” का अर्थ है “साथ”। तो, उन्होंने राधा को नृत्य कराया- उनके साथ खड़े हो, उन्हें शक्ति दी और सभी ने नृत्य किया। और वे ऐसे लग रहे थे जैसे राधा और कृष्ण नाच रहे हों। और यही उन्होंने शुरू किया। और फिर इसे पुर्णता पर पहुंचाने के लिए, उन्होंने होली का त्योहार बनाया जिसमें उन्होंने कहा, “सब कुछ छोड़ दो! एक मिनट के लिए तुम हर चीज़ का त्याग कर दो।” और आजकल वह परित्याग इस रूप में परिवर्तित हो गया है कि- (यानि यह केवल एक दिन के लिए ही आपको हर चीज़ से दूर होना था,) यहाँ तो साल भर की होली हो गई है। तो, लोग श्रीकृष्ण और राधा के बिना ही पुरे साल भर की ही एक होली में व्यस्त हैं।

तो ऐसी जगह की क्या स्थिति होगी? और इसलिए मुझे लगता है, ऐसा होता है कि जब आप इन सभी बेवकूफी भरी बातों से दूसरों को आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, तो केवल “भूतों” को ही आकर्षित होना पड़ता है और वे आप में आ जाते हैं। और एक बार जब वे आप में आ जाते हैं, तो आप अज़ीब से हो जाते हैं, आप नहीं जानते कि आप ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं, घटनाएं इस तरह से क्यों काम करती हैं। इसलिए हमें यह समझना होगा कि हमें ईश्वर के लिये आकर्षक होना है। और यदि आपके पास आपकी आत्मा है तब आप केवल परमेश्वर के लिए आकर्षक होंगे। अगर आत्मा चमक रही है, तभी आप आकर्षक हो सकते हैं।

तो परमात्मा आप सबको आशिर्वादित करे।